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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा 

यादों की नागफनी - श्याम श्रीवास्तव (जबलपुर)

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
‘यादों की नागफनी’ सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर के लाड़ले रचनाकार स्व. श्याम श्रीवास्तव की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है जिसे उनके स्वजनों ने अथक प्रयास कर उनके ७५ वें जन्म दिवस पर प्रकाशित कर उनके सरस-सरल व्यक्तित्व को पुनः अपने बीच महसूसने का श्लाघ्य प्रयास किया। 

स्व. श्याम ने कभी खुद को कवि, गायक, गीतकार नहीं कहा या माना, वे तो अपनी अलमस्ती में लिखते-गाते रहे। आकाशवाणी ए ग्रेड कलाकार कहे या श्रोता उनके गीतों-नवगीतों पर वाह-वाह करें, उनके लिये रचनाकर्म हमेशा आत्मानंद प्राप्ति का माध्यम मा़त्र रहा। आत्म में परमात्म को तलाशता-महसूसता रचनाकार विधाओं और मानकों में बॅंधकर नहीं लिखता, उसके लिखे में कहाँ-क्या बिना किसी प्रयास के आ गया यह उसके जाने के बाद देखा-परखा जाता है।

यादों की नागफनी में गीत-नवगीत, कविता तीनों हैं। श्याम का अंदाज़े-बयाँ अन्य समकालिकों से जुदा है-

"आकर अॅंधेरे घर में चौंका दिया न तुमने
मुझको अकेले घर में मौका दिया न तुमने
तुम दूर हो या पास क्यों फर्क नहीं पड़ता?
मैं तुमको गा रहा हूँ  हूका दिया न तुमने"

‘जीवन इक कुरुक्षेत्र’ में श्याम खुद से ही संबोधित हैं- 
"जीवन इक कुरुक्षेत्र है 
मैं अकेला युद्ध लड़ रहा 
अपने ही विरुद्ध लड़ रहा  
शांति, अहिंसा क्षमा को त्याग 
मुझमें मेरा बुद्ध लड़ रहा।"

यह बुद्ध आजीवन श्याम की ताकत भी रहा और कमजोरी भी। इसने उन्हें बड़े से बड़े आघात को चुपचाप सहने और बिल्कुल अपनों से मिले गरल को पीने में सक्षम बनाया तो अपने ‘स्व’ की अनदेखी करने की ओर प्रवृत्त किया। फलतः, जमाना ठगकर खुश होता रहा और श्याम ठगे जाकर।
श्याम के नवगीत किसी मानक विधान के मोहताज नहीं रहे। आनुभूतिक संप्रेषण को वरीयता देते हुए श्याम ‘कविता कोख में’ शीर्षक नवगीत में संभवतः अपनी और अपने बहाने हर कवि की रचना प्रक्रिया का उल्लेख करते हैं।
तुमने जब समर्पण किया 
धरती आसमान मुझे 
हर जगह क्षितिज लगे।
छुअन-छुअन मनसिज लगे। 
कविता आ गई कोख में।

वैचारिक लयता उगी मिटटी पगी
राग के बयानों की भाषा जगी
छंद-छंद अलंकार-पोषित हुए
नव रसों को ले कूदी चिंतन मृगी

सृष्टि का  अर्पण किया
जनपद की खान मुझे 
समकालिक क्षण खनिज लगे।
कथ्य उकेरे स्याहीसोख में।
कविता आ गई कोख में।

श्याम के श्रृंगारपरक गीत सात्विकता के साथ-साथ सामीप्य की विरल अनुभूति कराते हैं। ‘नमाजी’ शीर्षक नवगीत श्याम की अन्वेषी सोच का परिचायक है-
पूर्णिमा का चंद्रमा दिखा
विंध्याचल-सतपुड़ा से प्रण
पत्थरों से गोरे आचरण
नर्मदा का क्वाँरापन नहा
खजुराहो हो गये हैं क्षण
सामने हो तुम कुरान सी
मैं नमाजी बिन पढ़ा-लिखा

‘बना-ठना गाँव’ में श्याम की आंचलिक सौंदर्य से अभिभूत हैं। उरदीला गोदना, माथे की लट बाली, अकरी की वेणी, मक्का सी मुस्कान, टिकुली सा फूलचना, सरसों की चुनरिया, अमारी का गोटा, धानी किनार, जुन्नारी पैजना, तिली कम फूल जैसे कर्णफूल, अरहर की झालर आदि सर्वथा मौलिक प्रतीक अपनी मिसाल आप हैं। समूचा परिदृश्य श्रोता/पाठक की आँखों के सामने झूलने लगता है।
गोरी सा बना-ठना गाँव
उरदीला गोदना गाँव।

माथे लट गेहूँ की बाली
अकरी ने वेणी सी ढाली
मक्का मुस्कान भोली-भाली 
टिकुली सा फूलचना गाँव।

सरसों की चूनरिया भारी
पल्लू में गोटा अमारी
धानी-धानी रंग की किनारी 
जुन्नारी पैंजना गाँव।

तिली फूल करनफूल सोहे
अरहर की झालर मन मोहे
मोती अजवाइन के पोहे
लौंगों सा खिला धना गाँव।

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार स्व, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने श्याम की रचनाओं को ‘विदग्ध, विलोलित, विभिन्न आयामों से गुजरती हुई अनुभूति के विरल क्षणों को समेटने में समर्थ, पौराणिक संदर्भों के साथ-साथ नई उदभावनाओं को सॅंजोने में समर्थ तथा "भावना की आँच में ढली भाषा से संपन्न" ठीक ही कहा है। किसी रचनाकार के महाप्रस्थान के आठ वर्ष पश्चात भी उसके सृजन को केंद्र में रखकर सारस्वत अनुष्ठान होना ही इस बात का परिचायक है कि उसका रचनाकर्म जन-मन में पैठने की सामर्थ्य रखता है। स्व. रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के अनुसार "कवि का निश्छल सहज प्रसन्न मन अपनम कथ्य के प्रति आश्वस्त है और उसे अपनी निष्ठा पर विश्वास है। पुराने पौराणिक प्रतीकों की भक्ति तन्मयता को उसने अपनी रूपवर्णना और प्रमोक्तियों में नये रूप् में ढालकर उन्हें नयी अर्थवत्ता प्रदान की है।"

श्याम के समकालीन चर्चित रचनाकारों सर्व श्री मोहन शशि, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, संजीव वर्मा ‘सलिल’ की शब्दांजलियों से समृद्ध और श्रीमती पुष्पलता श्रीवास्तव, माधुरी श्रीवास्तव, मनोज श्रीवास्तव, रचना खरे तथा सुमनलता श्रीवास्तव की भावांजलियों से रससिक्त हुआ यह संग्रह नयी पीढ़ी के नवगीतकारों ही नहीं तथाकथित समीक्षकों और पुरोधाओं को नर्मदांचल के प्रतिनिधि गीतकार श्याम श्रीवास्तव के अवदान सें परिचित कराने का सत्प्रयास है जिसके लिये शैली निगम तथा मोहित श्रीवास्तव वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं।

श्याम सामाजिक विसंगतियों पर आघात करने में भी पीछे नहीं हैं। 
"ये रामराजी किस्से 
जनता की सुख-कथाएँ 
भूखे सुलाते बच्चों को 
कब तलक सुनायें"

"हम मुफलिस अपना पेट काट 
पत्तल पर झरकर परस रहे"

"गूँथी हुई पसीने से मजदूर की रोटी
पेट खाली लिये गीत गाता रहा" ... आदि अनेक रचनाएँ इसकी साक्षी हैं।

तत्सम-तदभव शब्द प्रयोग की कला में कुशल श्याम श्रीवास्तव हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को भाव-भंगिमाओं की टकसाल में ढालकर गीत, नवगीत, ग़ज़ल, कविता के खरे सिक्के लुटाते चले गये। समय आज ही नहीं, भविष्य में भी उनकी रचनाओं को दुहराकर आश्वस्ति की अनुभूति करता रहेगा।
२५.७.२०१६ 
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गीत- नवगीत संग्रह - यादों की नागफनी, रचनाकार-  श्याम श्रीवास्तव (जबलपुर),   शैली प्रकाशन, २० सहज सदन, शुभम विहार, कस्तूरबा मार्ग, रतलाम । प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- १२० रुपये, पृष्ठ- ६२ , समीक्षा- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।

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पुस्तक चर्चा:

फागुन के हस्ताक्षर- श्रीकृष्ण शर्मा

आचार्य भगवत दुबे 
गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ के रचयिता एवं वरिष्ठ गीतकार श्रीयुत् श्रीकृष्ण शर्माजी हिन्दी के उन मूर्धन्य रचनाकारों में से हैं, जो छान्दस कविता एवं गीत की प्रतिष्ठा के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे और आज जबकि उनकी नेत्र-ज्योति क्षीणतर हो चुकी है तब भी पूरी निष्ठा के साथ सृजन यज्ञ में अपनी सारस्वत समिधाएँ समर्पित करते चले जा रहे हैं। आपने जीवन के कटु यथार्थ को प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं अपितु उसे स्वयं भोगा भी है। उन्हीं संवेदनात्मक अनुभूतियों को आपने अपने गीतों में सशक्त अभिव्यक्ति दी है।

मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के ग्राम सिलपुरी में आपकी प्रथम नियुक्ति शिक्षक के पद पर हुई। चट्टानी पहाड़ी पर अवस्थित इस गाँव के निकट बहने वाली सदानीरा ‘बेतवा’ एवं चारो ओर फैले ऊँचे-ऊँचे वृक्षों युक्त सघन वन का प्राकृतिक सौन्दर्य कवि के भाव जगत एवं रचना संसार का सदैव साथी बना रहा। प्रकृति का यह आंचलिक स्वर आपके गीतों में प्राणवंत हो उठा है। प्रकृति की मनोहारी छवि-छटायें अभावों एवं दुर्दिनों में भी आपके गीतों में रच-पच कर जीवन का जयघोष करती रहीं हैं। समीक्ष्य गीत संग्रह आपकी इसी संघर्ष यात्रा का प्रामाणिक दस्तावेज है, जिसमें फागुन के हस्ताक्षर हैं और कोयल उसकी गवाही देती है।
उदाहरण दृष्टव्य है-
‘‘इन कच्चे पत्तों की पीठ थपथपाने / हवा सब विकल्पों को लात मार आयी।
सठियाया पतझर कर चुका आत्महत्या / फागुन के हस्ताक्षर, पिकी की गवाही।’’

शर्माजी के गीत प्रकृति की आत्मा से सीधा साक्षात्कार करते हैं तथा आम आदमी की व्यथा कथा और उसके मनोभावों को समय की शिला पर कस कर उसके अंतर्द्वद्वं एवं अहसास की परख करते हैं। इसी संग्रह की एक गीतिका के कुछ अंश देखिये-

‘‘अँधियारा इस तरह बढ़ रहा / जैसे मँहगाई की काया।
दूर-दूर तक नजर न आती / उम्मीदों की उजली छाया।
कितना कठिन समय आया है / अपनापन तक बना पराया।’’

स्वतंत्रता के पश्चात् सामाजिक वातावरण, विशेषकर राजनैतिक चरित्र में आयी शर्मनाक गिरावट के कारण राष्ट्र की खुशहाली के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले सुयोग्य व्यक्तियों का तिरस्कार विमूढ़ों की सभा में किस तरह हो रहा है, इसका एक यथार्थ चित्र ‘उत्तर रामचरित के पन्ने’ नामक गीत की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

‘‘धुँआ-धुँआ अम्बर का चेहरा / मंच हुआ तारों से खाली,
जो कि तिमिर में जले उम्र भर / वही सभा से गये उठाये।

सर्वथा नवीन प्रतीक योजना, स्मृति, ध्वनि एवं चाक्षुष बिम्बों से रचे गये प्रायः सभी गीत इतने सशक्त एवं हृदय-स्पर्शी हैं कि मुँह से सहसा वाह-वाह निकल जाता है। गीत ‘झील रात की’ का यह गीतांश देखिये -
‘‘साँझ-सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की,
भरी हुई है अँधियारे से।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का,
काला बादल चमगादड़-सा उल्टा लटका;
शंख-सीप नक्षत्र रेत में हैं पारे से।’’

गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ में जीवन-जगत की विविधवर्णी भाव-भंगिमाओं को प्राकृतिक छवि-छटाओं के साथ कवि ने सशक्त संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। अगहन की ठिठुरन को कवि ने एक दृश्य-बिम्ब के माध्यम से आम आदमी की विवशता को रेखांकित किया है। काव्यांश देखें -

‘‘कोहरे के मोटे परदे के / पार नहीं जाती हैं आँखें,
किन्तु टँगी रह गयीं दृष्टि की / चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के काटे जैसा / कैसे कटे रात की दूरी ?’’

इसी तरह एक ध्वनि बिम्ब भी देखिए -
‘‘गीत तुम्हें गा-गा कर हार गये। अनजाने भ्रम की इन लहरों ने / आ-आकर मुझको भरमाया है, पेड़ों की बाँसुरियों ने बजकर / बरबस ही मन को भटकाया है।’’

संग्रह के इन गीतों में आम आदमी की जिन्दगी कहीं मैले बिछौने के समान है या चूल्हे पर चढ़े फूटे भगौने के समान है अथवा भीड़ के बीच चाट कर फैंके गये दोने की तरह है। कहीं शंकाकुल जंगल में जीने की लाचारी है कि हर आँसू बह-बह कर सूख गया है। घी और सिन्दूर से भित्तियों पर जो सपनीले, शुभंकर साँतियें और हल्दी के छापे बनाये गये थे, वे आश्वासन के चमकीले चेहरे भ्रष्टाचारी-आतंकी अँधियारे ने ढाँप लिये हैं। सर्वत्र शातिर सन्नाटे की रौबदार ठकुराइन पसरी दिखायी देती है।

आज जब घिसे-पिटे शब्दों की मारक क्षमता मंथर होती जा रही है तब कविवर श्रीकृष्ण शर्माजी ने नये छन्द, नवीन प्रतीक एवं नूतन बिम्ब योजना के माध्यम से गीत को धारदार बनाया है।
इस संग्रह में कुल छियालीस गीत हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत के ऋतु चित्र सर्वथा नवीन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक गीतिका एवं एक प्रलम्ब गीत ‘अम्माँ की याद में’ लिखा गया है। इस अभिधात्मक गीत में अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करने वाली सर्वहारा माँ की संघर्ष-यात्रा का बड़ा कारुणिक एवं मार्मिक वृत्तान्त है। शेष सभी गीत नवगीतात्मकता से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें ‘गीत नवान्तर’ कहना अधिक उचित प्रतीत होता है।

इन गीतों में जो नयापन है उसमें कल्पना लोक के अविश्वसनीय वायवी चित्र नहीं हैं अपितु वर्तमान के यथार्थ का सहज स्वीकार्य एवं विश्वसनीय रेखाकंन है, जो भुक्त भोगियों के अहसास एवं आंचलिक पृष्ठभूमि के अत्यधिक सन्निकट हैं। प्राकृतिक सौन्दर्यानुराग को कवि ने प्राणवंत आंचलिक बोध प्रदान कर सर्वथा नये सन्दर्भों में प्रतिष्ठापित किया है, जो प्रशंसनीय है।
२३.११.२०१५
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गीत- नवगीत संग्रह - फागुन के हस्ताक्षर, रचनाकार- श्रीकृष्ण शर्मा, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २००६, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- ८६, समीक्षा - आचार्य भगवत दुबे।

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पुस्तक चर्चा:

फटे पाँवों में महावर - संजय शुक्ल

जगदीश पंकज 
नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर संजय शुक्ल यों तो पिछले कई वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा अनेक समवेत संकलनों में प्रकाशित अपने समीक्षा तथा मौलिक लेखन विशेषतः नवगीतों के द्वारा साहित्यिक परिवेश में स्थान बना चुके हैं। 'फटे पाँवों में महावर' उनका प्रथम नवगीत संग्रह, चाहे देर से ही सही, अनुभव प्रकाशन से प्रकाशित होकर आ चुका है। संजय शुक्ल के नवगीतों से मेरा पहला परिचय श्रद्धेय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी द्वारा सम्पादित समवेत संकलन, 'हरियर धान-रुपहले चावल' के माध्यम से हुआ।

प्रकाशित गीतों में कथ्य और शिल्प की नव्यता ने स्वतः आकर्षित कर लिया तथा मैं परिचय में दिए मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क करने से स्वयं को नहीं रोक पाया। प्रत्युत्तर में आयी आवाज ने मुझसे तुरन्त राजेन्द्र नगर, ग़ाज़ियाबाद स्थित 'वरिष्ठायन' में मिलने की इच्छा व्यक्त की। तब तक एक ही कॉलोनी में रहते हुए हमारा परिचय भी नहीं था। मिलने पर एक सहज-सरल व्यक्तित्व से सामना हुआ जो अपने लेखन की तरह ही आडम्बरहीन, विनीत एवं गंभीरता से पूर्ण था। इस परिचय के बाद मिलना होता रहा तथा नवगीत लेखन में उनके अनुभव, अध्ययन और वैचारिकी की जानकारी होती रही और संजय शुक्ल की साहित्यिक प्रतिभा की परतें खुलती रहीं। अनेक मित्रों द्वारा प्रोत्साहन के फलस्वरूप संकोची स्वभाव के संजय अपना यह संग्रह प्रकाशित करने का मन बना पाए जिसकी भूमिका नवगीत के शिखर पुरुष आद. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी ने तथा नवगीत दशक-३ के ख्यातिलब्ध नवगीतकार श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा लिखी गयी है। प्रस्तुत संग्रह में संजय शुक्ल ने अपने अड़सठ गीतों को स्थान दिया है।

'फटे पाँवों में महावर' के गीतों को पढ़ते हुए संजय शुक्ल की विषयगत विविधता का पता चलता है। रचनाएँ दैनिक जीवन से विषय लेकर बड़ी सहजता से नवगीत में ढल गयी लगती हैं जो कवि के सूक्ष्म-प्रेक्षण और घटनाओं के गहन विश्लेषण को दर्शाती हैं। किसी वाद अथवा खेमे से दूर कवि का अनुभवजन्य यथार्थ और सामान्य-जन के प्रति स्वाभाविक प्रतिबद्धता का सत्य, रचनाओं में स्वतः और अनायास अभिव्यक्त हुआ है। समसामयिक परिदृश्य और उस पर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप सर्जना ही संग्रह की केन्द्रीय वैचारिकी है। पारिवारिक रिश्ते, बदलते सामाजिक मूल्य, वैश्वीकरण की संस्कृति, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद, निम्न और मध्यमवर्गीय व्यक्ति की इस दौर की विवशताएँ, राजनीति और अर्थनीति के जाल में जकड़े सामान्य-जन का कष्टमय जीवन जैसे विषय संग्रह के गीतों में संजय की सरल और सहज संप्रेषणीय शैली में व्यक्त हुए हैं। संग्रह का शीर्षक-गीत भी निर्माण कार्य से जुड़ी मजदूरिन की व्यथा की अभिव्यक्ति है जो श्रमशील रहते हुए और अपने दुःखों को भूलते हुए रुँधे कंठ से मंगल गाकर फटे हुए पाँवों में महावर रच रही है।

