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सोमवार, 3 जून 2013

virasat veeron ka kaisa ho basant subhadra kumari chauhan


विरासत :

वीरों का कैसा हो बसंत

सुभद्रा कुमारी चौहान 

सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। १९०४ में इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में जन्मीं सुभद्रा खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाहोपरांत जबलपुर में रहीं। उन्होंने १९२१ के असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नागपुर में गिरफ्तारी देकर वे असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार पहली महिला सत्याग्रही बनीं. वे दो बार १९२३ और १९४२ में गिरफ्तार होकर जेल भी गयीं। उनकी अनेकों रचनाएं आजादी के पूर्व के दिनों की तरह आज भी उसी प्रेम और उत्साह से पढी जाती हैं। "सेनानी का स्वागत", "वीरों का कैसा हो वसंत" और "झांसी की रानी" उनकी ओजस्वी वाणी के जीवंत उदाहरण हैं। वे जितनी वीर थीं उतनी ही दयालु भी थीं। वे लोकप्रिय विधायिका भी रहीं। १५ फरवरी १९४८ में एक कार दुर्घटना के बहाने से ईश्वर ने इस महान कवयित्री और वीर स्वतन्त्रता सेनानी को हमसे छीन लिया। प्रस्तुत है सुभद्रा कुमारी चौहान की मर्मस्पर्शी रचना, "जलियाँवाला बाग में वसंत"

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

रविवार, 2 जून 2013

doha gatha 11 acharya sanjiv verma 'salil'


दोहा गाथा :  ११ 

बहुरूपी दोहा अमर 
संजीव 
                                                                                *
बहुरूपी दोहा अमर, सिन्धु बिंदु में लीन.
सागर गागर में भरे, बांचे कथा प्रवीण.

दोहा मात्रिक छंद है, तेईस विविध प्रकार.
तेरह-ग्यारह दोपदी, चरण समाहित चार.

विषम चरण के अंत में, 'सनर' सुशोभित खूब.
सम चरणान्त 'जतन' रहे, पाठक जाये डूब.

विषम चरण के आदि में, 'जगण' विवर्जित मीत.
दो शब्दों में मान्य है, यह दोहा की रीत.

छप्पय रोला सोरठा, कुंडलिनी चौपाइ.
उल्लाला हरिगीतिका, दोहा के कुनबाइ.

सुख-दुःख दो पद रात-दिन, चरण चतुर्युग चार.
तेरह-ग्यारह विषम-सम, दोहा विधि अनुसार.

द्रोह, मोह, आक्रोश या, योग, भोग, संयोग.
दोहा वह उपचार जो, हरता हर मन-रोग.

दोहा के २३ प्रकार लघु-गुरु मात्राओं के संयोजन पर निर्भर हैं। सम चरण में ११-११, विषम चरण में १३-१३ तथा दो पदों में २४-२४ मात्राओं के बंधन को मानते हुए २३ प्रकार के दोहे होना पिंगालाचार्यों की अद्‍भुत कल्पना शक्ति तथा गणितीय मेधा का जीवंत प्रमाण है। विश्व की किसी अन्य भाषा के पास ऐसी सम्पदा नहीं है। 

छंद गगन के सूर्य  दोहा की रचना के मानक समय-समय पर बदलते गए, भाषा का रूप, शब्द-भंडार, शब्द-ध्वनियाँ जुड़ते-घटते रहने के बाद भी दोहा प्रासंगिक रहा उसी तरह जैसे पाकशाला में पानी। दोहा की सरलता-तरलता ही उसकी प्राणशक्ति है। दोहा की संजीवनी पाकर अन्य छंद भी प्राणवंत हो जाते हैं। इसलिये दोहा का उपयोग अन्य छंदों के बीच में रस परिवर्तन, भाव परिवर्तन या प्रसंग परिवर्तन के लिए किया जाता रहा है। निम्न सारणी देखिये-
क्रमांक   नाम   गुरु   लघु   कुल कलाएं   कुल मात्राएँ 
- -                      २४     ०           २४              ४८
- -                      २३      २          २५              ४८
१.         भ्रामर   २२      ४           २६              ४८
२.      सुभ्रामर   २१      ६          २७               ४८
३.       शरभ      २०      ८          २८               ४८
४.       श्येन      १९     १०          २९               ४८
५.       मंडूक     १८    १२          ३०               ४८
६.       मर्कट     १७    १४          ३१                ४८
७.      करभ
     १६     १६          ३२               ४८
८.
        नर       १५     १८         ३३               ४८
९.
        हंस       १४     २०         ३४               ४८
१०.
     गयंद     १३      २२        ३५               ४८
११.
    पयोधर   १२     २४        ३६               ४८
१२.       बल       ११     २६         ३७               ४८
१३.      पान       १०     २८        ३८               ४८
१४.     त्रिकल      ९     ३०        ३९               ४८
१५.    कच्छप     ८     ३२        ४०               ४८
१६.      मच्छ       ७    ३४        ४१               ४८
१७.     शार्दूल      ६     ३६        ४२               ४८
१८.     अहिवर    ५    ३८        ४३               ४८
१९.     व्याल       ४     ४०       ४४               ४८
२०.    विडाल      ३     ४२       ४५              ४८
२१.     श्वान        २     ४४        ४६              ४८
२२.      उदर       १      ४६       ४७              ४८
२३.      सर्प        ०      ४८       ४८              ४८

