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शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा और चंद्र कलश


-: विश्व वाणी हिंदी संस्थान - समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर :- 
 ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll  
 ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l  'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
                                                                      * 

पुरोवाक
: हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा और चंद्र कलश :

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*

अक्षर, अनादि, अनंत और असीम शब्द ब्रम्ह में अद्भुत सामर्थ्य होती है रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य  का माध्यम मात्र होता हैइसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता ​मंत्र दृष्टा हैं, ​मंत्र सृष्टा नहीं दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा ​जितना बताने की सामर्थ्य या क्षमता ब्रम्ह से प्राप्त होगी। तदनुसार रचनाकार ब्रह्म का उपकरण मात्र है 


रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया हैकभी दृश्य, ​कभी अदृश्य, कभी भाव​, कभी कथ्य​ रचनाकार को प्रेरित करते हैं कि वह '​स्वानुभूति' को '​सर्वानुभूति​बनाने हेतु ​रचना करे रचना कभी दिल​ ​से होती है​,​ कभी दिमाग से​ और कभी-कभी अजाने भी​ रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है​,​ कभी किसी की माँग पर​ और कभी कभी कथ्य इतनी प्रबलता से प्रगट होता है कि विधा चयन भी अनायास ही हो जाता है​ शिल्प व विषय का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी, लघुकथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी 

​ग़ज़ल : एक विशिष्ट काव्य विधा 

संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। ​संस्कृत की  श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को बह्र कहा गया। फारस में सामंती काल में  '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) से ​ग़ज़ल का विकास हुआ। 'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप ​के रूप में ​ग़ज़ल लोकप्रिय होती गई​ फारसी में दक़ीक़ी, वाहिदी, कमाल, बेदिल, फ़ैज़ी, शेख सादी, खुसरो, हाफ़िज़, शिराजी आदि ने ग़ज़ल साहित्य को समृद्ध किया। मुहम्मद गोरी ने सन ११९९ में  दिल्ली जीत कर कुतुबुद्दीन ऐबक शासन सौंपा। तब फारसी तथा सीमान्त प्रदेशों की भारतीय भाषाओँ पंजाबी, सिरायकी, राजस्थानी, हरयाणवीबृज, बैंसवाड़ी आदि के शब्दों को मिलाकर सैनिक शिविरों में देहलवी या हिंदवी बोली का विकास हुआ। मुग़ल शासन काल तक यह विकसित होकर रेख़्ता कहलाई। रेख़्ता और हिंदवी से खड़ी हिंदी का विकास हुआ। खुसरो जैसे अनेक क​वि फ़ारसी और हिंदवी दोनों में काव्य रचना करते थे। कबीर जैसे अशिक्षित लोककवि भी फारसी के शब्दों से परिचित और काव्य रचना में उनका प्रयोग करते थे। हिंदी ग़ज़ल का उद्भव काल यही है।​ खुसरो और कबीर जैसे कवियों ने हिंदी ग़ज़ल को आध्यात्मिकता (इश्के हकीकी) की जमीन दी। अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया। 

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर । -खुसरो (१२५३-१३२५)

​हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहे आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या? 

जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते 
हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या?   - कबीर ​(१३९८-१५१८)

स्वातंत्र्य संघर्ष कला में हिंदी ग़ज़ल ने क्रांति की पक्षधरता की- 


सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है 

देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है   -रामप्रसाद बिस्मिल 


मुग़ल सत्ता के स्थाई हो जाने पर बाजार और लोक जीवन में ​ रेख़्ता ने जो रूप ग्रहण किया थाउसे उर्दू (फारसी शब्द अर्थ बाजार) कहा गया। स्पष्ट है कि उर्दू रोजमर्रा की बाजारू बोली थी। इसीलिये ग़ालिब जैसे रचनाकार अपनी फारसी रचनाओं को श्रेष्ठ और उर्दू रचनाओं को कमतर मानते थे। मुगल शासन दक्षिण तक फैलने के बाद हैदराबाद में उर्दू का विकास हुआ​ दिल्ली, लखनऊ तथा हैदराबाद में उर्दू की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विकसित हुईं। उर्दू ग़ज़ल के जनक वली दखनी (१६६७-१७०७)​ औरंगाबाद में जन्मे तथा अहमदाबाद में जीवन लीला पूरी की। उर्दू में ​सांसारिक प्रेम (इश्क मिजाजी), ​नाज़ुक खयाली​ ही​ गजल का लक्षण ​हो गया​​ 

