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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

कुण्डलिनी

​​रसानंद दे छंद नर्मदा २४​​: ​ ६-४-२०१६
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी,​ छप्पय तथा भुजंगप्रयात छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए​ कुण्डलिनी छंद से.

कुण्डलिनी का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
*
कुण्डलिनी हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित,सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु, या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है दोहा का अंतिम या चौथा चरण रोला  प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक  देखता है   

१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद  होते हैं
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक  छंदहैं अर्थात इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ  होती हैं

अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते 
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए 
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं
उदाहरण: समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
               जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
 
५.  रोला भी अर्ध सम मात्रिक  छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ  होती हैं
क. रोला में  ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११  मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते
की. रोला के सम चरण का अंत  रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए 
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
 
               हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
               भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
               नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय
६. कुण्डलिनी:
                      समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
                      जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
                      सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
                      हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
                      भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
                      नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय

कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया  - नवीन चतुर्वेदी 

कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित

कुण्डलिया है जादुई
२११२ २ २१२ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
छन्द श्रेष्ठ श्रीमान
२१ २१ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दोहा रोला का मिलन
२२ २२ २ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु [प्रभाव लघु गुरु] के साथ यति
इसकी है पहिचान
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
इसकी है पहिचान,
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
मानते साहित सर्जक
२१२ २११ २११ = १३ मात्रा
आदि-अंत सम-शब्द,
२१ २१ ११ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
साथ, बनता ये सार्थक
२१ ११२ २ २११ = १३ मात्रा
लल्ला चाहे और
२२ २२ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
चाहती इसको ललिया
२१२ ११२ ११२ = १३ मात्रा
सब का है सिरमौर
११ २ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
छन्द प्यारे कुण्डलिया
२१ २२ २११२ = १३ मात्रा

उदाहरण -
०१. भारत मेरी जान है,  इस पर मुझको नाज़      
      नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज
      यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया
      बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया
      करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत      
      पहले जैसा आज,  कहाँ है? मेरा भारत  - राजेंद्र स्वर्णकार 




०२. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
      इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
      गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
      मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
      विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
      अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा

०३. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल
      फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल
      तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत
      मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत
      तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत
      'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत
      (यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)

०४. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान
      इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान
      कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर
      तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर
      जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर
      'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर
      ('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पकर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)

०५. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत
      घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत
      जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर
      बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर
      असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ
      नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ    
     (इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।   
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ'  करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।) 

०६. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय
      जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय 
      शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन 
       दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन 
       कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के
      बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के। - गिरधर 
      कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।   

०७. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट 
      बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
      थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
      अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
      सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
      समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
      यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है

०८. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग
      जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग
      साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना
      करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना
      कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल
      आरक्षण कर  ख़त्म, योग्यता ही हो संबल 
      यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है।  प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें

०९. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
      जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।
      वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
      ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।
      कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
      ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से
      यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है
***    

नवगीत

नवगीत-
*
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अल्हड, कमसिन, सपनों को
आकार मिल रहा।
अरमानों का कमल
यत्न-तालाब खिल रहा।
दिल को भायी कली
भ्रमर गुंजार करे पर-
मौसम को खिलना-हँसना
क्यों व्यर्थ खल रहा?
तेज़ाबी बारिश की जिसने
पात्र मौत का-
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
व्यक्त असहमति करना 
क्या अधिकार नहीं है?
जबरन मनमानी क्या
पापाचार नहीं है? 
एसिड-अपराधी को
एसिड से नहला दो-
निरपराध की पीर
तनिक स्वीकार नहीं है
क्यों न किया अहसास-
पीड़ितों की पीड़ा का?
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?

*
अपराधों से नहीं, 
आयु का लेना-देना।
नहीं साधना स्वार्थ,
सियासत-नाव न खेना।
दया नहीं सहयोग
सतत हो, सबल बनाकर-
दण्ड करे निर्धारित
पीड़ित जन की सेना।
बंद कीजिए नाटक
खबरों की क्रीड़ा का
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?

