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गुरुवार, 31 मार्च 2011

पान बनारस वाला: - पूर्णिमा बर्मन.

पान बनारस वाला

पूर्णिमा बर्मन.  

१पूर्निम

खानपान हो, आनबान हो, जान पहचान हो और पान न हो तो ओंठों पर मुस्कान नहीं, पर यह पान बरसों से इमारात में सरकारी आदेश से बंद है। बंद इसलिए कि पान गंदगी फैलाता है। कोनों और स्तंभों के उस सारे सौंदर्य को मटियामेट कर देता है जिस पर यहाँ की सरकार पैसा पानी की तरह बहाती है।

सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते। इस सबसे निबटने के लिए यहाँ के एक प्रमुख अखबार गल्फ़ न्यूज़ ने एक पूरा पन्ना पान के विषय में प्रकाशित किया। साथ ही मुखपृष्ठ पर भी इसका बड़ा बॉक्स और लिंक दिया। पान के लाभ-हानि, स्वास्थ्य पर प्रभाव, पान के तत्व और पान से जुड़ी सांस्कृतिक बातों को इसमें शामिल किया गया। कुछ ऐसे स्थानों के चित्र भी दिए गए जिन्हें पीक थूककर गंदा गया गया है। देखकर लगा जैसे पान सभ्यता का नहीं असभ्यता का परिचायक है।

एक समय था जब पान आभिजात्य का प्रतीक था। यह राज घरानों के दैनिक जीवन में रचा-बसा था। इसमें पड़ने वाले कत्थे, चूने, सुपारी और गुलुकंद स्वास्थ्यवर्धक समझे जाते थे। पान रचे ओंठ सौदर्य का प्रतीक थे एवं पानदान और सरौते का सौदर्य हमारी शिल्प कला की सुगढ़ता को प्रकट करता था। पान पर्वों, गोष्ठियों और विवाह जैसे धार्मिक कृत्यों का आवश्यक अंग होता था। यही नहीं कला और संस्कृति में पानदान और पान की तश्तरी तक का विशेष महत्व था।

अंग्रेजी सभ्यता के सांस्कृतिक हमले से जूझते-जूझते कब पान अपनी रौनक खो बैठा पता ही न चला। न उगालदान साथ लेकर चलने वाले नौकर का ज़माना रहा और न हम स्वास्थ्य और संस्कृति से इसे ठीक से जोड़े रख सके। वह आम आदमी का व्यसन भर बनकर रह गया। अनेक असावधानियों से बचाकर रखते हुए अगर हम पान का संयमित प्रयोग कर पाते तो इसकी शान के कारण विश्व में सम्मानित भी हो सकते थे। लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका।

अखबार में प्रकाशित चित्रों के देखकर दुख हुआ पर उसके विषय में बात करना बेकार है क्यों कि उससे कहीं ज्यादा पीक भारतीय इमारतों के कोनों में देखी जा सकती है।

मज़ेदार बात यह थी कि लगे हुए पान का जो चित्र दिया गया वह उल्टा था- चिकना हिस्सा ऊपर और उभरा हिस्सा नीचे, चिकने हिस्से पर रखे थे- कत्था, चूना और सुपारी। यानी यह पान, पान की शान जानने वाले किसी उस्ताद पनवाड़ी हाथों में नहीं है बल्कि पान की शान से अनजान किसी फोटोग्राफर के नौसिखिये माडल के हाथ में है। इस चित्र को अखबार ने अपने पन्ने की शोभा बढ़ाने के लिये बनवाया होगा। आप भी देखें।
 
                                                                                              साभार: चोंच में आकाश. 

रविवार, 27 मार्च 2011

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी 103 वर्षीय क्रांतिकारी मोहन लहरी से बातचीत - राजीव रंजन प्रसाद



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साहित्य शिल्पी पर आज क्रांतिकारी भगत सिंह के शहादत दिवस पर प्रस्तुत है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी क्रांतिकारी मोहन लहरी से बातचीत। यह बातचीत क्रांति के गहरे मायनों को समझने में सहायक है। 
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“गहरे पानी उतरने पर मोती मिलता है” यह कहावत सत्य सिद्ध हुई। बस्तर के इतिहास और इसके वर्तमान परिस्थ्तियों पर आधारित एक उपन्यास लिख रहा हूँ, इसी संदर्भ में जानकारी जुटाने मैं कांकेर पहुँचा था। वहाँ पत्रकार मित्र कमल शुक्ला से मुलाकात हुई। बस्तर के बहुचर्चित मालिक मकबूजा कांड पर मुझे सामग्री चाहिये थी इसके अलावा मैं कांकेर के राजपरिवार से भी मिल कर प्राचीन कांकेर राज्य के अतीत को समझने की कोशिश करना चाहता था। कमल शुक्ला के साथ उनके कार्यालय में लगभग दो घंटे तक मेरे उपन्यास पर चर्चा हुई और यहीं उन्होंने मुझे मोहन लहरी जी के विषय में बताया। मुझे ज्ञात हुआ कि बस्तर राज्य के अंतिम शासक प्रवीर चंद्र भंजदेव के वे लगभग साढे छ: साल तक सलाहकार रहे हैं। पत्थरों और कागजों से इतर मुझे इतिहास का जीवित गवाह मिल गया था। मैं नहीं जानता था कि उनसे मिलना अविस्मरणीय होगा, जीवन की एक उपलब्धि हो जायेगा। कमल शुक्ला अपनी मोटरसाईकल में बैठा कर मुझे उस गेस्टहाउस तक ले आये जहाँ जिला प्रशासन की ओर से मोहन लहरी जी के रहने की व्यवस्था की गयी है। कमल नें रास्ते में मुझे बताया था कि मोहल लहरी क्रांतिकारी रहे हैं और आजादी की लडाई के लिये उन्होंने राजबिहारी बोस, बीडी सावरकर, एमएन राय और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया है।