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।  -
वली दखनी


हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल   

गजल का अपना छांदस अनुशासन है प्रथम द्विपदी में समान पदांत-तुकांत, तत्पश्चात एक-एक पंक्ति छोड़कर पदांत-तुकांत, सभी पंक्तियों में समान पदभार, कथ्य की दृष्टि से स्वतंत्र द्विपदियाँ और १२ लयखंडों के समायोजन से बनी द्विपदियाँ गजल की विशेषता है गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्रा गणना से साम्यता रखता है कहीं-कहीं भिन्नता गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसीलिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं। समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य हैं उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी-छंदों के आधार पर रची जाती हैं दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल, हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल, माहिया ग़ज़ल में माहिया और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है एक बात और अंगरेजी, जापानी, चीनी यहाँ तक कि  बांगला, मराठी, या तेलुगु ग़ज़ल पर फ़ारसी-उर्दू के  नियम लागू नहीं किए जाते किन्तु हिंदी ग़ज़ल के साथ जबरदस्ती की जाती है। इसका कारण केवल यह है कि उर्दू गज़लकार हिंदी जानता है जबकि अन्य भाषाएँ नहीं जानता। अंग्रेजी की ग़ज़लों में  पद के अंत में उच्चारण मात्र मिलते हैं हिज्जे (स्पेलिंग) नहीं मिलते अंगरेजी ग़ज़ल में pension और attention की तुक पर  कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं हैं।

हिंदी वर्णमाला के पंचम वर्ण तथा संयुक्त अक्षर उर्दू में नहीं हैं। प्राण, वाङ्ग्मय, सनाढ्य जैसे शब्द उर्दू में नहीं लिखे जा सकते। 'ब्राम्हण' को 'बिरहमन' लिखना होता है। उर्दू में 'हे' और 'हम्ज़ा' की दो ध्वनियाँ हैं। पदांत के शब्द में किसी एक ध्वनि का ही प्रयोग हो सकता है। हिंदी में दोनों के लिए केवल एक ध्वनि 'ह' है। इसलिए जो ग़ज़ल हिंदी में सही है वह उर्दू के नज़रिये से गलत और जो उर्दू में सही है वह हिंदी की दृष्टि से गलत होगी। दोनों भाषाओँ में मात्रा गणना के नियम भी अलग-अलग हैं। त: हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से भिन्न मानना चाहिए। उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी  जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी। 


ग़ज़ल का शिल्प और नाम वैविध्य 

समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल नहीं कहा जा सकता। गजल वही रचना है जो गजल के अनुरूप हो हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है ग़ज़ल में हर द्विपदी अन्य द्विपदियों से स्वतंत्र (मुक्त) होती है इसलिए डॉ. मीरज़ापुरी इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहते हैं कुछ मुखपोथी समूह हिंदी ग़ज़ल को गीतिका कह रहे हैं जबकि गीतिका एक मात्रिक छंद है।विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है। मुक्तक का विस्तार होने के कारण हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहा ही जा रहा है। चानन गोरखपुरी के अनुसार 'ग़ज़ल का दायरा अत्यधिक विस्तृत है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग शेर अलग-अलग भावभूमि पर हो सकते हैं। जां निसार अख्तर के अनुसार- 

हमसे पूछो ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फन क्या?

चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए।   


डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रोशन' के लफ़्ज़ों में -

जो ग़ज़ल के तक़ाज़ों पे उतरे खरी 

आज हिंदी में ऐसी ग़ज़ल चाहिए   

हिंदी ग़ज़ल के सम्बन्ध में मेरा मत है- 


ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल 

आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल 

मत गज़ाला चश्म कहन यह कसीदा भी नहीं 

जनक जननी छंद-गण औलाद है हिंदी ग़ज़ल 

जड़ जमी गहरी न खारिज समय कर सकता इसे 

सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल 

भर-पद गणना, पदान्तक, अलंकारी योजना 

दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल 

सत्य-शिव-सुंदर मिले जब, सत-चित-आनंद हो 

आत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल 

हिंदी ग़ज़ल प्रवाह में दुष्यंत कुमार, शमशेर बहादुर सिंह नीरज आदि के रूप में एक ओर लोकभाषा भावधारा है तो डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, चंद्रसेन विराट, डॉ. अनंत राम मिश्र 'अनंत', शिव ॐ अंबर, डॉ. यायावर आदि के रूप में संस्कारी भाषा परक दूसरी भावधारा स्पष्टत: देखी जा सकती है। ईद दो किनारों के बीच मुझ समेत अनेक रचनाकर हैं जो दोनों भाषा रूपों का प्रयोग करते रहे हैं। सुनीता सिंह की ग़ज़लें इसी मध्य मार्ग पर पहलकदमी करती हैं।    


सुनीता सिंह की ग़ज़लें 


हिंदी और अंगरेजी में साहित्य सृजन की निरंतरता बनाये रखकर विविध विधाओं में हाथ आजमानेवाली युवा कलमों में से एक सुनीता सिंह गोरखपुर और लखनऊ के भाषिक संस्कार से जुडी हों यह स्वाभाविक है। शैक्षणिक पृष्ठभूमि ने उन्हें अंगरेजी भाषा और साहित्य से जुड़ने में सहायता की है।सुनीता जी उच्च प्रशासनिक पद पर विराजमान हैं। सामान्यत: इस पृष्ठभूमि में अंग्रेजी परस्त मानसिकता का बोलबाला देखा जाता है किन्तु सुनीता जी हिंदी-उर्दू से लगाव रखती हैं और इसे बेझिझक प्रगट करती हैं। हिंदी, उर्दू और अंगरेजी तीनों भाषाएँ उनकी हमजोली हैं। एक और बात जो उन्हें आम अफसरों की भीड़ से जुड़ा करते है वह है उनकी लगातार सीखने की इच्छा। चंद्र कलश सुनीता जी की ग़ज़लनुमा रचनाओं का संग्रह है।  ग़ज़लनुमा इसलिए कह रहा हूँ कि उन्होंने अपनी बात कहने के लिए आज़ादी ली है। वे कथ्य को सर्वाधिक महत्व देती हैं। कोई बात कहने के लिए जिस शब्द को उपयुक्त समझती हैं, बिना हिचक प्रयोग करते हैं, भले ही इससे छंद या बह्र का पालन कुछ कम हो। चंद्र कलश की कुछ ग़ज़लों में फ़ारसी अलफ़ाज़ की बहुतायत है तो अन्य कुछ ग़ज़लों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग भी हुआ है। मुझे शुद्ध हिंदीपरक ग़ज़लें उर्दू परक ग़ज़लों से अधिक प्रभावी लगीं। सुनीता जी का वैशिष्ट्य यह है की अंगरेजी शब्द लगभग नहीं के बराबर हैं। शिल्प पर कथ्य को प्रमुखता देती हुई ये गज़लें अपने विषय वैविध्य से जीवन के विविध रंगों को समेटती चलती हैं। साहित्य में सरकार और प्रशासनिक विसंगतियों का शब्दांकन बहुत सामान्य है किन्तु सुनीता जी ऐसे विषयों से सर्वथा दूर रहकर साहित्य सृजन करती हैं। 


'थोथा चना बाजे घना' की कहावत को सामाजिक जीवन में चरितार्थ होते देख सुनीता कहती हैं-   
उसको वाइज़ कहें या कि रहबर कहें।
खुद गुना जो न हमको सिखाता रहा॥

'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' शायरी में अंदाज़े-बयां ही शायर की पहचान स्थापित करता है। यह जानते हुए सुनीता अपनी बात अपने ही अंदाज़ में इस तरह कहती हैं कि साधारण में असाधारणत्व का दीदार हो-
खाली रहा दिल का मकां वो जब तलक आए न थे।
आबाद उनसे जब हुआ वो खालीपन खोता गया॥


राधा हो या मीरा प्रिय को ह्रदय में बसाकर अभिन्न हे इन्हीं अमर भी हो जाती है। यह थाती सुनीता की शायरी में बदस्तूर मौज़ूद है-
दिल में धड़कन की तरह तुझको बसा रखते हैं।
तेरी तस्वीर क्या देखेंगे जमानेवाले।।
मैं तेरे गम को ही सौगात बना जी लूँगी।

