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सोमवार, 26 जुलाई 2021

समीक्षा राम कुमार चतुर्वेदी

पुरोवाक:
हास्य साहित्य परंपरा और 'चमचावली' हास्य-व्यंग्य की दीपावली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मार्क ट्वेन ने कहा है कि हँसना एक गुणकारी औषधि है मगर इस औषधि को देनेवाला डॉक्टर बहुत मुश्किल से मिलता है। आजकल हर मंच पर हास्य-व्यंग पढ़ने का फैशन होने के बाद भी हास्य-व्यंग्य की सरस काव्य रचनाओं का अभाव है। सामान्यत: चुटकुलेबाजी और फूहड़ टिप्पणियाँ ही हास्य-व्यंग्य के नाम पर सुनाई जाती हैं। यह विसंगति तब है जबकि हिंदी और हिंदी भाषी अंचल की लोक भाषाओँ-बोलिओं में शिष्ट हास्य कविता लेखन-पठन की उदात्त परंपरा रही है। हास्य-व्यंग्य का मूल स्रोत हमारी पुरातन संस्कृति, सभ्यता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में मृत्यु, भय और दु:ख का विशेष महत्व नहीं है। ब्रह्म सत् चित् के साथ ही आनंद का स्वरूप है जिसके अंश सकल सृष्टि का कण-कण है। ब्रह्म आनंद के रूप में सभी प्राणियों में निवास करता है। उस आनंद की अनुभूति जीवन का परम लक्ष्य माना जाता है। इसी से ब्रह्मानंद शब्द की रचना हुयी है। वह रस, माधुर्य, लास्य का स्वरूप है। इसीलिये ब्रह्म जब माया के संपर्क से मूर्तरूप लेता है तो उसकी लीलाओं में आनंद को ही प्रमुखता दी गयी है। हमारे कृष्ण रास रचाते हैं, छल करते हैं, लीलायें दीखाते हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में आनंद की रसधार बहा देते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम भी होली में रंग, गुलाल उड़ाते हैं और सावन में झूला झूलते हैं। उनकी मर्यादा में भी भक्त आनंद का अनुभव करते हैं। यह आनंदानुभूति निराकार है, इसका चित्र नहीं बनाया जा सकता, इसका चित्र गुप्त है। 'गूँगे के गुण' की तरह आनंद भी प्रसन्नता को जन्म देता है, यह प्रसन्नता अधरों या नेत्रों से व्यक्त होती है। हास्य को आनंद की प्रतीति करानेवाला 'ब्रम्हानंद सहोदर' कहा जा सकता है।
सनातन भारतीय संस्कृति में मृत्यु और दु:ख को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। मृत्यु परिवर्तन की वाहक मात्र है। देह के साथ आत्मा नहीं मरती, वह एक चोला बदलकर दूसra पहन लेती है। कुछ पंथ शरीर का समय पूरा होने पर खुशी मनाते हैं। नाच-गाने, उमंग और उत्साह से पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया जाता है कि जीवात्मा अपने स्वामी ब्रह्म से मिलने जा रही है। मिलन की इस पावन बेला में दु:ख, दर्द और शोक क्यों? अंत समय का शोक मोह, अज्ञान और लोक-परंपरा का निर्वहन मात्र है। कुछ पन्थों में शव को दफनाते हैं ताकि वह कुछ जीवों का भोज्य बन जाए, कुछ अन्य पंथ शव को पक्षियों के भोग हेतु छोड़ देते हैं। सनातन धर्म रोगजनित मृत्यु के कारण शव में उपस्थित रोगाणु अन्यों के लिए घातक होने की सम्भावना के कारण शव-दाह करते हैं जबकि इसी से बनी भभूत से बोले बाबा का शृंगार किया जाता है जो 'सत-शिव-सुंदर' के पर्याय और परम आनंद के प्रतीक हैं। वे नृत्य, गायन, व्याकरण, भाषा आदि के केंद्र हैं जिनसे प्राणी के मन में आनंद का सागर हिलोरें लेने लगता है। हम अवतारों की जयंतियाँ उत्साह और श्रध्दा सहित मानते किन्तु निधन तिथियों को भूलकर भी याद नहीं करते। हम मूलत: आनंद को ईश्वर का पर्याय मानते हैं। इसलिए आनंददायी हास्य-व्यंग्य की परंपरा वेद-पूर्व से तत्कालीन भाषाओं के साहित्य में है। लौकिक और वैदिक संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के साहित्य में हास्य-व्यंग्य की छटा देखते ही बनती है। उदाहरण: - "मम पुत्रस्य अन्नवस्त्रादि-व्ययं समग्रं सर्वकारः एव निर्वहति।" इति उक्तवती रुक्मिणी-देवी। = "कथं सम्भवति तत्?" कीदृशः उद्योगः तस्य ??" इति पृष्टवती मालादेवी। -"एकपैसात्मक-व्ययः अपि नास्ति तस्य। यतः आजीवनकारागारवासेन दण्डितः अस्ति सः।" (लौकिक संस्कृत) पुत्र के अन्न-वस्त्रादि की व्यवस्था हतु उसे आजीवन कारावास के उपाय में छिपे व्यंग्य को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
अपभ्रंश साहित्य में संवत १२४१ विक्रम में सोमप्रभ सूरि रचित 'कुमार पाल प्रतिबोध' से एक दोहा देखिए: 'बेस बिसिट्ठइ बारियइ, जइबि मनोहर गत्त। / गंगाजल पक्वालियवि, सुणिहि कि होइ पवित्त।। अर्थात ''वेश-धारियों से बचें, चाहे मनहर गात। / गंग-स्नान से हो नहीं,पावन कुतिया जात।।'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का सार अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी के निम्न दोहे में हो सकता है जहाँ दोहाकार की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी? 'रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु। / चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरु।। अर्थात् एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात। / दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात।।
संत कबीर हास्य-व्यंग्य परंपरा के श्रेष्ठ वाहक रहे। वे ब्रम्ह के साथ जो रिश्ता जोड़ते हैं उसकी कल्पना भी आसान नहीं है: 'हम बहनोई, राम मोर सारा। हमहिं बाप, हरिपुत्र हमारा।।' लोक भी हास्य-व्यंग्य का आनंद लेने में पीछे नहीं रहता- 'फागुन में बाबा देवर लागे' गाकर ससुअर को छेदती नव्वादु को देखकर कौन सोच सकेगा कि वह शेष समय लज्जा का निर्वहन सहजता और आनंद के साथ करती है। उत्सवधर्मी भारतीय मनीषा आराध्य के साथ भी हंसी-ठिठोली करने से बाज नहीं आती। भगवान जगन्नाथ के दर्शनकर एक भक्त कवि के मन में प्रश्न है कि भगवान काठ क्यों हो गये? 'कठुआ जाना' लोक बोली का एक मुहावरा है। भक्त अपनी कल्पना की उड़ान से संस्कृत में जो छंद रचता है उसका हिन्दी रूपान्तर कुछ इस तरह किया जा सकता है -'भगवान की एक पत्नी आदतन वाचाल हैं (सरस्वती) दूसरी पत्नी (लक्ष्मी) स्वभाव से चंचल हैं। वह एक जगह टिक कर रहना नहीं चाहतीं। उनका एक बेटा मन को मथनेवाला कामदेव है जो अपने पिता पर भी शासन करता है । उनका वाहन गरूड़ है। विश्राम करने के लिये उन्हें समुद्र में जगह मिली है। सोने के लिये शेषनाग की शैय्या है। भगवान विष्णु को अपने घर का यह हाल देख कर काठ मार गया है। एक अन्य भक्त कवि आशुतोष शंकर का दर्शन कर सोचता है कि इस भोले भण्डारी, जटाधारी, बाघम्बर वस्त्र पहनने वाले के पास खेती-बारी नहीं है। रोजी का कोई साधन नहीं है तो इनका गुजारा कैसे होते है। भक्त संस्कृत में छंद कहता है: 'उनके पास पाँच मुँह हैं। उनके एक बेटे (कार्तिकेय) के छह मुँह हैं। दूसरे बेटे गजानन का मुँह और पेट थी का है। यह दिगबंर कैसे गुजारा करता अगर अन्नपूर्णा पत्नी के रूप में उसके घर नहीं आतीं। तीसरा भक्त कवि कहता है कि भगवान शंकर बर्फीले कैलाश पर्वत पर रहते हैं। भगवान विष्णु का निवास समुद्र में है। इसकी वजह क्या है? निश्चित ही दोनों भगवान मच्छरों से डरते हैं इसलिये उन्होंने ने अपना ऐसा निवास स्थान चुना है। मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं ब्राह्मणों की खास पहचान 'यज्ञोपवीत 'की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुनकर हँसी नहीं रुकती। वे कहते हैं: य'ज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है। अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है।'
हास्य का जलवा यह कि संस्कृत वांग्मय में हास्य को सभी आचार्यों ने रस स्वीकार किया है। भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार- 'विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधानवेसैश्च/विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस:स्मृतो हास्य:।।'भावप्रकाश में लिखा है- 'प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।'साहित्यदर्पणकार का कथन है- 'वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते विकृताकार वाग्वेश चेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।दशरूपककार की उक्ति है- 'विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा / हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।। सार यह है कि हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्रेक विकृत आकार, विकृत वेष, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थविशेष, विकृत वाणी, विकृत चेष्टा आदि द्वारा होता है। इन विकृतियों से युक्त हास्यपात्रता कवि, अभिनेता, वक्ता द्वारा कथनी या करनी से किया जाना हास्य है। विकृति का तात्पर्य है प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा वैचित्र्य, कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर न जान पड़े। इन लक्षणों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जहाँ तक उनका संबंध हास्य विषयों से है। ऐसा हास जब विकसित होकर हमें कवि-कौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में, अथवा आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली के अनुसार, मुक्त दशा में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है। हास के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष रहता है। घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आएगी परंतु उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण हँसी जगा देगा। इसी तरह युवा व्यक्ति श्रृंगार करे तो फबने की बात है किंतु जर्जर वृद्ध का श्रृंगारर हास का कारण होगा; कुर्सी से गिरनेवाले पहलवान पर हम हँसेंगे परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे के प्रति हमारी सहानुभूति उमड़ेगी। हास का आधार प्रीति है न कि द्वेष। किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटुक्ति के रूप में नहीं, प्रियोक्ति के रूप में हो। उसकी तह में जलन अथवा नीचा दिखाने की भावना न होकर विशुद्ध संशुद्धि की भावना होगी। संशुद्धि की भावनावाली यह प्रियोक्ति भी उपदेश की शब्दावली में नहीं किंतु रंजनता की शब्दावली में होगी।
वर्तमान काल में हरिमोहन झा ने अपनी हास्य व्यंग्य कृति 'खट्टर काका' में देवी-देवताओं और अवतारों के साथ खूब जमकर ठिठोली की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अकबर इलाहाबादी , बाबू बालमुकुंद गुप्त आदि ने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन का नया मानक बनाया। उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे। अकबर साहब फरमाते हैं - 'बाल में देखा मिसों के साथ उनको कूदते। /डार्विन साहब की थ्योरी का खुलासा हो गया।' जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था। लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं -'तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे। बसूला हटा तो रंदा है।' प्लासी की लड़ाई में सिराज्जुदौला को शिकस्त देकर तमाम देसी रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ानेवाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया। तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया। तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षापध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है।
पं0 मदनमोहन मालवीय और सर सैयद अहमद खाँ जिन दिनों हिन्दू यूनिवर्सिटी और मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिये प्रयास कर रहे थे उन्हीं दिनों मालवीय जी के मित्र अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजपरस्त सैयद अहमद खाँ को लक्ष्य कर एक शेर कहा- 'शैख ने गो लाख दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी। ' यहाँ 'सन' की शब्द पर गौर कीजिये। दोनों शब्दों को मिला देने पर जो अर्थ निकलता है वह शायर के हुनर की मिसाल है। हास्य के प्रमुख कारक: (अ) अप्रत्याशित शब्दाडंबर: शब्द की अप्रत्याशित व्युत्पत्ति के सहारे 'को घट ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर' -बिहारी, 'न साहेब ते सूधे बतलाएँ, गिरी थारी अइसी झन्नायें, कबौं छउकन जइसी खउख्यायें, पटाका अइसी दगि-दगि जाएँ'-रमई काका, 'मन गाड़ी गाड़ी रहै. प्रीति क्लियर बिनु लैन, जब लगि तिरछे होत नहिं, सिंगल दोऊ नैन' -सुकवि, (आ) विलक्षण तर्कोक्ति: 'पाँव में चक्की बाँध के हिरना कुदा होय', (इ) वाग्वैदग्ध्य (विट्): अर्थ के फेर-बदल के सहारे "भिक्षुक गो कितको गिरिजे? सुत माँगन को बलि द्वारे गयो री / सागर शैल सुतान के बीच यों आपस में परिहास भयो री, (ई) प्रत्युतर में नहले की जगह दहला लगाने की कला: 'गावत बाँदर बैठ्यो निकुंज में ताल समेत, तैं आँखिन पेखे / गाँव में जाए कै मैं हू बछानि को बैलहिं बेद पढ़ावत देखे- काव्य कानन; (उ) व्यंग्य (सैटायर): रामचरितमानस के शिव-बरात प्रसंग में विष्णु की उक्ति 'कि बर अनुहारि बरात न भाई, हँसी करइइहु पर पुर जाई', कृष्णायन में उद्धव की उक्ति 'की भवन जरैहैं मधुपुरी, श्याम बजैहैं बेनु?' भवानीप्रसाद मिश्र जी का गीतफरोश आदि, (ऊ)कटाक्ष (आइरानी):'करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहिं / रे गंधी मति-अंध तू, अतर दिखावत काहि' - बिहारी; 'मुफ्त का चंदन घस मेरे नंदन' - लोकोक्ति; 'मुनसी कसाई की कलम तलवार है' - भड़ोवा संग्रह, (ए) रचना विरूपीकरण (पैरोडी): 'नेता ऐसा चाहिए जैसा रूप सुभाय / चंदा सारा गहि रहै देय रसीद उड़ाय' - चोंच, 'बीती विभावरी जाग री / छप्पर पर बैठे काँव-काँव करते हैं कितने काग री'-बेढब), (ऐ) वक्त्तृत्व विरूपीकरण: अभिनेताओं, नेताओं या कवियों की कहन-शैली की नकल आदि हैं। प्रभाव की दृष्टि से हास्य को (क) परिहास: संतुष्टि प्रधान, व्यंग्य रहित, गुदगुदाता हुआ, तथा (ख) उपहास: संशुद्धि प्रधान, व्यंग्य सहित तिलमिलाता हुआ में वर्गीकृत किया जा सकता है।
भारत के ह्रद्प्रदेश नर्मदांचल के सिवनी जिले निवासी युवा शिक्षक और उत्साही रचनाकार रामकुमार चतुर्वेदी हास्य कविता-लेखन और पठन को गंभीरता से लेकर निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। राम कुमार चतुर्वेदी जीवट और संघर्ष की मशाल और मिसाल दोनों हैं। ३४ वर्ष की युवावस्था में सड़क दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी, कमर की हड्डी, पसली, कोलर बोन, हाथ-पैर आदि को गंभीर क्षति, दो वर्ष तक पीड़ादायक शल्य क्रिया और सतत के बाद भी वे न केवल उठ खड़े हुए अपितु पूर्वापेक्षा अधिक आत्मविश्वास से शैक्षणिक-साहित्यिक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। महाकवि शैली के अनुसार ‘अवर स्वीटैस्ट सोंग्स आर दोज विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थोट’, कवि शैलेंद्र के शब्दों में ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ को राम कुमार ने चरितार्थ कर दिखाया है और दुनिया को हँसाने के लिए कलम थाम ली है। चमचावली के दोहे लक्षणा और व्यंजन के माध्यम से देश और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चोट करते हैं-
पढ़कर ये चमचावली, जाने चम्मच ज्ञान।
सफल काज चम्मच करे, कहते संत सुजान।
साधु-संतों की कथनी-करनी और भोग-विलास चमचों की दम पर फलते-फूलते हैं किंतु एक लोकोक्ति के अनुसार ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’ मिल ही जाता है-
बाबा बेबी छेड़कर, पहुँच गये हैं जेल।
कैसे तीरंदाज को, मिल जाती है बेल।।
चम्मच अपने मालिक को सौ गुनाहों के बाद भी मुक्त कराकर ही दम लेता है। चमचे की स्वामिभक्ति के सामने श्वान भी हार मान लेता है। एक अभिनेता द्वारा कृष्ण-मृग का शिकार करने के बाद भी उसे दंडित न किये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप कवि एक दोहा कहता है-
अपने मालिक के लिए, चम्मच करे उपाय।
हिरन मारकर भी उन्हें, मिल जाता है न्याय।।
संन्यास लिए संत ईश-भक्ति के अलावा शेष संसार को माया और निस्सार समझते हैं। तुलसीदास जी को अकबर द्वारा मनसबदारी दिए जाने पर उन्होंने 'पटा लिखो रघुबीर को, जे साहन के साह / तुलसी अब का होइंगे, नर के मनसबदार' कहते हुए प्रस्ताव अमान्य कर दिया था। किन्तु आगामी चुनाव को देखते हुए शासन द्वारा राज्य मंत्री का पद-प्रस्ताव होते ही तथाकथित संतों ने लपक लिया। इस प्रसंग पर रामकुमार कहते हैं: राजनीति चमचों की चारागाह है-
मंत्री का दर्जा मिला, चहके साधु-संत।
डूबे भोग विलास में, चम्मच बने महंत।।
चमचे सब का हिसाब-किताब माँगते हैं किंतु अपनी बारी आते ही गोलमाल करने से नहीं चूकते-
अपनी पूँजी का कभी, देते नहीं हिसाब।
दूजे के हर टके का, माँगें चीख जवाब।।
राम कुमार की भाषा सरल, सहज, प्रसंगानुकूल चुटीली और विनोदपूर्ण है। हास्य-व्यंग्य की चासनी में घोलकर कुनैन खिला देना उनके लिए सहज-साध्य है। वे सामयिक प्रसंगों को लेकर सरस व्यंग्य प्रहार करते हैं साथ ही हास्य की फुहार से भिगाते चलते हैं। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, यथावसर सम्यक शब्द-प्रयोग, मुहावरेदार भाषा तथा सहजग्राह्यता उनका वैशिष्ट्य है। 'चमचावली' सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दिनानुदिन घटित हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कवि के स्वस्थ्य छंटन तथा देश-समाज हित की लोकोपकारी भावना से उत्पन्न हास्य-व्यब्ग्य काव्य है। इस सार्थक, सर्वोपयोगी, पथ-प्रदर्शक कृति का न केवल साहित्यिक जगत अपितु जन सामान्य में भी स्वागत होगा यम मुझे विश्वास है। रामकुमार ने एक मनुष्य, भारत के एक नगरीं और हिंदी के हास्य कवि के रूप में इस कृति की रचना कर अपनी शवासन को सार्थक किया है। उनका उर्वर चिंतन भविष्य में भी ऐसी कृतियों का परायण कराए यही कामना है।
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सम्पर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 25 जुलाई 2021

