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शनिवार, 15 मई 2021

चित्र पर रचना


चित्र-चित्रण-६३,
सुप्रभात मित्रों ! 
आज का चित्र भारतवर्ष के ग्रामीण परिवेश पर आधारित है ! आज यद्यपि भारतवर्ष बहुत प्रगति कर रहा है तथापि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर इसी तरह के किचन आज भी देखने को मिल जाते हैं जिसका मुख्य कारण संभवतः अशिक्षा, कार्य करने के उचित माहौल का न होना व उससे जनित गरीबी ही है | अपने देश की विडंबना यह है कि जो भी व्यक्ति अमीर है वह बहुत अमीर तथा जो भी बेचारा गरीब है वह बहुत ही गरीब है ...........परन्तु दोस्तों ! शिक्षा बहुत बड़ी चीज है यदि उचित मार्गदर्शन मिले तो इसी चूल्हे की रोटी खाकर व्यक्ति अपने परिश्रम से आई० ए० एस० तक बन सकता है ........)
तो आइये करते हैं इस चित्र का काव्यमय चित्रण ..............
(नोट : इस प्रतियोगिता में प्रविष्टि देने की अंतिम तिथि दिनांक १४-०५-२०११ दिन शनिवार की देर रात तक है ........दिनांक १५-०५-२०११ दिन रविवार को प्रातः ९-०० बजे इसका निर्णय पोस्ट किया जायेगा......आप सभी से अनुरोध है कि कृपया दी गई प्रविष्टियों पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य पोस्ट करें!)
पिछली प्रतियोगिता चित्र-चित्रण-६२ के प्रथम स्थान के विजेता आदरणीय आचार्य संजीव "सलिल" जी "चित्र-चित्रण-६३" के निर्णायक होंगें।
***

इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

प्रथम स्थान के विजेता आदरणीय आचार्य संजीव "सलिल" जी "चित्र-चित्रण-६३" के निर्णायक होंगें .........
सभी मित्रों के प्रोत्साहन हेतु यह दुर्मिल सवैया छंद प्रस्तुत है
//भुंई बैठि के श्यामल कर्म करै मुसकाय जो शीतल मेह दिखै,
निज जीवन धर्म जहाँ मिट्टी मिट्टी जिमि गेह सुगेह दिखै,
जेंहि चूल्हेसि चाय बनाय चुकी वहि ईंधन देह सुदेह दिखै,
तेहिं देखि रसोइनि की महिमा जंह गाँवन पावन नेह दिखै.
Vinod Bissa Poet
(०१)
ढ़ूंडो तो मिले खुशी
चाहे हो वह झोपड़
जीना सुखमय सीखो
संसाधन भले न सही
(०२)
देख चेहरे की मुस्कुराहट
क्या महलों में मिलती
शांत माहोल, जीने की राह
जीवन शक्ति भर देती
(०३)
आशा भरी सांसे
बलवती स्वास्थ्य
अब अच्छे समय का
करे हंसकर इंतजार
(०४)
भारतीत नारी शक्ति स्वरुपा
यूं ही नहीं कहलाती
विपत्तियों में भी प्रसन्नचित्त रह
आपदाओं को हराती
(०५)
टूटी फूटी रसोई
बीन कर लाई टहनियां
राजी खुशी फिर भी रहें
भारत की गृहणियां
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

//ढूंढो तो मिले खुशी
चाहे हो वह झोपड़
जीना सुखमय सीखो
संसाधन भले न सही//
बहुत सुन्दर सन्देश युक्त पंक्तियाँ .........बहुत बहुत बधाई .....
(०२)
//देख चेहरे की मुस्कुराहट
क्या महलों में मिलती
शांत माहोल, जीने की राह
जीवन शक्ति भर देती//
सच कहा आपने ! यह मुस्कराहट सभी के नसीब में कहाँ ?
(०३)
//आशा भरी सांसे
बलवती स्वास्थ्य
अब अच्छे समय का
करे हंसकर इंतजार//
इन पंक्तियों से हृदय में आशा व उमंग का संचार होता है ......पुनः बधाई ..........
(०४)
//भारतीय नारी शक्ति स्वरुपा
यूं ही नहीं कहलाती
विपत्तियों में भी प्रसन्नचित्त रह
आपदाओं को हराती//
भारतीय नारी के सम्बन्ध में यही सच है.........मित्र .......
(०५)
//टूटी फूटी रसोई
बीन कर लाई टहनियां
राजी खुशी फिर भी रहें
भारत की गृहणियां//
इन पंक्तियों में परम संतुष्टि का भाव है .............जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान...........
इन क्षणिकाओं के सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई .
MIrza A A Baig
A cup of tea made with so much care and love is sure to inebriate.अनु श्री अनु श्री
अनु श्री
जिंदगी से भरते रहे प्यालों में चाय
और करते रहे सब की खिदमत
कभी कोई इन के लिए भी करे दुआ
हाथ उठा के कुछ इबादत.
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
स्वागत है अनु श्री......
//जिंदगी से भरते रहे प्यालों में चाय
और करते रहे सब की खिदमत
कभी कोई इन के लिए भी करे दुआ
हाथ उठा के कुछ इबादत........//
बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ ........आपको बहुत-बहुत बधाई ......:))
Yograj Prabhakar

पिछली प्रतियोगिता चित्र-चित्रण-६२ के प्रथम स्थान के विजेता आदरणीय आचार्य संजीव "सलिल" जी को बहुत बहुत बधाई !
आदरणीय अम्बरीश भाई जी, बहुत ही सुन्दर छंद कहा है आपने ! बधाई स्वीकार करें !
//टूटी फूटी रसोई
बीन कर लाई टहनियां
राजी खुशी फिर भी रहें
भारत की गृहणियां//
बहुत सुन्दर लिखा है आदरणीय बिस्सा जी
Er Ganesh Jee Bagi
सर्व प्रथम तो मैं आचार्य संजीव सलिल जी को चित्र चित्रण प्रतियोगिता ६२ में भाग लेने और प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर बहुत बहुत शुभकामना प्रदान करना चाहूँगा, तथा चित्र चित्रण ६३ में सुंदर रचनाओं को आने की उम्मीद करता हूँ |
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