इस लम्बी सूची को देखकर घबराइये मत। यह देखिये कि आचार्यों ने किसी गणितज्ञ की तरह समस्त संभावनायें तलाश कर दोहे के २३ प्रकार बताये। दोहे के दो पदों में २४ गुरु होने पर लघु के लिए स्थान ही नहीं बचता। सम चरणों के अंत में लघु हुए बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
२३ गुरु होने पर हर पद में केवल एक लघु होगा जो सम चरण में रहेगा। तब विषम चरण में लघु मात्र न होने से दोहा कहना संभव न होगा। आपने जो दोहे कहे हैं या जो दोहे आपको याद हैं वे इनमें से किस प्रकार के हैं, रूचि हो तो देख सकते हैं। क्या आप इन २३ प्रकारों के दोहे कह सकते हैं? कोशिश करें...कठिन लगे तो न करें...मन की मौज में दोहे कहते जाएँ...धीरे-धीरे अपने आप ही ये दोहे आपको माध्यम बनाकर बिना बताये, बिना पूछे आपकी कलम से उतर आयेंगे।

साखी से सिख्खी हुआ...

कबीर ने दोहा को शिक्षा देने का अचूक अस्त्र बना लिया। शिक्षा सम्बन्धी दोहे साखी कहलाये। गुरु नानकदेव ने दोहे को अपने रंग में रंग कर माया में भरमाई दुनिया को मायापति से मिलाने का साधन बना दिया। साखी से सिख्खी हुए दोहे की छटा देखिये-
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस.
हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास..
सोचै सोच न होवई, जे सोची लखवार.
चुप्पै चुप्प न होवई, जे लाई लिवतार..
इक दू जीभौ लख होहि, लाख होवहि लख वीस.
लखु लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस..
दोहा की छवियाँ अमित

दोहा की छवियाँ अमित, सभी एक से एक.
निरख-परख रचिए इन्हें, दोहद सहित विवेक..

दोहा के तेईस हैं, ललित-ललाम प्रकार.
व्यक्त कर सकें भाव हर, कवि विधि के अनुसार..

भ्रमर-सुभ्रामर में रहें, गुरु बाइस-इक्कीस.
शरभ-श्येन में गुरु रहें, बीस और उन्नीस..

रखें चार-छ: लघु सदा, भ्रमर सुभ्रामर छाँट.
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ..


भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८

बाइस गुरु, लघु चार ले, रचिए दोहा मीत.
भ्रमर सद्रश गुनगुन करे, बना प्रीत की रीत.

सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?


सुभ्रामर - २१ गुरु, ६ लघु=४८

इक्किस गुरु छ: लघु सहित, दोहा ले मन मोह.
कहें सुभ्रामर कवि इसे, सह ना सकें विछोह..

पाना-खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय.
हा-हा,ही-ही ही नहीं, है सांसों का ध्येय..


शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८

रहे बीस गुरु आठ लघु का उत्तम संयोग.
कहलाता दोहा शरभ, हरता है भव-रोग..

हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ.
मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ..


श्येन- १९ गुरु, १० लघु=४८

उन्निस गुरु दस लघु रहें, श्येन मिले शुभ नाम.
कभी भोर का गीत हो, कभी भजन की शाम..

ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य.
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य..


दोहा के २३ प्रकारों में से चार से परिचय प्राप्त करें और उन्हें मित्र बनाने का प्रयास करें.
 
दोहा के आकर्षण से भारतेंदु हरिश्चन्द्र के अंग्रेज मित्र स्व. श्री फ्रेडरिक पिंकोट नहीं बच सके। श्री पिंकोट का निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? प्रश्न इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है।
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.

शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.

भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.

श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.


भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.

सुविख्यात सूफी संत अमीर खुसरो (संवत १३१२-१३८२) ने दोहा का दामन थामा तो दोहा ने उनकी प्यास मिटाने के साथ-साथ उन्हें जन-मन में प्रतिष्ठित कर अमर कर दिया-

गोरी सोयी सेज पर, मुख पर डारे केस.
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस..

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग.
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये इक रंग..

सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय..


गोष्ठी के समापन से पूर्व एक रोचक प्रसंग

एक बार सद्‍गुरु रामानंद के शिष्य कबीरदास सत्संग की चाह में अपने ज्येष्ठ गुरुभाई रैदास के पास पहुँचे। रैदास अपनी कुटिया के बाहर पेड़ की छाँह में चमड़ा पका रहे थे। उन्होंने कबीर के लिए निकट ही पीढ़ा बिछा दिया और चमड़ा पकाने का कार्य करते-करते बातचीत प्रारंभ कर दी। कुछ देर बाद कबीर को प्यास लगी। उन्होंने रैदास से पानी माँगा। रैदास उठकर जाते तो चमड़ा खराब हो जाता, न जाते तो कबीर प्यासे रह जाते... उन्होंने आव देखा न ताव समीप रखा लोटा उठाया और चमड़ा पकाने की हंडी में भरे पानी में डुबाया, भरा और पीने के लिए कबीर को दे दिया। कबीर यह देखकर भौंचक्के रह गये किन्तु रैदास के प्रति आदर और संकोच के कारण कुछ कह नहीं सके। उन्हें चमड़े का पानी पीने में हिचक हुई, न पीते तो रैदास के नाराज होने का भय... कबीर ने हाथों की अंजुरी बनाकर होठों के नीचे न लगाकर ठुड्डी के नीचे लगाली तथा पानी को मुँह में न जाने दिया। पानी अंगरखे की बाँह में समा गया, बाँह लाल हो गयी। कुछ देर बाद रैदास से बिदा लकर  कबीर घर वापिस लौट गये और अंगरखा उतारकर अपनी पत्नी लोई को दे दिया। लोई भोजन पकाने में व्यस्त थी, उसने अपनी पुत्री कमाली को वह अंगरखा धोने के लिए कहा। अंगरखा धोते समय कमाली ने देखा उसकी बाँह  लाल थी... उसने देख कि लाल रंग छूट नहीं रहा है तो उसने मुँह से चूस-चूस कर सारा लाल रंग निकाल दिया... इससे उसका गला लाल हो गया। तत्पश्चात कमाली मायके से बिदा होकर अपनी ससुराल चली गयी।