मेरी आँखों को हँसी ख्वाब दिखानेवाले।।

आधुनिक जीवन की जटिलता हम सबके सामने चुनौतियाँ उपस्थित करती है। शायर चुनौतियों से घबराता नहीं उन्हें चुनौती देता है-
हमने जो खुद को थामा, उसका दिखा असर है।
कब हौसलों से सजता, उजड़ा किला नहीं है।।

सचाई की बड़ाई करने के बाद भी आचरण में न अपनाना आदमी की फितरत क्यों है? यह सवाल चिरकाल से पूछा जाता रहा है। बकौल शायर-  'दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा।'  अपनी शक्ल को जैसे का तैसा न रखकर सजावट करने की प्रवृत्ति से सुनीता महिला होने के बाद भी सहमत नहीं हैं-
चेहरे पर चेहरा क्यों लोग रखते हैं लगाकर।
जो दिया रब ने बनावट से छुपा जाते ही क्यों हैं।।

'समय होत बलवान' का सच बयां करती सुनीता कहती हैं कि मिन्नतों से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब जो होना है, समय वही करता है।  
मिन्नतें लाख हों चाहे करेगा वक्त अपनी ही।
जिसे चाहे बना तूफ़ान का देता निवाला है।।

मुश्किल समय में अपने को अपने आप तक सीमित कर लेना सही रास्ता नहीं है। सुनीता कहती हैं- 
तन्हाइयों में ग़म को दुलारा न कीजिए।

रुसवाइयों को अपनी सँवारा न कीजिए।।

अनिश्चितता की स्थिति में मनुष्य के लिए तिनके का सहारा भी बहुत होता है। सीता जी को अशोक वन में रावण के सामने दते रहने के लिए यह तिनका ही सहारा बनता है। 'तृण धर ओट कहत वैदेही, सुमिर अवधपति परम सनेही।' सुनीता उस स्थिति में ईश्वर से दुआ माँगने के लिए हाथ उठाना उचित समझती हैं जब यह न ज्ञात हो कि उजाला कब मिलेगा- 
जब नजर कोई नहीं आये कहीं।
तब दुआ में हाथ उठता है वहीं।।
राह में कोई कहाँ ये जानता?

कब मिलेगी धूप कब छाया नहीं?

दुनिया में विरोधाभास सर्वत्र व्याप्त है। एक और मुश्किल में सहारा देनेवाले नहीं मिलते, दूसरी और किसी को संकट से निकलने के लिए हाथ बढ़ाएँ तो वह भरोसा नहीं करता अपितु हानि पहुँचाता है। साधु और बिच्छू की कहानी हम सब जानते ही हैं। ऐसी स्थिति केन मिस्से कब क्या शिकायत की जाए-  
किसे अब कौन समझाये, किधर जाकर जिया जाये?
हर तरफ रीत है ऐसी, शिकायत क्या किया जाये?

मनुष्य की प्रवृत्ति तनिक संकट होते ही सहारा लेने की होती है। तब उसकी पूर्ण क्षमता का विकास नहीं हो पाता किन्तु कोई सहारा न होने पर मनुष्य पूर्ण शक्ति के साथ संघर्ष कर अपनी राह खोज लेता है। रहीम कहते हैं- 
रहिमन विपदा सो भली, जो थोड़े दिन होय। 
हित-अनहित या जगत में जान पड़त सब कोय।। 

सुनीता इस स्थिति को हितकारी की पहचान ही नहीं, अपनी क्षमता के विकास का भी अवसर मानती हैं-
कुछ अजब सा मेल पीड़ा और राहत का रहा।
बन्द आँखों से जहाँ सारा मुझे दिखला दिया।।

राह मिल जाती है पाने के सिवा चारा नहीं जब।
पंख खुल जाते हैं उड़ने के सिवा चारा नहीं जब।।

ख्वाबों को पूरा करने की, राह सदा मिल जाती है।

हम पहले अपनाते खुद को, तब दुनिया अपनाती है।।

कुदरत उजड़ने के बाद अपने आप बस भी जाती है। बहार को आना ही होता है-
अब्र का भीना सौंधापन, बाद-ए-सबां की तरुणाई।।
सिम्त शफ़क़ से रौशन हैं, ली है गुलों ने अंगड़ाई।।

