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मंगलवार, 17 मई 2016

kazi nazarul islam

काजी नज़रुल इस्लाम - की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना 
                                                               आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
अवदान-सम्मान 
स्वाधीनता सत्याग्रहों तथा स्वातंत्रयोत्तर काल में राष्ट्रीय एकात्मता की मशाल को ज्योतित रखनेवाले महापुरुषों में अग्रगण्य काजी नज़रुल इस्लाम बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, प्रखर देशप्रेमी, सर्वधर्म समभाव के समर्थक तथा बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि रहे हैं। कविता में विद्रोह के स्वर प्रमुख होने के कारण वे 'विद्रोही कविकहे गये। वे संगीतज्ञसंगीतस्रष्टादार्शनिकगायक, वादकनाटककार तथा अभिनेता के रूप में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचारतथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है।  
जन्मपरिवार तथा संघर्ष-
बंगाल के बर्दवान जिले में पुरुलिया गाँव के काज़ी फ़कीर अहमद की बेग़म ज़ाहिदा खातून  ने माँ काली की कृपा से २४ मई १८९९ को एक पुत्र को जन्म दिया जिसे 'नज़रुल' नाम मिला। केवल ८ वर्ष की उम्र में १ बड़ा भाई२ छोटे भाई तथा एक छोटी बहिन को छोड़कर उनके वालिद का इंतकाल चल बसे। घोर गरीबी से जूझते हुए उन्होंने १० साल की आयु में मखतब का इम्तिहान पास कर अरबी-फारसी के साथ-साथ  भागवतमहाभारतरामायणपुराण और कुरआन आदि पढ़ीं और और पढ़ाईं तथा माँ काली की आराधना कर राष्ट्रीय चेतना का प्रथम तत्व सर्व धर्म सम भाव पाया।
रानीगंज,  बर्दवान के राजा से ७ रुपये छात्रवृत्तिमुफ्त शिक्षा तथा मुस्लिम छात्रावास में मुफ्त खाना-कपड़े की व्यवस्था होने पर वे पढ़ सके तथा कक्षा में प्रथम आये। समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य प्रधान नौटंकी करने वाले दल 'लीटोमें सम्मिलित होकर कलाकारों के लिये काव्यात्मक सवाल-जवाब लिख केवल ११ वर्ष की आयु में वे मुख्य 'कवियालबने। उन्होंने रेल गार्डों के घरों मेंबेकरी में १ रु. मासिक पर काम कर, संगीत गोष्ठियों में बाँसुरी वादन कर जीवनयापन के साधन जुटाये। आर्थिक संकट से जूझते नज़रुल को राष्ट्रीय चेतना का दूसरा तत्व आम लोगों की आर्थिक दुर्दशा के प्रति सहानुभूति यहीं मिला।    
पुलिस सब इंस्पेक्टर रफीकुल्ला ने गाँव त्रिशाल जिला मैमनपुर बांगला में नज़रुल को स्कूल में प्रवेश दिलाया। अंतिम वर्ष पूर्ण पूर्व  १८ वर्षीय नजरुल १९१७ में 'डबल कंपनीमें सैनिक शिक्षा लेकर ४९ वीं बंगाल रेजिमेंट के साथ नौशेरा उत्तर-पश्चिम सीमांत पर गए। वहाँ से कराची आकर वे 'कारपोरलके निम्नतम पद से उन्नति कर कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में १९१९ में 'हवलदारहुए। उन्हें आंग्ल शासन की भारतवासियों के प्रति नीति और भावना जानने-परखने का अवसर मिला। मई १९१९ में पहली गद्य रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा' (आवारा की आत्मकथा)जुलाई १९१९ में प्रसिद्ध कविता 'मुक्तितथा नज्म 'लीचीचोर'  ने उन्हें ख्यति दी। अंग्रेज सरकार उन्हें सब रजिस्ट्रार बनाना चाहा पर नजरुल ने स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों की सेना में भारतीयों के प्रति दुर्भाव और उत्पीड़न की भावना ने उन्हें राष्ट्रीय चेतना का तीसरे तत्व मुक्ति की चाह से जोड़ दिया।
