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शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

सितंबर २५, मुक्तिका, भारत, सॉनेट, सरस्वती, श्लेष, अलंकार, गीत,

 सलिल सृजन सितंबर २५

*
पद
कान्हा! झूलें विहँस हिंडोला
*
ललिता स्वांग धरे राधा का, पहिनें बाँका चोला
लै संदेस बिसाखा आई, राज न तनकउ खोला
चित्रा हरि नैनों में उलझी, रंग प्रीत का घोला
चंपकलता भई चिंतित, कहुँ होय न मासा-तोला
कर सिंगार इंदुलेखा झट, विहँस बन गईं भोला
रंगदेवी ने कान्हा जू पै, सँकुच आलता ढोला
संख फूँक खेँ तुंगविद्या दें, माखन-मिसरी गोला
चतुर सुदेवी जल लाई, मनहर मन हर हँस बोला
कओ कितै वृषभान दुलारी, जिन पै मोहन डोला
***
राधा जी की अष्ट सखियाँ 
ललिता- अष्टसखियों में सबसे प्रमुख सखी, जो निडर और तीव्र स्वभाव की हैं। 
विशाखा- सुंदर और बुद्धिमान सखी, जो राधा और कृष्ण के संदेशवाहक के रूप में कार्य करती थीं

चित्रा- कलात्मक और रचनात्मक सखी, जो राधा-कृष्ण की लीलाओं को सुंदर बनाने में निपुण थीं

चंपकलता- चंचल और सेवा कार्यों में कुशल सखी, जो राधा जी की आवश्यकताओं का ध्यान रखती थीं

तुंगविद्या- तीक्ष्ण बुद्धि वाली सखी, जिन्हें ललित कलाओं और संगीत का गहन ज्ञान था

इंदुलेखा- प्रसन्नचित्त और सरल स्वभाव की सखी, जो राधा जी के श्रृंगार और साज-सज्जा में मदद करती थीं

रंगदेवी- जावक (महावर) लगाने और चंदन चढ़ाने में कुशल सखी, जो राधा जी के चरणों में महावर लगाती थीं