कुछ दिनों के बाद गुरु रामानंद तथा कबीर का काबुल-पेशावर जाने का कार्यक्रम बना। दोनों परा विद्या (उड़ने की कला) में निष्णात थे। मार्ग में कबीर-पुत्री कमाली की ससुराल थी। कबीर के अनुरोध पर गुरु ने कमाली के घर रुकने की सहमति दे दी। वे अचानक कमाली के घर पहुँचे तो उन्हें घर के आँगन में दो खाटों पर स्वच्छ गद्दे-तकिये तथा दो बाजोट-गद्दी लगे मिले। समीप ही हाथ-मुँह धोने के लिए बाल्टी में ताज़ा-ठंडा पानी रखा था। यही नहीं उन्होंने कमाली को हाथ में लोटा लिये हाथ-मुँह धुलाने के लिए तत्पर पाया। कबीर यह देखकर अचंभित रह गये ककि  हाथ-मुँह धुलाने के तुंरत बाद कमाली गरमागरम खाना परोसकर ले आयी।

भोजन कर गुरु आराम फरमाने लगे तो मौका देखकर कबीर ने कमाली से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि वे दोनों आने वाले हैं? वह बिना किसी सूचना के उनके स्वागत के लिए तैयार कैसे थी? कमाली ने बताया कि रंगा लगा कुरता चूस-चूसकर साफ़ करने के बाद अब उसे भावी घटनाओं का आभास हो जाता है। तब कबीर समझ सके कि उस दिन गुरुभाई रैदास उन्हें कितनी बड़ी सिद्धि बिना बताये दे रहे थे तथा वे नादानी में वंचित रह गये।

कमाली के घर से वापिस लौटने के कुछ दिन बाद कबीर पुनः रैदास के पास गये... प्यास लगी तो पानी माँगा... इस बार रैदास ने कुटिया में जाकर स्वच्छ लोटे में पानी लाकर दिया तो कबीर बोल पड़े कि पानी तो यहाँ कुण्डी में ही भरा था, वही दे देते। तब रैदास ने एक दोहा कहा-

जब पाया पीया नहीं, था मन में अभिमान.
अब पछताए होत क्या नीर गया मुल्तान.


कबीर ने इस घटना अब सबक सीखकर अपने अहम् को तिलांजलि दे दी तथा मन में अन्तर्निहित प्रेम-कस्तूरी की गंध पाकर ढाई आखर की दुनिया में मस्त हो गये और दोहा को साखी का रूप देकर भव-मुक्ति की राह बताई -

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.
==========
हिन्द युग्म, १८.४.२००९, २५.४.२००९



आज का विचार / Thought of the Day

आज का विचार / Thought of the Day
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 deepti gupta - sanjiv


आप सही है तो नहीं क्रोध की तनिक जरूरत
गलत हुए तो हक न क्रोंध का, बचें अहम् से,
अभिमानी त्रुटि नहीं मानता, भूल भुलाता-
करता है बहसें, याद रखें फिर रहें शांति से

If you are right then there is no need to get angry,
And if you are wrong then you don't have any right to get angry.


Beware  of  'Ego'! An  egoist  person - when  wrong, is  highly 
 
illogical & justifies himself without heeding over  his blunders.


Have  a  peaceful  & cheerful day!

                                             


geet yaad aaee aaj sanjiv

गीत:
याद आई आज
संजीव
*
याद आई आज…
फिर-फिर याद आई आज…
*
कर-कर कोशिश हिम्मत हारी,
मंद श्वास की है अग्यारी।
आस-प्यास सब तुम पर वारी-
अपनों ने भी याद बिसारी।
तुम्हीं हो जिससे न किंचित लाज
याद आई आज…
*
था नहीं सुख में तुम्हारा साथ,
आज गुम जो कह रहे थे नाथ!
अब न सूझे हाथ को ही हाथ-
झुक रहा अब तक तना था माथ।
जब न सिर पर शेष कोई ताज
याद आई आज…
*
बिसारा सब लेन-देन अशेष,
आम हैं सब, कौन खास-विशेष?
छाँह आँगन में नहीं है शेष-
जाऊं कम कर भार, विहँसें शेष।
ना किसी को, ना किसीसे काज
याद आई आज…
*
कुछ न सार्थक या निरर्थक मीत,
गाये कब किसने किसीके गीत?
प्रीत अविनश्वर हुई प्रतीत -
रीत सुख-दुःख-साक्षी संगीत।
शब्द होते गीत कब-किस व्याज?
याद आई आज...
*
अनिल से मिल तजूँ रूपाकार,
अनल हो, सच को सकूँ स्वीकार।
गगन होकर पाऊँ-दूँ विस्तार-
धरा जग-आधार प्राणाधार-
'सलिल' देकर तृप्ति, वर ले गाज
याद आई आज…
*

