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शनिवार, 6 सितंबर 2025

सितंबर ६, सॉनेट, नवगीत, लघुकथा, गुरु, दोहा, सुरेश उपाध्याय, एकाक्षरी दोहा, कौन हूँ मैं?

 सलिल सृजन सितंबर ६

*
सॉनेट
छापा
*
इस पर छापा; उस पर छापा
बोल न है किस-किस पर छापा
रंग-बिरंगा रूपया छापा
समाचार मनमाना छापा
साथ न जो दे उस पर छापा
साथ न जो ले उस पर छापा
छोड़े हाथ अगर तो छापा
मोड़े लात अगर तो छापा
मन की बात न मानी? छापा
धन की बात न जानी छापा
कुछ करने की ठानी छापा
मुँह से निकली बानी छापा
सत्ता का स्वभाव है छापा
नेता का प्रभाव है छापा
६-९-२०२२
***
वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए
वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए
अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए
अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए
वाग्देवी कृपा करिए
६-९-२०२२
•••
विमर्श : आय और क्रय सामर्थ्य
पचास वर्ष पूर्व - एक पैसे में पाँच गोलगप्पे,
चालीस साल पूर्व - एक पैसे में दो गोलगप्पे
तीस वर्ष पूर्व - पाँच पैसे में दो गोलगप्पे
बीस वर्ष पूर्व - २५ पैसे में एक गोलगप्पा
दस वर्ष पूर्व - ५० पैसे में एक गोलगप्पा
अब - दो रूपए में एक गोलगप्पा
नौकरी आरंभ करने से अब तक गोलगप्पा का कीमत पचास साल में हजार गुणा बढ़ी।
जमीन २५ पैसे वर्ग फुट से १०००/- वर्ग फुट अर्थात ४००० गुना बढ़ी।
वेतन ४००/- से २००००/- अर्थात ५० गुना बढ़ा।
सोना २००/- से ५२,०००/- अर्थात २६० गुना बढ़ा।
क्रय क्षमता २ तोले से ०.४ तोला अर्थात एक चौथाई से भी कम।
सचाई
वस्तुओं की तुलना में क्रय सामर्थ्य में निरंतर ह्रास। अचल संपदा में बेतहाशा वृद्धि, अमीर और अमीर, गरीब और गरीब
निष्कर्ष
मुद्रा का द्रुत और त्वरित अवमूल्यन,
श्रमिक, किसान और कर्मचारी की क्रय सामर्थ्य चिन्तनीय कम, पूँजीपतियों, प्रशासनिक-न्यायिक अफसरों, नेताओं के आय और सम्पदा में अकूत वृद्धि।
५ % भारतीयों के पास ८०% संपदा।
किसी राजनैतिक दल को जान सामान्य की कोइ चिंता नहीं। चोर-चोर मौसेरे भाई
६-९-२०२०
***
विमर्श
यायावर हैं शब्द
*
यायावर वह पथिक है जो अथक यात्रा करता है।
यायावरी कर राहुल सांकृत्यायन अक्षय कीर्तिवान हुए।
यायावरी कर नेता जी आजादी के अग्रदूत बने।
यायावरी सोद्देश्य हो तो वरेण्य है, निरुद्देश्य हो तो लोक उसे आवारगी कहता है।
आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर शब्द है।
लोफर का प्रयोग जनसामान्य हिंदी या उर्दू का शब्द मानकर करता है पर लोफर बनता है अंग्रेजी शब्द लोफ से।
लोफ का अर्थ है रोटी का टुकड़ा। रोटी के टुकड़े के लिए भटकनेवाला लोफर भावार्थ दाने-दाने के लिए मोहताज।
क्या हम लोफर शब्द का उपयोग वास्तविक अर्थ में करते हैं?
लोफर यायावरी करते हुए अंग्रेजी से हिंदी में आ गया पर उसका मूल लोफ नहीं आ सका।
भोजपुरी में निअरै है का अर्थ निकट या समीप है।
तुलसी ने मानस में लिखा है 'ऋष्यमूक पर्वत निअराई'
ये निअर महोदय सात समुंदर लाँघ कर अंग्रेजी में समान अर्थ में near हो गए हैं। न उच्चारण बदला न अर्थ पर शब्दकोष में रहते हुए भी डिक्शनरीवासी हो गए।
हम एक साथ एक ही समय में दो स्थानों पर भले ही न कह सकें पर शब्द रह लेते हैं, वह भी प्रेम के साथ।
शब्दों की एकता ही भाषा की शक्ति बनती है। हमारी एकता देश की शक्ति बनती है।
देश की शक्ति बढ़ाने के लिए हमें शब्दों की तरह यायावर, घुमक्कड़, पर्यटक, तीर्थयात्री होना चाहिए।
धरती का स्वर्ग बुला रहा है, धारा ३७० संशोधित हो चुकी है। आइए! यायावर बनें और कश्मीर को पर्यटन कर समृद्ध बनाने के साथ दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा देखें और देश को एकता-शक्ति के सूत्र में बाँधें।
***
हिंदी ग़ज़ल
छंद दोहा
*
राष्ट्र एकता-शक्ति का, पंथ वरे मिल साथ।
पैर रखें भू पर छुएँ, नभ को अपने हाथ।।
अनुशासन का वरण कर, हों हम सब स्वाधीन।
मत निर्भर हों तंत्र पर, रखें उठाकर माथ।।
भेद-भाव को दें भुला, ऊँच न कोई नीच।
हम ही अपने दास हों, हम ही अपने नाथ।।
श्रम करने में शर्म क्यों?, क्यों न लिखें निज भाग्य?
बिन नागा नित स्वेद से, हितकर लेना बाथ।।
भय न शूल का जो करें, मिलें उन्हीं को फूल।
कंकर शंकर हो उन्हें, दिखलाते वे पाथ।।
६-९-२०१९
***
मेरा परिचय :
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
***
एकाक्षरी दोहा:
एकाक्षरी दोहा संस्कृत में महाकवि भारवी ने रचे हैं. संभवत: जैन वांग्मय में भी एकाक्षरी दोहा कहा गया है. निवेदन है कि जानकार उन्हें अर्थ सहित सामने लाये. ये एकाक्षरी दोहे गूढ़ और क्लिष्ट हैं. हिंदी में एकाक्षरी दोहा मेरे देखने में नहीं आया. किसी की जानकारी में हो तो स्वागत है.
