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बुधवार, 29 अप्रैल 2020

मुक्तिका चाँदनी फसल

मुक्तिका
चाँदनी फसल..
संजीव 'सलिल'
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
२८-४-२०१५
-sanjiv ९४२५१८३२४४ salil.sanjiv@gmail.com

एक कविता : दो कवि - शिखा : संजीव

एक कविता : दो कवि
शिखा:
एक मिसरा कहीं अटक गया है
दरमियाँ मेरी ग़ज़ल के
जो बहती है तुम तक
जाने कितने ख़याल टकराते हैं उससे
और लौट आते हैं एक तूफ़ान बनकर
कई बार सोचा निकाल ही दूँ उसे
तेरे मेरे बीच ये रुकाव क्यूँ?
फिर से बहूँ तुझ तक बिना रुके
पर ये भी तो सच है
कि मिसरे पूरे न हों तो
ग़ज़ल मुकम्मल नहीं होती
*
संजीव
ग़ज़ल मुकम्मल होती है
तब जब
मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर पुल बनाती है
बह्र और ख़याल
मक्ते और मतले
एक दूसरे को अर्थ देते हैं
गले मिलकर
काश! हम इंसान भी
साँसों और आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें:
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
***
२९-४-२०१५

दोहे : सृष्टि का मूल

सृष्टि का मूल
*
अगम अनाहद नाद हीं, सकल सृष्टि का मूल
व्यक्त करें लिख ॐ हम, सत्य कभी मत भूल

निराकार ओंकार का, चित्र न कोई एक
चित्र गुप्त कहते जिसे, उसकाचित्र हरेक

सृष्टि रचे परब्रम्ह वह, पाले विष्णु हरीश
नष्ट करे शिव बन 'सलिल', कहते सदा मनीष

कंकर-कंकर में रमा, शंका का कर अन्त
अमृत-विष धारण करे, सत-शिव-सुन्दर संत

महाकाल के संग हैं, गौरी अमृत-कुण्ड
सलिल प्रवाहित शीश से, देखेँ चुप ग़ज़-तुण्ड

विष-अणु से जीवाणु को, रचते विष्णु हमेश
श्री अर्जित कर रम रहें, श्रीपति सुखी विशेष

ब्रम्ह-शारदा लीन हो, रचते सुर धुन ताल
अक्षर-शब्द सरस रचें, कण-कण देता ताल

नाद तरंगें संघनित, टकरातीं होँ एक
कण से नव कण उपजते, होता एक अनेक

गुप्त चित्र साकार हो, निराकार से सत्य
हर आकार विलीन हो, निराकार में नित्य

आना-जाना सभी को, यथा समय सच मान
कोई न रहता हमेशा, परम सत्य यह जान

नील गगन से जल गिरे, बहे समुद मेँ लीन
जैसे वैसे जीव हो, प्रभु से प्रगट-विलीन

कलकल नाद सतत सुनो, छिपा इसी में छंद
कलरव-गर्जन चुप सुनो, मिले गहन आनंद

बीज बने आनंद ही, जीवन का है सत्य
जल थल पर गिर जीव को, प्रगटाता शुभ कृत्य

कर्म करे फल भोग कर, जाता खाली हाथ
शेष कर्म फल भोगने, फ़िर आता नत माथ

सत्य समझ मत जोड़िये, धन-सम्पद बेकार
आये कर उपयोग दें, ओरों को कर प्यार

सलिला कब जोड़ें सलिल, कभी न रीते देख
भर-खाली हो फ़िर भरे, यह विधना का लेख
२९-४-२०१४

त्रिलोकी छंद

छंद सलिला:

त्रिलोकी छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चंद्रायण (५ + गुरु लघु गुरु लघु, / ५ + गुरु लघु गुरु ) तथा प्लवंगम् (गुरु + ६ / ८ + गुरु लघु गुरु ) का मिश्रित रूप ।

