दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु
A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
लिखित रूप में अपने मन के भावों एवं विचारों को प्रकट करने का माध्यम 'पत्र' हैं। 'पत्र' का शाब्दिक अर्थ हैं, 'ऐसा कागज जिस पर कोई बात लिखी अथवा छपी हो'। पत्र के द्वारा व्यक्ति अपनी बातों को दूसरों तक लिखकर पहुँचाता हैं। हम पत्र को अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम भी कह सकते हैं। व्यक्ति जिन बातों को जुबां से अथवा मौखिक रूप से कहने में संकोच करता हैं, हिचकिचाता हैं; उन सभी बातों को वह पत्र के माध्यम से लिखित रूप में खुलकर अभिव्यक्त करता हैं। दूर रहने वाले अपने सबन्धियों अथवा मित्रों की कुशलता जानने के लिए तथा अपनी कुशलता का समाचार देने के लिए पत्र एक साधन है। इसके अतिरिक्त्त अन्य कार्यों के लिए भी पत्र लिखे जाते है।
आजकल हमारे पास बातचीत करने, हाल-चाल जानने के अनेक आधुनिक साधन उपलब्ध हैं ; जैसे- टेलीफोन, मोबाइल फोन, ई-मेल, फैक्स आदि। प्रश्न यह उठता है कि फिर भी पत्र-लेखन सीखना क्यों आवश्यक है ? पत्र लिखना महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अपितु अत्यंत आवश्यक है, कैसे? जब आप विद्यालय नहीं जा पाते, तब अवकाश के लिए प्रार्थना-पत्र लिखना पड़ता है। सरकारी व निजी संस्थाओं के अधिकारियों को अपनी समस्याओं आदि की जानकारी देने के लिए पत्र लिखना पड़ता है। फोन आदि पर बातचीत अस्थायी होती है। इसके विपरीत लिखित दस्तावेज स्थायी रूप ले लेता है।
महत्त्व
As keys do open chests.
So letters open breasts .
उक्त अँगरेजी विद्वान् के कथन का आशय यह है कि जिस प्रकार कुंजियाँ बक्स खोलती हैं, उसी प्रकार पत्र (letters) ह्रदय के विभित्र पटलों को खोलते हैं। मनुष्य की भावनाओं की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पत्राचार से भी होती हैं। निश्छल भावों और विचारों का आदान-प्रदान पत्रों द्वारा ही सम्भव है।
पत्रलेखन दो व्यक्तियों के बीच होता है। इसके द्वारा दो हृदयों का सम्बन्ध दृढ़ होता है। अतः पत्राचार ही एक ऐसा साधन है, जो दूरस्थ व्यक्तियों को भावना की एक संगमभूमि पर ला खड़ा करता है और दोनों में आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करता है। पति-पत्नी, भाई-बहन, पिता-पुत्र- इस प्रकार के हजारों सम्बन्धों की नींव यह सुदृढ़ करता है। व्यावहारिक जीवन में यह वह सेतु है, जिससे मानवीय सम्बन्धों की परस्परता सिद्ध होती है। अतएव पत्राचार का बड़ा महत्व है।
(1) पत्र साहित्य की वह विद्या हैं जिसके द्वारा मनुष्य समाज में रहते हुए अपने भावों एवं विचारों को दूसरों तक सम्प्रेषित करना चाहता हैं, इसके लिए वह पत्रों का सहारा लेता हैं। अतः व्यावसायिक, सामाजिक, कार्यालय आदि से सम्बन्धित अपने भावों एवं विचारों को प्रकट करने में पत्र अत्यन्त उपयोगी होते हैं।
(2) पत्र मित्रों एवं परिजनों से आत्मीय सम्बन्ध एवं सम्पर्क स्थापित करने हेतु उपयोगी होते हैं। पत्र के माध्यम से मनुष्य प्रेम, सहानुभूति, क्रोध आदि प्रकट करता हैं।
(3) कार्यालय एवं व्यवसाय के सम्बन्ध में मुद्रित रूप में प्राप्त पत्रों का विशेष महत्त्व होता हैं। मुद्रित रूप में प्राप्त पत्रों को सुरक्षित रखा जा सकता हैं।
(4) छात्र जीवन में भी पत्रों का विशेष महत्त्व हैं। स्कूल से अवकाश लेना, फीस माफी, स्कूल छोड़ने, स्कॉलरशिप पाने, व्यवसाय चुनने, नौकरी प्राप्त करने के लिए पत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती हैं।
(5) पत्र सामाजिक सम्बन्धों को मजबूत करने का माध्यम हैं। पत्रों की सबसे बड़ी उपयोगिता यह हैं कि कभी-कभी पत्र भविष्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज भी बन जाता हैं।
कला
आधुनिक युग में पत्रलेखन को 'कला' की संज्ञा दी गयी है। पत्रों में आज कलात्मक अभिव्यक्तियाँ हो रही है। साहित्य में भी इनका उपयोग होने लगा है। जिस पत्र में जितनी स्वाभाविकता होगी, वह उतना ही प्रभावकारी होगा। एक अच्छे पत्र के लिए कलात्मक सौन्दर्यबोध और अन्तरंग भावनाओं का अभिव्यंजन आवश्यक है।
एक पत्र में उसके लेखक की भावनाएँ ही व्यक्त नहीं होती, बल्कि उसका व्यक्तित्व (personality) भी उभरता है। इससे लेखक के चरित्र, दृष्टिकोण, संस्कार, मानसिक स्थिति, आचरण इत्यादि सभी एक साथ झलकते हैं। अतः पत्रलेखन एक प्रकार की कलात्मक अभिव्यक्ति है। लेकिन, इस प्रकार की अभिव्यक्ति व्यवसायिक पत्रों की अपेक्षा सामाजिक तथा साहित्यिक पत्रों में अधिक होती है।
आवश्यक बातें
1) जिसके लिए पत्र लिखा जाये, उसके लिए पद के अनुसार शिष्टाचारपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
(2) पत्र में हृदय के भाव स्पष्ट रूप से व्यक्त होने चाहिए।
(3) पत्र की भाषा सरल एवं शिष्ट होनी चाहिए।
(4) पत्र में बेकार की बातें नहीं लिखनी चाहिए। उसमें केवल मुख्य विषय के बारे में ही लिखना चाहिए।
(5) पत्र में आशय व्यक्त करने के लिए छोटे वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए।
(6) पत्र लिखने के पश्चात उसे एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए।
(7) पत्र प्राप्तकर्ता की आयु, संबंध, योग्यता आदि को ध्यान में रखते हुए भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
(8) अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए।
(9) पत्र में लिखी वर्तनी-शुद्ध व लेख-स्वच्छ होने चाहिए।
(10) पत्र प्रेषक (भेजने वाला) तथा प्रापक (प्राप्त करने वाला) के नाम, पता आदि स्पष्ट रूप से लिखे होने चाहिए।
(11) पत्र के विषय से नहीं भटकना चाहिए यानी व्यर्थ की बातों का उल्लेख नहीं करना चाहिए।
विशेषताएं
(1) प्रभावोत्पादकता
(2) विचारों की सुस्पष्ठता
(3) संक्षेप और सम्पूर्णता
(4) सरल भाषाशैली
(5) बाहरी सजावट
(6) शुद्धता और स्वच्छता
(7) विनम्रता और शिष्टता
(8) सद्भावना
(9) सहज और स्वाभाविक शैली
(10) क्रमबद्धता
(11) विराम चिह्नों पर विशेष ध्यान
(12) उद्देश्यपूर्ण
(1)प्रभावोत्पादकता :- किसी भी पत्र का प्रथम गुण हैं उसकी प्रभावोत्पादकता। जो पत्र अपने पाठक को प्रभावित नहीं करते वे जल्दी ही रद्दी की टोकरी में चले जाते हैं। उनका लिखा जाना और न लिखा जाना- दोनों बराबर हैं। अच्छा पत्र-लेखक वही हैं, जो अपने विचार प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके। इसके लिए जरूरी हैं कि आप जो बात पत्र में लिखना चाहते हैं उसपर पहले गंभीरता से विचार कर लें। फिर उसे इस ढंग से प्रस्तुत करें कि पढ़नेवाले पर उसका अनुकूल असर हो।
(2)विचारों की सुस्पष्ठता :- पत्र में लेखक के विचार सुस्पष्ट और सुलझे होने चाहिए। कहीं भी पाण्डित्य-प्रदर्शन की चेष्टा नहीं होनी चाहिए। बनावटीपन नहीं होना चाहिए। दिमाग पर बल देनेवाली बातें नहीं लिखी जानी चाहिए।
(3)संक्षेप और सम्पूर्णता:-- पत्र अधिक लम्बा नहीं होना चाहिए। वह अपने में सम्पूर्ण और संक्षिप्त हो। उसमें अतिशयोक्ति, वाग्जाल और विस्तृत विवरण के लिए स्थान नहीं है। इसके अतिरिक्त, पत्र में एक ही बात को बार-बार दुहराना एक दोष है। पत्र में मुख्य बातें आरम्भ में लिखी जानी चाहिए। सारी बातें एक क्रम में लिखनी चाहिए। इसमें कोई भी आवश्यक तथ्य छूटने न पाय। पत्र अपने में सम्पूर्ण हो, अधूरा नहीं। पत्रलेखन का सारा आशय पाठक के दिमाग पर पूरी तरह बैठ जाना चाहिए। पाठक को किसी प्रकार की लझन में छोड़ना ठीक नहीं।
(4)सरल भाषाशैली:- पत्र की भाषा साधारणतः सरल और बोलचाल की होनी चाहिए। शब्दों के प्रयोग में सावधानी रखनी चाहिए। ये उपयुक्त, सटीक, सरल और मधुर हों। सारी बात सीधे-सादे ढंग से स्पष्ट और प्रत्यक्ष लिखनी चाहिए। बातों को घुमा-फिराकर लिखना उचित नहीं।
(5)बाहरी सजावट:- पत्र की बाहरी सजावट से हमारा तात्पर्य यह है कि
(i) उसका कागज सम्भवतः अच्छा-से-अच्छा होना चाहिए;
(ii) लिखावट सुन्दर, साफ और पुष्ट हो;
(iii) विरामादि चिह्नों का प्रयोग यथास्थान किया जाय;
(iv) शीर्षक, तिथि, अभिवादन, अनुच्छेद और अन्त अपने-अपने स्थान पर क्रमानुसार होने चाहिए;
(v) पत्र की पंक्तियाँ सटाकर न लिखी जायँ और
(vi) विषय-वस्तु के अनुपात से पत्र का कागज लम्बा-चौड़ा होना चाहिए।
(6)शुद्धता और स्वच्छता:- शुद्धता और स्वच्छता पत्र के अन्य महत्त्वपूर्ण गुण होते हैं। साफ-सुथरे कागज पर सफाई के साथ लिखा गया पत्र मन को प्रसन्न करता हैं। पत्र में काट-पीट और उलटी-सीधी पंक्तियाँ देखकर मन उचटने-सा लगता हैं। इसके लिए बेहतर होगा कि पहले पत्र को रफ लिखा जाए और बाद में उसे साफ-साफ उतारकर संबंधित व्यक्ति के पास भेजा जाए।
शुद्धता की दृष्टि से पत्रों में यह ध्यान रखना चाहिए कि शब्द-रचना और वाक्य-विन्यास सही हो। उनमें वर्तनी और व्याकरणगत अशुद्धियाँ न हों। अतः पत्र लिखने के बाद उसे एक बार पढ़ अवश्य लें। शब्द, वाक्य, व्याकरण आदि की अशुद्धियाँ रह जाने पर अर्थ का अनर्थ हो सकता हैं।
(7)विनम्रता और शिष्टता:- विनम्रता व्यक्तित्व का ही नहीं, पत्र का भी विशेष गुण हैं, क्योंकि पत्र में पत्र-लेखक का व्यक्तित्व झलकता हैं। आपकी मन स्थिति कैसी भी क्यों न हों, पत्र लिखते समय सदैव शिष्टता और विनम्रता का ही परिचय देना चाहिए। इस प्रकार आपके बिगड़े काम भी बन सकते हैं। इसके विपरीत अशिष्टतापूर्ण पत्रों से कभी-कभी बनते काम भी बिगड़ जाते हैं। इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं।
