कुल पेज दृश्य

रविवार, 12 सितंबर 2021

लेख: तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में

 आलेख:

तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
राष्ट्र गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा:
किसी राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतीक संविधान, ध्वज, राष्ट्रगान, राज भाषा, तथा राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह (पशु, पक्षी आदि) होते हैं. संविधान के अनुसार भारत लोक कल्याणकारी गणराज्य है, तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज है, 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान है, हिंदी राज भाषा है, सिंह राष्ट्रीय पशु तथा मयूर राष्ट्रीय पक्षी है. राज भाषा में सकल रज-काज किया जाना राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है. दुर्भाग्य से भारत से अंग्रेजी राज्य समाप्त होने के बाद भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व समाप्त न हो सका. दलीय चुनावों पर आधारित राजनीति ने भाषाई विवादों को बढ़ावा दिया और अंग्रेजी को सीमित समय के लिये शिक्षा माध्यम के रूप में स्वीकारा गया. यह अवधि कभी समाप्त न हो सकी.
हिंदी का महत्त्व:
आज भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा एकाधिक अवसरों पर अमरीकियों को हिंदी सीखने के लिये सचेत करते हुए कह चुके हैं कि हिंदी सीखे बिना भविष्य में काम नहीं चलेगा. यह सलाह अकारण नहीं है. भारत को उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में सकल विश्व में जाना जा रहा है. संस्कृत तथा उस पर आधारित हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को सन्देश भेजे जाने की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है.
भारत में हिंदी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा:
भारत में भले ही अंग्रेजी बोलना सम्मान की बात हो पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेजी का इतना महत्त्व नहीं है. हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेजी माध्यम का चयन किया जाना है. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मात्र-भाषा को ग्रहण करता है. अंग्रेजी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है. अतः भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है.
प्रत्येक भाषा के विकास के कई सोपान होते हैं. कोई भाषा शैशवावस्था से शनैः- शनैः विकसित होती हुई, हर पल प्रौढता और परिपक्वता की ओर अग्रसर होती है. पूर्ण विकसित और परिपक्व भाषा की जीवन्तता और प्राणवत्ता उसके दैनंदिन व्यवहार या प्रयोग पर निर्भर होती है. भाषा की व्यवहारिकता का मानदण्ड जनता होती है क्योंकि आम जन ही किसी भाषा का प्रयोग करते हैं. जो भाषा लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में समा जाती है, वह चिरायु हो जाती है. जिस भाषा में समयानुसार अपने को ढालने, विचारों व भावों को सरलता और सहजता से अभिव्यक्त करने, आम लोगों की भावनाओं तथा ज्ञान-विज्ञानं की समस्त शाखाओं व विभागों की विषय वस्तु को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है, वह जन-व्यवहार का अभिन्न अंग बन जाती है. इस दृष्टि से हिन्दी सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में सदा से छाई रही है.
आज से ६४ वर्ष पूर्व, १४ सितम्बर, सन् १९४७ को जब हमारे तत्कालीन नेताओं, बुध्दिजीवियों ने जब बहुत सोच-विचार के बाद सबकी सहमति से हिन्दी को आज़ाद हिन्दुस्तान की राजकाज और राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया तो उस निर्णय के ठोस आधार थे –
१) हिंदी भारत के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है, जो विन्ध्याचल के उत्तर में बसे सात राज्यों में बोली जाती है
२) अन्य प्रान्तों की भाषाओं और हिन्दी के शब्द भण्डार में इतनी अधिक समानता है कि वह सरलता से सीखी जा सकती है,
३) वह विज्ञान और तकनीकी जगत की भी एक सशक्त और समर्थ भाषा बनने की क्षमता रखती है, (आज तकनीकि सूचना व संचार तंत्र की समर्थ भाषा है)
४) यह अन्य भाषाओं की अपेक्षा सर्वाधिक व्यवहार में प्रयुक्त होने के कारण जीवंत भाषा है,
५) व्याकरण भी जटिल नहीं है,
६) लिपि भी सुगम व वैज्ञानिक है,
७) लिपि मुद्रण सुलभ है,
८) सबसे महत्वपूर्ण बात - भारतीय संस्कृति, विचारों और भावनाओं की संवाहक है.
हिंदी भाषा उपेक्षित होने का कारण:
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. अतः बच्चों को समझने के स्थान पर रटना होता है जो अवैज्ञानिक है. ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं तथा भाषिक कमजोरी के कारण खुद को समुचित तरीके अभिव्यक्त नहीं कर पाते और पिछड़ जाते हैं. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
हिंदी की सामर्थ्य:
हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं, नियमों तथा घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में करना कठिन माना जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. हिंदी की शब्द सम्पदा अपार है. हिंदी सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी है. उसमें से लगातार कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं. हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है, जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है.
सामान्य तथा तकनीकी भाषा:
जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है. आज तकनीकि विकास के युग में, कुछ भी दायरों में नहीं बंधा हुआ है. जो भी जानदार है, शानदार है, अनूठापन लिये है, जिसमें जनसमाज को अपनी ओर खींचने का दम है वह सहज ही और शीघ्र ही भूमंडलीकृत और वैश्विक हो जाता है. इस प्रक्रिया के तहत आज हिन्दी वैश्विक भाषा है. कोई भी सक्रिय भाषा, रचनात्मक प्रक्रिया – चाहे वह लेखन हो, चित्रकला हो,संगीत हो, नृत्यकला हो या चित्रपट हो – सभी युग-परिवेश से प्रभावित होते हैं. भूमंडलीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें दुनिया तेज़ी से सिमटती जा रही है. विश्व के देश परस्पर निकट आते जा रहे हैं. इसलिए ही आज दुनिया को ‘विश्वग्राम’ कहा जा रहा है. इस सबके पीछे ‘सूचना और संचार’ क्रान्ति की शक्ति है, जिसमें ‘इंटरनेट’ की भूमिका बड़ी अहम है. इसमे कोई दो राय नहीं कि इस जगत में हिन्दी अपना सिक्का जमा चुकी है.
हिंदी संबंधी मूल अवधारणाएं:
इस विमर्श का श्री गणेश करते हुए हम कुछ मूल बातों भाषा, लिपि, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, लिपि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन, शब्द-भेद, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे जैसी मूल अवधारणाओं को जानें.
भाषा(लैंग्वेज) :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ. आदि मानव को प्राकृतिक घटनाओं (वर्षा, तूफ़ान, जल या वायु का प्रवाह), पशु-पक्षियों की बोली आदि को सुनकर हर्ष, भय, शांति आदि की अनुभूति हुई. इन ध्वनियों की नकलकर उसने बोलना, एक-दूसरे को पुकारना, भगाना, स्नेह-क्रोध आदि की अभिव्यक्ति करना सदियों में सीखा.
लिपि (स्क्रिप्ट):
कहे हुए को अंकित कर स्मरण रखने अथवा अनुपस्थित साथी को बताने के लिये हर ध्वनि हेतु अलग-अलग संकेत निश्चित कर अंकित करने की कला सीखकर मनुष्य शेष सभी जीवों से अधिक उन्नत हो सका. इन संकेतों की संख्या बढ़ने व व्यवस्थित रूप ग्रहण करने ने लिपि को जन्म दिया. एक ही अनुभूति के लिये अलग- अलग मानव समूहों में अलग-अलग ध्वनि तथा संकेत बनने तथा आपस में संपर्क न होने से विविध भाषाओँ और लिपियों का जन्म हुआ.
