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मंगलवार, 25 जुलाई 2023

Poem, Success, बिटिया, मुक्तिका, दोहा, नाक, सॉनेट, लघुकथा, सुनीता सिंह, नवगीत

सॉनेट
भू सुता
मैं भू सुता न जानूँ डरना,
खिलखिल हँसना ताकत मेरी,
हर पल मुझको आगे बढ़ना
साथ समय के, करूँ न देरी।

बाधा-संकट मुझसे हारे, 
मेरी पूंँजी है साहस श्रम, 
काँधे पर कान्हा बैठा रे! 
जितना लाड़ करूँ उतना कम। 

शारद बन गाती हूँ लोरी, 
लछमी बनकर फसल उगाती, 
दुर्गा हूँ मत समझो छोरी, 
हरे खेत-वन मोर सँगाती। र

हें दरिंदे दूर दरांती, 
रखूँ हाथ में हाथ न आती।। 
२५-७-२०२३
•••
पुस्तक चर्चा :
''कालचक्र को चलने दो'' भाव प्रधान कवितायें
''
[पुस्तक विवरण: काल चक्र को चलने दो, कविता संग्रह, सुनीता सिंह, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १२५, आकार २० से.मी. x १४.५ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपर बाइक लेमिनेटेड, २००/- प्रतिष्ठा पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ]
*
साहित्य समय सापेक्षी होता है। कविता 'स्व' की अनुभूतियों को 'सर्व' तक पहुँचाती है। समय सनातन है। भारतीय मनीषा को 'काल' को 'महाकाल' का उपकरण मानती है इसलिए भयाक्रांत नहीं होती, 'काल' का स्वागत करती है। 'काल को चलने दो' जीवन में व्याप्त श्वेत-श्याम की कशमकश को शब्दांकन है।कवयित्री सुनीता सिंह के शब्दों में "अकस्मात मन को झकझोर देनेवाली परिस्थितियों से मन को अत्यंत नकारात्मक रूप से प्रभावित होने से बचने के लिए उन परिस्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक होता है जो अपने बस में नहीं होतीं। जीवन कभी आसान रास्ता नहीं देता। हतोत्साहित करनेवाले कारकों और नकारात्मकता के जाल से जीवन को अँधेरे से उजाले की ओर शांत मन से ले जाने की यात्रा का दर्शन काव्य रूप से प्रस्तुत करती है यह पुस्तक।'
५४ कविताओं का यह संकलन अजाने ही पूर्णता को लक्षित करता है। ५४ = ५+४=९, नौ पूर्णता का अंक है। नौ शक्ति (नौ दुर्गा) का प्रतीक है। नौ को कितनी ही बार जोड़े या गुणा करें ९ ही मिलता है।संकलन में राष्ट्रीयता के रंग में रंगी ५ रचनाएँ हैं। ५ पंचतत्व का प्रतीक है। 'अनिल, अनल, भू, नभ सलिल' यही देश भी है। भारत भूमि, भारत वर्ष, स्वदेश नमन, प्रहरी, भारत अखंड शीर्षक इन रचनाओं में भारत का महिमा गान होना स्वाभाविक है।
इसकी गौरव गाथा को हिमगिरि झूम कर गाता है
जिस पर गर्वित होकर के सागर भी लहराता है
तिलक देश के माथे का हिम चंदन है
शत बार तुझे ऐ देश मेरे अभिनन्दन है
कवयित्री देश भक्त है किन्तु अंधभक्त नहीं है। देश महिमा गुँजाते हुए भी देश में व्याप्त अंतर्विरोध उसे दुखी करते हैं -
एक देश में दो भारत / क्यों अब तक है बसा हुआ?
एक माथ पर उन्नत भाल / दूजा क्यों है धँसा हुआ?
'माथ' और 'भाल' पर्यायवाची हैं। एक पर दूसरा कैसे? 'माथ' के स्थान पर 'कांध' होता तो अर्थवत्ता में वृद्धि होती।
इस भावभूमि से जुडी रचनाएँ रणभेरी, बढ़ते चलो, वीरों की पहचान आदि भी हैं जिनमें परिस्थितियों से जूझकर उन्हें बदलने का आव्हान है।
कवि को प्राय: काव्य-प्रेरणा प्रकृति से मिलती है। इस संग्रह में प्रकृति से जुडी रचनाओं में प्रकृति दोहन, आंधी, हरीतिमा, जल ही जीवन, मकरंद, फाग, बसंत, चूनर आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति का अनुपम उपहार / यह अभिलाषा का संसार
इच्छाओं की अनंत श्रृंखला / दिव्य लोक तक जाती है
स्वच्छंद कल्पना के उपवन में / सतरंगी पुष्प खिलाती है
स्वप्नों में स्वर्णिम पथ पर / आरूढ़ होकर आती है
कितना मोहक, कितना सुंदर / है यह विशाल अंबर निस्सार
एक बाल कथा सुनी थी जिसमें गुरु जी शिष्यों को सिखाने के बाद अंतिम परीक्षा यह लेते हैं कि वह खोज के लाओ जो किसी काम का नहीं। प्रथम वह विद्यार्थी आया जो कुछ नहीं ला सका। गुरु जी ने कहा हर वास्तु का उपयोग कर सकनेवाला ही श्रेष्ठ है। ईश्वर ने निरुपयोगी कुछ नहीं बनाया। कवयित्री ने वाकई अंबर को निस्सार पाया या तुक मिलाने के लिए शब्द का प्रयोग किया? अंबर पाँच तत्वों में से एक है, वह निस्सार कैसे हो सकता है?
दर्शन को लेकर कवयित्री ने कई रचनाएँ की हैं। गुरु गोरखनाथ की साधनास्थली में पली-बढ़ी कलम दर्शन से दूर कैसे रह सकती है?
मन की आँखों से है दिखता / खोल हृदय के द्वार
निहित कर्म पर गढ्ता / सद्गति या दुर्गति आकार
''कर्म प्रधान बिस्व करि राखा'' का निष्कर्ष तुलसी ने भी निकाला था, वही सुनीता जी का भी प्राप्य है।
संग्रह की रचनाओं में 'एकला चलो रे' हे प्रिये, हे मन सखा आदि पठनीय हैं। कवयित्री में प्रतिभा है, उसे निरंतर तराशा जाए तो उनमें छंद, शुद्ध छंद रचने की सामर्थ्य है किन्तु समयाभाव उन्हें रचना को बार-बार छंद-विधान के निकष पर कसने का अवकाश नहीं देता। पुरोवाक में नीलम चंद्रा के अनुसार 'इनके हर अलफ़ाज़ चुनिंदा होते हैं' के संदर्भ में निवेदन है कि 'हर' एक वचन है, अल्फ़ाज़ बहुवचन, 'हर लफ्ज़' सही होता।
''कालचक्र चलने दो'' कवयित्री के संवेदनशील मन की भाव यात्रा है। रचनाओं में पाठक को अपने साथ रख पाने की सामर्थ्य है। कथ्य मौलिक है। शब्द चयन सटीक है। सारत: यह कृति मानव जीवन की तरह गन-दोष युक्त है और यही इसे ग्रहणीय बनाता है। सुनीता का भविष्य एक कवयित्री के नाते उज्जवल है। वे 'अधिक' और 'श्रेष्ठ' का अंतर समझ कर 'श्रेष्ठ' की दिशा में निरंतर अग्रसर हैं।
[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]
२५-७-२०१९
***
क्या यह मौलिक सृजन है???
मुख पुस्तक पर एक द्विपदी पढ़ी. इसे सराहना भी मिल रही है.
मैं सराहना तो दूर इसे देख कर क्षुब्ध हो रहा हूँ.
आप की क्या राय है?
*
Arvind Kumar
उनके दर्शन से जो बढ़ जाती है मुख की शोभा
वोह समझते हैँ कि रोगी की दशा उत्तम है
*
