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मंगलवार, 17 मई 2016

kazi nazarul islam

काजी नज़रुल इस्लाम - की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना 
                                                               आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
अवदान-सम्मान 
स्वाधीनता सत्याग्रहों तथा स्वातंत्रयोत्तर काल में राष्ट्रीय एकात्मता की मशाल को ज्योतित रखनेवाले महापुरुषों में अग्रगण्य काजी नज़रुल इस्लाम बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, प्रखर देशप्रेमी, सर्वधर्म समभाव के समर्थक तथा बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि रहे हैं। कविता में विद्रोह के स्वर प्रमुख होने के कारण वे 'विद्रोही कविकहे गये। वे संगीतज्ञसंगीतस्रष्टादार्शनिकगायक, वादकनाटककार तथा अभिनेता के रूप में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचारतथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है।  
जन्मपरिवार तथा संघर्ष-
बंगाल के बर्दवान जिले में पुरुलिया गाँव के काज़ी फ़कीर अहमद की बेग़म ज़ाहिदा खातून  ने माँ काली की कृपा से २४ मई १८९९ को एक पुत्र को जन्म दिया जिसे 'नज़रुल' नाम मिला। केवल ८ वर्ष की उम्र में १ बड़ा भाई२ छोटे भाई तथा एक छोटी बहिन को छोड़कर उनके वालिद का इंतकाल चल बसे। घोर गरीबी से जूझते हुए उन्होंने १० साल की आयु में मखतब का इम्तिहान पास कर अरबी-फारसी के साथ-साथ  भागवतमहाभारतरामायणपुराण और कुरआन आदि पढ़ीं और और पढ़ाईं तथा माँ काली की आराधना कर राष्ट्रीय चेतना का प्रथम तत्व सर्व धर्म सम भाव पाया।
रानीगंज,  बर्दवान के राजा से ७ रुपये छात्रवृत्तिमुफ्त शिक्षा तथा मुस्लिम छात्रावास में मुफ्त खाना-कपड़े की व्यवस्था होने पर वे पढ़ सके तथा कक्षा में प्रथम आये। समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य प्रधान नौटंकी करने वाले दल 'लीटोमें सम्मिलित होकर कलाकारों के लिये काव्यात्मक सवाल-जवाब लिख केवल ११ वर्ष की आयु में वे मुख्य 'कवियालबने। उन्होंने रेल गार्डों के घरों मेंबेकरी में १ रु. मासिक पर काम कर, संगीत गोष्ठियों में बाँसुरी वादन कर जीवनयापन के साधन जुटाये। आर्थिक संकट से जूझते नज़रुल को राष्ट्रीय चेतना का दूसरा तत्व आम लोगों की आर्थिक दुर्दशा के प्रति सहानुभूति यहीं मिला।    
पुलिस सब इंस्पेक्टर रफीकुल्ला ने गाँव त्रिशाल जिला मैमनपुर बांगला में नज़रुल को स्कूल में प्रवेश दिलाया। अंतिम वर्ष पूर्ण पूर्व  १८ वर्षीय नजरुल १९१७ में 'डबल कंपनीमें सैनिक शिक्षा लेकर ४९ वीं बंगाल रेजिमेंट के साथ नौशेरा उत्तर-पश्चिम सीमांत पर गए। वहाँ से कराची आकर वे 'कारपोरलके निम्नतम पद से उन्नति कर कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में १९१९ में 'हवलदारहुए। उन्हें आंग्ल शासन की भारतवासियों के प्रति नीति और भावना जानने-परखने का अवसर मिला। मई १९१९ में पहली गद्य रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा' (आवारा की आत्मकथा)जुलाई १९१९ में प्रसिद्ध कविता 'मुक्तितथा नज्म 'लीचीचोर'  ने उन्हें ख्यति दी। अंग्रेज सरकार उन्हें सब रजिस्ट्रार बनाना चाहा पर नजरुल ने स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों की सेना में भारतीयों के प्रति दुर्भाव और उत्पीड़न की भावना ने उन्हें राष्ट्रीय चेतना का तीसरे तत्व मुक्ति की चाह से जोड़ दिया।
सेना की नौकरी छोड़ कर वे बाल साहित्य प्रकाशक अली अकबर खाँ के साथ मार्च-अप्रैल १९२१ में पूर्वी बंगाल के दौलतपुर गाँवजिला तिपेराहैड ऑफिस कोमिल्ला गये। अली अकबर के मित्र वीरेंद्र के पिता श्री इंद्रकुमार सेनगुप्तमाँ बिराजसुन्दरीबहिन गिरिबालाभांजी प्रमिला उन्हें परिवार जनों की तरह स्नेह करते। वे बिराजसुंदरी को 'माँकहते। ब्रम्ह समाज से जुडी प्रमिला से २४ अप्रैल १९२४ को नजरुल ने विवाह कर लिया। नज्म 'रेशमी डोरमें ''तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतोआमार कंठे जड़ा ली'' अर्थात 'तुम लोग कैसे मेरे कंठ से मणिमाला की तरह लिपट गये हो?' लिखते नज़रुल को राष्ट्रीय चेतना का चौथा तत्व स्वदेशियों से अभिन्नता मिला।   
 'धूमकेतुपत्रिका में अंग्रेज शासन विरोधी लेखन के कारण १९२३ में मिले एक वर्ष के कारावास से छूटने पर वे कृष्ण नगर चले गये। विपन्नता से जूझते नजरुल ने प्रथम पुत्र तथा १९२८ में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह का नाम बुलबुल रखा। पुत्र अल्पजीवी हुआ किन्तु संग्रह चिरजीवी। 'दारिद्र्यशीर्षक रचना करने के साथ-साथ नजरुल ने अपने गाँव में विद्यालय खोला तथा 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनलका प्रथम अनुवाद किया। नज़रुल ने एक पंजाबी मौलवी की मदद से फारसी सीखफारसी महाकवि हाफ़िज़ की 'रुबाइयाते हाफ़िज़का अनुवाद किया।राजनैतिक व्यस्तताओं के कारण यह १९३० मेंदूसरा अनुवाद 'काब्यापारा१९३३ में छपे। ८ अगस्त १९४१ को टैगोर का निधन होने पर नजरुल ने २ कविताओं की आल इंडिया रेडिओ पर सस्वर प्रस्तुति कर श्रद्धान्जलि दी। यह नज़रुल की स्वतंत्र पहचान का प्रमाण था। 'रुबाइयाते हाफ़िज़का दूसरा भाग १९५२ में छपा तथा 'रुबाइयाते उमर खय्याम१९५९-६० में छपे। साम्यवाद ने नज़रुल को उपनिवेशवाद का विरोध तथा मुक्ति के लिए संघर्ष राष्ट्रीयता का पाँचवा तत्व दिया। 