चित्रगुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित तथा आजकल टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित होता है. हिंदी लेखन हेतु प्रयुक्त देवनागरी लिपि में संयुक्त अक्षरों व मात्राओं का संतुलित प्रयोग कर कम से कम स्थान में अंकित किया जा सकता है जबकि मात्रा न होने पर रोमन लिपि में वही शब्द लिखते समय मात्रा के स्थान पर वर्ण का प्रयोग करने पर अधिक स्थान, समय व श्रम लगता है. अरबी मूल की लिपियों में अनेक ध्वनियों के लेकहं हेतु अक्षर नहीं हैं.
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.
व्याकरण (ग्रामर ):
व्याकरण (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर(वर्ड) :
हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं. स्वरों तथा व्यंजनों का निर्धारण ध्वनि विज्ञान के अनुकूल उनके उच्चारण के स्थान से किया जाना हिंदी का वैशिष्ट्य है जो अन्य भाषाओँ में नहीं है.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ.
स्वर के दो प्रकार:
१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.
१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं.
अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समर्थ होती है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.
१. मूल शब्द:
भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.
२. विकसित शब्द:
आवश्यकता आविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नये-नये शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नये शब्द सामने आये.संगणक के अविष्कार के बाद संबंधित तकनालाजी को अभिव्यक्त करने के नये शब्द बनाये गये.
३. आयातित शब्द:
किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलना पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भाषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किये हैं. भारत पर यवनों के हमलों के समय फारस तथा अरब से आये सिपाहियों तथा भारतीय जन समुदायों के बीच शब्दों के आदान-प्रदान से उर्दू का जन्म हुआ. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.
हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.
१.यथावत:
मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन (station) लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.
२.परिवर्तित:
मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .
३. पर्यायवाची:
जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नये शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.
४. नये शब्द:
ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव आदि के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नये शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
अंग्रेजी के नये शब्दकोशों में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्द कोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दी प्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जा सके.
शब्दों के विशिष्ट अर्थ:
तकनीकी विषयों व गतिविधियों को हिंदी भाषा के माध्यम से संचालित करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनकी पहुँच असंख्य लोगों तक हो सकेगी. हिंदी में तकनीकी क्षेत्र में शब्दों के विशिष अर्थ सुनिश्चित किये जने की महती आवश्यकता है. उदाहरण के लिये अंग्रेजी के दो शब्दों 'शेप' और 'साइज़' का अर्थ हिंदी में सामन्यतः 'आकार' किया जाता है किन्तु विज्ञान में दोनों मूल शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होते हैं. 'शेप' से आकृति और साइज़ से बड़े-छोटे होने का बोध होता है. हिंदी शब्दकोष में आकार और आकृति समानार्थी हैं. अतः साइज़ के लिये एक विशेष शब्द 'परिमाप' निर्धारित किया गया.
निर्माण सामग्री के छन्नी परीक्षण में अंग्रेजी में 'रिटेंड ऑन सीव' तथा 'पास्ड फ्रॉम सीव' का प्रयोग होता है. हिंदी में इस क्रिया से जुड़ा शब्द 'छानन' उपयोगी पदार्थ के लिये है. अतः उक्त दोनों शब्दों के लिये उपयुक्त शब्द खोजे जाने चाहिए. रसायन शास्त्र में प्रयुक्त 'कंसंट्रेटेड' के लिये हिंदी में गाढ़ा, सान्द्र, तेज, तीव्र आदि तथा 'डाईल्यूट' के लिये तनु, पतला, मंद, हल्का, मृदु आदि शब्दों का प्रयोग विविध लेखकों द्वारा किया जाना भ्रमित करता है.
'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' का दायित्व:
तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्र भाषा में सम्पादित करने के साथ-साथ अर्थ विशेष में प्रयोग किये जानेवाले शब्दों के लिये विशेष पर्याय निर्धारित करने का कार्य उस तकनीक की प्रतिनिधि संस्था को करना चाहिए. अभियांत्रिकी के क्षेत्र में निस्संदेह 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' अग्रणी संस्था है. इसलिए अभियांत्रकी शब्द कोष तैयार करने का दायित्व इसी का है. सरकार द्वारा शब्द कोष बनाये जाने की प्रक्रिया का हश्र किताबी तथा अव्यवहारिक शब्दों की भरमार के रूप में होता है. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये साहित्यिक समझ, रूचि, ज्ञान और समर्पण के धनी अभियंताओं को विविध शाखाओं / क्षेत्रों से चुना जाये तथा पत्रिका के हर अंक में तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली और शब्द कोष प्रकाशित किया जाना अनिवार्य है. पत्रिका के हर अंक में तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन की प्रतियोगिता भी होना चाहिए. विविध अभियांत्रिकी शाखाओं के शब्दकोशों तथा हिंदी पुस्तकों का प्रकाशन करने की दिशा में भी 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' को आगे आना होगा.
अभियंताओं का दायित्व:
हम अभियंताओं को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु हिंदी भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
भारतीय अंतरजाल उपभोक्ताओं के हाल ही में हुए गए एक सर्वे के अनुसार ४५% लोग हिन्दी वेबसाईट देखते हैं, २५% अन्य भारतीय भाषाओं में वैब सामग्री पढना पसंद करते हैं और मात्र ३०% अंगरेजी की वेबसाईट देखते हैं. यह तथ्य उन लोगों की आँख खोलने के लिए पर्याप्त है जो वर्ल्ड वाइड वेब / डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू को राजसी अंगरेजी का पर्यायवाची माने बैठे हैं. गूगल के प्रमुख कार्यकारी एरिक श्मिडट के अनुसार अब से ५-६ वर्ष के अंदर भारत विश्व का सबसे बड़ा आई. टी. बाज़ार होगा, न कि चीन. यही कारण है कि हिन्दी आज विश्व की तीन प्रथम भाषाओं में से- तीसरे से दूसरे स्थान पर आ गयी है. गूगल ने सर्च इंजिन के लिए हिंदी इंटरफेस जारी किया है. माइक्रो सोफ्ट ने भी हिन्दी और अन्य प्रांतीय भाषाओं की महत्ता को स्वीकारा है. विकीपीडिया के अनुसार चीनी विकीपीडिया यदि २.५० करोड परिणाम देता है तो हिन्दी विकिपीडिया ६ करोड परिणाम देता है.
अतः हिंदी की सामर्थ्य उसे विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करा रही है. प्रश्न यह है की हम एक भारतीय, एक हिंदीभाषी और एक अभियंता के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन कितना, कैसे और कब करते हैं.
१२-९-२०१६
***