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है - मिर्ज़ा ग़ालिब
***
भोजपुरी लोकोक्तियाँ
१. बेटा जेतना तोहर उमर हौ, ओकर दुगना हमार कमर हौ!
२. चवन्नी भर क हउवे आउर डॉलर भर भौकाल!
३. एतना गोली मारब की छर्रा बिनत- बिनत करोडपति हो जइबे!
४. धाम चंडी काशी में, जीवन बीतल बदमाशी में!
५. हमके जान ले, हम मारीला कम और घसिटीला जादा!
६. बेटा... सज के आयल हउवे, बज के जइबे!
७. गुरु... सम्हर जा, नाही त हफ्तन गोली चली आउर महिन्नन धुंआ उडी!"
***
नवगीत
*
हम आज़ाद देश के वासी,
मुँह में नहीं लगाम।
*
जब भी अपना मुँह खोलेंगे,
बेमतलब बातें बोलेंगे।
नहीं बोलने के पहले हम
बात कभी अपनी तोलेंगे।
ना सुधरें हैं, ना सुधरेंगे
गलती करें तमाम।
*
जितना भी ऊँचा पद पाया,
उतना नीचा गिर गर्राया।
लज्जा-हया-शर्म तज, मुस्का
निष्-दिन अपना नाम थुकाया।
दल सुधार की हर कोशिश
कर ही देंगे नाकाम।
*
अपना थूका, खुद चाटेंगे,
नफरत, द्वेष, घृणा बाँटेंगे।
तीन-पाँच दो दूनी बोलें,
पर न गलत खुद को मानेंगे।
कद्र न इंसां की करते,
हम पद को करें सलाम।
***
षट्पदिक छंद
*
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ नाक बजा लें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो नाक चढ़ा लें
छंद का नाम और लक्षण बताइए.
***
***
मुक्तक
भाव- अभावों का है तालमेल दुनिया
ममता मन में धार अकेले चल दे तू
गैरों में भी तुझको मिल जाएँ अपने
अपनापन सिंगार साजकर चल दे तू
२५-७-२०१७
***
लघुकथा
धर्म संकट
*
वे महाविद्यालय में प्रवेश कराकर बेटे को अपनी सखी विभागाध्यक्ष से मिलवाने ले गयीं। जब भी सहायता चाहिए हो, निस्संकोच आ जाना सखी ने कहा तो उन्होंने खुद को आश्वस्त पाया।
वह कठिनाई हल करने, पुस्तकालय से अतिरिक्त पुस्तक लेने, परीक्षा के पूर्व महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने विभागाध्यक्ष के पास जाता रहा। पहले तो उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली किन्तु क्रमश:उसकी प्रशंसा करते हुए सहायता करने लगीं। उसे कहा कि महाविद्यालय में 'आंटी' नहीं 'मैडम' कहना उपयुक्त है।
प्रयोगशाला में वे अधिक समय तक रूककर प्रयोग करातीं, अपने शोधपत्रों के साथ उसका नाम जोड़कर छपवाया। वह आभारी होता रहा।
उसे पता ही नहीं चला कब गलियारों में उनके सम्बन्धों को अंतरंग कहती कानाफूसियाँ फ़ैलने लगीं।
एक शाम जब वह प्रयोग कर रहा था, वे आकर हाथ बँटाने लगीं। हाथ स्पर्श होने पर उसने संकोच और भय से खुद में सिमट, खेद व्यक्त किया पर उन्होंने पूर्ववतकार्य जारी रखा मानो कुछ हुआ ही न हो। अचानक वे लड़खड़ाती लगीं तो उसने लपक कर सम्हाला, अपने कंधे पर से उनका सर और उनकी कमर में से अपने हाथ हटाने के पूर्व ही उसकी श्वासों में घुलने लगी परफ्यूम और देह की गंध। पलक झपकते दूरियाँ दूर हो गयीं।
कुछ दिन वे एक दूसरे से बचते रहे किन्तु धीरे-धीरे वातावरण सहज होने लगा। आज कक्षा के सब विद्यार्थी विभागाध्यक्ष को शुभकामनायें देकर चरण-स्पर्श कर रहे हैं। वह क्या करे? धर्मसंकट में पड़ा है चरण छुए तो कैसे?, न छुए तो साथी क्या कहेंगे? यही धर्म संकट उनके मन में भी है। दोनों की आँखें मिलीं, कठिन परिस्थिति से उबार लिया चलभाष ने, 'गुरु जी! प्रणाम। आप कार्यालय में विराजें, मैं तुरंत आती हूँ' कहते हुए, शेष विद्यार्थियों को रोककर वे चल पड़ीं कार्यालय की ओर। इस क्षण तो गुरु ने उबार लिया, टल गया था धर्म संकट।
१९-६-२०१६
***
मुक्तक:
*
मापनी: २११ २११ २११ २२
*
आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
*
मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
*
न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
*
गीत
*
समय के संतूर पर
सरगम सुहानी
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*
सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*
विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*
पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही.
***
Poem:
Success
*
Success and un success
Are two faces of a coin.
Every un success leads to
Success in life
If you do'nt lose heart.
Success gives more pleasure
After un success.
Spoon feeded success
Without any struggle or
Testing your ability
Doesn't serve any purpose.
Baloon gets the height
Without any foundation
Hence, falls down.
Let us all try to get success
Only after proper efforts.
Success without doing our best
Can't give satisfaction.
Never feel shy
If the attempt fails.
Always ensure the use of
Proper and fair means
To get success.
***
वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति
भावांजलि
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
२५-७-२०१५
***
दोहाः
छूट गया क्यों हाथ से, श्वासों का संतूर
प्यासी आसें रह गयीं, मन्जिल भी है दूर..
***
मुक्तिका:
बिटिया
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..
कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..
झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..
नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..
खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..
करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..
राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..
जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..
पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..
फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..
दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..
मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..
२५-७-२०१४