गेस्ट हाउस से लगभग सौ मीटर पहले ही हमें उतरना पडा। “यही हैं मोहन लहरी” कमल शुक्ला नें मुझे बताया। वयो वृद्ध, झक्क सफेद दाढी, कमर झुक गयी है, हाँथ में एक सर्पाकार छडी, भूरे रंग का कुर्ता, मटमैला पायजामा, कंधे पर सफेद कपडा....वे आहिस्ता आहिस्ता चल रहे थे। मैंने उनके चरण छुवे। मैंने खादी का कुर्ता पहना हुआ था और इस बात नें उन्हें अनोखी खुशी दी थी। “आदमी कुर्ता पायजामा पहनते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं..” वे इतने प्रसन्न और सहज हो गये कि उन्होंने अपना एक हाँथ मेरे कंधे पर डाला और दूसरे से हाँथ लाठी टेकते हमें लिये गेस्ट हाउस की ओर बढ चले। मैंने रास्ते में उन्हें अपने आने का प्रायोजन बताया।

गेस्ट हाउस में बाहर की ओर कुर्सियाँ लगी हुई हैं। हम बैठ गये। बातचीत आरंभ करने जैसी कोई औपचारिकता नहीं रह गयी थी। कोई प्रश्न नहीं और कोई परिचर्चा नहीं। उस बरगद के पेड नें जान लिया था कि मुझ परिन्दे की प्यास क्या है। उन्होंने बोलना आरंभ किया तो अगले लगभग एक घंटे वे अतीत के पृष्ठ दर पृष्ठ होलते गये। उनकी आवाज आज भी जोशीली है, कंपन रहित और बुलंद है। उनकी आँखों में सम्मोहन है और व्यक्तित्व में विशालता।

“मेरी उम्र अब एक सौ तीन साल की होने चली है भाई जी...मेरा जन्म 1908 में होशंगाबाद में हुआ था...तब सी. पी एण्ड बरार था उसके बाद में मध्यप्रदेश बना उसके बाद में छतीसगढ बना।” बोलते हुए एक हाँथ से उहोंने अष्टावक्र सदृश्य छडी पकडी हुई थी और दूसरे हाँथ को अपनी बातों की प्रभावी अभिव्यक्ति को दिशा देने के लिये इस्तेमाल कर रहे थे। इसी बीच कमल शुक्ला नें लहरी जी की कुछ तस्वीरें लीं। उनके धाराप्रवाह वक्तव्य में व्यवधान हुआ लेकिन जिन्दादिल लहरी जी को जैसे ही पता चला कि कमल पत्रकार हैं वो चुटकी लेने से बाज नहीं आये “आप लोग फोटो खीच के कहीं छाप देंगे, हम लोग फँस जायेंगे।“ अपनी इस बात पर वे स्वयं भी हँस पडे थे।

इस बीच गेस्ट हाउस से चाय भी आ गयी थी इस लिये मूल विषय से हट कर बाते होने लगी। छतीसगढ के साहित्यिक परिदृश्य पर एकाएक लहरी जी नें तल्ख टिप्पणी की “यहाँ साहित्य पढा किसने है? जो लिख रहे हैं उनकी भाषा और व्याकरण देखो...जबरदस्ती के जोड तोड वाले और बिना समझ वाले कवि और साहित्यकार हो गये हैं।....। बस्तर के राजा का सलाहकार रहा हूँ भाई जी पचास साल पहले। किसी गाँव में वो भेज देते थे कि पूजा है वहाँ सौ रुपये दे देना। मैं जाता था तो लोग खटिया बिछा देते थे और पौआ ला कर रख देते थे कि लो पीयो। इसमें भी साहित्य है भैय्या। पूरा जीवन देखा है मैने यहाँ बस्तर में, छतीसगढ में...लोग यहाँ भात पकाते थे, बच जाता था तो उसमें पानी डाल देते थे जिसको दूसरे दिन खाते थे, इसमें भी इतिहास है यहाँ का। आज आदमी पतलून पहने लगा है तो समझता है हम सभ्य हो गये? इसमें उसको अपना विकास नजर आता है। भाई जी विकास नहीं हो रहा है, विनाश हो रहा है। हमारी संस्कृति पर हमला हो रहा है। विदेशी लोग हमला कर रहे हैं और हमारी संस्कृति को मिटा रहे हैं।“ अंतिम वाक्य कहते हुए उनकी आँखें आग्नेय हो उठी थी। मोहन लहरी की बुलंद आवाज़ में कहे गये इन वक्तव्यों से न केवल सिहरन हुई बल्कि वह उच्च कोटि की सोच भी सामने आयी जिसे लिये आजादी के ये परवाने जान हथेली पर लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगाये रहते थे।

“मेरी पत्नी फिलिपिन की रहने वाली थी भाई जी फ्लोरा फ्रांसिस नाम था। सिंगापुर के रेडियो स्टेशन में वो काम करती थीं, अंग्रेजी की एनाउंसर थी। उसके पिताजी मनीला में वायलिन वादक थे। बैंकाक में हमने शादी की थी। उसनें मेरा भाषण सुना तो मुझसे शादी नहीं होने पर जिन्दगी भर कुँवारी रहने की बात अपने परिवार से कह दी। माँ बाप तैयार हो गये। तेरह चौदह साल हमारा साथ रहा। मैं गया था बैंकाक...राजनीतिक काम से घूमता था। रास बिहारी बोस के साथ काम करता था भाई जी। तब मैं जापानी बडी अच्छी बोलता था, मुझे फ्रेंच और जर्मन भाषा भी आती है। अब तो सब भूल गया हूँ, कोई बोलता नहीं है साथ में। वहीं एक पहाडी पर रहता था...आठ टन बारूद का बम गिरा हमारे बंगले पर। मेरी पत्नी और मेरी लडकी के साथ ही मेरा सब कुछ जल गया। लौट के आया, यह सब देखा तो मैं पागल हो गया। कुछ दिनों वही अस्पताल में रहा।...। वहाँ की जो मैट्रोन थी मुझसे पूछती थी अकेले में क्या देखते रहते हो? मैं कहता था बम देखता हूँ और देखता हूँ कि सब कुछ जल गया है, धुँआ उड रहा है।....।"

"मैं जब ठीक हुआ तो नेता जी...सुभाष बाबू नें मुझसे पूछा कि आगे कैसे काम करना चाहते हो। मैंने कहा नेताजी काम तो आपके साथ ही करेंगे और जहाँ रहेंगे वहाँ से आपके लिये ही काम करेंगे। मैं रंगून आ गया। जनरल ऑगसांन के साथ रहा हूँ मैं। वहाँ से मैं ‘वॉयस ऑफ बर्मा’ नाम का पेपर निकालता था।...। पहले मैनें जापान के अखबार नीशि-नीशि के लिए भी पत्रकारिता की है।"

"भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी मैं फोर्टीसेवन में नहीं आ सका, मैं भारत में फोर्टीनाईन में आया था। सेकेंड वर्ल्ड वार के टाईम में जो सडक बनी थी इंडिया, बर्मा और चाईना को जोडती थी। उस से हो कर मैं आया तो हिलगेट जहाँ से बर्मा छूट जाता है और इंडिया शुरु हो जाता है वहाँ पर मुझे पकडने के लिये अठारह-बीस सिपाही आ गये, बन्दूख वाले। तब जवाहर लाल नेहरू का जमाना था। उसके बाद हमको ला कर एक बंग्ले में ठहराया गया। कमरे के बाहर बंदूख ले कर सिपाही खडे हो गये तब मुझे लग गया कि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है। उस एरिया का पोलिटिकल ऑफिसर था सुरेश चन्द्र बरगोहाईं, सबके नाम मुझे याद हैं। तो पॉलिटिकल ऑफिसर बरगोहाईं नें दिल्ली फोन कर दिया कि सुभाष चंद्र बोस के एक साथी आये हैं। हम तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सरकार के मिनिस्ट्री आफ प्रेस पब्लिसिटी एंड प्रोपागेंडा के प्रोग्रामिंग आफिसर थे भाई जी। तो हमे जाने दिया लेकिन सी.आई.डी पीछे लग गयी। मैं जहाँ जाता वहाँ मेरी बात नोट करते। उस समय देवकांत बरुआ नाम के एक एडवोकेट थे और असाम में सेक्रेटरी थे। उनने फिर मदद की। मेरे पास जो विदेशी मुद्रा थी उसको बदलवा कर पाँच हजार रुपये दिये। इस तरह से मैं भारत में आया, फिर कलकता चला गया। वहाँ भी सी.आई.डी से परेशान हो के मैने सीधे नेहरू जी को चिट्ठी लिखी, तब मुझे मुक्ति मिली। इसके बाद नेहरू जी से दार्जलिंग में मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने फिर हमको चाईल्ड वेल्फेयर काउंसिल, मध्यप्रदेश का अध्यक्ष बना दिया। मैं खुद घूम घूम कर आँगनबाडियाँ खोली हैं...सिवनी, छिन्दवाडा सब जगह।....।"

"बहुत काम किया है भईया जी। धर्मयुग और बांबे क्रानिकल जैसे अखबार में भी मैने काम किया है। सईय्यद अब्दुल्ला बरेलवी के साथ मैं बॉम्बे क्रॉनिकल में सहायक सम्पादक था।....। बडा अच्छा समय था भाई जी। राजेन्द्र प्रसाद जी को मैने कई बार अपनी कविता सुनाई थी। इतने इमानदार आदमी थे कि सरकारी खाना नहीं खाते थे। घर में उनकी पत्नी खिचडी पकाती थी और वही वो खाते थे। हमनें भी उनके साथ खिचडी खाई है।"

"लेजिस्लेटिव एसेम्बली में उन दिनों पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष होते थे। उस जमाने में इलेक्टेड, सलेक्टेड और नॉमीनेटेड तीन तरह के सदस्य होते थे लेजिस्लेटिव असेम्बली में। एक बार कलकता में टंडन जी का अभिनंदन किया गया था किसी होटल में। बहुत बडा और मंहगा होटल था। टंडन जी नें होटल की चाय भी नहीं पी और खाना भी बाहर से आया, वो बडे सिद्धांतवादी थे भाई जी। एक बार उनका लडका किसी पोस्ट के लिये इंटरव्यू देने गया था। लडका वहाँ से आया तो उसने टंडन जी के पाँव छुवे और बोला बाबूजी मेरा अपॉईंटमेंट हो गया है। टंडन जी नें पूछा कि इंटरव्यू में क्या पूछा गया था। लडके ने बताया कि पहले मेरा नाम पूछा फिर पिताजी का नाम पूछा, फिर मुझे चुन लिया गया। टंडन जी नें लडके की नौकरी छुडवा दी बोले भ्रष्टाचार हुआ है। एसे ही किसी कारण से टंडन जी नें एसेम्बली भी छोड दी थी। एसे थे उस जमाने के नेता। हमने उनको एक बार वंदेमातरम गा कर सुनाया था तो टंडन जी बडे भावुक हो गये थे। बोले एसा वंदेमातरम गान हो मैंने पहले कभी सुना नहीं है।"

"मैंने एक किताब लिखी थी – ‘नेताजी स्पीक्स’ जिसका ट्रांस्लेशन हुआ है बांगला में ‘आमी सुभाष बोलछी’ और हिन्दी में भी किसी जमाने में ये किताब आई थी। एक और किताब ‘टोकियो टू इम्फाल’ मैंने बर्मा में लिखी थी जो रंगून में छपी थी, बर्मा पब्लिशर्स नें छापी थी।....। यह मेरा इतिहास है भैय्या जी, अब अकेला हूँ और सरकार के भरोसे हूँ। कुछ पुराने किस्सों के साथ जी रहा हूँ भाई जी, जिन्हें कोई जानता नहीं है।" 

लहरी जी अपने बारे में बात करते हुए भावुक हो गये थे। उन्होंने हाँथ के इशारे से हमें पीछे आने के लिये कहा और स्वयं गेस्ट्हाउस में अपने कमरे की ओर बढ गये। साधारण कमरा था जिसमें एक पलंग बिछा हुआ था। कमरे के एक ओर दो कुर्सियाँ भी रखी हुई थी।...।

“यहीं रहता हूँ भाई जी दो ढाई महीने से।” लहरी जी नें हमें कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।