नवगीत, हिंदी मैया

नवगीत:
संजीव
*
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
शानदार सम्मलेन होता
किन्तु न इसमें जान है.
बुंदेली को जगह नहीं है
न ही मालवी-मान है.
रुद्ध प्रवेश निमाड़ी का है
छत्तीसगढ़ी न श्लाघ्य है
बृज, अवधी, मैथिली न पूछो
हल्बी का न निशान है.
भोजपुरी को भूल
नहीं क्या
घिरते हैं हम भूल में?
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
महीयसी को बिठलाया है
प्रेस गैलरी द्वार पर.
भारतेंदु क्या छोड़ गये हैं
सम्मेलन ही हारकर?
मातृशक्ति की अनदेखी
क्यों संतानें ही करती हैं?
घाघ-भड्डरी को बिसराया
देशजता से रार कर?
बिंधी हुई है
हिंदी कलिका
अंग्रेजी के शूल में
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
रास, राई, बंबुलिया रोये
जगनिक-आल्हा यहाँ नहीं.
भगतें, जस, कजरी गायब हैं
गीत बटोही मिला नहीं.
सुआ गीत, पंथी या फागें
बिन हिंदी है कहाँ कहो?
जड़ बिसराकर पत्ते गिनते
माटी का संग मिला नहीं।
ताल-मेल बिन
सपने सारे
मिल जाएंगे धूल में.
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
(१०-९-१५ को विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में उद्घाटन के पूर्व लिखा गया)
***
नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.
घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.
ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*

नवगीत:
हिंदी की जय हो...
संजीव 'सलिल'
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
***
दोहा सलिला:
हिंदी वंदना
संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
*
हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..
हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
*
कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
*
सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
*
सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
*
मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
*
हिंदी दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
****

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
*
तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
*
जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
*
करना है साहित्य बिन, भाषा का व्यापार
भाषा का करती 'सलिल', सत्ता बंटाधार
*
मनमानी करते सदा, सत्ताधारी लोग
अब भाषा के भोग का, इन्हें लगा है रोग
*
करता है मन-प्राण जब, अर्पित रचनाकार
तब भाषा की मृदा से, रचना ले आकार
*
भाषा तन साहित्य की, आत्मा बिन निष्प्राण
शिवा रहित शिव शव सदृश, धनुष बिना ज्यों बाण
*
भाषा रथ को हाँकता, सत्ता सूत अजान
दिशा-दशा साहित्य दे, कैसे? दूर सुजान
*
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
*
तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
*
जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
*
जो अच्छा उसको दिखे, अच्छा सब संसार
धन्य भाग्य जो पा रहा, 'सलिल' स्नेह उपहार
*
शब्दों के संसार में, मिल जाते हैं मीत
पता न चलता समय का, कब जाता दिन बीत
*
शरण मिली कमलेश की, 'सलिल' हुआ है धन्य
दिव्या कविता सा नहीं, दूज मीत अनन्य
*
१२-९-२०१५

शनिवार, 11 सितंबर 2021

बघेली हाइकु

बघेली हाइकु
*
जिनखें हाथें
किस्मत के चाभी
बड़े दलाल
*
आम के आम
नेता करै कमाल
गोई के दाम
*
सुशांत-रिया
खबरचियन के
बाप औ' माई
*
लागत हय
लिपा पुता चिकन
बाहेर घर
*
बाँचै किताब
आँसू के अनुबाद
आम जनता
*
११-९-२०२० 

छंद आग्नेय महापुराण

छंद चर्चा:


आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सारका कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।
[आभार: कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]
***


विमर्श: पुराणों में क्या है???

*
सामान्य धारणा है कि वेद-पुराण-उपनिषद आदि धार्मिक ग्रंथ हैं किंतु वास्तविकता सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: इनमें जीवन से जुड़े हर पक्ष विज्ञान, कला, याँत्रिकी, चिकित्सा, सामाजिक, आर्थिक आदि विषयों का विधिवत वर्णन है। अग्नि पुराण में साहित्य से संबंधित कुछ जानकारी निम्नानुसार है।
अध्याय ३२९- गायत्री छंद, अध्याय ३३०- जगती छंद, अध्याय ३३१- वैदिक छंद, अध्याय ३३२- विषम छंद, अध्याय ३३३अर्द्धसमवृत्त छंद, अध्याय ३३४- समवृत्त छंद। अध्याय ३३५- प्रस्तार निरूपण, अध्याय ३३६ शिक्षा निरूपण, अध्याय ३३७ काव्य, अध्याय ३३८ नाटक, अध्याय ३३९ रस, भाव, नायक, अध्याय ३४० रीति, अध्याय ३४१ नृत्य, अध्याय ३४२अभिनय-अलंकार, अध्याय ३४३ शब्दालंकार, अध्याय ३४४ अर्थालंकार, अध्याय ३४५ शब्दार्थोभयालंकार, अध्याय ३४६ काव्य गुण, ३४७ काव्य दोष, अध्याय ३४८ एकाक्षर कोष, अध्याय ३४९ व्याकरण सार, अध्याय ३३८ नाटक, संधि, अध्याय ३५१-३५३ लिंग, अध्याय ३५४ कारक, अध्याय ३५५ समास, अध्याय ३५६ प्रत्यय, अध्याय ३५७ शब्द रूप, अध्याय ३५८ विभक्ति, अध्याय ३५९ कृदंत, अध्याय ३६० स्वर्ग-पाताल, अध्याय ३६१ अव्यय।
अध्याय ३२९- गायत्री आदि छंद।
अध्याय ३३०- जगती, त्रिष्टुप, उष्णिक, ककुप उष्णिक, त्रिपाद अनुष्टुप, बृहती, उरो बृहती, न्यंगुसरणी बृहती, पुरस्ताद बृहती, पंक्ति, सतपंक्ति, आस्तार पंक्ति, संस्तार पंक्ति, अक्षर पंक्ति, पद पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती-ज्योतिष्मती, पुरस्ताज्ज्योति, उपरिष्टाज्ज्योसि, शंकुमती, ककुदमती, यवमध्य छंद।
अध्याय ३३१- वैदिक छंद: उत्कृति, अभिकृति, विकृति, प्रकृति, अधिकृति, धृति, अत्यष्टि, आश्ती, अतिशक्वरि, शक्वरि, अतिजगती। लौकिक छंद: त्रिष्टुप, बृहती, अनुष्टुप, उष्णिक, गायत्री, सुप्रतिष्ठा, प्रतिष्ठा, मध्या, अत्युक्तात्युक्त, आदि छंद। छंद के ३ प्रकार गण छंद, मात्र छंद, अक्षर छंद। छंद का चौथाई भाग पाद या चरण। गण, आर्य, गीति, उपगीति, उद्गीति, आर्यागीति। मात्रा छंद- वैतालीय, औपच्छंदसक, प्राच्य वृत्ति, उदीच्य वृत्ति, प्रवृत्तिक, चारुहासिनी, अपरांतिका, मात्रासमक, वानवसिका, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, पादाकुवक, गीतयार्या, ज्योति, सौम्या, चूलिका।
अध्याय ३३२- विषम वृत्त: समानी, प्रमाणी, वितान, वक्त्र, अनुश्तुब्वक्त्र, विपुला, पदचतुरुर्ध्व, आपीड़, प्रत्यापीड़, मंजरी, लवली, अमृतधारा, उद्गता, सौरभ, ललित, प्रचुपित, वर्धमान, विराषभ छंद।
अध्याय ३३३अर्द्धसम वृत्त: उपचित्रक, द्रुतमध्या, वेगवती, भद्रविराट, केतुमती, आख्यानिकी, विपरीताख्यानिकी, हरिणप्लुता, अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा, यवमती, शिखा छंद।
अध्याय ३३४- समवृत्त:।
[आभार: कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]
***