शनिवार, 1 जून 2013

hindi lyric: acharya sanjiv verma 'salil'


गीत :

फोड़ रहा है काल फटाके...
संजीव
*
झाँक झरोखे से वह ताके, 
या नव चित्र अबोले आँके...
* http://img207.imageshack.us/img207/8596/17410865db63b8a8c81dc79.jpg
सांध्य-सुंदरी दुल्हन नवेली,
ठुमक-ठुमक पग धरे अकेली।
निशा-नाथ को निकट देखकर-
झट भागी खो धीर सहेली।
तारागण बाराती नाचे 
पियें सुधा रस मिलकर बाँके...
*https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnRGnzIqnpTJPGXAVXCfM6PMb-PEz56Uuqzehl-yiXlCq8RzlCNHTai9k7_4-WF39kmgPbINsRwRhnv49PHgoGuJQNH9CusFOVtyqKSGG30SFbLR75TMrfYRNomz6hJ99YmSBI_nYxhMmO/s1600/seven_sisters800a.jpg
झींगुर बजा रहे शहनाई,
तबला ठोंकें दादुर भाई।
ध्रुव तारे को दिखा रही है-
उत्तर में पुरवैया दाई।
दें-लें सात वचन, मत नाके-  
कहाँ पादुका ऊषा ताके...
*http://statics.erasmusu.com/originals/sun-rise-41493966de312ae88e43953358215e95.jpg
धरा धरा ने अब तक धीरज,
रश्मि बहू ले आया सूरज।
अगवानी करती गौरैया-
सलिल-धार उपहारे नीरज।
चित्र गुप्त, चुप सुनो ठहाके-
फोड़ रहा है काल फटाके...
Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com/blogspot.in

bhajan (davotinal lyric) acharya sanjiv verma 'salil'



भजन:

संजीव
*
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
*
हम मृण्मय मानव हैं माना,
आदत गलती कर पछताना.
पहले काम करें मनमाना-
दोष तुझे फिर देते नाना.
अब न करेंगे कोई बहाना,
जाने बस तेरा जस गाना.
प्रभु! हमसे क्रोधित होना मत 
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
*
तुम बिन माटी है सारा जग,
चाह रही मन की मन को ठग.
कौन बताये चलना किस मग?
उठें न तुम तक जा पायें पग.
पिंजरा आस, विकल प्यासा खग-
हिम्मत नहीं बढ़ें रखकर डग.  
प्रभ!  विनती तुम ही राखो पत.
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
*
अपने मैं से खुद ही हारा,
फिरता दर-दर हो बेचारा.
पर-संपति को ललच निहारा,
दौड़-गिरा फिर तका सहारा.
जाना है तज सकल पसारा।
तुझको अब तक रहा बिसारा.
प्रभु! पा लूँ तुमको दो हिम्मत  
प्रभु! स्वीकारो करूँ  नमन शत...
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

chhayavaad (romanticism):

 हिंदी कविता का आकर्षण छायावाद Romanticism :

दीप्ति गुप्ता - संजीव 'सलिल'

*

जब मानवीय प्रवृत्तियों व कार्य-कलापों को प्रकृति के उपादानों के माध्यम से व्यक्त करनेवाली कविता छायावादी कविता है। प्रकृति पर मानवीय भावों का आरोपण छायावादी कविता होती है! छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भ जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा तथा सुमित्रानन्दन पन्त हैं।  http://voutsadakis.com/GALLERY/ALMANAC/Year2011/Jan2011/01302011/jayashankar-prasad-3.jpghttp://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2012/01/suryakant-tripathi-nirala.jpghttp://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/b/be/Sumitranandan_Pant,_(1900_-_1977).jpg
 
Kaamaayani - Nirved by Jaishankar Prasad     
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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

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महादेवी वर्मा
        
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सुमित्रानंदन पन्त
  http://i234.photobucket.com/albums/ee147/MPMEHTA/poem.jpg  
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अंग्रेजी काव्य में छायावाद को रोमांटिसिज्म कहा गया है। 
Nature and love were a major themes of Romanticism favoured by 18th and 19th century poets such as Lord Byron, Percy Bysshe Shelley and John Keats. Emphasis in such poetry is placed on the personal experiences of the individual.
 
The Question
by
Percy Bysshe Shelley
I dreamed that, as I wandered by the way,
Bare Winter suddenly was changed to Spring,
And gentle odours led my steps astray,
Mixed with a sound of waters murmuring
प्रश्न: पर्सी ब्येश शैली
भटक रहा था पथ पर मैंने सपना देखा
कड़ी शीत को बासंती होते था लेखा
सलिल-धार की कलकल
मिश्रित मदिर सुरभि ने
मेरे कदमों को यायावर
कर बहकाया

शुक्रवार, 31 मई 2013

hindi lyric: rachna aur rachiyata acharya sanjiv verma 'salil'

रचना और रचयिता: संजीव 'सलिल'

रचना और रचयिता:




संजीव 'सलिल'
*
किस रचना में नही रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*




*

बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*





*

कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण  है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*




*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...