संग्रह के गीतों के माध्यम से संजय शुक्ल के रचना-कर्म पर प्रतिक्रिया करते हुए उनके कथ्य-वैविध्य का ध्यान रखना आवश्यक है। यों तो मैंने एक ही नज़र में संग्रह के गीतों को पढ़ लिया था किन्तु प्रतिक्रिया लेखन के लिए अपनी सुविधा के लिए श्रेणीबद्ध करके पुनः पढ़ने का प्रयास किया है। पारिवारिक रिश्तों की उष्णता और भावुक बिंदुओं को व्यक्त करते हुए संजय ने पिता, माता, पत्नी और पुत्री आदि को गीतों का विषय बना कर मानवीय तंतुओं को बुनकर शब्दाङ्कित किया है। संग्रह का प्रथम गीत 'जगती आँखों का सपना' में संयुक्त परिवार की सौहार्दपूर्ण संरचना को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है।

'निधि भविष्य की बचा पिता ने
वर्तमान निधिहीन बिताया
किया खंडहर खुद को पहले
तब यह छोटा घर बनवाया
बाँट दिया पूरा का पूरा
माँ ने खुद को पूरे घर में
उठें न आँगन में दीवारें
जीती है निशिदिन इस डर में
महल रहे या रहे मड़ैया
दूर न जाए छुटका भैया
जगती आँखों एक प्रवासी
यह सपना देखा करता है'

'एक नदी इस आँगन में' गीत के केंद्र में जहाँ पत्नी है वहीँ 'साँचे में ढली' में बेटी की बालसुलभ क्रियाओं को वात्सल्य पूर्ण ढंग से चित्रित किया है। 'पिता आपका हाथ' तथा 'अक्षय मिली धरोहर तुम से' गीतों में दिवंगत पिताश्री को याद करते हुए मार्मिक अनुभूतियों के चित्र उकेर दिए हैं। व्यक्तिगत होते हुए भी गीतों की पंक्तियाँ पाठक की संवेदनाओं को छू रही हैं। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं।

'मेरे संग-संग
एक नदी इस आँगन में
होकर बेआवाज़
निरंतर बहती है!

मेरे सुख-दुःख
सब उसने अपनाये हैं
बिना कहे वह
सब कुछ मुझसे कहती है!

डूबा उतराया मैं
उसकी धारा में
मेरी अंतर्ज्वाला
में वह दहती है!

हर अभाव में भी
चुप-चुप वह जी लेती
सब को सुख देकर
वह खुद दुःख सहती है!'

(एक नदी इस आँगन में)

'फूलों-से हाथों से नन्हीं कली
चोकर से, चून से खेलने चली' (साँचे में ढली)

'अक्षय मिली धरोहर तुम से' गीत में पिता के चले जाने पर पारिवारिक संबंधों को भावुकता को बड़ी ही मार्मिकता से उकेरा है कि एक घटना सगे-सम्बन्धियों के मन-मस्तिष्क को किस प्रकार प्रभावित करती है और सबसे अधिक माँ की मनस्थिति किस तरह हो जाती है।

'पिता! नहीं हो अब तुम घर में
घर भी कहाँ रहा अब घर में
शेष न कुछ अब रहा पूर्व-सा
अंतरंग सब लगे अन्य से

'माँ जो थी कल तक पटरानी
लगती जीती बाजी हारी
देख रहे दो नयन अभागे
'सूखी एक नदी बिनु बारी
झर-झर पंजर होती जाती
असमय दुर्बल काया
टूट रहा कुछ ज्यों अंतर में!'

हर सजग साहित्यकार अपने समय की धड़कन को अपने लेखन में प्रतिक्रिया के तौर पर व्यक्त करता है। संजय शुक्ल ने भी अपने परिवेश के यथार्थ का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए अपने नवगीतों में चित्रित किया है। आधुनिकता और पश्चिम की अंधी नक़ल, वैश्विकता, बाजारीकरण, उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौंध ने निम्न तथा मध्यम वर्ग को भागमभाग में डाल दिया है जहाँ वह अनावश्यक प्रतियोगिताओं में घिर गया है। परिस्थितियों के द्वन्द्व में मानवीय चेतना किस प्रकार निर्मित हो रही है, इस तथ्य को संजय ने अपने अनेक गीतों में अभिव्यक्ति दी है। 'कहाँ गया?' गीत में-

'अपनों से सब घिरे हुए हैं
पर अपनापन कहाँ गया?'

वहीँ 'हाथ ही हिलने लगे' गीत में-

'क्या हुआ यह किस तरह अब
आप, हम मिलने लगे
देख कर केवल हवा में
हाथ ही हिलने लगे'

इसी के साथ 'हो रहे कुंठित भगीरथ' में इस समय की पंकिल होती मुख्य धारा को बताते हुए 'टीले हँसते हैं' रचना में आदमी के सस्ते होने की ओर संकेत करते हुए कहते हैं-

'इस बस्ती में सब कुछ महँगा
बन्दे सस्ते हैं!
कंचनजंघा पर रेतीले
टीले हँसते हैं!
होकर हकले, बहरे, अंधे
बन्दे बसते हैं!'

हर व्यक्ति विशेषकर वेतनभोगी कर्मचारी का सपना होता है कि उसका अपना घर हो और इस लालसा में वह प्रॉपर्टी के दलालों के चंगुल में फँस जाता है। संजय ने ऐसे दलालों के हथकंडों का अपने गीत 'वेतन धारी तू चला किधर' में बड़ी कुशलता से वर्णन किया है-

'बैठे फैलाए मोह जाल
ये हैं प्रॉपर्टी के दलाल!
घर क्या, घर के सपने पर ही
चलवा देते हैं ये कुदाल'
.
दूर देश से जीविका के लिए शहरों में आये लोगों के अपने परिवार और उससे जुड़े भावुक अनुभव और सोच मन-मस्तिष्क में जब घुमड़ते हैं तब उस मनःस्थिति में आने वाले विचारों को बड़ी मार्मिकता से कई गीतों में व्यक्त करके संजय परकाया प्रवेश को सजीव कर देते हैं। 'उड़ते मेघों की निष्ठुरता' तथा 'ठीक बरस भर बाद सुखनवा' गीत इसी कथ्य पर आधारित हैं। इसी क्रम में 'भोग चले दो दिन की कारा' गीत में माता-पिता अपने बेटे के घर आकर भी स्वयं को अजनबीपन से घिरा पाते हैं जहाँ बेटे के पास माँ-बाप के लिए समय ही नहीं है।

'मात-पिता को बेटे के घर
आकर पड़ा बहुत पछताना
बैठे गुमसुम रहे 'ट्रेन' में
भोग चले दो दिन की कारा
लौट आये क्यों इतनी जल्दी
गाँव यही पूछेगा सारा
मुट्ठी बंद न पड़े खोलनी
ढूँढ रहे थे उचित बहाना'

जीवन को उसकी स्वाभाविकता में जीने के पक्षधर संजय अपने गीतों में इस तथ्य को पूरी सफलता से उकेरते हैं। 'पीर पयम्बर क्यों बनता है', 'बाहर से संसारी बनिए', ऐसी ही रचनाएँ हैं। महानगरीय जीवन की भागमभाग में जीविका के लिए निकलने वाले व्यक्ति का अनुभव शाम तक कितना थकानमय हो जाता है तथा उस जीवन की रसमयता किस प्रकार प्रभावित हो रही है, इस अनुभूति के कई गीत संग्रह की जान हैं। परिवेश की सच्चाई को सरलता से व्यक्त कर देना संजय की अपनी विशिष्ट शैली है। संग्रह के गीत, 'भीड़ से बचते-बचाते हम', 'चुभती रही सुई','काल करता है ठगी', आलापें विवश -राग','मुनाफे की खटपट' ऐसी ही रचनाएँ हैं।

'भीड़ से बचते बचाते हम
साँझ ढलते लौट आते घर!

रोज घर से निकलते जितना
लौट पाते हैं कहाँ उतना
छूट जाता है स्वतः ही कुछ
छोड़ आते हैं स्वयं कितना

रीढ़ से सधते -सधाते हम
पीठ पर ही शहर लाते धर.