*

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

haiku muktika

हाइकु मुक्तिका-
संजीव
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी

मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलक,र एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी

गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी 

भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी 

भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी

पंचतत्व का, तन मन-मंदिर,  कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
(वार्णिक हाइकु छन्द ५-७-५)
***

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

नवगीत

एक रचना- 
अपने सपने कहाँ खो गये?
*
तुमने देखे, 
मैंने देखे, 
हमने देखे। 
                मिल प्रयास कर 
                कभी रुदन कर  
                कभी हास कर।
जाने-अनजाने, मन ही मन, चुप रह लेखे।
परती धरती में भी 
आशा बीज बो गये। 
*
तुमने खोया, 
मैंने खोया , 
हमने खोया।
                कभी मिलन का, 
                कभी विरह का,
                कभी सुलह का।
धूप-छाँव में,  नगर-गाँव में पाया मौक़ा।
अंकुर-पल्लव ऊगे  
बढ़कर वृक्ष हो गये। 
*
तुमने पाया, 
मैंने पाया,
हमने पाया।         
                एक दूजे में,
                एक दूजे कोको,
                 गले लगाया।    
हर बाधा-संकट को, जीता साथ-साथ रह।
पुष्पित-फलित हुए तो    
हम ही विवश हो गये।
***                
 
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

पुस्तक आवरण

शीघ्र प्रकाश्य - चौदह वर्ष के अंतराल पश्चात

आवरण मयंक वर्मा, भीतरी रेखा चित्र अनुप्रिया द्वारा निर्मित, दोनों को धन्यवाद।


रविवार, 3 अप्रैल 2016

त्रिपदियाँ

त्रिपदियाँ
*
हर मंच अखाडा है
लड़ने की कला गायब
माहौल बिगाड़ा है.
*
सपनों की होली में
हैं रंग अनूठे ही
सांसों की झोली में.
*
भावी जीवन के ख्वाब
बिटिया ने देखे हैं
महके हैं सुर्ख गुलाब
*
चूनर ओढ़ी है लाल
सपने साकार हुए
फिर गाल गुलाल हुए
*
मासूम हँसी प्यारी
बिखरी यमुना तट पर
सँग राधा-बनवारी
*
पत्तों ने पतझड़ से
बरबस सच बोल दिया
अब जाने की बारी
*
चुभने वाली यादें
पूँजी हैं जीवन की
ज्यों घर की बुनियादें
*
देखे बिटिया सपने
घर-आँगन छूट रहा
हैं कौन-कहाँअपने?
*
है कैसी अनहोनी?
सँग फूल लिये काँटे
ज्यों गूंगे की बोली
***

bundeli doha

बुन्देली दोहे

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*

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

holi

होली कवि दरबार 

होली खेलें सिया की सखियाँ - स्व. शांति देवी वर्मा 

होली खेलें सिया की सखियाँ,
जनकपुर में छायो उल्लास....

रजत कलश में रंग घुले हैं, मलें अबीर सहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

रंगें चीर रघुनाथ लला का, करें हास-परिहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

एक कहे: 'पकडो, मुंह रंग दो, निकरे जी की हुलास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...

दूजी कहे: 'कोऊ रंग चढ़े ना, श्याम रंग है खास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...

सिया कहें: ' रंग अटल प्रीत का, कोऊ न अइयो पास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...

सियाजी, श्यामल हैं प्रभु, कमल-भ्रमर आभास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

'शान्ति' निरख छवि, बलि-बलि जाए, अमिट दरस की प्यास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

होली की हार्दिक शुभकामनायें


होली खेलें चारों भाई - स्व. शांति देवी वर्मा 

होली खेलें चारों भाई, अवधपुरी के महलों में...

अंगना में कई हौज बनवाये, भांति-भांति के रंग घुलाये.
पिचकारी भर धूम मचाएं, अवधपुरी के महलों में...