 
************************

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

virasat: bachpan -subhadra kumari chauhan


विरासत :

बचपन
सुभद्रा कुमारी चौहान
*
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सबसे मस्त ख़ुशी मेरी
चिंतारहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय-स्वच्छंद
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी
बनी हुई थी वहाँ झोपड़ी और चीथड़ों में रानी
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे?
बड़े-बड़े मोती से आँसू जयमाला पहनाते थे
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आई मुझको उठा लिया
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम गीले गालों को सुखा दिया
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे
धुली हुई मुस्कान देखकर सबके चेहरे चमक उठे
यह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल-छबीली थी
दिल में एक चुभन सी थी यह दुनिया अलबेली थी
मन में एक पहेली थी मैं सबके बीच अकेली थी
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं
प्यारी, प्रीतम की रंग-रलियों की स्मृतियाँ भी न्यारी हैं
माना मैंने युवा काल का जीवन खूब निराला है
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है
किन्तु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना
आ जा बचपन एक बार फिर दे दे अपनी निर्म, शांति
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति
वह भोली सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी
नन्दन वन सी फूल उठी यह छोटी सी कुटिया मेरी 
'माँ माँ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा
मुँह पर थी आल्हाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा
मैंने पूछा यह क्या लाई? बोल उठी वह- "माँ काओ"
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय खुशी से मैंने कहा "तुम्हीं खाओ"
पाया मैंने बचपन फिर से प्यारी बेटी बन आया
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझमें नवजीवन आया
मैं भी उसके साथ खेलती-खाती हूँ, तुतलाती हूँ
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती  हूँ
जिसे खोजती थी बचपन से अब जाकर उसको पाया
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया

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गुरुवार, 30 मई 2013

DOHA GATHA 10 ACHARYA SANJIV VERMA 'SALIL'

goha gatha 10 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा १० : मृदुल मधुर दोहा सरस
 संजीव
*
कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य।
गति-यति नौ गुण नौलखा, दोहा छंदादित्य।।

दोहा की सीमा नहीं, दोहाकार ससीम।
कम  शब्दों को दे सके, दोहा अर्थ असीम।।


दोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास.
मावस भी पूनम बने, फागुन भी मधुमास.

बौर आम के देखकर, बौराया है आम.
बौरा गौरा ने वरा, खास- बताओ नाम?

लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल.
जलता है या फूलता, बूझे कौन सवाल?

लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन.
नील गगन हँसता, लगे- पवन वसन बिन दीन.

सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ.
हँसते-रोते हैं नयन, उठता-झुकता माथ.
 

दोहों में शब्दों के चयन पर ध्यान दें।  उनके उच्चारण में ध्वनि का आरोह-अवरोह या उतार-चढाव सलिल-तरंगों की तरह होने से गति (भाषिक प्रवाह) तथा यति (ठहराव) दोहे को पठन के साथ गायन योग्य बनाता है। शब्दों का लालित्य मनमोहक हो।  दोहा का वैशिष्ट्य शब्द का विशिष्ट रूप, लावण्य, गागर में सागर, सीप में मोती, सरल, सरस, रुचिकर, गहन, सरलता, सहजता,  लाक्षणिकता, क्षिप्रता, सारगर्भितता आदि है। 
 
प्राचीन दोहाकारों के दोहों का अध्ययन शिल्प तथा कथ्य संबंधी समझ विकसित करने के लिए करें किन्तु उस भाषा का प्रयोग करने से बचें। विनम्रता सहित निवेदन है कि कबीर, रैदास, मलूक आदि अनेक दोहाकार अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित तथा ग्रामीण परिवेश से तथा तुलसी, सूर आदि मंदिरों से सम्बद्ध थे। उस काल में प्रचलित भाषा अब नहीं बोली जाती। अनेक शब्द अपना अर्थ अथवा प्रचार खो चुके हैं। विकास के साथ अनेक नये शब्द हिंदी को समृद्ध बना रहे हैं। अतः, हमें आज की भाषा में दोहा कहना होगा ताकि युवाओं को समझने में आसानी हो। दोहा की शब्दावली विषयवस्तु अथवा कथ्य तथा उसके पाठक-श्रोता वर्ग के अनुकूल हो। ग्रामीण अंचल से जुड़े तथा लोक भाषाओं की विरासत ग्रहण किये दोहकारों को शब्द रूपों की शुद्धता के प्रति अधिक सजग होना होगा। दिल्ली निवासी डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' के दोहा संग्रह 'होते ही अंतर्मुखी' से उद्धृत निम्न पठनीय-मननीय दोहों के साथ कुछ समय बितायें तो आपकी कई कही-अनकही समयस्याओं का निदान हो जाएगा। 

दोहे में अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद।
ज्यों गुलाब में रूप-रस, गंध और मकरंद।।

चार चाँद देगा लगा, दोहों में लालित्य।
जिसमें कुछ लालित्य है, अमर वही साहित्य।।

दोहे में मात्रा गिरे, यह भारी अपराध।
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध।।

चलते-चलते ही मिला, मुझको यह गन्तव्य।
गन्ता भी हूँ मैं स्वयं, और स्वयं गंतव्य।।

टूट रहे हैं आजकल, उसके बने मकान।
खंडित-खंडित हो गए, क्या दिल क्या इन्सान।।

जितनी छोटी बात हो, उतना अधिक प्रभाव।
ले जाती उस पार है, ज्यों छोटी सी नाव।।

कैसा है गणतंत्र यह, कैसा है संयोग?
हंस यहाँ भूखा मरे, काग उड़ावे भोग।।

बहरों के इस गाँव में, क्या चुप्पी, क्या शोर।
ज्यों अंधों के गाँव में, क्या रजनी, क्या भोर।।

जीवन भर पड़ता रहा, वह औरों के माथ।
उसकी बेटी के मगर, हुए न पीले हाथ।।

तेरे अलग विचार हैं, मेरे अलग विचार।
तू फैलता जा घृणा, मैं बाँटूंगा प्यार।।

शुद्ध कहाँ परिणाम हो, साधन अगर अशुद्ध.
साधन रखते शुद्ध जो, जानो उन्हें प्रबुद्ध.