कुण्डलिया : दन्त-पंक्ति, मुक्तक, बुंदेली दोहा

कुण्डलिया :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
संजीव 'सलिल'
*
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.
***
मुक्तक:
*
मरघट में है भीड़ पनघट है वीरान
मोल नगद का न्यून है उधार की शान
चमक-दमक की चाह हुई सादगी मौन
सब अपने में लीन किसको पूछे कौन
*
मुक्तक
*
जन्म दिवस पर बहुत बधाई
पग-तल तुमने मन्ज़िल पाई
शतजीवी हो, गगन छू सको
खुशियों की नित कर पहुनाई
*
अपनी ख्वाहिश नहीं मरने देना
मन को दुनिया से न डरने देना
हौसलों को बुलंद ही रखना
जी जो चाहे उसे करने देना
*
बुंदेली दोहांजलि
संजीव
*
जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर
अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
*
खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
*
बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
*
ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय
११-९-२०१४
*

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

हम इश्क के बंदे

लेख
'हम इश्क के बंदे' हैं : प्रेमपरक कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की आधारशिला रखनेवाले स्वनामधन्य साहित्यकारों में रामानुजलाल जी श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' चिरस्मरणीय हैं। कवि, गीतकार, निबंधकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और प्रकाशक हर भूमिका में वे अपनी मिसाल आप रहे। जन जन के प्रिय 'कक्का जी' ने जब जो किया जमकर, डटकर और बेहिचक किया। दोहरे जीवन मूल्य और दोहरे चेहरे उन्हें कभी नहीं भाए। कक्का जी के जीवन में सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव निरन्तर आते-जाते रहे पर वे सबको हक्का-बक्का छोड़ते हुए अविचलित भाव से जब जो करना होता, करते जाते। अट्ठइसा, रायबरेली उत्तर प्रदेश के जमींदार मुंशी गंगादीन नवाब के अत्याचारों से बचने के लिए प्रयाग होते हुए रीवा पहुँचे। महाराज रीवा ने उन्हें उमरिया के सूबेदार का खासकलम नियुक्त कर दिया। मुंशी जी के छोटे पुत्र मुंशी शिवदीन अपनी ससुराल कटनी से ९ मील दूर बिलहरी में गृह जामाता हो गए। उनके छोटे पुत्र लक्ष्मण प्रसाद जी का विवाह ग्राम कौड़िया के प्रतिष्ठित बख्शी परिवार की गेंदा बाई से हुआ। लक्ष्मण प्रसाद जी प्राथमिक और माध्यमिक प्राध्यापक विद्यालयों में प्राध्यापक रहे, आपके शिष्यों में रायबहादुर हीरालाल राय का नाम उल्लेखनीय है। लक्ष्मण प्रसाद जी की सातवीं संतान रामानुज लाल जी का जन्म हरतालिका तीज २८ अगस्त १८९८ को सिहोरा में हुआ। सन १९०० के लगभग लक्ष्मण प्रसाद राजनाँदगाँव के अवयस्क राजा राजेंद्र दास जी के शिक्षक हो गए। रामानुज लाल जी का शैशव और बचपन राजपरिवार की छत्रछाया में बीता। इस काल के साथी और अनुभव कालान्तर में उनकी कहानियों में प्रगट होते रहे। बचपन में हुई अनेक दुर्घटनाएँ रामानुजलाल जी के कथा साहित्य का हिस्सा बनीं। विद्यार्थी काल में मुस्लिम आबादी के बीच बैजनाथपारा में रहने के कारण रामानुजलाल जी सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्त रह सके। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' शीर्षक कथा संग्रह में उनकी १२ प्रतिनिधि कहानियाँ सम्मिलित हैं। वर्ष १९६० में प्रकाशित और बहुचर्चित यह संकलन ६० वर्ष बाद पुनर्प्रकाशित होना एक असामान्य और असाधारण घटना है। हिंदी साहित्य पढ़ रही नई पीढ़ी रामानुजलाल जी का नाम बमुश्किल याद भी करे तो कवि के रूप में ही याद करेगी। रामानुज लाल जी सशक्त कहानीकार भी थे, यह इस कृति को पढ़ने के बाद मानना ही होगा। यह अवश्य है कि कहानी विधा अब बहुत बदल गई है। कहानी कहने की जो कला रामानुजलाल जी में थी, वह आज भी उतनी ही लोकप्रिय होगी, जितनी तब थी।  

'हम इश्क़ के बंदे हैं' कहानी का नायक अज़ीज़, भाषा तथा घटनाक्रम, कोलकाता में हुई ठगी तथा मालिक के न पहुंचने पर भी उनकी शोहरत के किस्से सुनकर तरक्की पाने का घटनाक्रम राजनाँदगाँव के दरबार में हुई घटनाओं का रूपांतरण ही है। कहानी में उत्सुकता और रहस्यात्मकता पाठक को बांधे रखती है।    

पागल हथिनी बिजली से मुठभेड़ की घटना पर हिंदी-अंग्रेजी में लिखी गई उनकी कहानी प्रकाशित और चर्चित हुई। कथा नायिका हथिनी बिजली भी राजनाँदगाँव राजदरबार से ही जुड़ी हुई थी। 

'वीर-मंडल की महाविद्या, महामाया नहीं 
बाली की वनिता न समझो, जीव की जाया नहीं 
सत्यसागर, सूरमा, हरिचंद की रानी नहीं 
आपने यह पाँचवी तारा अभी जानी नहीं'  

