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रविवार, 12 जुलाई 2020

दोहा

दोहा 
समस्या पूर्ति चरण-तब लगती है चोट
*
तब लगती है चोट जब, दुनिया करे सवाल.
अपनी करनी जाँच लें, तो क्यों मचे बवाल.
*
खुले आम बेपर्द जब, तब लगती है चोट.
हैं हमाम में नग्न सब, फिर भी रखते ओट.
*
लाख गिला-शिकवा करें, सह लेते हम देर.
तब लगती है चोट, जब होता है अंधेर.
*
होती जब निज आचरण, में न तनिक भी खोट.
दोषी करें सवाल जब, तब लगती है चोट.
*

१२-७-२०१८ 

दोहा - आभूषण

प्रदत्त शब्द :- आभूषण, गहना
दिन :- बुधवार
तारीख :- ११-०७-२०१८
विधा :- दोहा छंद (१३-११)
*
आभूषण से बढ़ सकी, शोभा किसकी मीत?
आभूषण की बढ़ा दे, शोभा सच्ची प्रीत.
*
'आ भूषण दूँ' टेर सुन, आई वह तत्काल.
भूषण की कृति भेंट कर, बिगड़ा मेरा हाल.
*
गहना गह ना सकी तो, गहना करती रंज.
सास-ननदिया करेंगी, मौका पाकर तंज.
*
अलंकार के लिए थी, अब तक वह बेचैन.
'अलंकार संग्रह' दिया, देख तरेरे नैन.
*
रश्मि किरण मुख पर पड़ी, अलंकार से घूम.
कितनी मनहर छवि हुई, उसको क्या मालूम?
*
अलंकारमय रमा को, पूज रहे सब लोग.
गहने रहित रमेश जी, मन रहे हैं सोग.
*
मिली सुंदरी ज्वेल सी, ज्वेलर हो हूँ धन्य.
माँगे मिली न ज्वेलरी, हुई उसी क्षण वन्य.
*

दोहा सलिला - आभूषण

प्रदत्त शब्द :- आभूषण, गहना
दिन :- बुधवार
तारीख :- ११-०७-२०१८
विधा :- दोहा छंद (१३-११)
*
आभूषण से बढ़ सकी, शोभा किसकी मीत?
आभूषण की बढ़ा दे, शोभा सच्ची प्रीत.
*
'आ भूषण दूँ' टेर सुन, आई वह तत्काल.
भूषण की कृति भेंट कर, बिगड़ा मेरा हाल.
*
गहना गह ना सकी तो, गहना करती रंज.
सास-ननदिया करेंगी, मौका पाकर तंज.
*
अलंकार के लिए थी, अब तक वह बेचैन.
'अलंकार संग्रह' दिया, देख तरेरे नैन.
*
रश्मि किरण मुख पर पड़ी, अलंकार से घूम.
कितनी मनहर छवि हुई, उसको क्या मालूम?
*
अलंकारमय रमा को, पूज रहे सब लोग.
गहने रहित रमेश जी, मन रहे हैं सोग.
*
मिली सुंदरी ज्वेल सी, ज्वेलर हो हूँ धन्य.
माँगे मिली न ज्वेलरी, हुई उसी क्षण वन्य.
*

दोहा सलिला दोहा मन की बात

दोहा सलिला
दोहा मन की बात
*
बात-बात में कर रहा, दोहा मन की बात।
पर न बात बेबात कर, करे कभी आघात।।
*
*
बात-बात में कर रहा, दोहा मन की बात।
पर न बात बेबात कर, करे कभी आघात।।
*
बात निकलती बात से, बात-बात में जोड़।
दोहा गप्प न मारता, लेकर नाहक होड़।।
*
बिना बात की बात कर, संसद में हुड़दंग।
भत्ते लेकर मचाते, सांसद जनता तंग।।
*
बात काटते बात से, नेता पंडित यार।
पत्रकार पीछे नहीं, अधिवक्ता दमदार।।
*
मार न मारें मारकर, दें बातों से मार।
मीठी मार कभी करे, असर कभी फटकार।।
*
समय बिताने के लिए, लोग करें बतखाव।
निर्बल का बल बात है, सदा करें ले चाव।।
*
वार्ता विद्वज्जन करें, पंडितगण शास्त्रार्थ।
बात 'वाक्' हो जाए तो, विहँस करें वागार्थ।।
*
श्रुति-स्मृति है बात से, लोक-काव्य भी बात।
समझदार हो आमजन, गह पाए गुण तात।।
*
बातें ही वाचिक प्रथा, बातें वार्तालाप।
बात अनर्गल हो अगर, तब हो व्यर्थ प्रलाप।।
*
प्रवचन संबोधन कथा, बातचीत उपदेश।
मन को मन से जोड़ दे, दे परोक्ष निर्देश।।
*
बंधन है आदेश पर, स्वैच्छिक रहे सलाह।
कानाफूसी गुप्त रख, पूरी कर लें चाह।।
*
मन से मन की बात को, कहें मंत्रणा लोग।
बने यंत्रणा वह अगर, तज मत करिए सोग।।
*
बातें ही गपशप बनें, दें मन को आनंद।
जैसे कोई सुनाता, मद्धिम-मधुरिम छंद।।
*
बातें भाषण प्रबोधन, सबक पाठ वक्तव्य।
विगत-आज़ होता विषय, कभी विषय भवितव्य।।
*
केवल बात न काम ही, आता हरदम काम।
बात भले अनमोल हो, कह-सुन लो बेदाम।।
*
बिना बात का बतंगड़, पैदा करे विवाद।
बना सके जो समन्वय, वह करता संवाद।।
*
बात गुफ्तगू हो करे, मन-रंजन बिन मोल।
बात महाभारत बने, हो यदि उसमें झोल।।
*
सबक सिखाती बात या, देती है संदेश।
साखी सीख सबद सभी, एक भिन्न परिवेश।।
*
टाक लैक्चर स्पीच दे, बात करे एड्रैस।
कमुनिकेट कर घटा दें, बातें सारा स्ट्रैस।।
*
बात बात को मात दे, लेती है दिल जीत।
दिल की दूरी दूरकर, बात बढ़ाती प्रीत।।
*
१२.७.२०१८, ७९९९५५९६१८ 