***
मुक्तक:
*
खोजता हूँ ठाँव पग थकने लगे हैं.
ढूँढता हूँ छाँव मग चुभने लगे हैं..
डूबती है नाव तट को टेरता हूँ-
दूर है क्या गाँव दृग मुंदने लगे हैं..
*
आओ! आकर हाथ मेरा थाम लो तुम.
वक़्त कहता है न कर में जाम लो तुम..
रात के तम से सवेरा जन्म लेगा-
सितारों से मशालों का काम लो तुम..
*
आँख से आँखें मिलाना तभी मीता.
पढ़ो जब कर्तव्य की गीता पुनीता..
साँस जब तक चल रही है थम न जाना-
हास का सजदा करे आसें सुनीता..
*
मिलाकर कंधे से कंधा हम चलेंगे.
हिम शिखर बाधाओं के पल में ढलेंगे.
ज़मीं है ज़रखेज़ थोड़ा पसीना बो-
पत्थरों से ऊग अंकुर बढ़ फलेंगे..
*
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
२५-७-२०१२
***
दोहा सलिला;
रवि-वसुधा के ब्याह में...
*
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागन' तुम रहो, ]मगरमस्त' अहिवात..

सूर्य-धरा को समय से, मिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा 'चाँदनी', पुष्पित पुष्प अकूत..

इठला देवर बेल से बोली:, 'रोटी बेल'.
देवर बोला खीझकर:, 'दे वर, और न खेल'..

'दूधमोगरा' पड़ोसी, हँसे देख तकरार.
'सीताफल' लाकर कहे:, 'मिल खा बाँटो प्यार'..

भोले भोले हैं नहीं, लीला करे अनूप.
बौरा गौरा को रहे, बौरा 'आम' अरूप..

मधु न मेह मधुमेह से, बच कह 'नीबू-नीम'.
जा मुनमुन को दे रहे, 'जामुन' बने हकीम..

हँसे पपीता देखकर, जग-जीवन के रंग.
सफल साधना दे सुफल, सुख दे सदा अनंग..

हुलसी 'तुलसी' मंजरित, मुकुलित गाये गीत.
'चंपा' से गुपचुप करे, मौन 'चमेली' प्रीत..

'पीपल' पी पल-पल रहा, उन्मन आँखों जाम.
'जाम' 'जुही' का कर पकड़, कहे: 'आइये वाम'..

बरगद बब्बा देखते, सूना पनघट मौन.
अमराई-चौपाल ले, आये राई-नौन..

कहा लगाकर कहकहा, गाओ मेघ मल्हार.
जल गगरी पलटा रहा, नभ में मेघ कहार..
***
मुक्तिका:
क्यों है?
*
जो जवां है तो पिलपिला क्यों है?
बोल तो लब तेरा सिला क्यों है?

दिल से दिल जब कभी न मिल पाया.
हाथ से हाथ फिर मिला क्यों है?

नींव ही जिसकी रिश्वतों ने रखी.
ऐसा जम्हूरियत किला क्यों है?

चोर करता है सीनाजोरी तो
हमको खुद खुद से ही गिला क्यों है?