सुदेवी- अत्यंत सुंदर सखी, जो राधा जी को जल पिलाने का कार्य करती थीं और जल को शुद्ध करने का ज्ञान रखती थीं
२५.९.२०२५ 
***
मुक्तिका
सजग भारत
*
सजग भारत है सनातन।
कर्म-पोथी करे वाचन।।
काल की है यह उपासक।
सभ्यता है यह पुरातन।।
सकल सृष्टि कुटुंब इसका।
सभी का यह करे पालन।।
करे दंडित यह अनय को।
विनय को दे अग्र आसन।।
ध्वज तिरंगा चंद्रमा ले।
करे इसका कीर्ति गायन।।
आपदाओं का प्रबंधन।
करे पल-पल निपुण शासन।।
नर नरेंद्र हरेक इसका।
बल अमित है नीति ही धन।।
भारती की आरती कर।
रोक लेता हर प्रभंजन।।
है अलौकिक लोक भारत।
सजग भारत है सनातन।।
***
सॉनेट
अविश्वास
अविश्वास से राम बचाए,
जिस मन में पलती है शंका,
दाह डाह का कौन बुझाए?
निश्चय जलती उसकी लंका।
फलदायक विश्वास जानिए,
परंपरा ने हमें बताया,
बिन श्रद्धा कस ज्ञान पाइए?
जो ठगता, खुद गया ठगाया।
गुरु पर श्रद्धा अगर न हो तो
ज्ञान नहीं फलदायक होता,
मत नाराजी गुरु की न्योतो,
कर्ण न अपना जीवन खोता।
अविश्वास को जहर जानिए।
सच अमृत विश्वास मानिए।।
२६.९.२०२३
•••
शारद स्तुति
माँ शारदे!
भव-तार दे।
संतान को
नित प्यार दे।
हर कर अहं
उद्धार दे।
सिर हाथ धर
रिपु छार दे।
निज छाँव में
आगार दे।
पग-रज मुझे
उपहार दे।
आखर सिखा
आचार दे।
२५-९-२०२२
•••
बाल नव गीत
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
२६-९-२०२०
***
प्रश्न -उत्तर
*
हिन्द घायल हो रहा है पाक के हर दंश से
गॉधीजी के बन्दरों का अब बताओ क्या करें ? -समन्दर की मौजें
*
बन्दरों की भेंट दे दो अब नवाज़ शरीफ को
बना देंगे जमूरा भारत का उनको शीघ्र ही - संजीव
*
नवगीत
*
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
भीड़ में घिर
हो गया है मन अकेला
धैर्य-गुल्लक
में, न बाकी एक धेला
क्या कहूँ
तेरे बिना क्या-क्या न झेला?
क्यों न तू
आकर बना ले मुझे चेला?
मान भी जा
आज सुन फरियाद मेरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
प्रेम-संसद
विरोधी होंगे न मैं-तुम
बोल जुमला
वचन दे, पलटें नहीं हम
लाएँ अच्छे दिन
विरह का समय गुम
जो न चाहें
हो मिलन, भागें दबा दुम
हुई मुतकी
और होने दे न देरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
२४-२५ सितंबर २०१६
***
: अलंकार चर्चा ११ :
श्लेष अलंकार
भिन्न अर्थ हों शब्द के, आवृत्ति केवल एक
अलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक
किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.
३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.
४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा संतान हैं.
५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.
६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर
७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)
८. था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)
९. बरसकर
बादल-अफसर
थम गये हैं.
बरसकर = पानी गिराकर, डाँटकर
१०. नागिन लहराई, डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
नागिन = सर्पिणी, चोटी
***
नवगीत:
संजीव
*
एक शाम
करना है मीत मुझे
अपने भी नाम
.
अपनों से,
सपनों से,
मन नहीं भरा.
अनजाने-
अनदेखे
से रहा डरा.
परिवर्तन का मंचन
जब कभी हुआ,
पिंजरे को
तोड़ उड़ा
चाह का सुआ.
अनुबंधों!
प्रतिबंधों!!
प्राण-मन कहें
तुम्हें राम-राम.
.
ज्यों की त्यों
चादर कब
रह सकी कहो?
दावानल-
बड़वानल
सह, नहीं दहो.
पत्थर का
वक्ष चीर
सलिल सम बहो.
पाए को
खोने का
कुछ मजा गहो.
सोनल संसार
हुआ कब कभी कहो
इस-उस के नाम?
.
संझा में
घिर आएँ
याद मेघ ना
आशुतोष
मौन सहें
अकथ वेदना.
अंशुमान निरख रहे
कालचक्र-रेख.
किस्मत में
क्या लिखा?,
कौन सका देख??
पुष्पा ले जी भर तू
ओम-व्योम, दिग-दिगंत
श्रम कर निष्काम।
***
एक गीत:
*
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
अपनों से मिलकर
*
सद्भावों की क्यारी में
प्रस्फुटित सुमन कुछ
गंध बिखेरें अपनेपन की.
स्नेहिल भुजपाशों में
बँधकर बाँध लिया सुख.
क्षणजीवी ही सही
जीत तो लिया सहज दुःख
बैर भाव के
पर्वत बौने
काँपे हिलकर
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
सपनों से मिलकर
*
सलिल-धार में सुधियों की
तिरते-उतराते
छंद सुनाएँ, उर धड़कन की.
आशाओं के आकाशों में
कोशिश आमुख,
उड़-थक-रुक-बढ़ने को
प्रस्तुत, चरण-पंख कुछ.
बाधाओं के
सागर सूखे
गरज-हहरकर
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
छंदों से मिलकर
*
अविनाशी में लीन विनाशी
गुपचुप बिसरा, काबा-
काशी, धरा-गगन की.
रमता जोगी बन
बहते जाने को प्रस्तुत,
माया-मोह-मिलन के
पल, पल करता संस्तुत.
अनुशासन के
बंधन पल में
टूटे कँपकर.
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
नपनों से मिलकर
*
मुक्त, विमुक्त, अमुक्त हुए
संयुक्त आप ही
मुग्ध देख छवि निज दरपन की.
आभासी दुनिया का हर
अहसास सत्य है.
हर प्रतीति क्षणजीवी
ही निष्काम कृत्य है.
त्याग-भोग की
परिभाषाएँ
रचें बदलकर.
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
गंधों से मिलकर
***
मुक्तक:
घाट पर ठहराव कहाँ?
राह में भटकाव कहाँ?
चलते ही रहना है-
चाह में अटकाव कहाँ?
२६-९-२०१५