समीक्षा सुनीता सिंह

पुस्तक चर्चा :
''कालचक्र को चलने दो'' भाव प्रधान कवितायें
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[पुस्तक विवरण: काल चक्र को चलने दो, कविता संग्रह, सुनीता सिंह, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १२५, आकार २० से.मी. x १४.५ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपर बाइक लेमिनेटेड, २००/- प्रतिष्ठा पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ]
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साहित्य समय सापेक्षी होता है। कविता 'स्व' की अनुभूतियों को 'सर्व' तक पहुँचाती है। समय सनातन है। भारतीय मनीषा को 'काल' को 'महाकाल' का उपकरण मानती है इसलिए भयाक्रांत नहीं होती, 'काल' का स्वागत करती है। 'काल को चलने दो' जीवन में व्याप्त श्वेत-श्याम की कशमकश को शब्दांकन है।कवयित्री सुनीता सिंह के शब्दों में "अकस्मात मन को झकझोर देनेवाली परिस्थितियों से मन को अत्यंत नकारात्मक रूप से प्रभावित होने से बचने के लिए उन परिस्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक होता है जो अपने बस में नहीं होतीं। जीवन कभी आसान रास्ता नहीं देता। हतोत्साहित करनेवाले कारकों और नकारात्मकता के जाल से जीवन को अँधेरे से उजाले की ओर शांत मन से ले जाने की यात्रा का दर्शन काव्य रूप से प्रस्तुत करती है यह पुस्तक।'
५४ कविताओं का यह संकलन अजाने ही पूर्णता को लक्षित करता है। ५४ = ५+४=९, नौ पूर्णता का अंक है। नौ शक्ति (नौ दुर्गा) का प्रतीक है। नौ को कितनी ही बार जोड़े या गुणा करें ९ ही मिलता है।संकलन में राष्ट्रीयता के रंग में रंगी ५ रचनाएँ हैं। ५ पंचतत्व का प्रतीक है। 'अनिल, अनल, भू, नभ सलिल' यही देश भी है। भारत भूमि, भारत वर्ष, स्वदेश नमन, प्रहरी, भारत अखंड शीर्षक इन रचनाओं में भारत का महिमा गान होना स्वाभाविक है।
इसकी गौरव गाथा को हिमगिरि झूम कर गाता है
जिस पर गर्वित होकर के सागर भी लहराता है
तिलक देश के माथे का हिम चंदन है
शत बार तुझे ऐ देश मेरे अभिनन्दन है
कवयित्री देश भक्त है किन्तु अंधभक्त नहीं है। देश महिमा गुँजाते हुए भी देश में व्याप्त अंतर्विरोध उसे दुखी करते हैं -
एक देश में दो भारत / क्यों अब तक है बसा हुआ?
एक माथ पर उन्नत भाल / दूजा क्यों है धँसा हुआ?
'माथ' और 'भाल' पर्यायवाची हैं। एक पर दूसरा कैसे? 'माथ' के स्थान पर 'कांध' होता तो अर्थवत्ता में वृद्धि होती।
इस भावभूमि से जुडी रचनाएँ रणभेरी, बढ़ते चलो, वीरों की पहचान आदि भी हैं जिनमें परिस्थितियों से जूझकर उन्हें बदलने का आव्हान है।
कवि को प्राय: काव्य-प्रेरणा प्रकृति से मिलती है। इस संग्रह में प्रकृति से जुडी रचनाओं में प्रकृति दोहन, आंधी, हरीतिमा, जल ही जीवन, मकरंद, फाग, बसंत, चूनर आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति का अनुपम उपहार / यह अभिलाषा का संसार
इच्छाओं की अनंत श्रृंखला / दिव्य लोक तक जाती है
स्वच्छंद कल्पना के उपवन में / सतरंगी पुष्प खिलाती है
स्वप्नों में स्वर्णिम पथ पर / आरूढ़ होकर आती है
कितना मोहक, कितना सुंदर / है यह विशाल अंबर निस्सार
एक बाल कथा सुनी थी जिसमें गुरु जी शिष्यों को सिखाने के बाद अंतिम परीक्षा यह लेते हैं कि वह खोज के लाओ जो किसी काम का नहीं। प्रथम वह विद्यार्थी आया जो कुछ नहीं ला सका। गुरु जी ने कहा हर वास्तु का उपयोग कर सकनेवाला ही श्रेष्ठ है। ईश्वर ने निरुपयोगी कुछ नहीं बनाया। कवयित्री ने वाकई अंबर को निस्सार पाया या तुक मिलाने के लिए शब्द का प्रयोग किया? अंबर पाँच तत्वों में से एक है, वह निस्सार कैसे हो सकता है?
दर्शन को लेकर कवयित्री ने कई रचनाएँ की हैं। गुरु गोरखनाथ की साधनास्थली में पली-बढ़ी कलम दर्शन से दूर कैसे रह सकती है?
मन की आँखों से है दिखता / खोल हृदय के द्वार
निहित कर्म पर गढ्ता / सद्गति या दुर्गति आकार
''कर्म प्रधान बिस्व करि राखा'' का निष्कर्ष तुलसी ने भी निकाला था, वही सुनीता जी का भी प्राप्य है।
संग्रह की रचनाओं में 'एकला चलो रे' हे प्रिये, हे मन सखा आदि पठनीय हैं। कवयित्री में प्रतिभा है, उसे निरंतर तराशा जाए तो उनमें छंद, शुद्ध छंद रचने की सामर्थ्य है किन्तु समयाभाव उन्हें रचना को बार-बार छंद-विधान के निकष पर कसने का अवकाश नहीं देता। पुरोवाक में नीलम चंद्रा के अनुसार 'इनके हर अलफ़ाज़ चुनिंदा होते हैं' के संदर्भ में निवेदन है कि 'हर' एक वचन है, अल्फ़ाज़ बहुवचन, 'हर लफ्ज़' सही होता।
''कालचक्र चलने दो'' कवयित्री के संवेदनशील मन की भाव यात्रा है। रचनाओं में पाठक को अपने साथ रख पाने की सामर्थ्य है। कथ्य मौलिक है। शब्द चयन सटीक है। सारत: यह कृति मानव जीवन की तरह गन-दोष युक्त है और यही इसे ग्रहणीय बनाता है। सुनीता का भविष्य एक कवयित्री के नाते उज्जवल है। वे 'अधिक' और 'श्रेष्ठ' का अंतर समझ कर 'श्रेष्ठ' की दिशा में निरंतर अग्रसर हैं।
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]