स्वागत है आदरणीय प्रभाकर जी ! आदरणीय आचार्य "सलिल" जी की तरह आप भी हम सभी को कृपया अपना स्नेहाशीष दें !...... :))आदरणीय प्रभाकर जी ! आपको यह छंद पसंद आया तो अपना कवि-कर्म सार्थक हुआ ......हृदय से बहुत-बहुत आभार आपका .......:))
आपका स्वागत है आदरणीय बागी जी ! आपके आगमन से हम सभी को अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है .........:))
पांच हाईकू
(१)
मिट्टी चूल्हा
लकड़ी जलावन
खाना पावन
(२)
दूर अँधेरा
टिमटिम ढिबरी
मन हर्षित
(३)
सोंधी खुशबु
प्याले की गर्म चाय
वाह जी वाह
(४)
कच्चा है घर
गोबर पुता फर्श
ठंढा मगर
(५)
रोटी औ दाल
लहसुन चटनी
पिज्जा बेकार
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

(१)
//मिट्टी चूल्हा
लकड़ी जलावन
खाना पावन//
वाह भाई बागी जी वाह ! क्या लाख टके की बात कही है ...........:))
...(२)
//दूर अँधेरा
टिमटिम ढिबरी
मन हर्षित//
क्या बात है ........इस हाइकु से तो इस दिल में भी प्रकाश छा गया ........
(३)
//सोंधी खुशबु
प्याले की गर्म चाय
वाह जी वाह//
वाह जी वाह!वाकई ! आनंद आ गया ..........
(४)
//कच्चा है घर
गोबर पुता फर्श
ठंढा मगर//
फिर भी इसकी ख़ूबसूरती के क्या कहने..........क्योंकि यह फर्श पर नित्य प्रति दो बार चौका जगाया जाता है......
(५)
//रोटी औ दाल
लहसुन चटनी
पिज्जा बेकार//
बिलकुल सच कहा आपने ! इसके आगे तो सरे व्यंजन बेकार हैं ........
आपने तो इस चित्र में जान ही डाल दी भाई ........कहाँ थे आप अभी तक ?...........:))
Yograj Prabhakar
वाह वाह वाह बागी साहिब, मिट्टी से जुडे हुए आपके पाँचों हाईकु वाक़ई दिलकश है ! भाई अम्बरीश जी की टिप्पणी के बाद यूँ तो कहने को कुछ नहीं बचा लेकिन एक बात अवश्य कहूँगा कि क्या "टू द पॉइंट" बात की है आपने चित्र को देखकर - आनंद आ गया! बधाई स्वीकार करें!

इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

//इक तो कच्चे मकान की खुश्बू !
उसपे ग़ुरबत की शान की खुश्बू !
माँ के हाथों की चाय यूँ महके,
जैसे हो ज़ाफ़रान की खुश्बू !//
क्या बात है आदरणीय प्रभाकर जी !............. चंद पंक्तियों में आपने गागर में सागर भर कर आपने हम सभी का दिल जीत लिया ...........भाई बागी जी नें एकदम सत्य कहा है .......ह्रदय से बहुत-बहुत बधाई आपको ............:)))
Alok Sitapuri

सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||
Yograj Prabhakar

//सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||//
वाह वाह अलोक सीतापुरी जी - क्या ग़ज़ब का लिखा है आपने - आनंद आ गया पढ़कर !
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

//सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई|| //
बड़ी देर बाद आये मालिक .......राह देखते देखते आँखें पथरिया गयीं .............क्या बात है ! आपकी पंक्तियाँ ग़ज़ब की हैं....... जो कि कलेजे पे सीधा ही वार करती हैं ...............चित्र को परिभाषित करतीं व रोटी-चटनी का मेल मिलातीं बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ आपकी ........बहुत-बहुत बधाई आपको ........:))
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

थोड़ी देर में अर्थात आज रात्रि ९-०० बजे इस प्रतियोगिता में प्रविष्टि देने का समय समाप्त होने को है .....आदरणीय आचार्य संजीव "सलिल" जी (निर्णायक महोदय ) को प्रणाम करते हुए उनसे सादर अनुरोध है कि वह अपना निर्णय तैयार कर के उसे आज रात्रि ९-०० बजे के बाद शीघ्र ही पोस्ट कर दें .............:))
संजीव वर्मा 'सलिल'