मेरा प्रयास पारंपरिक गूढ़ता से हटकर सरल एकाक्षरी दोहा प्रस्तुत करने का है जिसे सामान्य पाठक बिना किसी सहायता के समझ सके. विद्वान् अपने अनुकूल न पायें तो क्षमा करें . पितर पक्ष के प्रथम दिन अपने साहित्यिक पूर्वजों का तर्पण इस दोहे से करता हूँ.
ला, लाला! ला लाल ला, लाली-लालू-लाल.
लल्ली-लल्ला लाल लो, ले लो लल्ला! लाल.
६-९-२०१७
***
मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी
शत-शत वंदन
गुरु जी की कविता और गुरु वन्दना
*
व्यंग्य रचना-
बाबू और यमराज
सुरेश उपाध्याय
*
दफ्तर का एक बाबू मरा
सीधा नरक में जाकर गिरा
न तो उसे कोई दुःख हुआ
ना वो घबराया
यों ही ख़ुशी में झूम कर चिल्लाया
वाह, वाह क्या व्यवस्था है?
क्या सुविधा है?
क्या शान है?
नरक के निर्माता! तू कितना महान है?
आँखों में क्रोध लिए यमराज प्रगट हुए, बोले-
'नादान! यह दुःख और पीड़ा का दलदल भी
तुझे शानदार नज़र आ रहा है?
बाबू ने कहा -
'माफ़ करें यमराज
आप शायद नहीं जानते
कि बन्दा सीधे हिंदुस्तान से आ रहा है।
***
गुरु वन्दना
*
दोहा मुक्तिका
*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह?
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***
लघुकथा
पीड़ा
*
शिक्षक दिवस पर विद्यार्थी अपने 'सर' को प्रसन्न करने के लिए उपहार देकर चरण स्पर्श कर रहे थे। उपहार के मूल्य के अनुसार आशीष पाकर शिष्य गर्वित हो रहे थे। सबसे अंत में खड़ा, सहमा-सँकुचा वह हाथ में थामे था एक कागज़ और एक फूल। शिक्षक ने एक नज़र उस पर डाली उससे कागज़ फूल लेकर मेज पर रखा और इससे पहले कि वह पैर छू पाता लपककर कमरे से निकल गए। दिन भर उदास-अनमना, खुद को अपमानित अनुभव करता वह पढ़ाई करता रहा।
शाला बन्द होनेपर सब बच्चे चले गए पर वह एक कोने में सुबकता हुआ खुद से पूछ रहा था 'मुझसे क्या गलती हुई? जो गणित कई दिनों से नहीं बन रहा था, वह दोस्तों से पूछ-पूछ कर हल कर लिया, गृहकार्य भी पूरा किया, रोज नहाने भी लगा हूँ, पुराने सही पर कपड़े भी स्वच्छ पहनता हूँ, भगवान को चढ़ानेवाला फूल 'सर' के लिए ले गया पर उन्होंने देखा तक नहीं। मेज पर इस तरह फेंका कि जमीन पर गिर कर पैरों से कुचल गया। कोना हमेशा की तरह मौन था...
सिर पर हाथ का स्पर्श अनुभव करते ही उसने पलटकर देखा, सामने उसके शिक्षक थे- 'मुझसे भूल हो गई, तुमने मुझे सबसे कीमती उपहार दिया है। मैं ही उस समय नहीं देख सका था' कहते हुए शिक्षक ने उसे ह्रदय से लगा लिया, पल भर में मिट गई उसके मन की पीड़ा।
६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित
*
[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]
*
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं।
गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है।
सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं।
'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है । [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]
तुम मुझे दो । शब्द / और मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ
२ १२ २ । २ १ / २ २ /। २ १ २ २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो
२ १ २ २ । २ १ / २ २ । २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
फिर उन्हीं निश् । छल पलों को।/ तुम कहो तो ।/ आज फिर से
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ = २८ मात्रा
गुनगुना लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १७ मात्रा
ओस भीगी । पंखुरी सा ।/ मन सहन / निख । रा है ऐसे
२ १ २ २ । २१२ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २ २ = २८ मात्रा
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
२ १ २ २ । २ १ २ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक = २६ मात्रा
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २१ २
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १९ मात्रा
इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं।
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है', अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है', पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं।
पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य] का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?
२ १ २ १ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
हर घड़ी ऐ।से जियो /जै।/से यही बस । खास है
२ १ २ १।२ १ २ २ ।/ २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है।