राम-लखन पिचकारी चलायें, भारत-शत्रुघ्न अबीर लगायें.
लखें दशरथ होएं निहाल, अवधपुरी के महलों में...

सिया-श्रुतकीर्ति रंग में नहाई, उर्मिला-मांडवी चीन्ही न जाई.
हुए लाल-गुलाबी बाल, अवधपुरी के महलों में...

कौशल्या कैकेई सुमित्रा, तीनों माता लेंय बलेंयाँ.
पुरजन गायें मंगल फाग, अवधपुरी के महलों में...

मंत्री सुमंत्र भेंटते होली, नृप दशरथ से करें ठिठोली.
बूढे भी लगते जवान, अवधपुरी के महलों में...

दास लाये गुझिया-ठंडाई, हिल-मिल सबने मौज मनाई.
ढोल बजे फागें भी गाईं,अवधपुरी के महलों में...

दस दिश में सुख-आनंद छाया, हर मन फागुन में बौराया.
'शान्ति' संग त्यौहार मनाया, अवधपुरी के महलों में...

होली की हार्दिक शुभकामनायें

काव्य की पिचकारी - आचार्य संजीव सलिल

रंगोत्सव पर काव्य की पिचकारी गह हाथ.
शब्द-रंग से कीजिये, तर अपना सिर-माथ

फागें, होरी गाइए, भावों से भरपूर.
रस की वर्षा में रहें, मौज-मजे में चूर.

भंग भवानी इष्ट हों, गुझिया को लें साथ
बांह-चाह में जो मिले उसे मानिए नाथ.

लक्षण जो-जैसे वही, कर देंगे कल्याण.
दूरी सभी मिटाइये, हों इक तन-मन-प्राण.
होली की हार्दिक शुभकामनायें

अबकी बार होली में - आचार्य संजीव सलिल

करो आतंकियों पर वार अबकी बार होली में.
न उनको मिल सके घर-द्वार अबकी बार होली में.

बना तोपोंकी पिचकारी चलाओ यार अब जी भर.
निशाना चूक न पाए, रहो गुलज़ार होली में.

बहुत की शांति की बातें, लगाओ अब उन्हें लातें.
न कर पायें घातें कोई अबकी बार होली में.

पिलाओ भांग उनको फिर नचाओ भांगडा जी भर.
कहो बम चला कर बम, दोस्त अबकी बार होली में.

छिपे जो पाक में नापाक हरकत कर रहे जी भर.
करो बस सूपड़ा ही साफ़ अब की बार होली में.

न मानें देव लातों के कभी बातों से सच मानो.
चलो नहले पे दहला यार अबकी बार होली में.

जहाँ भी छिपे हैं वे, जा वहीं पर खून की होली.
चलो खेलें 'सलिल' मिल साथ अबकी बार होली में.
होली की हार्दिक शुभकामनायें

इस होली पर कैसे, करलूं बातें साज की - योगेश समदर्शी 

अभी हरे हैं घाव,
कहां से लाऊं चाव,
नहीं बुझी है राख,
अभी तक ताज की

खून, खून का रंग,
देख-देख मैं दंग,
इस होली पर कैसे,
करलूं बातें साज की

उसके कैसे रंगू मैं गाल
जिसका सूखा नहीं रुमाल
उन भीगे होठों को कह दूं
मैं होली किस अंदाज की
इस होली पर कैसे,
करलूं बातें साज की

होली की हार्दिक शुभकामनायें

नाना नव रंगों को फिर ले आयी होली - महेन्द्र भटनागर 

नाना नव रंगों को फिर ले आयी होली,
उन्मत्त उमंगों को फिर भर लायी होली !

आयी दिन में सोना बरसाती फिर होली,
छायी, निशि भर चाँदी सरसाती फिर होली !

रुनझुन-रुनझुन घुँघरू कब बाँध गयी होली,
अंगों में थिरकन भर, स्वर साध गयी होली !

उर मे बरबस आसव री ढाल गयी होली,
देखो, अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली !

स्वागत में ढम-ढम ढोल बजाते हैं होली,
होकर मदहोश गुलाल उड़ाते हैं होली !

होली की हार्दिक शुभकामनायें

रंग गुलाल लिये कर में निकली मतवाली टोली है - अजय यादव 

रंग गुलाल लिये कर में निकली मतवाली टोली है
ढोल की थाप पे पाँव उठे औ गूँज उठी फिर ’होली है’

कहीं फाग की तानें छिड़ती हैं कहीं धूम मची है रसिया की
गोरी के मुख से गाली भी लगती आज मीठी बोली है

बादल भी लाल गुलाल हुआ उड़ते अबीर की छटा देख
धरती पे रंगों की नदियाँ अंबर में सजी रंगोली है

रंगों ने कलुष जरा धोया जो रोक रहा था प्रेम-मिलन
मन मिलकर एकाकार हुये, प्राणों में मिसरी घोली है

सबके चेहरे इकरूप हुये, ’अजय’ न भेद रहा कोई
यूँ सारे अंतर मिट जायें तो हर दिन यारो होली है

होली की हार्दिक शुभकामनायें

का संग खेलूं मैं होरी - मोहिन्दर कुमार 

का संग खेलूं मैं होरी.. पिया गयल हैं विदेस रे

पीहर मा होती तो सखियों संग खेलती
झांकन ना दे बाहर अटारिया से
सासू का सख्त आदेस रे

का संग खेलूं मैं होरी.. पिया गयल हैं विदेस रे

लत्ता ना भावे मोको, गहना ना भावे
सीने में उठती है हूक रे
याद आवे पीहर की रंग से भीगी देहरिया
और गुलाल से रंगे मुख-केस रे

का संग खेलूं मैं होरी.. पिया गयल हैं विदेस रे

अंबुआ पे झुलना, सखियों की बतियां
नीर बहाऊं और सोचूं मैं दिन रतियां
पिया छोड के आजा ऐसी नौकरिया
जिसने है डाला सारा कलेस रे

का संग खेलूं मैं होरी.. पिया गयल हैं विदेस रे

होली की हार्दिक शुभकामनायें


बैगन जी की होली- कृष्ण कुमार यादव

टेढ़े-मेढ़े बैगन जी
होली पर ससुराल चले
बीच सड़क पर लुढ़क-लुढ़क
कैसी ढुलमुल चाल चले
पत्नी भिण्डी मैके में
बनी-ठनी तैयार मिलीं
हाथ पकड़ कर वह उनका
ड्राइंगरूम में साथ चलीं
मारे खुशी, ससुर कद्दू
देख बल्लियों उछल पड़े
लौकी सास रंग भीगी
बैगन जी भी फिसल पड़े
इतने में उनकी साली
मिर्ची जी भी टपक पड़ीं
रंग भरी पिचकारी ले
जीजाजी पर झपट पड़ीं
बैगन जी गीले-गीले
हुए बैगनी से पीले।
होली की हार्दिक शुभकामनायें