बालगीत बरसातों में

बालगीत 
बरसातों में
संजीव
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*

व्यंग्य- हाय! हम न रूबी राय हुए

व्यंग्य-
हाय! हम न रूबी राय हुए
- संजीव वर्मा 'सलिल'
*
रात अचानक नींद खुल गयी, उठ भी नहीं सकता था। श्रीमती जी की निद्रा भंग होने की आशंका और फिर अगले दिन ठीक से सो न पाने का उलाहना कौन सुनता? यह भी कि देर रात उठकर तीर भी कौन सा मार लेता? सो 'करवटें बदलते रहे सारी' न सही आधी 'रात हम'... कसम किसकी? यह नहीं बता सकते.... 'श्रीमती जी की' कहा तो गुस्सा "क्यों असगुन कर रहे हो झूठ बोलकर" और किसी और का नाम लिया तो ज़लज़ला ही आ जायेगा सो "परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो" रूबी राय बन जाएगा।

चालीस साल इंजीनियरी करने, सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं में सक्रिय रहने और कलम घिसाई करने, ५ पुस्तकें छपाने और सहस्त्रों रचनाएँ करने के बाद बकौल श्रीमती जी "भाड़ झोंकने" के बाद भी दूरदर्शन पर अपने आपके निकट दर्शन कर पाने से वंचित रहा मैं, गत कई दिनों से छोटे पर्दे की एकछत्र साम्राज्ञी महामहिमामयी रूबी राय जी के कीर्तिमान के समक्ष नतमस्तक हो सोचने लगा 'क्यों न टॉपर बन गया?'
मैं ही नहीं, न जाने कितने और भी यही सोच रहे होंगे। जो समझदार हैं उन्होंने सोचा पूरा न सही, आधा ही सही कुछ तो हाथ आये। ऐसे समझदार जनसेवक दो खेमों में बँट गए। कुछ रूबी राय के विरोध में बोलकर-लिखकर सुर्ख़ियों में आ गए, शासन, प्रशासन, कॉलेज प्रबंधन और छात्रों को पानी पीकर कोसने, अरे! नहीं, नहीं तब तो भीषण गर्मी और पानी का अकाल था, इसलिए बिना पानी पिए ही सबको कोस-कोसकर अख़बारों में छपे और दिन - दो दिन की वाहवाही बटोरकर भुला दिए गए। कोसनेवालों के हाथ में दोष - दर्शन के अलावा कोई तर्क नहीं रहा, लोग उनसे मौखिक सहानुभूति जताकर धीरे से सरकने लगे चूँकि अपने गरेबां में झाँकते ही जान गए कि हमाम में सब नंगे हैं। मौका मिलने पर हाथ सेंकनेवाले भी कहाँ पीछे रहे? अपने चेहरे की झलक कैमरे में कैद होते ही सरक लिए। रूबी राय के कारण जो प्रथम आने की मनोकामना पूरी न कर सके थे, वे शुरू में खुश हुए किंतु खुलासे की आग में अपने भी हाथ जलते देख 'सबसे भली चुप्प' के नीति का अनुसरण करने लगे।बाकी रह गये वे जिन्हें मौक़ा ही नहीं मिला, ऐसे लोग मौके की तलाश में आगे आये किन्तु यह अहसास होते ही कि कल मौका देनेवाले उनसे दूर हो जायेंगे, पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए।
कुछ अधिक समझदार जननायक बनने की तैयारी कर आरंभ में मौन रहकर हालात का जायज़ा लेते रहे और फिर धीरे से समर्थन में आ खड़े हुए और मौखिक संवेदना जताने लगे। इनके तर्क अधिक दमदार हैं। भारत में हर गलत को सही सिद्ध करने का सर्वाधिक प्रभावशाली शस्त्र मानवाधिकार है। आतंकी सौ निर्दोषों को मार दे तो कोई बात नहीं, सेना या पुलिस आतंकी को मारने की बात सोचे भी तो मानवाधिकार पर बिजली गिर जाती है। किसी अपराधी मानसिकता के नराधम ने किसी अबला के साथ कुकृत्य किया तो व्यवस्था दोष को लेकर हंगामा और जब दण्ड देने की बात सामने आये तो अपराधी के कमसिन होने, गरीब होने, अशिक्षित होने याने किसी न किसी बात का बतंगड़ कर अपराधी को नाममात्र का दण्ड दिलाकर या दण्ड-मुक्त कराने की दुहाई देकर अपनी पीठ आप ठोंकने का मौका तलाशना मानवाधिकारवादियों का प्रिय शगल है। कोइ रईसजादा इन्हें इस से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी बात न्यायालय में टिकी या नहीं? उन्हें मतलब सिर्फ इस बात से है कि सुर्खियाँ बटोरीं, कतरने विदेश भेजीं और अपने एन. जी. ओ. के लिए डोनेशन बटोरकर अपने निजी ऐशो-आराम पर खर्च किया। किस्मत ने साथ दिया और दमदार नेता की कोई कमी पकड़ ली तो उसे उजागर न करने का सौदा कर 'पदम' पाने का जुगाड़ याने आम के आम गुठली के भी दाम। रूबी राय ऐसे मानवाधिकारवादियों (?) के लिए सुनहरा मौका है।
रूबी राय एक लॉटरी है जो खुल गयी है स्त्री विमर्शवादियों के नाम पर। लॉटरी भी ऐसी जिसका टिकिट ही नहीं खरीदना पड़ा। इनका तर्क यह है कि वह कमसिन है, अबला है, निर्दोष-नासमझ है, धोखे से फँसाई गयी है। स्त्री विमर्शवादी द्रौपदी, अहल्या, मंदोदरी, शूर्पणखा, शबरी और न जाने किस-किस के गड़े मुर्दे उखाड़कर सिद्ध कर देंगे कि इस देश में नारी का दमन और शोषण ही किया गया है, कभी मान, प्यार, लाड़ नहीं दिया गया। बहुत आसानी से भुला दिया जाएगा कि इसी देश में कहा गया 'काह न अबला कर सके?' कहकर नारी की सामर्थ्य को आलोचकों ने भी स्वीकारा है। इसी देश में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' कह कर नारी की वंदना की गयी। इसी देश में विद्या, धन और शक्ति की अधिष्ठात्री नारी ही मान्य है जिसकी उपासना कर नर खुद को धन्य मानता है। इनसे पूछ लिया जाए कि उन्हें लाड़ नहीं मिला तो जन्म के बाद सुरक्षित कैसे रहीं? उन्हें प्यार नहीं मिला तो वे अपने सुहाग पर नाज़ क्यों करती हैं और संतान कहाँ से आई? उन्हें सम्मान नहीं मिला तो घर में उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी क्यों नहीं खड़कता? तो वे बगलें झाँकती नज़र आएँगी।