'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६ अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६ संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है।
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३) प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं।
'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं।
'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०, १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।
सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है।
'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों समायोजन करा दिया है।
तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक छूने में समर्थ हैं.
इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ, वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ
*
टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे
गंध के कितने झरोखे / खोलता है
*
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता?
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए
रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा
*
'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं।
सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।'
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
६-९-२०१५
***
विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
*
अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण को शिष्य रूप में आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं। आपका क्या विचार है सोचिए? किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....
६-९-२०१४
***
जाकी रही भावना जैसी
शिक्षक दिवस पर मंगल कामनाएँ प्राप्त कर धन्यता अनुभव हुई। सभी के प्रति ह्रदय से आभार।
विशेष आभार नर्मदांचल के वरिष्ठतम साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के प्रति जिनके स्नेहादेश को स्वीकार कर नर्मदापुरम (होशंगाबाद) में शिवसंकल्प साहित्य परिषद् के शिक्षक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से चयनित शिक्षकों तथा साहित्यकारों को सम्मानित करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ नवगीतकार अग्रजवत श्री विनोद निगम और अपने गुरु, हिंदी के श्रेष्ठ व्यंग्य कवि, धर्मयुग के उपसंपादक रहे श्री सुरेश उपाध्याय जी तथा भाभी श्रीमती आशा उपाध्याय जी के दर्शन, चरणस्पर्श, स्वादिष्ट भोजन और मर्मस्पर्शी कवितायेँ सुनने का सौभाग्य मिला।
मैं व्यवसाय से शिक्षक कभी नहीं रहा। हिंदी भाषा, व्याकरण, साहित्य, पिंगल, वास्तु, विधि, नागरिक अभियांत्रिकी और अन्य विषयों/विधाओं जो कुछ जानता हूँ, पूछनेवालों के साथ बाँटता रहता हूँ। हिन्दयुग्म/साहित्य शिल्पी, ब्लॉग दिव्यनर्मदा, पत्रिका मेकलसुता, ब्लॉगों, फेसबुक पृष्ठों, वॉट्सऐप समूहों, और अन्य मंचों पर लगातार चर्चा या लेख के माध्यम से सक्रिय रहा हूँ। इस वर्ष शिक्षक दिवस पर विस्मित हूँ कि रायपुर से एक साथी ने जिज्ञासा की कि मैं अपने योग्य शिष्य का नाम बताऊँ। इंदौर से अन्य साथी ने अभिवादन करते हुई बताया कि उसने समय-समय पर मुझसे बहुत कुछ सीखा है जो उसके काम आ रहा है। हिंदी के कई व्याख्याताओं और प्राध्यापकों ने छंद, अलंकार तथा व्याकरण संबंधी लेख मालाओं की छायाप्रतियां निकलकर उनसे विद्यार्थियों को पढ़ाया। युग्म और शिल्पी पर कार्यशालाओं के समय शिष्यत्व का दावा करने वालों को शायद अब नाम भी याद न हो। गूगल सर्च पर अपना नाम टंकित करने पर अंग्रेजी में ४ लाख साथ हजार और हिंदी में दो लाख उनहत्तर हजार परिणाम प्राप्त हुए। दिव्यनर्मदा.इन का पाठकांक ४० लाख २८ हजार १२३ है। ७५ पुस्तकों की भूमिकाएँ ३०० से अधिक पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखने तथा ५०० से अधिक छंदों की रचना करने के बाद भी स्थानीय आकाशवाणी केंद्र, अखबार और साहित्यिक मठाधीश मुझे साहित्यकार ही नहीं मानते।
मानव मन की यह भिन्नता विस्मित करती है. अस्तु… मैं यह जानता हूँ कि मैं एक विद्यार्थी था, हूँ, और रहूँगा , शेष जाकी रही भावना जैसी.....
सभी कामना छोड़कर करता चल मन कर्म
यही लोक परलोक है यही धर्म का मर्म
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
धरती बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
६-९-२०१०
***
सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष
सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास
देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल
शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
५-९-२०२२
*