इस उम्र में भी मोहन लहरी जी की याददाश्त कमाल की है। बातचीत के आरंभ में ही मैंने उन्हें बताया था कि बस्तर के अतीत पर शोध के लिये निकला हूँ अत: यहाँ के अंतिम शासक महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव के विषय में भी जानना चाहता हूँ। बिना इस सम्बंध में मेरे प्रश्न की प्रतीक्षा किये ही उन्होंने बोलना आरंभ किया – “ प्रवीण चंद्र भंजदेव अपने साथ भोपाल से ले आये थे मुझको। उस जमाने में वो एम एल ए थे। राजे-रजवाडे तो खतम हो गये थे लेकिन प्रवीर चंद्र बस्तर का राजा और गुलाब सिंह, रीवा का राजा दोनों अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। राजा लोहे की खदान को ले कर सरकार से लड रहा था। बस्तर के पास कांकेर का रजवाडा था जिसमें राजा होते थे नरहर देव। उनको कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने भानुप्रतपदेव को गोद ले कर राजा बनाया था। उनका भाई था कुमार त्रिभुवन देव...बहुत अच्छे स्वभाव का था। मैंने इनके साथ भी अच्छा समय व्यतीत किया है । जब सारे रजवाडे खतम हो गये तब भी बस्तर के राजा को एक दिन फिर से राजा बन जाने के उम्मीद थी। लन्दन में रहने की वजह से महाराजा प्रबीरचन्द की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। मैं एक पेपर निकालता था भोपाल से..उस पेपर को राजा नें कहीं से पढा। मेरी भाषा से प्रभावित हो के उसके खोज कर के मुझको बुलवाया। मुझे भी बडा अलग काम लगा और मैं राजा का प्रस्ताव मान कर उनका सलाहकार बन कर बस्तर चला आया। साढे छ: साल मैं उनका सलाहकार रहा भाई जी। बडे जिद्दी थे प्रबीर और मनमौजी। उस जमाने के गृहमंत्री को भी वो कुछ नहीं समझते थे। यह सब उनके सोच की गलती थी। एक लुंगी पहनते थे सिल्क की और सिल्क का ही कुर्ता। दाढी बढी हुई। हम रात रात भर बात करते थे कितनी बार सुबह हो गयी।..।"
[चित्र में राजीव रंजन प्रसाद जगदलपुर राज महल परिसर में जिसकी पृष्ठ भूमि में महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव की तस्वीर लगी हुई है।]

"प्रवीर चंद्र को मैने उनकी एक सनक के कारण छोड दिया था। वो लन्दन से एक अलशेशियन कुत्ता ले कर आये थे। किसी कारण से कुत्ता मर गया। राजा का प्यारा कुत्ता मरा तो उसने खूब बाजे गाजे के साथ जगदलपुर में घुमा कर शवयात्रा निकलवाई। खाना मैं राजा के साथ ही खाता था। प्रबीर चन्द्र नें मुझसे कहा कि आपने ध्यान नही दिया। अगर समय पर किसी डाक्टर को दिखवा दिया होता तो मेरा प्यारा कुत्ता मरा नहीं होता। मैं भी उखड गया भाई जी। मैंने कहा कि राजा साहब मैं आपका सलाहकार हूँ लेकिन किसी कुत्ते की हिफाजत के लिये आपके साथ नहीं आया हूँ। राजा नाराज हो गया और खाना छोड के चला गया। मैं भी उठ कर आ गया। मेरी सेवा में राजा की लगाई हुई एक कार थी। मैंने ड्राईवर से कहा कि बस स्टैंड ले चलो। फिर मैं कांकेर आ गया। यहाँ रजवाडे में भानुप्रतापदेव नें मेरा स्वागत किया और मुझे यहीं रुक जाने के लिये कहा।"

"प्रबीर चन्द्र को गोली मार दी गयी थी भाई जी। मेरे वहाँ से आने के बाद बस्तर का गोलीकांड हुआ था। राजा और कलेक्टर नरोन्हा में बहुत तनातनी चल रही थी। तब से अब तक भाई जी समय भी बदल गया है। तब जगदलपुर भी बहुत पिछडा हुआ था। दुकाने भी बहुत कम थी एक दो जगह ही बाजार लगता था। महल के पास ही एक अंडे वाला दो तीन पकौडे वाले बैठते थे। उस जमाने के एक कवि हैं लाला जगदलपुरी। आज भी बस्तर में उनका बहुत नाम है भाई जी। उनसे मेरा परिचय है। हाल में जगदलपुर गया था। वहाँ के नेता हैं न बलीराम कश्यप उनहोने बुलवाया था। आज कल वहाँ नक्सलवादी हो गये हैं तो सबके साथ मेरी भी वहाँ के आरक्षक लोग तलाशी करने लगे। मैंने अपनी लाठी से उनको धकेल कर डांट दिया। मैं नेता जी के साथ काम कर चुका हूँ और तुम मेरी तलाशी लेते हो?" 
[चित्र में क्रांतिकारी मोहन लहरी जी के साथ राजीव रंजन प्रसाद तथा कमल शुक्ला] 

“नक्सलवादी वहाँ क्रांति कर रहे हैं?” बहुत धीरे से मैंने लहरी जी से सम्मुख कहा था। मेरे इस वाक्यांश में छिपा प्रश्न संभवत: वे समझ गये और एकदम से लहरी जी का सुर बदल गया। “इसे क्रांति नहीं कहते हैं भाई जी, ये क्रांति नहीं है। क्रांति का मतलब अलग होता है। हमने नेता जी के साथ रह कर क्रांति को जिया है और देखा है।.....। आज मेरे पास बढी हुई उम्र के अलावा कुछ नहीं है। जो कुछ भी मेरे पास था चोरी चला गया। बहुत सारी तस्वीरे थीं। नेताजी के साथ की तस्वीरें। पट्टाभिसीता रमैय्या के लिखे बहुत सारे पत्र जो रायपुर में किसी नें चुरा लिये। यही सब सम्पत्ति थी अब खाली हाँथ हूँ। बस बोलना जानता हूँ भाई जी और इसी से जो चाहो आपको दे सकता हूँ। पुरानी बाते याद हैं बस। लेकिन इतना समय हो गया कि अपनी बिटिया का चेहरा भी भूल गया हूँ जो जापान में बमबारी में मारी गयी थी।“ यही हमारी बातचीत में उनका आखिरी वाक्य था, फिर लहरी जी के स्वर में भावुकता घर कर गयी थी।

बाल गीत: लंगडी खेलें..... संजीव 'सलिल'

*
बाल गीत:                                                 

लंगडी खेलें.....

संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************

मुक्तिका: वो चुप भी रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

वो चुप भी रहे

संजीव 'सलिल'
*
वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये
हम सुन न सके पर दह भी गये..

मूल्यों को तोडा सुविधा-हित.
यह भी सच है खो-गह भी गये..

हमने देकर भी मात न दी-
ना दे कर वे दे शह भी गये..

खटिया तो खड़ी कर दी प्यारे!.
चादर क्यूं मेरी कर तह भी गये..

ऊपर से कहते गलत न हो.
भीतर से देते शह भी गये..

समझे के ना समझे लेकिन.
कहते वो 'सलिल' अह अह भी गये..

*****************

शनिवार, 26 मार्च 2011

मुझको यह रचना रुची: गीत - हम किसको परिचित कह पाते ---राकेश खंडेलवाल


मुझको यह रचना रुची:

इस स्तम्भ के अंतर्गत कोइ भी पाठक वह रचना भेज सकता है जो उसके मन को छू गयी हो. रचना के साथ रचनाकार का नाम, जहाँ यह रचना पहले छपी हो उसका सन्दर्भ/लिंक, भेजनेवाले का नाम व् ई-मेल divynarmada.blogspot.com पर भेजें.

हम किसको परिचित कह पाते

राकेश खंडेलवाल
*
हम अधरों पर छंद गीत के गज़लों के अशआर लिये हैं
स्वर तुम्हारा मिला, इन्हें हम गाते भी तो कैसे गाते
अक्षर की कलियां चुन चुन कर पिरो रखी शब्दों की माला
भावों की कोमल अँगड़ाई से उसको सुरभित कर डाला
वनफूलों की मोहक छवियों वाली मलयज के टाँके से
पिघल रही पुरबा की मस्ती को पाँखुर पाँखुर में ढाला
स्वर के बिना गीत है लेकिन, बुझे हुए दीपक के जैसा
हम अपने आराधित का क्या पूजन क्या अर्चन कर पाते
नयन पालकी में बैठे, चित्र एक जो बन दुल्हनिया
मन के सिन्धु तीर पर गूँजे, जिसके पांवों की पैंजनियां
नभ की मंदाकिनियों में जो चमक रहे शत अरब सितारे
लालायित हों बँधें ओढ़नी जिसकी, बन हीरे की कनियां
यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते
साँसों की शहनाई की सरगम में गूँजा नाम एक ही
जीवन के हर पथ का भी गंतव्य रहा है नाम एक ही
एक ध्येय है , एक बिन्दु है, एक वही बन गया अस्मिता
प्राण बाँसुरी को अभिलाषित, रहा अधर जो स्पर्श श्याम ही
जर्जर, धूल धूसरित देवालय की इक खंडित प्रतिमा में
प्राण प्रतिष्ठित नहीं, जानते, उम्र बिताई अर्घ्य चढ़ाते
सपनों की परिणति, लहरों का जैसे हो तट से टकराना
टूटे हुए तार पर सारंगी का एक कहानी गाना
काई जमे झील के जल में बिम्बों का आकार तलाशे
जो पागल मन, उसको गहरा जीवन का दर्शन समझाना
धड़कन के ॠण का बोझा ढो ढो कर थके शिथिल काँधों में
क्षमता नहीं किसी अनुग्रह का अंश मात्र भी भार उठाते
आभार: ईकविता
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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

साक्षात्कार : कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा

साक्षात्कार                                                                      
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 ईशादि     नौ    उपनिषद्
                 
               उपनिषदों में ही उस आत्म तत्व का चिंतन हुआ है जो इस   सृष्टि का मूल कारण है  भूमा की ध्रुवीय सत्ता का एक अटल लक्ष्य  जो मानव का गंतव्य स्थल है  वहाँ उपनिषद् हमें ज्ञान व कर्म् मार्ग से ले जाते हैं  आध्यात्मिक चिंता शाश्वत चिंता है , समकालीन व सामयिक नहीं वरन सामायिक समाधान  उपनिषदों का कथ्य विषय है .  अतः ये केवल काव्य , भाव ,उपदेश या सिद्धांत न होकर  जीवन की सूक्तियाँ बन गई हैं जो उपनिषदों  की महिमा , महत्ता , पवित्रता तथा आर्षता  को ध्वनित करती हैं .
  उपनिषदों का काव्यात्मक और गेय स्वरूप अनंता का कृपा साध्य प्रसाद हैं और प्रसाद अणु या कण भर भी धन्य हैं  मेरी धन्यता का पार नहीं जो अंजुरी भर कृपा प्रसाद पाया ..

कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी: 
                                             डॉ.मृदुल कीर्ति                         

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

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ईहातीत क्षण: मृदुल कीर्ति


 


ईहातीत क्षण: मृदुल कीर्ति

ईहातीत क्षणों की अनुभूति अनुभव गम्य होती है। यह आत्मा जिसमें हर क्षण कुछ ज्ञान पर्याय प्रकट हो रहे हैं। यह हर क्षण कुछ जान रहा है और उस ज्ञान के आकार में परिवर्तित हो रहा है। जब यह पञ्च भूतों को भोगता है, जानता है, तो उसमें व्यक्त होता है, रूपायित होता है ,प्रति भासित होता है, फ़िर स्वयम में लीं हो जाता है, बाहर कुछ रहता नहीं है। इन कवितायों में सत्ता के अस्ति, अव्यय अव्यक्त, अन्तः मुक्त स्वरुप को साक्षात करने का प्रयास किया है। इनमें यदि कहीं दिव्य अनुभूति है तो वह ईश्वर की कृपा है। दोष सारे मेरे हैं।
ईहातीत क्षण ------ईश्वरीय अनुकम्पा के क्षणों का दिव्य प्रसाद है.