लोकतंत्र की विधायिका के अपरिहार्य अंग विपक्ष के लिए तो यह प्रसंग सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी की तरह है।अपने सत्ताकाल में हुईं इस जैसी और इससे भी बड़ी गड़बड़ियों को भूलकर इस प्रसंग को लेकर जुलूस, नारेबाजी, सभाएँ, अखबारबाजी और खबरी चैनलों पर भाषणबाजी का यह सुनहरा मौका है। सत्ता पक्ष की आलोचना, सरकार को कटघरे में खड़ा करना, सत्ता के सच को झूठ और विपक्ष के झूठ को सच कहना, कुर्सी से दूर रहने तक अपना जन्मसिद्ध अधिकार माननेवाले, सत्ता हेतु समर्पित राजनैतिक लोगों के लिए रूबी-प्रसंग अलादीन का चिराग है, घिसते रहो कभी न कभी तो जिन्न निकलेगा ही। "मंज़िल मिले, मिले न मिले, और बात है / मंज़िल की जुस्तजू में मेरा (इनका) कारवां तो है।" इनका बस चले तो ये रूबी मैया की जय का जयकारा लगते हुए विधान सभा के गलियारे में व्रत-कथा भी करने लगें।
यह प्रसंग परिवार के व्यक्तिगत विरोधियों के लिए भी एक अवसर है किन्तु वे जुबानी चटखारे ले - लेकर परनिंदा रस का आनंद लेने से अधिक नहीं सकेंगे कि इससे अधिक की उनकी औकात ही नहीं है। कॉलेज के व्यवसायगत विरोधियों के लिए यह मौका है खुद को बढ़ाने का। इसलिए नहीं कि वे ऐसा फिर नहीं होने देना चाहते बल्कि इसलिए कि ऐसा चाहनेवाले अब बड़ी रकम देकर उनकी संस्था में प्रवेश लें और अगले कई वर्षों तक कुशलतापूर्वक ऐसे कारनामे करने का अवसर उन्हें मिले।
पराई आग में हाथ सेंकने की आदी खबरिया बिरादरी के छुटभैये इस घटना को नमक-मिर्च लगाकर इस आस में बखानते रहेंगे कि उनका कद बढ़ जाए लेकिन उनके आका उनसे कई कदम आगे हैं। वे छुटभैयों द्वारा जुटाए गए मसाले सनसनीखेज़ बनाकर सबसे पहले परोसने की नूरा कुश्ती कर टी. आर. पी. बढ़ाने में प्राण-प्राण से संलग्न होकर, कॉलेजों से विज्ञापन जुटाकर अपना उल्लू सीधा करेंगे। यही नहीं ऐसे मामलों से होनेवाली कमाई का अंदाज़ कर अपना कॉलेज आरम्भ करने में भी पीछे नहीं रहेंगे।इसलिए निकट भविष्य में ऐसे अनेक प्रकरण हर राज्य और विश्वविद्यालय में होने लगें तो 'किमाश्चर्यम?' अर्थात कोई आश्चर्य नहीं।
यहाँ तक तो फिर भी गनीमत है लेकिन बात यहीं नहीं रूकती, यह प्रसंग सत्ता पक्ष के लिए भी मौके को भुनाने की तरह है। जाँच के नाम पर एक जाँच आयोग गठित कर अपने चहेतों को नियुक्त कर मुख्य मंत्री जी विद्यार्थी वर्ग जो कल मतदाता बनेगा, के बीच अपनी स्वच्छ छवि बनायेँगे। जाँच आयोग सुरसा के मुँह की तरह अपना कार्यकाल और बजट बढ़ाता जाएगा और जब उसके घपले सामने आयेंगे तो एक साथ गवाहों की दुर्घटना या बीमारियों से मौतें होने लगेंगी। नेताओं को राजनीति की रोटियां सेंकने के नए अवसर मिलते रहेंगे।
इस घटना के बाद रूबी राय व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति बन गयी है। हम सबमें कहीं न कहीं रूबी राय है। वह जब भी नज़र आये तो उसे उकसाने नहीं, दबाने की जरूरत है कि वह गलत तरीके या छोटे मार्ग से शीर्ष तक जाने की बात न सोचे।
रूबी राय को इस मुकाम पर पहुँचाने का श्रेय है उसके माता-पिता, कॉलेज प्रबंधक, उत्तर पुस्तिका जाँचकर्ता और नियति को भी है। जो हुआ वह सब होने के बाद भी यदि रूबी राय शीर्ष पर न आकर कुछ नीचे आतीं ८ वें-१० वें क्रमांक पर, तो उनकी चर्चा ही न होती। अभी भी उनके अलावा किस-किस ने किस प्रकार कितने अंक और कौन सा स्थान इसके पहले पाया या बाद में पाएगा यह कोई नहीं बता सकता।रूबी के जीवन में जटिलता और बदनामी का उसे सामना करना ही होगा, उसके परिजन उसे सहारा दें और इतना सबल बनायें कि वह परिश्रम कर उत्तम परिणाम लाये और जिन में कुछ बन सके।
लाख टके का सवाल यह है कि क्या इस सबके बाद भी रूबी राय, उनके स्वजन, कॉलेज प्रबंधन या अन्य छात्र ऐसा करने से तौबा करेंगे? अगर नहीं तो इसका यही अर्थ है कि मिल रही सजा कम है। हमारे समाज की यही विडंबना है कि सही को सराहनेवाले नहीं मिलते पर गलत के प्रति सहानुभूति जतानेवाले रेडीमेड होते हैं। इसे संयोग कहें या दुर्योग सच यह है कि शिक्षा के नाम पर अंकों और उपाधियों का फर्जीवाड़ा सड़ गए नासूर की तरह बजबजा रहा है। दो ही रास्ते हैं दोषियों को कड़ा दण्ड या रहमदिली के साथ और बढ़ने का अवसर देना।पौ फटती देख मन मसोस कर उठ रहे हैं कि हाय! हम क्यों न हुए रूबी राय ? हो पाते तो दूरदर्शन और छाने के साथ हमारे हमदर्दों की भी बड़ी संख्या होती।
****