(8)सद्भावना:- पत्र का सद्भावनापूर्ण होना जरूरी हैं। यदि आपको शिकायती पत्र भी लिखना पड़े तो उसमें आपको असद्भावना नहीं प्रकट होना चाहिए। ऐसे मामलों में विवेक और संयम का ही परिचय देना चाहिए। धमकी, उपालंभ आदि का दुर्भाव प्रकट न करना ही श्रेयस्कर रहता हैं। सद्भावनापूर्णपत्र (समाज में) आपस में प्रेम और भाईचारे को जन्म देते हैं।
(9)सहज और स्वाभाविक शैली:- पत्रों की भाषा-शैली सहज-स्वाभाविक होनी चाहिए। उसमें कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सीधे-सादे सरल शब्दों के चयन से विचारों की सचाई झलकती हैं। काव्यात्मक और कल्पना-प्रधान शैली पत्र की स्वाभाविकता को नष्ट कर देती हैं।
(10) क्रमबद्धता:- पत्र लेखन करते समय क्रमबद्धता का ध्यान रखा जाना अति आवश्यक हैं। जो बात पत्र में पहले लिखी जानी चाहिए उसे पत्र में प्रारम्भ में तथा बाद में लिखी जाने वाली बात को अन्त में ही लिखा जाना चाहिए।
(11) विराम चिह्नों पर विशेष ध्यान:- पत्र में विराम चिह्नों को सही स्थान पर प्रयोग किया जाना चाहिए। विराम चिह्नों का सही प्रयोग न होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता हैं। उचित स्थान पर विराम चिह्नों का प्रयोग पत्र को आकर्षक बनाता हैं।
(12) उद्देश्यपूर्ण:- पत्र इस प्रकार लिखा जाना चाहिए जिससे पाठक की हर जिज्ञासा शान्त हो जाए। पत्र अधूरा नहीं होना चाहिए पत्र में जिन बातों का उल्लेख किया जाना निश्चित हो उसका उल्लेख पत्र में निश्चित तौर पर किया जाना चाहिए। पत्र पूरा होने पर उसे एक बार अन्त में पुनः पढ़ लेना चाहिए।
पत्र के भाग
पत्र को जिस क्रम में प्रस्तुत किया जाता हैं अथवा लिखा जाता हैं, वे पत्र के भाग कहलाते हैं। अनौपचारिक व औपचारिक पत्रों में पत्र के भाग सामान्य रूप से समान होते हैं। दोनों श्रेणियों के पत्रों में कुछ अन्तर होता हैं। जिसे यहाँ स्पष्ट किया गया हैं। सामान्यतः पत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं-
(1) शीर्षक या आरम्भ- पत्र के शीर्षक के रूप में पत्र-लेखक का पता लिखा जाता हैं। एक तरह से शीर्षक पत्र-लेखक का परिचायक होता हैं। पत्र लिखने वाले का पता पत्र के बायीं ओर सबसे ऊपर लिखा जाता हैं। परीक्षा के सन्दर्भ में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि यदि परीक्षा में पूछे गए पत्र में पते का उल्लेख न किया गया हो तो उसके स्थान पर 'परीक्षा भवन' लिखा जाता हैं। इसके ठीक नीचे पत्र लिखने की तिथि लिखी जाती हैं। औपचारिक पत्रों के अन्तर्गत विषय का उल्लेख सीमित शब्दों में स्पष्ट रूप से किया जाता हैं जबकि अनौपचारिक पत्रों में विषय का उल्लेख नहीं होता।
(2) सम्बोधन एवं अभिवादन- पत्रों में सम्बोधन एवं अभिवादन का महत्त्वपूर्ण स्थान होता हैं। औपचारिक पत्रों में यह प्रायः 'मान्यवर', 'महोदय' आदि शब्द-सूचकों से दर्शाया जाता हैं जबकि अनौपचारिक पत्रों में यह 'पूजनीय' 'स्नेहमयी', 'प्रिय' आदि शब्द-सूचकों से दर्शाया जाता हैं।
(3) विषय-वस्तु- किसी भी पत्र में विषय-वस्तु ही वह महत्त्वपूर्ण अंग हैं, जिसके लिए पत्र लिखा जाता हैं। इसे पत्र का मुख्य भाग भी कहते हैं। यह प्रभावशाली होना चाहिए। जिन विचारों एवं भावों को आप प्रकट करना चाहते हैं, उन्हें ही क्रमशः लिखना चाहिए। अपनी बात को छोटे-छोटे परिच्छेदों में लिखने का प्रयास कीजिए। ध्यान रखिए कि आप पत्र लिख रहे हैं, कोई कहानी या नाटक नहीं। अतः विषयवस्तु को अनावश्यक विस्तार न दीजिए।
जिस तरह विषयवस्तु का आरंभ प्रभावशाली होना चाहिए। उसी प्रकार उसका समापन भी ऐसा होना चाहिए, जो पाठक के मन को प्रभावित कर सके।
(4) मंगल कामनाएँ- विषयवस्तु की समाप्ति के बाद मंगल कामनाएँ व्यक्त करना न भूलें। ये मंगल कामनाएँ पढ़कर वाचक को लगता हैं कि पत्र-लेखक उसका शुभचिंतक हैं। प्रायः 'शुभकामनाओं सहित', 'सद्भावनाओं सहित', 'मंगल कामनाओं सहित', 'सस्नेह' आदि शब्दों का प्रयोग मंगल कामनाओं की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता हैं। मंगल सूचक शब्दों के बाद अर्द्धविराम लगाना चाहिए।
(5) अंत- पत्र के अंतिम अंग के रूप में 'आपका', 'भवदीय', 'आज्ञाकारी', 'शुभाकांक्षी' आदि शब्दों का प्रयोग प्रसंगानुसार किया जाता हैं। ऐसे शब्दों का उल्लेख उपर्युक्त तालिका में किया गया हैं। इन शब्दों के नीचे अपने हस्ताक्षर करना चाहिए। इन हस्ताक्षरों के साथ उपाधि आदि का उल्लेख नहीं करना चाहिए। इस प्रकार पूरा पत्र लिखने के बाद, लिफाफे में बंद करने से पहले एक बार पढ़ अवश्य लेना चाहिए कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया हैं, अथवा आप जो बात कहना चाहते थे वही लिखा भी गया हैं या नहीं।
अगर पत्र पोस्टकार्ड पर लिखा गया हैं तो उसमें निर्धारित स्थान पर उस व्यक्ति संस्था आदि का पूरा पता लिखें। अन्यथा पत्र को यथोचित मोड़कर लिफाफे में रख दें। फिर लिफाफे पर पानेवाले का पूरा पता अवश्य लिख दें। पता लिखते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि पता साफ और पूरा लिखा गया हो। पते में सबसे पहले पानेवाले का नाम, फिर दूसरी पंक्ति में मकान नं., सड़क, गली, मुहल्ले और शहर का नाम लिखना चाहिए। आजकल समय से डाक पहुँचे, इसके लिए पिनकोड का चलन हो गया हैं। अतः नगर के साथ-साथ पिनकोड और राज्य भी लिख दें।
लिफाफे पर पानेवाले का पता बीच में लिखना चाहिए। जिस ओर पता लिखा हैं उसी ओर नीचे, बाएँ कोने में 'प्रेषक' लिखकर अपना पता लिख दें। अंतर्देशीय पत्रों में दोनों पतों की अलग-अलग व्यवस्था होती हैं। पत्र को पोस्ट करने से पहले यह देख लें कि उसपर पर्याप्त डाक टिकट लगे हैं या नहीं। पर्याप्त टिकटों के अभाव में पत्र 'बैरंग' माना जाता हैं और उसके सामान्य मूल्य से दो गुना मूल्य पत्र पानेवाले को चुकाना पड़ता हैं।
पत्रों के प्रकार
मुख्य रूप से पत्रों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :
(1) अनौपचारिक-पत्र (Informal Letter)
(2) औपचारिक-पत्र (Formal Letter)
(1)अनौपचारिक पत्र- वैयक्तिक अथवा व्यक्तिगत पत्र अनौपचारिक पत्र की श्रेणी में आते हैं।
वैयक्तिक अथवा व्यक्तिगत पत्र- वैयक्तिक पत्र से तात्पर्य ऐसे पत्रों से हैं, जिन्हें व्यक्तिगत मामलों के सम्बन्ध में पारिवारिक सदस्यों, मित्रों एवं अन्य प्रियजनों को लिखा जाता हैं। हम कह सकते हैं कि वैयक्तिक पत्र का आधार व्यक्तिगत सम्बन्ध होता हैं। ये पत्र हृदय की वाणी का प्रतिरूप होते हैं।
अनौपचारिक पत्र अपने मित्रों, सगे-सम्बन्धियों एवं परिचितों को लिखे जाते है। इसके अतिरिक्त सुख-दुःख, शोक, विदाई तथा निमन्त्रण आदि के लिए पत्र लिखे जाते हैं, इसलिए इन पत्रों में मन की भावनाओं को प्रमुखता दी जाती है, औपचारिकता को नहीं। इसके अंतर्गत पारिवारिक या निजी-पत्र आते हैं।
पत्रलेखन सभ्य समाज की एक कलात्मक देन है। मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है इसलिए वह दूसरों के साथ अपना सम्बन्ध किसी-न-किसी माध्यम से बनाये रखना चाहता है। मिलते-जुलते रहने पर पत्रलेखन की तो आवश्यकता नहीं होती, पर एक-दूसरे से दूर रहने पर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के पास पत्र लिखता है।
सरकारी पत्रों की अपेक्षा सामाजिक पत्रों में कलात्मकता अधिक रहती है; क्योंकि इनमें मनुष्य के ह्रदय के सहज उद्गार व्यक्त होते है। इन पत्रों को पढ़कर हम किसी भी व्यक्ति के अच्छे या बुरे स्वभाव या मनोवृति का परिचय आसानी से पा सकते है।
एक अच्छे सामाजिक पत्र में सौजन्य, सहृदयता और शिष्टता का होना आवश्यक है। तभी इस प्रकार के पत्रों का अभीष्ट प्रभाव हृदय पर पड़ता है।
इसके कुछ औपचारिक नियमों का निर्वाह करना चाहिए।
(i) पहली बात यह कि पत्र के ऊपर दाहिनी ओर पत्रप्रेषक का पता और दिनांक होना चाहिए।
(ii) दूसरी बात यह कि पत्र जिस व्यक्ति को लिखा जा रहा हो- जिसे 'प्रेषिती' भी कहते हैं- उसके प्रति, सम्बन्ध के अनुसार ही समुचित अभिवादन या सम्बोधन के शब्द लिखने चाहिए।
(iii) यह पत्रप्रेषक और प्रेषिती के सम्बन्ध पर निर्भर है कि अभिवादन का प्रयोग कहाँ, किसके लिए, किस तरह किया जाय।
(iv) अँगरेजी में प्रायः छोटे-बड़े सबके लिए 'My dear' का प्रयोग होता है, किन्तु हिन्दी में ऐसा नहीं होता।
(v) पिता को पत्र लिखते समय हम प्रायः 'पूज्य पिताजी' लिखते हैं।
(vi) शिक्षक अथवा गुरुजन को पत्र लिखते समय उनके प्रति आदरभाव सूचित करने के लिए 'आदरणीय' या 'श्रद्धेय'-जैसे शब्दों का व्यवहार करते हैं।
(vii) यह अपने-अपने देश के शिष्टाचार और संस्कृति के अनुसार चलता है।
(viii) अपने से छोटे के लिए हम प्रायः 'प्रियवर', 'चिरंजीव'-जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं।
अनौपचारिक-पत्र लिखते समय ध्यान रखने योग्य बातें :
(i) भाषा सरल व स्पष्ट होनी चाहिए।
(ii) संबंध व आयु के अनुकूल संबोधन, अभिवादन व पत्र की भाषा होनी चाहिए।
(iii) पत्र में लिखी बात संक्षिप्त होनी चाहिए
(iv) पत्र का आरंभ व अंत प्रभावशाली होना चाहिए।
(v) भाषा और वर्तनी-शुद्ध तथा लेख-स्वच्छ होना चाहिए।
(vi) पत्र प्रेषक व प्रापक वाले का पता साफ व स्पष्ट लिखा होना चाहिए।
(vii) कक्षा/परीक्षा भवन से पत्र लिखते समय अपने नाम के स्थान पर क० ख० ग० तथा पते के स्थान पर कक्षा/परीक्षा भवन लिखना चाहिए।
(viii) अपना पता और दिनांक लिखने के बाद एक पंक्ति छोड़कर आगे लिखना चाहिए।
अनौपचारिक-पत्र का प्रारूप
प्रेषक का पता
..................