सेना की नौकरी छोड़ कर वे बाल साहित्य प्रकाशक अली अकबर खाँ के साथ मार्च-अप्रैल १९२१ में पूर्वी बंगाल के दौलतपुर गाँवजिला तिपेराहैड ऑफिस कोमिल्ला गये। अली अकबर के मित्र वीरेंद्र के पिता श्री इंद्रकुमार सेनगुप्तमाँ बिराजसुन्दरीबहिन गिरिबालाभांजी प्रमिला उन्हें परिवार जनों की तरह स्नेह करते। वे बिराजसुंदरी को 'माँकहते। ब्रम्ह समाज से जुडी प्रमिला से २४ अप्रैल १९२४ को नजरुल ने विवाह कर लिया। नज्म 'रेशमी डोरमें ''तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतोआमार कंठे जड़ा ली'' अर्थात 'तुम लोग कैसे मेरे कंठ से मणिमाला की तरह लिपट गये हो?' लिखते नज़रुल को राष्ट्रीय चेतना का चौथा तत्व स्वदेशियों से अभिन्नता मिला।   
 'धूमकेतुपत्रिका में अंग्रेज शासन विरोधी लेखन के कारण १९२३ में मिले एक वर्ष के कारावास से छूटने पर वे कृष्ण नगर चले गये। विपन्नता से जूझते नजरुल ने प्रथम पुत्र तथा १९२८ में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह का नाम बुलबुल रखा। पुत्र अल्पजीवी हुआ किन्तु संग्रह चिरजीवी। 'दारिद्र्यशीर्षक रचना करने के साथ-साथ नजरुल ने अपने गाँव में विद्यालय खोला तथा 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनलका प्रथम अनुवाद किया। नज़रुल ने एक पंजाबी मौलवी की मदद से फारसी सीखफारसी महाकवि हाफ़िज़ की 'रुबाइयाते हाफ़िज़का अनुवाद किया।राजनैतिक व्यस्तताओं के कारण यह १९३० मेंदूसरा अनुवाद 'काब्यापारा१९३३ में छपे। ८ अगस्त १९४१ को टैगोर का निधन होने पर नजरुल ने २ कविताओं की आल इंडिया रेडिओ पर सस्वर प्रस्तुति कर श्रद्धान्जलि दी। यह नज़रुल की स्वतंत्र पहचान का प्रमाण था। 'रुबाइयाते हाफ़िज़का दूसरा भाग १९५२ में छपा तथा 'रुबाइयाते उमर खय्याम१९५९-६० में छपे। साम्यवाद ने नज़रुल को उपनिवेशवाद का विरोध तथा मुक्ति के लिए संघर्ष राष्ट्रीयता का पाँचवा तत्व दिया। 
सांप्रदायिक सद्भाव से राष्ट्रीयता का प्रचार 
हिन्दू मुस्लिम को लड़कर देश पर राज्य करने की अंग्रेजों की चाल को नकारतीं नजरुल की कृष्णभक्ति परक रचनाएँ व नाटक  खूब लोकप्रिय हुईं। वे यथार्थ पर आधारितप्रेम-गंध पूरितदेशी रागों और धुनों से सराबोरवीरतात्याग और करुणा प्रधान नाटक लिख-खेल राष्ट्रीय भावधारा बहाते थे। पारंपरिक रागों के साथ आधुनिक धुनों में विद्रोहीधूमकेतुभांगरगानराजबन्दिरजबानबंदी आदि  ३००० से अधिक  ओजस्वी बांगला गीति-रचनाएँ रच तथा गाकर, संगीत से जन-संघर्ष को सबल बनने काम नज़रुल ने लिया।  उनकी प्रमुख कृति 'नजरुल गीति' हैं। सांप्रदायिक कट्टरता या संकीर्णता से कोसों दूर नजरुल सांप्रदायिक सद्भाव के जीवंत प्रतीक हैं। रूद्र रचनावलीभाग १पृष्ठ ७०७ पर प्रकाशित रचना उनके साम्प्रदायिकता विहीनविचारों का दर्पण है- 
'हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सहनीय हैं 
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है 
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं।
चोटी में हिंदुत्व नहींशायद पांडित्य है
जैसे कि दाढ़ी में मुसल्मानत्व  नहींशायद मौल्वित्व है।
और इस पांडित्य और मौल्वित्व के चिन्हों को
बालों को लेकर दुनिया बाल की खाल का खेल खेल रही है 
आज जो लड़ाई छिड़ती है 
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है 
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा 
इंसान तो सदा लड़ा गाय-बकरे को लेकर।
विदेशी शासन के प्रति विद्रोह मंत्र-  
भारत माता की गुलामी के बंधनों को काट फेंकने का आव्हान करती उनकी रचनाओं ने उन्हें 'विद्रोही कविका विरुद दिलवाया। अंग्रेजी सत्ता के प्रतिबन्ध उनकी ओजस्वी वाणी को दबा नहीं सके। कविगायकसंगीतकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ दार्शनिक भी थे। नज़रुल ने मनुष्य पर मनुष्य के अत्याचारसामाजिक अनाचारनिर्बल के शोषणसाम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ सशक्त स्वर बुलंद किया। नजरुल ने अपने लेखन के माध्यम से जमीन से जुड़े सामाजिक सत्यों-तथ्यों का इंगित कर इंसानियत के हक में आवाज़ उठायी। वे कवीन्द्र रविन्द्र नाथ ठाकुर के पश्चात् बांगला के दूसरे महान कवि हैं। स्वाभिमानीजन समानता के पक्षधर नजरुल ने परम्परा तोड़ किसी शायर को उस्ताद नहीं बनाया। 
एक अफ़्रीकी कवि ने काव्य को रोष या क्रोध की उपज कहा है। नजरुल के सन्दर्भ में यह सही है। लोकप्रिय  'भंगार गानमें नजरुल का जुझारू और विद्रोही रूप दृष्टव्य है- 'करार आई लौह कपाटभेंगे फेल कार-रे लोपातरक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण वेदीअर्थात तोड़ डालो इस बंदीग्रह के लौह कपाटरक्त स्नात पत्थर की वेदी पाश-पाश कर दो/ जो वेदी रुपी देव के पूजन हेतु खड़ी की गयी है। 'बोलो! वीर बोलो!!उन्नत मम शीरअर्थात कहोहे वीर कहो कि मेरा शीश उन्नत है। श्री बारीन्द्र कुमार घोष के संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'बिजलीमें यह कविता प्रकाशित होने पर जनता ने इसे गाँधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आन्दोलन से जोड़कर देखा। वह अंक भारी मांग के कारण दुबारा छापना पड़ा। गुरुदेव ने स्वयं उनसे यह रचना सुनकर उन्हें आशीष दिया।  
रूसो के स्वतंत्रतासमानता और भ्रातत्व के सिद्धांत तथा रूस की क्रांति से प्रभावित नज़रुल ने साम्यवादी दल बंगाल के मुखिया होकर 'नौजूग' (नवयुग) पत्रिका निकाली। नजरुल द्वारा १९२२ में प्रकाशित 'जूग-बानी' (युग-वाणी) की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कविवर पन्त जी ने अपने कविता संग्रह को यही नाम दिया। काव्य संग्रह 'अग्निबीना' (१९२२)निबन्ध संग्रहों दुर्दिनेर जात्री (१९३८)रूद्र मंगल, 'वशीर बंसीतथा 'भंगारन' को अवैध घोषित कर तथा १६ जनवरी १९२३ को नज़रुल को कैद कर सरकार ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने में उनके योगदान को परोक्षतः स्वीकारा। नजरुल की राष्ट्रीय चेतनपरक क्रान्तिकारी गतिविधियों