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
कथ्य, भाव, रस, शिल्प, लय, साधें कवि गुणवान.
कम न अधिक कोई तनिक, मिल कविता की जान..
*
मेघदूत के पत्र को, सके न अब तक बाँच.
पानी रहा न आँख में, किससे बोलें साँच..
ऋतुओं का आनंद लें, बाकी नहीं शऊर.
भवनों में घुस कोसते. मौसम को भरपूर..
पावस ठंडी ग्रीष्म के. फूट गये हैं भाग.
मनुज सिकोड़े नाक-भौं, कहीं नहीं अनुराग..
मन भाये हेमंत जब, प्यारा लगे बसंत.
मिले शिशिर से जो गले, उसको कहिये संत..
पौधों का रोपण करे, तरु का करे बचाव.
भू गिरि नद से खेलता, ऋषि रख बालक-भाव..
मुनि-मन कलरव सुन रचे, कलकल ध्वनिमय मंत्र.
सुन-गा किलकिल दूर हो, विहँसे प्रकृति-तंत्र..
पत्थर खा फल-फूल दे, हवा शुद्ध कर छाँव.
जो तरु सम वह देव है, शीश झुका छू पाँव..
तरु गिरि नद भू बैल के, बौरा-गौरा प्राण .
अमृत-गरल समभाव से, पचा हुए सम्प्राण..
सिया भूमि श्री राम नभ, लखन अग्नि का ताप.
भरत सलिल शत्रुघ्न हैं, वायु- जानिए आप..
नाद-थाप राधा-किशन, ग्वाल-बाल स्वर-राग.
नंद छंद, रस देवकी, जसुदा लय सुन जाग..
वृक्ष काट, गिरि खोदकर, पाट रहे तालाब.
भू कब्जाकर बेचते, दानव-दैत्य ख़राब..
पवन, धूप, भू, वृक्ष, जल, पाये हैं बिन मोल.
क्रय-विक्रय करते असुर, ओढ़े मानव खोल..
कलकल जिनका प्राण है, कलरव जिनकी जान.
वे किन्नर गुणवान हैं, गा-नाचें रस-खान..
वृक्षमित्र वानर करें, उछल-कूद दिन-रात.
हरा-भरा रख प्रकृति को, पूजें कह पितु-मात..
ऋक्ष वृक्ष-वन में बसें, करें मस्त मधुपान.
जो उलूक वे तिमिर में, देख सकें सच मान..
रहते भू की कोख में, नाग न छेड़ें आप.
क्रुद्ध हुए तो शांति तज, गरल उगल दें शाप..
***********************************

मुक्तिका

मुक्तिका:
मन में यही...
संजीव 'सलिल'
*
मन में यही मलाल है.
आदम हुआ दलाल है..
लेन-देन ही सभ्यता
ऊँच-नीच जंजाल है
फतवा औ' उपदेश भी
निहित स्वार्थ की चाल है..
फर्ज़ भुला हक माँगता
पढ़ा-लिखा कंगाल है..
राजनीति के वाद्य पर
गाना बिन सुर-ताल है.
बहा पसीना जो मिले
रोटी वही हलाल है..
दिल से दिल क्यों मिल रहे?
सोच मूढ़ बेहाल है..
'सलिल' न भय से मौन है.
सिर्फ तुम्हारा ख्याल है..
१२-७-२०१० 
*