अष्टावक्र गीता काव्यानुवाद --मृदुल कीर्ति

 
काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  
   संग्रह —
अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
यह देह , मन ,बुद्धि ,अहम् भ्रम जाल किंचित सत नहीं ,
पर कर्म कर कर्तव्य वत्बिन चाह फल के , रत नहीं .[1]
अब तेरी चेष्टाएं सब प्रारब्ध के आधीन हैं
कर्म रत पर मन विरत , चित्त राग द्वेष विहीन हैं [ २ ]
पर रूप में जो अरूप है , वही सत्य ब्रह्म स्वरूप है
दृष्टव्य अनुभव गम्य जो , तेरे भाव के अनुरूप है. [ ३ ]
तू शुद्ध , बुद्ध, प्रबुद्ध , चिन्मय आत्मा चैतन्य है .
बोध रूप अरूप ब्रह्म का , तत्व है तू धन्य है . [ ४ ]
यह तू है और मैं का विभाजन , अहम् मय अभिमान है ,
व्यक्तिव जब अस्तित्व में मिल जाए तब ही विराम है , [ ५ ]
निर्जीव होने से प्रथम , निर्बीज यदि यह जीव है
उन्मुक्त , मुक्त विमुक्त , यद्यपि कर्मरत है सजीव है . [ ६ ]
अनेकत्व से एकत्व का , जब बोध उदबोधन हुआ ,
बस उसी पल आत्मिक जीवन का संशोधन हुआ , [ ७ ]
विक्षेप मन चित , देह और संसार के निःशेष हैं ,
सर्वोच्च स्थिति आत्मज्ञान में आत्मा ही शेष है . [ ८ ]
ब्रह्माण्ड में चैतन्य की ही ऊर्जा है , विधान है ,
निर्जीव रह निर्बीज कर , यही मूल ज्ञान प्रधान है [ ९ ]
जनक उवाचः

हे ईश ! मानव ज्ञान कैसे , प्राप्त कर सकता अहो !
हमें मुक्ति और वैराग्य कैसे , मिल सकें कृपया कहो [ १ ]

अष्टावक्र उवाचः
प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष, तज विषयों को ,जैसे विष तजें,
सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयूष वत नित -नित भजें . [ २ ]

न ही वायु, जल, अग्नि, धरा और न ही तू आकाश है,
मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है . [ ३ ]

यदि पृथक करके देह भाव को, देही में आवास हो
तब तू अभी सुख शांति, बन्धन मुक्त भव, विश्वास हो .[ ४ ]

वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है,
आकार हीन असंग केवल, साक्ष्य भाव प्रबंध है . [ ५ ]

सुख दुःख धर्म - अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं,
कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं . [ ६ ]

सर्वस्व दृष्टा एक तू , और सर्वदा उन्मुक्त है ,
यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन युक्त है . [ ७ ]

तू अहम् रुपी सर्प दंषित, कह रहा कर्ता मैं ही ,
विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा, कर्ता नहीं . [ ८ ]

मैं सुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूँ,
अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूँ . [९ ]

सब जगत कल्पित असत, रज्जु मैं सर्प का आभास है
इस बोध का कारण कि तुझमें, भ्रम का ही वास है .[१०]

प्रथम प्रकरण / श्लोक 11-20 / मृदुल कीर्ति

 
अष्टावक्र उवाचः
जो मुक्त माने ,मुक्त स्व को, बद्ध माने बद्ध है,
जैसी मति वैसी गति, किवंदंती ऐसी प्रसिद्ध है.---११

परिपूर्ण,पूर्ण है, एक विभु, चैतन्य साक्षी शांत है,
यह आत्मा निःस्पृह विमल , संसारी लगती भ्रांत है .---१२

यह देह मन बुद्धि अहम्, ममकार , भ्रम, है अनित्य हैं,
कूटस्थ बोध अद्वैत निश्चय , आत्मा ही नित्य है.---१३

बहुकाल से तू देह के अभिमान में आबद्ध है,
कर ज्ञान रूपी अरि से बेधन, नित्य तब निर्बद्ध है.---१४

निष्क्रिय निरंजन स्व प्रकाशित , आत्म तत्व असंग है,
तू ही अनुष्ठापित समाधी, कर रहा क्या विसंग है.---१५

यह विश्व तुझमें ही व्याप्त है, तुझमें पिरोया सा हुआ,
तू वस्तुतः चैतन्य, सब तुझमें समाया सा हुआ.---१६

निरपेक्ष अविकारी तू ही, चिर शान्ति मुक्ति का मूल है,
चिन्मात्र चिद्घन रूप तू, चैतन्य शक्ति समूल है .---१७

देह मिथ्या आत्म तत्व ही , नित्य निश्चल सत्य है ,
उपदेश यह ही यथार्थ, जग आवागमन, से मुक्त है.---१८

ज्यों विश्व में प्रतिबिम्ब अपने रूप का ही वास है,
त्यों बाह्य अंतर्देह में, परब्रह्म का आवास है.---१९

ज्यों घट में अन्तः बाह्य स्थित सर्वगत आकाश है,
त्यों नित निरंतर ब्रह्म का सब प्राणियों में प्रकाश है.---२०

द्वितीय प्रकरण / श्लोक 1-12 / मृदुल कीर्ति

बोधस्वरूपी मैं निरंजन , शांत प्रकृति से परे,
ठगित मोह से काल इतने , व्यर्थ संसृति में करे.----१

ज्यों देह देही से प्रकाशित, जगत भी ज्योतित तथा,
या तो जगत सम्पूर्ण या कुछ भी नहीं मेरा यथा .----२

इस देह में ही विदेह जग से त्याग वृति आ गई
आश्चर्य ! कि पृथकत्व भाव से ब्रह्म दृष्टि भा गई ----३

ज्यों फेन और तरंग में , जल से न कोई भिन्नता,
त्यों विश्व ,आत्मा से सृजित , तद्रूप एक अभिन्नता ----४

ज्यों तंतुओं से वस्त्र निर्मित, तन्तु ही तो मूल हैं.
त्यों आत्मा रूपी तंतुओं से, सृजित विश्व समूल हैं.----५

ज्यों शर्करा गन्ने के रस से ही विनिर्मित व्याप्त है,
त्यों आत्मा में ही विश्व , विश्व में आत्मा भी व्याप्त है.----६

संसार भासित हो रहा, बिन आत्मा के ज्ञान से,
ज्यों सर्प भासित हो रहा हा,रज्जू के अज्ञान से.----७