लक्षण छंद:
पाँच मात्रा गुरु लघु / गुरु लघु पहिले लें

पाँच मात्रा गुरु लघु / गुरु चंद्रायण है

है गुरु फ़िर छै / मात्रा छंद प्लवंगम्

आठ तथा गुरु / लघु गुरु मात्रा रखें हम

उदाहरण:
१. नाद अनाहद / जप ले रे मन बाँवरे

याद ईश की / कर ले सो मत जाग रे
सदाशिव ओम ओम / जप रहे ध्यान मेँ

बोल ओम ओम ओम / संझा-विहान में

२. काम बिन मन / कुछ न बोल कर काम तू
नीक काम कर / तब पाये कुछ नाम तू

कभी मत छोड़ होड़ / जय मिले होड़ से
लक्ष्य की डोर जोड़ / पथ परे मोड़ से

३. पुरातन देश-भूमि / पूजिए धन्य हो

मूल्य सनातन / सदा मानते प्रणम्य हो
हवा पाश्चात्य ये न / दे बदल आपको

छोड़िये न जड़ / न ही उखड़ें अनम्य हो
२९-४-२०१४
******************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
।। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल ।।

मुक्तक

मुक्तक:
*
जो दूर रहते हैं वही तो पास होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही उदास होते हैं.
सब कुछ मिला 'सलिल' जिन्हें अतृप्त हैं वहीं-
जो प्यास को लें जीत वे मधुमास होते हैं.

२९-४-२०१०
*

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

विमर्श : भोजन करिये बाँटकर

विमर्श : भोजन करिये बाँटकर 
हमारा ऋग्वेद हमे बाँट  कर भोजन करने को कहता है | हम जो अनाज खेतों मे पैदा करते है, उसका बंटवारा तो देखिए |









१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूं के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
ये हमे सिखाती है हमारी भारतीय संस्कृति और मुझे गर्व है कि मै इस संस्कृति का हिस्सा हूँ। 

कोविद कोरोना विमर्श : ४ को विद? पूछे कोरोना

कोविद / कोरोना विमर्श : ४
को विद? पूछे कोरोना
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
को अर्थात कौन और विद अर्थात विद्वान। कोविद आज यही परख रहा है कि विद्वान कौन है? विद्वान वह जिसके पास विद्या हो किन्तु केवल विद्या ही पर्याप्त नहीं होती। पंचतंत्र की एक कथा है जिसमें चार मित्र अपने गुरु से विद्या प्राप्त कर जीवन यापन हेतु संसार सागर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में उनके मन में संशय होता है कि अपने ज्ञान को परख लें। उन्हें एक शेर का अस्थि पंजर मिलता है। पहला मित्र उसे अस्थियों को जोड़ देता है, दूसरा उस पर मांस-चर्मादि चढ़ा देता है, तीसरा उसमें प्राण डालने लगता है तो चौथा रोकता है पर वह नहीं मानता। तब वह वृक्ष पर चढ़ जाता है। प्राण पड़ते ही शेर तीनों को मार डालता है। इस बोधपरक लघुकथा का संदेश यही है कि केवल किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है।

कोविद ने यही पूछा को विद? अमेरिका, इटली, जर्मनी आदि तथाकथित देशों ने पहले तीन मित्रों की तरह आचरण किया और दुष्परिणाम भुगता। भारत ने चौथे मित्र की तरह सजगता और सतर्कता को महत्व दिया और अपने आप को अधिकतम जनसँख्या, अधिकतम सघनता और न्यूनतम चिकित्सा सुविधा और संसाधनों के बावजूद सबसे कम हानि उठाई। इसका यह आशय कतई नहीं है कि निश्चिन्त हो जाएँ कि हम सुरक्षित हो गए। चौथा मित्र गफलत में नीचे आया तो शेर उसे भी नहीं छोड़ेगा। चौथे मित्र को शेर के जाने, उजाला होने और अन्य लोगों के आने तक सजगता बरतनी ही पड़ेगी।