सांप्रदायिक सद्भाव से राष्ट्रीयता का प्रचार 
हिन्दू मुस्लिम को लड़कर देश पर राज्य करने की अंग्रेजों की चाल को नकारतीं नजरुल की कृष्णभक्ति परक रचनाएँ व नाटक  खूब लोकप्रिय हुईं। वे यथार्थ पर आधारितप्रेम-गंध पूरितदेशी रागों और धुनों से सराबोरवीरतात्याग और करुणा प्रधान नाटक लिख-खेल राष्ट्रीय भावधारा बहाते थे। पारंपरिक रागों के साथ आधुनिक धुनों में विद्रोहीधूमकेतुभांगरगानराजबन्दिरजबानबंदी आदि  ३००० से अधिक  ओजस्वी बांगला गीति-रचनाएँ रच तथा गाकर, संगीत से जन-संघर्ष को सबल बनने काम नज़रुल ने लिया।  उनकी प्रमुख कृति 'नजरुल गीति' हैं। सांप्रदायिक कट्टरता या संकीर्णता से कोसों दूर नजरुल सांप्रदायिक सद्भाव के जीवंत प्रतीक हैं। रूद्र रचनावलीभाग १पृष्ठ ७०७ पर प्रकाशित रचना उनके साम्प्रदायिकता विहीनविचारों का दर्पण है- 
'हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सहनीय हैं 
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है 
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं।
चोटी में हिंदुत्व नहींशायद पांडित्य है
जैसे कि दाढ़ी में मुसल्मानत्व  नहींशायद मौल्वित्व है।
और इस पांडित्य और मौल्वित्व के चिन्हों को
बालों को लेकर दुनिया बाल की खाल का खेल खेल रही है 
आज जो लड़ाई छिड़ती है 
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है 
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा 
इंसान तो सदा लड़ा गाय-बकरे को लेकर।
विदेशी शासन के प्रति विद्रोह मंत्र-  
भारत माता की गुलामी के बंधनों को काट फेंकने का आव्हान करती उनकी रचनाओं ने उन्हें 'विद्रोही कविका विरुद दिलवाया। अंग्रेजी सत्ता के प्रतिबन्ध उनकी ओजस्वी वाणी को दबा नहीं सके। कविगायकसंगीतकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ दार्शनिक भी थे। नज़रुल ने मनुष्य पर मनुष्य के अत्याचारसामाजिक अनाचारनिर्बल के शोषणसाम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ सशक्त स्वर बुलंद किया। नजरुल ने अपने लेखन के माध्यम से जमीन से जुड़े सामाजिक सत्यों-तथ्यों का इंगित कर इंसानियत के हक में आवाज़ उठायी। वे कवीन्द्र रविन्द्र नाथ ठाकुर के पश्चात् बांगला के दूसरे महान कवि हैं। स्वाभिमानीजन समानता के पक्षधर नजरुल ने परम्परा तोड़ किसी शायर को उस्ताद नहीं बनाया। 
एक अफ़्रीकी कवि ने काव्य को रोष या क्रोध की उपज कहा है। नजरुल के सन्दर्भ में यह सही है। लोकप्रिय  'भंगार गानमें नजरुल का जुझारू और विद्रोही रूप दृष्टव्य है- 'करार आई लौह कपाटभेंगे फेल कार-रे लोपातरक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण वेदीअर्थात तोड़ डालो इस बंदीग्रह के लौह कपाटरक्त स्नात पत्थर की वेदी पाश-पाश कर दो/ जो वेदी रुपी देव के पूजन हेतु खड़ी की गयी है। 'बोलो! वीर बोलो!!उन्नत मम शीरअर्थात कहोहे वीर कहो कि मेरा शीश उन्नत है। श्री बारीन्द्र कुमार घोष के संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'बिजलीमें यह कविता प्रकाशित होने पर जनता ने इसे गाँधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आन्दोलन से जोड़कर देखा। वह अंक भारी मांग के कारण दुबारा छापना पड़ा। गुरुदेव ने स्वयं उनसे यह रचना सुनकर उन्हें आशीष दिया।  
रूसो के स्वतंत्रतासमानता और भ्रातत्व के सिद्धांत तथा रूस की क्रांति से प्रभावित नज़रुल ने साम्यवादी दल बंगाल के मुखिया होकर 'नौजूग' (नवयुग) पत्रिका निकाली। नजरुल द्वारा १९२२ में प्रकाशित 'जूग-बानी' (युग-वाणी) की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कविवर पन्त जी ने अपने कविता संग्रह को यही नाम दिया। काव्य संग्रह 'अग्निबीना' (१९२२)निबन्ध संग्रहों दुर्दिनेर जात्री (१९३८)रूद्र मंगल, 'वशीर बंसीतथा 'भंगारन' को अवैध घोषित कर तथा १६ जनवरी १९२३ को नज़रुल को कैद कर सरकार ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने में उनके योगदान को परोक्षतः स्वीकारा। नजरुल की राष्ट्रीय चेतनपरक क्रान्तिकारी गतिविधियों से त्रस्त  सरकार उन्हें बार-बार काराग्रह भेजती थी। जनवरी १९२३ में नजरुल ने ४० दिनों तक जेल में भूख-हड़ताल की। कारावासी नेताजी सुभाष ने उनकी प्रशंसा कर कहा- हम जैसे इंसान संगीत से दूर भागते हैंहममें भी जोश जाग रहा हैहम भी नजरुल की तरह गीत गाने लगेंगे। अब से हम 'मार्च पास्टके समय ऐसे ही गीत गायेंगे। ग्यारह माह के कारावास में असंख्य गीत और कवितायेँ रचकर पंद्रह दिसंबर १९२३ को नजरुल मुक्त किये गये। व्यंग्य रचना 'सुपेर बंदना' (जेल अधीक्षक की प्रार्थना) में नजरुल के लेखन का नया रूप सामने आया। 'एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल' (जो बेड़ी पहनी हमने वो केवल एक दिखावा है / इन्हें पहन निर्दयियों को ही कठिनाई में डाला है)। शोचनीय आर्थिक परिस्थिति के बाद भी नजरुल की गतिविधियाँ बढ़ती गयीं। गीत 'मरन-मरनमें 'एशो एशो ओगो मरन' (ओ री मृत्यु! आओ आओ) तथा कविता 'दुपहर अभिसारमें जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे? (कहाँ जा रहीं कहो अकेलीअलसाये बैसाख में) लिखते हुए नजरुल ने जनगण को निर्भयता का पाठ पढ़ाया। 