से त्रस्त  सरकार उन्हें बार-बार काराग्रह भेजती थी। जनवरी १९२३ में नजरुल ने ४० दिनों तक जेल में भूख-हड़ताल की। कारावासी नेताजी सुभाष ने उनकी प्रशंसा कर कहा- हम जैसे इंसान संगीत से दूर भागते हैंहममें भी जोश जाग रहा हैहम भी नजरुल की तरह गीत गाने लगेंगे। अब से हम 'मार्च पास्टके समय ऐसे ही गीत गायेंगे। ग्यारह माह के कारावास में असंख्य गीत और कवितायेँ रचकर पंद्रह दिसंबर १९२३ को नजरुल मुक्त किये गये। व्यंग्य रचना 'सुपेर बंदना' (जेल अधीक्षक की प्रार्थना) में नजरुल के लेखन का नया रूप सामने आया। 'एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल' (जो बेड़ी पहनी हमने वो केवल एक दिखावा है / इन्हें पहन निर्दयियों को ही कठिनाई में डाला है)। शोचनीय आर्थिक परिस्थिति के बाद भी नजरुल की गतिविधियाँ बढ़ती गयीं। गीत 'मरन-मरनमें 'एशो एशो ओगो मरन' (ओ री मृत्यु! आओ आओ) तथा कविता 'दुपहर अभिसारमें जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे? (कहाँ जा रहीं कहो अकेलीअलसाये बैसाख में) लिखते हुए नजरुल ने जनगण को निर्भयता का पाठ पढ़ाया। 
सन १९२४ में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन और कोंग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच स्वार्थपरक राजनैतिक समझौते पर नजरुल ने 'बदना गाडूर  पैक्टगीत में खिलाफत आन्दोलनजनित क्षणिक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर करारा व्यंग्य कर कहा 'हम ४० करोड़ भारतीय अलग-अलग निवास और विचारधारा में विभाजित होकर आज़ादी खो बैठे हैं। फिर एक बार संगठित होंजातिधर्म आदि के भेद-भाव भुलाकर शांतिसाम्यअन्नवस्त्र आदि अर्जित करें।सांप्रदायिक एकता को जी रहे नजरुल ने न केवल हिन्दू महिला को शरीके-हयात बनाया अपितु अपने चार बेटों के नाम कृष्ण मुहम्मदअरिंदम(शत्रुजयी)सव्यसाची (अर्जुन) व अनिरुद्ध (जिसे रोका न जा सकेश्रीकृष्ण का पौत्र) रखे। 
स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए नजरुल ने लिखा 'हे वीर! बोलो मेरा उन्नत सर देखाक्या कभी हिमाद्री शिखर ने अपना सर झुकाया?' आशय यह कि अंग्रेजों के सामने तुम भी कभी अपना सर मत झुकाओ। नजरुल ने गाँधी - चिंतन से असहमत होते हुए भी सत्याग्रह आन्दोलन संबंधी असंख्य गीत व् कवितायेँ रचकर अपना योगदान किया। 'ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आँगिनाये? तीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए' (बंदी माँ के आँगन में / जाता है कौन पथिक पागल? / तीस करोड़ बन्धु विस्मृत कर / मौत गा रहे गीत साथ मिल)। 
नजरुल कहते है: 'मुझे पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह के लिए उस ईश्वर का भेजा हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य-रक्षा और न्याय-प्राप्ति हेतु मैं सैनिक मात्र हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की हरी-भरी धरती पर जो आजकल किसी वशीकरण से वशीभूत हैभेजा है। मैं साधारण सैनिक मात्र हूँ। मैंने उसी ईश्वर के निर्देशों की पूर्ति करने यत्न किया है। नजरुल के क्रन्तिकारी विद्रोहात्मक विचार राष्ट्रीयतापरक