शूल से तो कभी घायल न हुआ.
फूल से दिल कहो छिला क्यों है?

और हर चीज है जगह पर, पर
ये मगज जगह से हिला क्यों है?

ठीक कब कौन क्या करे कैसे?
सिर्फ गलती का सिलसिला क्यों है?
२५-७-२०११
***

सोमवार, 24 जुलाई 2023

सोनेट

सोनेट
अंबर में संसद बादल की,
हर बादल गरज गरज बोले,
चिंता न किसी को छागल की,
रोके न रुके जो मुँह खोले।

यह बादल मन की बात करे,
जुमलेबाजी वह करता है,
यह अंध भक्ति को शीश धरे,
ले-दे सरकार पलटता है।

कुछ आपस में टकराते हैं,
मुंँह की खाते हैं नाहक कुछ,
मंदिर-मस्जिद लड़वाते हैं,
आपाधापी के वाहक कुछ।

निज मुख निज कीर्ति पड़े छलकी।
पूजा करते छल-बल-खल की।।
२४-७-२०२३
•••
सॉनेट
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम,
है काल शीश पर बोल रहा,
मत कर विनाश बोलो विकास,
क्यों प्रलय द्वार मनु खोल रहा?
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम

जंगल काटे पर्वत खोदे,
नदियों का नाश किया तू ने,
किसका बूता फिर वन बो दे,
ग्लेशियर मिटे गरमी भूने।
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम

मैं ही नारी-नर, मैं किन्नर,
हो क्रुद्ध कर रहा मैं विनाश,
मैं ही शंकर मैं ही कंकर,
माया-काया मैं मोह-पाश।
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम

हूँ अर्ध नारी-नर-ईश्वर मैं।
तू क्षणभंगुर परमेश्वर मैं।।
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम
२४-७-२०२३
•••

शनिवार, 22 जुलाई 2023

सोनेट, नवगीत, पुरखे, मुक्तक, दोहे, क्रिकेट, दोहा यमक, रामकिसोर, हाड़ौती,

सॉनेट
मेघ
मेघदूत संदेश यक्ष का पहुँचाना भूले,
मेघासुर सम रूप बदलकर लड़ते-भिड़ते हैं,
पवन झुलाता झूला फिर भी शांत न होते हैं,
गरज गरज कर गुस्सा करते, गिरते-उठते हैं।

मल्ल लड़ाते पंजा, पल पल दांँव बदलते हैं,
झपट पकड़ते, बगली देते, टाँग अड़ाते हैं,
रपट फिसलते, सँभल न गिरते, मचल लपकते हैं,
कुछ न किसी को कभी समझते फँसा-गिराते हैं।

रूपवती दामिनी अदा दिखला भरमा गिरती,
घर घमंड का खाली होता फूटे जल-गगरी,
कोष लुटा सिर पीटें पर तकदीर नहीं जगती,
ठेंगा दिखा भागती आती हाथ न गिर बिजुरी।