सावित्री शर्मा जी के दोहा संकलन पांच पोर की बाँसुरी से बृज भाषा के कुछ दोहों का रसपान करें। इन दोहों की भाषा उक्त दोहों से कुछ भिन्न है। ऐसी शब्दावली ब्रज भाषा के अनुकूल है पर खड़ी हिन्दी के लिए अनुपयुक्त है। रेखांकित शब्द-रूपों को देखिये क्या इन्हें इस रूप में आधुनिक हिंदी में प्रयोग किया जाना ठीक होगा? इनका उपयोग होने पर जो अहिन्दीभाषी हिंदी सीखकर शब्दकोष की सहायता से पढ़ते हैं क्या इनका अर्थ समझ सकेंगे?

शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ।
होने लगे विकार सब, ज्ञान यज्ञ में होम।।

मुख कारो विधिना कियो, सुन्दर रूप ललाम।
जनु घुंघुची कीन्हेंसि कबहुँ, अति अनुचित कछु काम।।

तन-मन बासंती भयो, साँस-साँस मधु गंध।
रोम-रोम तृस्ना जगी, तज्यो तृप्ति अनुबंध।।

कितनउ बाँधो मन मिरिग, फिरि-फिरि भरे कुलांच.
सहज नहीं है बरजना, संगी-साथी पॉँच.

चित चंचल अति बावरो, धरे न नेकहूँ धीर.
छिन जमुना लहरें लखें, छिन मरुथल की पीर.

मन हिरना भरमत फिरत, थिर रहै छिन एक.
अनुचित-उचित बिसारि कै, राखै अंपनी टेक.

तिय-बेंदी झिलमिल दिपै, दर्पण बारहि-बार.
दरकि हिया कहुं जाय नहि, करि कामिनि श्रृंगार.

होत दिनै-दिन दूबरो, देखि पूनमी चंद.
माथ बड़ेरी बींदिया, परै नेकहुं मंद.

झलमल-झलमल व्है रही, मुंदरी अंगुरी माहि.
नेह-नगीने नयन बिच, वेसहि तिरि-तिरि जात.

अब देखिये बांदा के अल्पज्ञात कवि राम नारायण उर्फ़ नारायण दास 'बौखल' (जिन्होंने ५००० से अधिक बुन्देली दोहे लिखे हैं) की कृतियों नारायण अंजलि भाग १-२ से कुछ बुन्देली दोहे--
गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय.
चित चकमक लागे नहीं, याते बुझ-बुझ जाय.

वाणी वीणा विश्व वदि, विजय वाद विख्यात.
लोक-लोक गाथा गढी, ज्योति नवल निर्वात.

आध्यात्मिक तौली तुला, रस-रंग-छवि-गुण एक.
चतुर कवी कोविद कही, सुरसति रूप अनेक.

अलि गुलाब गंधी बिपिन, उडी स्मृति गति पौन.
रूप-रंग-परिचय-परस, उमगि पियत रज मौन.

पंच व्यसन प्राणी सनो, तरुण वृद्ध अरु बाल.
'बौखल' घिसि गोलक तनु, तृष्णा तानति जाल.

बैरिन कांजी योग सो, दूध दही हो जाय.
माखन आवै आन्गुरी, निर्भय माट मथाय.

बहु भाषा आशा अमित, समुझि मूढ़ मन सार.
मरत काह जग साडिया, चढिं-चढिं ऊंच कगार.

चातक वाणी पीव की, निर्गुण-सगुण समान.
बरसे-अंबर से जलद, बिना बोध अनुमान.

मरै न मन संगै रहै, मलकिन बारह बाट.
भवनै राखि मसोसि नित, खोलत नहीं कपाट. 
 
मृदुल कीर्ति जी के भोजपुरी दोहों का रस लें-
 
कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी वृन्द.
सरल, सरस, रुचिकर,गहन, कविवर को वर छंद.

तुलसी ने श्री राम को, नाम रूप रस गान.
दोहावलि के छंद में, अद्‍भुत कियो बखान.

दोहे की महिमा महत, महत रूप लावण्य.
अणु अणियाम स्वरूप में, महि महिमामय छंद.

गागर में सागर भरो, ऐसो जाको रूप.
मोती जैसे सीप में, अंतस गूढ़ अनूप.

रामायण में जड़ित हैं, मणि सम दोहा छंद.
चौपाई के बीच में, चमकत हीरक वृन्द.

दोहा के बड़ भाग हैं, कहत राम गुण धाम,
वन्दनीय वर छंद में, प्रणवहुं  बहुल प्रणाम. 