आत्मीय जनों!
वन्दे मातरम.
विलंब हेतु ह्रदय से क्षमाप्रार्थी हूँ. आजकल जबलपुर से २५० की.मी. दूर छिंदवाडा में पदस्थ हूँ. ३ जिलों में शताधिक निर्माण परियोजनाओं का निर्माण करा रहा हूँ. वहां अंतरजाल की सुविधा और समय दोनों का आभाव है. भाई अम्बरीश जी ने उदारतापूर्वक मुझे गुरुतर दायित्व सौंपा, आभारी हूँ. आत्मीयता में सहमति की औपचारिकता आवश्यक नहीं होती... इनकार करना इस अपनेपन की अवमानना होती... आज किसी तरह भागकर जबलपुर आया कि इस दायित्व का विलम्ब से ही सही निर्वहन कर सकूँ. अस्तु...
प्रस्तुत चित्र मन को छूने में समर्थ है. कविता करनी नहीं पड़ेगी अपने आप हो जायेगी. अम्बरीश जी ने सम्यक-सार्थक विश्लेषण भी कर दिया है. इस चित्र पर तो लघुकथा या कहानी भी रची जा सकती है. किसी मंच पर एक ही चित्र पर गद्य-पद्य रचनाओं को आहूत किया जाये तो आनंद में वृद्धि होगी.
यहाँ प्राप्त रचनाओं की संख्या सीमित है. इस आयोजन की सर्वश्रेष्ठ पंक्तियाँ भाई योगिराज प्रभाकर की है:
इक तो कच्चे मकान की खुश्बू !
उसपे ग़ुरबत की शान की खुश्बू !
माँ के हाथों की चाय यूँ महके,
जैसे हो ज़ाफ़रान की खुश्बू !
इन पंक्तियों को जितनी बार पढ़िए उतना अधिक आनंद आता है. स्थूल रूप में देखें तो चित्र में खुशबू का कोई प्रसंग नहीं है... न फूल, न बगीचा, न ख़ुश्बू भरे अन्य पदार्थ किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' की उक्ति के अनुसार प्रभाकर जी के उर्वर मस्तिष्क ने इस चित्र का केंद्र भाव 'ख़ुश्बू' को बना दिया है. नये रचनाकारों के लिए यह एक उदाहरण है कि किस तरह दृश्य से अदृश्य को सम्बद्ध किया जाता है. 'ज़ाफ़रान की ख़ुश्बू' तो जग प्रसिद्ध है किन्तु उसे 'कच्चे मकान की ख़ुश्बू' और 'ग़ुरबत की शान की ख़ुश्बू' से जोड़ना रचनाकार की कल्पना प्रणवता का कमाल है. आम रचनाकार 'ग़ुरबत' को बदनसीबी, दया, करुणा आदि से जोड़ता किन्तु प्रभाकर जी ने 'गुरबत' को 'शान' से जोड़कर उसे जो आला दर्ज़ा दिया है वह बेमिसाल है.
सर्व श्रेष्ठ हो ते हुए भी इस रचना को रचनाकार ने प्रतियोगिता से बाहर रखकर नये रचनाकारों को प्रथम आने का अवसर दिया है... यह उनका औदार्य है.
शेष रचनाओं में श्री आलोक सीतापुरी रचित निम्न पंक्तियाँ मेरे अभिमत में प्रथम स्थान की अधिकारी हैं, उन्हें बधाई -
'सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||'
यह रचना हिंदी की भोजपुरी शैली में है जो अपने माधुर्य के लिए विख्यात है. रचनारंभ में 'सैयां' संबोधन पाठक को गाँव की माटी से जोड़ता है. चित्र में दर्शित 'रोटी और कलाई' को कवि ने 'मोटी' और 'पतरी' विशेषण देकर एक भाव जगत की सृष्टि की है जिसे 'थकनि मिटाई' लिखकर चरम पर पहुँचाया है. 'सैयां' चित्र में कहीं न होने पर भी कवि ने उन्हें न केवल देख लिया है अपितु सकल क्रिया का लक्ष्य बना दिया है. 'चाहवा' तथा 'चटनिया' जैसे देशज शब्द भाव माधुर्य की वृद्धि कर रहे हैं.
शेष द्वितीय स्थान की अधिकारी है गोपाल सगर जी की क्षणिकाएँ :
(१) गुलाबी परिधान
मुस्काती हुई श्यामलवर्णी
जैसे कोई देवी
(२)नसीब में
मिट्टी के चूल्हे संग
बीनी हुई लकड़ियाँ
(३)कर्म का प्रतिफल
भगौने में दाल
स्नेह से पगी स्वादिष्ट रोटियां
(४)नित्य प्रति यही कर्म
स्वयं में जलती
शायद इसी ढिबरी की तरह
(५)बैठी पालथी मारे
छाने छन्नी से
स्वादिष्ट चाय या अमृत
(६)घोर अभाव
हर हाल में है खुश
शायद यही है भारतीय नारी |
चित्र के विविध पहलुओं को क्षणिकाओं में समेटा गया है किन्तु शब्द चित्र प्रायः
पूनम मटिया जी की रचना-
मुस्कान चेहरे पर सजाये
गृहणी चाय बनाए
चूल्हे की आग ठंडी हो
या माटी लिप्त हो फर्श
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
एक दीपक की लौ
प्रकाशित करे रसोई को
बर्तनों का भी नहीं है भण्डार
कुछ लकड़ी के टुकड़े बीन लाइ
जलाने को अपना चूल्हा
और चलाने को घर संसार
हाथ बंधे गरीबी से पर
बाँध न पायी ये मेरी मुस्कान
अशिक्षित हूँ अभाव -ग्रस्त हूँ
तभी ऐसी है मेरी पहचान
अपने वरद हस्त मुझ पर
रख दो ए मातेश्वरी
पढूं ,लिखूं और निखारूँ
अपनों की किस्मत का लेख
मेहनत कश हूँ नहीं है तो बस
लगन और अनथक परिश्रम का अभाव
इस यथार्थपरक रचना में चित्र के दृश्य के स्थूल पदार्थों को केंद्र में रखा गया है. 'ढिबरी' के लिए 'दीपक' शब्द का प्रयोग एक त्रुटि है. संभवतः नगरी परिवेश में यह शब्द कवयित्री के लिए अनजाना हो.
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
यहाँ 'जभी' के स्थान पर 'तभी' होना चाहिए.
इस सारस्वत आयोजन के संचालक भाई अम्बरीश श्री वास्तव ने एक रचना मित्रों के प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत की है ......
पका डाला है ये भोजन बनाकर चाय छानी है.
दिखे मुस्कान चेहरे पर मगर आँखों में पानी है.
है कच्चा घर रसोई भी गरीबी हमनसीबी क्यों-
मेरा जीवन भी ढिबरी सा यही अपनी कहानी है..
यह उत्तम मुक्तक प्रतियोगिता से बाहर श्रेणी में है. शिल्प की दृष्टि से यह निर्दोष है. भाषा का प्रवाह, पदभार (मात्रा), कथ्य तथा अंत में 'मेरा जीवन भी ढिबरी सा' में जीवन की क्षणभंगुरता को इंगित करना कवि की सामर्थ्य का प्रमाण है.
नव रचनाकार यह समझें कि केवल दृश्य का वर्णन कविता को उतना प्रभावी नहीं बनता जितना अदृश्य का वर्णन. कवि का कौशल वह कह पाने कीं है जो अन्य अकवि नहीं कह सके. इस चित्र से जुड़े अन्य पहलू अछूते रह गए जैसे कटी लकड़ियों से जोड़कर वनों और वृक्षों की पीड़ा, मात्र दो रोटी अर्थात अधपेट भोजन, चूल्हे का बुझा होना, महिला के माथे पर बिंदी न होना, जमीन पर कुछ बिछा न होना आदि. अस्तु संचालकों और पाठकों सभी का आभार.
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