मुक्तिका: बिटिया

मुक्तिका:
बिटिया
संजीव 'सलिल'
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..
कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..
झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..
नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..
खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..
करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..
राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..
जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..
पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..
फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..
दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..
मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..
*******************************************

गीत

गीत 
*
हम आज़ाद देश के वासी,
मुँह में नहीं लगाम।
*
जब भी अपना मुँह खोलेंगे,
बेमतलब बातें बोलेंगे।
नहीं बोलने के पहले हम
बात कभी अपनी तोलेंगे।
ना सुधरें हैं, ना सुधरेंगे
गलती करें तमाम।
*
जितना भी ऊँचा पद पाया,
उतना नीचा गिर गर्राया।
लज्जा-हया-शर्म तज, मुस्का
निष्-दिन अपना नाम थुकाया।
दल सुधार की हर कोशिश
कर ही देंगे नाकाम।
*
अपना थूका, खुद चाटेंगे,
नफरत, द्वेष, घृणा बाँटेंगे।
तीन-पाँच दो दूनी बोलें,
पर न गलत खुद को मानेंगे।
कद्र न इंसां की करते,
हम पद को करें सलाम।
***

विमर्श मौलिकता, मुक्तक

विमर्श 
क्या यह मौलिक सृजन है???
*
मुख पुस्तक पर एक द्विपदी पढ़ी. इसे सराहना भी मिल रही है.
मैं सराहना तो दूर इसे देख कर क्षुब्ध हो रहा हूँ.
आप की क्या राय है?
*
Arvind Kumar
उनके दर्शन से जो बढ़ जाती है मुख की शोभा
वोह समझते हैँ कि रोगी की दशा उत्तम है
*
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है - मिर्ज़ा ग़ालिब
*
मुक्तक:
संजीव
*
मापनी: २११ २११ २११ २२
*
आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
*
मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
*
न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
*
२५-६-२०१५

दोहा सलिला; रवि-वसुधा के ब्याह में

दोहा सलिला;
रवि-वसुधा के ब्याह में...
संजीव 'सलिल'
*
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागन' तुम रहो, ]मगरमस्त' अहिवात..

सूर्य-धरा को समय से, मिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा 'चाँदनी', पुष्पित पुष्प अकूत..

इठला देवर बेल से बोली:, 'रोटी बेल'.
देवर बोला खीझकर:, 'दे वर, और न खेल'..

'दूधमोगरा' पड़ोसी, हँसे देख तकरार.
'सीताफल' लाकर कहे:, 'मिल खा बाँटो प्यार'..

भोले भोले हैं नहीं, लीला करे अनूप.
बौरा गौरा को रहे, बौरा 'आम' अरूप..

मधु न मेह मधुमेह से, बच कह 'नीबू-नीम'.
जा मुनमुन को दे रहे, 'जामुन' बने हकीम..

हँसे पपीता देखकर, जग-जीवन के रंग.
सफल साधना दे सुफल, सुख दे सदा अनंग..

हुलसी 'तुलसी' मंजरित, मुकुलित गाये गीत.
'चंपा' से गुपचुप करे, मौन 'चमेली' प्रीत..

'पीपल' पी पल-पल रहा, उन्मन आँखों जाम.
'जाम' 'जुही' का कर पकड़, कहे: 'आइये वाम'..

बरगद बब्बा देखते, सूना पनघट मौन.
अमराई-चौपाल ले, आये राई-नौन..

कहा लगाकर कहकहा, गाओ मेघ मल्हार.
जल गगरी पलटा रहा, नभ में मेघ कहार..
*

मुक्तिका

मुक्तिका:
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
जो जवां है तो पिलपिला क्यों है?
बोल तो लब तेरा सिला क्यों है?

दिल से दिल जब कभी न मिल पाया.
हाथ से हाथ फिर मिला क्यों है?

नींव ही जिसकी रिश्वतों ने रखी.
ऐसा जम्हूरियत किला क्यों है?

चोर करता है सीनाजोरी तो
हमको खुद खुद से ही गिला क्यों है?

शूल से तो कभी घायल न हुआ.
फूल से दिल कहो छिला क्यों है?

और हर चीज है जगह पर, पर
ये मगज जगह से हिला क्यों है?

ठीक कब कौन क्या करे कैसे?
सिर्फ गलती का सिलसिला क्यों है?
************************** 
२५-७-२०११ 

शनिवार, 24 जुलाई 2021

दोहा-यमक

दोहा सलिला
गले मिले दोहा-यमक ३
*
गरज रहे बरसे नहीं, आवारा घन श्याम
नहीं अधर में अधर धर, वेणु बजाते श्याम
*
कृष्ण वेणु के स्वर सुने, गोप सराहें भाग
सुन न सके वे जो रहे, श्री के पीछे भाग
*
हल धर कर हलधर चले, हलधर कर थे रिक्त
चषक थाम कर अधर पर, हुए अधर द्वय सिक्त
*
बरस-बरस घन बरस कर, करें धरा को तृप्त
गगन मगन बादल नचे, पर नर रहा अतृप्त
*
असुर न सुर को समझते, अ-सुर न सुर के मीत
ससुर-सुता को स-सुर लख, बढ़ा रहे सुर प्रीत
*
पग तल पर रख दो बढें, उनके पग तल लक्ष्य
हिम्मत यदि हारे नहीं, सुलभ लगे दुर्लक्ष्य
*
ताल तरंगें पवन संग, लेतीं पुलक हिलोर
पत्ते देते ताल सुन, ऊषा भाव-विभोर
*
दिल कर रहा न संग दिल, जो वह है संगदिल
दिल का बिल देता नहीं, नाकाबिल बेदिल
*
हसीं लबों का तिल लगे, कितना कातिल यार
बरबस परबस दिल हुआ, लगा लुटाने प्यार
*
दिलवर दिल वर झूमता, लिए दिलरुबा हाथ
हर दिल हर दिल में बसा, वह अनाथ का नाथ
*
रीझा हर-सिंगार पर, पुष्पित हरसिंगार
आया हरसिंगार हँस, बनने हर-सिंगार
*
२४-७-२०१६

हास्य षट्पदी, दोहा

दोहा
नेह नर्मदा कलम बन, लिखे नया इतिहास
प्राची तम का अन्त कर, देती रहे उजास
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, कंत बन सकें संत
*
हास्य षट्पदी
संजीव
*
फिक्र न ज्यादा कीजिए, आसमान पर भाव
भेज उसे बाजार दें, जिसको आता ताव
जिसको आता ताव, शान्त वह हो जायेगा
थैले में पैसे ले खुश होकर जाएगा
सब्जी जेबों में लेकर रोता आएगा
'सलिल' अजायबघर में सब्जी देखें बच्चे
जियें फास्ट फुड खाकर, बनें नंबरी लुच्चे
*
२४-७-२०१४