...................
...................
दिनांक ...................
संबोधन ...................
अभिवादन ...................
पहला अनुच्छेद ................... (कुशलक्षेम)...................
दूसरा अनुच्छेद ...........(विषय-वस्तु-जिस बारे में पत्र लिखना है)............
(2)औपचारिक पत्र- प्रधानाचार्य, पदाधिकारियों, व्यापारियों, ग्राहकों, पुस्तक विक्रेता, सम्पादक आदि को लिखे गए पत्र औपचारिक पत्र कहलाते हैं।
औपचारिक पत्रों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं-
(1) प्रार्थना-पत्र/आवेदन पत्र (Request Letter)(अवकाश, सुधार, आवेदन के लिए लिखे गए पत्र आदि)।
(2) सम्पादकीय पत्र (Editorial Letter) (शिकायत, समस्या, सुझाव, अपील और निवेदन के लिए लिखे गए पत्र आदि)
(3) कार्यालयी-पत्र (Official Letter)(किसी सरकारी अधिकारी, विभाग को लिखे गए पत्र आदि)।
(4) व्यवसायिक-पत्र (Business Letter)(दुकानदार, प्रकाशक, व्यापारी, कंपनी आदि को लिखे गए पत्र आदि)।
(1) प्रार्थना-पत्र (Request Letter)-जिन पत्रों में निवेदन अथवा प्रार्थना की जाती है, वे 'प्रार्थना-पत्र' कहलाते हैं।
ये अवकाश, शिकायत, सुधार, आवेदन के लिए लिखे जाते हैं।
(2) सम्पादकीय पत्र (Editorial Letter)-सम्पादक के नाम लिखे जाने वाले पत्र को संपादकीय पत्र कहा जाता हैं। इस प्रकार के पत्र सम्पादक को सम्बोधित होते हैं, जबकि मुख्य विषय-वस्तु 'जन सामान्य' को लक्षित कर लिखी जाती हैं।
(3) कार्यालयी-पत्र (Official Letter)- विभिन्न कार्यालयों के लिए प्रयोग किए जाने अथवा लिखे जाने वाले पत्रों को 'कार्यालयी-पत्र' कहा जाता हैं।
ये पत्र किसी देश की सरकार और अन्य देश की सरकार के बीच, सरकार और दूतावास, राज्य सरकार के कार्यालयों, संस्थानों आदि के बीच लिखे जाते हैं।
(4) व्यापारी अथवा व्यवसायिक पत्र (Business Letter)- व्यवसाय में सामान खरीदने व बेचने अथवा रुपयों के लेन-देन के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, उन्हें 'व्व्यवसायिक पत्र' कहते हैं।
आज व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता का दौर हैं। प्रत्येक व्यापारी यही कोशिश करता हैं कि वह शीर्ष पर विद्यमान हो। व्यापार में बढ़ोतरी बनी रहे, साख भी मजबूत हो, इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जिन पत्रों को माध्यम बनाया जाता हैं, वे व्यापारिक पत्रों की श्रेणी में आते हैं। इन पत्रों की भाषा पूर्णतः औपचारिक होती हैं।
औपचारिक-पत्र लिखते समय ध्यान रखने योग्य बातें :
(i)औपचारिक-पत्र नियमों में बंधे हुए होते हैं।
(ii)इस प्रकार के पत्रों में नपी-तुली भाषा का प्रयोग किया जाता है। इसमें अनावश्यक बातों (कुशलक्षेम आदि) का उल्लेख नहीं किया जाता।
(iii)पत्र का आरंभ व अंत प्रभावशाली होना चाहिए।
(iv)पत्र की भाषा-सरल, लेख-स्पष्ट व सुंदर होना चाहिए।
(v)यदि आप कक्षा अथवा परीक्षा भवन से पत्र लिख रहे हैं, तो कक्षा अथवा परीक्षा भवन (अपने पता के स्थान पर) तथा क० ख० ग० (अपने नाम के स्थान पर) लिखना चाहिए।
(vi)पत्र पृष्ठ के बाई ओर से हाशिए (Margin Line) के साथ मिलाकर लिखें।
(vii)पत्र को एक पृष्ठ में ही लिखने का प्रयास करना चाहिए ताकि तारतम्यता बनी रहे।
(viii)प्रधानाचार्य को पत्र लिखते समय प्रेषक के स्थान पर अपना नाम, कक्षा व दिनांक लिखना चाहिए।
औपचारिक-पत्र के निम्नलिखित सात अंग होते हैं :
(1) पत्र प्रापक का पदनाम तथा पता।
(2) विषय- जिसके बारे में पत्र लिखा जा रहा है, उसे केवल एक ही वाक्य में शब्द-संकेतों में लिखें।
(3) संबोधन- जिसे पत्र लिखा जा रहा है- महोदय, माननीय आदि।
(4) विषय-वस्तु-इसे दो अनुच्छेदों में लिखें :
पहला अनुच्छेद - अपनी समस्या के बारे में लिखें।
दूसरा अनुच्छेद - आप उनसे क्या अपेक्षा रखते हैं, उसे लिखें तथा धन्यवाद के साथ समाप्त करें।
(5) हस्ताक्षर व नाम- भवदीय/भवदीया के नीचे अपने हस्ताक्षर करें तथा उसके नीचे अपना नाम लिखें।
(6) प्रेषक का पता- शहर का मुहल्ला/इलाका, शहर, पिनकोड।
(7) दिनांक।
औपचारिक-पत्र का प्रारूप
प्रधानाचार्य को प्रार्थना-पत्र
प्रधानाचार्य,
विद्यालय का नाम व पता.............
विषय : (पत्र लिखने के कारण)।
माननीय महोदय,
पहला अनुच्छेद ......................
दूसरा अनुच्छेद ......................
आपका आज्ञाकारी शिष्य,
क० ख० ग०
कक्षा......................
दिनांक ......................
व्यवसायिक-पत्र
प्रेषक का पता......................
दिनांक ......................
पत्र प्रापक का पदनाम,
पता......................
विषय : (पत्र लिखने का कारण)।
महोदय,
पहला अनुच्छेद ......................
दूसरा अनुच्छेद ......................
भवदीय,
अपना नाम
औपचारिक-पत्र की प्रशस्ति, अभिवादन व समाप्ति
प्रशस्ति - श्रीमान, श्रीयुत, मान्यवर, महोदय आदि।
अभिवादन - औपचारिक-पत्रों में अभिवादन नहीं लिखा जाता।
वैयक्तिक पत्र, अनौपचारिक पत्र की श्रेणी में आते हैं। व्यक्तिगत मामलों के सम्बन्ध में पारिवारिक सदस्यों, मित्रो, सगे-सम्बन्धियों को लिखे गए पत्र 'वैयक्तिक पत्र' कहलाते हैं। इन पत्रों का प्रयोग परिवार की कुशल-क्षेम पूछने, निमन्त्रण देने, सलाह अथवा खेद प्रकट करने के साथ-साथ मन की बातें अभिव्यक्त करने के लिए किया जाता हैं।
वैयक्तिक पत्रों की भाषा-शैली सरल, सहज एवं घरेलू होती हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि पत्र-लेखक जैसी चाहे वैसी भाषा लिख सकता हैं। पत्र लिखने से पहले पत्र के विषय पर ध्यानपूर्वक सोच लेना चाहिए। फिर अपनी बात को उचित ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए।
यदि आप अपने माता-पिता, चाचा, मामा तथा अन्य पूजनीय लोगों को पत्र लिखने जा रहे हैं, तो पत्र लिखते समय उनका सम्बोधन जरूरी हैं। यह सम्बोधनपूजनीय पिताजी प्रणाम, आदरणीय चाचा जी सादर चरण-स्पर्श, के रूप में हो सकता हैं।
वैयक्तिक पत्र के मुख्य भाग
वैयक्तिक पत्र को व्यवस्थित रूप से लिखने के लिए इसको निम्नलिखित भागों में बाँटा गया हैं-
(1) प्रेषक का पता- पत्र लिखते समय सर्वप्रथम प्रेषक का पता लिखा जाना चाहिए। यह पता पत्र के बायीं ओर लिखा जाता हैं।
(2) तिथि-दिनांक- पत्र के बायीं ओर लिखे प्रेषक के पते के ठीक नीचे तिथि लिखी जानी चाहिए। यह तिथि उसी दिवस की होनी चाहिए, जब पत्र लिखा जा रहा हैं। तिथि को निम्न उदाहरण की तरह लिखना चाहिए 14 मार्च, 20XX अथवा मार्च 14, 20XX
(3) सम्बोधन- पत्र पर प्रेषक का पता व दिनांक अंकित करने के बाद 'सम्बोधन' सूचक शब्दों को लिखना चाहिए। 'सम्बोधन' का अर्थ हैं, 'किसी व्यक्ति को पुकारने के लिए प्रयुक्त शब्द'।जैसे- आदरणीय, माननीय, स्नेहिल, मित्रवर आदि।
(4) अभिवादन- सम्बोधन के नीचे दायीं ओर अभिवादन लिखा जाता हैं। यह सादर चरण-स्पर्श, नमस्कार, नमस्ते, चिरंजीव रहो आदि रूपों में लिखा जाता हैं।
(5) मूल भाग (विषय वस्तु)- अभिवादन की औपचारिकता के बाद मूल विषय लिखने का क्रम आता हैं। यह मूल विषय ही पत्र की विषय-वस्तु कहलाती हैं। इसी भाग में पत्र-लेखक को अपनी पूरी बात रखनी होती हैं।
(6) मंगल कामनाएँ- विषय वस्तु की समाप्ति के बाद मंगल कामनाएँ व्यक्त की जाती हैं। सामान्यतः मंगल कामनाएँ 'शुभ कामनाओं सहित', 'सस्नेह', 'शुभचिन्तक' आदि के रूप में व्यक्त की जाती हैं।
(7) उपसंहार- पत्र की विषय वस्तु, मंगल कामना लिखने के बाद अन्त में प्रसंगानुसार 'आपका', 'भवदीय', 'शुभाकांक्षी' आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं। यह पत्र के दायीं ओर लिखा जाता हैं।
(8) हस्ताक्षर- पत्र के अन्त में पत्र-लेखक को अपने हस्ताक्षर करना चाहिए। यदि आपको लगता हैं कि पत्र पाने वाला आपको हस्ताक्षर से पहचान पाएगा, तब आप अपने हस्ताक्षर के नीचे अपना नाम भी लिख सकते हैं।
पत्र पूरा लिखने के बाद उसे एक बार पुनः पढ़ लेना चाहिए और यदि कोई बात बतानी रह गई हो तो उसे पुनश्च लिखकर बता देना चाहिए।
वैयक्तिक पत्र लिखते समय प्रयोग में आने वाली औपचारिकताएँ अर्थात सम्बोधन एवं अभिवादन
जिसे पत्र लिखना हो
सम्बोधन
अभिवादन
अभिनिवेदन
अपने से बड़े आदरणीय, निकट सम्बन्धियों को, माता, पिता, गुरु, बड़े भाई, बड़ी बहन आदि को
हम सब यहाँ कुशलपूर्वक हैं और वहाँ पर तुम्हारी कुशलता की कामना करते हैं। तुम्हारा कॉलेज का यह पहला वर्ष हैं। खूब मन लगाकर पढ़ाई करना। किसी प्रकार की समस्या हो, तो हमें सूचित करना। तुमने अपने पिछले पत्र में हमें बताया था कि तुम्हारे कॉलेज में जल्दी ही 'वार्षिक-उत्सव' शुरू होने जा रहा हैं, ख़ुशी की सबसे बड़ी बात यह कि तुम भी कॉलेज के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग ले रहे हो।
हमारी भगवान से यही प्रार्थना हैं कि तुम्हें हर क्षेत्र में सफलता मिले। पढ़-लिखकर तुम एक बड़े अधिकारी बनो, हमारी यही कामना हैं। .............................(5)विषय वस्तु