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

सितंबर २५, चंचरीक, मुक्तिका, बिटिया, दोस्त, मुक्तक,


सलिल सृजन सितंबर २५
*
मुक्तक 
दोस्त शीतल छाँव है
जय दिलाता दाँव है
जब मिले ऐसा लगे
लक्ष्य पाता पाँव है 
दोस्त दिल में रह रहा 
बात सच्ची कह रहा 
ग्रीष्म या बरसात हो   
साथ मिलकर बह रहा 
० 
दोस्त थामे हाथ 
नहीं झुकता माथ 
हों सफल-असफल- 
नहीं छोड़े साथ 
० 
खरी कहता बात 
नहीं करता घात 
दोस्त हो यदि साथ 
बने बिगड़ी बात 
० 
स्वार्थ तज परमार्थ 
करें कान्हा पार्थ 
हैं त्रिलोकी किंतु 
दोस्त हित हैं सार्थ  
२५.९.२०२५ 
००० 
चंचरीक - चरित दोहावली
*
'चंचरीक' प्रभु चरण के, दैव कृपा के पात्र
काव्य सृजन सामर्थ्य के, नित्य-सनातन पात्र
*
'नारायण' सा 'रूप' पा, 'जगमोहन' शुभ नाम
कर्म कुशल कायस्थ हो, हरि को हुए प्रणाम
*
'नारायण' ने 'सूर्य' हो, प्रगटाया निज अंश
कुक्षि 'वासुदेवी' विमल, प्रमुदित पा अवतंश
*
सात नवंबर का दिवस, उन्निस-तेइस वर्ष
पुत्र-रुदन का स्वर सुना, खूब मनाया हर्ष
*
बैठे चौथे भाव में, रवि शशि बुध शनि साथ
भक्ति-सृजन पथ-पथिक से, कहें न नत हो माथ
*
रवि उजास, शशि विमलता, बुध दे भक्ति प्रणम्य
शनि बाधा-संकट हरे, लक्ष्य न रहे अगम्य
*
'विष्णु-प्रकाश-स्वरूप' से, अनुज हो गए धन्य
राखी बाँधें 'बसन्ती, तुलसी' स्नेह अनन्य
*
विद्या गुरु भवदत्त से, मिली एक ही सीख
कीचड में भी कमलवत, निर्मल ही तू दीख
*
रथखाना में प्राथमिक, शिक्षा के पढ़ पाठ
दरबार हाइ स्कूल में, पढ़े हो सकें ठाठ
*
भक्तरत्न 'मथुरा' मुदित, पाया पुत्र विनीत
भक्ति-भाव स्वाध्याय में, लीन निभाई रीत
*
'मन्दिर डिग्गी कल्याण' में, जमकर बँटा प्रसाद
भोज सहस्त्रों ने किया, पा श्री फल उपहार
*
'गोविंदी' विधवा बहिन, भुला सकें निज शोक
'जगमोहन' ने भक्ति का, फैलाया आलोक
*
पाठक सोहनलाल से, ली दीक्षा सविवेक
धीरज से संकट सहो, तजना मूल्य न नेक
*
चित्र गुप्त है ईश का, निराकार सच मान
हो साकार जगत रचे, निर्विकार ले जान
*
काया स्थित ब्रम्ह ही, है कायस्थ सुजान
माया की छाया गहे, लेकिन नहीं अजान
*
पूज किसी भी रूप में, परमशक्ति है एक
भक्ति-भाव, व्रत-कथाएँ, कहें राह चल नेक
*
'रामकिशोरी' चंद दिन, ही दे पायीं साथ
दे पुत्री इहलोक से, गईं थामकर हाथ
*
महाराज कॉलेज से, इंटर-बी. ए. पास
किया, मिले आजीविका, पूरी हो हर आस
*
धर्म-पिता भव त्याग कर, चले गए सुर लोक
धैर्य-मूर्ति बन दुःख सहा, कोई सका न टोंक
*
रचा पिता की याद में, 'मथुरेश जीवनी' ग्रन्थ
'गोविंदी' ने साथ दे, गह सृजन का पंथ
*
'विद्यावती' सुसंगिनी, दो सुत पुत्री एक
दे, असमय सुरपुर गयीं, खोया नहीं विवेक
*
महाराजा कॉलेज से, एल-एल. बी. उत्तीर्ण
कर आभा करने लगे, अपनी आप विकीर्ण
*
मिली नौकरी किन्तु वह, तनिक न आयी रास
जुड़े वकालत से किये, अनथक सतत प्रयास
*
प्रगटीं माता शारदा, स्वप्न दिखाया एक
करो काव्य रचना सतत, कर्म यही है नेक
*
'एकादशी महात्म्य' रच, किया पत्नि को याद
व्यथा-कथा मन में राखी, भंग न हो मर्याद