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

अहीर छन्द

रसानंद दे छंद नर्मदा ४० : अहीर छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति, अचल, अनुगीत, अहीर छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए छंद से
अहीर छंद
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण).
लक्षण छंद:
चाहे राँझ अहीर, बाला सुन्दर हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे नत शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन-प्रयास रस-वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही हो यश-नाम
भले रहे विधि वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें बिन लोभ, सह परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता उन्नत माथ, खाली हाथ फ़क़ीर
२३-७-२०१६
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बाल गीत पेंसिल

बाल गीत
पेंसिल
*
पेन्सिल बच्चों को भाती है.
काम कई उनके आती है.
अक्षर-मोती से लिखवाती.
नित्य ज्ञान की बात बताती.
रंग-बिरंगी, पतली-मोटी.
लम्बी-ठिगनी, ऊँची-छोटी.
लिखती कविता, गणित करे.
हँस भाषा-भूगोल पढ़े.
चित्र बनाती बेहद सुंदर.
पाती है शाबासी अक्सर.
बहिना इसकी नर्म रबर.
मिटा-सुधारे गलती हर.
घिसती जाती,कटती जाती.
फ़िर भी आँसू नहीं बहाती.
'सलिल' जलाती दीप ज्ञान का.
जीवन सार्थक नाम-मान का.
*****