शनिवार, 11 जुलाई 2020

लघुकथा मोहनभोग


लघुकथा
मोहनभोग
*
'क्षमा करना प्रभु! आज भोग नहीं लगा सका.' साथ में बाँके बिहारी के दर्शन कर रहे सज्जन ने प्रणाम करते हुए कहा.
'अरे! आपने तो मेरे साथ ही मिष्ठान्न भण्डार से नैवेद्य हेतु पेड़े लिए था, कहाँ गए?' मैंने उन्हें प्रसाद देते हुए पूछा.
पेड़े लेकर मंदिर आ रहा था कि देखा कुछ लोग एक बच्चे की पिटाई कर रहे हैं और वह बिलख रहा है. मुझसे रहा नहीं गया, बच्चे को छुडाकर कारण पूछ तो हलवाई ने बताया कि वह होटल से डबल रोटी-बिस्कुट चुराकर ले जा रहा था. बच्चे ने बताया कि उसका पिता नहीं है, माँ बुखार से पीड़ित होने के कारण काम पर नहीं जा रही, घर में खाने को कुछ नहीं है, छोटी बहिन का रोना नहीं देखा गया तो वह होटल में चार घंटे से काम कर रहा है. सेठ से कुछ खाने का सामान लेकर घर दे आने को पूछा तो वह गाली देने लगा कि रात को होटल बंद होने के बाद ही देगा. बार-बार भूखी बहिन और माँ के चेहरे याद आ रहे थे, रात तक कैसे रहेंगी? यह सोचकर साथ काम करनेवाले को बताकर डबलरोटी और बिस्किट ले जा रहा था कि घर दे आऊँ फिर रात तक काम करूंगा और जो पैसे मिलेंगे उससे दाम चुका दूंगा.
दुसरे लड़के ने उसकी बात की तस्दीक की लेकिन हलवाई उसे चोर ठहराता रहा. जब मैंने पुलिस बुलाने की बात की तब वह ठंडा पड़ा.
बच्चे को डबलरोटी, दूध, बिस्किट और प्रसाद की मिठाई देकर उसके घर भेजा. आरती का समय हो गया इसलिए खाली हाथ आना पड़ा और प्रभु को नहीं लगा सका भोग' उनके स्वर में पछतावा था.
'ऐसा क्यों सोचते हैं? हम तो मूर्ति ही पूजते रह गए और आपने तो साक्षात बाल कृष्ण को लगाया है मोहन भोग. आप धन्य है.' मैंने उन्हें नमन करते हुए कहा.
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
11.7.2018, 7999559618

नवगीत : समारोह है

नवगीत :
समारोह है
*
समारोह है
सभागार में।
*
ख़ास-ख़ास आसंदी पर हैं,
खासुलखास मंच पर बैठे।
आयोजक-संचालक गर्वित-
ज्यों कौओं में बगुले ऐंठे।
करतल ध्वनि,
चित्रों-खबरों में
रूचि सबकी है
निज प्रचार में।
*
कुशल-निपुण अभियंता आए,
छाती ताने, शीश उठाए।
गुणवत्ता बिन कार्य हो रहे,
इन्हें न मतलब, आँख चुराए।
नीति-दिशा क्या सरकारों की?
क्या हो?, बात न
है विचार में।
*
मस्ती-मौज इष्ट है यारों,
चुनौतियों से भागो प्यारों।
पाया-भोगो, हँसो-हँसाओ-
वंचित को बिसराओ, हारो।
जो होता है, वह होने दो।
तनिक न रूचि
रखना सुधार में।
***

लघुकथा अकेले

लघुकथा
अकेले
*
'बिचारी को अकेले ही सारी जिंदगी गुजारनी पड़ी।'
'हाँ री! बेचारी का दुर्भाग्य कि उसके पति ने भी साथ नहीं दिया।'
'ईश्वर ऐसा पति किसी को न दे।'
दिवंगता के अन्तिम दर्शन कर उनके सहयोगी अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे।
'क्यों क्या आप उनके साथ नहीं थीं? हर दिन आप सब सामाजिक गतिविधियाँ करती थीं। जबसे उनहोंने बिस्तर पकड़ा, आप लोगों ने मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन पर सामाजिक कार्यक्रमों को वरीयता दी। पिता जी असहमत होते हुए भी कभी बाधक नहीं हुए, उनकी जिम्मेदारी पिताजी ने निभायी। हम बच्चों को पिता के अनुशासन के साथ-साथ माँ की ममता भी दी। तभी माँ हमारी ओर से निश्चिन्त थीं। पिताजी बिना बताये माँ की हर गतिविधि में सहयोग करते रहेऔर आप लोग बिना सत्य जानें उनकी निंदा कर रही हैं।' बेटे ने उग्र स्वर में कहा।
'शांत रहो भैया! ये महिला विमर्श के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले प्यार, समर्पण और बलिदान क्या जानें? रोज कसमें खाते थे अंतिम दम तक साथ रहेंगे, संघर्ष करेंगे लेकिन जैसे ही माँ से आर्थिक मदद मिलना बंद हुई, उन्हें भुला दिया। '
'इन्हें क्या पता कि अलग होने के बाद भी पापा के पर्स में हमेश माँ का चित्र रहा और माँ के बटुए में पापा का। अपनी गलतियों के लिए माँ लज्जित न हों इसलिए पिता जी खुद नहीं आये पर माँ की बीमारी की खबर मिलते ही हमें भेजा कि दवा-इलाज में कोइ कसर ना रहे।' बेटी ने सहयोगियों को बाहर ले जाते हुए कहा 'माँ-पिताजी पल-पल एक दूसरे के साथ थे और रहेंगे। अब गलती से भी मत कहियेगा कि माँ ने जिंदगी गुजारी अकेले।
***
२-५-२०१७