आदरणीय आचार्य जी, प्रणाम ! आपका निर्णय देखकर मन गदगद हो गया ! रचनाओं का समीक्षात्मक विश्लेषण अत्यंत प्रभावशाली है जिससे ज्ञान तो प्राप्त हुआ ही है साथ-साथ हमारी बहुत सी जिज्ञासाओं का भी समाधान भी स्वतः ही हो गया है .......इस हेतु आपको कोटिशः धन्यवाद व हृदय से वंदन-अभिनन्दन .......आपका स्नेहाशीष पाकर यह कवि मन धन्य हुआ ......
सर्वश्रेष्ठ रचना प्रस्तुत करने के लिए भाई योगराज प्रभाकर जी का अभिनन्दन करते है साथ साथ उन्हें बहुत-बहुत बधाई !
तद्पश्चात प्रथम स्थान के विजेता भाई आलोक सीतापुरी जी, द्वितीय स्थान के विजेता भाई गोपाल सागर जी व तृतीय स्थान की विजेता आदरणीया पूनम जी को इस सम्पूर्ण ग्रुप की ओर से बहुत बहुत बधाई व अभिनन्दन .......इस प्रतियोगिता के सञ्चालन में सहयोग के लिए भाई योगराज जी व भाई बागी जी सहित सभी प्रतिभागियों व पाठकों का बहुत बहुत आभार :))
हम आशा करते हैं कि निकट भविष्य में भी यहाँ पर आने वाली रचनाओं को भी आपके स्तर से समीक्षा रूपी स्नेहाशीष मिलता रहेगा ........:)))

इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

//मुस्कान चेहरे पर सजाये
गृहणी चाय बनाए
चूल्हे की आग ठंडी हो
...या माटी लिप्त हो फर्श
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
एक दीपक की लौ
प्रकाशित करे रसोई को
बर्तनों का भी नहीं है भण्डार
कुछ लकड़ी के टुकड़े बीन लाइ
जलाने को अपना चूल्हा
और चलाने को घर संसार
हाथ बंधे गरीबी से पर
बाँध न पायी ये मेरी मुस्कान
अशिक्षित हूँ अभाव -ग्रस्त हूँ
तभी ऐसी है मेरी पहचान
अपने वरद हस्त मुझ पर
रख दो ए मातेश्वरी
पढूं ,लिखूं और निखारूँ
अपनों की किस्मत का लेख
मेहनत कश हूँ नहीं है तो बस
लगन और अनथक परिश्रम का अभाव //
चित्र को पूरी तरह परिभाषित करती हुई सुन्दर सी प्रार्थना से सजी हुई बेहतरीन सन्देशयुक्त रचना ....बहुत-बहुत बधाई आदरणीया पूनम जी ........
आदरणीय बागी जी, आपके हाइकु पढ़कर मुझसे भी रहा नहीं गया..... देखिये....आखिर मैंने भी कुछ लिख ही डाला ........

इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

//इक तो कच्चे मकान की खुश्बू !
उसपे ग़ुरबत की शान की खुश्बू !
माँ के हाथों की चाय यूँ महके,
जैसे हो ज़ाफ़रान की खुश्बू !//
क्या बात है आदरणीय प्रभाकर जी !............. चंद पंक्तियों में आपने गागर में सागर भर कर आपने हम सभी का दिल जीत लिया ...........भाई बागी जी नें एकदम सत्य कहा है .......ह्रदय से बहुत-बहुत बधाई आपको ............:)))
Alok Sitapuri

सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||
Yograj Prabhakar

//सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||//
वाह वाह अलोक सीतापुरी जी - क्या ग़ज़ब का लिखा है आपने - आनंद आ गया पढ़कर !
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

//सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई|| //
बड़ी देर बाद आये मालिक .......राह देखते देखते आँखें पथरिया गयीं .............क्या बात है ! आपकी पंक्तियाँ ग़ज़ब की हैं....... जो कि कलेजे पे सीधा ही वार करती हैं ...............चित्र को परिभाषित करतीं व रोटी-चटनी का मेल मिलातीं बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ आपकी ........बहुत-बहुत बधाई आपको ........:))
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

थोड़ी देर में अर्थात आज रात्रि ९-०० बजे इस प्रतियोगिता में प्रविष्टि देने का समय समाप्त होने को है .....आदरणीय आचार्य संजीव "सलिल" जी (निर्णायक महोदय ) को प्रणाम करते हुए उनसे सादर अनुरोध है कि वह अपना निर्णय तैयार कर के उसे आज रात्रि ९-०० बजे के बाद शीघ्र ही पोस्ट कर दें .............:))//खाना चूल्हे पर धरा, ढिबरी नेह दिखाय.
चाय छानती प्रेम से, बैठी भुंइ मुसकाय..
बैठी भुंइ मुसकाय, सुहावनि श्यामल काया.
मन हरती यह देख, निराली श्रम की माया..
सब व्यंजन बेकार, यहाँ पर सबने माना.
है नसीब दमदार, मिले जो घर का खाना..//
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Er Ganesh Jee Bagi
कविता प्रेमी समूह के सभी मित्रों से एक निवेदन : कृपया मेरे द्वारा पोस्ट की गई रचना को प्रतियोगिता से बाहर समझे, यह केवल आयोजन में निरंतरता बनाये रखने हेतु है |
Er Ganesh Jee Bagi
वाह वाह भाई अम्बरीश जी, बहुत ही शानदार कुंडली दागी है आपने, ऐसा लगा जैसे चित्र को जुबान मिल गई हो, बहुत बहुत बधाई |
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
भाई बागी जी! इसे सराहने के लिए आपका हृदय से बहुत-बहुत आभार मित्र!.......... आदरणीय आचार्य "सलिल" जी के साथ संयुक्त विजेता घोषित किये जाने के परिणामस्वरूप मेरी रचनाएँ तो इस प्रतियोगिता से स्वतःही बाहर हो गयी हैं