गीतों में स्पष्ट हैं। दुर्गम गिरि कांतारमरू दुस्तर पारावार / लांघिते हाबे रात्रि निशीथेयात्रिरा हुँशियार (दुर्गम गिरि-वनविकट मरुस्थल / सागर का विस्तार / निशा-तिमिर मेंहमें लाँघनापथिक रहें होशियार)। एक छात्र सम्मलेन के उद्घाटन-अवसर पर नजरुल ने पारायण गीत गाया- आमरा शक्तिआमरा बलआमरा छात्र दल (हमारी शक्तिहमारा बलहमारा छात्र दल)। एक अन्य अवसर पर नजरुल ने गाया- चल रे चल चलऊर्ध्व गगने बाजे मादल / निम्ने उत्तला धरणि तलअरुण प्रान्तेर तरुण दलचल रे चल चल (चलो रे चलोनभ में ढोल बजे / नीचे धरती कंपित है / उषा-काल में युवकोंआगे और बढ़ो)। नजरुल के मुख्य कहानी संग्रह ब्याथार दान १९२२१९९२रिक्तेर बेदना १९२५ तथा श्यूलीमाला १९३१ हैं।         
नज़रुल राष्ट्रीयता के आंदोलनों में सक्रिय रहने के साथ-साथ चलचित्रों के माध्यम से जन चेतना जाग्रत करने में भी सफल हुए। सन १९४२ में मात्र ४३ वर्ष की आयु में नजरुल 'मोरबस पिक्सनामक घातक-विरल लाइलाज रोग से ग्रस्त हुए। सन १९६२ में पत्नी प्रमिला के निधन पश्चात् वे एकाकी रोग से जूझते रहे पर हार न मानी। सन १९७२ में नवनिर्मित बांग्ला देश सरकार के आमंत्रण पर भारत सरकार से अनुमति लेकर वे ढाका चले गये।  वे  २९ अगस्त १९७६ को परलोकवासी हुए।
नजरुल इस्लाम जैसे व्यक्तित्व और उनका कृतित्व कभी मरता नहीं। वे अपनी रचनाओंअपनी यादोंअपने शिष्यों और अपने कार्यों के रूप में अजर-अमर हो जाते हैं। वर्तमान विद्वेषविखंडनअविश्वासआतंक और अजनबियत के दौर में नजरुल का संघर्षनजरुल की राष्ट्रीयतानजरुल की सफलता और नजरुल का सम्मान नयी पीढ़ी के लिये प्रकाश स्तंभ की तरह है। कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'जगतारिणी पुरस्कारसे सम्मनित कर खुद को धन्य किया। रवीन्द्र भारती संस्था तथा ढाका विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्. उपाधि समर्पित की। भारत सरकार ने उन्हें १९६० में पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया गया। भारत ने १९९९ में एक स्मृति डाक टिकिट जारी किया। बांगला देश ने २८ जुलाई २०११ को एक स्मृति डाक टिकिट तथा ३ एकल और एक ४ डाक टिकिटों का सेट उनकी स्मृति में जारी किये।
काजी नजरुल इस्लाम की एक कविता की निम्न पंक्तियाँ उनके राष्ट्रवाद को विश्ववाद के रूप में परिभाषित करते हुए ज़ुल्मो-सितम के खात्मे की कामना करती हैं-  
"महाविद्रोही रण क्लांत 
आमि शेई दिन होबो क्लांत 
जोबे उतपीड़ितेर क्रंदनरोल 
आकाशे बातासे ध्वनिबे ना 
अत्याचारीर खंग-कृपाण  
भीम रणेभूमे रणेबे ना 
विद्रोही ओ रणेक्लांत 
आमि शेई दिन होबो शांत"                                                                                                                  
(मैं विद्रोही थक लड़ाई से भले गया
पर शांत तभी हो पाऊँगा जब 
आह या चीत्कार दुखी की 
आग न नभ में लगा सकेगी। 
और बंद तलवारें होंगी 
चलना अत्याचारी की जब 
तभी शांत  मैं हो पाऊँगा 
तभी शांत मैं हो जाऊँगा।)
२०४ विजय अपार्टमेंटनेपियर टाउनजबलपुर ४८२००१,  ९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com 