बाल साहित्य में छंद

बाल साहित्य में छंद
सुषमा निगम, अन्नपूर्णा बाजपेई
बच्चों में अनुकरणशीतला, जिज्ञासा और कल्पनाशीलता बहुत अधिक होती है। अनुकरण से उनके चरित्र का विकास, जिज्ञासा से ज्ञान-वृद्धि होती है। कल्पनाशीलता से वे जीवन व जगत के विषय में अपेक्षित ज्ञान प्राप्त करने की ओर स्वयमेव उन्मुख होते हैं। अत:, आवश्यक है कि बच्चों के चारित्रिक विकास और ज्ञानवर्धन हेतु शैशव, बचपन और कैशोर्य तीनों अवस्थाओं के अनुरूप बाल साहित्य लिखाजाए। आज के बच्चे ही कल परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर योग्य नागरिक बनेंगे किंतु तभी जब उनके सामने आदर्श हों, उनकी जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान हो और उनके कल्पना जगत को यथार्थ की भूमि पर पैर जमाकर प्रयासों के हाथों से उपलब्धियों के आकाश को छूने का अवसर मिले। बच्चों को सद्विचार से आचार की प्रेरणा देने का कार्य बाल साहित्यकार ही कर सकते हैं। बालमन को ध्यान में रखकर कविता, कहानी, नाटक, लेख, जीवनी, संस्मरण, पहेली, चुटकुले आदि रचे जाना आवश्यक है। गद्य की तुलना में पद्य अधिक सरस तथा आसानी से याद रखने योग्य होता है। पद्य के लिए छंद आवश्यक है।
बाल साहित्यकारों द्वारा सरल भाषा में शिशु गीत, बाल गीत, कविता आदि की रचना इस प्रकार हो कि बाल पाठकों का शब्द ज्ञान व शब्द भंडार बढ़े और वे नए नए शब्दों का उपयोग करें। बाल साहित्य सृजन के लिये काल्पनिकता और यथार्थता का समन्वय अपेक्षित है। बाल साहित्यकारों, अभिभावकों, शिक्षकों और प्रकाशकों के समवेत प्रयास से ही बाल साहित्य को उचित प्रतिष्ठा मिल सकेगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित बाल साहित्य के पारस्परिक आदान-प्रदान से बाल साहित्य के विकास व राष्ट्रीय समन्वय भाव को नई दिशा मिल सकती है। अच्छे बालसाहित्य का अध्ययन बच्चों को साहित्य में वर्णित समाज, पर्यावरण, अतीत और भविष्य से संवाद करने के अवसर प्रदान करता है। इससे बच्चों के भाषिक और संज्ञानात्मक कौशल तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास होता है।
शिशु गीत:
बाल साहित्य लेखन में सर्वाधिक कठिनाई शिशु गीत लेखन में होती है क्योंकि शिशु का शब्द ज्ञान अत्यल्प होता है। शिशु लंबी रचनाएँ याद नहीं कर पाता। सार्थक और उपयोगी शिशु गीत बहुत कम लिखे गए हैं। शिशु गीत का कथ्य बच्चे को परिवेश से जोड़नेवाला होना आवश्यक है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस दिशा में सार्थक प्रयास किया है। उनके शिशु गीतों में छंद और कथ्य दोनों का प्रभावी प्रस्तुतीकरण हुआ है। भारत धर्म प्रधान देश है। बुद्धि के देवता गणेश, विद्या की देवी सरस्वती, पंच मातृका (धरती माता, भारत माता, हिंदी माता, गौ माता तथा माँ) पर शिशु गीतों का भाषिक प्रवाह और सरसता शिशुओं के लिए उपयुक्त है:
श्री गणेश की बोलो जय, / पाठ पढ़ो होकर निर्भय। / अगर सफलता पाना है- / काम करो होकर तन्मय।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान, / ललित कलाओं की हैं खान। / जो जमकर करता अभ्यास - / वही सफल हो, पा वरदान।। (१५ मात्रिक, तैथिक जातीय, पुनीत छंद)
धरती सबकी माता है, / सबका इससे नाता है। / जगकर सुबह प्रणाम करो- / फिर उठ बाकी काम करो।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
सजा शीश पर मुकुट हिमालय, / नदियाँ जिसकी करधन। / सागर चरण पखारे निश-दिन- / भारत माता पावन। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा, अंत के गुरु को दो लघु किया गया है)
हिंदी भाषा माता है, / इससे सबका नाता है। / सरल, सहज मन भाती है- / जो पढ़ता मुस्काता है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
देती दूध हमें गौ माता, / घास-फूस खाती है। / बछड़े बैल बनें हल खीचें / खेती हो पाती है। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा)
माँ ममता की मूरत है, / देवी जैसी सूरत है। / लोरी रोज सुनाती है, /सबसे ज्यादा भाती है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के साथ पश्चिमी कुसंस्कार भी घर-घर में घर कर रहे हैं। इन शिशु गीतों में बच्चों को भारतीय संस्कृति और परिवेश से जोड़ने की सजगता सहज दृष्टव्य है। महानगरों में 'अंकल-आंटी' के अलावा अन्य नाते बच्चे नहीं जानते। इस समस्या को सुलझाने के लिए सलिल जी ने नातों को ही शिशु गीतों का विषय बना कर अभिनव और उपयोगी पहल की है। इन शिशु गीतों में प्राय: मानव जातीय, हाकली छंद का प्रयोग हुआ है।
पापा चलना सिखलाते, / सारी दुनिया दिखलाते। / रोज बिठाकर कंधे पर- / सैर कराते मुस्काते।।
मेरा भैया प्यारा है, / सारे जग से न्यारा है। / बहुत प्यार करता मुझको- / आँखों का वह तारा है।।
बहिन गुणों की खान है, / वह प्रभु का वरदान है। / अनगिन खुशियाँ देती है- / वह हम सबकी जान है।।
पापा सूरज, माँ चंदा, / ध्यान सभी का धरते हैं। / मैं तारा, चाँदनी बहिन- / घर में जगमग करते हैं।।
बब्बा ले जाते बाज़ार, / दिलवाते टॉफी दो-चार। / पैसे नगद दिया करते- / कुछ भी लेते नहीं उधार।।
राम नाम जपतीं दादी, / रहती हैं बिलकुल सादी। / दूध पिलाती-पीती हैं- / खूब सुहाती है खादी।।
मम्मी के पापा नाना, / खूब लुटाते हम पर प्यार। / जब भी वे घर आते हैं- / हम भी करते बहुत दुलार।।
कहतीं रोज कहानी हैं, / माँ की माँ ही नानी हैं। / हर मुश्किल हल कर लेतीं- / सचमुच बहुत सयानी हैं।।
चाचा पापा के भाई, / हमको लगते हैं अच्छे। / रहें बड़ों सँग, लगें बड़े- /बच्चों में लगते बच्चे।।
प्यारी लगतीं मुझे बुआ, / मुझे न कुछ हो- करें दुआ। / प्यारी बहिना पापा की- / पाला घर में हरा सुआ।।
मामा मुझको मन भाते, / माँ से राखी बँधवाते। / सब बच्चों को बैठाकर / गप्प मारते-बतियाते।।
मौसी माँ सी ही लगती, / मुझको गोद उठा हँसती। / ढोलक खूब बजाती है, / केसर-खीर खिलाती है।
बाल-काव्य पर विचार करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे मन में बच्चों व बचपन के बारे में एक स्पष्ट समझ हो जिसमें बच्चे को एक जागरूक व जिज्ञासु इंसान के रूप देखना, बाल विकास से जुड़े मुद्दों को समझना व समाज को समझना आदि बातें शामिल हो। बाल काव्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति मज़े-मज़े में, खेल-खेल में होना आवश्यक है। बच्चे जानकारी से नहीं, नई कल्पना से आनंदित होते हैं। १६-११ २७ मात्रिक नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में रचे निम्न शिशु गीत में कल्पना की उड़ान देखें:
सुनो मजे की बातें भैया / सुनो मजे की बात
हाथी दादा दबा रहे हैं / चींटी जी के पाँव
चूहे जी के डर से भागी / बिल्ली अपने गाँव
रौब जमाता फिरता सब पर / नन्हा सा खरगोश
चीता सहमा हुआ खड़ा है / भूला अपने होश
एक सात-आठ साल का बच्चा भी यह जानता है कि धरती गोल है और यह सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है। वह इस जानकारी से खुश नहीं होता। उसे तो कहानी में कोई ऐसा पात्र चाहिए जो धरती पर पाँव रखकर उसे चपटा बना दे या धरती को उल्टी दिशा में घुमा दे। ऐसी स्थिति में धरती पर क्या होगा?, इस कल्पना से वह रोमांचित होता है। यह फैंटेसी कल्पनात्मक और कलात्मक आनंद की सृष्टि करती है, जो बालसाहित्य की आत्मा है। यथार्थ बताते हुए असंभव कल्पनाओं को चित्रित करना और फैंटेसी रचना ही बाल साहित्य है।
बाल-काव्य में बच्चों या बचपन की छवि को उभारा जाना जरूरी है। ऐसी रचनाओं में बच्चे और पशु-पक्षी हों किंतु बड़ों की सोच न हो क्योंकि बच्चे उसका पूर्वानुमान लगा लें तो उत्सुकता नहीं जग पाती, 'आगे क्या होने वाला है' का कौतूहल समाप्त हो जाता है।
पाखी ने बिल्ली पाली. / सौंपी घर की रखवाली../ फिर पाखी बाज़ार गई. / लाई किताबें नई-नई / तनिक देर जागी बिल्ली. / हुई तबीयत फिर ढिल्ली../ लगी ऊंघने फिर सोई. / सुख सपनों में थी खोई. / मिट्ठू ने अवसर पाया./ गेंद उठाकर ले आया../ गेंद नचाना मन भाया. / निज करतब पर इठलाया../ घर में चूहा आया एक./ नहीं इरादे उसके नेक../ चुरा मिठाई खाऊँगा./ ऊधम खूब मचाऊँगा../ आहट सुन बिल्ली जागी./ चूहे के पीछे भागी../ झट चूहे को जा पकड़ा./ भागा चूहा दे झटका../ बिल्ली खीझी, खिसियाई./ मन ही मन में पछताई..