*
रच कर 'माधव-माधवी', 'रुक्मिणी मंगल' काव्य
बता दिया था कलम ने, क्या भावी संभाव्य
*
सन्तानों-हित तीसरा, करना पड़ा विवाह
संस्कार शुभ दे सकें, निज दायित्व निबाह
*
पा 'शकुंतला' हो गया, घर ममता-भंडार
पाँच सुताएँ चार सुत, जुड़े हँसा परिवार
*
सावित्री सी सुता पा, पितृ-ह्रदय था मुग्ध
पाप-ताप सब हो गए, अगले पल ही दग्ध
*
अधिवक्ता के रूप में, अपराधी का साथ
नहीं दिया, सच्चाई हित, लड़े उठाकर माथ
*
दर्शन 'गलता तीर्थ' के, कर भूले निज राह
'पयहारी' ने हो प्रगट, राह दिखाई चाह
*
'सन्तदास'-संपर्क से, पा आध्यात्म रुझान
मन वृंदावन हो चला, भरकर भक्ति-उड़ान
*
'पुरुषोत्तम श्री राम चरित', रामायण-अनुवाद
कर 'श्री कृष्ण चरित' रचा, सुना अनाहद नाद
*
'कल्कि विष्णु के चरित' को, किया कलम ने व्यक्त
पुलकित थे मन-प्राण-चित, आत्मोल्लास अव्यक्त
*
चंचरीक मधुरेश थे, मंजुल मृदुल मराल
शंकर सम अमृत लुटा। पिया गरल विकराल
*
मोहन सोहन विमल या, वृन्दावन रत्नेश
मधुकर सरस उमेश या , थे मुचुकुन्द उमेश
*
प्रेमी गुरु प्रणयी वही, अम्बु सुनहरी लाल
थे भगवती प्रसाद वे, भगवद्भक्त रसाल
*
सत्ताईस तारीख थी, और दिसंबर माह
दो हजार तेरह बरस, त्यागा श्वास-प्रवाह
*
चंचरीक भू लोक तज, चित्रगुप्त के धाम
जा बैठे दे विरासत, अभिनव ललित ललाम
*
उन प्रभु संजीव थे, भक्ति-सलिल में डूब
सफल साधना कर तजा, जग दे रचना खूब
*
निर्मल तुहिना दूब पर, मुक्तामणि सी देख
मन्वन्तर कर कल्पना, करे आपका लेख
*
जगमोहन काया नहीं, हैं हरि के वरदान
कलम और कवि धन्य हो, करें कीर्ति का गान
***
मुक्तिका
*
बोल बिके बेमोल
मौन रहा अनमोल
*
कौन किसी के साथ
नातों में है झोल?
*
मन्ज़िल तय कर आप
नाहक तू मत डोल
*
लौट न सकती बात
ले पहले तू तोल
*
ढोल बड़ा जितना
भीतर उतनी पोल
*
कौन न मरा-जिया?
है यह दुनिया गोल
*
श्वास-आस के साथ
जीवन करे किलोल
२५-९-२०१६
***
मुक्तिका:
बिटिया
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..
कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..
झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..
नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..
खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..
करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..
राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..
जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..
पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..
फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..
दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..
मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..
***
मुक्तिका:
शतदल खिले..
*
प्रियतम मिले.
शतदल खिले..
खंडहर हुए
संयम किले..
बिसरे सभी
शिकवे-गिले..
जनतंत्र के
लब क्यों सिले?
भटके हुए
हैं काफिले..
कस्बे कहें
खुद को जिले..
छूने चले
पग मंजिलें..
तन तो कुशल
पर मन छिले..
२५-९-२०१०
***