सन १९२४ में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन और कोंग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच स्वार्थपरक राजनैतिक समझौते पर नजरुल ने 'बदना गाडूर  पैक्टगीत में खिलाफत आन्दोलनजनित क्षणिक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर करारा व्यंग्य कर कहा 'हम ४० करोड़ भारतीय अलग-अलग निवास और विचारधारा में विभाजित होकर आज़ादी खो बैठे हैं। फिर एक बार संगठित होंजातिधर्म आदि के भेद-भाव भुलाकर शांतिसाम्यअन्नवस्त्र आदि अर्जित करें।सांप्रदायिक एकता को जी रहे नजरुल ने न केवल हिन्दू महिला को शरीके-हयात बनाया अपितु अपने चार बेटों के नाम कृष्ण मुहम्मदअरिंदम(शत्रुजयी)सव्यसाची (अर्जुन) व अनिरुद्ध (जिसे रोका न जा सकेश्रीकृष्ण का पौत्र) रखे। 
स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए नजरुल ने लिखा 'हे वीर! बोलो मेरा उन्नत सर देखाक्या कभी हिमाद्री शिखर ने अपना सर झुकाया?' आशय यह कि अंग्रेजों के सामने तुम भी कभी अपना सर मत झुकाओ। नजरुल ने गाँधी - चिंतन से असहमत होते हुए भी सत्याग्रह आन्दोलन संबंधी असंख्य गीत व् कवितायेँ रचकर अपना योगदान किया। 'ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आँगिनाये? तीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए' (बंदी माँ के आँगन में / जाता है कौन पथिक पागल? / तीस करोड़ बन्धु विस्मृत कर / मौत गा रहे गीत साथ मिल)। 
नजरुल कहते है: 'मुझे पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह के लिए उस ईश्वर का भेजा हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य-रक्षा और न्याय-प्राप्ति हेतु मैं सैनिक मात्र हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की हरी-भरी धरती पर जो आजकल किसी वशीकरण से वशीभूत हैभेजा है। मैं साधारण सैनिक मात्र हूँ। मैंने उसी ईश्वर के निर्देशों की पूर्ति करने यत्न किया है। नजरुल के क्रन्तिकारी विद्रोहात्मक विचार राष्ट्रीयतापरक गीतों में स्पष्ट हैं। दुर्गम गिरि कांतारमरू दुस्तर पारावार / लांघिते हाबे रात्रि निशीथेयात्रिरा हुँशियार (दुर्गम गिरि-वनविकट मरुस्थल / सागर का विस्तार / निशा-तिमिर मेंहमें लाँघनापथिक रहें होशियार)। एक छात्र सम्मलेन के उद्घाटन-अवसर पर नजरुल ने पारायण गीत गाया- आमरा शक्तिआमरा बलआमरा छात्र दल (हमारी शक्तिहमारा बलहमारा छात्र दल)। एक अन्य अवसर पर नजरुल ने गाया- चल रे चल चलऊर्ध्व गगने बाजे मादल / निम्ने उत्तला धरणि तलअरुण प्रान्तेर तरुण दलचल रे चल चल (चलो रे चलोनभ में ढोल बजे / नीचे धरती कंपित है / उषा-काल में युवकोंआगे और बढ़ो)। नजरुल के मुख्य कहानी संग्रह ब्याथार दान १९२२१९९२रिक्तेर बेदना १९२५ तथा श्यूलीमाला १९३१ हैं।         
नज़रुल राष्ट्रीयता के आंदोलनों में सक्रिय रहने के साथ-साथ चलचित्रों के माध्यम से जन चेतना जाग्रत करने में भी सफल हुए। सन १९४२ में मात्र ४३ वर्ष की आयु में नजरुल 'मोरबस पिक्सनामक घातक-विरल लाइलाज रोग से ग्रस्त हुए। सन १९६२ में पत्नी प्रमिला के निधन पश्चात् वे एकाकी रोग से जूझते रहे पर हार न मानी। सन १९७२ में नवनिर्मित बांग्ला देश सरकार के आमंत्रण पर भारत सरकार से अनुमति लेकर वे ढाका चले गये।  वे  २९ अगस्त १९७६ को परलोकवासी हुए।
नजरुल इस्लाम जैसे व्यक्तित्व और उनका कृतित्व कभी मरता नहीं। वे अपनी रचनाओंअपनी यादोंअपने शिष्यों और अपने कार्यों के रूप में अजर-अमर हो जाते हैं। वर्तमान विद्वेषविखंडनअविश्वासआतंक और अजनबियत के दौर में नजरुल का संघर्षनजरुल की राष्ट्रीयतानजरुल की सफलता और नजरुल का सम्मान नयी पीढ़ी के लिये प्रकाश स्तंभ की तरह है। कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'जगतारिणी पुरस्कारसे सम्मनित कर खुद को धन्य किया। रवीन्द्र भारती संस्था तथा ढाका विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्. उपाधि समर्पित की। भारत सरकार ने उन्हें १९६० में पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया गया। भारत ने १९९९ में एक स्मृति डाक टिकिट जारी किया। बांगला देश ने २८ जुलाई २०११ को एक स्मृति डाक टिकिट तथा ३ एकल और एक ४ डाक टिकिटों का सेट उनकी स्मृति में जारी किये।
काजी नजरुल इस्लाम की एक कविता की निम्न पंक्तियाँ उनके राष्ट्रवाद को विश्ववाद के रूप में परिभाषित करते हुए ज़ुल्मो-सितम के खात्मे की कामना करती हैं-  
"महाविद्रोही रण क्लांत 
आमि शेई दिन होबो क्लांत 
जोबे उतपीड़ितेर क्रंदनरोल 
आकाशे बातासे ध्वनिबे ना 
अत्याचारीर खंग-कृपाण  
भीम रणेभूमे रणेबे ना 
विद्रोही ओ रणेक्लांत 
आमि शेई दिन होबो शांत"                                                                                                                  
(मैं विद्रोही थक लड़ाई से भले गया
पर शांत तभी हो पाऊँगा जब 
आह या चीत्कार दुखी की 
आग न नभ में लगा सकेगी। 
और बंद तलवारें होंगी 
चलना अत्याचारी की जब 
तभी शांत  मैं हो पाऊँगा 
तभी शांत मैं हो जाऊँगा।)
२०४ विजय अपार्टमेंटनेपियर टाउनजबलपुर ४८२००१,  ९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com 