बाल गीत और पात्र:
मुझे याद आता है एक बार मैंने जैसे ही बाल-कथा सुनाते समय पात्रों का परिचय दिया- एक थी गिलहरी ...बच्चे बोल पड़े 'बड़ी नटखट और चुलबुली थी।' सचमुच कहानी में ऐसा ही था मगर कहानी में मजा बनाए रखने के लिए मुझे गिलहरी के पात्र को फिर से गढ़ना पड़ा। अतः, बाल-शिक्षण की दृष्टि से रचनाओं का चयन करते समय देखना चाहिए कि क्या इन रचनाओं में पात्रों की प्रचलित छवियों (लोमड़ी चालाक ही होगी, खरगोश चतुर ही होगा, शेर बहादुर ही होगा, बच्चे बड़ो के निर्देश पर ही काम करेंगे, सौतेली माँ दुष्ट ही होगी आदि) को तोड़ते हुए किसी स्वतन्त्र छवि को गढ़ा जा रहा है? ख्यात बाल साहित्यकार डॉ. शेषपाल सिंह 'शेष' ने एक कथा-गीत में बिल्ली की चूहे पकड़ने की परम्पराबद्ध छवि से मुक्त कर नव युग के अनुरूप नयी छवि दी है: 'सोचो-बदलो बिल्ली मौसी / हमें बदलने दो / चलते हुए समय को अपनी / गति से चलने दो / मेल-जोल से बुरी बात को / दूर हटाना है / टी. वी., टेलीफोन, मेल-ई, / इंटरनेट हुए / एरोप्लेन, टैंकर, अणुबम , युद्धक-जेट हुए / बढ़ें वेब-कंप्यूटर युग में / देश उठाना है.' २६ मात्रिक, महाभागवत जातीय, विष्णुपद छंद ने इस कथा-गीत में चार चाँद लगा दिए हैं।
बाल साहित्य और चित्रांकन:
बच्चों की किताबों में चित्रांकन एक आवश्यक पहलू है। चित्र गीत या कहानी का अटूट हिस्सा होते हैं। बच्चे चित्रों के आधार पर ही पढ़ने की शुरुआत कर लिखे गए का अर्थ ग्रहण करते हैं। अतः, छोटे बच्चों की किताबों में चित्र स्पष्ट, बड़े और बोलते हुए होने चाहिए। चित्रों के साथ उनके बारे में कुछ काव्य-पंक्तियाँ या वाक्य लिखे हों तो प्रभाव और भी बढ़ जाता है। छोटे बच्चों की किताबों में अक्षरों का आकार बड़ा हो ताकि उन्हें आसानी से पढ़ा जा सके। चित्रों के बारे में हमें यह भी समझना होगा कि चित्र इस तरह के हों जो पाठ की हू-ब-हू नकल जैसे न हों वरन लिखी गई बात को और आगे बढ़ाएँ जिससे बच्चों को सोचने व कल्पना करने का मौका मिले। इसके साथ ही स्थिर व रूढि़वादी चित्रों की बजाय चित्रों में गतिशीलता हो जो वास्तविकता में कुछ घट रहा हो ऐसा महसूस करा सकें। वरिष्ठ साहित्यकार श्री सदाशिव कौतुक ने चहक-महक में 'हम पौधे हैं' गीत के साथ पौधे लगाते हुए बच्चों का चित्र दिया है जो गीत का प्रभाव बढ़ाता है- 'हम दुनिया के पौधे हैं / दुनिया हमसे है आबाद / हम महकेंगे; हम चहकेंगे / शुद्ध मिलेगा पानी-खाद।'
राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ शिक्षक तथा प्राचार्य रहे डॉ. रमेशचंद्र खरे ने शब्दों को ही चित्रांकन का माध्यम बनाया है। शब्द चित्र उपस्थित करने के लिए कवि की सामर्थ्य असाधारण होना चाहिए- 'पौ फूटी, भोर हो गया / जागे सब, शोर हो गया। / चिड़ियों की चूं-चूं-चूं / कौओं की काँव-काँव / मुर्गों की बांग-बिगुल / बजता है गाँव-गाँव / अब तो मन मोर हो गया' इस रचना में पूरा परिवेश जीवन हो उठा है। (मुखड़ा १४ मात्रिक मानव जातीय हाकलि छन्द, अंतरा २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद, यति १२-१२)
बालसाहित्य और चेतना-जागृति:
ख्यात शिक्षक और प्राचार्य रहे कृष्णवल्लभ पौराणिक बच्चों को बहुराष्ट्रीय उत्पादों के प्रति विमुख करने के लिए गीत को माध्यम बनाते हैं: 'बोलो बच्चों! तुम्हें चाहिए? / जेम्स गोलियां? केडबरीज? / चुईन्गम गोली?, फिफ्टी-फिफ्टी? / चोकलेट फाइवस्टार?, पार्ले बिस्किट? / और कहो जो तुम्हें चाहिए / नहीं, हमें ये नहीं चाहिए / हमें दीजिए खीर दूध की / सब्जी-रोटी डाल व चांवल / अचार, भुट्टा, गुलाब जामुन / और जलेबी, मथुरा पेड़े ' (सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. बलजीत सिंह पुस्तक संस्कृति के प्रति बच्चों के लगाव को १६ मात्रिक संकरी जातीय छंद में रचित गीत के माध्यम से बढ़ा रहे हैं- पुस्तक है अनमोल खज़ाना / बता रहे थे मेरे नाना / पढ़-पढ़कर वे मुझे सुनाते / बात-बात में ज्ञान बढ़ाते / और न इन सा साथी-संगी / इनकी दुनिया रंग-बिरंगी। / कभी हँसा दें, कभी रुला दें / मीठी-मीठी नींद सुला दें' (१६ मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश' बालगीत के माध्यम से राष्ट्रीय भावधारा का बीजारोपण करते हैं: 'जहाँ हिमालय प्रहरी बनकर, करता सबका मान है / जिसकी रज तक प्यार बाँटती, मेरा हिन्दुस्तान है / हर युग में गौतम-गाँधी बन / लेते सुत अवतार हैं / जहाँ ह्रदय से होती माँ की / एक कंठ जयकार है। / जहाँ देश के लिए लाड़ले, हँसकर देते जान हैं / शांति-ज्ञान का अमर कोष वह मेरा हिन्दुस्तान है' (मुखड़ा-अंतरा २९ मात्रीय महायौगिक जातीय छंद, १६-१३ पर यति)।
बाल चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप शुक्ल ने बाल गीतों के स्वास्थ्य-चेतना जगाने का उपकरण बनाया है। एक अमीबा शीर्षक गीत में वे क्रिकेट की गेंद नाली में गिरने, उसे निकालते समय नाखूनों में अमीबा लगने और खाने के साथ पेट में जाने और गड़बड़ मचाने की घटना के माध्यम से स्वच्छता का संदेश देते हैं: 'एक अमीबा बड़े मजे से नाले में था रहता / अरे! वही गंदा नाला जो सड़क पार था बहता / कहने को तो एक अमीबा ढेरों उसके बच्चे / नाली में उनकी कोलोनी रहते गुच्छे-गुच्छे / क्रिकेट खेलते हुए गेंद नाली में गिरी छपाक / आव न देखा, ताव न देखा पप्पू गया तपाक / साथ गेंद के कई अमीबा पप्पू लेकर आया / बड़े-बड़े नाखून, भूल से उनको वहीं छुपाया / हाथ नहीं धोया अच्छे से पप्पू ने घर जाकर / खुश थे बहुत अमीबा सारे उसके पेट में आकर / रात हुई पप्पू चिल्लाया हुई पेट में गुड़गुड़ / सारे बच्चे समझ रहे हैं कहाँ-कहाँ थी गड़बड़ / तो बच्चों गलती ना करना पप्पू जैसी तुम भी / वरना प्यारे बच्चों तुम फिर सजा पाओगे लंबी।' ( २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद, १६-१२ पर यति)
बाल-रचनाओं की भाषा:
बच्चों को रचना पढ़ने का आनंद तभी आएगा जब भाषा आसानी से समझ में आती हो और दिल तक उतर जाती हो। कॉमिक्स और परीकथाएँ अपनी भाषाई सहजता और बोलचाल के शब्दों के उपयोग के कारण बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। तात्पर्य यही है कि बच्चों की पुस्तकों में उपयोग में लाई जा रही रचनाओं की भाषा बनावटी व कठिन न हो वरन् सहज और प्रवाहपूर्ण हो बच्चे ऐसी रचनाएँ पसंद करते हैं जिनमें बात नए तरीके से कही जा रही हो, नई कल्पनाएँ हों, असंभव को संभव बनाने के लिए फैंटेसी रची गई हो। वे ऐसी रचनाएँ भी पसंद करते हैं जिनमें एक ही बात का दोहराव हो और दोहराते समय उनमें नए पात्र या घटना जोड़ दी गई हो। बाल कविताओं मे भी ध्वनियों के साथ विविध प्रयोग जैसे: 'बादल गरजा धम धम धडाम / बिजली चमकी कड़ कड़ कड़ाम' आदि हो तो वे बच्चों को आकर्षित करते हैं। बच्चे भाषा से पूरी तरह से वाकिफ नहीं हो पाते, अतः उनके लिए लिखी गई रचनाओं में सरल शब्द हों जिन्हें बच्चे आसानी से समझ पाएँ। बच्चों के लिए लिखे गए गीतों की भाषा में प्रवाह, लय और छांदस सहजया आवश्यक है। उक्त सभी गीतों में सरसता, सरलता, शब्द-चयन में सटीकता, छंद के गेयता तथा अर्थ की स्पष्टता देखी जा सकती है। बालोपयोगी रचना गद्य, पद्य, नाट्य या नृत्य किसी भी विधा में हो उसमें छंद का होना शरबत में शक्कर का होना है।
संदर्भ: दिव्य नर्मदा नेट पत्रिका, झूमे नाचें गीति कथाएँ -शेषपाल सिंह शेष, चहक-महक -सदाशिव कौतुक, आओ सीखें मैदानों में गाते-गाते गीत -डॉ. रमेश चंद्र खरे, रेल चली भई रेल चली -कृष्णवल्लभ पौराणिक, हम बगिया के फूल -डॉ. बलजीत सिंह, एक सौ एक बाल गीत -डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश', गुल्लू का गाँव -डॉ. प्रदीप शुक्ल।
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मुक्तक