बुधवार, 24 सितंबर 2025

सितंबर २४, पूर्णिका, चीटी धप, बाल गीत, पञ्चचामर, कवित्त, छंद, मुक्तक, गीत, हिंदी गजल

सलिल सृजन सितंबर २४
*
हिंदी गजल 
देख उसको जी गए हम
विष अमिय कह पी गए हम
जान लेती अदा फिर भी 
होंठ अपने सी गए हम  
० 
केश लट चंचल-चपल है  
छाँह पाकर जी गए हम 
० 
खान है मुस्कान रस की
रास करने भी गए हम 
० 
'सलिल' वाणी मखमली मृदु 
श्रवण करते ही गए हम 
००० 
हिंदी गजल 
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
००० 
हिंदी ग़ज़ल
जान लेकर जान बोले जानदार
मान छीने या खरीदे मानदार
हो रहा बहरा खुदा सुन शोरगुल
कान फोड़े तान लेकर तानदार
पढ़ सुने कोई सराहे या नहीं
शायरी कर कहे शायर शानदार
आदमी को आदमी मुर्गा बना
कान खींचे जो नहीं क्या कानदार?
पीक पिचकारी चलाकर कर रहा
रंग हर बदरंग नादां पानदार
बड़े से खा लगाकर छोटे को लात
मूँछ ऐंठे जो वही है थानदार
'सलिल'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने
बेचता ईमान नित ईमानदार
०००
हिंदी ग़ज़ल
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
२४-९-२९१५   
***
पूर्णिका
हिंदी पढ़ो हिंदी लिखो हिंदी कहो
सत्य-शिव-सुंदर हमेशा ही तहो
खड़े रहना आपदा में सीख लो
देखकर तूफान भय से मत ढहो
मित्रता का अर्थ पहले जान लो
मित्र के गुण-दोष सम अपने सहो
अंजली में सुरभि सुमनों की लिए
नर्मदा बन नेह की कलकल बहो
शिष्टता-शालीनता गहने पहन
दृढ़ रखो संकल्प किंतु विनम्र हो
२४.९.२०२४
•••
पुरोवाक्
ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय काव्याचार्यों ने काव्य को 'दोष रहित गुण सहित रचना' (मम्मट), 'रमणीय अर्थ प्रतिपादक' (जगन्नाथ), 'लोकोत्तर आनंददाता' (अंबिकादत्त व्यास), रसात्मक वाक्य (विश्वनाथ), सौंदर्ययुक्त रचना (भोज, अभिनव गुप्त), चारुत्वयुक्त (लोचन), अलंकार प्रधान (मेघा विरुद्र, भामह, रुद्रट), रीति प्रधान (वामन), ध्वनिप्रधान (आनंदवर्धन), औचित्यप्रधान (क्षेमेन्द्र), हेतुप्रधान (वाग्भट्ट), भावप्रधान (शारदातनय), रसमय आनंददायी वाक्य (शौद्धोदिनी), अर्थ-गुण-अलंकार सज्जित रसमय वाक्य (केशव मिश्र), आदि कहा है जबकि पश्चिमी विचारकों ने आनंद का सबल साधन (प्लेटो ), ज्ञानवर्धन में सहायक (अरस्तू), प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक बहाव (वर्ड्सवर्थ), सुस्पष्ट संगीत (ड्राइडन) माना है।
हिंदी कवियों में केशव ने केशव ने अलंकार, श्रीपति ने रस, चिंतामणि ने रस-अलंकार-अर्थ, देव ने रस-छंद- अलंकार, सूरति मिश्र ने मनरंजन व रीति, सोमनाथ ने गुण-पिंगल-अलंकार, ठाकुर ने विद्वानों को भाना, प्रतापसाहि ने व्यंग्य-ध्वनि-अलंकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने चित्तवृत्तियों का चित्रण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ह्रदय मुक्तिसाधना हेतु शब्द विधान, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने संकल्पनात्मक अनुभूति, महीयसी महादेवी वर्मा ने ह्रदय की भावनाएँ, सुमित्रानंदन पंत ने परिपूर्ण क्षणों की वाणी, केदारनाथ सिंह ने स्वाद को कंकरियों से बचाना, धूमिल ने शब्द-अदालत के कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा, अज्ञेय ने आदि से अंत तक शब्द कहकर कविता को परिभाषित किया है। वस्तुत: कविता कवि की अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक तक पहुँचानेवाली रस व लय से युक्त ऐसी भावप्रधान रचना है जिसे सुन-पढ़ कर श्रोता-पाठक के मन में समान अनुभूति का संचार हो।
प्रस्तुत कृति लोकोपयोगी अर्थ प्रतिपादक, गुण-दोषयुक्त, मननीय, रोचक, भाव प्रधान काव्य रचना है।
काव्य हेतु
बाबू गुलाबराय के अनुसार 'काव्य हेतु' काव्य रचना में सहायक साधन हैं। भामह के अनुसार शब्द, छंद, अभिधान, इतिहास कथा, लोक कथा तथा युक्ति कला काव्य साधन हैं। डंडी ने प्रतिभा,ज्ञान व अभ्यास को काव्य हेतु कहा है। वामन, जगन्नाथ व् हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का बीज कहा है। रुद्रट के मत में शक्ति, व्युत्पत्ति व अभ्यास को काव्य हेतु हैं। आनंदवर्धन जन्मजात संस्कार रूपी प्रतिभा को काव्य हेतु कहते हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के कारयित्री और भावयित्री दो प्रकार तथा ८ काव्य हेतु स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, वृत्त कथा, निपुणता, स्मृति व अनुराग माने हैं। मम्मट शक्ति, लोकशास्त्र में निपुणता और अभ्यास को काव्य हेतु कहते हैं। कुंतक, महिम भट्ट और मम्मट प्रतिभा को काव्य हेतु मानते हुए उसे शक्ति, तृतीय नेत्र व काव्य बीज कहते हैं। डॉ. नगेंद्र प्रतिभा को काव्य का मूल, ईश्वर प्रदत्त शक्ति और काव्य बीज कहते हैं।