सोमवार, 16 मई 2016

एक क़ता

क़ता

तेरी शख़्सियत का मैं इक आईना हूँ
तो फिर क्यूँ अजब सी लगी ज़िन्दगी है

नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक
अज़ल से लबों पर वही तिश्नगी है

-आनन्द.पाठक-
09413395592
[अज़ल से = अनादि काल से]

dewdaru

देवदारु मन हो सके
संजीव
*
देवदारु-मन हो सके
बाधा-गिरि-आसीन
धरती में पग जमा-सुन
मेघ-सफलता-बीन
*
देवों से वरदान पा 
काम मनुज के आ रहा
पत्ते लकड़ी फूल फल
दोनों हाथ लुटा रहा
रिक्त न कोष कभी हुआ
हुआ न दाता दीन
देवदारु-मन हो सके
बाधा-गिरि-आसीन
*
लाभ अमर्यादित गहा
हम मानव पछता रहा
विकरण कॉस्मिक किरण का
देवदारु बतला रहा
शङ्क्वाकारी छत्र दे
शरण न छाया क्षीण
देवदारु-मन हो सके

बाधा-गिरि-आसीन
*
त्वचा रोग को दूर कर
मेटे सूजन-शीत भी
मजबूती दे भवन को
सज्जा करता घरों की
एक काट तो दस उगा
वसन न भू से छीन
देवों से वरदान पा 
काम मनुज के आ रहा
पत्ते लकड़ी फूल फल
दोनों हाथ लुटा रहा
रिक्त न कोष कभी हुआ
हुआ न दाता दीन
देवदारु-मन हो सके
बाधा-गिरि-आसीन
*
मिलिए देवदार से  
भगवान श्री कृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के हठ पर बैकुंठ से कल्पतरु भू पर ले आये तो देवलोक श्रीहीन हो गया। वहाँ अनियमिततायें फैलने, तपश्चर्या एवं सत्य पर आघात होने पर देवताओं ने श्रीकृष्ण से कहा- 'हे भगवन! कल्पतरु के अभाव में बैकुण्ठ श्रीहीन हो गया है।' श्रीकृष्ण ने कहा कि जहां श्री (लक्ष्मी) नहीं रहेगी वह स्थान तो श्रीहीन होगा ही। श्रीत्रयी (लक्ष्मी-सरस्वती-शक्ति) साक्षात विग्रह (सत्यभामा-रुक्मिणी-जाम्बवन्ती) रूप में धरती पर है। देवताओं ने विनटी की- 'हे प्रभो! आप तथा तीनो महादेवियों से वरदान पाकर श्री के भोग हेतु जो जन स्वर्ग आये है, उनका क्या होगा? क्या आप तथा त्रिदेवियों के वरदान निष्फल होंगे? तब श्रीकृष्ण एवं देवताओं ने त्रिदेवियोंसे प्रार्थना की। देवियों ने कहा 'कल्पतरु' के समान प्रभावी अन्य वृक्ष धरती पर हो तो कल्पतरु देवलोक को लौटाया जा सकता है। देवों ने अपनी शक्तिओं को एकत्रित कर कल्पतरु से भी श्रेष्ठ वृक्ष देवदार का निर्माण किया। कल्पतरु प्राणियों द्वारा किये पुण्य के बदले में उन्हें स्वर्गीय सुख देता था। पुण्य क्षीण होने पर प्राणी को वापस मृत्यु लोक आना पड़ता था। देवदार ऋद्धि-सिद्धि देने के साथ प्राणियों के पुण्यवर्द्धन का भी काम करता था।

देवदार के प्रभाव से भूवासी निर्व्याध हो सुख-चैन से रहने लगे। सात्विक गुणों ने प्राणियों की आयु में वृद्धि की। ब्रह्माण्ड का नियमन चक्र असंतुलित होने से जन्म, उत्सर्जन, संचलन, संवर्द्धन, पोषण, संश्लेषण, विश्लेषण आदि क्रियाएँ बाधित तथा देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, सिद्ध, तपस्वी आदि की चर्या अमर्यादित होने लगी। लोगो देवदार के स्वभाव, प्रभाव एवं शक्ति पर आश्रित हो शारीरिक एवं मानसिक श्रम से दूर भागने लगे। इस अनाचार एवं अव्यवस्था से घबराकर सभी लोग आशुतोष भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने कहा-
“यास्यत्यद्य तर्वन्शमभिगर्हितम प्रयुज्यते।
क्षयो जाते प्रभूतस्य खलु वृक्षं पुष्पान्वितम।”
अर्थात प्राणियों द्वारा इसके किसी भी अंश का अमर्यादित या अभिगर्हित प्रयोग होने पर इसकी शक्ति क्षीण हो कर इसमें फूल-फल लगने बंद हो जायेगें। सेवा सुश्रूषा से यदि देवदार वृक्ष फूले तो वह वृक्ष एवं पुष्प अनेक आदिदैविक, आदिभौतिक एवं आदिदैहिक विपदाओं का नाश कर देगा। लकड़ी को ईंधन व शव-दाह शव जलाना शुरू कर दिये। और इसमें फल-फूल लगना बंद हो गया। यदि देवदार वृक्ष फूले तो उसके पत्ते पुष्पों से आवृत्त कर घर में रखने से दरिद्रता, रोग, चिंता-भय आदि दूर हो जाते है।
गृहम रक्षति पत्रमस्य सर्वं गृहे पुष्प सन्युतम।
तर्वांगम नरं रक्षति यत्तरुवर सविग्रहम।”
देवदार के जवाकार पुष्पों के पराग कण तथा पत्ते का पर्णहरित (Chlorophyll & Chloroplast) क्रम विशेष से एक निश्चित एवं निर्धारित पद्धति से सजाकर रखने से ग्रह-नक्षत्र कृत कष्टों एवं विपदाओं का शमन होता है।