 मुक्तक

रंग इश्क के अनगिनत, जैसा चाहे देख
लेखपाल न रख सके लेकिन उनका लेख
जी एस टी भी लग नहीं सकता, पटको शीश -
खींच न लछमन भी सकें, इस पर कोई रेख
*
माँ
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
*
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
***

बात पर दोहे

बात पर दोहे
*
इसने उसकी बात की, उसने इसकी बात।
शब्द-शब्द होते रहे, उस-इस पर आघात।।
*
किसलय से ही सीख लें, किस लय में हो बात।
मधुकर कौशल माधुरी, सिक्त रहें जज्बात।।
*
तन्मय होकर बात कर, मन में रख सद्भाव।
तंत न व्यर्थ भिड़ंत में, रख बसंत सा चाव।।
*
जय प्रकाश सम बात कर, छोड़ छल-कपट-दाँव।
बागर हो बागरी सदृश, बचा देश घर गाँव।।
*
परिणीता चाहे नहीं, रहे विनीता बात।
सत्यपरक मिथिलेश सी, तब सुधरें हालात।।
*
व्यर्थ बात ही बात में, निकल बात से बात।
बढ़े बात तो टालिए, हो न बात से मात।
*
सुनी न समझी अन्य की, की अपनी ही बात।
भले प्रात से रात तक, सुलझ न पाई बात।।
*
वन प्रकाश की राह चल, धन्य केशवानंद।
बात करें परमार्थ की, दें जन को आनंद।।
*
धाम सैलवारा ललित, वरदायी वट-वृक्ष।
बैठ छाँह में बात कर, पाले ग्यान सुलक्ष।।
*
बात-बात में मात हो, बात-बात से जीत।
कहें केशवानंद जी, बात बढ़ाती प्रीत।।
*
23.7.2018, 7999559618

भारतेन्दु हरिश्चंद्र

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (९-९-१८५०-६-१-१८८५)
गंगा-वर्णन
नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत ।
जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥

सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥

श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥

शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥

सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥
***
यमुना वर्णन
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥

तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।
तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।
मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक - सी नभ तीर की ॥२॥

परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥
मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३॥

कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।
कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।
कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।

मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।
कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।

कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत ।
जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।
***