वसुधा गिरा सलिल संचित कर हँस हरियाती है।
जब दिखता है कहीं बदरवा, मोद मनाती है।।
२२-७-२०२३
•••
छंद सलिला : सॉनेट
तिरंगा
ध्वज न केवल मैं तिरंगा
चिरंतन बलिदान हूँ मैं
लोक के हित सदा बेकल
सनातन अरमान हूँ मैं
सद्भाव हूँ मैं, शांति हूँ
चाहता सबका भला नित
नव सृजन की क्रांति भी हूँ
साध्य केवल लोक का हित
हरितिमा हूँ, भाग्य-भाषा
अहर्निश उन्नति-परिश्रम
स्वेद उपजी नवल आशा
जन प्रगति का चक्र अनुपम
आत्म जेता लो न पंगा
ध्वज न केवल मैं तिरंगा
(शेक्सपीरियन सॉनेट)
●●●
छंद सलिला : (अभिनव प्रयोगः प्रदोष सॉनेट)
मुखिया
नव मुखिया को नमन है
सबके प्रति समभाव हो
अधिक न न्यून लगाव हो
हर्षित पूरा वतन है
भवन-विराजी है कुटी
जड़ जमीन से है जुड़ी
जीवटता की है धनी
धीरज की प्रतिमा धुनी
अग्नि परीक्षा है कड़ी
दिल्ली के दरबार में
सीता फिर से है खड़ी
राह न किंचित सहज है
साथ सभी का मिल सके
यह संयोग न महज है
२२-७-२०२२
•••
छंद सलिला : (अभिनव प्रयोगः प्रदोष सॉनेट)
प्रदोष रहिए खुशी से
हमेशा करें व्रत-कथा
जीतें हर बाधा-व्यथा
आशीष मिले शिवा से
प्रदोष रचिए हमेशा
अठ-पच कल मिल खेलिए
सुख-दुख सम चुप झेलिए
विनम्र रहिए हमेशा
गुरु लघु हो न पदांत में
आस्था मिले न भ्रांत में
रखिए शांति दिनांत में
चौदह पद सॉनेट में
चौ चौ चौ दो या रहे
चौ चौ त्रै त्रै पद सदा
२२-७-२०२२
•••
नवगीत
तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त विधि ,
अणु-परमाणु-विषाणु विष्णु हो धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल--नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
भू-नभ
दिग्दिगंत यश गाते।
भूत-अभूत तुम्हीं ने नाते, बना निभाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज है खरा।
लड़, मर-मिटे
सुरासुर लेकिन
मिलकर जिए
रहे तुम आम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत हाय! न हमने, चूक यही।
रौंद प्रकृति को
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
आप बो रहे।
खाली हाथों
जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
२२-७-२०१९
***
मुक्तक
दीप्ति तम हरकर उजाला बाँट दे
अब न शर्मा शतक से तम छांट दे
दस दिशाओं से सुनो तुम तालियाँ
फाइनल लो जीत धोबीपाट दे
*
एकता है तो मिलेगी विजय भी
गेंद की गति दिशा होगी मलय सी
खाए चक्कर ब्रिटिश बल्लेबाज सब
तिरंगा फ़हरा सके, हो जयी भी
***
महिला क्रिकेट के दोहे
स्मृति का बल्ला चला, गेंद हुई रॉकेट.
पलक झपकते नभ छुए, गेंदबाज अपसेट.
*
कैसे करती अंगुलियाँ, पल में कहो कमाल.
मात दे रही पेस से, झूलन मचा धमाल.
*
दीप्ति कौंधती दामिनी, गिरे उड़ा दे होश.
चमके दमके निरंतर, कभी न रीते कोश.
*
पूनम उतरी तो हुई, अजब अनोखी बात.
घिरे विपक्षी तिमिर में, कहें अमावस तात.
*
शर संधाना तो हुई, टीम विरोधी ढेर.
मंधाना के वार से, नहीं किसी की खैर.
२२.७.१७
***
गीत
कारे बदरा
*
आ रे कारे बदरा
*
टेर रही धरती तुझे
आकर प्यास बुझा
रीते कूप-नदी भरने की
आकर राह सुझा
ओ रे कारे बदरा
*
देर न कर अब तो बरस
बजा-बजा तबला
बिजली कहे न तू गरज
नारी है सबला
भा रे कारे बदरा
*
लहर-लहर लहरा सके
मछली के सँग झूम
बीरबहूटी दूब में
नाचे भू को चूम
गा रे कारे बदरा
*
लाँघ न सीमा बेरहम
धरा न जाए डूब
दुआ कर रहे जो वही
मनुज न जाए ऊब
जारे कारे बदरा
*
हरा-भरा हर पेड़ हो
नगमे सुना हवा
'सलिल' बूंद नर्तन करे
गम की बने दवा
जारे कारे बदरा
२२-७-२०१६
***
दोहा-यमक
*
गले मिले दोहा यमक, गणपति दें आशीष।
हो समृद्ध गणतंत्र यह, गणपति बने मनीष।।
*
वीणावादिनि शत नमन, साध सकूं कुछ राग ।
वीणावादिनि है विनत, मन में ले अनुराग। ।
*
अक्षर क्षर हो दे रहा, क्षर अक्षर ज्ञान।
शब्द ब्रह्म को नमन कर, भव तरते मतिमान।।
*
चित्र गुप्त है चित्र में, देख सके तो देख।
चित्रगुप्त प्रति प्रणत हो, अमिट कर्म का लेख।।
*
दोहा ने दोहा सदा, भाषा गौ को मीत।
गीत प्रीत के गुँजाता, दोहा रीत पुनीत।।
*
भेंट रहे दोहा-यमक, ले हाथों में हार।
हार न कोई मानता, प्यार हुआ मनुहार।।
*
नीर क्षीर दोहा यमक, अर्पित पिंगल नाग।
बीन छंद, लय सरस धुन, झूम उठे सुन नाग।।
*
गले मिले दोहा-यमक, झपट झपट-लिपट चिर मीत।
गले भेद के हिम शिखर, दमके ऐक्य पुनीत।।
*
ग्यारह-तेरह यति रखें, गुरु-लघु हो पद अंत।
जगण निषिद्ध पदादि में, गुरु-लघु सम यति संत।।
*
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग।
ना मन में अनुराग रख, ना तन में बैराग।।
*
ना हक की तू माँग कर, कर पहले कर कर्तव्य।
नाहक भूला आज को, सोच रहा भवितव्य।।
२२-६-२०१६
***
एक रचना:
का बिगार दओ?
*
काए फूँक रओ बेदर्दी सें
हो खें भाव बिभोर?
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
हँस खेलत ती
संग पवन खें
पेंग भरत ती खूब।
तेंदू बिरछा
बाँह झुलाउत
रओ खुसी में डूब।
कें की नजर
लग गई दइया!
धर लओ मो खों तोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
काट-सुखा
भर दई तमाखू
डोरा दओ लपेट।
काय नें समझें
महाकाल सें
कर लई तुरतई भेंट।
लत नें लगईयो
बीमारी सौ
दैहें तोय झिंझोर
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
जिओ, जियन दो
बात मान ल्यो
पीओ नें फूकों यार!
बढ़े फेंफडे में
दम तुरतई
गाड़ी हो नें उलार।
चुप्पै-चाप
मान लें बतिया
सुनें न कौनऊ सोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
अपनों नें तो
मेहरारू-टाबर
का करो ख़याल।
गुटखा-पान,
बिड़ी लत छोड़ो
नई तें होय बबाल।
करत नसा नें
कब्बऊ कौनों
पंछी, डंगर, ढोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
बात मान लें
निज हित की जो
बोई कहाउत सयानो।
तेन कैसो
नादाँ है बीरन
साँच नई पहचानो।
भौत करी अंधेर
जगो रे!
टेरे उजरी भोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
२१-११-२०१५
कालिंदी विहार लखनऊ
***
हाड़ौती मुक्तिका:
*
तनखा पूड़ी, घूस मलाई
मत देखै तू पीर पराई
.
अंग्रेजी में गिट-पिट कर लै
हिंदी की मत करै पढ़ाई
.
बेसी धन सूं मन हरखायो
आछी लागी श्याम कमाई
.
कंसराज को खाड कालज्यो
लार सुदामा करी मिताई
.
बना भेंट कै नाक चढ़ावै
ऊँ ई सांचो जगत गुसाई
.
धोला कपड़ा, मैला मन सूं
भव सागर सूँ पार न्ह पाई
.
आतंकी रावण की लंका
सिरी राम ने जा'र ढहाई
.
आपण सबका पाप धो'र भी
यार 'सलिल' नंदी हरखाई
***
दोहे का रंग कविता के संग
*
बाहर कम भीतर अधिक जब-जब झाँकें आप
तब कविता होती प्रगट, अंतर्मन में व्याप
*
औरों की देखें कमी, दुनिया का दस्तूर
निज कमियाँ देखो बजे, कविता का संतूर
*
कविता मन की संगिनी, तन से रखे न काम
धन से रहती दूर यह, प्रिय जैसे संतान
*
कविता सविता तिमिर हर, देते दिव्य प्रकाश
महक उठे मन-मोगरा, निकट लगे आकाश
*
काव्य -कामिनी ने कभी, करी न कोई चाह
बैठे चुप थक-हारकर, कांत न पाएं थाह
***
मुक्तिका
*
मापनी: २१२२ १२१२ २२
*
आँख से आँख जब मिलाते हैं
ख्वाहिशें आप क्यों छिपाते हैं?
आइना गैर को दिखाते हैं
और खुद से नज़र चुराते हैं
वक़्त का दे रहे दुहाई जो
फ़र्ज़ का क़र्ज़ कब चुकाते हैं?
रौशनी भीख माँगती उनसे
जो मशालें जला उठाते हैं
मैं 'सलिल' ज़िंदगी का जीवन हूँ
आप बेकार क्यों बहाते हैं?
२२-७-२०१५
***
गीतः
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
२२-७-२०१४
***