ज्योतिर्मयी मेरा रूप मैं, उससे पृथक किंचित नहीं ,
जग आत्मा की ज्योति से ,ज्योतित निमिष वंचित नहीं ----८

अज्ञान- से ही जगत कल्पित , भासता मुझमें अहे,
रज्जू में ,अहि सीपी में चांदी , रवि किरण में जल रहे .-----९

माटी में घट जल में लहर , लय स्वर्ण भूषन में रहे ,
वैसे जगत मुझसे सृजित , मुझमें विलय कण कण अहे.----१०

ब्रह्मा से ले पर्यंत तृण, जग शेष हो तब भी मेरा,
अस्तित्व, अक्षय , नित्य, विस्मय, नमन हो मुझको मेरा.---११

मैं देहधारी हूँ, तथापि अद्वैत हूँ, विस्मय अहे,
आवागमन से हीन जग को व्याप्त कर स्थित महे.-----१२
 
मुझको नमन आश्चर्यमय ! मुझसा न कोई दक्ष है.
स्पर्श बिन ही देह धारूँ, जगत क्या समकक्ष है.------१३

मैं आत्मा आश्चर्य वत हूँ , स्वयं को ही नमन है,
या तो सब या कुछ नहीं, न वाणी है न वचन है.------१४

जहाँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तविकता मैं नहीं,
अज्ञान- से भासित हैं केवल, आत्मा सत्यम मही.------१५

चैतन्य रस अद्वैत शुद्ध,में,आत्म तत्व महिम मही,
द्वैत दुःख का मूल, मिथ्या जगत, औषधि भी नहीं.-----१६

अज्ञान- से हूँ भिन्न कल्पित, अन्यथा मैं अभिन्न हूँ,
मैं निर्विकल्प हूँ, बोधरूप हूँ, आत्मा अविछिन्न हूँ.------१७

में बंध मोक्ष विहीन, वास्तव में जगत मुझमें नहीं,
हुई भ्रांति शांत विचार से, एकत्व ही परमं मही.-------१८

यह देह और सारा जगत, कुछ भी नहीं चैतन्य की,
एक मात्र सत्ता का पसारा, कल्पना क्या अन्य की -----१९

नरक, स्वर्ग, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कल्पना,
क्या प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना.----२०

हूँ तथापि जन समूहे, द्वैत भाव न चित अहो,
एकत्व और अरण्य वत, किसे दूसरा अपना कहो.----२१

न मैं देह न ही देह मेरी, जीव भी में हूँ नहीं,
मात्र हूँ चैतन्य, मेरी जिजीविषा बन्धन मही.-----२२

मैं महोदधि, चित्त रूपी पवन भी मुझमें अहे,
विविध जग रूपी तरंगें, भिन्न न मुझमें रहे .----२३

मैं महोदधि चित्त रूपी, पवन से मुझमें मही,
विविध जगरूपी तरंगें, भाव बन कर बह रहीं .----२४

मैं महोदधि, जीव रूपी, बहु तरंगित हो रहीं,
ज्ञान से मैं हूँ यथावत, न विसंगति हो रही.-----२५

तृतीय प्रकरण / श्लोक 1-7 / मृदुल कीर्ति
 
अद्वैत आत्मिक अमर तत्व से, सर्वथा तुम् विज्ञ हो,
क्यों प्रीति, संग्रह वित्त में, ऋत ज्ञान से अनभिज्ञ हो.---१

ज्यों सीप के अज्ञान से,चांदी का भ्रम और लोभ हो,
त्यों आत्मा के अज्ञान से,भ्रमित मति, अति क्षोभ हो.----२

आत्मा रूपी जलधि में, लहर सा संसार है,
मैं हूँ वही, अथ विदित, फ़िर क्यों दीन, हीन विचार हैं.------३

अति सुन्दरम चैतन्य पावन, जानकर भी आत्मा,
अन्यान्य विषयासक्त यदि,तू मूढ़ है, जीवात्मा.-------४

आत्मा को ही प्राणियों में,आत्मा में प्राणियों
आश्चर्य !ममतासक्त मुनि, यह जान कर भी ज्ञानियों.-----५

स्थित परम अद्वैत में, तू शुद्ध, बुद्ध, मुमुक्ष है,
आश्चर्य ! है यदि तू अभी, विषयाभिमुख कामेच्छु है.-----६

काम रिपु है ज्ञान का, यह जानते ऋषि जन सभी,
आश्चर्य ! कामासक्त हो सकता है मरणासन्न भी.------७
 
 
 
 
विरत नित्यानित विवेचक, भोग हैं निरपेक्ष में,
आश्चर्य ! है यद्यपि मुमुक्षु , भय तथापि मोक्ष में.-----८

ज्ञानी जन तो भोग पीडा , भाव में समभाव हैं,
हर्ष क्रोध का आत्मा ,पर कोई भी न प्रभाव है.----९

देह में वैदेह ऋत अर्थों में ,है ज्ञानी वही,
हों भाव सम निंदा प्रसंशा , में कोई अन्तर नहीं . ------१०

अज्ञान जिसका शेष, ऐसा धीर इस संसार को,
मात्र माया मान, तत्पर मृत्यु के सत्कार को.-----११

इच्छा रहित मन मोक्ष में भी, महि महिम महिमा महे,
उस आत्म ज्ञानी से तृप्त जन की, साम्यता किससे अहे.----१२

धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपंच है,
ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीं रंच है.-----१३

वासना के कषाय कल्मष, जिसने अंतस से तजे,
निर्द्वंद दैविक सुख या दुःख, पर शान्ति अंतस में सजे.-----१४
 
 
आत्म ज्ञानी धीर जन के, कर्म अतिशय गूढ़ हैं,
जग लिप्त जन से साम्यता, किंचित करें वे मूढ़ हैं.----१

देवता इन्द्रादि भी, इच्छुक हैं जिस पद को मही,
स्थित उसी पद पर अहो! योगी को किंचित मद नहीं.-----२

निर्लिप्त अंतस पाप -पुण्य से, आत्म ज्ञानी का रहे,
ज्यों गगन का धूम से ,सम्बन्ध किंचित न रहे.------३

विश्वात्मा के रूप में, देखा जगत जिस संत ने,
उसे कोई इच्छित कार्य से, नहीं रोक सकता अनंत में.------४