रंग रंगीली आई होली - सीमा सचदेव 

नन्ही गुड़िया माँ से बोली
माँ मुझको पिचकारी ले दो
इक छोटी सी लारी ले दो
रंग-बिरंगे रंग भी ले दो
उन रंगों में पानी भर दो
मैं भी सबको रग डालूँगी
रंगों के संग मज़े करूँगी
मैं तो लारी में बैठूँगी
अन्दर से गुलाल फेंकूँगी
माँ ने गुड़िया को समझाया
और प्यार से यह बतलाया
तुम दूसरो पे रंग फेंकोगी
और अपने ही लिए डरोगी
रँग नहीं मिलते है अच्छे
हुए बीमार जो इससे बच्चे
तो क्या तुमको अच्छा लगेगा
जो तुम सँग कोई न खेलेगा
जाओ तुम बगिया मे जाओ
रंग- बिरंगे फूल ले आओ
बनाएँगे हम फूलों के रन्ग
फिर खेलना तुम सबके संग
रंगों पे खरचोगी पैसे
जोड़े तुमने जैसे तैसे
उसका कोई उपयोग न होगा
उलटे यह नुकसान ही होगा
चलो अनाथालय में जाएँ
भूखे बच्चों को खिलाएँ
आओ उन संग खेले होली
वो भी तेरे है हमजोली
जो उन संग खुशियाँ बाँटोगी
कितना बड़ा उपकार करोगी
भूखा पेट भरोगी उनका
दुनिया में नहीं कोई जिनका
वो भी प्यारे-प्यारे बच्चे
नन्हे से है दिल के सच्चे
अब गुड़िया को समझ में आई
उसने भी तरकीब लगाई
बुलाएगी सारी सखी सहेली
नहीं जाएगी वो अकेली
उसने सब सखियों को बुलाया
और उन्हें भी यह समझाया
सबने मिलके रंग बनाया
बच्चों सँग त्योहार मनाया
भूखों को खाना भी खिलाया
उनका पैसा काम में आया
सबने मिलकर खेली होली
और सारे बन गए हमजोली

होली की हार्दिक शुभकामनायें

सांझ से ही आ बैठी - प्रवीण पंडित 

मन मे भर उल्लास,मुट्ठियां भर भर रंग लिये
सांझ से ही आ बैठी, होली मादक गंध लिये

एक हथेली मे चुटकी भर ठंडा सा अहसास
दूजे हाथ लिये किरची भर नरम धूप सौगात
उजियारे के रंग पूनमी मटियाली बू-बास
भीगे मौसम की अंगड़ाई लेकर आई पास

अल्हड़-पन का भाव सुकोमल पूरे अंग लिये
सांझ से ही आ बैठी होली मादक गंध लिये

लहरों से लेकर हिचकोले,पवन से अठखेली
चौखट-चौखट बजा मंजीरे, फिरती अलबेली
कहीं से लाई रंग केसरी, कहीं से कस्तूरी
लाजलजीली हुई कहीं पर खुल कर भी खेली

नयन भरे कजरौट अधर भर भर मकरंद लिये
सांझ से ही आ बैठी ,होली मादक गंध लिये

होली की हार्दिक शुभकामनायें

फागुन बनकर - शोभा महेन्द्रू 

बरस गए हैं मेरी आँखों में
हज़ारों सपने
महकने लगे हैं टेसू
और मन
बावला हुआ जाता है

सपनों की कलियाँ
दिल की हर डाल पर
फूट रही है
और ये उपवन
नन्दन हुआ जाता है

समझ नहीं पा रही हूँ
ये तुम हो या मौसम
जो बरसा है
मुझपर
फागुन बनकर

होली की हार्दिक शुभकामनायें

जस्न जारी... - धीरेन्द्र सिंह "काफ़िर"

पतझड़ में पत्ते
साखें छोड़ देते हैं
सदाबहार
जब आता है
तो बहार
जवाँहोती है

हम भी कुछ
इसीतरह से
जश्न जारी
रखते हैं
मातम भी मनाते हैं
अपने-अपने

इन पेड़-पौधों जैसा नहीं
कुछ भी साथ-साथ नहीं

दिवाली में
पटाखे जलाए
उजाला मचाया

होली में रंग गए
रंग उडाये

मगर रूह में वही
पुराना अँधेरा
वही कालिख ........

होली की हार्दिक शुभकामनाएं! ज़मीं-आसमां हर जगह रंग उडाएं, गुलाल की होली खेलें, पानी बचाएँ एवं एक विनम्र निवेदन है कि नहाते समय अपने मन की कालिख जरूर धोएं, प्यार का प्रकाश एक दो घूँट जरूर पियें.............
होली की हार्दिक शुभकामनायें

bhujanprayat chhand

  ​​रसानंद दे छंद नर्मदा २३​​:०२-०४-२०१६
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी​, सरसी, तथा छप्पय छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए भुजंगप्रयात छन्द ​से.