समकालीन राजनीति और राजनेताओं का आम जनता के साथ व्यवहार, लुभावने नारे देना और फिर उनसे मुकर जाना, आम जन का स्वयं को ठगा सा महसूस करना इस दौर का अघोषित सत्य बन गया है। संजय ने अपने गीतों में इस खुरदरे यथार्थ का अनेक स्थानों पर वर्णन किया है। केवल राजनेता ही नहीं बल्कि सत्ता शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों का आचरण भी मोहभंग कर रहा है। फिर भी आशावादिता को गीतों में शब्दाङ्कित करते हुए संजय कह रहे हैं-

'आप बिगाड़ रहे मुँह जितना
पानी उतना हुआ न खारा ' (कीच उछाली अपने घर पर)

और फिर कहते हैं-

'पल-पल रंग बदलते युग में
साथी तुम्हें बदलना होगा
नेपथ्यों की ओर मंच से
साथी, तुम्हें खिसकना होगा ' (साथी तुम्हें बदलना होगा)

क्योंकि अभी अग्नि की सब लपटों का रंग लाल नहीं हुआ है। 'ऐसा भी होगा' गीत की पंक्तियाँ कह रहीं हैं-

चकाचौंध सत्ता की आँखें
देख नहीं पातीं अँधियारा
इस अँधियारे से निकलेगा
कभी दहकता सा अंगारा
मलबा बन जाएगा पल में
रत्नजड़ित, स्वर्णिम मुकुटों का'

अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए 'घोष क्रांतियों का बन जाता' गीत में कहा-

'धर्म तुला पर आज बंधुवर
हमको तुमको तुलना होगा।
मंतव्यों से वक्तव्यों के
मध्य अनकहा जो रह जाता
होकर एक दिवस वह मुखरित
घोष क्रांतियों का बन जाता
कहना होगा उसे समय पर
उसे समय पर सुनना होगा'

और फिर स्वीकारोक्ति का गीत 'मैं स्वर में गाया जाता हूँ'-

साथ रहा मैं सदा सत्य के
फिर भी झुठलाया जाता हूँ

चुप रहता हूँ पर मुझको
मत समझो गूँगा
दिल की सब बातों का उत्तर
दिल से दूँगा

बाँचो मत तुम मुझे गद्य-सा
मैं स्वर में गाया जाता हूँ'

और आगे जाकर 'सूफियों की गाह' में अपनी चुनी राह पर किसी संशय का निषेध करते हुए संजय शुक्ल कह देते हैं-

'संशय नहीं उस राह पर
जो राह है हमने चुनी
हम भीड़ से कुछ हैं अलग
जिद्दी कहो या फिर धुनी'

संग्रह के गीतों को पढ़ते हुए अपनेपन का अनुभव होना संजय की सर्जना की विशेषता है। प्रस्तुत गीत संग्रह अपनी भाषा, कथ्य और शिल्प की नव्यता तथा सम्प्रेषणीयता के द्वारा संजय शुक्ल के परिपक्व लेखन का सार्थक साक्ष्य है जो पाठक के मन मस्तिष्क को सहलाता हुआ हृदय तक उतर कर मर्म को छू रहा है तथा मानवीय ज्ञानात्मक संवेदना की सफल कलात्मक अभिव्यक्ति का गीतात्मक आलेख बन गया है। आशा है संग्रह विस्तृत साहित्य प्रेमी पाठकों में विमर्श और सराहना प्राप्त करेगा। अपने इस प्रथम संचयन के माध्यम से जिस तरह संजय शुक्ल ने उपस्थिति दर्ज की है वह उनसे भावी उत्कृष्ट लेखन के लिए आश्वस्त करता है। संग्रह हर तरह से पठनीय, उद्धरणीय और संग्रहणीय है।
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गीत- नवगीत संग्रह - फटे पाँवों में महावर, रचनाकार- संजय शुक्ल, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद । प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- पेपर बैक १८० एवं सजिल्द- २५०  रुपये, पृष्ठ-१०४, समीक्षा- जगदीश पंकज।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

सभाध्यक्ष हँस रहा है- सत्यनारायण

डॉ. राजेन्द्र गौतम
’सभाध्यक्ष हँस रहा है‘ की कविताएँ तीन खंडों में विभाजित हैं। ये खंड हैं- ’जलतरंग आठ पहर का !‘, ’जंगल मुंतजिर है‘ तथा ’लोकतंत्र में‘, जिसमें क्रमशः चवालिस गीत, उन्नीस छंद-मुक्त कविताएँ तथा छः नुक्कड़ कविताएँ संग्रहीत हैं।
नवगीत अपने समय के मनुष्य के साथ छाया की तरह लगा रह कर भी अँधेरे में भी उसका साथ नहीं छोड़ रहा है। खेत में खटता किसान, कल-कारखानों का मजदूर, भेद-संहिता की शिकार नारी, स्नेहवंचित शैशव और ऐसे ही और-और संदर्भ अंततः एक समूह के पर्याय हो जाते हैं। जिनका एकमात्र सार्थक नाम है-’जन‘। इस ’जन‘ के सारे सपने, सारी आकांक्षाएँ और सारे सुख जिसके पास गिरवी हैं, उसके भले से नाम हैं ’व्यवस्था‘ और ’सत्ता‘ की निरंकुशता की कहानी ही अधिक कहते हैं।
क्योंकि आज पूरी शोषण-प्रक्रिया भी जटिल और परोक्ष हो गई है, इसलिए कवि का, विसंगतियों पर प्रहार उपहासपरक अधिक है, सपाट नारेबाजी उसका अंदाज-बयाँ नहीं है बल्कि इनका स्वर कुछ ऐसा है;

सुनो कबीर कहत है साधो !
हम माटी के खेल खिलौने
बिकते आए औने-पौने
हम ठहरे भोले भंडारी
खूँटे से बाँधो या नाधो !...
यह बहुत साफ है कि आज हम एक अंधी दौड़ में हैं। सपनों का एक तिलिस्म समय ने हम सबके हाथ में पकड़ा दिया है। जीवन के सारे सत्यों का निर्धारण विज्ञापन के अपुष्ट तथ्यों से हो रहा है। यह रंगीन समय लगता है, हमारे सारे सुकून के पलों को छीन ले जाएगा। भविष्य यदि संकटग्रस्त होता है तो मनुष्यता के लिए यह सबसे अधिक चिंता की बात होती है। हमारा भविष्य ’बचपन‘ में प्रतीकित होता है। सत्यनारायण आने वाले समय की भयावहता को रेखांकित करते हुए अपनी नन्हीं पोती ’एका‘ को सम्बोधित करते हुए सम्पूर्ण शैशव की मनुष्यत्व के भविष्य की संकटग्रस्तता को इस प्रकार रेखांकित करते हैं:
एका, आनेवाला है कल समय कठिन !
दांत समय के होंगे ज्यादा ही पैने
बिखरे होंगे तोते मैनों के डैने
नहीं रहेंगे कथा-कहानी वाले दिन !
सत्यनारायण ने अपने समय की विसंगतियों को ’बोधगया‘ ’पाटलिपुत्र‘ ’वैशाली‘ तथा ’अयोध्या‘ जैसी रचनाओं में नये मिथक गढ़ कर व्यक्त किया हैं। एक समय निराला ने साधारण जन से नामों को उठाकर उन्हें कविता में मिथक के रूप में असाधारणीकृत किया था, जिस शैली को आगे चलकर रघुवीर सहाय ने भी अपनाया था ! श्रीकान्त वर्मा के ’मगध‘ के साथ इतिहास के मिथकीरण की शैली एक नये रूप में हमारे सामने आती है परन्तु सत्यनारायण ने इतिहास और संस्कृति के इन केन्द्रों को जिस रूप में अर्थवत्ता दी है, वह अद्भुत है। उनकी निजता उनकी व्यंग्यात्मकता में है। वर्तमान में मूल्यों का विपर्याय सत्ता केन्द्रों के साथ जुड़ी अवधारणाओं की सम्पूर्ण मूल्यवत्ता को खंडित कर देता है। उसी विसंगत और विद्रूप का रेखांकन कब से वैशाली‘ की मार्मिक व्यंजना हो या नहीं पाटलिपुत्र नहीं हम केवल ’कुम्हरार‘ की जन-संवेदना हो, अथवा ’बोधगया में अब उलटी आ रही हवाएँ की विडम्बना हो कवि के पास भाषा की वह ऊर्जा है जो कथ्य हो रागदीप्त करती है। सफल मिथक वर्तमान से जुड़ कर सार्थक होता है। निम्न पंक्तियाँ ऐसी सफलता का मानक कही जा सकती हैं:
गणाध्यक्ष गणतंत्र, सभासद
सबके मेले हैं वैशाली में
साथ तथागत अब तो लगता है
नगरवधू होकर जीने को विवश आम्रपाली !

किसी कवि की मूल चिंताएँ उसकी कविताओं में आवर्त्ती बिम्बों में व्यक्त हुआ करती हैं। सत्यनारायण ने इस संग्रह में आधा-दर्जन कविताएँ बच्चों को लेकर, उनके भविष्य को लेकर संकलित की हैं। बच्चों की संत्रणा को चित्रित करने वाली ये कविताएँ संवेदना के धरातल पर उन सूचीबद्ध कविताओं से अलग हैं, जो नौंवे दशक में चिड़िया पर आठ कविताएँ, लड़की पर दस कविताएँ और पेड़ पर बारह कविताएँ जैसे शीर्षकों से फैशन के रूप में लिखी गई थीं। दरअसल, फैशन से नहीं, पैशन से प्रभावपूर्ण बनती हैं। बच्चों से सम्बन्धित पैशेनेट् कविता-अंश देखा जा सकता है। 
बच्चे-अक्सर चुप रहते हैं !
कौन चुरा कर ले जाता है
इनके होंठों की फुलझड़ियाँ
बिखरी-बिखरी-सी लगती क्यों
मानिक-मोती की ये लड़ियों
इनकी डरी-डरी आँखों में
किन दहशतों के नाम पते हैं ?