टंकड़ त्रुटि संशोधन: कृपा करके मेरे उपरोक्त सवैया छंद के प्रारंभिक शब्द "भुंई" को //"भुंइ"// पढ़ा जाय ! अक्षर "भ" से प्रारम्भ होने के कारण इसमें दग्धाक्षर दोष दिखता है परन्तु "भुंइ" शब्द धरती माँ (देवी माँ) का पर्याय भी है! सभी विद्वजन से अनुरोध है कि वह सब सुझायें कि इससे इस सवैया छंद में दग्धाक्षर दोष का परिहार हुआ या नहीं ? यदि नहीं तो "भुंइ" के स्थान पर "जहँ" पढ़ा जाय |
//दग्धाक्षर : गणों की ही तरह कुछ वर्ण भी अशुभ माने गये हैं, जिन्हें 'दग्धाक्षर' कहा जाता है.
कुल उन्नीस दग्धाक्षर हैं — ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ, त, थ, झ, र, ल, व, ष, ह।
— इन उन्नीस वर्णों का पद्य के आरम्भ में प्रयोग वर्जित है. इनमें से भी झ, ह, र, भ, ष — ये पाँच वर्ण विशेष रूप से त्याज्य माने गये हैं.
छंदशास्त्री इन दग्धाक्षरों की काट का उपाय [परिहार] भी बताते हैं.
परिहार : कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा दग्धाक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता. यदि मंगल-सूचक अथवा देवतावाचक शब्द से किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार हो जाता है.//
Vinod Bissa Poet

लोगों को संकोच नहीं करना चाहिये ॰॰॰ किसी भी चित्र को देखकर रचना रचित करना कोई कठिन कार्य नहीं है ॰॰ विचारों को पंक्तिबद्ध ही तो करना होता है ॰॰॰ अब जैसे लगे कि इस चित्र पर क्या लिखा जाये समझ नहीं आ रहा है तो झिझक मन से निकाल दिजिये क्योंकि यह भी एक विचार ही तो है ॰॰॰ ऐसे विचारों को भी अभिव्यक्ति दे देना चाहिये ॰॰॰ उदाहरण के लिये एक इसी तरह का विचार मन में रख अंकित की गई रचना है जिसे बनाने में महज पांच मिनिट लगे हैं शायद आप लोगों को पसंद आये और आपकी झिझक को खत्म करे ॰॰
उफ इस कठिन चित्र को
अभी ही आना था
जब मेरे मन को
प्रित भरा गीत गाना था
समझना चाहता भी तो
क्यूं समझता इस चित्र को
कोरी कल्पना को परवान जो
मोहब्बत में चढ़ाना था
ऐ चित्र तुम फिर कभी आना मेरे द्वार
बंदिशे बहुत सी सुनाउंगा
अभी तो मेरा मन प्रिय में रमा
तुम्हारे संग न्याय नहीं कर पाउंगा
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ 
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
सुप्रभात मित्रों ! प्रतिभागिता बढ़ाने के उद्देश्य से सभी मित्रों के प्रोत्साहन हेतु निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं ......
पका डाला है ये भोजन बनाकर चाय छानी है.
दिखे मुस्कान चेहरे पर मगर आँखों में पानी है.
है कच्चा घर रसोई भी गरीबी हमनसीबी क्यों-
मेरा जीवन भी ढिबरी सा यही अपनी कहानी है..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Gopal Sagar
"कुछ क्षणिकाएं"
(१) गुलाबी परिधान
मुस्काती हुई श्यामलवर्णी
जैसे कोई देवी
(२)नसीब में
मिट्टी के चूल्हे संग
बीनी हुई लकड़ियाँ
(३)कर्म का प्रतिफल
भगौने में दाल
स्नेह से पगी स्वादिष्ट रोटियां
(४)नित्य प्रति यही कर्म
स्वयं में जलती
शायद इसी ढिबरी की तरह
(५)बैठी पालथी मारे
छाने छन्नी से
स्वादिष्ट चाय या अमृत
(६)घोर अभाव
हर हाल में है खुश
शायद यही है भारतीय नारी |
Yograj Prabhakar
ज़मीन से जुड़ी हुई बहुत ही सुन्दर क्षणिकाएं कहीं हैं आपने aadrneey गोपाल सागर जी - साधुवाद स्वीकार करें !
Poonam Matia ·
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नमस्कार Ambarish Srivastavaजी ....कुछ लिखने का प्रयास किया है
मुस्कान चेहरे पर सजाये
गृहणी चाय बनाए
चूल्हे की आग ठंडी हो
या माटी लिप्त हो फर्श
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
एक दीपक की लौ
प्रकाशित करे रसोई को
बर्तनों का भी नहीं है भण्डार
कुछ लड़की के टुकड़े बीन लाइ
जलाने को अपना चूल्हा
और चलाने को घर संसार
हाथ बंधे गरीबी से पर
बाँध न पायी ये मेरी मुस्कान
अशिक्षित हूँ अभाव -ग्रस्त हूँ
तभी ऐसी है मेरी पहचान
अपने वरद हस्त मुझ पर
रख दो ए मातेश्वरी
पढूं ,लिखूं और निखारूँ
अपनों की किस्मत का लेख
मेहनत कश हूँ नहीं है तो बस
लगन और अनथक परिश्रम का अभाव................पूनम
Yograj Prabhakar
Poonam ji, bahut hi sundar likha hai, diye gaye chitr ko saarthak karti huyi kavita ke liye apko badhayi deta hun.
Er Ganesh Jee Bagi
पूनम जी सार्थक रचना, चित्र को विश्लेषण करने का अंदाज पसंद आया ,
"कुछ लड़की के टुकड़े बीन लाइ" में टंकण सम्बंधित त्रुटी है , लकड़ी लड़की बन गई है
Yograj Prabhakar
प्रतोयोगिता से बाहर रहते हुए दिए हुए चित्र पर एक रुबाई पेश कर रहा हूँ :
इक तो कच्चे मकान की खुश्बू !
उसपे ग़ुरबत की शान की खुश्बू !
माँ के हाथों की चाय यूँ महके,
जैसे हो ज़ाफ़रान की खुश्बू !
Er Ganesh Jee Bagi
वॉय होय, क्या बात कही है आपने, सच दिल जीत लिया है आपने सम्पादक जी, वाकई माँ के हाथों में कुछ जादू जरूर होता है,
माँ के हाथों की चाय में जाफरान की खुश्बू, गमक उठा यह महफ़िल , बधाई इस खुबसूरत रुबाई हेतु |
Poonam Matia ·
त्रुटी सुधार के बाद .......स्वीकार करें
मुस्कान चेहरे पर सजाये
गृहणी चाय बनाए
चूल्हे की आग ठंडी हो
या माटी लिप्त हो फर्श
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
एक दीपक की लौ
प्रकाशित करे रसोई को
बर्तनों का भी नहीं है भण्डार
कुछ लकड़ी के टुकड़े बीन लाइ
जलाने को अपना चूल्हा
और चलाने को घर संसार
हाथ बंधे गरीबी से पर
बाँध न पायी ये मेरी मुस्कान
अशिक्षित हूँ अभाव -ग्रस्त हूँ
तभी ऐसी है मेरी पहचान
अपने वरद हस्त मुझ पर
रख दो ए मातेश्वरी
पढूं ,लिखूं और निखारूँ
अपनों की किस्मत का लेख
मेहनत कश हूँ नहीं है तो बस
लगन और अनथक परिश्रम का अभाव .....पूनम...............
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
//मुस्कान चेहरे पर सजाये
गृहणी चाय बनाए
चूल्हे की आग ठंडी हो
...या माटी लिप्त हो फर्श
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
एक दीपक की लौ
प्रकाशित करे रसोई को
बर्तनों का भी नहीं है भण्डार
कुछ लकड़ी के टुकड़े बीन लाइ
जलाने को अपना चूल्हा
और चलाने को घर संसार
हाथ बंधे गरीबी से पर
बाँध न पायी ये मेरी मुस्कान
अशिक्षित हूँ अभाव -ग्रस्त हूँ
तभी ऐसी है मेरी पहचान
अपने वरद हस्त मुझ पर
रख दो ए मातेश्वरी
पढूं ,लिखूं और निखारूँ
अपनों की किस्मत का लेख
मेहनत कश हूँ नहीं है तो बस
लगन और अनथक परिश्रम का अभाव //
चित्र को पूरी तरह परिभाषित करती हुई सुन्दर सी प्रार्थना से सजी हुई बेहतरीन सन्देशयुक्त रचना  बहुत-बहुत बधाई आदरणीया पूनम जी

इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
//इक तो कच्चे मकान की खुश्बू !
उसपे ग़ुरबत की शान की खुश्बू !
माँ के हाथों की चाय यूँ महके,
जैसे हो ज़ाफ़रान की खुश्बू !//
क्या बात है आदरणीय प्रभाकर जी !............. चंद पंक्तियों में आपने गागर में सागर भर कर आपने हम सभी का दिल जीत लिया ...........भाई बागी जी नें एकदम सत्य कहा है .......ह्रदय से बहुत-बहुत बधाई आपको ............:)))
Yograj Prabhakar
आदरणीय अम्बरीश भाई जी - ह्रदय से आभारी हूँ आपकी ज़र्रानवाज़ी का !
Alok Sitapuri
सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
आपका स्वागत है आदरणीय प्रभाकर जी !
Yograj Prabhakar
//सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||//
वाह वाह अलोक सीतापुरी जी - क्या ग़ज़ब का लिखा है आपने - आनंद आ गया पढ़कर !
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
//सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई|| //
बड़ी देर बाद आये मालिक .......राह देखते देखते आँखें पथरिया गयीं .............क्या बात है ! आपकी पंक्तियाँ ग़ज़ब की हैं....... जो कि कलेजे पे सीधा ही वार करती हैं ...............चित्र को परिभाषित करतीं व रोटी-चटनी का मेल मिलातीं बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ आपकी ........बहुत-बहुत बधाई आपको ........:))
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
थोड़ी देर में अर्थात आज रात्रि ९-०० बजे इस प्रतियोगिता में प्रविष्टि देने का समय समाप्त होने को है .....आदरणीय आचार्य संजीव "सलिल" जी (निर्णायक महोदय ) को प्रणाम करते हुए उनसे सादर अनुरोध है कि वह अपना निर्णय तैयार कर के उसे आज रात्रि ९-०० बजे के बाद शीघ्र ही पोस्ट कर दें .............:))
संजीव वर्मा 'सलिल'
आत्मीय जनों!
वन्दे मातरम.
विलंब हेतु ह्रदय से क्षमाप्रार्थी हूँ. आजकल जबलपुर से २५० की.मी. दूर छिंदवाडा में पदस्थ हूँ. ३ जिलों में शताधिक निर्माण परियोजनाओं का निर्माण करा रहा हूँ. वहाँ अंतरजाल की सुविधा और समय दोनों का आभाव है. भाई अम्बरीश जी ने उदारतापूर्वक मुझे गुरुतर दायित्व सौंपा, आभारी हूँ. आत्मीयता में सहमति की औपचारिकता आवश्यक नहीं होती... इनकार करना इस अपनेपन की अवमानना होती... आज किसी तरह भागकर जबलपुर आया कि इस दायित्व का विलम्ब से ही सही निर्वहन कर सकूँ. अस्तु...
प्रस्तुत चित्र मन को छूने में समर्थ है. कविता करनी नहीं पड़ेगी अपने आप हो जायेगी. अम्बरीश जी ने सम्यक-सार्थक विश्लेषण भी कर दिया है. इस चित्र पर तो लघुकथा या कहानी भी रची जा सकती है. किसी मंच पर एक ही चित्र पर गद्य-पद्य रचनाओं को आहूत किया जाये तो आनंद में वृद्धि होगी.
यहाँ प्राप्त रचनाओं की संख्या सीमित है. इस आयोजन की सर्वश्रेष्ठ पंक्तियाँ भाई योगिराज प्रभाकर की है:
इक तो कच्चे मकान की खुश्बू !
उसपे ग़ुरबत की शान की खुश्बू !
माँ के हाथों की चाय यूँ महके,
जैसे हो ज़ाफ़रान की खुश्बू !
इन पंक्तियों को जितनी बार पढ़िए उतना अधिक आनंद आता है. स्थूल रूप में देखें तो चित्र में खुशबू का कोई प्रसंग नहीं है... न फूल, न बगीचा, न ख़ुश्बू भरे अन्य पदार्थ किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' की उक्ति के अनुसार प्रभाकर जी के उर्वर मस्तिष्क ने इस चित्र का केंद्र भाव 'ख़ुश्बू' को बना दिया है. नये रचनाकारों के लिए यह एक उदाहरण है कि किस तरह दृश्य से अदृश्य को सम्बद्ध किया जाता है. 'ज़ाफ़रान की ख़ुश्बू' तो जग प्रसिद्ध है किन्तु उसे 'कच्चे मकान की ख़ुश्बू' और 'ग़ुरबत की शान की ख़ुश्बू' से जोड़ना रचनाकार की कल्पना प्रणवता का कमाल है. आम रचनाकार 'ग़ुरबत' को बदनसीबी, दया, करुणा आदि से जोड़ता किन्तु प्रभाकर जी ने 'गुरबत' को 'शान' से जोड़कर उसे जो आला दर्ज़ा दिया है वह बेमिसाल है.
सर्व श्रेष्ठ होते हुए भी इस रचना को रचनाकार ने प्रतियोगिता से बाहर रखकर नये रचनाकारों को प्रथम आने का अवसर दिया है... यह उनका औदार्य है.
शेष रचनाओं में श्री आलोक सीतापुरी रचित निम्न पंक्तियाँ मेरे अभिमत में प्रथम स्थान की अधिकारी हैं, उन्हें बधाई -
'सैंया मोरी पतरी कलइयां ते बनाइ धरी,
मोटी मोटी रोटिया पकाई|
चहवा पियाई तोरी थकनि मिटाई फिरि
रोटिया चटनिया खवाई||'