लद्दाख प्रान्त में वन्य चिकित्सक (ज्योतिषी)“आमची” कहे जाते है। वे देवदार के फूलो एवं पत्तो के संयोग से एक यंत्र बनाकर अनेक कठिन रोगों का सफल एवं स्थाई इलाज़ करते हैं। पश्तो भाषा में लिखित “विल्लाख चासू” नामक ज्योतिष ग्रन्थ के अनुसार आयसी (रेवती), मंचूक (अश्विनी), खन्श (मूल), दायला (मघा) एवं खिचास्तो (अश्लेषा) में जन्मे व्यक्तियों पर इस वृक्ष के पत्ते प्रभावी नहीं होते हैं। सरकार द्वारा देवदार के फूलनेवलोे वृक्ष सुरक्षित एवं प्रतिबंधित हैं। दुर्लभ होने के कारण देवदार के फूलों की काला बाजारी होती है।

देवदार पिनाएसिई वंश का शोभायमान,  फैलावदार, सदाबहार तथा दीर्घजीवी वृक्ष है। इसका  (वैज्ञानिक नाम सेडरस डेओडारा (Cedrus Deodara), संस्कृत नाम देवदारु, देवतरु, अंग्रेज़ी नाम हिमालयन सेडार Himalayan Cedar, उर्दू नाम  ديودار देओदार) है । यह पश्चिमी हिमालय, पूर्वी अफगानिस्तान, उत्तरु पाकिस्तान, उत्तर-मध्य भारत, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, दक्षिणी-पश्चिमी तिब्ब्त एवं पश्चिमी नेपाल में १५०० से ३५०० फुट की ऊँचाई पर होता है। इसे शोभा के लिये इंग्लैण्ड और अफ्रीका में भी उगाया जाता है। इसके बीज से पौधे उगाकर पहाड़ों पर रोप जाते हैं। अफ्रीका में इसे कलम से भी उगाया जाता है। यह सीधे तनेवाला, ४० मी. से ७५ मि. तक ऊँचा, २.५ मी. से ३.७५ मी. तक के घेरे वाला, सनोबर (फर) की तरह शङ्क्वाकारी वृक्ष है। इसके पत्ते हल्के हरे रंग के, मुलायम, लम्बे, कुछ गोलाई लिये तथा लकड़ी पीले रंग की, मजबूत, हल्की, सुगन्धयुक्त, सघन और रालयुक्त होती है। इसका तना बहुत मोटा होता है । इसकी श्रेष्ठ लकड़ी पर पानी, फफूंद तथा कीड़ों का असर नहीं होता। यह इमारती काम हेतु उपयुक्त होती है। देवदार लकड़ी का उपयोग रेल के स्लीपरों (लट्ठों), फर्नीचर, मकान के खिड़की-दरवाज़ों, अलमारियों, सोफे-कुर्सियों, पेन्सिल बनाने आदि में होता है। देवदार लकड़ी के छीलन और बुरादे से २.५% से ४% तक वाष्पशील तेल मिलता है जो 'हिमालयी सेडारवुड तेल' के नाम से प्रसिद्ध है। तेल निकलने के बाद बचा छीलन और बुरादा ईंधन के रूप में उपयोगी होते हैं 

देवदार का उपयोग आयुर्वेदिक औषधि व उपचार में भी होता है। इसलिए लकड़ी के भंजक आसवन से प्राप्त तेल त्वचा रोगों तथा भेड़-घोड़ों आदि के बाल के रोगों में किया जाता है। इसके पत्तों में अल्प वाष्पशील तेल के साथ-साथ एस्कॉर्बिक अम्ल भी मिलता है। इसके हरे लालिमायुक्त पत्तों का स्वाद तीखा तेज, कर्कश, सुगन्धयुक्त तथा तासीर गर्म होती है। इसका अधिक मात्रा में उपयोग फेफड़ों हेतु हानिप्रद होता है। कतीरा और बादाम का तेल देवदार के दोषों को नष्ट करते हैं। यह सूजन व शीत पीड़ा मिटाता है, पथरी तोड़ता है तथा इसके गुनगुने काढ़े में बैठने से गुदा के सभी प्रकार के घाव नष्ट हो जाते है।