सामान्यत: हम सब सुख, केवल सुख चाहते हैं जबकि सृष्टि में सुख बिना दुःख के नहीं मिलता चूंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शायरा तीखा-मीठा दोनों रस पीना चाहती है-
देख क्षितिज पर खिलती आशा, मैं भी थोड़ा जी जाऊँ।
तीखा-म़ीठा सब जीवन-रस, धीर-धीरे पी जाऊँ।।

कवयित्री जानती है कि दुनिया में कोई किसी का साथ कठिनाई में नहीं देता। 'मरते दम आँख को देखा है की फिर जाती है' का सत्य उससे अनजाना नहीं है। अँधेरे में परछाईं भी साथ छोड़ देती है, यह जानकर भी कवयित्री निराश नहीं होती। उसका दृष्टिकोण यह है कि ऐसी विषम परिस्थिति में  औरों से सहारा पाने की की कामना करने के स्थान पर अपना सहारा आप ही बन जाना चाहिए।   
भीगे सूने नयनों में, श्रद्धा के दीप जला लेना।
दर्द बढ़े तो अपने मन को, अपना मीत बना लेना।।

समझौतों की वेदी पर, जीवन की भेंट न चढ़ जाये।
बगिया अपनी स्वयं सजा, सतरंगी पुष्प खिला लेना।।

संकल्पों से भार हटाकर खाली अपना मन कर लो।
सरल सहज उन्मुक्त लहर सा अपना यह जीवन कर लो॥

हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा में चंद्र्कलश न तो मील का पत्थर है, न प्रकाश स्तम्भ किन्तु यह हिंदी गजलोद्यान में चकमनेवाला जुगनू अवश्य है जो ग़ज़ल-पुष्पों के सुरभि के चाहकों को राह दिखा सकता है और जगमगा कर आनंदित कर सकता है। चंद्रकलश की ग़ज़लें सुनीता की यात्रा का समापन नहीं आरम्भ हैं। उनमें प्रतिभा है, सतत अभ्यास करने की ललक है, और मौलिक सोचने-कहने का माद्दा है। वे किसी की नकल नहीं करतीं अपितु अपनी राह आप खोजती हैं। राह खोजने पर ठोकरें लग्न, कंटक चुभना और लोगों का हंसना स्वाभाविक है लेकिन जो इनकी परवाह नहीं करता वही मंज़िल पर पहुँचता है। सुनीता को स्नेहाशीष उनकी कलम का जोर लगातार बढ़ता रहे, वे हिंदी ग़ज़ल के मिज़ाज़ और संस्कारों को समझते हुए अपना मुकाम ही न बनायें अपितु औरों को मुकाम बनाने में मददगार भी हों। वे जिस पद पर हैं वहां से हिंदी के लिए बहुत कुछ कर सकती हैं, करेंगी यह विश्वास है। उनका अधिकारी उनके कवि पर कभी हावी न हो पाए। वे दोनों में समन्वय स्थापित कर हिंदी ग़ज़ल के आसमान में चमककर आसमान को अधिक प्रकाशित करें।  
                                                                                                                                   (संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                                                                                     २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
                                                                                                                  जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
                                                                                                                        salil.sanjiv@gmail.com
                                                                                                                         www.divyanarmada.in