को विद? इस प्रश्न का उत्तर भारतवासी मुसलमानों को भी देना है। दुर्भाग्य से भारत में तब्लीगी, मजलिसी, जिहादी आदि एक तबका ऐसा है जो धर्मांध मुल्लाओं, मौलवियों आदि को मसीहा मानकर उनका अंधानुकरण करता है। यह तबका हर सुधारवादी कदम का विरोध करना ही अपना मजहब समझता है। संकीर्ण दृष्टि और स्वार्थपरकता इन तथाकथित धर्माचार्यों को बाध्य करती है वे अपने अनुयायियों को अशिक्षा और जहालत में रखकर अन्धविश्वास और अंधानुकरण को बढ़ावा देते रहें। सुशिक्षित, समझदार, प्रगतिवादी मुसलमान संख्या में कम और भीरु प्रवृत्ति का है। इसलिए वह चाहकर भी शेष समाज के साथ नहीं चल पाता। उन्हें अपने आप से सवाल करने होंगे और उनके उत्तर भी खोजने होंगे। क्या अच्छा मुसलमान अच्छा इंसान या अच्छा नागरिक नहीं हो सकता? यदि नहीं, तो उसे पूरी दुनिया में लांछित और दंडित किया जाना सही है। तब उसे नष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता। यदि हाँ, तो उन्हें अपनी पहचान तथाकथित धर्मांध लोगों और अतवादी आतंवादियों से अलग बनाई होगी और बहुसंख्यक मध्य धारा के साथ नीर-क्षीर की तरह मिलना होगा।

को विद? इस सवाल से बहुसंख्यक सनातनधर्मी हिन्दू भी बच नहीं सकते। वसुधैव कुटुम्बकम, विश्वैक नीड़म् आदि की उदात्त परंपरा की विरासत के बावजूद जाति-पाँति, छुआछूत, वर्ण विभाजन, अन्य धर्मावलंबियों को हीन समझने की मानसिकता को छोड़ना ही होगा। आरक्षण विरोध की दुंदुभी बजानेवाले क्या आरक्षित वर्ग के डॉक्टर से इलाज नहीं कराएँगे? खुद को श्रेष्ठ समझनेवाला ब्राह्मण क्या अनुसूचित जनजाति के पुलिसवाले की मदद नहीं लेगा? बाहुबल के आधार पर गाँवों में मनमानी करनेवाला क्षत्रिय वर्ग क्या खुद अपने आपकी रक्षा कर सकता है? हम सबको समझना होगा कि हाथ की अँगुलियाँ यदि मुट्ठी बनकर नहीं रहीं तो एक-एक कर सब का विनाश हो जाएगा।

को विद? से बच तो शासन और प्रशासन भी नहीं सकता। उसे आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा कि पुलिस का काम 'तथा कथित महत्वपूर्णों की रक्षा' नहीं जन सामान्य की सेवा और सहायता करना है। जिस दिन भारत ,में 'पुलिस' को केवल और केवल 'पुलिसिंग' करने दी जाएगी उस दिन देश में सच्चे लोकतंत्र का आरंभ हो जायेगा। लोकतंत्र में लोक ही सर्वशक्तिमान होता है जो अपनी शक्ति अपने प्रतिनिधियों में आरोपित करता है। कोविद काल में चिकित्सकों और पुलिस कर्मियों द्वारा अहर्निश सेवा हेतु उनका वंदन-अभिनन्दन होना ही चाहिए किन्तु अबाधित विद्युत् प्रदाय, जल प्रदाय, सैनिटेशन व्यवस्था, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, यातायात आदि को सुचारु रखने में प्राण-प्राण से समर्पित अभियंता वर्ग की सेवा को भी स्मरण किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि अभियंता का कार्य भोजन में जल या भवन में नींव की तरह अदृश्य होता है पर यह भी उतना ही सत्य है कि उसके बिना शेष कार्यों पर गंभीर दुष्प्रभाव होता है। इसलिए 'देर आयद दुरुस्त आयद' अभियंता वर्ग के प्रति देश और समाज को सद्भावना व्यक्त करनी ही चाहिए।