सत्यनारायण के पास गीत रचने की जितनी तरल संवेदनात्मक हार्दिकता है, मुक्त छंद में बौद्धिक प्रखरता से सम्पन्न उतनी दीप्त और वैचारिक भी है। एक विवश छटपटाहट उनकी कविताओं में विशेषतः उपलब्ध होती है, जिसका मूल कारण आम आदमी की यंत्रणा के सिलसिले का टूट न पाना है। ’जंगल मुंतजिर है‘ की उन्नीस कविताएँ कवि के एक दूसरे सशक्त पक्ष का उद्घाटन करती हैं। शब्द की सही शक्ति का अन्वेषण ये कविताएँ एक व्यापक फलक का उद्घाटन करती है।

कवि यह भी मानता है कि ’अकेला‘ शब्द निहत्था होता है। उसके हाथ में और शब्दों के हाथ दे दो... वह हर मौसम में खड़ा रहेगा तनकर।‘ ’माँ की याद‘ और ’बाबूजी‘ यदि नये समय की परिवारों पर पड़ती चोट को व्यक्त करती कविताएँ हैं तो ’यक्ष-प्रश्न‘ फिर पौराणिकता में लौट कर नये सवालों को हल करने का प्रयास है। कवि को सबसे अधिक कष्ट यथा स्थितिवाद से है। इसीलिए वह सवाल करता है:

आखिर कब तक यों ही चलेगा
और तुम लगातार बर्दाश्त
करते रहोगे ?
मत भूलो,
खेत में खड़ी बेजुबान फसल की तरह
वह तुम हो
जिसे बार-बार मौसम का पाला मार जाता है।


पाठक और श्रोता तक पहुँचने के लिए कविता आज अँधेरे में कुछ टटोलते व्यक्ति का बिम्ब नजर आती है। न धूमिल का अक्षरों के बीच गिरा आदमी आज कविता के साथ जुड़ा है और न कोई मोचीराम उस तक पहुँच पा रहा है। कविता से समाज की इतनी अजनबीयत है शायद ही किसी दौर में रही हो। आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि कविता के युग-नायक अपनी गजदंती मीनारों की ऊँचाइयों में बैठ यह देख नहीं रहे हैं कि उन्हें पढ़ा भी जा रहा या नहीं। सत्यनारायण ने तीन दशक पहले ही इस खम्बे से टकराकर जो रास्ता निकाला था, वह आम आदमी के कविता से जुड़ने का सही मार्ग है। उनकी नुक्कड़ कविताएँ जे.पी. आंदोलन में यदि लाखों की भीड़ में सुनीं, समझी और सराही जा सकती थीं, तो इससे बड़ कर कविता की सम्प्रेषणीयता क्या हो सकती है ! ’सभाध्यक्ष हँस रहा है‘ के लोकतंत्र खंड की रचनाओं की यही सबसे बड़ी शक्ति और सार्थकता है। विदूषक परिवेश में भाषा का यह रूप ही सत्य को अनावृत्त कर पाता है।

राजा रहे सलामत, परजा
झुक-झुक दुआ करे !
पाँच बरस पर राजा जाए
परजा के घर-द्वार
गद्गद् परजा किया करे
राजा की जय-जयकार

यह संग्रह समय की भयावहता और अँधेरों को चिन्हित तो करता है पर यह निराशा की कविता नहीं है। जब कविता इतने-इतने रंगों में जीवित है; पसीने से लथपथ होकर भी आम आदमी के पास खड़ी है, संस्कृति का नया अध्याय रच रही है, तब हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ नष्ट हो गया है, हमारे हाथों में कुछ बचाया नहीं हैं। जिस युग में कवि के भीतर हँसते सभाध्यक्ष पर व्यंग्य के कोड़े बरसाने का साहस जिंदा है, उस युग से निराश नहीं हुआ जा सकता !
सत्यनारायण की पाठक से गुपचुप संवाद करती ये कविताएँ हमारे पास यही संकेत छोड़ती हैं।
४.११.२०१३ 
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गीत- नवगीत संग्रह - सभाध्यक्ष हँस रहा है, रचनाकार- सत्यनारायण, प्रकाशक- अभिरुचि प्रकाशन, ३/१४ कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- २०१२, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १००, समीक्षा लेखक- डॉ. राजेन्द्र गौतम 

पुस्तक चर्चा:

मनचाहा आकाश - सत्येन्द्र तिवारी

डॉ. मधु प्रधान 
गीत मन की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति है। टूटते -बिखरते मन की पीड़ा का गायन भी कभी यथार्थ की कटुताओं को व्यक्त करता, कभी प्रेरक बन भविष्य के नवनिर्माण की नींव गढ़ता है। जीवन की आपा-धापी में सुकून के पल दुर्लभ से प्रतीत होते हैं। ऐसी स्थिति में गीत-संगीत मनुष्य की दुखती रग को सहलाता है। मन के घावों पर मरहम रखता है। अनचाहे बंधनों से तन भले ही बंधा रहे पर मन की चिड़िया तो कल्पना के पंख फडफड़ा कर उड़ जाती है अपना आकाश छूने के लिये।

अनेक गीत-नवगीत - संग्रहों की भीड़ में सत्येंद्र तिवारी जी का गीत संग्रह "मनचाहा आकाश" को पढ़ना एक सुखद एहसास है। रचनाकार ने अपने काव्य-संग्रह में जीवन के विभिन्न पहलुओं को छुआ है। संग्रह के पहले गीत "राम ही मालिक है" में वर्तमान व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हुए रचनाकार कहता है -

जिसकी मुट्ठी में है ताकत
है उसका कानून

आतंकों के जश्न हो रहे, आश्वासन सुख नींद सो रहे
और चबाने को छोटे सुख, पैने सबके दाँत हो रहे
हड्डी से गरीब की करती
आजादी दातून
राम ही मालिक है

दूसरी रचना "शकुनि के पाँसे" में कवि का आक्रोश मुखर हो कर आया है-

जनगण के आँगन चौपड़ पर
जीते हैं शकुनि के पाँसे
वादे और दिलासे के हम
देख रहे खेल–तमाशे

खुशियों के हर दरवाजे पर
है बबूल की पहरेदारी।

राजनेताओं ने संविधान को खिलवाड़ बना दिया है जिससे उसकी मूल भावना ही तिरोहित हो गयी है।

बदल दिया संविधान को
राजमहल की वंशप्रथा ने
जाति धर्म के बँटवारों ने
मानवता की नई कथा ने।

दुर्व्यवस्था से आहत हर ओर से निराश हो कर कवि के मन में पलायन के भाव आ जाते हैं और वह कह उठता है -

कंक्रीट की तपती अंध गुफाओं में
ऊब गया मन
चलो गाँव की ओर चलें

माटी की सोंधी सुंगध को
खुशियों के उत्सुक प्रबंध को
आपा-धापी निगल गयी है
हर मौसम के सुखद छंद को।

मन अकुलाता है पर जिजीविषा उसे हारने नहीं देती। उसे एहसास होता है कि उसे जन्म दिया है माटी ने...
-दीपक हूँ माटी का...
दीपक का तो जन्म ही उजाला फैलाने के लिये हुआ है, उसका आत्म विश्वास जाग उठता है--

जूझा विपरीत हवाओं से
मुस्काकर पर बुझा नहीं।
नियति नटी ने सम्वेदन का
जो नेह भरा वो चुका नहीं।

कह कर कवि स्वयं को तो आत्म बल देता ही है, दूसरों को भी कभी हिम्मत न हारने की प्रेरणा देता है।
जब मनुष्य साहस कर कदम बढ़ाता है तो समूची कायनात उसका साथ देने लगती है। दूर बसे प्रिय की स्मृतियाँ कवि का संबल बन कर उसके अकेलेपन को मिटा देती हैं। देखें गीत "भीगी याद रही" की कुछ पंक्तियाँ -

माना तुम हो दूर किन्तु मैं
तनहा नहीं रहा
परछाई सी याद तुम्हारी
मेरे साथ रही।

गीत "मधुमास बाँध लें" उल्लास से परिपूर्ण मधुर गीत है। कुछ पंक्तियाँ देखें -

मन कहता है पंख खोल कर
मन चाहा आकाश बाँध लें

बहुत दिनों के बाद खुले हैं
अभिनन्दन वाले दरवाजे
मौसम रखता सगुन सलोने
निशिगंधा देती आवाजें

साँसों में खुशबु को घोले
मुस्काता मधुमास बाँध लें।

किन्तु समय कहाँ स्थिर रहता है। यायावर पाँव कहाँ ठहरे हैं। देखें गीत "हम बंजारे" में भटकन की व्यथा को -

हम बंजारे रहे बदलते
अपने ठौर ठिकाने को
कुछ दिन ठहरे और चल दिए...

कठिनाई का लोहा पीटें
साँस धौंकनी सी सुनते हैं
अधरों पर मुस्कान बिखेरें
सुख की चादर हम बुनते हैं।

जितना टूटे उतना जोड़े
जीवन ताने- बाने को।

संघर्षों के समय सुखद स्मृतियाँ शक्ति देती हैं, विशेषकर जब वह बचपन की हों। "बरखा में कागज की नौका” एक मधुर गीत है-

बरखा में कागज की नौका
याद दिलाती बचपन की

शिखरों से सागर तक भीगे
चले साथ हम बाँह पसारे
बिखरे सीप शंख से तट पर
निशा-मणि का रूप निहारे।

जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है आँखों पर स्वार्थ का पर्दा चढ़ने लगता है। वर्तमान समय में विभिन्न कारणों से परिवार बिखरते जा रहे हैं, रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। भावुक मन आहत हो कह उठता है -

अर्थ कुंठित हो रहे हैं
अर्थ युग में प्रीति के
वचन और सौगन्ध की
मत बात करना।

"अपनेपन को लगे भूलने", "सिसक रहे रिश्तों के", व "शहर बढ़े अजगर से" शीर्षक गीतों में बिखरन तथा टूटन को बड़ी बेबाकी से व्यक्त किया है। कवि ने महसूस किया है कि इन स्थितियों का कारण राजनैतिक व्यवस्थाएँ हैं। वह खीझ कर कह उठता है "राजा बड़े निकम्मे निकले" किन्तु केवल शिकायत करने से कुछ हासिल नहीं होगा कवि को अपनी जिम्मेदारी का एहसास है। उसे तो "प्यार का आखर बचाना है" तनाव भरे वातावरण में "प्यार का दम घुट रहा" अक्सर संवाद हीनता सम्बन्धों में दूरियों का कारण बन जाती है। कवि पुकारता है अपनों को "चलो चलें" गीत में-
चलो चलें मन
कहीं और हम चलो चलें

अब उस तट पर, जहाँ
मौन हिम से पिघले
दम घुटता है दर्द भरे
कोलाहल में।

स्वजनों का साथ हो तो सब अच्छा लगने लगता है। 'दिन फिर धूप नहाने वाले', 'समीर की बाँहों में', 'सुमन खिले है गाँव में' आदि गीतों में प्रकृति का मनमोहक चित्रण है। कवि का मूल स्वर प्रेम है। देखें -
खोल कर पंख को भर उड़ानें मधुर
ढूँढ खुशबू भरा गीत का मुग्ध घर
खिड़कियाँ हैं खुली, सामने है गगन...