हॉस्टल में यदि किसी प्रकार की दिक़्क़त अथवा परेशानी हो, तो हमें लिखना। समय-समय पर अपना हाल-चाल घर पर पत्र के माध्यम से देते रहा करो। तुम्हारी माँ हर समय तुम्हें याद करती रहती हैं। तुम्हारी छोटी बहन हर समय पूछती रहती हैं कि भैया कब आएँगे। मैंने उसे समझा दिया हैं कि तुम हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे हो, जल्दी ही घर आ जाओगे। राजेश, हम लोगों की तुमसे बहुत आशाएँ हैं। उम्मीद करते हैं कि तुम हमारे सपने अवश्य सच करोगे। अपना ख्याल रखना।
कुशल-क्षेम सम्बन्धी पत्रों से तात्पर्य ऐसे पत्रों से हैं, जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का हाल-चाल जानता हैं। वह जानकारी प्राप्त करता हैं कि अमुक व्यक्ति राजी-ख़ुशी से रह रहा हैं अथवा नहीं। कुशल-क्षेम सम्बन्धी कुछ पत्रों के उदाहरण इस प्रकार हैं-
(1) अपने परिवार से दूर रहकर नौकरी कर रहे पिता का हाल-चाल जानने के लिए पत्र लिखिए।
20/3, रामनगर,
कानपुर।
दिनांक 15 मार्च, 20XX
पूज्य पिताजी,
सादर चरण-स्पर्श।
कई दिनों से आपका कोई पत्र प्राप्त नहीं हुआ। हम सब यहाँ कुशलपूर्वक रहकर भगवान से आपकी कुशलता एवं स्वास्थ्य के लिए सदा प्रार्थना करते हैं। पिताजी, मैंने घर की सारी जिम्मेदारियाँ सम्भाल ली हैं। घर एवं बाहर के अधिकांश काम अब मैं ही करता हूँ।
सलोनी आपको बहुत याद करती हैं। वह हर समय पापा-पापा की रट लगाए रहती हैं। इस बार घर आते समय उसके लिए गुड़ियों का उपहार लेते आइएगा।
आप अपनी सेहत का ख्याल रखना। समय पर खाना, समय पर सोना। यदि आपको स्वास्थ्य से तनिक भी गड़बड़ी महसूस हो तो डॉक्टर से परामर्श कर तुरंत ही अपना उचित इलाज करवाना।
आपके पत्र के जवाब के इन्तजार में।
आपका पुत्र,
विजय मोहन
(2) आपका मित्र विदेश में रह रहा हैं। अपने मित्र का कुशल-क्षेम जानने के लिए उसे पत्र लिखिए।
454, मुखर्जी नगर,
दिल्ली।
दिनांक 13 मार्च, 20XX
प्रिय मित्र अवधेश,
नमस्कार।
आशा हैं, आप स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे। काफी समय बीत गया, आपका कोई पत्र नहीं आया। ऐसा लगता हैं जैसे फ्रांस में नौकरी मिलने के बाद से आप काफी व्यस्त हो गए हैं।
आप मेरा यह पत्र मिलते ही जवाब दें, एवं मुझे यह भी बताएँ कि देश से दूर रहकर चिकित्सा कार्य करने का आपका अनुभव कैसा रहा।
हो सकता हैं कि कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण आपको पत्र लिखने का समय न मिल पाता हो, परन्तु अपने इस मित्र के लिए कुछ समय तो निकाल ही लिया करें। इससे मुझे ख़ुशी मिलेगी।
आपकी भारत आने की योजना कब हैं, यह भी पत्र में लिखना। भाभी को मेरी तरफ से प्रणाम कहना, भांजी सृजना को प्यार देना।
आपके पत्र की प्रतीक्षा में
आपका मित्र,
राज कौशल
(3) अपनी छात्रावास की दिनचर्या एवं अपना कुशल-क्षेम बताते हुए अपने पिताजी को पत्र लिखिए।
सरोजिनी छात्रावास,
देहरादून।
दिनांक 12 मार्च, 20XX
पूज्य पिताजी,
सादर चरण-स्पर्श।
मुझे आज ही आपका पत्र प्राप्त हुआ। मेरे लिए यह ख़ुशी की बात हैं कि आपने मेरा हाल-चाल जानने के साथ-साथ मेरे छात्रावास की दिनचर्या के विषय में भी जानकारी चाही हैं। मैं यहाँ खुश हूँ, मुझे किसी तरह की कोई समस्या नहीं हैं। जहाँ तक बात मेरे छात्रावास की दिनचर्या की हैं, तो मैं इस पत्र में आपको उसकी जानकारी दे रहा हूँ।
हम प्रातः 5 : 30 बजे उठते हैं। 6 : 00 बजे तक शौच आदि से निवृत्त होकर प्रातः भ्रमण हेतु निकल जाते हैं। इन सब कार्यों पर हमारा लगभग एक घण्टा व्यतीत हो जाता हैं। इसके बाद सात बजे से साढ़े सात बजे के मध्य स्नान करते हैं। ठीक 8 बजे नाश्ते की घण्टी बजती हैं। प्रातः साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे तक पढ़ाई करता हूँ। दस बजे से चार बजे तक विद्यालय में रहता हूँ। सायं साढ़े पाँच से साढ़े छः बजे तक का समय खेलों के लिए निश्चित हैं। रात्रि भोजन की घण्टी आठ बजे बजती हैं। भोजन के पश्चात् दो घण्टे अध्ययन करता हूँ। रात्रि ग्यारह बजे सब विद्यार्थियों को अनिवार्य रूप से सो जाना पड़ता हैं। इस प्रकार हमारी दिनचर्या नियमबद्ध ढंग से एवं सुचारु रूप से चलती रहती हैं। छात्रावास के अधीक्षक हमारी हर सुविधा का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। मैं अगले महीने ग्रीष्म अवकाश में घर आऊँगा।
मनुष्य सामाजिक जीव है। समाज में रहते हुए उसे सामाजिक मान्यताओं और संबंधों का पालन करना होता है। आने से जाने तक वह अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त और अन्यों की अनुभूतिजनित अभिव्यक्तियों को ग्रहण करता है। अभिव्यक्ति के विविध माध्यम अंग संचालन, भाव मुद्रा, रेखांकन, गायन, वादन नृत्य, वाणी आदि हैं। अनुभूतियों की वाणी द्वारा की गयी अभिव्यक्ति साहित्य की जननी है। साहित्य मानव-मन की सुरुचिपूर्ण ललित अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति निरुद्देश्य नहीं होती। संस्कृत में साहित्य को ‘सहितस्य भाव’ अथवा ‘हितेन सहितं’ अर्थात ‘समुदाय के साथ’ जोड़ा जाता है। जिसमें सबका हित समाहित हो वही साहित्य है। विख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार के शब्दों में - “मनुष्य का और मनुष्य जाति का भाषाबद्ध या अक्षर व्यक्त ज्ञान ही ‘साहित्य’ है। व्यापक अर्थ में साहित्य मानवीय भावों और विचारों का मूर्त रूप है।
बुंदेली और बुंदेलखंड
बुंदेली भारत के एक विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। बुंदेली की प्राचीनता का ठीक-ठीक अनुमान संभव नहीं है। संवत ५०० से १०० विक्रम अपभृंश काल है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "भारत मुनि (तीसरी सदी) ने अपभृंश नाम न देकर 'देश भाषा' कहा है। डॉ. उदयनारायण तिवारी के मत में अपभृंश का विसात राजस्थान, गुजरात, बुंदेलखंड, पश्चिमोत्तर भारत, बंगाल और दक्षिण में मान्यखेत तक था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार अपभृंश लोक प्रचलित भाषा है जो विभिन्न समयों में विभिन्न रूपों में बोली जाती थी। बुंदेली पैशाची से निकली शौरसेनी से विकसित पश्चिमी हिंदी का एक देशज रूप है। 'बिंध्याचल' की लोकमाता 'बिंध्येश्वरी' हैं। यहाँ की लोकभाषा का नाम 'बिंध्याचली' से बदलते-बदलते 'बुंदेली' हो जाना स्वाभाविक है।
ठेठ बुंदेली शब्द अनूठे हैं। वे सदियों से ज्यों के त्यों लोक द्वारा प्रयोग किये जा रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बांग्ला, मैथिली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बघेली आदि बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में बुंदेली में हुए शासकीय पत्राचार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। औरंगजेब और शिवाजी भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे। बुंदेली में एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं। संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है तो जबलपुर की मधुरता भी है।
वर्तमान बुंदेलखंड चेदि, दशार्ण एवं कारुष से जुड़ा था। यहाँ कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग आदि अनेक जनजातियाँ निवास करती थीं जिनकी स्वतंत्र भाषाएँ थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में बुंदेली बोली का उल्लेख है। बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' की रचना की। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी ब्रज के अनेक शब्दों का उल्लेख है। इसी काल (एक हजार ईस्वी) के बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरणों में देशज शब्दों, की बहुलता हैं। हिंदी शब्दानुशासन (पं॰ किशोरीलाल वाजपेयी) के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली की माता प्राकृत-शौरसेनी मौसी संस्कृत तथा बृज व् कन्नौजी सहोदराएँ हैं। बुंदेली भाषा की अपनी चाल, अपनी प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है। भवभूति (उत्तर रामचरितकार) के ग्रामीणजनों की भाषा विंध्येली प्राचीन बुंदेली ही है। संभवतः चंदेल नरेश गंडदेव (सन् ९४० से ९९९ ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर (९९९ ई. से १०२५ ई.) के काल में बुंदेली के प्रारंभिक रूप में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय पंक्तियाँ लिखी गई। इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ। जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएँ हैं। बुंदेली के आदि कवि के रूप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं। बुंदेली के बारे में कहा गया है: 'बुंदेली वा या है जौन में बुंदेलखंड के कवियों ने अपनी कविता लिखी, बारता लिखवे वारों ने वारता (गद्य वार्ता) लिखी।
बुंदेली वैविध्य