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०२२. मञ्जूषा 'मन'
०२३. डॉ. बाबू जोसेफ
०२४. हिमकर श्याम, बी १ शांति एन्क्लेव, कुसुम विहार, मार्ग क्रमांक ४, निकट चिरंजीवी पब्लिक स्कुल, मोराबादी रांची ८३४००८ झारखण्ड चलभाष ८६०३१७१७१०
०२५. काँति शुक्ल 'उर्मि' एम् आई जी ३५ डी सेक्टर, अयोध्या नगर, भोपाल ४६२०४१, चलभाष ९९९३०४७७२६ / ७००९५५८७१७
०२६, हरि फ़ैज़ाबादी, बी १०४ / १२ निराला नगर, लखनऊ २२६०२० चलभाष ९४५०४८९७८९
०२७. श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, अमरावती,  गायत्री मंदिर मार्ग, सुदना, डाल्टनगंज, पलामू ८२२१०२, झारखंड चलभाष ९४३१५५४४२८ / ९९३९२३३९३
०२८. सुजीत महाराज, नया साकेत नगर, रुस्तमपुर, गोरखपुर, उ. प्र., चलभाष  ९८३८७६२०१०
०२९ डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', सानिंध्य ८१७ महावीर नगर, २, कोटा राजस्थान ३२४००५ चलभाष ७४४२४२४८४८ / ७७२८८२४८१७ / ८२०९४८३४७७
०३०. डॉ. प्रकाशचंद्र फुलोरिआ, ९३७ सेकर २१ सी, फरीदाबाद १२१००१ हरियाणा दूरभाष : ०९९१०३८४०९९, ०१२९४०८४०९९
०३१. लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला, १६५ गंगोत्री नगर, गोपालपुरा, टोंक रोड, जयपुर ३०२०१८, चलभाष ९३१४२४९६०८
०३२. रीता सिवानी, ए ९५ द्वितीय तल, सेक्टर १९ नोएडा २०१३०१ चलभाष ९६५०१५३८४७
०३३. रामकिशोर उपाध्याय
०३४. डॉ. अनिल जैन बी ४७ वैशाली नगर, दमोह ४७०६६१ चलभाष ९६३०६३११५८
०३५. शशि पुरवार
०३६. सरस्वती कुमारी गवर्नमेंट मिडिल स्कूल, ईटानगर, ७९११११ जिला पापुंपारे अरुणांचल प्रदेश चलभाष ७००५८८४०४६
०३७. अनिल जी खंडेलवाल, ५३ अनूप नगर, निकट यूको बैंक, इंदौर म.प्र.
०३८. ओमप्रकाश शुक्ल, १२२ गली ४/७, सी.आर.पी.ऍफ़. कैम्प के सामने, बिहारीपुर विस्तार, दिल्ली ११००९४ चलभाष ९७१७६३४६३१ / ९६५४४७७११२
०३९. देवकी नंदन 'शांत',१०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६ चलभाष ९९३५२१७८४१ / ८८४०५४९२९६
०४० विजय 'प्रशांत', ई २/२/४/सेक्टर १५ रोहिणी दिल्ली
०४१. सुमन श्रीवास्तव
०४२ ज्योति मिश्रा
०४३. महातम मिश्रा, ग्राम-भरसी, पोस्ट-डाड़ी, जिला गोरखपुर २७३४२३ उत्तर प्रदेश ।चलभाष: ९४२६५ ७७१३९ (वाट्सएप), ८१६०८७ ५७८३
०४४. नवीन चतुर्वेदी  099670 24593
०४५. लता यादव
०४६. सुषमा शैली
०४७. डॉ. वीर सिंह मार्तण्ड दिए १, ९४ / ए पश्चिम पुटखाली, मंडलपाड़ा, पोस्ट दौलतपुर, व्हाया विवेकानंद पल्ली, कोलकाता ७००१३९ चलभाष ९८३१०६२३६२
०४८. डॉ. श्याम गुप्ता
०४९ ओमप्रकाश शुक्ल। १२२ गली ४/७, सी.आर.पी.ऍफ़.कैम्प के सामने, बिहारीपुर विस्तार दिल्ली ११००९४, चलभाष : ९७१७६३१, ९६५४४७७११२