सोमवार, 16 मई 2016

एक क़ता

क़ता

तेरी शख़्सियत का मैं इक आईना हूँ
तो फिर क्यूँ अजब सी लगी ज़िन्दगी है

नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक
अज़ल से लबों पर वही तिश्नगी है

-आनन्द.पाठक-
09413395592
[अज़ल से = अनादि काल से]

dewdaru

देवदारु मन हो सके
संजीव
*
देवदारु-मन हो सके
बाधा-गिरि-आसीन
धरती में पग जमा-सुन
मेघ-सफलता-बीन
*
देवों से वरदान पा 
काम मनुज के आ रहा
पत्ते लकड़ी फूल फल
दोनों हाथ लुटा रहा
रिक्त न कोष कभी हुआ
हुआ न दाता दीन
देवदारु-मन हो सके
बाधा-गिरि-आसीन
*
लाभ अमर्यादित गहा
हम मानव पछता रहा
विकरण कॉस्मिक किरण का
देवदारु बतला रहा
शङ्क्वाकारी छत्र दे
शरण न छाया क्षीण
देवदारु-मन हो सके

बाधा-गिरि-आसीन
*
त्वचा रोग को दूर कर
मेटे सूजन-शीत भी
मजबूती दे भवन को
सज्जा करता घरों की
एक काट तो दस उगा
वसन न भू से छीन
देवों से वरदान पा 
काम मनुज के आ रहा
पत्ते लकड़ी फूल फल
दोनों हाथ लुटा रहा
रिक्त न कोष कभी हुआ
हुआ न दाता दीन
देवदारु-मन हो सके
बाधा-गिरि-आसीन
*
मिलिए देवदार से  
भगवान श्री कृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के हठ पर बैकुंठ से कल्पतरु भू पर ले आये तो देवलोक श्रीहीन हो गया। वहाँ अनियमिततायें फैलने, तपश्चर्या एवं सत्य पर आघात होने पर देवताओं ने श्रीकृष्ण से कहा- 'हे भगवन! कल्पतरु के अभाव में बैकुण्ठ श्रीहीन हो गया है।' श्रीकृष्ण ने कहा कि जहां श्री (लक्ष्मी) नहीं रहेगी वह स्थान तो श्रीहीन होगा ही। श्रीत्रयी (लक्ष्मी-सरस्वती-शक्ति) साक्षात विग्रह (सत्यभामा-रुक्मिणी-जाम्बवन्ती) रूप में धरती पर है। देवताओं ने विनटी की- 'हे प्रभो! आप तथा तीनो महादेवियों से वरदान पाकर श्री के भोग हेतु जो जन स्वर्ग आये है, उनका क्या होगा? क्या आप तथा त्रिदेवियों के वरदान निष्फल होंगे? तब श्रीकृष्ण एवं देवताओं ने त्रिदेवियोंसे प्रार्थना की। देवियों ने कहा 'कल्पतरु' के समान प्रभावी अन्य वृक्ष धरती पर हो तो कल्पतरु देवलोक को लौटाया जा सकता है। देवों ने अपनी शक्तिओं को एकत्रित कर कल्पतरु से भी श्रेष्ठ वृक्ष देवदार का निर्माण किया। कल्पतरु प्राणियों द्वारा किये पुण्य के बदले में उन्हें स्वर्गीय सुख देता था। पुण्य क्षीण होने पर प्राणी को वापस मृत्यु लोक आना पड़ता था। देवदार ऋद्धि-सिद्धि देने के साथ प्राणियों के पुण्यवर्द्धन का भी काम करता था।

देवदार के प्रभाव से भूवासी निर्व्याध हो सुख-चैन से रहने लगे। सात्विक गुणों ने प्राणियों की आयु में वृद्धि की। ब्रह्माण्ड का नियमन चक्र असंतुलित होने से जन्म, उत्सर्जन, संचलन, संवर्द्धन, पोषण, संश्लेषण, विश्लेषण आदि क्रियाएँ बाधित तथा देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, सिद्ध, तपस्वी आदि की चर्या अमर्यादित होने लगी। लोगो देवदार के स्वभाव, प्रभाव एवं शक्ति पर आश्रित हो शारीरिक एवं मानसिक श्रम से दूर भागने लगे। इस अनाचार एवं अव्यवस्था से घबराकर सभी लोग आशुतोष भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने कहा-
“यास्यत्यद्य तर्वन्शमभिगर्हितम प्रयुज्यते।
क्षयो जाते प्रभूतस्य खलु वृक्षं पुष्पान्वितम।”
अर्थात प्राणियों द्वारा इसके किसी भी अंश का अमर्यादित या अभिगर्हित प्रयोग होने पर इसकी शक्ति क्षीण हो कर इसमें फूल-फल लगने बंद हो जायेगें। सेवा सुश्रूषा से यदि देवदार वृक्ष फूले तो वह वृक्ष एवं पुष्प अनेक आदिदैविक, आदिभौतिक एवं आदिदैहिक विपदाओं का नाश कर देगा। लकड़ी को ईंधन व शव-दाह शव जलाना शुरू कर दिये। और इसमें फल-फूल लगना बंद हो गया। यदि देवदार वृक्ष फूले तो उसके पत्ते पुष्पों से आवृत्त कर घर में रखने से दरिद्रता, रोग, चिंता-भय आदि दूर हो जाते है।
गृहम रक्षति पत्रमस्य सर्वं गृहे पुष्प सन्युतम।
तर्वांगम नरं रक्षति यत्तरुवर सविग्रहम।”
देवदार के जवाकार पुष्पों के पराग कण तथा पत्ते का पर्णहरित (Chlorophyll & Chloroplast) क्रम विशेष से एक निश्चित एवं निर्धारित पद्धति से सजाकर रखने से ग्रह-नक्षत्र कृत कष्टों एवं विपदाओं का शमन होता है।

लद्दाख प्रान्त में वन्य चिकित्सक (ज्योतिषी)“आमची” कहे जाते है। वे देवदार के फूलो एवं पत्तो के संयोग से एक यंत्र बनाकर अनेक कठिन रोगों का सफल एवं स्थाई इलाज़ करते हैं। पश्तो भाषा में लिखित “विल्लाख चासू” नामक ज्योतिष ग्रन्थ के अनुसार आयसी (रेवती), मंचूक (अश्विनी), खन्श (मूल), दायला (मघा) एवं खिचास्तो (अश्लेषा) में जन्मे व्यक्तियों पर इस वृक्ष के पत्ते प्रभावी नहीं होते हैं। सरकार द्वारा देवदार के फूलनेवलोे वृक्ष सुरक्षित एवं प्रतिबंधित हैं। दुर्लभ होने के कारण देवदार के फूलों की काला बाजारी होती है।

देवदार पिनाएसिई वंश का शोभायमान,  फैलावदार, सदाबहार तथा दीर्घजीवी वृक्ष है। इसका  (वैज्ञानिक नाम सेडरस डेओडारा (Cedrus Deodara), संस्कृत नाम देवदारु, देवतरु, अंग्रेज़ी नाम हिमालयन सेडार Himalayan Cedar, उर्दू नाम  ديودار देओदार) है । यह पश्चिमी हिमालय, पूर्वी अफगानिस्तान, उत्तरु पाकिस्तान, उत्तर-मध्य भारत, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, दक्षिणी-पश्चिमी तिब्ब्त एवं पश्चिमी नेपाल में १५०० से ३५०० फुट की ऊँचाई पर होता है। इसे शोभा के लिये इंग्लैण्ड और अफ्रीका में भी उगाया जाता है। इसके बीज से पौधे उगाकर पहाड़ों पर रोप जाते हैं। अफ्रीका में इसे कलम से भी उगाया जाता है। यह सीधे तनेवाला, ४० मी. से ७५ मि. तक ऊँचा, २.५ मी. से ३.७५ मी. तक के घेरे वाला, सनोबर (फर) की तरह शङ्क्वाकारी वृक्ष है। इसके पत्ते हल्के हरे रंग के, मुलायम, लम्बे, कुछ गोलाई लिये तथा लकड़ी पीले रंग की, मजबूत, हल्की, सुगन्धयुक्त, सघन और रालयुक्त होती है। इसका तना बहुत मोटा होता है । इसकी श्रेष्ठ लकड़ी पर पानी, फफूंद तथा कीड़ों का असर नहीं होता। यह इमारती काम हेतु उपयुक्त होती है। देवदार लकड़ी का उपयोग रेल के स्लीपरों (लट्ठों), फर्नीचर, मकान के खिड़की-दरवाज़ों, अलमारियों, सोफे-कुर्सियों, पेन्सिल बनाने आदि में होता है। देवदार लकड़ी के छीलन और बुरादे से २.५% से ४% तक वाष्पशील तेल मिलता है जो 'हिमालयी सेडारवुड तेल' के नाम से प्रसिद्ध है। तेल निकलने के बाद बचा छीलन और बुरादा ईंधन के रूप में उपयोगी होते हैं 