और भी -
प्यास अधरों पर पलाशी हो गई
सुर्ख सेमल तन हुआ।

कवि के "आँगन में शब्द शब्द घुँघुरू सा" छनकता है। "आखर- आखर लय की सीढ़ी भावुक पाँव चढ़े" मन में "एक नदी बहती रहती है" फिर भी ''तृप्ति अधूरी रही आजतक''। कवि का बंजारा मन थका नहीं उसको तो दूर तक जाना है, उसे केवल अपनी पीड़ा ही नहीं सृष्टि में बिखरा दर्द भी आहत करता है। वर्तमान समय की विभीषिका को नवगीत "खूब उड़ता कबूतर" में बखूबी चित्रित किया गया है। "अंजुरी में ले आँसू" की पंक्ति -
चलो ऐसा कुछ करें
नम आँखें फिर से हँस दें
सच्ची मानवता के फिर से
सगुन सातिये रच दें

किन्तु सीमित साधन और सीमित दायरे में रहने वालों की स्थिति कुछ अलग होती है. कवि ने तालाब के माध्यम से कहा है -
हम तालाबों में बंधे हुए जल हैं।

हम क्या जानें शिखरों से
सागर की बातें
हम तो जान सके हैं केवल
कंकड़ की घातें।

उसे शिकायत है हर माँझी को
तुमने तो दे दिया किनारा
इतने पास रहे हम फिर भी
समझ सके ना दर्द हमारा।

मन में असमंजस की स्थिति आती है कि-

किस दिशा में चले हम
हर तरफ मावस मिली है।

ऐसी स्थिति में आक्रोश उभरना स्वाभाविक है-
शतरंज के मोहरे बने
हम सभी मानव जहाँ के।

और भी -

संशयों के भवन में
शान्ति की होती सभाएँ
पवन जैसी डोलती
निर्भीक बारूदी बलाएँ

स्वार्थ ने इंसानियत को
बना रखा अर्दली है।

वह राजनेताओं पर व्यंग करता है जो कभी रिटायर नहीं होते-
वृद्ध काँधों पर लड़ी शिक्षित जवानी जल रही
उम्मीद के स्तम्भ जर्जर संक्रमण बाहुबली है।
कवि का प्रश्न है-
किस ठौर हमें ले जायेगा अब पश्चिम का अन्धानुकरण।

कवि नव जवानों को आमंत्रण देता है- ओ नव जवान। जाग जा उठ एक जंग और कर। क्योंकि स्थितियाँ विषम हैं, संवेदनायें मर रही हैं, इंसान जानवर होता जा रहा है। आंतक और महँगाई की आग में इंसान जल रहा है -

पेड़ों पर खजूर के उन्नति
जा कर है ऐंठी
भूखे बच्चे लेकर गँवई
बिन छाया बैठी

महँगाई की कड़ी धुप में
लंघन चाटेगी
आश्वासन से नंगेपन को
कब तक ढाँपेगी।

भरोसे की गठरी चिन्दी चिन्दी हो गयी है। प्रतिभाओं को भूख और बेबसी तोड़ रही है। जिधर भी नजर जाती है, दर्द ही दर्द नजर आता है। प्रेम के मधुर गीत गाने वाले कवि को तब कहना पड़ता है -
एक मुश्त जो दर्द मिला है
टुकड़े टुकड़े काट रहे हैं
खंड खंड में मन की पीड़ा
हम गीतों में बाँट रहे है।

सिर धुनता रहता संविधान
है बेलगाम अब आजादी।

अंतिम गीत "खिलौने वाला” में जीवन को समग्र रूप में समेटने की चेष्टा की गयी है। खिलौनों के माध्यम से समाज में फैली विषमताओं को दूर कर सबके हित की कामना की गयी है। देखे-
पंछी की आजादी का
अधिकार बेचता हूँ
तूफानों में नौका की
पतवार बेचता हूँ

प्यार बढ़ाने को राखी के
तार बेचता हूँ।

ऐसे अनमोल खिलौने कौन नहीं लेना चाहेगा। ऐसा नहीं है कि संग्रह पूर्णता त्रुटिविहीन है, कहीं-कहीं पुनरावृति दोष है। एक शीर्षक से दो गीत होना खटकता है किन्तु गीतों के माधुर्य से सकुचा कर वे कमियाँ स्वतः ही नजरंदाज हो गयी हैं। यथार्थ, कल्पना और जिंदगी की कशमकश पर मधुरता के ताने-बाने से बुना, यह काव्य संग्रह पाठकों के लिये एक उपहार तुल्य है। इसके रचियता सत्येन्द्र तिवारी जी बधाई के पात्र हैं। उनकी अगली कृति की पाठकों को प्रतीक्षा रहेगी।
१५.४.२०१७ 
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गीत- नवगीत संग्रह - मनचाहा आकाश, रचनाकार- सत्येन्द्र तिवारी, प्रकाशक- शुभाञ्जली प्रकाशन, कानपुर-२०८०२३। प्रथम संस्करण- २०१६ मूल्य- पेपर बैक १८० तथा सजिल्द २५० रुपये, पृष्ठ-१२०, समीक्षा- डॉ. मधु प्रधान

समीक्षा

कृति चर्चा:

खुशबू सीली गलियों की- सीमा अग्रवाल

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है। गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीली गलियों की' के गीत रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं। 

गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है। सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करती हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में  ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है। 

सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं। धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आसमाँ में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आँकते हुए नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुए लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं

 'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है- तुम मुझे दो शब्द  और मैं  शब्द को गीतों में ढालूँ इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं। इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा मौन कितना बोलता है',  अनछुए पल मुट्ठियों में घेर कर', हर घड़ी ऐसे जियो जैसे यही बस खास है',  पंछियों ने कही कान में बात क्या? आदि हैं। पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य]  का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं। हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है। इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।

'फूलों का मकरंद चुराऊँ 
या पतझड़ के पात लिखूँ' (पृष्ठ ९८) में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक  प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है। 

'गीत कहाँ रुकते हैं 
बस बहते हैं तो बहते हैं' - (पृष्ठ १०९  में) २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६  अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६  संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है  कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है। 
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा - 
'बहुत दिनों के बाद 
हवा फिर से बहकी है' ... में रोला (११-१३)  प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में- 

'गौरैया आँगन में आ फिर से चहकी है
आग बुझे चूल्हे में शायद फिर दहकी है'

तथा 
'थकी-थकी अँगड़ाई चंचल हो बहकी है'  में  १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरे रोला छंद में हैं।  
'गेह तजो या देवों जागो 
बहुत हुआ निद्रा व्यापार' 

पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं। 'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में  २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०,  १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।

सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है। 'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप  हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों  समायोजन करा दिया है। तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक  छूने में समर्थ हैं।  

इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ,  वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:

पत्थरों के बीच इक 
झरना तलाशें 
आओ बो दें 
अब दरारों में चलो 
शुभकामनाएँ 
*

टूटती संभावनाओं 
के असंभव 
पंथ पर 
आओ, खोजें राहतों की 
कुछ रुचिर नूतन कलाएँ 
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:

उफ़, तुम्हारा मौन 
कितना बोलता है  
वक़्त की हर शाख पर 
बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास 
से पल 
अहाते में आज के 
मुस्कान भीगे 
गंध के कितने झरोखे 
खोलता है 

तुम अधूरे स्वप्न से 
होते गए 
और मैं होती रही 
केवल प्रतीक्षा

कब हुई ऊँची मुँडेरें  
भित्तियों से 
क्या पता? 
दिन निहोरा गीत 
रचते रह गए 
रातें अनमनी 
मरती रहीं 
केवल समीक्षा 

'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है। अंसार क़म्बरी  कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं। सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते, जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती। हँसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व हैं, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।' यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है। सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे।
५.१०.२०१५  
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गीत-नवगीत संग्रह- खुशबू सीली गलियों की, सीमा अग्रवाल, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा- संजीव सलिल।

समीक्षा

कृति चर्चा 

अँजुरी भर धूप - सुरेश कुमार पंडा

आचार्य संजीव  वर्मा 'सलिल'
नवगीत को साम्यवादियों की विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा जनीर मानकों की कैद से छुड़ा कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है। सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है।
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
* अधरों के किस्लाई किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम

सनातन शाश्वत अनुभुतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है। वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं। देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते।

अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टंगी रहीं आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें।

नवगीत की सरसता सहजता और ताजगी ही उसे गीतों से पृथक करती है। 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं। एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की क्ला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का।

सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं ओ नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते। सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा।

आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, लिखा है एक खत, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेर चंचल हुआ है, अनछुई उसांसें, तुम आये थे, अपने मन का हो लें, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं। सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है। सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है। यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है।
१.२.२०१८
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गीत नवगीत संग्रह- अँजुरी भर धूप, सुरेश कुमार पांडा,  वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर, प्रथम संस्करण, रु. १५०, पृष्ठ- १०४, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

 फिर उठेगा शोर एक दिन - शुभम श्रीवास्तव ओम

राजा अवस्थी 

कविता के उस हल्के में जहाँ देश का आम जन निवास करता है, कविता का गीतात्मक रुप सदैव उपस्थित रहा है और लगभग आधी सदी की निरन्तर दबंगई व षड़यंत्र को झेलने के बावजूद कविता की वास्तविक मुख्यधारा में नवगीत कविता ही है। नवगीत ने लगातार अपने समय को वाणी दी है और लगातार विकराल होते जा रहे समय में भी वह दृढ़ता व पूरे अपनत्व के साथ मनुष्य एवं मनुष्यता के पक्ष में खड़ा है।
मनुष्यता के पक्ष में खड़े नवगीत - कवियों की नई पीढ़ी में कवि शुभम श्रीवास्तव ओम का नाम काफी तेजी से उभरा है। शुभम श्रीवास्तव के प्रथम नवगीत संग्रह "फिर उठेगा शोर एक दिन" की नवगीत कविताओं को पढ़ते हुए कवि की जनसरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता को बहुत गहराई से समझा जा सकता है। यह नवगीत संग्रह अपने वैविध्यपूर्ण शिल्प के साथ विषय, कथ्य व भाषा को लेकर भी चौंकाने की हद तक पाठक को खुद से जोड़ता है।

समय और स्थितियाँ सदैव अपने साथ रोशनी और अँधेरा एक साथ लेकर ही गतिमान हैं। यह अवश्य है कि एक समय में एक स्थान में प्रकाश और अंधकार दोनों में से एक की ही उपस्थिति दिखाई पड़ती है। जब घनघोर अँधेरा छाया हुआ हो तब भी शुभम एक दर्पण उगाने की बात करते हैं।
अँधेरे वक्त में दर्पण उगाने की यह कल्पना उम्मीद के बचे रहने और बचाये रखने के संकल्प का ही प्रमाण है। वे लिखते हैं -
"है अँधेरा वक्त जब तक
आइए दर्पण उगायें
पेड़ परजीवी, नुकीले फूल
नरभक्षी हवायें
एक नन्ही-सी बया का
मुँह दबाती सभ्यतायें
प्रश्न करतीं अस्मितायें
मौन आदिम भूमिकायें
नहीं मरने दे रहीं पर
शिलालेखी आस्थायें। "

मुक्तिबोध जिस जटिल और अबूझ संवेदना की फैंटेसी रचते हुए उसे विकरालता की हद तक अबूझ बनाते हैं, वैसी ही विकट स्थितियों को शुभम श्रीवास्तव ओम अपने नवगीतों में बहुत सरलता से हमारे ज्ञानात्मक संवेदन से जोड़ते हुए संवेदनात्मक ज्ञान तक ले आते हैं। वे लिखते हैं -
"हाथ - पाँव अँधियारा नाथे,
रस्ता सही अबूझ
साजिश लादे हँसी उतरती
हँस लेने से सिर भन्नाता
गीले ठण्डे हाथों में ज्यों
कोई नंगा तार थमाता
आदिम प्रतिमाओं की चुप्पी
बौने बोते लूझ
क्रूर कहकहे लिए प्रश्न फिर
रात वही काली अनुबंधित
चुप रहना भी सख्त मना है
उत्तर देना भी प्रतिबंधित
कंधों पर बैताल चढ़े हैं
कहते उत्तर बूझ। "

कविता मनुष्य को अपने भीतर उम्मीद को बचाये रखने की सीख देती आई है, किन्तु शुभम श्रीवास्तव कोरी उम्मीद बँधाने वाले कवि नहीं हैं। वे कर्म के बल पर उम्मीदों को पूरा करने की बात करते हैं। कहते हैं -
"कब तक उम्मीदों के दम पर
दुनिया का संचालन होगा
घिसी-पिटी इस रूढ़वादिता
का कब तक अनुपालन होगा
आओ थाह लगाकर आयें
कहाँ छुपी है भोर
पर्वत तक झुक जायेगा
यदि हो प्रयास पुरजोर। "

शुभम श्रीवास्तव समय के छद्म को न केवल पहचानते हैं, बल्कि उसे अनावृत करने से भी नहीं चूकते। उनके नवगीत 'बेचैन उत्तरकाल' को देखें -
" चाहतें अश्लील, नंगा नाच
फाड़े आँख मन बदलाव
काटना जबरन अँगूठा
रोप मन में एकलव्यी भाव
लोग बौने सिर्फ ऊँची तख्तियों के दिन।"

अपने समकाल को अपनी कविता में अंकित करते हुए शुभम भाषा के भी जीवन्त प्रयोग करते हैं। इसी गीत में देखें -
भावनाएँ असहिष्णु, देह सहमी
काँपता कंकाल
बुलबीयर-सेंसेक्स,
उथली रात, उबली नींद, आँखें लाल
ड्राप कालें और बढ़ती दूरियों के दिन।।

'फिर उठेगा शोर एक दिन' की नवगीत कविताओं को पढ़ना, इनसे होकर गुजरना एक व्यापक दुनिया से होकर गुजरने जैसा अनुभव है। इन नवगीत कविताओं का पटल बहुत व्यापक है। इनमें हमारे अपनों का छद्म, विसंगति के विविध - विकराल और अनन्त रूप, व्याप्त भ्रष्टाचार, उम्मीदों का असमय मरण, बदलते हुए गाँव - शहर, सब कुछ जीवंत होता दिखता है। शुभम श्रीवास्तव घोषित रूप से नवगीत कवि हैं, इसलिए इनकी नवगीत कविताओं की पड़ताल करते हुए इनकी गीतात्मकता पर दृष्टि जाना स्वाभाविक है ;यद्यपि अपने कथ्य की प्रासंगिकता और दिन प्रतिदिन की ज़िन्दगी से जुड़े सवालों से भरे ये नवगीत पाठक की जिंदगी से जुड़े हुए हैं, तब भी गीतात्मकता का अपना महत्व तो है ही और यही वह तत्व है जो कविता के कथ्य को पाठक के भीतर तक पहुँचाता है एवं उसके प्रभाव को स्थायी बनाता है। इस संग्रह के अधिकांश गीतों की गीतात्मकता अपने श्रेष्ठ स्तर तक पहुँची हुई है, किन्तु कहीं - कहीं अनुपयुक्त शब्दों के चयन से लय व प्रवाह बाधित भी हुआ है, यद्यपि कुछ स्थलों पर कथ्य का दबाव भी इसका कारण हो सकता है।

शास्त्रकारों ने काव्य की तीन कोटियाँ बताई हैं। ये तीन कोटियाँ हैं - उत्तम, मध्यम और निम्न। उनके अनुसार व्यञ्जनागर्भी काव्य को उत्तम, लक्षणाधर्मी काव्य को मध्यम और अमिधामूलक काव्य को निम्न कोटि का काव्य माना जाता है। इस दृष्टि से भी शुभम श्रीवास्तव की कविताओं को श्रेष्ठ कोटि की कवितायें माना जा सकता है। दरअसल अर्थविस्तार की संभावनायें व्यञ्जना ही पैदा करती है और शुभम के नवगीतों में अनायास व्यञ्जना की पर्याप्तता मिलती है।
कुछ नवगीतों के अंश देखते हैं -
"देखते हैं कब छँटेगा ये धुँआ अब ?
आसमाँ बंजर, बनी बंधक उड़ानें
पर कुतरने के लिए सौ-सौ बहाने
धुंध आदमखोर छाई हर दिशा में
रंग गेहुँवन का हुआ है गेहुँवा अब।"
"नये दौर का नया ढंग है -
गुडमार्निंग से शुरू हुआ सब
गुडनाइट पर खत्म हुआ। "
" बंद कमरा, एक दर्पण, और तुम तितली /
आँख फाड़े देखती है ट्यूबलाइट
देह का ऐसे उघड़तापन
आँख पीती जा रही संकोच की बदली। "

नवगीत कविता वास्तव में लोक की ही सम्पत्ति है, क्योंकि इस कविता के तत्व लोक से ही आए हैं। इसीलिए नवगीत में लोकभाषा, लोकमान्यतायें, लोकसंस्कृति और लोकव्यवहार से लेकर लोक में मनाये जाने वाले सभी तीज - त्यौहार पूरे उल्लास और अर्थगाम्भीर्य के साथ उपस्थित हैं। ऐसा ही एक गीत है 'दबे पाँव फागुन' ; फागुन और बसंत का रिश्ता शाश्वत है। बसंत मन में फूटते या फूट चुके प्रणयगंधी अनुराग के पलने-पनपने का मौसम है। ऐसे में यह नवगीत एक सुन्दर और मोहक कथ्य के साथ उतरता है -
"भौजी की गाली खुश करती,
गाल लाल होते झिड़की पर
दिनभर में एकाध मर्तबा
तुम भी आ जातीं खिड़की पर
अपनी होली तभै मनेगी
अपने रंग रँगूँ जब तुमका।"