यह रचना हिंदी की भोजपुरी शैली में है जो अपने माधुर्य के लिए विख्यात है. रचनारंभ में 'सैयां' संबोधन पाठक को गाँव की माटी से जोड़ता है. चित्र में दर्शित 'रोटी और कलाई' को कवि ने 'मोटी' और 'पतरी' विशेषण देकर एक भाव जगत की सृष्टि की है जिसे 'थकनि मिटाई' लिखकर चरम पर पहुँचाया है. 'सैयां' चित्र में कहीं न होने पर भी कवि ने उन्हें न केवल देख लिया है अपितु सकल क्रिया का लक्ष्य बना दिया है. 'चाहवा' तथा 'चटनिया' जैसे देशज शब्द भाव माधुर्य की वृद्धि कर रहे हैं.
शेष द्वितीय स्थान की अधिकारी है गोपाल सगर जी की क्षणिकाएँ :
(१) गुलाबी परिधान
मुस्काती हुई श्यामलवर्णी
जैसे कोई देवी
(२)नसीब में
मिट्टी के चूल्हे संग
बीनी हुई लकड़ियाँ
(३)कर्म का प्रतिफल
भगौने में दाल
स्नेह से पगी स्वादिष्ट रोटियां
(४)नित्य प्रति यही कर्म
स्वयं में जलती
शायद इसी ढिबरी की तरह
(५)बैठी पालथी मारे
छाने छन्नी से
स्वादिष्ट चाय या अमृत
(६)घोर अभाव
हर हाल में है खुश
शायद यही है भारतीय नारी |
चित्र के विविध पहलुओं को क्षणिकाओं में समेटा गया है। 
तृतीय स्थान पर है पूनम मटिया जी की रचना-
मुस्कान चेहरे पर सजाये
गृहणी चाय बनाए
चूल्हे की आग ठंडी हो
या माटी लिप्त हो फर्श
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
एक दीपक की लौ
प्रकाशित करे रसोई को
बर्तनों का भी नहीं है भण्डार
कुछ लकड़ी के टुकड़े बीन लाइ
जलाने को अपना चूल्हा
और चलाने को घर संसार
हाथ बंधे गरीबी से पर
बाँध न पायी ये मेरी मुस्कान
अशिक्षित हूँ अभाव -ग्रस्त हूँ
तभी ऐसी है मेरी पहचान
अपने वरद हस्त मुझ पर
रख दो ए मातेश्वरी
पढूं ,लिखूं और निखारूँ
अपनों की किस्मत का लेख
मेहनत कश हूँ नहीं है तो बस
लगन और अनथक परिश्रम का अभाव
इस यथार्थपरक रचना में चित्र के दृश्य के स्थूल पदार्थों को केंद्र में रखा गया है. 'ढिबरी' के लिए 'दीपक' शब्द का प्रयोग एक त्रुटि है. संभवतः नगरी परिवेश में यह शब्द कवयित्री के लिए अनजाना हो.
रोटी का स्वाद बने जभी
जब प्रिय को अपने हाथों खिलाए
यहाँ 'जभी' के स्थान पर 'तभी' होना चाहिए.
इस सारस्वत आयोजन के संचालक भाई अम्बरीश श्रीवास्तव ने एक रचना मित्रों के प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत की है ......
पका डाला है ये भोजन बनाकर चाय छानी है.
दिखे मुस्कान चेहरे पर मगर आँखों में पानी है.
है कच्चा घर रसोई भी गरीबी हमनसीबी क्यों-
मेरा जीवन भी ढिबरी सा यही अपनी कहानी है..
यह उत्तम मुक्तक प्रतियोगिता से बाहर श्रेणी में है. शिल्प की दृष्टि से यह निर्दोष है. भाषा का प्रवाह, पदभार (मात्रा), कथ्य तथा अंत में 'मेरा जीवन भी ढिबरी सा' में जीवन की क्षणभंगुरता को इंगित करना कवि की सामर्थ्य का प्रमाण है.
नव रचनाकार यह समझें कि केवल दृश्य का वर्णन कविता को उतना प्रभावी नहीं बनता जितना अदृश्य का वर्णन. कवि का कौशल वह कह पाने कीं है जो अन्य अकवि नहीं कह सके. इस चित्र से जुड़े अन्य पहलू अछूते रह गए जैसे कटी लकड़ियों से जोड़कर वनों और वृक्षों की पीड़ा, मात्र दो रोटी अर्थात अधपेट भोजन, चूल्हे का बुझा होना, महिला के माथे पर बिंदी न होना, जमीन पर कुछ बिछा न होना आदि. अस्तु संचालकों और पाठकों सभी का आभार.
इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
आदरणीय आचार्य जी, प्रणाम ! आपका निर्णय देखकर मन गदगद हो गया ! रचनाओं का समीक्षात्मक विश्लेषण अत्यंत प्रभावशाली है जिससे ज्ञान तो प्राप्त हुआ ही है साथ-साथ हमारी बहुत सी जिज्ञासाओं का भी समाधान भी स्वतः ही हो गया है .......इस हेतु आपको कोटिशः धन्यवाद व हृदय से वंदन-अभिनन्दन .......आपका स्नेहाशीष पाकर यह कवि मन धन्य हुआ ......
सर्वश्रेष्ठ रचना प्रस्तुत करने के लिए भाई योगराज प्रभाकर जी का अभिनन्दन करते है साथ साथ उन्हें बहुत-बहुत बधाई !
तद्पश्चात प्रथम स्थान के विजेता भाई आलोक सीतापुरी जी, द्वितीय स्थान के विजेता भाई गोपाल सागर जी व तृतीय स्थान की विजेता आदरणीया पूनम जी को इस सम्पूर्ण ग्रुप की ओर से बहुत बहुत बधाई व अभिनन्दन .......इस प्रतियोगिता के सञ्चालन में सहयोग के लिए भाई योगराज जी व भाई बागी जी सहित सभी प्रतिभागियों व पाठकों का बहुत बहुत आभार :))
हम आशा करते हैं कि निकट भविष्य में भी यहाँ पर आने वाली रचनाओं को भी आपके स्तर से समीक्षा रूपी स्नेहाशीष मिलता रहेगा
१५-५-२०११  
***