देवदार का उपयोग आयुर्वेदिक औषधि व उपचार में भी होता है। इसलिए लकड़ी के भंजक आसवन से प्राप्त तेल त्वचा रोगों तथा भेड़-घोड़ों आदि के बाल के रोगों में किया जाता है। इसके पत्तों में अल्प वाष्पशील तेल के साथ-साथ एस्कॉर्बिक अम्ल भी मिलता है। इसके हरे लालिमायुक्त पत्तों का स्वाद तीखा तेज, कर्कश, सुगन्धयुक्त तथा तासीर गर्म होती है। इसका अधिक मात्रा में उपयोग फेफड़ों हेतु हानिप्रद होता है। कतीरा और बादाम का तेल देवदार के दोषों को नष्ट करते हैं। यह सूजन व शीत पीड़ा मिटाता है, पथरी तोड़ता है तथा इसके गुनगुने काढ़े में बैठने से गुदा के सभी प्रकार के घाव नष्ट हो जाते है।

जापान के नागोया विश्वविद्यालय के छात्रों ने देवदार के २ प्राचीन वृक्षों में ब्रम्हांडीय विकरण से निकलनेवाले कार्बन आइसोटोप कार्बन-१४ की मात्रा में वृद्धि से ज्ञात किया है कि ७७४ ई. से ७७५ ई. के मध्य  पृथ्वी पर कॉस्मिक रे का रहस्यमय विस्फोट हुआ था। शोधक दल के नायक फुसा मियाके के अनुसार इस अवधि में दोनों वृक्षों में कार्बन-१४ के स्तर  में १.२% की वृद्धि पायी गयी

पहाड़ी संस्कृति का अभिन्न अंग देवदार कवियों-लेखकों का प्रेरणास्रोत है। यह हिमाचल प्रदेश (भारत) तथा पाकिस्तान का राष्ट्रीय वृक्ष है 

geet muktika

गीत-मुक्तिका 
संजीव 
*
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
हर बशर यहाँ नाखुश, संसार अजब माया
हर रोज सजाता है, 
सोचे कि आप सजता 
आखिर न बचा पाता, 
नित मिट रही सुकाया   
आये-गये अकेले, कोई न साथ साथी 
क्यों जोड़ रहा पल-पल? कण-कण यहाँ पराया  
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
सँग कौन कभी आता?
सँग कौन कभी जाता?
अपना जिसे बताता , 
तम में न संग काया 
तू वृक्ष तो लगाये , फल अन्य 'सलिल' खाये 
संतोष यही कर ले, सुंदर जहां बनाया   
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
.  
 
मत जोड़-घटा निश-दिन,
आनंद बाँट मत गिन 
जो भी यहाँ लुटाया , 
ले मान वही पाया  
नित जला प्राण-बाती, चुप उषा मुस्कुराती 
क्यों जोड़ रहा पल-पल? कण-कण यहाँ पराया  
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
जो तुझे जन्म देती,
कब बोल मोल लेती? 
जो कुछ रचा-सुनाया, 
क्यों मोल कुछ लगाया?  
साखी सिखा कबीरा, बानी सुना फ़कीरा 
मरकर हुए अमर हैं,  कब काल मिटा पाया?
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
मत ग्रंथि पाल पगले!,
जी जहाँ कहे बस ले? 
भू बिछा, गगन ओढ़ा  
सँग पवन खिलखिलाया     
मत प्रेम-पंथ तजना, मत भूल भजन भजना 
खुद में खुदी खुदा है,  मत भूल सच भुलाया 
जीना न इसे आया, मरना न उसे भाया 
.  
मापनी २२११  २२२२  २११२  २२ = २४ 
चौबीस मात्रिक अवतारी जातीय दिगपाल छन्द
बहर मफऊल फ़ायलातुन मफऊल फ़ायलातुन

रविवार, 15 मई 2016

muktika

मुक्तिका
*
तुम आओ तो सावन-सावन
तुम जाओ मत फागुन-फागुन
.
लट झूमें लब चूम-चुमाकर
नचती हैं ज्यों चंचल नागिन
.
नयनों में शत स्वप्न बसे नव
लहराता अपनापन पावन
.
मत रोको पीने दो मादक
जीवन रस जी भर तज लंघन
.
पहले गाओ कजरी भावन
सुन धुन सोहर की नाचो तब
***
(संस्कारी जातीय, डिल्ला छंद
बहर मुतफाईलुन फेलुन फेलुन
प्रतिपद सोलह मात्रा,पंक्तयांत भगण)

शनिवार, 14 मई 2016

muktika

मुक्तिका
संजीव
*
पहरेदार न देता पहरा
सुने न ऊपरवाला बहरा
.
ऊंचे-ऊंचे सागर देखे
पर्वत देखा गहरा-गहरा
.
धार घृणा की प्रबल वेगमय
नेह नर्मदा का जल ठहरा
.
चलभाषित शिशु सीख रहे हैं
सेक्स ज्ञान का नित्य ककहरा
.
संयम नियम न याद, भोग की 
मृग मरीचिका भाग्य सुनहरा
***

meera-tulsi sanvad

मीरां - तुलसी संवाद 

कृष्ण भक्त मीरां बाई और रामभक्त तुलसीदास के मध्य हुआ निम्न पत्राचार शंका समाधान के साथ पारस्परिक विश्वास और औदार्य का भी परिचायक है इष्ट अलग -अलग होने और पूर्व परिचय न होने पर भी दोनों में एक दूसरे के प्रति सहज सम्मान का भाव उल्लेखनीय है काश हम सब इनसे प्रेरणा लेकर पारस्परिक विचार - विनिमय से शंकाओं का समाधान कर सकें-

राजपरिवार ने राजवधु मीरां को कृष्ण भक्ति छोड़कर सांसारिक जीवन यापन हेतु बाध्य करना चाहा। पति भोजराज का प्रत्यक्ष विरोध न होने पर हबी ननद ऊदा ने मीरां को कष्ट देने में कोई कसर न छोड़ी। प्रताड़ना असह्य होने पर मीरां ने तुलसी को पत्र भेजा-


स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।


हे कुलभूषण! दूषण को मिटानेवाले, गोस्वामी तुलसीदास जी सादर प्रणाम। आपको बार - बार प्रणाम करते हुए निवेदन है कि मेरे ागनिक शोकों को हरने की कृपा करें। हमारे घर के जितने स्वजन (परिवारजन) हैं वे हमारी पीड़ा बढ़ा रहे हैं यहाँ 'उपाधि' शब्द का प्रयोग व्यंगार्थ में है, व्यंग्य करते हुए सम्मानजनक शब्द इस तरह कहना कि उसका विपरीत अर्थ सुननेवाले को अपमानजनक लगकर चुभे और दर्द दे। साधु - संतों के साथ बैठकर भजन करने पर वे मुझे अत्यधिक क्लेश देते हैं। आप मेरे माता - पिता के समकक्ष तथा ईश्वर के भक्तों को सुख देनेवाले हैं । मुझे समझाकर लिखिए कि मेरे लिए क्या करना उचित है?


मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसीदास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।


तुलसी के समक्ष धर्म संकट यह था कि उनसे एक भक्त और राजरानी मार्गदर्शन चाह रही थी जिसके इष्ट भिन्न थे वे मन भी कर सकते थे, मौन भी रह सकते थे। मीरा को राजपरिवार के विपरीत जाने को कहते तो राज परिवार की नाराजी झेलनी पड़ती, मीरां के कष्ट भी बढ़ाते। राज परिवार की बात मानने को कहते तो मीरां को इश्वर भक्ति छोड़नी पड़ती जो स्वयं ईश्वर भक्त होने के नाते तुलसी कर नहीं सकते थे। तुलसी ने आदर्श और व्यवहार में समन्वय बैठाते हुए उत्तर में बिना संबोधन किये मीरां को मार्गदर्शन दिया ताकि मीरा पर परपुरुष का पत्र मिलने का आरोप न लगाया जा सके। तुलसी ने लिखा- जिसको भगवान राम और भगवती सीता अर्थात अपना इष्ट प्रिय न हो उसे परम प्रिय होने भी करोड़ों शत्रुओं के समान घातक समझते हुए त्याग देना चाहिए। (यहाँ मीरां को संकेत है कि वे राजपरिवार और राजमहल त्याग दें, जिसका मीरां ने पालन भी किया और कृष्ण मंदिर को निवास बन लिया)। जीवन में जितने भी सम्बन्ध हैं वे सब वहीँ तक मान्य हैं जहाँ तक भगवान् की उपासना में बाधक न हों। आज अंजान किस काम का जो आँख हो फोड़ दे अर्थात वह नाता पालने योग्य नहीं है जिसके कारण अपना इष्ट भगवद्भक्ति छोड़ना पड़े। इससे अधिक और क्या कहूँ?

***

शुक्रवार, 13 मई 2016

muktika

मुक्तिका
संजीव
*
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
*
ह्रदय एक का है उदार पर
दिल दूजे का बेहद तंग
*
यह जिसका हो रहा सहायक
वह इससे है बेहद तंग
*
चिथड़ों में भी लाज ढकी है
आधुनिका वस्त्रों में नंग 
*
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह औरों से छेड़े जंग
*
बेढंगे में छिपा न दिखता
खोज सको तो खोजो ढंग
*
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ है
मलिन हो गयी सुरसरि गंग
***



लघुकथा
कानून के रखवाले
*

'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।' वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है? क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा? यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?

प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
***
लघुकथा के प्रभाव में वृद्धि के लिए इसके लम्बे संवाद को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित कर पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है. नए लघुकथाकार दोनों की तुलना कर इनके प्रभाव में अंतर को आंक सकते हैं.
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*

'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'

वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"

अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'

"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।

प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
***

बुधवार, 4 मई 2016

" सिंहस्थ कुंभ धार्मिक ही नही एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन "

" सिंहस्थ कुंभ धार्मिक ही नही एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन "

विवेक रंजन श्रीवास्तव
OB 11, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२, ०९४२५८०६२५२ , vivek1959@yahoo.co.in

    भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है . भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं . प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है . और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है .द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा , नेपाल में पशुपतिनाथ , व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है .
        इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं .मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई . प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है .शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है .
       भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर , पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है .जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है .  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं .
        इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर , चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं .चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा  , नर्मदा नदी की परिक्रमा , जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं . हरिद्वार , प्रयाग , नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं ,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं . आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है , स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार , जीवन शैली में जोड़ने का कार्य , विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं . ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  सिंहस्थ कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है , जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है . पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं . सिंहस्थ उज्जैन में संपन्न होता है .  उज्जैन का खगोलीय महत्व , महाकाल शिवलिंग , हरसिद्धि की देवी पीठ तथा कालभैरव के मंदिर के कारण उज्जैन कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है .
      प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है . आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं , आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा .समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है . वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है , शारीरिक और मानसिक शुचिता का . जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है , गुरु दीक्षायें दी जाती हैं . इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत , संकल्प और प्रयास करता है . धार्मिक यात्रायें होती हैं . लोगों का मिलना जुलना , वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है . धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है . पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है ,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है .
     जब ऐसे विशाल , महीने भर से अधिक अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य ,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं ,कला  विकसित होती है .  प्रिंट मीडिया , व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोज की  व्यापक चर्चा हो रही  है . लगभग हर अखबार प्रतिदिन सिंहस्थ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है . अनेक पत्रिकाओ ने तो सिंहस्थ के विशेषांक ही निकाले हैं . सिंहस्थ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हुई हैं , जिनमें साधु संतो , मनीषियो और जन सामान्य की , साहित्यकारो , लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है . सिंहस्थ के बहाने साहित्यकारो , चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है . विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है . क्षेत्र का विकास होता है , व्यापार के अवसर बढ़ते हैं . जैसे इस बार ही सिंहस्थ में क्षिप्रा नदी में नर्मदा के पानी को छोड़ने की तकनीकी व्यवस्था ने सिंहस्थ स्नान को नव चेतना दी है .  
    यह सभागार देश भर से लेखन व प्रिंट तथा आभासी दुनिया के प्रकाशन जगत से जुड़े विद्वानो से भरा हुआ है , मेरी अपील है कि यदि अब तक आपने सिंहस्थ को लेकर कोई रचना नहीं की है तो अब अवश्य कीजीये और हिंदी के साहित्य संसार को समृद्ध करने के हमारे मनीषियो और चिंतको के उस अव्यक्त उद्देश्य की पूर्ति में अपना योगदान जरूर दीजीये जिसको लेकर ही कुंभ जैसे महा पर्व की संरचना की गई है , क्योकि मेरे अभिमत में   कुंभ धार्मिक ही नहीं एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है , और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा . 

      

       

विवेक रंजन श्रीवास्तव

रविवार, 1 मई 2016

संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ [अन्तिम भाग]

गतांक से आगे....