नवगीत

नवगीत 
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*

दोहा

दोहा सलिला
*
पाठक मैं आनंद का, गले मिले आनंद
बाहों में आनंद हो, श्वास-श्वास मकरंद
*
आनंदित आनंद हो, बाँटे नित आनंद
हाथ पसारे है 'सलिल', सुख दो आनंदकंद!
*
जब गुड्डो दादी बने, अनुशासन भरपूर
जब दादी गुड्डो बने, हो मस्ती में चूर
*
जिया लगा जीवन जिया, रजिया है हर श्वास
भजिया-कोफी ने दिया, बारिश में उल्लास
*
पता लापता जब हुआ, उड़ी पताका खूब
पता न पाया तो पता, पता कर रहा डूब
*

११-७-२०१७ 

षट्पदिक कृष्ण-कथा

षट्पदिक कृष्ण-कथा
देवकी-वसुदेव सुत कारा-प्रगट, गोकुल गया
नंद-जसुदा लाल, माखन चोर, गिरिधर बन गया
रास-लीला, वेणु-वादन, कंस-वध, जा द्वारिका
रुक्मिणी हर, द्रौपदी का बन्धु-रक्षक बन गया

बिन लड़े, रण जीतने हित ज्ञान गीता का दिया
व्याध-शर का वार सह, प्रस्थान धरती से किया
११-७-२०१६
***
(महाभागवतजातीय गीतिका छंद, यति ३-१०-१७-२४, पदांत लघु गुरु)

लेख डॉ. शम्भुनाथ सिंह - डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

स्मृति आलेख -
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
हिन्दी नवगीत परंपरा के शीर्ष प्रवर्तक होने के कारण आधुनिक भरत मुनि की प्रतिष्ठा पानेवाले प्रगतिशील कवि डॉ. शम्भुनाथ सिंह का यह शताब्दी वर्ष है | उनके साहित्यिक महत्त्व को सम्मान देते हुए केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने 8 जुलाई को उनकी कर्मभूमि वाराणसी में राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की है,जिसमें देश के अनेक जाने-माने साहित्यकार भाग लेंगे | इसके अलावा देश के विभिन्न नगरों और संस्थानों में शम्भुनाथ शती समारोह मनाने की तैयारी चल रही है | वे ऐसे जुझारू रचनाकार थे,जिन्होने जीवन भर विपरीत परिस्थितियों से लोहा लिया और अपने दम पर हारी हुई बाजी को हमेशा जीत में बदलकर दिखाया। वे परवर्ती पीढ़ियों के संरक्षक भी थे और सहभागी भी। वे एक साथ सृजन की कई दिशाओं पर राज करते थे। वे कवि थे, कहानीकार थे, समीक्षक थे, नाटककार थे, प्राध्यापक थे, पुरातत्वविद थे और आगे बढ़कर, हर किसी की मदद करनेवाले नेक इन्सान थे। इसलिए, आज पूरा हिन्दी जगत उस महान कृती पुरुष के सम्मान में खड़ा है |
शम्भुनाथ जी ने न केवल नवगीत के स्वरूप और सीमान्त का निर्धारण किया, बल्कि अपने `नवगीत दशकों’ के माध्यम से उन्होंने समकालीन हिंदी कविता में नवगीत को `डीही’ का स्थान दिलाने की पुरजोर कोशिश की,जिससे आज नवगीत विधा विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षण और शोध के विषय के रूप में प्रतिष्ठित है | काशी में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर, उन्होंने जिस समय काव्ययात्रा शुरू की, उस समय काशी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में चरमोत्कर्ष पर थी | उसका लाभ डॉक्टर साहब को भी मिला और वे `कुछ कर गुजरने के लिए’ निरंतर सृजनशील रहे |

प्रथम संग्रह `रूपरश्मि’ से `समय की शिला’ के प्रकाशन तक डॉक्टर साहब सही अर्थों में राहों के अन्वेषी थे | इसी मोड़ पर (1969) मैं उनसे मिला था | तबतक उन्होंने नवगीत विधा को शैक्षणिक जगत की उपेक्षा और अवहेलना से उबारने के लिए कमर कस ली थी | उसके बाद उनके जो संग्रह आये, चाहे वह `जहां दर्द नीला है’ हो या `माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ या `वक्त के मीनार पर’,सबमें उन्होंने अपनी अपार सृजन-क्षमता से नवगीत के नए प्रतिमान स्थापित किये |
उनके एक गीत ने हिन्दी काव्यमंचों पर वैश्विक प्रसिद्धि पाई :
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसीने बनाये, किसीने मिटाये।
एक और गीत था, जो लोकगीतों की प्रश्नोत्तर शैली में लिखा गया था और जिसे वे उन काव्यमंचों पर जरूर सुनाते थे, जो ग्रामीण शिक्षालयों में होते थे:
टेर रही प्रिया, तुम कहाँ? किसकी यह छाँह और किसके ये गीत रे/ बरगद की छाँह और चैता के गीत रे। सिहर रहा जिया, तुम कहाँ?
लेकिन उनके जिस नवगीत ने एक नया वैज्ञानिक गवाक्ष खोला ,वह था ‘दिग्विजय’:
बादल को बाँहों में भर लो/ एक और अनहोनी कर लो। अंगों में बिजलियाँ लपेटो/ चरणों में दूरियाँ समेटो/ नभ को पदचापों से भर दो/ ओ दिग्विजयी मनु के बेटो! इन्द्रधनुष कंधों पर धर लो /एक और अनहोनी कर लो।
इसी प्रकार का उनका एक और गीत ‘अन्तर्यात्रा’ शीर्षक से है:
टूट गये बन्धन सब टूट गये घेरे/ और कहाँ तक ले जाओगे मन मेरे! छूट गयीं नीचे धरती की दीवारें/आँगन के फूल बने,चाँद और तारे/घुल-मिलकर एक हुए रोशनी-अँधेरे/और कहाँ तक ले जाओगे मन मेरे!
शम्भुनाथ जी मूलतः देवरिया के ग्रामीण परिवार के थे। देवरिया जनपद के रावतपार गाँव में संवत्‌(सन्‌1916) की ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी यानी 17 जून को उनका जन्म हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. और पीएच.डी. करने के बाद उन्होने कुछ दिनो तक पत्रकारिता भी की थी, मगर जल्द ही वे अपने रचना-कर्म के लिए अनुकूल अध्यापन-कार्य से जुड़ गये और काशी विद्यापीठ में व्याख्याता(1948-59),वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1959-70), फिर काशी विद्यापीठ में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1970-76) रहने के बाद पाँच वर्षों तक(1975- 80) विद्यापीठ के तुलसी संस्थान के निदेशक रहे। सन्‌से वे विधिवत्‌लिखने लगे थे। 1941 में उनका पहला गीत संग्रह ‘रूप रश्मि’ प्रकाशित हुआ था और दूसरा संग्रह ‘छायालोक’ 1945 में। ये दोनो उनके पारम्परिक गीतों के संग्रह थे। इसके बाद वे नयी कविता के आकर्षण में आये,जिसकी उपज है ‘उदयाचल’(1946) मन्वन्तर (1948),माध्यम मैं और खण्डित सेतु|