बोली के कई रूप जगा के हिसाब से बदलत जात हैं। जई से कही गई है कि- 'कोस-कोस पे बदले पानी, गाँव-गाँव में बानी'। बुंदेलखंड में जा हिसाब से बहुत सी बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी, पवारी, पछेली, बघेली आदि। उत्तरी क्षेत्र (भिंड, मुरैना, ग्वालियर, आगरा, मैनपुरी, दक्षिणी इटावा आदि में बृज मिश्रित बुंदेली (भदावरी ) प्रचलित है। दक्षिणी क्षेत्र (उत्तरी छिंदवाड़ा (अमरवाड़ा, चौरई) व् सिवनी जिला (महाराष्ट्र से सटे गाँव छोड़कर) बुंदेली भाषी है। पूर्वी क्षेत्र (जालौन, हमीरपुर, पूर्वी छतरपुर, पन्ना, कटनी) में शुद्ध बुंदेली बोली जाती है किन्तु उत्तर-पश्चिम हमीरपुर व् दक्षिणी जालौन में बुंदेली का 'लोधांती' रूप तथा यमुना के दक्षिणी भाग में 'निभट्टा' प्रचलित है। दक्षिणी पन्ना की बुंदेली पर बघेली का प्रभाव (बनाफरी) है। पश्चिमी क्षेत्र में (मुरैना, श्योपुर, शिवपुरी, गुना, विदिशा, पश्चिमी होशंगाबाद (हरदा मिश्रित बुंदेली भुवाने की बोली') व सीहोर (मालवी मिश्रित बुंदेली) सम्मिलित है। मध्यवर्ती क्षेत्र (दतिया, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, विदिशा, सागर दमोह, जबलपुर, रायसेन, नरसिंहपुर) में शुद्ध बुंदेली लोक भाषा है।
बुंदेली वैशिष्ट्य
बुंदेली में क्रियापदों में गा, गे, गी का अभाव है। होगा - हुइए, बढ़ेगा - बढ़हे, मरेगा - मरहै, खायेगा - खाहै हो जाते हैं। 'थ' का 'त' तथा 'ह' का 'अ' हो जाता है, नहीं था - नई हतो, ली थी - लई तीं, जाते थे - जात हते आदि। कर्म कारक परसर्ग में 'खों' और 'कों' प्रचलित हैं। संज्ञा शब्दों का बहुवचन 'न' और 'ऐं' प्रत्यय लगकर बनाये जाते हैं। करन कारक 'से' 'सें' हो जाता है। संयुक्त वर्ण को विभाजन हो जाता है ' प्रजा से' 'परजा सें' हो जाता है। हकार का लोप हो जाता है - बहिनें - बैनें, कहता - कैत, कहा - कई, उन्होंने - उन्नें, बहू - बऊ, पहुँची - पौंची, शाह - शाय आदि। लोच और माधुर्यमयी बुंदेली 'ण' को 'न' तथा 'ड़' को 'र' में बदल लेती है। उच्चारण में 'अनुस्वार' को प्रधानता है - कोई - कोनउँ, उसने - ऊनें, आदि। संज्ञा एकवचन को बहुवचन में बदलने हेतु 'न' व 'ए' प्रत्यय लगाए जाते हैं। यथा सैनिक - सैनिकन, आदमी - आदमियन, पुस्तक - पुस्तकें आदि। शब्दों के संयुक्त रूप भी प्रयोग किये जाते हैं। यथा जैसे ही - जैसई, हद ही कर दी - हद्दई कर दई आदि। अकारान्त संज्ञा-विशेषणों का उच्चारण औकारांत हो जाता है। पखवाड़ा - पखवाडो, धोकर - धोकेँ आदि। लेकिन के लिए 'पै' का प्रयोग होता है। तृतीय पुरुष में एकवचन 'वह' का 'बौ / बो' हो जाता है। इसके कारकीय रूप बा, बासें, बाने, बाकी, बह वगैरह हैं। सानुनासिकता बुंदेली की विशेषता है। उन्नें, नईं, हतीं, सैं आदि। था, थी, थे आदि क्रमश: हतौ, हती, हते आदि हो जाते हैं। भविष्यवाची प्रत्यय गा, गी, गे का रूप बदल जाता है। होगा - हुइए, चढ़ेगा - चढ़हे, चढ़ चूका होगा - चढ़ चुकौ हुइए।
बुंदेली साहित्य सृजन परंपरा
बुंदेली साहित्य और लोक साहित्य की सुदीर्घ परंपरा १००० वि. से अब तक अक्षुण्ण है। जगनिक (संवत १२३०), विष्णुदास, मानिक कवि, थेपनाथ, छेहल अग्रवाल,गुलाब कायस्थ (१५०० वि.), बलभद्र मिश्र (१६०० वि.), हरिराम व्यास, कृपाराम, गोविंद स्वामी, बलभद्र कायस्थ (१६१० वि.), केशवदास (१६१२ वि.), खड़गसेन कायस्थ (१६६० वि.), सुवंशराय कायस्थ (१६८० वि.), अंबाप्रसाद श्रीवास्तव 'अक्षर अनन्य', बख्शी हंसराज,ईसुरी (१८०० वि.), पद्माकर (१८१० वि.), गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, घनश्याम कायस्थ (१७२९ वि.), रघुराम कायस्थ (१७३७ वि.), लाल कवि, हिम्मद सिंह कायस्थ (१७४८ वि.), रसनिधि (१७५० वि.), हंसराज कायस्थ (१७५२ वि.), खंडन कायस्थ (१७५५ वि.), खुमान कवि, नवल सिंह कायस्थ (१८५० वि.), फतेहसिंह कायस्थ (१७८० वि.), शिवप्रसाद कायस्थ (१७९८ वि.), गुलालसिंह बख्शी (१९२२ वि.), मदनेश (१९२४ वि.), मुंशी अजमेरी (१९३९ वि.), रामचरण हयारण 'मित्र' (१९४७ वि.), जीवनलाल वर्मा 'विद्रोही व भगवान सिंह गौड़ (१९७२ वि.), कन्हैयालाल 'कलश' (१९७६ वि.), भैयालाल व्यास (१९७७ वि.), वासुदेव प्रसाद खरे (१९७९ वि.), नर्मदाप्रसाद गुप्त ( १९८८ वि.) के क्रम में इस प्रबंध काव्य के रचयिता महाकवि मुरारीलाल खरे (१९८९ वि.) ने बुंदेली और हिंदी वांग्मय को अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा से समृद्ध किया है। वाल्मीकि रामायण का ७ भागों में हिंदी पद्यानुवाद, रामकथा संबंधी निबंध संग्रह यावत् स्थास्यन्ति महीतले, संक्षिप्त बुंदेली रामायण तथा रघुवंशम के हिंदी पद्यानुवाद, के पश्चात् बुंदेली में संक्षिप्त महाभारत 'कुरुक्षेत्र की बिथा कथा रचकर हिंदी-बुंदेली दोनों को समृद्ध है। भौतिकी के आचार्य डॉ. एम. एल. खरे भाषिक शुद्धता और कथा-क्रम के प्रति आग्रही हैं। वे छंद की वाचिक परंपरा के रचनाकार हैं। वार्णिक-मात्रिक छंदों मानकों का पालन करने के लिए कथ्य या कथा वस्तु से समझौता स्वीकार्य नहीं है। इसलिए उनका काव्य कथानक के साथ न्याय कर पाता है।
बुंदेली में वीर काव्य
विश्व की सभी प्रधान भाषाओँ में वीर काव्य लेखन की परंपरा रही है। रामनारायण दूगड़ 'रहस' या 'रहस्य' से तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रो। ललिता प्रसाद सुकुल आदि 'रसायण' से रासो की उत्पत्ति मानते हैं। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल कविराज श्यामदास आदि 'रहस्य - रहस्सो - रअस्सो - रासो' विकासक्रम के समर्थक हैं। मुंशी देवी प्रसाद के मत में बुंदेली में वीर काव्य को 'रासो' कहा जाता है। डॉ. ग्रियर्सन राज्यादेश से रासो उत्पत्ति मानते हैं। महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्त्री रासा (क्रीड़ा या झगड़ा) को रासो का जनक बताते हैं। महामहोपाध्याय डॉ.गौरीशंकर हीराचंद ओझा संस्कृत 'रास' रासो की उत्पत्ति के पक्षधर हैं। बुंदेलखंड में 'हों लगे सास-बहू के राछरे' जैसी पक्तियाँ रासो का उद्भव राछरे से इंगित करती हैं। रासो में किसी वीर नायक का चरित्र, संघर्ष, जय-पराजय आदि गीतमय वर्णन होता है। रासो शोकांत (ट्रेजिक एंड) जान मानस में सफल होता है। जगनिक कृत आल्ह खंड, चंद बरदाई रचित पृथ्वीराज रासो, दलपति विजय कवि कृत खुमान रासो, नरपति नाल्ह द्वारा लिखित बीसलदेव रासो आदि अपने कथानायकों के शौर्य का अतिरेकी, अतिशयोक्तिपूर्ण अतिरंजित वर्णन। अवास्तविक भले ही हो श्रोताओं-पाठकों को मोहता है। जगनिक "एक को मारे दो मर जाँय, तीजा गिरे कुलाटी खाँय'' लिखकर इस परंपरा का बीजारोपण करते हैं। रासो काव्यों की ऐतिहासिकता भी प्रश्नों के घेरे में रही है।
संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सार-संकलन के रूप में उपलब्ध है। महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है ,
महाभारत रासो काव्यों के लक्षणों से युक्त महाकाव्य है। रासो की तरह नायकों की अतिरेकी शौर्य कथाएँ और वंश परिचय महाभारत में है। रासों से भिन्नता यह कि नायक कई हैं तथा नायकों के अवगुणों, पराजयों व पीड़ाओं का उल्लेख है। भिन्न-भिन्न प्रसंगों में उदात्त-वीर नायक बदलते हैं। एक सर्ग का नायक अन्य सर्ग में खलनायक की तरह दिखता है। इस दृष्टि से महाभारत रासो-का समुच्चय प्रतीत है।महाभारत की कथा चिर काल से सृजनधर्मियों का चित्त हरण करती रही है। अनेक रचनाकारों ने गद्य और पद्य दोनों में महाभारत की कथा के विविध आयाम उद्घाटित किये हैं। डॉ. मुरारीलाल खरे जी द्वारा रचित यह प्रबंध काव्य कृति रासो काव्य लक्षणों से यथास्थान अलंकृत है।
श्रव्य काव्य : प्रबंध काव्य और महाकाव्य
श्रव्य काव्य का लक्षण श्रवण में आनंद मिलना है। प्रबंध काव्य में श्रवयत्व और पाठ्यत्व दोनों गुण होते हैं।
प्रबंध का अर्थ है प्रबल रूप से बँधा हुआ। प्रबंध का प्रत्येक अंश अपने पूर्व और पर अंश के साथ निबध्द होता है। प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं। प्रबंध काव्य के दो भेद होते हैं -
महाकाव्य
खण्डकाव्य
महाकाव्य में किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है। खंडकाव्य में किसी की संपूर्ण जीवनकथा का वर्णन न होकर केवल जीवन के किसी एक ही भाग का वर्णन होता है। महाकाव्य अपने देश की जातीय और युगीन सभ्यता-संस्कृति के वाहक होते हैं। इनमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिथकों का अंतर्गुफन रहता है। इन महाकाव्यों के केन्द्र में युद्ध रहता है जो व्यक्तिगत तथा वंशगत सीमाओं से ऊपर उठकर जातीय युद्ध का रूप धारण कर लेता है। भारतीय महाकाव्यों में ये 'धर्मयुद्ध' के रूप में लड़े गए हैं। इलियड और ओडिसी में ये युद्ध मूलतः जातीय युद्ध हैं- धर्मयुद्ध नहीं। इसका कारण यह है कि यूनानी चिंतक भाग्यवादी रहा है किन्तु यहाँ भी धर्म की पराजय और अधर्म की विजय को मान्यता नहीं दी गई। रचनाबद्ध होने से पहले इनकी मूलवर्ती घटनाएं मौखिक परंपरा के रूप में रहती हैं। इसलिए सार्वजनिक प्रस्तुति के साथ किसी-न-किसी रूप में इनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष संबंध रहता है। इनकी शैली पर वाचन-शैली का प्रभाव अनिवार्यतः लक्षित होता है।