५०. अरुण अर्णव खरे, डी १/३५ डेनिश नगर, होशंगाबाद मार्ग, भोपाल ४६२०२६, चलभाष ९८९३००७७४४
५१. डॉ, जगन्नाथ प्रसाद बघेल, डी २०४ प्लेजेंट पार्क, दहिसर पल के पास, दहिसर पश्चिम मुंबई ४०००६८ चलभाष ९८६९०७८४८५ /९४१०६३९३२२
५२. रामलखन सिंह चौहान 'भुक्कड़' झिरिया मोहल्ला, वार्ड ११, उमरिया ४८४६६१, चलभाष ९१३१७९८३४२
५३. प्रो विशम्भर शुक्ल, ८४ ट्रांस गोमती, त्रिवेणी नगर प्रथम, समीप डॉलीगंज रेलवे क्रॉसिंग, लखनऊ २२६०२० चलभाष ९४१५३२५१४६
५४. नीता सैनी, जगदंबा टेंट हाउस, ेल ५०५/४ शनि बाजार, संग मनिहार, नई दिल्ली ८० चलभाष ८५२७१८९२८९
५५. डॉ. नीलमणि दुबे, मोदी नगर, रीवा मार्ग, शहडोल ४८४००१ चलभाष ९४०७३२४६५०
५६. रामकुमार चतुर्वेदी, श्री राम आदर्श विद्यालय, शहीद वार्ड सिवनी ४८०६६१ चलभाष ९४२५८८८८७६ / ७००००४१६१०
५७. शुचि भवि, बी ५१२, स्ट्रीट ४ स्मृति नगर, भिलाई ४९००२० दुर्ग छत्तीसगढ़ चलभाष ९८२६८०३३९४
५८. चंद्रकांता अग्निहोत्री, ४०४ सेक्टर ६ पंचकूला १३४१०९ हरियाणा चलभाष ९८७६६५०२४८
५९. छगनलाल गर्ग 'विज्ञ', २ डी ७८ राजस्थान अवसान मंडल, आकरा भत्ता, आबू मार्ग, सिरोही ३०७०२६ चलभाष ९४६१४४९६२०
६०. प्रेम बिहारी मिश्र सी ५०१ चित्रकूट अपार्टमेंट्स प्लाट ९, सेक्ट २२, द्वारका नई दिल्ली ११००७७ चलभाष ९७११८६०५१९
६१. रामेश्वर प्रसाद सारस्वत, १०० पंत विहार, सहारनपुर ु.पर. चलभाष ९५५७८२८९५०
६२. विजय बागरी, बड़ा कछारगाँव, कटनी ४८३३३४ चलभाष ९६६९२५१३१९
६३. श्यामल सिन्हा, जे ३११ जलवायु टॉवर्स, सेक्टर ५६, गुड़गांव १२२०११ चलभाष ०१२४४३७७७७३ / ९३१३१११७१०९
६४. डॉ. रमेशचंद्र खरे श्यामायण एम आई जी बी ७३ विवेकानंद नगर दमोह ४७०६६१ चलभाष ९८९३३४०६०४
६५. डॉ. रंजना गुप्ता, सी १७२ निराला नगर लखनऊ चलभाष ९९३६३८२६६४
६५. धीरज श्रीवास्तव ए २५९ संचार विहार कॉलोनी, आई टी आई मनकापुर, गोंडा २७१३०८ उ. प्र. चलभाष ८८५८००१६८१ / ७८०००६७८९०
६६, बबिता चौबे  माँगंज वार्ड ३, निकट स्टेशन दमोह ४७०६६१ चलभाष ९६४४०७५८०९ / ९८९३६०३४७५
६७. हरिवल्लभ शर्मा, ७ डी / ४०२ रीगल टाउन, अवधपुरी पिपलानी भेल भोपाल ४६२०२२ चलभाष
५०. अनिल कुमार मिश्र, आवास क्रमांक बी ५८, ९ वीं कॉलोनी, उमरिया ४८४६६१, चलभाष ९४२५८९१७५६
५१. राहुल शिवाय, सरस्वती निवास, चटी रोड, रतनपुर, बेगूसराय ८५११०१ चलभाष ८२९५४०९६४९
५२. कांता रॉय सी २१ सुभाष कॉलोनी, गोविंदपुरा, भोपाल ४६२०२३ चलभाष ९५७५४६५१४७
५३ सदाशिव कौतुक, १५२० सुदामा नगर, इंदौर ४५२००९ चलभाष ४८२९४२४८२२५९
५४. हरेराम नेमा 'समीप' ३९५ सेक्टर ८, फरीदाबाद १२१००६ चलभाष ९८७१६९१३१३
५५. कैलाश त्रिपाठी शिवकुटी आर्यनगर, अजीतमल, औरैया उ. प्र. दूरभाष ०५६८३२८४५६१
५६. डॉ. हरेराम त्रिपाठी चेतन, स्वाध्याय, न्यू एरिआ, मोरहाबादी, रांची ८३४००८ झारखंड 
५७. बैकुण्ठनाथ ए १ परिक्रमा फ्लैट्स, सरकारी ट्यूब वेल के पास, बोपल, अहमदाबाद ३८००५८ चलभाष ९७२५६०२७३४
५८. योगराज प्रभाकर, ऊषा विला, ५३ रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला १४७००२ चलभाष ९८७२५६८२२८
५९. डॉ. भावना शुक्ल, WZ / २१ हरिसिंह पार्क, मुल्तान नगर, नई दिल्ली ११००५६ चलभाष ९२७८७२०३११
६०. ममता शर्मा, ए ६०४ शोभा विंडफॉल १५-अमृत हल्ली बेंगलुरु ५६००९२
६१. क्रांति कनाते द्वारा डॉ. संजय येवतीकर डाकघर के सामने सनावद खरगोन ४५११११
६२ ओमप्रकाश यति एच ८९ बीटा २ ग्रेटर नोएडा २०१३०८ चलभाष ९९९९०७५९४२
६३.







































