`खण्डित सेतु’ मात्र एक टूटा हुआ पुल नहीं था, बल्कि नयी कविता के पक्षधर समीक्षकों की गोलैसी के कारण मुक्तछन्द कविता में अपनी पहचान न बना पाने के कारण शम्भुनाथ जी का खण्डित विश्वास भी था,जिसने उन्हें फिर से गीतों की ओर मुड़ने को बाध्य किया। उसके बाद उनके दो नवगीत संग्रह ‘समय की शिला पर’(1968) और ‘जहाँ दर्द नीला है’(1977)प्रकाशित हुए,जिनमें उनके नये तेवर के गीत संकलित हैं| परवर्ती काल में उनके दो और संग्रह आये-‘वक्त की मीनार पर'(1986) और `माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः'(1991) जो हिन्दी नवगीत के प्रतिमान बने। प्रारम्भिक दौर में उनके दो कहानी संग्रह ‘रातरानी’(1946) और ‘विद्रोह’(1948) भी छपे थे,लेकिन कवि के अतिरिक्त जिस सर्जनात्मक विधा ने उन्हें विशेष प्रतिष्ठा , वह थी नाट्य-विधा। उनके नव नाटक ‘धरती और आकाश’(1950) और ‘अकेला शहर’ (1975) को हिन्दी के प्रतिनिधि नाटकों में रखा जा सकता है। काशी की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘श्रीनाट्यम’ ने जब ‘अकेला शहर’ को नगर में मंचित किया,तो उसमें एक छोटी-सी भूमिका मेरी भी थी।यदि इन नाटकों की चर्चा हिंदी कक्षाओं में नहीं होती है, तो इसे हिंदी अध्यापकों का जन्मान्धत्व ही माना जाए |
मूलतः हिन्दी का छात्र न होने के कारण काशी के अन्य रचनाकारों की तरह शम्भुनाथ जी से भी मेरा कोई परिचय नहीं था। सन्‌में अंग्रेजी से एम.ए. करने के बाद मैं कविगोष्ठियों में जाने लगा था और दो-एक कविगोष्ठी से ही मुझे वह पहचान मिल गयी थी,जो अन्य कवियों को वर्षों बाद भी नसीब नहीं होती। ऐसी ही एक मराठियों के गणेशोत्सव वाली गोष्ठी में शम्भुनाथ जी ने मेरा गीत ‘नाच गुजरिया नाच! कि आयी कजरारी बरसात री’ सुनी,तो मुझे बहुत प्यार से रिक्शे पर बैठाकर अपने घर ले गये और रास्ते भर मुझे पारम्परिक गीत और नवगीत में अन्तर बताते हुए नवगीत लिखने के लिए प्रेरित करते रहे।
मैं मिश्र पोखरा मुहाल में रहता था,जो उनके सोनिया स्थित घर के पास ही था; और मेरे पास कोई खास काम भी नहीं था,इसलिए मैं अक्सर उनके घर जाने लगा और उस परिवार में ऐसा शामिल हुआ कि डॉक्टर साहब कभी-कभी व्यंग्य भी कर देते थे कि ‘तुम पूर्व जन्म में जरूर चूहा रहे होगे’। जैसे चूहा रसोई घर के कोना –कोना छान मारता है, वैसे ही मैं भी सीधे रसोई घर तक जाकर गृहस्वामिनी से, जिन्हें मैं ‘सन्तोषी माता’ कहा करता था, कुछ न कुछ खाद्य पदार्थ प्राप्त कर लेता था। उनके तीनो बेटे और दोनो बेटियों से मेरी जो प्रगाढ़ आत्मीयता बन गयी थी, वह आज भी तरोताजा है।
उस परिवार से, मुझसे पूर्व श्रीकृष्ण तिवारी, उमाशंकर तिवारी और मेरे बाद डॉ. सुरेश (व्यथित) भी उसी तरह जुड़े थे। उमाशंकर काशी विद्यापीठ के छात्र थे । छात्र के रूप में ही एक बार उन्होंने उस मंच से एक गीत पढा, जो फिल्मी धुन पर था। डॉक्टर साहब ने उसे रोक दिया। छात्रों ने हंगामा कर दिया,लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। काव्यमंच पर वे किसी प्रकार की अनुशासनहीनता या गन्दगी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। काश! यही दृढ़ता यदि उस समय के अन्य अग्रणी गीतकारों ने दिखायी होती, तो कविसम्मेलनों की आज इतनी दुर्दशा नहीं होती। उस समय उमाशंकरजी को उन्होने डाँट दिया,मगर बाद में उन्हें अपने घर बुलाकर गीत लिखने की कला सिखाते रहे, जिसके कारण उमाशंकर नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर बन गये। इसी प्रकार ,श्रीकृष्ण तिवारी को भी उन्होने हाथ पकड़कर नवगीत लिखना सिखाया। मैं गंडा बँधवाकर उनका शिष्य तो नहीं बन सका, लेकिन उनकी दिवालोक में अपना पथ निर्माण करने में मुझे भरपूर सम्बल मिला था।
उन्होंने मूर्तिकला की कोई शिक्षा नहीं पाई थी,मगर काशी में राय कृष्णदास के बाद मूर्तिकला के वही विशेषज्ञ थे | उन्होंने मिर्जापुर के वनांचलों से अनेक दुर्लभ मूर्तियों का उद्धारकर पहले अपने घर पर,बाद में काशी विद्यापीठ में उन्हें संग्रहालय का अंग बनाया |
धारा के विरुद्ध चलकर,नवगीत विधा को प्रतिष्ठित करने में उन्होने जीवन के अन्तिम चरण में जो अहर्निश संघर्ष किया, वह स्वतन्त्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह के बलिदान की याद दिलाता है। 1980 के दशक में उन्होने अज्ञेय-सम्पादित ‘सप्तकों’ के जवाब में न केवल तीन खण्डों में ‘नवगीत दशक’ (पराग प्रकाशन,दिल्ली) निकाले, बल्कि हर खण्ड में लम्बी भूमिका लिखकर नवगीत की परती जमीन को नयी फसल के लिए तैयार किया। इतना ही नहीं, इन ‘दशकों’ के प्रचार-प्रसार के लिए नगर-नगर में उन्होने, अपने सम्बन्धों का उपयोग करते हुए, ऐतिहासिक आयोजन भी किये, जिनमें दिल्ली में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के आवास पर हुई काव्यगोष्ठी चिरस्मरणीय है। 3 सितम्बर 1991 को उनके निधन से नवगीत की वह विजय-यात्रा एक प्रकार से थम-सी गयी,क्योंकि उनके बाद रथ पर चढ़नेवाले तो बहुत थे, मगर रथ में जुतनेवाला कोई नहीं। तथापि, उन्होंने जो नवगीत की अमराई लगायी है,वह अच्छी तरह फल-फूल रही है और हर साल नयी कलमें पुराने बीजू वृक्षों का स्थान ले रही हैं |
आज शताब्दी वर्ष में उनकी ही गीत-पंक्तियों से उन्हें नमन करता हूँ:
मैं वह पतझर,जिसके ऊपर से/धूल भरी आँधियाँ गुजर गयी/दिन का खँडहर जिसके माथे पर/अँधियारी साँझ-सी ठहर गयी/जीवन का साथ छुटा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो। मन का आकाश उड़ा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो।
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