यह पद्यांश क्या किसी कहानी का आरंभ हो सकता है? सामान्यत: नहीं किन्तु रामानुजलाल जी इसी से बिजली कहानी का श्री गणेश करते हैं। पाँचवी तारा को जानने की उत्सुकता, पाठक के मन में जगाने के बाद कथाकार रहस्योद्घाटन करता है कि बिजली ही पाँचवी तारा है।बिजली के पराक्रम और पागलपन का चित्रण करते हुए कथाकार बिजली के सामने प्राण संकट में पड़ने और तंग गली में घुसकर बचने की घटना इस तरह कहता है की पाठक की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह जाए। गजराज मोती और बिजली के रोचक संवाद कहानीकार की कथा कौशल की साक्षी देते हैं। यहाँ भी दरबारों में प्रतिष्ठित वाक् विशारदों की रोचक झलक दृष्टव्य है। मोती के प्रणय जाल में भटककर बिजली का गुलाम बनना, चतुरता से मोती को मौत के घाट उतारना, पागलपन का दौरा पड़ने पर बिसाहिन के मकान को क्षति पहुँचाना और अंत में बिजली का  न रहना, हर घटना पाठक को चौंकाती है। बुंदेलखंड में अल्हैत 'अब आगे का कौन हवाल?' गाकर श्रोता के मन में जैसी उत्सुकता जगाते हैं, वैसी ही उत्सुकता जागकर कथा-क्रम को बढ़ाना रामानुज लाल जी की विशेषता है। 

संग्रह की तीसरी कहानी 'कहानी चक्र' एक क्लर्क और एक ओवरसियर दो दोस्तों के माध्यम से आगे बढ़ती है। दाम्पत्य जीवन में संदेह का बीज किस तरह विष वल्लरी बनकर मन का अमन-चैन नष्ट कर देता है, यही इस कहानी का विषय है। घटनाक्रम और कहन का अनूठापन इस कहानी को ख़ास बनाती है। 

आदिवासी दंपत्ति रूपसाय और रुक्मिन की प्रणय गाथा 'मूंगे की माला' कहानी के केंद्र में है। जमींदारों के कारिंदों का अमानुषिक अत्याचार, सुखी दंपत्ति का नीड़ और जीवन नष्ट होना, प्रतिक्रिया स्वरूप रूपसाय का विप्लवी हो जाना, बरसों बाद बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन होने तक जारी रहा है। रूपसाय अत्याचारी दीवान को वह मारने जा रहा था तभी दीवान अंतिम समय आया जान कर 'रुक्की' का नाम लेकर चीत्कार करता है और बदले की आग में जल रहा रूपसाय यह जानते ही कि दीवान की भी कोई रुक्की है जो विधवा हो जाएगी, उसे ही नहीं बदला लेने की राह ही छोड़ देता है। सभ्य कहे जानेवालों की अमानुषिकता और असभ्य कहे जानेवाले आदिवासियों की संवेदनशीलता ने इस कहानी को स्मरणीय बना दिया है। 

इस कथा माला का पंचम कथा रत्न 'क्यू. ई. डी.' का नाम ही पाठक के मन में उत्सुकता जगाता है। ज्यामितीय प्रमेय से आरंभ और अंत होने का प्रयोग करती यह कहानी ५ भागों में पूर्ण होती है। शैलीगत अभिनव प्रयोग का कमाल यह कि कहानी का नायक दूसरा विवाह करना चाहता है। उसका पालक इसे रोकने के लिए एक यौन विशेषज्ञ की नियुक्ति करता है जो नायक की होनेवाली पत्नी, नायक, नायक की वर्तमान पत्नी से उनके न चाहने पर भी कुछ प्रश्नोत्तर करता है। इन प्रश्नों के माध्यम से पाठक उन पात्रों की मन:स्थिति से परिचित होता हुआ अंतिम अंक में विशेषज्ञ द्वारा अपने नियोक्ता को लिखा गया पत्र पढ़ता है जिससे विदित होता है कि भावी पत्नि ने विशेषज्ञ द्वारा दिखाई गयी राह पर चलते हुए अपना इरादा बदल दिया है। 

'मयूरी' कहानी का कथ्य छायावादी निबंध की तरह है। यह कथाकार की प्रिय रचना है जिसे रचने में स्व. केशव पाठक जी का विमर्श भी रहा है। कथाकार ज्ञान, संगीत, नृत्य में निमग्न हो आनंदित होते हुए प्रकृति के साहचर्य में मयूरी के प्रेम और सौंदर्य को पाने का स्वप्न देखता है जो अंतत: भग्न हो जाता है। 

कहानी 'जय-पराजय' के मूल में शासक और शासित का संघर्ष है। शासकीय उच्चाधिकारी पद के मद में मस्त हो अपने परिचारक के परिवारजनों की व्यथा को नहीं देखता, समर्थ होकर भी पीड़ितों का दर्द नहीं हरता और स्वयं पीड़ा भोगते हुए काल के गाल में समा जाता है। तुलसीदास का यह दोहा कथाक्रम को व्यक्त करता है- 
तुलसी हाय गरीब की कबहुँ न निष्फल जाय 
बिना काम के सांस के लौह भसम हो जाय 

आठवीं कहानी 'वही रफ्तार' रिक्शेवालों के माध्यम से श्रमजीवी और श्रम शोषक वर्ग संघर्ष की विद्रूपता को शब्द देते हुए श्रमजीवी का शोषण न मिटने का सत्य सामने लाती है। समाज और नेताओं पर तीखा व्यंग्य इस कहानी में है। 

'भूल-भुलैयाँ' कहानी की लखनवी पृष्ठभूमि और रामानुज बाबू की दिलचस्प किस्सागोई अमृतलाल नागर और शौकत थानवी की याद दिलाती है। बे सर-पैर की गप्प या चंडूखाने की बातें, परदेसी को ठगने की मानसिकता पूरी सचाई के साथ उद्घाटित की गई है। 

कहानी 'बहेलिनी और बहेलिया' भारत पर राज्य कर चुके अंग्रेजों की विलासिता, दुश्चरित्रता और अस्थायी वैवाहिक संबंधों को सामने लाती है। 'यहाँ नहीं है कोई किसी का, नाते हैं नातों का क्या?' अंग्रेज उच्चाधिकारी पत्नी की उपेक्षा कर शिकार पर गया और घायल होने पर अस्पताल ले जाए जाने पर उसकी पत्नी का साथ न जाना, पूछे जाने पर कहना 'मैं उसकी पत्नी नहीं हूँ, ....छुट्टियों में सैर सपाटे के लिए ऐसे एक दो उल्लू फाँस रखे हैं', दूसरी ओर यह तथ्य उद्घाटित होना कि 'वह साहब पहले भी दो बार आ चुका था, हर बार उसके साथ एक नई मेम रहती थी।' 

'आठ रूपए साढ़े सात आने' कहानी अत्यधिक धनलिप्सा के मारे धनपति की बखिया उधेड़ती है। 