इस काव्य रचना का हेतु मानव हित, इतिहास कथा, मुक्त छंद, वृत्त कथा, मौलिक विश्लेषण तथा अभ्यास है।कवि हरविंदर सिंह गिल की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के अध्यवसाय का सुफल है यह कृति।
विषय चयन
सामान्यत: काव्य रचना में रस की उपस्थिति मानते हुए कोमलकांत पदावली तथा रोचक-रसयुक्त विषय चुने जाते हैं। पत्थर और दीवार 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे नीरस विषय का चयन कर उस पर प्रबंध काव्य रचना अपेक्षाकृत दुष्कर कार्य है जिसे हरविंदर जी ने सहजता से पूर्ण किया है। पत्थर महाप्राण निराला का प्रिय पात्र रहा है।
प्रबंध काव्य तुलसीदास में देश दशा वर्णन हो या अहल्या प्रसंग, पाषाण के बिना कैसे पूर्ण होता-
१८
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
२०
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
निराला की प्रसिद्ध रचना 'वह तोड़ती पत्थर' साक्षी है कि पत्थर भी मानव की व्यथा-कथा कह सकता है-
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर। .....
..... एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
मेरे काव्य संकलन 'मीत मेरे' में एक कविता है 'पाषाण पूजा' जिसमें पत्थर मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनकर पाषाण ह्रदय मनुष्य के काम आता है-
ईश्वर!
पूजन तुम्हारा किया जग ने सुमन लेकर
किन्तु मैं पूजन करूँगा पत्थरों से
वही पत्थर जो कि नींवों में लगा है
सही जिसने अकथ पीड़ा, चोट अनगिन
जबकि वह कटा गया था।
मौन था यह सोचकर
दो जून रोटी पायेगा वह
कर परिश्रम काटता जो। ......
.....वही पत्थर ह्रदय जिसका
सुकोमल है बालकों सा
काम आया उस मनुज के
ह्रदय है पाषाण जिसका।
सुहैल अज़ीमाबादी का दिल दोस्तों द्वारा मारे गए पत्थर से घायल है-
पत्थर तो हजारों ने मारे हैं मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आकर एक दोस्त ने मारा है
आम तौर पथराई आँखें, पत्थर दिल, पत्थर पड़ना जैसी अभिव्यक्तियाँ पत्थर को कटघरे में ही खड़ा करती हैं किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। 'पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना' कहनेवाले शायर के सगोत्री हरविंदर जी ने बर्लिन देश को दो भागों में विभाजित करनेवाली दीवार के टूटने पर गिरते पत्थर को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ते हुए इस काव्य कृति की रचना की। कवि हरविंदर पंजाब से हैं, विस्मय यह है कि मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने 'जलियांवाला बाग़ के कुएँ का पत्थर' न चुनकर सुदूर बर्लिन की दीवार का पत्थर चुना, शायद इसलिए कि उबर्लिनवासियों ने निरंतर विरोधकर सत्तधीशों को उस दीवार को तोड़ने के लिए विवश कर दिया। इससे एक सीख भारत उपमहाद्वीप ने निवासियों को लेना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान और भारत-बांगलादेश के बीच काँटों की बाड़ को अधिकाधिक मजबूत किया जाता देख मौन हैं, और उसे मिटाने की बात सोच भी नहीं पा रहे।
'कंकर-कंकर में शंकर' और 'कण-कण में भगवान' देखने की विरासत समेटे भारतीय मनीषा आध्यात्म ही नहीं सर जगदीश चंद्र बसु के विज्ञान सम्मत शोध कार्यों के माध्यम से भी जानती और मानती है कि जो जड़ दिखता है उसमें भी चेतना होती है। ढहती बर्लिन दीवार के ढहते हुए पत्थरों को कवि निर्जीव नहीं चेतन मानते हुए उनमें भविष्य की श्वास-प्रश्वास अनुभव करता है।
ये पत्थर
निर्जीव नहीं है,
अपितु हैं उनमें
मानवता के आनेवाले कल की साँसें।
'कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को' कहती हुई व्यवस्था के विरोध में खड़ी लैला, स्वेच्छा रूपी 'कैस' (मजनू) को पत्थर से बचाने की गुहार हमेशा करती आई है। कवि लैला को जनता, कैस को जनमत और पत्थर को हथियार मानता है -
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये जन्मदाता हैं आधुनिक हथियारों के।
आदिकाल से मानव
इन नुकीले पत्थरों से
शिकार करता था
मानव और जानवर दोनों का।