इस कोविद काल में जन प्रतिनिधियों ने निकम्मेपन, अदूरदर्शिता, संवेदनहीनता और जन सामान्य से दूरी की मिसाल हर दिन पेश की है। शाहीन बाग़, तब्लीगी जमात, दिल्ली में मजदूरों का पलायन, मुम्बई में आप्रवासियों की भीड़ के इन और इन जैसे अन्य प्रसंगों में वहाँ के पार्षद, जनपद सदस्य, विधायक, सांसद अपने मतदाता के साथ थे? यदि नहीं तो क्या यह उनका संवैधानिक कर्तव्य नहीं था। कर्तव्य निर्वाण न करने के कारन क्यों न उनका निर्वाचन निरस्त हो। क्या राष्ट्रीय आपदा का सामना करना केवल सत्ताधारी दल को कारण है। क्या हर स्तर पर सर्वदलीय सेवा समितियां बनाकर जन जागरण, जन शिक्षण और जन सहायता का कार्य बेहतर और जल्दी नहीं किया जा सकता ? सत्ता दल की विशेष जिम्मेदारी है कि दलीय हित साधने में अन्य दलों से इतनी दूरी न बना ली जाए की संकट के समय भी हाथ न मिल सकें। लोकतंत्र में सत्ता पर दाल बदलते रहते हैं इसलिए देशहित को दलहित के ऊपर रखना ही चाहिए। सत्ता दल के अंधभक्त, विशेषकर बड़बोले और अनुशासनहीन हुल्लड़बाजों को नियंत्रण में रखा जाना परमावश्यक है। घंटी बजने के समय सड़कों पर भीड़ लगानेवाले, ज्योति जलने के समय बम फोड़ने, मोब लॉन्चिंग करने, असहमति होने पर गाली-गुफ़्तार करनेवाले किसी भी दल के लिए हितकर नहीं हो सकते और देशभक्त तो हो ही नहीं सकते।

को विद? इस कोविद काल में यह प्रश्न हम सबको और हममें से हर एक को खुद से पूछना ही होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
हम कौन हैं?, क्या हो गए हैं?
और क्या होंगे अभी?
आओ! विचारें आज मिलकर
ये समस्याएँ कभी।
***
सम्पर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

विरासत : आमिर खुसरो

विरासत : आमिर खुसरो
ग़ज़ल : फ़ारसी + हिंदुस्तानी

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां ।
किताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां ।।

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।।

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां ।।

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क़ आं मेह ।
न नींद नैना, ना अंग चैना ना आप आवें, न भेजें पतियां ।।

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा, फरेब खुसरौ ।
सपेत मन के, दराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां ।

(स्रोत : ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल -अमीर ख़ुसरो)
*
अर्थ :
मुझ गरीब की बदहाली को नज़रंदाज़ न करो - नयना चुरा के और बातें बना के अब जुदा रहने की सहन शक्ति नहीं है ( नदारम ) मेरी जान , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते हो?

जुदाई की रातें लम्बी जुल्फों की तरह लम्बी हैं और मिलन का दिन उम्र की तरह छोटी सखी , प्रियतम को न देखूं तो कैसे अँधेरी रातें काटूं (मेरी जिंदगी उसी से रोशन है)

यकायक , दो जादू भरी आँखें सैकड़ों ( ब सद ) तिलिस्म ( फरेबम ) करके दिल से (अज ) सुख चैन ( तस्कीं ) ले उड़ीं ( बाबुर्द ) किसे इस बात की फ़िक्र पड़ी है कि प्यारे पिया को हमारी ये बातें ( चैन उड़ा लेने वाली ) जा के सुनाए ( ताकि उन्हें पता तो चले )

जैसे शमा जलती है जैसे हर ज़र्रा विस्मित है वैसे ही मैं भी इस चाँद (मह ) का सूरज (मेहर) आखिर बन ही गया (बगश्तम) अर्थात जैसे शमा जलती है हर जर्रा विस्मित व बेचैन है वैसी ही खुद को जला देने वाली अत्यंत तेज़ आग मुझे भी आखिर ( प्यार की ) लग ही गयी न आँखों में नींद है न अंगों को चैन , न आप आते हैं न ही आप के पत्र आते हैं

उसे ही हक है कि मिलन ( विसाल ) का दिन तय करे या फरेब करे , तब तक तक मन के भेद अन्दर ही रखूँ ( दो तरफ़ा -प्यार का या नहीं ) जब तक की दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .

नुसरत फ़तेह अली खान ने गाया है :
सपीत मन के, दराये राखूं, जो जाये पांव, पिया के खतियां

मन के सफ़ेद मोती , बचा के रखूं ,जब तक कि दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .

गुलज़ार ने चलचित्र गुलामी में लिखा है -
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश , बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है

जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश = गरीब की बदहाली पर रंजिश न करो
*

दोहा

दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
द्विपदी
*
शूल दें साथ सदा फिर भी बदनाम हुए
फूल दें साथ छोड़ फिर भी सुर्खरू क्यों हैं?
*
२८-४-२०१५

नवगीत

नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल धरती नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
*
२८-४-२०१०

नवगीत:


नव गीत: झुलस रहा गाँव..... ...
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
***
२८-४-२०१०