बेल या बिल्व

 1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते सपास सांप नहीं आते l

2. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है।

3. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है l

4. चार, पांच, छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्र पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है l

5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का ना'श होता है एवं बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।

6. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।

7. बेल वृक्ष को सींचने से पित्र तृप्त होते है।

8. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

9. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।

10. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिव लिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी जीव सभी पापों से मुक्त हो जाते है l

11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।

कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाये। बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं l

शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात l

शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को कौन सी चीज़ चढाने से मिलता है क्या फल ?

किसी भी देवी-देवता का पूजन करते समय उनको अनेक चीज़ें अर्पित की जाती है। प्रायः भगवान को अर्पित की जाने वाली हर चीज़ का फल अलग होता है। शिव पुराण में इस बात का वर्णन मिलता है की भगवान शिव को अर्पित करने वाली अलग-अलग चीज़ों का क्या फल होता है। शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है:

1. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।

2. तिल चढ़ाने से पापों का ना'श हो जाता है।

3. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।

4. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है। यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।

शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है -

1. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।

3. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।

4. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

5. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।

6. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।

7. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।

8. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।

9. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।

10. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।

11. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।

शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

मुक्तिका, नवगीत, दोहा -सोरठा गीत, क्रिकेट, दोहे, लघुकथा, मुक्तिका

सॉनेट
बूँदें
तपती धरती पर पड़ीं बूँदें
तपिश मन की हो गई शांत
भीगकर घर आ गए कांत
पर्ण पर मणि सम जड़ी बूँदें
हाय! लज्जा से गड़ीं बूँदें
देखकर गंदी नदी सूखी
गृह लक्ष्मी हो ज्यों दुखी-भूखी
ठिठक मेघों संग उड़ी बूँदें
हैं महज शुभ की सगी बूँदें
बिकें नेता सम नहीं बूँदें
स्नेह से मिलती पगी बूँदें
आँख से छिप-छिप बहीं बूँदें
गाल पर छप-छप गईं बूँदें
धैर्य धर; ढहती नहीं बूँदें
२१-७-२०२२
***
***
लघुकथा
सिसकियाँ
सिसकियों की आवाज सुनकर मैंने पीछे मुड़के देखा। सांझ के झुरमुट में घुटनों में सर झुकाए वह सिसक रही थी। उसकी सिसकियाँ सुनकर पूछे बिना न रहा गया। पहले तो उसने कोई उत्तर न दिया, फिर धीरे धीरे बोली- 'क्या कहूँ? मेरे अपने ही जाने-अनजाने मेरे बैरी हो गए।
- तुम उनसे कोई अपेक्षा ही क्यों करती हो?
= अपेक्षा मैं नहीं करती, मुझसे ही अपेक्षा की जाती है कि मैं सबके और हर एक के मन के अनुसार ही खुद को ढाल लूँ। मैं किस-किस के अनुसार खुद को बदलूँ?
- बदलाव ही तो जीवन है। सृष्टि में बदलाव न हो एक सा मौसम, एक से हालात रहें तो विकास ही रुक जाएगा।
= वही तो मैं भी कहती हूँ। मेरा जन्म लोक में हुआ। माताएँ अपने बच्चों को बहलाने के लिए मुझे बुला लेतीं। किसान-मजदूर अपनी थकान भुलाने के लिए मुझे अपना हमसाया पाते। गुरुजन अपने विद्यार्थियों को समझाने, राह दिखाने के लिए मुझे सहायक पाते रहे।
- यह तो बहुत अच्छा है, तुम्हारा होना तो सार्थक हो गया।
= होना तो ऐसा ही चाहिए पर जो होना चाहिए वह होता कहाँ है? हुआ यह कि वर्तमान ने अतीत को पहचनाने से ही इंकार कर दिया। पत्तियों और फूलों ने बीज, अंकुर और जड़ों को अपना मूल मानने से ही इंकार कर दिया।
- यह तो वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।
= बात यहीं तक नहीं है। अब तो अलग अलग फलों ने अलग-अलग यह निर्धारित करना शुरू कर दिया है कि जड़ों, तने और शाखाओं को कैसा होना चाहिए, उनका आकार-प्रकार कैसा हो?, रूप रंग कैसा हो?
- ऐसा तो नहीं होना चाहिए। पत्तियों, फूलों और फलों को समझना चाहिए कि अतीत को बदला नहीं जा सकता, न झुठलाया जा सकता है।
= कौन किसे समझाए? हर पत्ती, फूल और फल खुद को नियामक मानकर नित नए मानक तय कर खुद को मसीहा मान बैठे हैं।
- तुम कौन हो? किसके बारे में बात कर रही हो?
= मैं उस वृक्ष की जीवन शक्ति हूँ जिसे तुम कहते हो लघुकथा।
***
मुक्तिका
*
कल दिया था, आज लेता मैं सहारा
चल रहा हूँ, नहीं अब तक तनिक हारा
सांस जब तक, आस तब तक रहे बाकी
जाऊँगा हँस, ईश ने जब भी पुकारा
देह निर्बल पर सबल मन, हौसला है
चल पड़ा हूँ, लक्ष्य भूलूँ? ना गवारा
पाँव हैं कमजोर तो बल हाथ का ले
थाम छड़ियाँ खड़ा पैरों पर दुबारा
साथ दे जो मुसीबत में वही अपना
दूर बैठा गैर, चुप देखे नज़ारा
मैं नहीं निर्जीव, हूँ संजीव जिसने
अवसरों को खोजकर फिर-फिर गुहारा
शक्ति हो तब संग जब कोशिश करें खुद
सफलता हो धन्य जब मुझको निहारा
*
२१-७-२०१६
***
गीत
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
***