हिंदी में आल्ह खंड (जगनिक), पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई), पद्मावत (जायसी), रामचरित मानस (तुलसीदास), साकेत (मैथिलीशरण गुप्त), साकेत संत (बलदेव प्रसाद मिश्र), प्रियप्रवास (अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'), कृष्णायण (द्वारिकाप्रसाद मिश्र), कामायनी (जयशंकर प्रसाद), वैदेही वनवास (हरिऔध), सिद्धार्थ (अनूप शर्मा), हल्दीघाटी (श्यामनारायण नारायण पांडेय), कुरुक्षेत्र (दिनकर), आर्यावर्त (मोहन लाल महतो), नूरजहां (गुरुभक्त सिंह), गांधी पारायण (अंबिकाप्रसाद दिव्य), कैकेयी (इंदु सक्सेना), उत्तर रामायण तथा उत्तर भागवत (डॉ. किशोर काबरा), दधीचि (आचार्य भगवत दुबे), महिजा तथा रत्नजा (डॉ. सुशीला कपूर), वीरांगना दुर्गावती ( गोविंद प्रसाद तिवारी), विवेक श्री (श्रीकृष्ण सरल), मृत्युंजय मानव गणेश (डॉ. जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद'), कुटिया का राजपुरुष (विश्वप्रकाश दीक्षित 'बटुक'), कुँअर सिंह (चंद्रशेखर मिश्र), उत्तर कथा (प्रतिभा सक्सेना), महामात्य, सूतपुत्र तथा कालजयी (दयाराम गुप्त 'पथिक'), दलितों का मसीहा (जयसिंह व्यथित), क्षत्राणी दुर्गावती (केशव सिंह दिखित), रणजीत राय (गोमतीप्रसाद विकल), स्वयं धरित्री ही थी (रमाकांत श्रीवास्तव), परे जय पराजय के (डॉ. रमेश कुमार बुधौलिआ), मानव (डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल'), महानायक वीरवर तात्या टोपे (वीरेंद्र अंशुमाली), दमयंती (नर्बदाप्रसाद गुप्त), महाराणा प्रताप व् आहुति (डॉ. बृजेश सिंह), राष्ट्र पुरुष नेताजी सुभाषचंद्र बोस (रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'), मांडवी एक विस्मृता (सरोज गौरिहार), शौर्य वंदन (रवींद्र नाथ तिवारी) आदि महाकाव्य के रत्नहार में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' एक दीप्तिमान रत्न की तरह विश्ववाणी हिंदी के रत्नागार की श्रीवृद्धि करेगा।
'हस्तिनापुर की बिथा कथा' महाभारत में वर्णित कौरव-पांडव संघर्ष केंद्रित होते हुए भी स्वतंत्र काव्य कृति है। हस्तिनापुर नायक है जिसकी व्यथा कारण कुरु कुलोत्पन्न धृतराष्ट्र पुत्र और पाण्डु पुत्र बने। वस्तुत: हस्तिनापुर मानव संस्कृति और मानव मूल्यों के अतिरेक का शिकार हुआ। आदर्शवादियों ने आत्मकेंद्रित होकर मूल्यों का मनमाना अर्थ लगाया और नीति पर चलते-चलते अनीति कर बैठे। स्वार्थ-संचालित जनों ने 'स्व' के लिए 'पर' ही नहीं 'सर्व' को भी नाश नहीं किया, बिन यह सोचे कि वे स्वयं नहीं बच सकेंगे। डॉ.खरे ने आरंभ में ही राजवंश में अंतर्व्याप्त द्वेष को द्वन्द का मूल कारण बताते हुए 'गेहूँ के साथ घुन पिसने' की तरह आर्यावर्त अर्थात आम जन का बिना किसी कारण विनाश होने का संकेत किया है।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्यावर्त गओ
घर में आग लगाई घर में बरत दिया की भड़की लौ
कौरव-पांडवों की द्वेषाग्नि और कुल की रक्षा हेतु राजकुमारों को दिलायी गयी शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र ही कुल के विनाश में सहायक हुए।
दिव्य अस्त्र पाए ते जतन सें होवे खों कुल के रक्षक
नष्ट भये आपस में भिड़कें , बने बंधुअन के भक्षक
महाभारत के विस्तृत कथ्य को समेटते हुए मौलिकता की रक्षा करने के साथ-साथ पाठकीय अभिरुचि, आंचलिक बोली का वैशिष्ट्य, छांदस लयबद्धता और लालित्य बनाये रखने पञ्च निकषों पर खरी कृति जी रचना कर पाना खरे जी के ही बस की बात है।संस्कृत काव्य शास्त्र में भामह, डंडी, रुद्रट, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने कथानक की ऐतिहासिकता, कथानक का अष्टसर्गीय अथवा अधिक विस्तार, कथानक का क्रमिक विकास, धीरोदात्त नायक, अंगी रस (श्रृंगार, वीर, शांत व् करुण में से एक), लोक कल्याण की प्राप्ति, छंद वैविध्य, भाषिक लालित्य आदि महाकाव्य के तत्व कहे हैं। अरस्तू के अनुसार महाकाव्य की भाषा प्रसन्नतादायी हो किंतु क्षुद्र (अशुद्ध) न हो। स्पेंसर महाकाव्य के लिए वैभव-गरिमा को आवश्यक मानते हैं। औदात्य और औदार्य, शौर्य और पराक्रम, श्रृंगार और विलास, त्याग और वैराग, गुण और दोष के पञ्च निकषों पर ' हस्तिनापुर की बिथा कथा' अपनी मिसाल आप है।
मौलिकता
महाकाव्य में मौलिकता का अपना महत्त्व है। खरे जी ने यत्र - तत्र पात्रों और घटनाओं पर अपनी ओर से गागर में सागर की तरह टिप्पणियाँ की हैं। द्रोणाचार्य के मनोविज्ञान पर दो पंक्तियाँ देखें -
द्रोण चाउतते उनकौ बेटा अर्जुन सें बड़केँ जानें
सो अर्जुन खों पौंचाउतते पानी ल्याबे के लाने
सत्यवती के पोतों में से विदुर में क्षत्रिय रक्त न होने के कारण स्वस्थ्य व योग्य होते हुए भी सिंहासन योग्य न माने जाने की तर्कसम्मत स्थापना खरे जी है। गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत में भीष्म का लालन-पालन गंगा द्वारा करना वर्णित है जबकि खरे जी ने शांतनु द्वारा बताया है। अशिक्षित सत्यवती द्वारा उचित-अनुचित का विचार किये बिना, पुत्र वधुओं की सहमति के बिना वंश वृद्धि के मोह में बलात सन्तानोपत्ति हेतु विवश करना और उसका दुष्प्रभाव संतान पर होना विज्ञान सम्मत है।
गांधारी द्वारा अंधे पति की आँखें न बनकर खुद भी आँखों पर पट्टी बाँधकर नेत्रहीन होने के दुष्प्रभाव को भी इंगित किया गया है।
पतिब्रता धरम जानकेँ धरमसंगिनी तौ हो गइ
आँखें खुली राख के भोली अंधे की लठिया नइं भइ
आदर्श और पराक्रमी माने जाने वाले भीष्म धृतराष्ट्र को सम्राट बनाते समय यह नहीं सोच सके कि पदका का नशा चढ़ता है, उतरता नहीं -
धृतराष्ट्र को पुत्र जेठो अधिकार माँगहै गद्दी पै
जौ नइं सोचे भीष्म , बिचार कर सकोतो धीवर जी पै
बुंदेलखंड में दोहा प्रचलित है 'जब जैसी भबितब्यता, तब तैसी बने सहाय / आप न जावै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाए', तुलसीदास जी लिखते हैं 'होइहै सोही जो राम रचि राखा', खरे जी के अनुसार हैं हस्तिनापुर में भी 'भावी प्रबल' थी जिसे भीष्म नहीं जान या टाल सके-
सोचन लगे पितामह घर में इत्ते सूरबीर हैं जब
कोऊ दुस्मन कर नइं पाये ई राज पै आक्रमन अब
बे का जानतते जा शिक्षा मिली परस्पर लड़बे खों
अस्त्र - सस्त्र जे काम आउनें आपुस में मर मिटवे खों
धृतराष्ट्र के बुलाने पर पांडव दोबारा जुआं खेलने पहुँचे। कवि इस पर टिप्पणी करता है -
काका की आज्ञा को पालन मानत धरम युधिष्ठिर रए
एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए
ऐसी ही टिप्पणी गंधर्वराज से लड़-हार कर बंदी बने कौरवों को पांडवों द्वारा मुक्त कराये जाने के प्रसंग में भी है -
नीच सुभाव होत जिनकौ , ऐसान कौऊ कौ नइं मानत
बदी करत नेकी के बदलैं , होशयार खुद खों जानत
ऐसी टिप्पणियाँ कथा - प्रवाह में बाधक न होकर , पाठक के मन की बात व्यक्त कर उसे कथा से जोड़ने में सफल हुई हैं।
पांडवों के मामा शल्य उनकी सहायता हेतु आते हुए मार्ग दुर्योधन के कपट जाल में फँसकर उसके पक्ष में फिसल गए। यहाँ (अन्यत्र भी) कवि ने मुहावरे का सटीक प्रयोग किया है - ' बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गए ' ।
दिशा - दर्शन
महाकवि खरे जी ने यत्र - तत्र नीतिगत संकेत इस तरह किये हैं कि वे कथा - प्रवाह को अवरुद्ध किये बिना पाठकों और राष्ट्र नायकों को राह दिखा सकें -
' सत्यानास देस का भओ तो , नई बंस कौ भओ भलो '
संकेत स्पष्ट है कि देश को हानि पहुँचाकर खुद का भला नहीं किया जा सकता। ऐसे अनेक संकेत कृति को प्रासंगिक और उपादेय बनाते हैं।
जीवन में अव्यवहारिक, अस्वाभाविक निर्णय दुखद तथा विनाशकारी परिणाम देते हैं। आत्मगौरव को सर्वोच्च मानने और कुल अथवा समाज के हित को गौड़ मानने का परिणाम दुखद हुआ -
महात्याग से नाव भीष्म कौ जग में भौत बड़ो हो गओ
पर कुल की परंपरा टूटी , बीज अनीति कौ पर गओ
आगें जाकर अंकुर फूटे , बड़ अनीति विष बेल बनी
जीसें कुल में तनातनी भइ , भइयन बीच लड़ाई ठनी
रक्त शुद्धता न होने कारण सर्वथा योग्य विदुर की अवमानना , जाति के आधार पर एकलव्य और कर्ण के साथ अन्याय , अंबा , अंबिका , अंबालिका द्रौपदी आदि स्त्री रत्नों की अवहेलना , पुत्र मोह , ईर्ष्या , द्वेष अहंकार आदि यथास्थान यथोचित विवेचना कर खरे जी ने कृति को युगबोध, सामयिकता लोकोपयोगिता के निकष पर खरा रचा है।
कथाक्रम सुविदित होने कारण उत्सुकता और कौतुहल बनाये रखने की चुनौती को खरे ने स्वीकारा और जीता है। देश - काल की परिस्थितियों और चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में सर्पोवोपयोगी कृति का प्रणयन कर खरे जी ने हिंदी - बुंदेली रत्नागार को समृद्ध किया है। उनकी आगामी कृति की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१। वार्ता : ९४२५१८३२४४, ईमेल -salil.sanjiv@gmail.com .