[.......पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा कि कैसे ’निराला’ जी ने हिन्दू बोर्डिंग हाऊस इलाहाबाद के प्रांगण मे होने वाले कवि सम्मेलन का सभापति बनने का ’क्षेम’ जी का अनुरोध अस्वीकार कर दिया था। अब क्षेम जी के बारे में आगे पढ़िए....    आनन्द.पाठक]
संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’      भाग 2
----[स्व0] रमेश चन्द्र पाठक

........उन दिनों क्षेम जी से मेरी इतनी पटा करती थी कि कभी कभी वह अपने दिल का दर्द भी कहा करते थे ।उन्हें इस बात का बड़ा दु;ख था कि वे अपने पिता का अन्तिम दर्शन नहीं कर पाए।हुआ यूँ कि क्षेम जी उन दिनों कोई परीक्षा दे रहे थे।घर वालों ने सोचा कि निधन का समाचार देने से परीक्षा कुप्रभावित हो जायेगी।अत: उन्हें सूचित करना आवश्यक नहीं समझा ।परीक्षा समाप्त होने पर जब क्षेम जी घर गए तो उन्हें यह दुखद समाचार सुनने को मिला। वह बताते थे कि परीक्षा तो अगले साल भी दी जा सकती थी पर पिता जी का अन्तिम दर्शन तो अगले साल नहीं हो सकता था।
पिता जी के अन्तिम दर्शन न कर पाने का आघात तो लगा ही था साथ ही साथ आर्थिक आघात भी लगा। घर से मिलने वाला पढ़ाई का खर्च आर्थिक हिचकोले खाने लगा। पैसा कभी कभी समय पर नहीं आ पाता था ,कभी कभी तो बिल्कुल ही नहीं आ पाता था।लगता था कि मात्र रस्म अदायगी ही की जा रही है।गनीमत यह थी कि उन दिनों राजा साहब जौनपुर के यहाँ से मिलने वाली एक छात्रवृति इन्हें भी मिल गई । वही छात्रवृति, इनकी गाड़ी को खींचे चली जा रही थी। क्षेम जी कोई शाहखर्च वाले आदमी नहीं थे और न ही कंजूस थे। हाँ ,उन्हें कुशल मितव्ययी अवश्य कहा जा सकता था।फिर भी, कभी कभी कुछ न कुछ कमी हो ही जाया करती थी जो इधर-उधर की आय से पूरी हो जाया करती थी । इधर-उधर से मेरा तात्पर्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली कविताओं से मानदेय के रूप में  मिलने वाले राशि से है। उन दिनों, इलाहाबाद पत्र-पत्रिकाओं का गढ़ था। क्षेम जी मिलनसार व्यक्ति तो थे ही ,अनेक सम्पादकों से उनका गहरा परिचय भी था। कविताएं भी उच्च कोटि की करते थे। उच्च कोटि की कवितायेँ होने के कारण मानदेय पाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी।क्षेम जी की ख्याति उन दिनों बढ़ती ही जा रही थी । इलाहाबाद से बाहर उन्हें काव्य-पाठ का आमन्त्रण मिलता  रहता था। उन दिनों काव्य-पाठ के लिए कोई मानदेय नहीं मिलता था ।हाँ ,आने-जाने का मार्ग-व्यय अवश्य मिल जाया करता था ,जिसमें से कुछ न कुछ बच ही जाया करता था। पर कितना बचता था ,निश्चित नहीं था।एक बार की एक मनोरंजक घटना याद आ रही है ,जब  वह भी नहीं मिला।
एक बार ,कानपुर में एक वॄहत कवि-सम्मेलन का आयोजन था।पूर्वांचल के कवियों को ले आने का भार -कोई श्री कृष्ण बाबू थे -उन पर था।उनका कोटा 12-कवियों का था।उन्होने क्षेम जी को 3-कवियों का कोटा दिया । उन 3-कवियों में ,एक तो क्षेम जी स्वयं थे। बाक़ी दो में से उन्होने एक मुझे ,यानी रमेश चन्द्र पाठक और दूसरे कवि श्री अद्भुत नाथ मिश्र को लिया।हम दोनो हास्य रस के कवि थे।निश्चित समय पर ,हम तीनों बड़ी लाईन के स्टेशन पर पहुँच गए। श्री कृष्ण बाबू के साथ हो लिए जिनके साथ 9-आदमी और भी थे। डब्बे में हम सभी को एक साथ एक जगह नहीं मिली ,फलत: हम 6-कवि एक साथ एक जगह बैठे और बाक़ी 6-कवि उसी डब्बे में पीछे कहीं अन्य जगह पर बैठे।हम लोगों के साथ हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन भी बैठे थे। थोड़ी देर बाद टी0टी0 महोदय आये और टिकट माँगा।श्री कॄष्ण बाबू ने 3-टिकट दिखा दिए और शेष के लिए 50-50 का कोड वर्ड बोला। टी0टी0 लोगों की भाषा में 50-50 का मतलब होता है कि जितना रेल का किराया बनता है उसका 50% आप नगद ले लें और अपने पास रख लें।टी0टी0 महोदय की स्वीकृति मिलने पर श्री कृष्ण बाबू उनका हिस्सा दे ही रहे थे कि पास में बैठे बाबा नागार्जुन बीच में बोल उठे कि कई महाकवि उधर पीछे भी बैठे है।टी0टी0 महोदय ने श्री कृष्ण बाबू की ओर देखा। श्री कॄष्ण बाबू ने अपनी क्षेंप मिटाते हुए कहा-उन लोगों को मैने अपने साथ नहीं बुलाया है मगर जब ये लोग बिना बुलाए ही मेरे साथ हो लिए हैं तो उनका भी 50-50 कर दे रहा हूँ। किसी बड़े स्टेशन पर उक्त टी0टी0 साहब की ड्यूटी बदल गई ।पुराने वाले टी0टी0 ने नए वाले टी0 टी0 से परिचय कराते हुए कहा कि कानपुर स्टेशन पर आप इनसे मिल लीजिएगा।
कानपुर स्टेशन पहुँच कर हम लोग उस नए वाले टी0टी0 से भेंट की और उन्होने निकास गेट पर खड़े टी0टी0 महोदय से कोड वर्ड में जाने क्या बात की कि हम सब लोग बाहर आ गए।
कानपुर में 2-दिन रुकना हुआ जिसका सारा प्रबन्ध उन लोगों ने किया जो अपने आवास पर काव्य-गोष्ठियाँ आयोजित किया करते थे। वहीं मैने आज के प्रसिद्ध गीतकार कवि श्री गोपाल दास ’नीरज’ और उस युग के प्रसिद्ध कवि बलबीर सिंह  ’रंग’ से पहली बार मुलाकात हुई थी। फिर बाद में कभी न हो सकी।
कानपुर से वापस भी हम सब उसी ’फ़ार्मूले’ से आए। इलाहाबाद स्टेशन से छात्रावास तक इक्के का किराया ,श्री कृष्ण बाबू ने ,क्षेम जी को दे दिया था । मेरा अनुमान है कि उसमें से क्षेम जी को कुछ भी नहीं बचा होगा ।