कवि पत्थर में भी दिल की धड़कनें सुना पाता है-
इनमें प्यार करनेवाले
दिलों की धड़कनें भी होती हैं।
यदि ऐसा न होता तो
ताजमहल इतना जीवंत न होता।
कठोर पत्थर ही दयानिधान, करुणावतार को मूर्तित कर प्रेरणा स्रोत बनता है-
ये प्रेरणा स्रोत भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
या स्तंभ और स्मारक
पूज्यनीय और आराधनीय न होते।
गुफा के रूप में आदि मानव के शरणस्थली बने पत्थर, मानव सभ्यता के सबल और सदाबहार सहायक रहे हैं-
इनमें छिपे हैं अनंत उपदेश जीवन के
वर्ण गुफाएँ जो पहाड़ों के गर्भ में
समेटे होती हैं अँधेरा अपने आप में
क्योंकर सार्थक कर देतीं तपस्या को
जो उन संतों ने की थीं।
मनुष्य भाषा, भूषा, लिंग, देश, जाति ही नहीं धरती, पानी और हवा को लेकर भी एक-दूसरे को मरता रहता है किन्तु पत्थर सौहार्द, सद्भाव और सहिष्णुता की मिसाल हैं। ये न तो एक दूसरे पर हमला न करते हैं, न एक दूसरे का शिकार करते हैं-
ये तो नाचते-गाते भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवंत भारत नाट्यम की
मुद्राएँ न होतीं
और आनेवाली पीढ़ियों के लिए
साधना का उत्तम
मंच बनकर न रह पातीं।
पत्थर सीढ़ी के रूप में मानव के उत्थान-पतन में उसका सहारा बनता है। शाला भवन की दीवार बनकर पत्थर ज्ञान का दीपक जलाता है , यही नहीं जब सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते तब भी पत्थर साथ निभाता है -
अंतिम समय में
न ही उसके भाई-बहन और
न ही जीवन साथी
उसका साथ देते हैं।
साथ देते हैं ये पत्थर
जो उसकी कब्र पर सजते हैं।
यहाँ उल्लेख्य है कि गोंडवाने की राजमाता दुर्गावती की शहादत के पश्चात उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि के रूप में सफेद कंकर चढ़ाने की परंपरा है।
पत्थर ठोकर लगाकर मनुष्य को आँख खोलकर चलने की सीख और लड़खड़ाने पर सम्हलने का अवसर भी देते हैं।
यदि ऐसा न होता तो
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही नहीं हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर अतीत की कहानी कहते हैं, कल को कल तक पहुँचाते हैं, कल से कल के बीच में संपर्क सेतु बनाते हैं-
ये इतिहास के अपनने हैं,
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हङप्पा का।
पत्थर के बने पाँसों के कारण भारत में महाभारत हुआ-
ये चालें भी चलते हैं ,
यदि ऐसा न होता
चौरस के खेल
में इन पत्थरों से बानी गोटियाँ
दो परिवारों को
जिनमें खून का रिश्ता था
कुरुक्षेत्र में घसीट
न ले जाते और
न होता जन्म
महाभारत का।
द्वार में लगकर पत्थर स्वागत और बिदाई भी करते हैं -
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आनेवाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर कनेवाले मेहमान को
पर्वत बनकर पत्थर वन प्रांतर और बर्षा का आधार बनते हैं-
यदि पत्थरों से बानी
ये पर्वत की चोटियां
बहती हवाओं के रुख को
महसूस न कर पातीं
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बनकर रह जाती।
विद्यालय में लगकर पत्थर भविष्य को गढ़ते भी हैं -
स्कूल के प्रांगण में
विचरते बच्चों के जीवन पर
इनकी गहरी निगाह होती है
और उनके एक-एक कदम को
एक गहराई से निहारते हैं
जैसे कोइ सतर्क व्यक्ति
कदमों की आहट से ही
आनेवाले कल को पढ़ लेता है।
पत्थर जीवन मूल्यों की शिक्षा भी देता है, मानव को चेताता है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान होता है -
इतिहास में
खून की स्याही से
आज तक कभी कोई
अपने नाम को को
रौशन नहीं कर पाया
न कर पायेगा।
वह तो मानवता के लिए
बहाये पसीने से ही
स्याही को अक्षरों में
बदलता है।
यह कृति ४० कविताओं का संकलन है, जो बर्लिन को विभाजित करनेवाली ध्वस्त होती दीवार के पत्थर को केंद्र रखकर रची गयी हैं। इस तरह की दो कृतियाँ राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास निराला जी ने रची हैं जो श्री राम तथा संत तुलसीदास को केंद्र में रची गयी हैं।