दोहा लेखन में ध्यान रखें कि लय (मात्रा-संतुलन) के साथ-साथ शब्द-चयन और विन्यास भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल हो। दोहा की मारक शक्ति का प्रमाण यह है कि उसे ललित काव्य के साथ-साथ पत्राचार, टिप्पणी, समीक्षा आदि में भी प्रयोग किया जा सकता है। विख्यात कवयित्री मृदुल कीर्ति जी के निम्न पत्र में दोहा का प्रांजल रूप निरखिए। 

Saumya Salil ji,
You are a great scholar, accept my Naman. Your doha classes are wonderful and amazing too. So many lessons I am grasping.
Kabeer , Meera, Soor, Raskhan, Tulsee never been to vyakaran process but they are so perfect as ever been. So real poems come from the realm of Reality and automatically they are perfect because HE is perfect.
आत्मीय! हूँ धन्य मैं, पा स्नेहिल उपहार।
शक्ति-साधना पर्व पर, मुदित ह्रदय-आभार।।

दोहा गाथा में इन्हें, पढ़ सीखेंगे छात्र।
दोहा का वैशिष्ट्य क्या, नहीं दोपदी मात्र।।

दोहा-चौपाई ललित, छंद रचे अभिराम।
जिव्हा पर हैं शारदा, शत-शत नम्र प्रणाम।।

दोहा कक्षा को दिए, दोहा-रत्न अमोल।
आभारी हम आपके, पा अमृतमय बोल।।

सचमुच शिक्षित नहीं थे, मीरा सूर कबीर।
तुलसी और रहीम थे, शिक्षित गुरु गंभीर।।

दोहा रचता कवि नहीं, रचवाता परमात्म।
शब्द-ब्रम्ह ही प्रतिष्ठित, होता बनकर आत्म।।

दोहा करे कमाल 
 
कबीर जुलाहा थे। वे जितना सूत कातते, कपडा बुनते उसे बेचकर परिवार पालते लेकिन माल बिकने पर मिले पैसे में से साधु सेवा करने के  बाद बचे पैसों से घर के लिए सामान खरीदते. सामान कम होने से गृहस्थी चलाने में माँ लोई को परेशान होते देखकर कमाल को कष्ट होता। लोई के मना करने पर भी कबीर 'यह दुनिया माया की गठरी' मान कर 'आया खाली हाथ तू, जाना खाली हाथ' के पथ पर चलते रहे। 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' कहने से बच्चों की थाली में रोटी तो नहीं आती। अंतत: लोई ने कमाल को कपड़ा बेचने बाज़ार भेजा। कमाल ने कबीर के कहने के बाद भी साधुओं को दान नहीं दिया तथा पूरे पैसों से घर का सामान खरीद लिया। कमाल की भर्त्सना करते हुए कबीर ने कहा-

बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

चलती चाकी  देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय।।
 
कमाल कबीर की दृष्टि में भले ही खरा न रहा हो पर था तो कबीर का ही पूत... बहुत सुनने के बाद उसके मुँह से भी एक दोहा निकल पड़ा-
 
चलती चाकी देखकर , दिया कमाल ठिठोंय।
जो कीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय।।

कबीर यह गूढ़ दोहा सुनकर अवाक रह गए और बोले की तू
कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया तुझे खुद नहीं पता।

कबीर-कमाल के इन दोहों के दो अर्थ हैं। एक सामान्य- कबीर ने कहा कि चलती हुई चक्की को देखकर उन्हें रोना आता है कि दो पाटों के घूमते रहने से उनके बीच सब दाने पिस गये कोई साबित नहीं बचा। कमाल ने उत्तर दिया कि चलती हुई चक्की देखकर उसे हँसी आ रही है क्योंकि जो दाना बीच की कीली से चिपक गया उसे पाट चलते रहने पर भी कोई हानि नहीं पहुँच सके, वे दाने बच गये।

इन दोहों का गूढ़ अर्थ समझने योग्य है- 
 
कबीर ने दूसरे दोहे में कहा ' इस संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कबीर रो रहा है क्योंकि स्वार्थ और परमार्थ के दो पाटों के बीच में सब जीव नष्ट हो रहे हैं, कोई भी बच नहीं पा रहा।

कमाल ने उत्तर में कहा- संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कमाल हँस रहा है क्योंकि जो जीव ब्रम्ह रूपी कीली से लग गया उसका सांसारिक भव-बाधा कुछ नहीं बिगाड़ सकी। उसकी आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर ब्रम्ह में लीन हो गयी।

दोहा के सूफियाना मिजाज़ का एक और रंग देखें। खुसरो (संवत १३१२-१३८२) से पहले दोहा को सूफियाना रंग में रंगा बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५) ने। गुरु ग्रन्थ साहिब में रहसा और राग सूही के ४ पदों और ३० सलोकों में बाबा और उनके पश्चातवर्ती शेख अब्राहीम फरीद (१४५०-१५५४) की रचनाएँ हैं। आध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहुँचे बाबा का निम्न दोहा उनके समर्पण की बानगी है। 
कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु।
ए दुई नैना मत छुहऊ, पिऊ देखन कि आसु।।
 
पाठांतर:
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास।
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।
इस दोहे के भी सामान्य और गूढ़ आध्यात्मिक दो अर्थ हैं जिन्हें आप समझ ही लेंगे। कठिनाई होने दीप्ति जी से निवेदन कर पूछिए।
 