चार यगण आवृत्ति ही है छंद भुजंगप्रयात
*

​'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात भुजंगप्रयात छंद की हर पंक्ति यगण की चार आवृत्तियों से बनती है
​ 

यमाता X ४ या ४ (लघु गुरु गुरु) अथवा निहारा निहारा निहारा  निहारा के समभारीय पंक्तियों से भुजंगप्रयात छंद का पद बनता है
​ 

​मापनी- ​१२२   १२२   १२२   १२२ 


उदाहरण- 



०१. कहूं किन्नरी किन्नरी लै बजावैं 

     सुरी आसुरी बाँसुरी गीत गावैं
​     कहूँ जक्षिनी पक्षिनी लै पढ़ावैं
      नगी कन्यका पन्नगी को नचावैं
​ 

०२. न आँसू, न आहें, न कोई गिला है

​       वही जी रहा हूँ, मुझे जो मिला है

​       कुआँ खोद मैं रोज पानी निकालूँ 

​       जला आग चूल्हे, दिला से उबालूँ 

​मुक्तक -
०३. कहो आज काहे पुकारा मुझे है​?
     छिपी हो कहाँ, क्यों गुहारा मुझे है?​
​      पड़ा था अकेला, सहारा दिया क्यों -
​      न बोला-बताया, निहारा मुझे है
मुक्तिका-
०४. न छूटा तुम्हारा बहाना बनाना
      न छूटा हमारा तुम्हें यूँ बुलाना 

     न भूली तुम्हारी निगाहें, न आहें 
     न भूला फसाना, न भूला तराना 

     नहीं रोक पाया, नहीं टोंक पाया 
     न भा ही सका हूँ, नहीं याद जाना

    न देखो हमें तो न फेरो निगाहें  
    न आ ही सको तो नहीं याद आना 

    न 'संजीव' की हो, नहीं हो परायी 
    न वादा भुलाना, न वादा निभाना 
महाभुजंगप्रयात सवैया- ८ यगण प्रति पंक्ति  
०५. तुम्हें देखिबे की महाचाह बाढ़ी मिलापै विचारे सराहै स्मरै जू 
      रहे बैठि न्यारी घटा देखि कारी बिहारी बिहारी बिहारी ररै जू    -भिखारीदास 

०६. जपो राम-सीता, भजो श्याम-राधा, करो आरती भी, सुने भारती भी 
     रचो झूम दोहा, सवैया विमोहा, कहो कुंडली भी, सुने मंडली भी 
     न जोड़ो न तोड़ो, न मोड़ो न छोड़ो, न फाड़ो न फोड़ो, न मूँछें मरोड़ो 
     बना ना बहाना, रचा जो सुनाना, गले से लगाना, सगा भी बताना 
वागाक्षरी सवैया- उक्त महाभुजङ्गप्रयात की हर पंक्ति में से अंत का एक गुरु कम कर, 
०७. सदा सत्य बोलौ, हिये गाँठ खोलौ, यही  मानवी गात को 
      करौ भक्ति साँची, महा प्रेमराची, बिसारो न त्रैलोक्य के तात को    - भानु 

०८. न आतंक जीते, न पाखण्ड जीते, जयी भारती माँ, हमेशा रहें  
     न रूठें न खीझें, न छोड़ें न भागें, कहानी सदा सत्य ही जो कहें 
     न भूलें-भुलायें, न भागें-भगायें, न लूटें-लुटायें, नदी सा बहें 
     न रोना न सोना, न जादू न टोना, न जोड़ा गँवायें,न  त्यागा गहें 

उर्दू रुक्न 'फ़ऊलुन' के चार बार दोहराव से भुजंगप्रयात छन्द बन सकता है यदि 'लुन' को 'लुं' की तरह प्रयोग किया जाए तथा 'ऊ' को दो लघु न किया जाए
०९. शिकारी  न जाने निशाना लगाना 
      न छोड़े मियाँ वो बहाने बनाना 
      कहे जो न थोड़ा, करे जो न थोड़ा
      न कोई भरोसा, न कोई ठिकाना 
       
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