सामान्यत: किसी मानव को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे जाते हैं किंतु कुछ कवियों ने नदी, पर्वत आदि को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे हैं। डॉ. अनंत राम मिश्र अनंत ने नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, चम्बल, सिंधु आदि नदियों पर प्रबंध काव्य रचे हैं।कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने इसी पथ पर पग रखते हुए 'ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार' प्रबंध काव्य की रचना की है। जीवन भर देश की रक्षार्थ हाथों में हथियार थामनेवाले करों में सेवानिवृत्ति के पश्चात् कलम थामकर सामाजिक-पारिवारिक-मानवीय मूल्यों की मशाल जलाकर कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी मौलिक चिंतन वृत्ति आगामी कृतियों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इस कृति को निश्चय ही विद्वज्जनों और सामान्य पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिलेगा यह विश्वास है।
२४-९-२०२०
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.कॉम
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बाल गीत
*
आओ! खेलें चीटी धप
*
श्रीधर स्वाती जल्दी आओ
संग मंजरी को भी लाओ
मत घर बैठ बाद पछताओ
अंजू झटपट दौड़ लगाओ
तुम संतोष न घर रुक जाओ
अमरनाथ कर देंगे चुप
आओ! खेलें चीटी धप
*
भोर हुई आलोक सुहाया
कर विनोद फिर गीत सुनाया
राजकुमार पुलककर आया
रँग बसंत का सब पर छाया
शोर अनिल ने मचल मचाया
अरुण न भागे देखो छुप
आओ! खेलें चीटी धप
***
भावानुवाद
*
ओ मति-मेधा स्वामिनी, करने दो तव गान।
भाव वृष्टि कर दो बने, पंक्ति-पंक्ति रसवान।।
पंथ प्रकाशित कर सदा, दिखाती हो राह।
दोष हमारे मेटतीं, जिस पल लेतीं चाह।।
मिले प्रेरणा सभी को, लें सब बाधा जीत।
प्रीत तुम्हारी दिन करे, मिटा रात की भीत।।
लोभ मोह मत्सर मिटा, तुम करती हो मुक्त।
प्रगट मैया दर्श दो, नतमस्तक मैं भुक्त।।
***
छंद पञ्चचामर
विधान - जरजरजग
मापनी - १२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
*
कहो-कहो कहाँ चलीं, न रूठना कभी लली
न बोल बोल भूलना, कहा सही तुम्हीं बली
न मोहना दिखा अदा, न घूमना गली-गली
न दूर जा न पास आ, सुवास दे सदा कली
२४.९.२०१९
***
कवित्त
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए।
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
२४-९-२०१६
***
नवगीत
*
कर्म किसी का
क्लेश किसी को
क्यों होता है बोल?
ओ रे अवढरदानी!
अपनी न्याय व्यवस्था तोल।
*
क्या ऊपर भी
आँख मूँदकर
ही होता है न्याय?
काले कोट वहाँ भी
धन ले करा रहे अन्याय?
पेशी दर पेशी
बिकते हैं
बाखर, खेत, मकान?
क्या समर्थ की
मनमानी ही
हुआ न्याय-अभिप्राय?
बहुत ढाँक ली
अब तो थोड़ी
बतला भी दे पोल
*
कथा-प्रसाद-चढ़ोत्री
है क्या
तेरा यही रिवाज़?
जो बेबस को
मारे-कुचले
उसके ही सर ताज?
जनप्रतिनिधि
रौंदें जनमत को
हावी धन्ना सेठ-
श्रम-तकनीक
और उत्पादक
शोषित-भूखे आज
मनरंजन-
तनरंजन पाता
सबसे ऊँचे मोल।
***
मुक्तक
'नहीं चाहिए' कह देने से कब मिटता परिणाम?
कर्म किया जिसने वह निश्चय भोगेगा अंजाम
यथा समय फल जीव भोगता, अन्य न पाते देख
जाने-माने समय गर्त में खोते ज्यों गुमनाम
*
तन धोखा है, मन धोखा है, जीवन धोखा है
श्वास, आस, विश्वास, रास, परिहास न चोखा है
धोखे के कीचड़ में हमको कमल खिलाना है
सब को क्षमा कर सकें जो वह व्यक्ति अनोखा है
*
कान्हा कहता 'करनी का फल सबको मिलता है'
माली नोचे कली-फूल तो, आप न फलता है
सिर घमण्ड का नीचा होता सभी जानते हैं -
छल-फरेब कर व्यक्ति स्वयं ही खुद को छलता है .
*
श्रेष्ठ न खुद को कभी कहा है, मान लिया हूँ नीच
फेंक दूर कर, कभी नहीं आने दें अपने बीच
नफरत पाल किसी से, खुद को नित आहत करना
ऐसा जैसे स्नान-ध्यान कर फिर मल लेना कीच
*
कौन जगत में जिसने केवल अच्छा कार्य किया?
कौन यहाँ है जिसने केवल विष या अमिय पिया?
धूप-छाँव दोनों ही जीवन में भरते हैं रंग
सिर्फ एक हो तो दुनिया में कैसे लगे जिया?
***
नवगीत
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
चलो बैठ पल दो पल कर लें
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
२४-९-२०१६
***
नवगीत २
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
***
नवगीत:
*
पानी-पानी
हुए बादल
आदमी की
आँख में
पानी नहीं बाकी
बुआ-दादी
हुईं मैख़ाना
कभी साकी
देखकर
दुर्दशा मनु की
पलट गयी
सहसा छागल
कटे जंगल
लुटे पर्वत
पटे सरवर
तोड़ पत्थर
खोद रेती
दनु हुआ नर
त्रस्त पंछी
देख सिसका
कराहा मादल
जुगाड़े धन
भवन, धरती
रत्न, सत्ता और
खाली हाथ
आखिर में
मरा मनुज पागल
२४-९-२०१४
***
द्विपदी
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२४-९-२०१०

***