इस कथा माल का अंतिम पुष्प 'माला, नारियल आदि' शीर्षक से लिखी गई कहानी है। इस कहानी में पति-पत्नी की नोंक-झोंक बेहद दिलचस्प है। भाषा में लखनवी पुट पाठक के लबों पर से मुस्कराहट हटने नहीं देता।

'हम इश्क़ के बंदे हैं' की कहानियों के कथानक 'देखन में छोटन लगें' हैं किन्तु उनकी मार इतनी तीखी है कि 'आह' और 'वाह' एक साथ निकलती है। इस कहानियों में कथोपकथन नाटकीयताप्रधान हैं। 'बेबात की बात' करते हुए 'बात से बात निकालकर' बात की बात में बात बना लेने की कला कोई रामानुजलाल जी की इन कहानियों से सीखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानुजलाल जी 'गद्यं कवीनां निकषं वदंति' के निकष पर सौ टका खरे रहे हैं। इन कहानियों का शिल्प और शैली अपनी मिसाल आप है। आधुनिक हिंदी कहानी नकारात्मक ऊर्जा से लबरेज, बोझिल स्यापा प्रतीत होती है जबकि रामानुजलाल जी सामाजिक विसंगतियों, व्यक्तिगत कमजोरियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं का उद्घाटन करते समय भी चुटकी लेना नहीं भूलते। उनकी इन कहानियों के संवाद और कथोपकथन पाठक के ह्रदय में तिलमिलाहट और अधरों पर मुस्कराहट एक साथ ला देते हैं। अधिकाँश कहानियाँ हास्य-व्यंग्य प्रधान हैं। अब यह शैली साहित्य में दुर्लभ हो गयी है। कौतुहल, उत्सुकता प्रगल्भता की त्रिवेणी 'हम इश्क़ के बंदे' को त्रिवेणी संगम की तरह तीन पीढ़ियों के लिए पठनीय बनती है। 

रामानुज लाल जी शब्दों के खिलाड़ी ही नहीं जादूगर भी हैं। वे तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी, फ़ारसी शब्दों और शे'रों (काव्य पंक्तियों) का इस्तेमाल बखूबी करते हैं। इस कहानी संग्रह के अतिरिक्त रामानुजलाल जी ने बाल शिकार कथा संग्रह 'जंगल की सच्ची कहानियाँ' तथा पत्र-पत्रिकाओं में  कुछ और कहानियाँ लिखी हैं, वे भी पुनर्प्रकाशित हों तो हिंदी कहानी के अतीत से भविष्य को प्रेरणा मिल सकेगी। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' को विस्मृति के गर्त से निकालकर साथ वर्षों की दीर्घावधि के पश्चात् पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकी श्रद्धेय और प्रेरणा स्रोत साधना दीदी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनका यह कार्य सच्चा पितृ तर्पण है। हम सब इस संग्रह को अधिक से अधिक संख्या में क्रय करें, पढ़ें और इस पर चर्चाएँ-समीक्षाएँ करें ताकि रामानुजलाल जी का शेष साहित्य भी पुनर्प्रकाशित हो सके और अन्य साहित्यकारों की अनुपलब्ध पुस्तकें भी सामने आ सकें। विश्ववाणीहिंदी संस्थान अभियान जबलपुट तथा अपनी ओर से मैं श्रद्धेय 'कक्का जी' रामनुजलाला जी श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' जी को प्रणतांजलि अर्पित करते हुए उनकी विरासत का वारिस होने की अनुभूति इस कृति को हाथ में पाकर कर रहा हूँ। संस्कारधानी की सभी साहित्यिक संस्थाएँ संकल्प कर एक-एक दिवंगत साहित्यकार की एक-एक कृति को प्रकाशित करें तो हिंदी की साहित्य मञ्जूषा से लापता हो चुके रचना रत्न पुन: माँ भारती के सारस्वत कोष को समृद्ध कर सकेंगे। 
***
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ 
***
कहानी समीक्षा :
'हम इश्क के बन्दे हैं'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल 
हम इश्क़ के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकिफ। 
गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या? 

यह शे'र बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव की प्रसिद्ध कहानी 'हम इश्क के बन्दे हैं' के आदि और अंत में तो है ही, समूची कहानी ही इस के इर्द-गिर्द बुनी गई है। सामान्यत: कहानी में आवश्यकता होने पर काव्य पंक्ति का उपयोग उद्धरण की तरह कथानक में कर लिया जाता है अथवा किसी पात्र के मुँह से संवाद की तरह कहलवा लिया जाता है। काव्य पंक्ति का मर्म ग्रहण कर उसे किसी कहानी के घटनाक्रम और पात्रों के साथ इस तरह विकसित करना कि वे पंक्तियाँ और वह मर्म कहानी का अभिन्न अंग हो जाएँ, असाधारण चिंतन सामर्थ्य, भाषिक पकड़ तथा शैल्पिक नैपुण्य के बिना संभव नहीं होता। कहानी के आरंभ में अगली कक्षाओं में न जाने का संकल्प कर, विद्यालय की छात्र संख्या और शोभा में अभिवृद्धि करते बाप बनने की की उम्र में पहुँच चुके लड़कों की मटरगश्ती, होली के मुबारक मौके पर बांदा शहर से तशरीफ़ लाकर, नाज़ो-अदा के साथ उक्त शे'र सुनाकर, महफ़िल में हाजिर सभी कद्रदानों की जेब खाली करा लेनेवाली तवायफ द्वारा मुजरे में सुनने और यारों के साथ तमाशबीन बनकर मजे लूटने के किस्से पाठक की उत्सुकता जागते हैं। इन छात्ररत्नों में से एक मोहन बाबू की शान में कथाकार कहता है-

'उस के कूचे में सदा मस्त रहा करते हैं। 
वही बस्ती, वही नगरी, वही जंगल वही वन।।'

एक और तमाशबीन छात्र कंचन बाबू मोहन से भी कई कदम आगे थे -

'जब से उस शोख के फंदे में फँसे टूट गए। 
जितने थे मजहबी-मिल्लत के जहां में बंधन।।'

इन बिगड़ी तबीयत के साहबजादों के साथ होते हुए भी इनसे कुछ हटकर रहनेवाले मियाँ अज़ीज़ के बारे में अफसानानिगार कहता है -