फ्लैप हेतु
निकष पर : डॉ. एम. एल. खरे
डॉ. रमानाथ त्रिपाठी, दिल्ली
विदवत्वर डॉ. एम. एल. खरे ने परिश्रमपूर्वक (वाल्मीकि का) पद्यानुवाद प्रस्तुत कर सराहनीय कार्य किया है ..... डॉ. खरे में अनुवाद की अद्भुत प्रतिभा है। उन्होंने संस्कृत के कई ग्रंथों और रामचरित मानस के अनुवाद किये हैं। वे एक सफल व्यंग्य भी हैं। में श्रम, प्रतिभा और धैर्य की झलक मिलती है। देश में के पुरस्कार-सम्मानों की है। प्राय: इन्हें वे लोग हड़प लेते हैं जो तिकड़म भिड़ाकर निर्णायकों को प्रभावित करने की कला जानते हैं। खरे जी जैसे स्वाभिमानी और मौन साधक उपेक्षित रह जाते हैं। डॉ. खरे जैसे विद्वान का सम्मान लोकोपयोगी प्रतिभा और साधना का सम्मान होगा।
कैलाशचंद्र पंत, मंत्री संचालक म. प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल
श्री एम. एल. खरे मूलत: विज्ञान से जुड़े रहे और इंजीनियरिंग कॉलेज में भौतिकी के प्रोफेसर रहे। शायद विज्ञान का ध्यायन-अध्यापन करते हुए उन्हें यह अनुभूति हुई कि संस्कृत की समृद्ध ज्ञान परंपरा से अपने समाज को परिचित कराना जरूरी है। संस्कृत ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद एक चुनौती भरा काम है परन्तु श्री खरे तो काव्यानुवाद का संकल्प ले बैठे। .... जैसा कहा जाता है कि संकल्प कल्याण का हो तो प्रभु भी उसे साकार करने में सहायक होते हैं। इसमें बड़ा तत्व आस्था है। भारत अपनी आस्था में जीता रहा। बीच का एक काल ऐसा भी आया जब हमारी आस्था डिगने लगी थी। देवता ने भारत की नियति बदलने का निश्चय कर रखा है। विज्ञान के विद्वान अब नए भारत के बदलते स्वरूप को आकार देने में लगे हैं। निश्चय ही इस दृष्टि से श्री खरे की इस कृति को पाठक पसंद ही नहीं करेंगे अपितु अपनी विस्मृत से घिर चुकी स्मृति का शोधन भी करेंगे। मैं श्री खरे के इस प्रयास का हार्दिक स्वागत करता हूँ और उन्हें साधुवाद देता हूँ। भारत और भारतीयता का स्वप्न ऐसे ही कर्मयोगी साकार करेंगे।
प्रो. डॉ. साधना वर्मा, जबलपुर
बुंदेलखंड में वीर काव्य लेखन-गायन की परंपरा चिरकाल से है। महाभारत भारत का बहुयुगीन इतिहास समेटे है। इस महान ग्रंथ में मानवीय मूल्यों के उत्थान-पतन, श्रेष्ठ-निकृष्ट मानवीय आचरण, शुभाशुभ के दुर्घर्ष संघर्ष, स्वार्थ और परामर्थपरक अतिरेकी आचरण, पाने-खोने की आँख मिचौली का अद्भुत समन्वय है। इस विराट महाकथा को बुंदेली में प्रस्तुत करना, वह भी इतने कम पृष्ठों में और कथाक्रम, पात्रों और घटनाओं के साथ न्याय करते हुए तलवार की धार पर चलने की तरह है। डॉ. खरे जी ने इस कठिनातिकठिन कार्य को जिस कुशलता के साथ पूर्ण किया है उसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
प्रो. किरण श्रीवास्तव, रायपुर
हस्तिनापुर की बिथा कथा गागर में सागर की तरह है। बुंदेलखंड में पत्र लिखते समय 'कम लिखे को अधिक समझना' के साथ समाप्त करने की सुदीर्घ परंपरा रही है। डॉ. खरे ने यह कृति इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए लिखी है। कमाल यह कि अगिन प्रसंगों को छोड़ देने के बाद भी कहीं कोई कमी या अपूर्णता नहीं है। डॉ. खरे ने गुलाब के बगीचे से चुने सहस्त्रों सुमनों से कुछ बूँद इत्र निकालने की तरह महाभारत का मंथन कर इस बुंदेली महाभारत कथा को करुणा का निर्झर बना दिया है। आदि से अंत तक कथा प्रवाह पाठक को बाँधे रखता है। यत्र-तत्र दिए गए कथोपकथन दिशा दर्शकऔर अनुकरणीय हैं।
तीन मुक्तक- * मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों? फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं १. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन), ५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता, ९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना। * कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६ ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१० फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७ १. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न, ८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी, १२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग। * गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३ मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७ हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२ १. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी, ६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू, १२. अरमान। ***
दोहा सलिला * जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त * नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम? * अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत * अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम * शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार * गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम * गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास? * बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास *** २०-६-२०१६ lnct jabalpur
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
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मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
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मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
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गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
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सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
[पुस्तक विवरण – चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं, यतीन्द्रनाथ राही, गीत-नवगीत संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४३, मूल्य २५०/-, ऋचा प्रकाशन१०६ शुभम, ७ बी. डी. ए. मार्केट, शिवाजी नगर भोपाल १६, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, गीतकार सम्पर्क – ए ५४ रजत विहार, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९४२५०१६१४० ]
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समय के साथ कदम-दर-कदम चलते गीत-नवगीत की बाँह थामकर अठखेलियाँ करने का सुख पाने और लुटाने के अभ्यस्त श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीत-नवगीतकार श्री यतीन्द्रनाथ ‘राही’ की बारहवीं कृति और दूसरा गीत-नवगीत संग्रह 'चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं 'रस-गंगा में अवगाहन करने के इच्छुक गीत-प्रेमियों को बाँधकर रखने में समर्थ है. ९० वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह और उल्लास की अक्षय पूँजी लिए, जीवट के धनी राही जी गीत रचते नहीं गीतों को जीते हैं.
चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं राही जी की ५१ सरस. सार्थक, सामयिक गीति रचनाओं का पठनीय संग्रह है. नवगीत को सामाजिक विडम्बना, विद्रूपता, दीनता, बिखराव और टकराव का पर्याय माननेवाले संकीर्ण पक्षधरों के विपरीत राही जी नवगीत को सद्भाव, सहिष्णुता, सौहार्द्र, सहयोग और नवजागरण का वाहक मानते हैं. वे सगर्व घोषणा करते हैं-
‘जब तलक हैं / हम /
तुम्हारे पन्थ को / ज्योतित करेंगे...
पंख हैं कमजोर / तो क्या
हौसलों में दम बहुत है
सूर्य के हम वंशधर हैं
क्या करेगा तम बहुत है
पत्थरों को फोड़कर
हमने रचे हैं / पन्थ अपने
राही जी ने उन सबसे बहुत अधिक दुनिया देखी है जो संपन्नता से जीते हुए विपन्नता का रोना रोते रहते हैं अथवा पूँजीपति होते हुए भी बुर्जुआवाद की दुहाई देते हैं. कृति के शीर्षक गीत ‘चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं’ में युगीन तमस में नवाशा के दीपक जलाने का आव्हान करते हुए वे चुप्पियों की गुनगुनाहट सुन पाते हैं-
कान बहके खिड़कियों पर
चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं
झील के उस पार से / उड़कर पखेरू
खुशबुओं की कुछ नयी / सौगात लेकर आ रहे हैं
‘ हम पसीने से लकीरें भाग्य की / धोते रहे हैं’ , ‘कलम में ताकत बहुत है / बदल डालेंगे समय को’ के संकल्प को जीता नवगीतकार पलायनपंथियों से लौट आने का आव्हान करता है- ‘बहुत भटके / कमल लोचन / लौट आओ गाँव अपने... गाँव अपना ही / सरग है ’ क्या धरा है उस नगर में? / रह नहीं पाते जहाँ / बेटा-बहू भी एक घर में /काठ के हैं लोग / सुख-दुःख / कौन, किसके बाँटता है? / भीड़ का रेला सड़क पर / आदमी को हाँकता है... ‘
राही जी! सम-सामयिक परिस्थितियों की न तो अनदेखी करते हैं, न उनमें अतिरेकी दोष देखते हैं, वे पारिस्थितिक जटिलता के सन्नाटे को नवगीतीय कलरवों से तोड़ते हुए नव सृजन के गीत गाते हैं – ‘धूप / कोहरे से लिपटकर / सो रही है, चुप रहो / कुनकुने रोमांच तन में / बो रही है, चुप रहो / झुरमुटों में / चहकते उल्लास / आतुर हैं सुनो’. उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस का प्रतिनिधित्व करते ये नवगीत ‘बाँसुरी बजने लगी / है शाम / ठहरो बात कर लें’....‘टिमटिमाता एक दीपक / आज की सौगात कर लें’ कहते हुए समस्या का समाधान किसी और से या कहीं बाहर से नहीं चाहते अपितु अपने अंदर खोजने का पथ दिखाते हैं. गत पाँच दशकों से नवगीत को मर्सिया बना देने के बौद्धिक षड्यंत्र को बेनकाब करते हुए राही जी कहते हैं – ‘हम जिंदगी से / आज तो कुछ रू-ब-रू हो लें..... दहकते इन पलाशों ने / लगा दी आग सी देखो.... झनकती झाँझरों / मंजीर-कंगन के / रहस खोलें.... उतारो! / फेंक दो / ओढ़े हुए सन्यास के चीवर / करेंगे क्या भला / इस हाल में / सौ साल तक जीकर?.... उठाई पलक / सूखे प्राण में / कुछ प्राण तो ढोलें‘
स्वतंत्रता के पश्चात् सत्ता पर पूंजीवादियों और शिक्षा-संस्थानों पर साम्यवादियों के कब्जे ने सत्य और शुभ की ओर से आँखें फेरकर असत्य और अशुभ की चीख-पुकारकर आम लोगों को आपस में लड़ाकर स्वार्थ साधने का जो खेल खेला है उसे समझकर और उसकी काट बूझकर राही जी परामर्श देते हैं- ‘गुलमुहरों की / घमछैयों में / बैठो! बात करें’ नवगीत के नाम पर वर्गसंघर्ष के बीज बोनेवालों का प्रतिकार करते हुए राही जी असफलता को नकारते नहीं, स्वीकारते हैं- ‘हो गए / सारे निरर्थक / यत्न थे जो बाँधने के / टूट पैमाने गए सब / दूरियों को नापने के.... दर्द की नदिया सदानीरा / मिले ढहते किनारे / हम समय से बहुत हारे’ किन्तु वे असफलता से पारस्परिक द्वेष नहीं सहकार की राह निकलते देखते और दिखाते हैं. निराशा में आशा का संचार करते राही जी के नवगीत पाँच दशकीय दिशा-भ्रम को तोड़ते हुए सर्वथा विपरीत रचनात्मक दिशा का संकेत करते हैं- 'शाम गहराने लगी है / काम की बातें करेंगे / रात काली है / न सहमो / गगन की दीपावली है / जुगनुओं ने खोल दी लो / ज्योति की ग्रंथावली है / झींगुरों के ध्वनन में / यह / पाठ मानस का अखंडित / हो गयी साकार / स्वर की / साधना-आभा विमंडित / यंत्र-ध्वनि से दूर / कुछ / विश्राम को बातें करेंगे’.