एक दिन की बात है । शाम का समय था कुछ बूँदा बाँदी हो रही थी। छात्रावास से बाहर जाने का वातावरण नहीं था।अत: क्षेम जी के कमरे के बाहर ही मण्डली जम गई।बरसाती हवा भी बह रही थी।सभी हल्के-फ़ुल्के मूड में थे।क्षेम जी ने कहा 4-5 तो हमीं लोग हैं और इस छात्रावास में 5-6 और भी अच्छे कवि हैं। अन्य छात्रावास के कवियों को मिला कर 30-32 कवि हो जाते हैं।इतने लोग जब हिन्दी काव्याकाश में उदित होंगे तो आकाश चमक उठेगा।इस पर मेरे बगल में बैठे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि ऐसा नहीं होगा।यहाँ से जाने के बाद कितनों की काव्य-तरणी हिचकोले खा खा कर डूब  जायेगी। केवल 1-2 की ही किनारे पँहुचेगी।बात जब आगे बढ़ी तो क्षेम जी ने पूछना शुरु किया कि यहाँ से जाने के बाद कौन क्या क्या करेगा? सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि मैं तो कविता की डगर
पर चलता ज़रूर रहूँगा पर पेट-पूजा के लिए कोई नियमित और ठोस आजीविका ढूँढनी पड़ेगी। जब राजा राम मिश्र जी से यही प्रश्न किया गया तो उन्होने कहा कि मेरी भारी भरकम काया देखिए ।यह काव्य-पाठों से नहीं भरेगी और मुझे इस के लिए पूछता ही कौन है? मै तो सरकारी नौकरी करूँगा। जब यही प्रश्न अद्भुत नाथ मिश्रा जी से पूछा गया तो उनका उत्तर था कि आप लोगों को तो पता ही है कि इस समय मैं सी0ओ0डी0 [सेन्ट्रल आर्डिनेन्स डिपो] में कार्यरत हूँ ,वहाँ से हटने या हटाए जाने पर ही कुछ सोचूँगा। जब मुझसे पूछा गया तो मैने कहा कि मैं तो पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक बनूँगा और आप की कविता संग्रहों को मैं ही प्रकाशित करूँगा।इस पर क्षेम जी ने कहा ठीक ही तो है कि मुझे कोई प्रकाशक नहीं ढूंढना पड़ेगा।आजकल कविताओं के प्रकाशक मिलते ही कहाँ हैं ।फिर मैने कहा -आप ने हम सबका तो पूछ लिया परन्तु आप ने अपना नहीं बताया ।इस पर क्षेम जी ने कहा मैं कविता की राह तो नहीं छोड़ूगा पर ठोस व सुनिश्चित आय व आजीविका के लिए अध्यापक बनना चाहूँगा। पर मैं इसे भाग्य की विडम्बना ही कहूँगा कि जो आदमी उनकी [क्षेम जी की] रचनाओं का प्रकाशक बनना चाह्ता था आज उसके पास कवि [क्षेम जी] की कृतियों की एक प्रति भी नहीं है।
आगे चल कर वही बातें सत्य साबित हुई। श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ’दिनमान’ के सम्पादक बने।श्री राजाराम जी उत्तरप्रदेश सरकार में शिक्षा विभाग में अधिकारी बने।श्री अद्भुत नाथ मिश्रा जी होम्योपैथिक डाक्टर बने और मैं वकील बना।श्री क्षेम जी माहाविद्यालय में प्रवक्ता बने।कविता की डगर पर सर्वेश्वर दयाल्ल सक्सेना जी ही कुछ चले । मैं भी कुछ चला पर मौन होकर।परन्तु सही ढंग से क्षेम जी ही चले -कृत संकल्प हो कर चलते रहे।
चलते चलाते एक और बात की चर्चा कर देना आवश्यक समझता हूँ । जौनपुर के प्रसिद्ध टी0डी0 कालेज [तिलकधारी सिंह कालेज] में इतिहास-प्रवक्ता की रिक्ति विज्ञापित हुई। हवा मैं तैरती हुई कुछ अफ़वाहों के कारण मैं प्रार्थना-पत्र देने का इच्छुक नहीं था ,पर क्षेम जी के यह कहने पर कि अफ़वाहें  झूठी हैं ,ऐसा कुछ नही है । क्षेम जी के आग्रह की इस पृष्ठ भूमि में कदाचित यह भावना रही हो कि नियुक्ति हो जाने पर जन्म भर के लिए साथ हो जायेगा ।मैने प्रार्थना पत्र दे दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए प्राप्तांक भी अच्छे थे । मेरे साथ जितने भी लोग साक्षात्कार के लिए बुलाए गए थे और  साक्षात्कार में शामिल हुए थे उन सबमें मेरा पलड़ा भारी था।साक्षात्कार समिति के कई सदस्य मेरे पक्षधर थे। श्री हृदय नारायण जी प्रधानाचार्य महोदय श्री क्षेम जी के अत्यन्त निकट के व्यक्ति थे फिर भी मुझे सफ़लता नहीं मिली। मेरी जगह ,वाराणसी के उदयप्रताप कालेज के प्रवक्ता श्री लौटू सिंह गौतम के सुपुत्र जी का चयन हो गया। जिन अफ़वाहों को क्षेम जी ने निराधार कहा था वो निराधार न होकर सही साबित हुआ। क्षेम जी बड़े दुखी हुए।उनके द्वारा बुना गया भविष्य का ताना-बाना टूट गया।उनको मैने समझाया कि यह तो मेरा ही दुर्भाग्य था कि सपने सत्य में न ढले। दुखों को आत्मसात करते हुए भारी मन से क्षेम जी ने अपने आवास से विदा किया।
आजीविकाऒं के आयाम विभिन्न होने के कारण भौगोलिक दूरियाँ बढ़ गईं।धीरे धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हुआ।संवाद हीनता बढ़ने लगी। अपनी ओर से संवाद हीनता का दोषी मैं स्वयं था। वकालत व्यवसाय में व्यस्तता भी एक कारण था।जहाँ तक मुझे याद है  कि उनका अन्तिम पत्र उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद आया था जिसमें उनका लिखा एक वाक्य आज भी मुझे विशेष रूप से उद्वेलित कर रहा है । उन्होने लिखा था कि पत्र उसी चारपाई पर बैठ कर लिख रहा हूँ और बिस्तर भी वही है।

क्षेम जी ! मेरी भी पत्नी का देहान्त हो चुका है  ,पर मैं किसे पत्र लिखूँ । आप तो चले गए । मैं लिखूँ भी तो क्या लिखूँ !पत्र पढ़ने वाला और पढ़ कर व्यथा और वेदना समझने वाले आप तो अब इस संसार में हैं नहीं । अपनी वेदना अपनी कविता के एक पंक्ति में इस प्रकार व्यक्त किया है-----

इशारे कहीं से चले आ रहे हैं 
सदन छोड़ना है ,समय आ रहा है **

आजकल मेरी स्थिति इस प्रकार से हो गई है जिसे हिन्दी के एक कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है

प्रवाहित साँस जीता-जागता शव हूँ

इन काव्य पंक्तियों के साथ मैं कवि श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ जी को श्रद्धांजलि के रूप में यह लेख समाप्त करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि कवि की आत्मा को शान्ति प्रदान करें।

[नोट ** पिता जी [श्री रमेश चन्द्र पाठक ] की भी मृत्य दिनांक 09-10-2015 को हो गई

प्रस्तुतकर्ता

-आनन्द.पाठक-
09413395592