ब्रह्मा से पर्यंत चींटी, चार जीव प्रकार हैं,
बस विज्ञ को इच्छा अनिच्छा, त्याग पर अधिकार है.-------५

है आत्मा परमात्म मय, कोई विरला जानता,
ज्ञानी ही निर्द्वंद केवल कर सके जो ठानता .--------६
 
अष्टावक्र उवाचः
नहीं संग है तेरा किसी से, शुद्ध तू चैतन्य है,
त्याज्य, तन अभिमान ताज दे, मोक्ष पा तू अनन्य है.-----१

तुझसे निःसृत संसार, जैसे जलधि से हो बुलबुला
आत्मा के एकत्व बोध से, मोक्ष शान्ति पथ खुला.------२

दृश्य जग प्रत्यक्ष किंतु , रज्जू सर्प प्रतीत है,
चैतन्य पर तेरी आत्म तत्व में, सत्य दृढ़ प्रतीति है.----३

आशा-निराशा , दुःख -सुख, जीवन -मरण समभाव हैं,
ब्रह्म -दृष्टि, प्रज्ञ स्थित, पर न इसका प्रभाव है.------४
 
अष्टावक्र उवाचः
घटवत जगत, प्रकृति निःसृत आकाश वाट में अनंत है,
अतः इसके ग्रहण त्याग और लय में भी निश्चिंत है.-------१

में समुद्र सदृश्य हूँ, यह जग तरंगों तुल्य है,
अतः इसके ग्रहण, लय और त्याग का क्या मूल्य है.------२

सीपवत मैं हूँ यथा जग में रजत सम भ्रान्ति है,
अतः इसको ग्रहण लय न त्याग, ज्ञान ही, शान्ति है.------३

में आत्मा अद्वैत व्यापक , प्राणियों का मूल हूँ,
अतः इसके ग्रहण लय और त्याग में निर्मूल्य हूँ.------४
 
मुझ अनंत महोदधि में, विश्व रूपी नाव जो,
मन स्वरूपी पवन विचलित, पर न मैं सम्भव जो.------१

मुझ अनंत महोदधि में, जग कल्लोल स्वभाव जो,
उदय, चाहे अस्त, अब मैं वृद्धि क्षय, समभाव जो.-----२

मैं अनंत महोदधि , जग कल्पना निःसार है,
अब शांत, मैं स्थित अवस्था, में न कोई विकार है .----३

आसक्ति विषयों के प्रति, मन देह की मेरी नहीं,
आत्मज्ञ , मुक्त हूँ स्पृहा से, विषयों की चेरी नहीं.------४

आश्चर्य ! मैं चैतन्य और यह विश्व मात्र प्रपंच है,
अतः जग की लाभ हानि मैं, रूचि नहीं रंच है.-----५
 
कुछ त्यागता कुछ ग्रहण करता, मन दुखित हर्षित कभी,
यही भाव मन के विकार , बंधन युक्त हैं, बंधित सभी.--------१

न ही ग्रहण, न ही त्याग , दुःख से परे मन मोक्ष है,
एक रस मन की अवस्था, सर्वदा निरपेक्ष है.-----२

मन लिप्त होता जब कहीं, तो बंध बंधन हेतु है,
निर्लिप्त होता जब वही मन , मोक्ष का मन सेतु है.-----३

"मैं" भाव ही बंधन महत, " मैं " का हनन ही मोक्ष है,
त्याग और ग्रहण से हो परे मन, तब मनन निरपेक्ष है.----------४
 
अष्टावक्र उवाचः
कर्म कृत और अकृत दुःख - सुख, शांत कब किसके हुए
त्यक्त वृति, अव्रती चित्त, निरपेक्ष हैं जिनके हिये.-----१

उत्पत्ति और विनाश धर्मा तात ! विश्व नितांत है,
जगत के प्रति जिजीविषा, नहीं संत की भी शांत है.-----२

त्रैताप दूषित, हेय, निन्दित , जगत केवल भ्रान्ति है,
त्यक्त है, निःसार जग को, त्यागने में शान्ति है.-----३

वह अवस्था काल कौन सी, जब मनुज निर्द्वंद हो,
सुलभ से संतुष्ट, सिद्धि पथ चले , स्वच्छंद हो.------४

बहु मत मतान्तर योगियों की, मति भ्रमित करते यथा,
अध्यात्म और वैरागियों की, शान्ति भंग करें तथा.-----५

प्रारब्ध के अनुसार तेरी, देह गति व्यवहार है,
तू वासनाएं सकल तज दे, वासना संसार है.------६

जब इन्द्रियों ही इन्द्रियों में, देह वर्ते देह में,
तत्काल बंधन मुक्त प्राणी, आत्मा निज गह में.-----७

हेय तात ! तज दे वासनाएं, वासना संसार है,
कृत कर्म अब जो भी करे, प्रारब्ध का ही प्रकार है.-----८
 
 
सब अनर्थों का मूल कारण, अर्थ है और काम है,
इनकी उपेक्षा मूल धर्म है, कर्म में निष्काम है.------१

धन, मित्र, क्षेत्र , निकेत, स्त्री, बंधु स्वप्न समान हैं,
इन्द्र जाल समान, पाँच या तीन दिन के विधान हैं.-----२

जिस वस्तु में इच्छा बसे , समझो वहां संसार है,
वैराग्य भाव प्रधान चित्त से,जान सब निःसार है.------३

संसार तृष्णा रूप है,तृष्णा जहों संसार है,
वैराग्य आश्रय हो मना, तृष्णा रहित सुख सार है.-----४

यह अविद्या भी असत और असत जड़ संसार है,
चैतन्य रूप विशुद्ध, तुझको तो जगत निःसार है.-----५

देह, नारी, राज्य, सुत आसक्त जन के सुख सभी,
हर जनम में मरण धर्मा, नष्ट ये होंगे सभी.-----६

धर्म, अर्थ, और काम हित, बहु कर्म तो कितने किए,
जगत रुपी वन में तो भी, शान्ति हित भटके हिये.-----७

देह, मन, वाणी से श्रम, दुःख पूर्ण बहु तूने किए,
उपराम कर अब तो तनिक, विश्रांति चित हिय में किए.-----८