देवधा हाउस,गली-5, वसन्त विहार एन्क्लेव, देहरादून-248006
मो.-9412992244 buddhinathji@yahoo.co.in
साभार सृजनगाथा

मुक्तक

मुक्तक 
*
आसमान पर भाव आम जनता का जीवन कठिन हो रहा
त्राहिमाम सब ओर सँभल शासन, जनता का धैर्य खो रहा
पूंजीपतियों! धन लिप्सा तज भाव् घटा जन को राहत दो
पेट भर सके मेहनतकश भी, रहे न भूखा, स्वप्न बो रहा
११.७.२०१४ 

दोहा यमक

दोहा सलिला :
गले मिले दोहा यमक
संजीव
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
salil.sanjiv@gmail.com

भोजपुरी हाइकु

भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरण-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
अंगरेजी के / गुलामी के जंजीर / साँच साबित.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
*
११-७-२०१० 

दोहा सलिला

दोहा सलिला
चित्र गुप्त जिसका रहा, भाव वही साकार
भाषा करती लोक में, रस लय का व्यापार
*
अक्षर अजर अमर रहे, लघुतम ध्वनि लें जान
मिलकर सार्थक रूप धर, बनें शब्द प्रतिमान
*
शब्द-भेद बन व्याकरण, करता भाषा शुद्ध
पिंगल छांदस काव्य रच, कहता पढ़ें प्रबुद्घ
*
भाषा जन्मे लोक में, गहता प्रकृति स्वतंत्र
सधुक्कड़ी मनमौज है, सरल-कठिनतम तंत्र
*
लोक गढ़े नव शब्द खुद, तत्सम-तद्भव आप
मिल समृद्ध भाषा करें, जन जन जाते व्याप
*
कर्ता करता कार्य कर, क्रिया कर्म कर मौन
कहे खासियत विशेषण, कारक रहे न मौन
*
सर्वनाम संग्या हटा, हो जाता आसीन
वंशबेल दे ज्यों पिता, सुत को किंतु न दीन
*
कह विशेषता विशेषण, गुण चर्चा कर संत
क्रिया विशेषण क्रिया के, गुण कह रहा अनंत
*
ताना-बाना बुन रहा, अव्यय निकले अर्थ
अर्थ बिना अभिव्यक्ति ही, हो जाती है व्यर्थ
*
चित्र भावमुद्रा करें, बिना कहे पर बात
मौन लकीरें भी करें, बात समझिए तात
*
भाषा जुड़ विग्यान से, हो जाती है गूढ़
शब्द-अर्थ की श्लिष्टता, समझ न पाते मूढ़
*
व्यापकता दे शब्द को, लोक गहे साहित्य
संस्कार जो समझ ले, लेखक हो आदित्य
*
संजीव