राही जी के नवगीत शैल्पिक दृष्टि से ‘कम में अधिक’ कह पाने में समर्थ हैं. शब्द-सामर्थ्य की बानगी हर गीत में अंतर्निहित है. पाषाण, कंटकों, व्यवधान, शब्दायन, दीर्घा, पृष्ठायण, स्वप्नदर्शी, दिग्भ्रांत, संपोषक, परिवेषण, त्राहिमाम, उद्भ्रांत, श्लथ, संवरण जैसे संस्कृत निष्ठ शब्दों के साथ भरम, मुँड़गेरी, परेवा, टेवा, हिरनिया, हिया, डगर, उजारे, हेरते, भांड, सुआ, बिजुरी, मुँड़ेरी आदि देशज शब्द गलबहियाँ डाले हुए उर्दू के आवाज़, सफ़र, फौलाद, दस्तक, निजामों, हालात, कलम, ज़माने, अखबार, शक्ल, कागज़ी आदि शब्दों के साथ बतियाते हुए मिलते हैं. इससे इन नवगीतों की भाषा सीधे मन को छूती है. सोने में सुहागा हैं वे शब्द युग्म जो भाषा को मुहावरेदार मिठास देते हैं- साँझ-सकारे, मदिर-मंथर, लय-विलय, फाग-बिरहा, सुख-दुःख, वृक्ष-लताएँ, नद-निर्झर, झूठ-सच, आगे-पीछे, अच्छे-बुरे, गली-गाँव, लेना-देना आदि. राही जी ने तीन शब्दों के युग्मों का भी बखूबी प्रयोग किया है- रूप-रस-रंग, फूल-फल-पल्लव, कुएँ-बावली-ताल, ताल-पोखरे-नदियाँ, रजा-रंक-फकीर आदि. इनमें से कुछ राही जी की अपनी ईजाद हैं. भावाभिव्यक्ति के लिए राही जी अंग्रेजी शब्दों के मुहताज नहीं हैं किन्तु अपवाद स्वरूप अंग्रेजी के एक शब्द-युग्म ‘टॉवर-बंगले’ तथा उर्दू शब्द-युग्म‘शक्ल-सीरत’ का अनूठा प्रयोगकर चौंकाते हैं. इससे स्पष्ट है कि वे भाषिक संकीर्णता के नहीं किन्तु शुद्धता के पक्षधर हैं.
राही जी की एक विशेषता शब्दों को सामान्य से हटकर नए रूपों में इस तरह प्रयोग करना है कि वे मूल की तरह न केवल सहज अपितु अधिक सारगर्भित प्रतीत होते हैं. रश्मिल, उट्ठी, बरगदिया, हरषो, मसमसाया, हवनगंधी, रणित आदि ऐसे ही कुछ प्रयोग हैं. जाने-अनजाने वचन संबंधी काव्य-दोष कहीं कहीं आ गया है. इसका कारण बहुवचन में कही हिंदी व्याकरण के अनुसार (कंटकों, निजामों, कदमों आदि) तथा कहीं उर्दू व्याकरण के अनुसार (हालात आदि) शब्द-रूप का प्रयोग करना है. इसी तरह तारीख / तारीखों के स्थान पर तवारीख और तवारीखों का प्रयोग है. हो सकता है ये शब्द-रूप लय साधने में सहायक हों किंतु राही जी जैसे समर्थ कवि से अनजाने में ही ऐसी त्रुटि ही सकती है. ‘रेत की सीपियाँ बीन लें’ या ‘रेत पर सीपियाँ बीन लें’ विचारणीय हो सकता है? कृति में परजय ५४ (पराजय), प्रारव्धों ६३ (प्रारब्धों), आत्मश्लाधा ६५ (आत्म श्लाघा), लेबा ६६ (लेवा) आदि टंकण त्रुटियाँ स्वादिष्ट खीर में कंकर की तरह खटकती हैं. पृष्ठ ८८ के पहले और बाद में अक्षरों के आकार में भी अंतर है.
अपने नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ में मैंने ‘सूर्य’ के रूपक के माध्यम से कई बातें कही है. राही जी ने ‘बादल’ को माध्यम बनाकर विविध भावों को अभिव्यक्त किया है- ‘नेह-भीगे / पवनवाही / मेघ नभ में छा रहे हैं (पृष्ठ १५), ये घिरे घन / तमस गहरा / बिजलियों की कौंध (पृष्ठ ३३), झरे अंगारे/ अगन लगी है / बरसो! मेघा बरसो (पृष्ठ ६६), घटाएँ / घिर रही हैं / फिर सुहाने मेघ आये हैं (पृष्ठ ६९), चले आओ / गगन घिरने लगे / बरसात के बादल तथा पलक से रात भर / झरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ७८), हमें तो / प्यास ही धरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ७९), हमें उपहास ही भरते रहे / बरसात के बादल (पृष्ठ ८०), आकाश झुकाए फिरते हैं / थोथे आश्वासन के बादल (पृष्ठ ११९), नील नभ को / बादलों ने / ढक लिया है इस तरह से / दूर तक छत पर कहीं से / चाँद का दर्शन नहीं है (पृष्ठ १२०) आदि.
दोलिता संवेदनाएँ, बातों के बताशे, नीलकंठी भाग्य, सौध-शिखर, सगुन के सांतिये, सांस की डोली, गुलमुहरों की घमछैयाँ, घंटियों से रणित साँझें, रसवंतिनी धरती जैसी मौलिक अभिव्यक्तियाँ पाठक-मन को भाव-विभोर करती हैं.
इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकार की निर्दोष और मौलिक अभिव्यक्तियाँ सर्वत्र दर्शनीय हैं जिनसे नवोदित नवगीतकार बहुत कुछ सीख सकते हैं. झरनों के कल-कल-छल स्वर, गए कहाँ-कितने थक आदि में छेकानुप्रास अलंकार, हिल गयी साधना से सँवारी जड़ें, न जाने कह रही क्या-क्या आदि में वृत्यानुप्रास अलंकार, यंत्र-शोरों की कहानी, बरगदों के भी जरठ तन में आदि में श्रुत्यनुप्रास अलंकार, गाते गीत बजाते वंशी कितने ऐसे-वैसे में अन्त्यानुप्रास अलंकार तथा दर्द की नदिया सदानीरा में लाटानुप्रास अलंकार दृष्टव्य है.
हवन हो गए आहुति-आहुति (वेंणसगाई अलंकार), सुबह रेलें उगल जातीं / भीड़ के रेले सड़क पर, पर तुम्हारे प्राण को हे प्राण! मैं भाता रहूँगा (यमक अलंकार), चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं (विरोधाभास अलंकार), यह / जूड़े का फूल तुम्हारा / गिरा दिया था / जो अनजाने / या फिर जान-बूझकर ही था कौन तुम्हारे मन की जाने (संदेह अलंकार), माटी का कण-कण बहका है (पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार) आदि ने नवगीतों की सुषमा में चार चाँद लगाये हैं.
राही जी के नवगीतों में ग्राम्यांचलों के प्रति आकर्षण और शहरों के प्रति विकर्षण धूप-छाँव की तरह सम्बद्ध है. छायावादोत्तरी भाषा शैली और प्रसाद गुण संपन्नता ने इन्हें मिठास से सजाया है. राही जी आत्मानुभूति और आत्म-विश्वास के कवि हैं. वे ‘बदला समय / हवाएँ बदली / हम जैसे के तैसे’ कहकर विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग रहते हैं. जब तलक हैं हम / तुम्हारे पन्थ को / ज्योतित करेंगे, नफरतों की आग में / इतना तपे / कुंदन हुए हैं, नक्षत्रों पर / कीर्ति-कथाएँ / लिखने को / उल्लास मच गए. खुशबुओं की कुछ नयी / सौगात लेकर आ रहे हैं, आदि पंक्तियों में अपने आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति करते हैं. उनके अनुसार इन नवगीतों में ‘अभिव्यक्ति को फिर से एक नया आकाश मिला जिसमें विचरती कुछ अतीत की व्यष्टिपरक सुधियों की मोहक सरस मोरपंखी भ्रांतियाँ हैं तो आगत की सुकुमार रंगीन तितलियों के बीच स्थाई रूप से वर्तमान की खुरदरी धरती पर छटपटाती दम तोडती अच्छे दिन की प्यासी मछलियाँ भी हैं.’
राही जी के इन नवगीतों का जितना रसास्वादन किया जाए, प्यास उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है. उम्र के नौवें दशक के पार हो रहे राही जी से अगले नवगीत संग्रह में शतक की अपेक्षा करना अनुचित न होगा. नवगीत के सचिन तेंदुलकर राही जी का हर नवगीत चौए-छक्के की तरह करतल ध्वनि करने को विवश कर देता है, यही उनकी सफलता है .
मुक्तक * नेहा हों श्वास सभी गेहा हो आस सभी जब भी करिये प्रयास देहा हों ख़ास सभी * अरिमर्दन सौमित्र कर सके शक-सेना का अंत कर सके विश्वासों की फसल उगाये अंतर्मन को सन्त कर सके * विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली सरहदों पर मार पाकी वनचरों को * काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद? न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद * मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष * मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता * हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक * नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती * कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे? कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती *
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
* दीपमालिके! दीप बाल के बैठे हैं हम आ भी जाओ अब तक जो बीता सो बीता कलश भरा कम, ज्यादा रीता जिसने बोया निज श्रम निश-दिन उसने पाया खट्टा-तीता मिलकर श्रम की करें आरती साथ हमारे तुम भी गाओ राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर अर्पित निज सीकर चन्दन कर इस धरती पर स्वर्ग उतारें हर मरुथल को नंदन वन कर विधि-हरि -हर हे! नमन तुम्हें शत सुख-संतोष तनिक दे जाओ अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो मचा रही आतंक मिटा दो शक्ति-शारदे तम हरने को रवि-शशि जैसा हमें बना दो चित्र गुप्त जो रहा अभी तक झलक दिव्य हो सदय दिखाओ ___
नवगीत: * डॉक्टर खुद को खुदा समझ ले तो मरीज़ को राम बचाये लेते शपथ न उसे निभाते रुपयों के मुरीद बन जाते अहंकार की कठपुतली हैं रोगी को नीचा दिखलाते करें अदेखी दर्द-आह की हरना पीर न इनको भाये अस्पताल या बूचड़खाने? डॉक्टर हैं धन के दीवाने अड्डे हैं ये यम-पाशों के मँहगी औषधि के परवाने गैरजरूरी होने पर भी चीरा-फाड़ी बेहद भाये शंका-भ्रम घबराहट घेरे कहीं नहीं राहत के फेरे नहीं सांत्वना नहीं दिलासा शाम-सवेरे सघन अँधेरे गोली-टॉनिक कैप्सूल दें आशा-दीप न कोई जलाये **
गीत: कौन रचनाकार है?.... संजीव 'सलिल' * कौन है रचना यहाँ पर?, कौन रचनाकार है? कौन व्यापारी? बताओ- क्या-कहाँ व्यापार है?..... * रच रहा वह सृष्टि सारी बाग़ माली कली प्यारी. भ्रमर ने मधुरस पिया नित- नगद कितना?, क्या उधारी? फूल चूमे शूल को, क्यों तूल देता है ज़माना? बन रही जो बात वह बेबात क्यों-किसने बिगारी? कौन सिंगारी-सिंगारक कर रहा सिंगार है? कौन है रचना यहाँ पर?, कौन रचनाकार है? * कौन नट-नटवर नटी है? कौन नट-नटराज है? कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है? कहाँ नग-गिरिराज है? कौन चाकर?, कौन मालिक? कौन बन्दा? कौन खालिक? कौन धरणीधर-कहाँ है? कहाँ उसका ताज है? करी बेगारी सभी ने हर बशर बेकार है. कौन है रचना यहाँ पर कौन रचनाकार है?.... * कौन सच्चा?, कौन लबरा? है कसाई कौन बकरा? कौन नापे?, कहाँ नपना? कौन चौड़ा?, कौन सकरा?. कौन ढाँके?, कौन खोले राज सारे बिना बोले? काज किसका?, लाज किसकी? कौन हीरा?, कौन कचरा? कौन संसारी सनातन पूछता संसार है? कौन है रचना यहाँ पर? कौन रचनाकार है? ******************** २२-१०-२०१०
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े- पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिणकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद, षड्मात्रिक महावीर, वामांगी छंद । अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद गीतांजलि।
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े- पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिणकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद, शाद मात्रिक महावीर छंद । अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद वामांगी।
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
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मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
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गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.