गुरु पर दोहे

: विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर :
गुरु पूर्णिमा पर दोहोपहार
*
जग-गुरु शिव शंकारि हैं, रखें अडिग विश्वास
संग भवानी शक्ति पर, श्रद्धा हरती त्रास
*
गुरु गिरि सम गरिमा लिए, रखता सिर पर हाथ
शिष्य वही कुछ सीखा, जिसका नत हो माथ
*
गुरु-वंदन कर ध्यान से, सुनिए उसके बोल
ग्यान-पिटारी से मिलें, रत्न तभी अनमोल
*
गुरु से करिए प्रश्न हो, निज जिग्यासा शांत
जो गुरु की ले परीक्षा, भटके होकर भ्रांत
*
मात्र एक दिन गुरु सुमिर, मिले न पूरा ग्यान
गुरु सुमिरन कर सीख नित, दुहरा तज अभिमान
*
सूर्य-चंद्र की तरह ही, हों गुरु-शिष्य हमेश
इसकी ग्यान-किरण करे, उसमें सतत प्रवेश
*
गुरु-प्रति नत शिर नमन कर, जो पाता आशीष
उस पर ईश्वर सदय हों, बनता वही मनीष
*
अंध भक्ति से दूर रह, भक्ति-भाव हर काल
रखिए गुरु के प्रति सदा, दोनों हों खुशहाल 
*
गुरु-मत को स्वीकारिए, अगर रहे मतभेद 
नहीं पनपने दीजिए, किंचित भी मनभेद 
*
नया करें तो मानिए, गुरु का ही आभार 
भवन तभी होता खड़ा, जब हो दृढ़ आधार 
*
दर्शन को बेज़ार हूँ, अर्पित करूँ प्रणाम
सिखा रहे गुरु ज्ञात कुछ, कुछ अज्ञात-अनाम
*
गुरु हो जिसको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य 
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य 
*
वही पूर्णिमा निरूपमा, जो दे जग उजियार 
चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार 
*
गुरु गुरुता पर्याय हो, खूब रहे सारल्य
दृढ़ता में गिरिवत रहे, सलिला सा तारल्य
*
गुरु गरिमा हो हिमगिरी, शंका का कर अंत
गुरु महिमा मंदाकिनी, शिष्य नहा हो संत
*
सद्गुरु ओशो ज्ञान दें, बुद्धि प्रदीपा ज्योत
रवि-शंकर खद्योत को, कर दें हँस प्रद्योत
*
गुरु-छाया से हो सके, ताप तिमिर का दूर.
शंका मिट विश्वास हो, दिव्या-चक्षु युत सूर.
*
गुरु न किसी को मानिये, अगर नहीं स्वीकार
आधे मन से गुरु बना, पछताएँ मत यार
*
गुरुघंटाल न हो कहीं, गुरु रखिए यह ध्यान 
तन-अर्पित मत कीजिए, मन से करिए मान 
*
गुरु पर श्रद्धा-भक्ति बिन, नहीं मिलेगा ज्ञान
निष्ठा रखे अखंड जो, वही शिष्य मतिमान
*
गुरु अभिभावक, प्रिय सखा, गुरु माता-संतान
गुरु शिष्यों का गर्व हर, रखे आत्म-सम्मान
*
गुरु में उसको देख ले, जिसको चाहे शिष्य
गुरु में वह भी बस रहा, जिसको पूजे नित्य
*
गुरु से छल मत कीजिए, बिन गुरु कब उद्धार?
गुरु नौका पतवार भी, गुरु नाविक मझधार
*
गुरु को पल में सौंप दे, शंका भ्रम अभिमान
गुरु से तब ही पा सके, रक्षण स्नेह वितान
*
गुरु गुरुत्व का पुंज हो, गुरु गुरुता पर्याय
गुरु-आशीषें तो खुले, ईश-कृपा-अध्याय
*
जीवन के गुर सिखाकर, गुरु करता है पूर्ण
शिष्य बिना गुरु पूर्ण पर, रहता शिष्य अपूर्ण
*
गुरु उसको ही जानिए, जो दे ज्ञान-प्रकाश
आशाओं के विहग को, पंख दिशा आकाश
*
नारायण-आनंद का, माध्यम कर्म अकाम
ब्रम्हा-विष्णु-महेश भी, कर्मदेव गुरु नाम
*
गुरु को अर्पित कीजिये, अपने सारे दोष
लोहे को सोना करें, गुरु पाए संतोष
*
गुरु न गूढ़, होता सरल, क्षमा करे अपराध
अहंकार-खग मारता, ज्यों निष्कंपित व्याध
*
गुरु-छाया से हो सके, ताप तिमिर का दूर
शंका मिट विश्वास हो, दिव्य-चक्षु युत सूर
***

गुरुवार, 22 जुलाई 2021

नवगीत

 एक नवगीत

तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त विधि ,
अणु-परमाणु-विषाणु विष्णु हो धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल--नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
भू-नभ
दिग्दिगंत यश गाते।
भूत-अभूत तुम्हीं ने नाते, बना निभाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज है खरा।
लड़, मर-मिटे
सुरासुर लेकिन
मिलकर जिए
रहे तुम आम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत हाय! न हमने, चूक यही।
रौंद प्रकृति को
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
आप बो रहे।
खाली हाथों
जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
***

बुधवार, 21 जुलाई 2021

लघुकथा

लघुकथा : एक दृष्टि
संजीव
*
लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
*
लघुकथा:

निपूती भली थी

-आचार्य संजीव 'सलिल'

बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आई.

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे. दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीडाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- 'ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.

* * * * *
लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं. उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता ही रहता है. इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं. अब तो उसका पीछा छोड़ दे'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"हैं न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न?धरती माने या न माने सूरज धूप देना बंद तो नहीं करता. मैं सूरज की रोज पूजा करूं और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन."
*

लघुकथा

लघुकथा
सिसकियाँ
सिसकियों की आवाज सुनकर मैंने पीछे मुड़के देखा। सांझ के झुरमुट में घुटनों में सर झुकाए वह सिसक रही थी। उसकी सिसकियाँ सुनकर पूछे बिना न रहा गया। पहले तो उसने कोई उत्तर न दिया, फिर धीरे धीरे बोली- 'क्या कहूँ? मेरे अपने ही जाने-अनजाने मेरे बैरी हो गए।
- तुम उनसे कोई अपेक्षा ही क्यों करती हो?
= अपेक्षा मैं नहीं करती, मुझसे ही अपेक्षा की जाती है कि मैं सबके और हर एक के मन के अनुसार ही खुद को ढाल लूँ। मैं किस-किस के अनुसार खुद को बदलूँ?
- बदलाव ही तो जीवन है। सृष्टि में बदलाव न हो एक सा मौसम, एक से हालात रहें तो विकास ही रुक जाएगा।
= वही तो मैं भी कहती हूँ। मेरा जन्म लोक में हुआ। माताएँ अपने बच्चों को बहलाने के लिए मुझे बुला लेतीं। किसान-मजदूर अपनी थकान भुलाने के लिए मुझे अपना हमसाया पाते। गुरुजन अपने विद्यार्थियों को समझाने, राह दिखाने के लिए मुझे सहायक पाते रहे।
- यह तो बहुत अच्छा है, तुम्हारा होना तो सार्थक हो गया।
= होना तो ऐसा ही चाहिए पर जो होना चाहिए वह होता कहाँ है? हुआ यह कि वर्तमान ने अतीत को पहचनाने से ही इंकार कर दिया। पत्तियों और फूलों ने बीज, अंकुर और जड़ों को अपना मूल मानने से ही इंकार कर दिया।
- यह तो वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।
= बात यहीं तक नहीं है। अब तो अलग अलग फलों ने अलग-अलग यह निर्धारित करना शुरू कर दिया है कि जड़ों, तने और शाखाओं को कैसा होना चाहिए, उनका आकार-प्रकार कैसा हो?, रूप रंग कैसा हो?
- ऐसा तो नहीं होना चाहिए। पत्तियों, फूलों और फलों को समझना चाहिए कि अतीत को बदला नहीं जा सकता, न झुठलाया जा सकता है।
= कौन किसे समझाए? हर पत्ती, फूल और फल खुद को नियामक मानकर नित नए मानक तय कर खुद को मसीहा मान बैठे हैं।
- तुम कौन हो? किसके बारे में बात कर रही हो?
= मैं उस वृक्ष की जीवन शक्ति हूँ जिसे तुम कहते हो लघुकथा।
***

सोरठा - दोहा गीत संबंधों की नाव

सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
२०-७-२०१६