चित्रगुप्त जयंती

एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया। 
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.

'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं। 

कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है।  'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं। 

वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया। 

निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है। 

वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।   
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं। 

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था।  इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है।  ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए।  आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं। 

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा।  नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है। 

हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे। 
***
१५-५-२०११ 

अंतिम गीत

अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
१५-५-२०१० 

तितलियाँ : कुछ अश'आर

तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?

कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियोन से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
*
१५-५-२०१० 

शुक्रवार, 14 मई 2021

लघुकथा

लघुकथा
[यह लघुकथा मेरी नहीं, एक प्रतिष्ठित रचनाकार की है और अपने समय में बहुचर्चित रही है. पाठक इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ें और आज के मानकों और परिवेश में अपना मत व्यक्त करें. बाद में रचनाकार का नाम बता दिया जाएगा. -प्रस्तुतकर्ता]
*
एक जनहित की संस्‍था में कुछ सदस्यों ने आवाज उठाई, 'संस्था का काम असंतोषजनक चल रहा है। इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्था बरबाद हो रही है। इसे डूबने से बचाना चाहिए। इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग कर देना चाहिए।
संस्था के अध्‍यक्ष ने पूछा कि किन-किन सदस्यों को असंतोष है।
दस सदस्यों ने असंतोष व्यक्त किया।
अध्यक्ष ने कहा, 'हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए। सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं। आप दस सज्जन क्या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।'
और उन दस सदस्यों ने आपस में विचार कर जो सुधार सुझाए, वे ये थे -
'संस्था में चार सभापति, तीन उप-सभापति और तीन मंत्री और होने चाहिए...'
*

गीत

गीत :
करो सामना
संजीव
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
१३-५-२०१५

गीत

 अभिनव प्रयोग:

गीत
वात्सल्य का कंबल
संजीव
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा,ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर, न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
१४-५-२०१४

मुक्तक

 मुक्तक सलिला : संजीव

.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
१४-५-२०१५

लघुकथा

लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
***
१४-५-२०१६

कुंवर सिंह

काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
संजीव
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
*** 

१४-५-२०१५ 

नवगीत

नवगीत 

देव बचाओ

संजीव
*
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***
१४-५-२०१५

नवगीत

 नवगीत:

संजीव
*
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
*
१४-५-२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
.*
१४-५-२०१५