जापान के नागोया विश्वविद्यालय के छात्रों ने देवदार के २ प्राचीन वृक्षों में ब्रम्हांडीय विकरण से निकलनेवाले कार्बन आइसोटोप कार्बन-१४ की मात्रा में वृद्धि से ज्ञात किया है कि ७७४ ई. से ७७५ ई. के मध्य  पृथ्वी पर कॉस्मिक रे का रहस्यमय विस्फोट हुआ था। शोधक दल के नायक फुसा मियाके के अनुसार इस अवधि में दोनों वृक्षों में कार्बन-१४ के स्तर  में १.२% की वृद्धि पायी गयी

पहाड़ी संस्कृति का अभिन्न अंग देवदार कवियों-लेखकों का प्रेरणास्रोत है। यह हिमाचल प्रदेश (भारत) तथा पाकिस्तान का राष्ट्रीय वृक्ष है 

geet muktika

गीत-मुक्तिका 
संजीव 
*
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
हर बशर यहाँ नाखुश, संसार अजब माया
हर रोज सजाता है, 
सोचे कि आप सजता 
आखिर न बचा पाता, 
नित मिट रही सुकाया   
आये-गये अकेले, कोई न साथ साथी 
क्यों जोड़ रहा पल-पल? कण-कण यहाँ पराया  
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
सँग कौन कभी आता?
सँग कौन कभी जाता?
अपना जिसे बताता , 
तम में न संग काया 
तू वृक्ष तो लगाये , फल अन्य 'सलिल' खाये 
संतोष यही कर ले, सुंदर जहां बनाया   
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
.  
 
मत जोड़-घटा निश-दिन,
आनंद बाँट मत गिन 
जो भी यहाँ लुटाया , 
ले मान वही पाया  
नित जला प्राण-बाती, चुप उषा मुस्कुराती 
क्यों जोड़ रहा पल-पल? कण-कण यहाँ पराया  
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
जो तुझे जन्म देती,
कब बोल मोल लेती? 
जो कुछ रचा-सुनाया, 
क्यों मोल कुछ लगाया?  
साखी सिखा कबीरा, बानी सुना फ़कीरा 
मरकर हुए अमर हैं,  कब काल मिटा पाया?
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
मत ग्रंथि पाल पगले!,
जी जहाँ कहे बस ले? 
भू बिछा, गगन ओढ़ा  
सँग पवन खिलखिलाया     
मत प्रेम-पंथ तजना, मत भूल भजन भजना 
खुद में खुदी खुदा है,  मत भूल सच भुलाया 
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
.  
मापनी २२११  २२२२  २११२  २२ = २४ 
चौबीस मात्रिक अवतारी जातीय दिगपाल छन्द
बहर मफऊल फ़ायलातुन मफऊल फ़ायलातुन

रविवार, 15 मई 2016

muktika

मुक्तिका
*
तुम आओ तो सावन-सावन
तुम जाओ मत फागुन-फागुन
.
लट झूमें लब चूम-चुमाकर
नचती हैं ज्यों चंचल नागिन
.
नयनों में शत स्वप्न बसे नव
लहराता अपनापन पावन
.
मत रोको पीने दो मादक
जीवन रस जी भर तज लंघन
.
पहले गाओ कजरी भावन
सुन धुन सोहर की नाचो तब
***
(संस्कारी जातीय, डिल्ला छंद
बहर मुतफाईलुन फेलुन फेलुन
प्रतिपद सोलह मात्रा,पंक्तयांत भगण)

शनिवार, 14 मई 2016

muktika

मुक्तिका
संजीव
*
पहरेदार न देता पहरा
सुने न ऊपरवाला बहरा
.
ऊंचे-ऊंचे सागर देखे
पर्वत देखा गहरा-गहरा
.
धार घृणा की प्रबल वेगमय
नेह नर्मदा का जल ठहरा
.
चलभाषित शिशु सीख रहे हैं
सेक्स ज्ञान का नित्य ककहरा
.
संयम नियम न याद, भोग की 
मृग मरीचिका भाग्य सुनहरा
***