सूचना सरस्वती स्तवन


विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
***
१११ सरस्वती वंदनाओं का संग्रह शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। अपनी लिखी सरस्वती वंदना भेज सकते हैं। संकलित वंदना के साथ रचनाकार व स्रोत अवश्य लिखें अन्य भारतीय भाषाओँ में सरस्वती वंदना हिंदी अनुवाद सहित भेजें। हर सहभागी को २ प्रतियाँ ४०% रियायती मूल्य पर निशुल्क डाक सुविधा सहित उपलब्ध कराई जाएँगी। राशि रचना स्वीकृत होने पर निर्दिष्ट बैंक खाते में भेजना होगी। संपादक ख्यात छंदशास्त्री 'अब विमल मति दे' के रचतिया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं। संपर्क- salil.sanjiv@gmail.com / ७९९९५५९६१८

बुधवार, 7 अगस्त 2019

लघुकथा : सूरज दुबारा डूब गया

लघुकथा :
सूरज दुबारा डूब गया
*
'आज सूरज दुबारा डूब गया', बरबस ही बेटे के मुँह से निकला।
'पापा गलत कह रहे हो,' तुरंत पोती ने कहा।
'नहीं मैं ठीक कहा रहा हूँ। '
'ठीक नहीं कह रहे हो।'
पोती बहस करने पर उतारू दिखी तो बाप-बेटी की बहस में बेटी को डाँट न पड़ जाए यह सोच बहू बोली 'मुनिया, बहस मत कर, बड़ों की बातें तू क्या समझे?'
'ठीक है, मैं न समझूँ तो समझाओ, चुप मत कराओ।'
'बेटे ने मोबाइल पर एक चित्र दिखाते हुए कहा 'देखो इनके माथे पर सूरज चमक रहा है न?'
'हाँ, पूरा चेहरा सूरज की रौशनी से जगमगा रहा है।'
तब तक एक और चित्र दिखाकर बेटे ने कहा- 'देखो सूरज पहली बार डूब गया।'
पोती ने चित्र देख और उसके चेहरे पर उदासी पसर गयी।
अब बेटे ने तीसरा चित्र दिखाया और कहा 'देखो सूरज फिर से निकल आया न?'
यह चित्र देखते ही पोती चहकी 'हाँ, चहरे पर बिलकुल वैसी ही चमक।'
बेटा चौथा चित्र दिखा पाता उसके पहले ही पोती बोल पडी 'पापा! सच्ची सूरज दुबारा डूब गया।'
बेटा पोती को लेकर चला गया। मैंने प्रश्न वाचक दृष्टि से बहू को देखा जो पोती के पीछे खड़ी थी। पिता जी! पहला चित्र शास्त्री जी और ललिता जी एक था, दूसरा ताशकंद में शास्त्री जी को खोने के बाद ललिता जी का और तीसरा सुषमा स्वराज जी का।
मैं और बहू सहमत थे की सूरज दुबारा डूब गया।
*

राष्ट्रनेत्री सुषमा स्वराज के प्रति भावांजलि

राष्ट्रनेत्री सुषमा स्वराज के प्रति भावांजलि
* शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक * सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल * हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास *
पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास * राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार * वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय *
राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम * शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार * कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य *
शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण * महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य * चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न *
युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि * संजीव ७-८-२०१९

लघुकथा शर संधान, निज स्वामित्व, दूषित वातावरण

लघुकथा 
शर संधान 
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ। 
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
***

लघुकथा 
निज स्वामित्व 
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं। 
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व? 
***

लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
***


लघुकथा बेपेंदी का लोटा

लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।

प्रवचन से ऊब चुका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
******
संजीव
७९९९५५९६१८ 

ज्योतिष / वास्तु जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र

ज्योतिष / वास्तु 
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद। 
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***

चित्रगुप्त पूजन

चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।