दोहा सलिला
*
प्रभु सारे जग का रखे, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
*
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
२७.६.२०१८


***
हाइकू सलिला
*
हाइकू लिखा
मन में झाँककर
अदेखा दिखा।
*
पानी बरसा
तपिश शांत हुई
मन विहँसा।
*
दादुर कूदा
पोखर में झट से
छप - छपाक।
*
पतंग उड़ी
पवन बहकर
लगा डराने
*
हाथ ले डोर
नचा रहा पतंग
दूसरी ओर

***


दोहा सलिला:
कुछ दोहे बरसात के
*
गरज नहीं बादल रहे, झलक दिखाकर मौन
बरस नहीं बादल रहे, क्यों? बतलाये कौन??
*
उमस-पसीने से हुआ, है जनगण हैरान
जल्द न देते जल तनिक, आफत में है जान
*
जो गरजे बरसे नहीं, हुई कहावत सत्य
बिन गरजे बरसे नहीं, पल में हुई असत्य
*
आँख और पानी सदृश, नभ-पानी अनुबंध
बन बरसे तड़पे जिया, बरसे छाये धुंध
*
पानी-पानी हैं सलिल, पानी खो घनश्याम
पानी-पानी हो रहे, दही चुरा घनश्याम
*
बरसे तो बरपा दिया, कहर न बाकी शांति
बरसे बिन बरपा दिया, कहर न बाकी कांति
*
धन-वितरण सम विषम क्यों, जल वितरण जगदीश?
कहीं बाढ़ सूखा कहीं, पूछे क्षुब्ध गिरीश
*
अधिक बरस तांडव किया, जन-जीवन संत्रस्त
बिन बरसे तांडव किया, जन-जीवन अभिशप्त
*
महाकाल से माँगते, जल बरसे वरदान
वर देकर डूबे विवश, महाकाल हैरान
२१-७-२०१९
***
महिला क्रिकेट
*
जा विदेश में बोलिए,
हिन्दी तब हो गर्व.
क्या बोला सुन समझ लें,
भारतीय हम सर्व.
*
चौको से यारी करो,
छक्को से हो प्यार.
शतक साथ डेटिग करो,
मीताली सौ बार.
*
खेलो हर स्ट्रोक तुम,
पीटो हँस हर गेंद.
गेंदबाज भयभीत हो,
लगा न पाए सेंध.
*
दस हजार का लक्ष्य ले,
खेलो धरकर धीर.
खेल नायिका पा सको,
नया नाम रन वीर.
*
कर किताब से मित्रता,
रह तनाव से दूर.
शान्त चित्त खेलो क्रिकेट,
मिले वाह भरपूर.
*
राज मिताली राज का,
तूफानी रफ़्तार.
राज कर रही विकेट पर,
दौड़ दौड़ हर बार.
*
अंग्रेजी का मोह तज,
कर हिन्दी में बात.
राज दिलों पर राज का,
यह मीताली राज.
*
चौको छक्को की करी,
लगातार बरसात.
हक्का बक्का रह गए,
कंगारू खा मात.
*
हरमन पर हर मन फिदा,
खूब दिखाया खेल.
कंगारू पीले पड़े,
पल में निकला तेल.
*
सरहद सारी सुरक्षित,
दुश्मन फौज फ़रार.
पता पड़ गया आ रही,
हरमन करने वार.
*
हरमन ने की दनादन,
चोट, चोट पर चोट.
दीवाली की बम लडी,
ज्यों करती विस्फ़ोट.
*
गेंदबाज चकरा गए,
भूले सारे दाँव.
पंख उगे हैं गेंद के,
या ऊगे हैं पाँव.
या ऊगे हैं पाँव
विकेटकीपर को भूली.
आँख मिचौली खेल,
भीड़ के हाथों झूली.
हरमन से कर प्रीत,
शोट खेल में छा गए.
भूले सारे दाँव,
गेंदबाज चकरा गए.
२१-७-२०१७
***
मुक्तिका
*
कल दिया था, आज लेता मैं सहारा
चल रहा हूँ, नहीं अब तक तनिक हारा
सांस जब तक, आस तब तक रहे बाकी
जाऊँगा हँस, ईश ने जब भी पुकारा
देह निर्बल पर सबल मन, हौसला है
चल पड़ा हूँ, लक्ष्य भूलूँ? ना गवारा
पाँव हैं कमजोर तो बल हाथ का ले
थाम छड़ियाँ खड़ा पैरों पर दुबारा
साथ दे जो मुसीबत में वही अपना
दूर बैठा गैर, चुप देखे नज़ारा
मैं नहीं निर्जीव, हूँ संजीव जिसने
अवसरों को खोजकर फिर-फिर गुहारा
शक्ति हो तब संग जब कोशिश करें खुद
सफलता हो धन्य जब मुझको निहारा
२१-७-२०१६
***
दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
२०-७-२०१६
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
२०-७-२०१६
***
नवगीत:
*
हर चेहरे में
अलग कशिश है
आकर्षण है
*
मिलन-विरह में,
नयन-बयन में
गुण-अवगुण या
चाल-चलन में
कहीं मोह का
कहीं द्रोह का
संघर्षण है
*
मन की मछली,
तन की तितली
हाथ न आयी
पल में फिसली
क्षुधा-प्यास का
हास-रास का
नित तर्पण है
*
चितवन चंचल
सद्गुण परिमल
मृदु मिठासमय
आनन मंजुल
हाव-भाव ये
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है
*
गिरि सलिलाएँ
काव्य-कथाएँ
कहीं-अनकहीं
सुनें-सुनाएँ
कलरव-गुंजन
माटी-कंचन
नव दर्पण है
*
बुनते सपने
मन में अपने
समझ न आते
जग के नपने
जन्म-मरण में
त्याग-वरण में
संकर्षण है