'अपनी तबियत पर काबू था तो एक अज़ीज़ मियाँ को, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा ताकतवर, कमजोरों का दोस्त, दिमागवालों का दुश्मन, बड़ा चुप्पा, बड़ा मनहूस परन्तु एक गुण ऐसा था कि मंडली की मंडली बिना अज़ीज़ सूनी जान पड़ती थी। बस गुण क्या था? उससे पूछा गया -'कहिए खाँ साहब! कुछ आप के भी दिमागे-शरीफ में आया? तो उसने एक भोंड़ी सी मुस्कुराहट मुँह पर लाकर, जेब से बाँसुरी निकाली और ज्यों की त्यों तर्ज निकालकर रख दी। फिर तो वो खुशामदें हुईं अज़ीज़ मिया की, कि क्या किसी परीक्षक की हुई होगी। ज्यों ही वह बाँसुरी हाथ में लेता कि फरमाइशें होने लगतीं- 'हाँ भाई, इश्क के बंदे। हो भाई, इश्क के बंदे।' यहाँ तक कि स्पेंसर साहब भी कहते - 'लगा इश्क़ वाला बंदा लगा।' होते-होते बेचारे अज़ीज़ का नाम ही 'इश्क़ के बंदे' पड़ गया। यह खुदा का बंदा थोड़ी देर तो समा बाँध ही देता था। जान पड़ता था कि एक-एक स्वर में दिल की आह छिपी हुई है।' 

परीक्षा हुई, एक को छोड़कर सभी जहाँ के तहाँ रहे। अन्य संपन्न लड़कों के साथ अज़ीज़ मियाँ भी कलकत्ते तशरीफ़ ले गए। बरसों बाद नौकरपेशा मैंने, मालिक के काम से कोलकाता जाते समय अज़ीज़ मियाँ का पता उसके अब्बू से लिया।  हावड़ा स्टेशन पर उतरा तो 'कुली ने 'सलाम बड़ा साहब' कहकर सामान उठा लिया और टैक्सी पर रख दिया। बड़े साहब की उपाधि से प्रसन्न होकर मैंने एक चवन्नी कुली साहब के भेंट की। फिर से सलाम ठोंककर वह दो-चार कदम गया परंतु सहसा लौटकर गिड़गिड़ाने लगा 'सरकार, यह चवन्नी खोटी है, इसे बदल दीजिए।' इधर टैक्सी चलने पर थी। मैंने खोटी चवन्नी ले ली और चार इकन्नियाँ देकर सोचने लगा कि मैं तो खुद एक-एक पैसा ठोक-बजाकर लेता हूँ, यह बेईमान मेरे पास कहाँ आ गई? टैक्सी अब जोरों से भाग रही थी। ड्राइवर साहब ने कहा- 'बाबू, कुली ने आपसे आठ आने पैसे ऐंठ लिए। ' 

मैंने पूछा- 'कैसे?' 

ड्राइवर- 'यह खोटी चवन्नी उसने अपने पास से निकाली थी। आप परदेसी हैं। यहाँ के भले आदमियों से सम्हले रहिएगा।' 

चौराहे पर एक खां साहब 'पेरिस पिक्चर' की टिकिट का लिफाफा, पुलिस पीछे लगे होने का हवाला देकर ५० रु. का कहकर १ रु. में टिका गए। कलकत्ता होटल के दरवाजे पर टैक्सीवाले ने मीटर दिखाकर चार रूपए छह आने ले लिए। होटल के नौकर ने बताया स्टेशन से होटल तक का किराया एक रूपए दो आना होता है। लिफाफा फाड़कर देखा तो उसमें टिकिट नहीं मामूली तस्वीरें थीं। बार-बार ठगे जाकर जैसे-तैसे अज़ीज़ के  पते पर पहुँचे तो पता चला कि वह लापता है। बकौल कहानीकार 'अब पता चला कि गाँव के छैला शहर के बुद्धू होते हैं।' 

किराए का मकान लेकर मालिक की राह, नाटक और सिनेमा देखकर मन ऊब गया, बेगम साहिबा के लिए साड़ी  खरीदने निकले तो किस्सा कोताह यह कि दूकानदार ने साड़ी दिखाई कोई और बाँध दी कोई और। दूसरे दिन बदलने गए तो साफ़ मुकर गया कि इसी का सौदा हुआ और यह खाते में चढ़ गई, वह चाहिए तो उसे भी खरीदो। उसके अड़ोसी-पड़ोसी उसी की तरफ बोलने लगे किसी तरह 'जान बची और लाखों पाए, लौट के बुद्धू घर को आए'।

 अब आगे कौ सुनौ हवाल - 'एक रोज रात को भोजन करके रसा रोड पर टहल रहा था कि किसी ने धीरे से आकर कहा 'बड़ा साहब! प्राइवेट मिस साहब।' मैंने चौंककर झुँझलाकर कहा- 'क्या प्राइवेट मिस साहब रे?' उसने भेदपूर्ण स्वर में कहा -;बहुत अच्छा है हुजूर! बंबई से आया यही, नुमाइश देखने, फिर चला जाएगा, ऐसी चीज मिलने का नहीं।' मैंने देखा मैले-कुचैले कपड़े पहिने एक चुक्खी दाढ़ीवाला आदमी है।  एक शब्द कहता है तो दो बार सलाम करता है। ठीक उन लोगों की सूरत-शक्ल है जो  खपा देते हैं और कानों-कान किसी को खबर तक नहीं होती, तिस पर मैं ३-४ बच्चों का बाप और यह फन, तौबा-तौबा! परन्तु भीतर से किसी ने कहा देखिए मुंशी जी! अगर कहानी लिखने का हौसला है तो तजुर्बे इकट्ठे कीजिए, जान का क्या है ? अभी तो आपको चौरासी लाख जन्म मिलेंगे परंतु इस प्रकार का अनुभव प्रत्येक जन्म में हाथ नहीं आने का, जिन्होंने जान हथेली पर रखकर अनुभव संग्रह किए हैं, उन्हीं की तूती बोल रही है। उदाहरण के लिए देखिए श्रीयुत प्रेमचंद कृत 'सेवासदन' - सुमन के कोठे पर रईसों की धींगामस्ती तथा मरम्मत। मानते हैं कि काम खतरे का है पर अंजाम कितना नेक है यह भी तो सोचिए। लोग सौ छोटे-छोटे दोहे लिखकर अमर हो जाते हैं।  कौन जाने इसी प्लाट से आप की साढ़े साती उतर जाए।'
जनाब मुंशी जी ने विक्टोरिया बुलवाई, दलाल को खान-पान के लिए दो रूपए दिए, कपड़े बदले, कलकत्ता होटल के मैनेजर को पत्र लिखा कि फलां-फलां नंबर की गाड़ी में घूमने जा रहा हूँ, सवेरे तक लौट कर न आऊँ या मृत या घायल मिलूँ तो पुलिस को खबर कर, मालिक को तार दे दे। सूट पहनकर पिस्तौल में ६ कारतूस भरे और दो घंटे तक इन्तजार किया पर न दलाल, आया न गाड़ी, तब समझा की जान बची और लाखों पाए। 