इस नवगीत संग्रह में फागुन और बसंत ही नहीं सावन की बारिस, जेठ की गर्मी, पूस की कड़कड़ाती ठण्ड एवं इस सबके बीच मनाये जाने वाले उत्सवों के अपनेपन के मध्य कहीं बढ़ते अजनबीपन को भी पढ़ा जा सकता है।

समकालीन गद्य कविता जिस आधुनिक भावबोध की बात करती है, वह सम्पूर्ण आधुनिक भावबोध, नई- टटकी- समकालीन भाषा, जटिलतम होता कथ्य शुभम श्रीवास्तव के नवगीतों में पूरी ऊर्जा के साथ उपस्थित है। मात्र २५ वर्ष की आयु का यह कवि नवगीत कविता में जिस भाव-बोध और भाषा बोध को लेकर आया है, वह अद्भुत और चौकाने वाला है। इनकी नवगीत कविताओं की भाषा में एक बिल्कुल नयी ही आहट सुनाई देती है। यद्यपि इनके उपयोग से कई जगह काव्यात्मकता में गतिरोध - सा भी आया है, किन्तु ये शब्द, इनकी उपस्थिति अपने समय की उपस्थिति को प्रामाणिक बनाते हैं।

व्यवस्था और परिवेश में आ रहे बदलाव को व्यक्त करने से कविता कभी चूकती नहीं। जहाँ राजनीति में स्त्रियों की बढ़ती भागीदारी ने उन्हें घर से निकाला है, वहीं लोकतंत्र में व्यवस्था के विरोध का एक अराजक माहौल भी पैदा हुआ है। यद्यपि यह विरोध कहाँ, कितना जरूरी है, यह प्रश्न अलग किन्तु महत्वपूर्ण है। तब भी शुभम लिखते हैं -
" पर्चे बाँटो /बसें जलाओ
काले झण्डे से दहलाओ
लोकतंत्र के हर पहलू को। "

किसी कविता को पढ़ते हुए कवि की दृष्टि को पढ़ना भी अनायास ही होता है, तो हम पाते हैं कि नवगीत कवि शुभम की दृष्टि और पीड़ा शिक्षा से वंचित पत्थर के दो टुकड़ों को बजाते - गाते बच्चे, पिटारी में साँप लेकर भीख मांगते बच्चे और भूख, गरीबी, गाली, अपमान, सब कुछ सहजता से सह - पी जाने वाले इन बच्चों की पीड़ा को भी अपनी कविता में ले आती है।
'बाल सपेरे भूख कमाते कोरस गाकर
भूख-गरीबी, गाली-झिड़की, सब स्वाभाविक
भीख माँगते तब आँखों में आँसू लाकर। "

कवि दृष्टि से कवि-ज्ञान और कवि-संवेदना मिलकर व्यञ्जना का वह वितान बनाने की दिशा में शुभम के कवि की यात्रा इस तरह अग्रसर होती देखी जा सकती है कि, जिससे कविता का केनवास व्यापक और बड़ा हो सके। ऐसा ही एक नवगीत 'अनुबंधों की खेती 'में वे लिखते हैं -
" बहुत देर डूबा-उतराया
मन में कोई मन का कोना।
सोख रही चिमनी सोंधापन
फीके कप बासी गर्माहट
डाइनिंग टेबल रोज देखता
है यह आपस की टकराहट
हर रिश्ते को डीठ लगी है
सपनों पर मुँहबंदी टोना।
बाँह थामती इक टहनी को
झूठे वादों से फुसलाकर
दिन की अपनी दिनचर्या है
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर
बूढ़े बादल की लाचारी
कितना मुश्किल बादल होना। "

शुभम अपने गीतों में कभी-कभी एक फैंटेसी - सी रचने की कोशिश करते हैं। जहाँ वे ऐसा करते हैं, वहाँ कविता अपने कई-कई संदर्भ रचती प्रतीत होती है। ऐसा ही एक नवगीत कविता है - 'भारी माहौल'
" लावा जैसे बहे-ढहे स्तूप पिघलकर
एक तिलस्मी धूप हँस रही बीच सड़क पर
......................................................
यह ठण्डाई चोट आग रह-रह भड़काती
दे अनिष्ट आगाह आँख खुलते फड़काती
खंजर जैसी शक्ल पा रहे हैं लोह बेडौल।"
एवं
"मेज पर कुछ पड़े चेहरे,
अपशकुन - सी गर्म जोशी
चंद मिनटों के लिए,
वह औपचारिक ताजपोशी
जो निठल्ले लोग थे,
ठण्डी पहाड़ी माँग बैठे।"

शुभम किसी - किसी गीत को बिना मुखड़े का ही रहने देते हैं। यह उनकी शैल्पिक प्रयोगशीलता भी हो सकती है, किन्तु गीत कविता की दृष्टि से इसे ठीक नहीं कहा जा सकता। किसी भी गीत का मुखड़ा अर्थ ही नहीं लय की दृष्टि से भी कविता के ' मूल ' की भाँति होता है। कोई भी कविता जब तक आवर्त नहीं रचती, वह अपने कविता होने की शर्त को पूरी तरह पूरा नहीं करती। गीत कविता में लय का भी एक आवर्त होता है, जिसे कोई भी कविता बार-बार पूरा करती है और यह आवर्त मुखड़े को मध्य में रखकर ही पूरा होता है। ऐसा ही बिना मुखड़े वाला नवगीत है 'आदिम गंधी बेला'। यद्यपि यह नवगीत अपने अपने कथ्य, प्रवाह और प्रभाव की दृष्टि से अच्छा नवगीत है, तब भी नवगीत कविता में शिल्प की दृष्टि से भी विचार किया ही जाना चाहिए ; क्योंकि यह शिल्प वह महत्वपूर्ण कारण है, जो कविता को जन तक ले जाने और इसे आम पाठक, श्रोता, भावुक के निकट बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इस संग्रह के रचनाकार की समय-दृष्टि प्रखर है। वह अपने नवगीतों में समय को इस तरह वर्तता है कि कविता अपने समय का दस्तावेजी पृष्ठ बन जाती है। जब वह -
"चुभते हैं कोलाज पुराने
सहमी हुई सदी की आँखें
दो तरफा संवेग पनपता
सारे आशय बगलें झाँकें
संकेतों ने अर्थ दिये
हालात बड़े संगीन।" कहता है तो इस सदी की स्थितियों और संभावनाओं के साथ पिछली सदी के अनुभवों को भी समेट लेता है।

शुभम श्रीवास्तव के इस नवगीत संग्रह "फिर उठेगा शोर एक दिन" के सभी नवगीतों को पढ़कर जो बात चौंकाती है, वह है एक नई शब्दावली की प्रबल आहट। वे डिजिटल होती दुनिया में प्रचलन में आ रहे शब्दों का बहुतायत में प्रयोग करते हैं। यथा - मैसेज, अनफ्रेंड, ब्लाक, पोक, बुल-बीयर, सेंसेक्स, ड्राप कालें, स्क्रीन, रोबोट - मन, डस्टबिन, हेडफोन, रिमिक्स, ब्रेड, कर्टसी, टावर, डी जे, गुडमाॅर्निंग, गुड नाइट, डिबेट, राईट, फाईट, बिट-बाइट, साईज, टैग, कोलाज, लोडिंग, असेम्बलिंग, इन्सेन्टिव, ओवरटाइम, नेटवर्क, रिट, स्टे आदि। यद्यपि जिस परिमाण में शुभम के नवगीतों में लोक और लोक के शब्द हैं, उनकी तुलना में अत्यल्प ही हैं, किन्तु आने वाले समय में भाषा में होने वाले घालमेल की आहट तो हैं ही। ऐसे शब्द कई जगह गीतात्मकता में अवरोध भी पैदा करते हैं। जैसा इनका वास्तविक उच्चारण होता है, गीत में प्रयुक्त होने पर ठीक वैसा उच्चारण नहीं रह जाता। गीतकार को यह सब भी देखना होगा। साहित्यकार को प्रवृत्तियों का पिछलग्गू होने से बचना चाहिए। उसका दायित्व अपनी भाषा, लोक, लय सबके संरक्षण का भी है। इसलिए अनियन्त्रित ढंग से हावी होती अनपेक्षित प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण की निरन्तर कोशिश करना भी उसका दायित्व होना चाहिए।

कविता में कथ्य बहुत महत्वपूर्ण चीज है, किन्तु बात जब नवगीत कविता की आती है, तो कथ्य को लय व प्रवाह में ढालकर कविता बना देना कवि की जवाबदारी है। कथ्य व विषय से समझौता किये बिना गीत में कहना ही तो उसकी चुनौती है, अन्यथा तो यहाँ गद्य भी कविता की श्रेणी में आ रहा है। इस दृष्टि से होने वाली चूकों से बचने की जरूरत है।

इस संग्रह के नवगीतों को पढ़ते हुए पाठक जिस राग बोध को जियेगा, वह राग बोध उसे गीतों को अपना ही राग बनाने का का काम करेगा। इसे पढ़कर जिन्दगी और समस्याओं को देखने की दृष्टि में कुछ नया भी जुड़ेगा, इसलिए भी यह संग्रह पढ़ा जाना चाहिए। इस संग्रह के कवि शुभम श्रीवास्तव को हार्दिक शुभकामनायें।
१.९.२०१८ 
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गीत नवगीत संग्रह- फिर उठेगा शोर एक दिन, रचनाकार- शुभम श्रीवास्तव ओम, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२०,महरौली,नई दिल्ली - ११००३०, प्रथम संस्करण२०१७, मूल्य- रु. २४०, पृष्ठ- ११२, समीक्षा- राजा अवस्थी, आईएसबीएन क्रमांक- ९७८८१७४०८७००३