दिसंबर २००७, प्रयास अलीगढ़
*

द्विपदियाँ और दोहे
*
बसा लो दिल में, दिल में बस जाओ
फिर भुला दो तो कोई बात नहीं
*
खुद्कुशी अश्क की कहते हो जिसे
वो आँसुओं का पुनर्जन्म हुआ
*
अल्पना कल्पना की हो ऐसी
द्वार जीवन का जरा सज जाये.
*
गौर गुरु! मीत की बातों पे करो
दिल किसी का दुखाना ठीक नहीं
*
श्री वास्तव में हो वहीं, जहाँ रहे श्रम साथ
जीवन में ऊँचा रखे, श्रम ही हरदम माथ
*
खरे खरा व्यवहार कर, लेते हैं मन जीत
जो इन्सान न हो खरे, उनसे करें न प्रीत.
*
गौर करें मन में नहीं, 'सलिल' तनिक हो मैल
कोल्हू खीन्चे द्वेष का, इन्सां बनकर बैल
*
काया की माया नहीं जिसको पाती मोह,
वही सही कायस्थ है, करे गलत से द्रोह.
*
२१-७-२०१४

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4 वर्ष

बसा लो दिल में, दिल में बस जाओ / फिर भुला दो तो कोई बात नहीं
*
खुद्कुशी अश्क की कहते हो जिसे / वो आंसुओं का पुनर्जन्म हुआ
*
अल्पना कल्पना की हो ऐसी / द्वार जीवन का जरा सज जाये.
*
गौर गुरु! मीत की बातों पे करो / दिल किसी का दुखाना ठीक नहीं
*
श्री वास्तव में हो वहीं, जहां रहे श्रम साथ / जीवन में ऊन्चा रखे श्रम ही हरदम माथ
*
खरे खरा व्यव्हार कर, लेते हैं मन जीत / जो इन्सान न हो खरे, उनसे करें न प्रीत.
*
गौर करें मन में नहीं, 'सलिल' तनिक हो मैल / कोल्हू खीन्चे द्वेष का, इन्सां बनकर बैल
*काया की माया नहीं जिसको पाती मोह, वही सही कायस्थ है, करे गलत से द्रोह.






२१-७-२०१४

***

मुक्तिका:

बरसात में

*

बन गयी हैं दूरियाँ, नज़दीकियाँ बरसात में.

हो गये दो एक, क्या जादू हुआ बरसात में..



आसमां का प्यार लाई जमीं तक हर बूँद है.

हरी चूनर ओढ़ भू, दुल्हन बनीं बरसात में..



तरुण बादल-बिजुरिया, बारात में मिल नाचते.

कुदरती टी.वी. का शो है, नुमाया बरसात में..



डालियाँ-पत्ते बजाते बैंड, झूमे है हवा.

आ गयीं बरसातियाँ छत्ते लिये बरसात में..



बाँह उनकी राह देखे चाह में जो हैं बसे.

डाह हो या दाह, बहकर गुम हुई बरसात में..



चू रहीं कवितायेँ-गज़लें, छत से- हम कैसे बचें?

छंद की बौछार लायीं, खिड़कियाँ बरसात में..



राज-नर्गिस याद आते, भुलाये ना भूलते.

बन गये युग की धरोहर, काम कर बरसात में..



बाँध,झीलें, नदी विधवा नार सी श्री हीन थीं.

पा 'सलिल' सधवा सुहागन, हो गयीं बरसात में..



मुई ई कविता! उड़ाती नींद, सपने तोड़कर.

फिर सजाती नित नये सपने 'सलिल' बरसात में..

२१-७-२०११

*