अब बाहर निकलना ही छोड़ दिया। एक रोज पार्क में बैठा था कि वृद्ध और एक नवयुवती पास की बेंच पर आ बैठे। आध घंटे बाद चलने को हुए तो वृद्ध गश खाकर गिर पड़े, युवती चिल्लाई, सड़क पर टैक्सी रोक, वृद्ध को उनके घर ले जाकर, डॉक्टर से दवा दिला-खिलाकर, अपने डेरे पर जाकर सो गया। अगले दिन पता चला कि वे ब्रह्मसमाजी थे, डिस्ट्रिक्ट जज रह चुके थे, पुत्री की शिक्षा हेतु कलकत्ते में रह रहे थे। मालिक का तार आने पर कि वे नहीं आएँगे, मुंशी जी घर लौटे। 

'मालिक के दरबार में अपनी पेटेंट रीति से मैंने कलकत्ते के हाल-चाल सुनाए कि कैसे मालिक का नाम शहर में फ़ैल गया था, कितने बड़े-बड़े सेठ-साहूकार, सवेरे-शाम मालिक के दर्शन की अभिलाषा से कोठी के चक्कर लगाया करते थे आदि-आदि और जब इन सच्ची बातों से खुश होकर मालिक ने मुझे मनचाही तरक्की दे दी। 

दो साल बाद 'कलकत्ता कथा' फिर सुनकर मालिक मुंशी जी के साथ कलकत्ते के लिए चल पड़े। मुंशी जी अपने खैरख्वाहों की तलाश में चले तो पता चला दत्त महाशय चल बसे और पुत्री ने कहीं घर बसा लिया। खिन्न मन खेल के मैदान के पास से जाते हुए भीड़ देख हॉकी का खेल देखने घुस गए, देखते हैं कि एक फुल बैक ने झपटकर गेंद पकड़ी और लगभग हो चुका गोल बचा लिया। दर्शक उछल पड़े, सबसे अधिक उछले मुंशी जी, क्योंकि वह फुल बैक अज़ीज़ था जो कहानी के आरंभ में बांसुरी बजा चुका था। अजीज ने अन्य धर्म की लड़की से शादी कर ली थी, लड़की धर्म परिवर्तन लिए तैयार नहीं थी। इस कारण न अज़ीज़ घर जा सका, न उसके पिता किसी को उसका पता देते थे की राज राज ही रहे। दोनों घर पहुँचे तो दरवाजा खुलते ही मुंशी जी बोले 'तुम?', दरवाजा खोलनेवाली मोहतरम चौंककर बोली 'आप?', अजीज ने कहा 'यह क्या? मुंशी जी ने राज खोला 'यह पिछली बार मेरी पड़ोसन थी', अजीज बोला 'अब तेरी भाभी है।' अजीज ने बताया कि वे दोनों कॉलेज में सहपाठी थे, पढ़ते-पढ़ते प्रेम करने लगे थे, शुरू में पिता को आपत्ति थी पर अंत में दोनों का हाथ मिला गए थे। 

लब्बोलुबाब यह - 'अजीज आया तो सुविमल चाय बनाने चली गई, रात हो रही थी, खिड़की से बगीचा दिख रहा था, उधर चाँद निकला हुए इधर हुगली मैया की ओर से हवा का एक ठंडा झोंका आया। अजीज उठा धीरे से टेबल पर से बांसुरी उठाई और बजाया 'हम इश्क़ के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाक़िफ़', मैंने कहा - 'वाह बेटा! सुनी तो बहुतेरों ने थी पर ठीक तर्ज एक तू ही उतार पाया।' 

आठ अंकों की यह कहानी किसी फ़िल्मी पठकथा की तरह रोचक, लगातार उत्सुकता बनाये रखनेवाली, जिंदगी के विविध रंग दिखानेवाली, पाठक को बाँधकर रखनेवाली है। कहानीकार की कहन, भाषा की रवानगी, शब्द सामर्थ्य, स्वतंत्र और मौलिक भाषा शैली के कारण इसे भुलाया नहीं जा सकता। एक तवायफ द्वारा गाई गई ग़ज़ल के एक शेर से आरंभ और अंत होती इस कहानी में कल्पना शक्ति और यथार्थ का गंगो-जमनी सम्मिश्रण इस तरह हुआ है कि पाठक न तो पूरी तरह भरोसा कर पता है, न झुठला पाता है। इस कहानी का कथोपकथन नाटकीयताप्रधान है। 'बेबात की बात' करते हुए 'बात से बात निकालकर' 'बात की बात में' 'बात बना लेने' की कला कोई रामानुजलाल जी की कहानियों से सीखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानुजलाल जी 'गद्यं कवीनां निकषं वदंति' के निकष पर सौ टका खरे रहे हैं। इस कहानई का शिल्प और शैली अपनी मिसाल आप है। आधुनिक हिंदी कहानी नकारात्मक ऊर्जा से लबरेज, बोझिल स्यापा प्रतीत होती है जबकि रामानुजलाल जी सामाजिक विसंगतियों, व्यक्तिगत कमजोरियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं का उद्घाटन करते समय भी चुटकी लेना नहीं भूलते। उनकी अन्य कहानियों की तरह इस कहानी के संवाद और कथोपकथन पाठक के ह्रदय में तिलमिलाहट और अधरों पर मुस्कराहट एक साथ ला देते हैं। यह कहानी हास्य-व्यंग्य प्रधान हैं। अब यह शैली हिंदी साहित्य में दुर्लभ हो गई है। कौतुहल, उत्सुकता प्रगल्भता की त्रिवेणी 'हम इश्क़ के बंदे' को त्रिवेणी संगम की तरह तीन पीढ़ियों के लिए पठनीय बनती है। 

रामानुजलाल जी शब्दों के खिलाड़ी ही नहीं जादूगर भी रहे हैं। वे तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी, फ़ारसी शब्दों और शे'रों (काव्य पंक्तियों) का इस्तेमाल बखूबी करते हैं। इस कहानी संग्रह के अतिरिक्त रामानुजलाल जी ने बाल शिकार कथा संग्रह 'जंगल की सच्ची कहानियाँ' तथा पत्र-पत्रिकाओं में  कुछ और कहानियाँ लिखी हैं, वे भी पुनर्प्रकाशित हों तो हिंदी कहानी के अतीत से भविष्य को प्रेरणा मिल सकेगी। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' को विस्मृति के गर्त से निकालकर साठ वर्षों की दीर्घावधि के पश्चात् पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकी श्रद्धेय और प्रेरणा स्रोत साधना दीदी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनका यह कार्य सच्चा पितृ तर्पण है। हम सब इस संग्रह को अधिक से अधिक संख्या में क्रय करें, पढ़ें और इस पर चर्चाएँ-समीक्षाएँ करें ताकि रामानुजलाल जी का शेष साहित्य भी पुनर्प्रकाशित हो सके और अन्य साहित्यकारों की अनुपलब्ध पुस्तकें भी सामने आ सकें।
***

बाल रचना बिटिया छोटी

बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
४-९-२०१७ 
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
*
मिले नकार नकार को, स्वीकृत हो स्वीकार।
स्नेह स्नेह को दीजिए, सके प्रहार प्रहार।।
१०-९-२०१६
*