चलते-चलते एक और सच्चा किस्सा-

अंग्रेजी में एक कहावत है 'power corrupts, absolute power corrupts absolutely' अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है तो निरंकुश सत्ता पूर्णतः भ्रष्ट करती है, भावार्थ- 'प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं' . घटना तब की है जब मुग़ल सम्राट अकबर का सितारा बुलंदी पर था. भारत का एकछत्र सम्राट बनाने की महत्वाकांक्षा, हर बेशकीमती-लाजवाब चीज़ को अपने कब्जे में रखने का लोभ, हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने की हवस तथा ऐसा कर उस स्त्री के पति, परिवार तथा कुनबे को पद दलित करने का नशा उसके सिर पर सवार था. दरबारी उसे निरंतर उकसाते रहते और वह अपने सैन्य बल से मनमानी करता रहता। गोंडवाना पर उन दिनों लोकमाता महारानी दुर्गावती अपने अल्प वयस्क पुत्र की अभिभावक बनकर शासन कर रही थीं। उनकी सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी। सुन्दर महारानी, चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में कांटे की तरह गड़ रहे थे। वीरांगना महारानी मालवा सुलतान बाज बहादुर को धुल चटा चुकी थीं। अधारसिंह के कारण राज्य में शासन व्यवस्था व समृद्धता थी। लोक मान्यता थी की जहाँ सफ़ेद हाथी होता है वहाँ लक्ष्मी वास करती है. अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-
अपनी सीमाँ राज की, अमल करो फरमान।
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान।।

मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। अकबर अधारसिंह को कैद करना चाहता था। अधारसिंह ने यह पूर्वानुमान कर लिया। अकबर ने एक चाल चली। मुग़ल दरबार में जाने पर अधारसिंह ने देखा कि सिंहासन खाली था। दरबार में बादशाह को कोर्निश (झुककर सलाम) न करना बेअदबी होती जिसे गुस्ताखी मानकर उन्हें कैद कर लिया जाता। खाली सिंहासन को कोर्निश करते तो हँसी के पात्र बनते कि इतनी भी अक्ल नहीं है कि सलाम बादशाह सलामत को किया जाता है गद्दी को नहीं। अधारसिंह धर्म संकट में फँस गये, उन्होंने अपने कुलदेव चित्रगुप्त जी का स्मरण कर इस संकट से उबारने की प्रार्थना करते हुए चारों और देखा। अकस्मात् उनके मन में बिजली सी कौंधी और उन्होंने दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की। सारे दरबारी और खुद अकबर आश्चर्य में थे कि वेश बदले हुए अकबर की पहचान कैसे हुई? झेंपते हुए बादशाह उठकर अपनी गद्दी पर आसीन हुआ और अधारसिंग  से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना?

अधारसिंह ने विनम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर के न दिखने पर अन्य जानवरों के हाव-भाव से उसका पता लगाया जाता है क्योंकि हर जानवर शेर से सतर्क होकर बचने के लिए उस पर निगाह रखता है। इसी आधार पर उन्होंने बादशाह को पहचान लिया चूंकि हर दरबारी उन पर नज़र रखे था कि वे कब क्या करते हैं? अधारसिंह की बुद्धिमानी के कारण अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और अपने दरबार में रहने को कहा। अधारसिंह अपने देश और महारानी दुर्गावती पर प्राण निछावर करते थे। वे अकबर के दरबार में रहते तो गुलाम होकर रहना पड़ता
, मना करते तो बादशाह रुष्ट होकर दंड देता। उन्होंने पुनः चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर रोकता तो वह अपने कौल से फिरने के कारण निंदा का पात्र बनता। अतः, उसने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में अपने सिपहसालार को गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया। दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?

इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान।
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान।।

असाधारण बहादुरी से लम्बे समय तक लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती, अधारसिंह तथा अन्य वीर अपने देश और आजादी पर शहीद हो गय। मुग़ल सेना ने राज्य को लूट लिया। भागते हुए लोगों और औरतों तक को नहीं बख्शा। महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया। जनगण ने अपनी लोकमाता को श्रद्धांजलि देने का एक अनूठा उपाय निकाल लिया। दुर्गावती की समाधि के रूप में सफ़ेद पत्थर एकत्र कर ढेर लगा दिया गया, जो भी वहाँ से गुजरता वह आस-पास से एक सफ़ेद कंकर उठाकर समाधि पर चढ़ा देता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय भी इस परंपरा का पालन कर सत्याग्रहियों ने आजादी के लिये संघर्ष करने का संकल्प किया जिनमें इन पंक्तियों के लेखक के ताऊ जी षW. ज्वाला प्रसाद वर्मा भी थे। दोहा आज भी दुर्गावती, अधारसिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर।
हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर।।

अर्थात यदि आप बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा सुनकर आपकी भुजाएं फड़कने लगती हैं. अस्तु... वीरांगना को महिला दिवस पर याद न किये जाने की कमी पूरी करते हुए आज दोहा-गाथा उन्हें प्रणाम कर धन्य है
                                                         =======================
 

आभार : हिन्दयुग्म २८.३.२००९


 

thought of the day deepti - sanjiv

आज का विचार:
दीप्ति - संजीव 
*
Never Think Hard about PAST, It brings Tears...!
     
Don't Think more about FUTURE, It brings Fears....!
            Live this Moment with a Smile, It brings Cheers..... !!!

मत अतीत पर शोक करो आँसू आ जायेंगे 
                        मत भविष्य का सोच करो, डर-भय ग्रस जायेंगे 
                                            'संजीव' यह पल जिओ खुशी से मन हर्षाएंगे ।।