बुधवार, 3 सितंबर 2025

सितंबर ३, गणेश, कजरी, नवगीत, दोहा, मुक्तिका, यमक, सामाजिक समरसता, हिंदी गजल

सलिल सृजन सितंबर ३ 
सितम्बर में जन्मे जातक परिश्रमी, शांत, बुद्धिजीवी, पर्यटक, कलाप्रिय होते हैं। शुभ: रवि, बुध, गुरुवार, ३, ७, ९ संख्याएँ, मोती, पन्ना।
***
हिंदी गजल 

"तंग गली" कहकर ग़ालिब ने किया ग़ज़ल को परिभाषित
उसी ग़ज़ल ने आज समय तक ग़ालिब को रक्खा जीवित
.
फ़ना हुईं रचनाएँ जिनको ग़ालिब ने उत्तम समझा
पढ़ी जा रहीं ग़ज़लें जिनमें, आदमियत है अविभाजित
.
मजहब मुल्क सियासी बातें, रहें अदब से दूर अगर
रहें बाअदब, हों न बेअदब, रहे हकीकत अविवादित
.
मर्ज कर्ज का लाइलाज मत पड़ने देना इसे गले
कदम-दर-कदम इम्तिहान है, क्या यह सच है तुझे विदित
.
मजा तभी जब बात न बनती जो, वह अपने आप बने
कफ़न दफन क्यों अपनापन है?, सलिल हो सके संजीवित
३.९.२०२५
ग़ालिब जयंती
०००
दोहा अलंकार मय
री! ना, रीना छेड़ मत, थक कर कहें प्रताप।
छेड़ न सकती अन्य को, इष्ट मात्र हैं आप?
*
कहो कामना! का मना?, का न मना है काम?
सुनो भाव ना भावना!, मिलती है बेदाम।।
*
सर अक्सर सर दुख रहा, पीर न होती दूर।
जाकर डॉक्टर को दिखा, बिसरा पीर-फकीर।।
*
बिखरा दे आलोक रवि, उषा संग आ लोक।
शोक-तिमिर का अंत हो, पल पल बने अशोक।।
*
मत का खंडन मत करें, जो विधि सम्मत मान्य।
बात हुई बेबात जो, है अमान्य सम्मान्य।।
३.९.२०२४
***
नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
१-९-२०१६, १३.००
गोरखपुर दन्त चिकित्सालय
***
कुंडलिया कार्यशाला
बिगडे़ जग के हाल पर, मत चुप रहिए आप।
इंतज़ार में देखिए, शब्द खड़े चुपचाप।। - तारकेश्वरी 'सुधि'
शब्द खड़े चुपचाप, मुखर करिए रचनाकर।
सच कह बनें कबीर, निबल सुधि ले कर आखर।।
स्नेह सलिल दे तृप्ति, मिटाकर सारे झगड़े।
मरुथल मधुवन बने, परिस्थिति अधिक न बिगड़े।। - 'सलिल'
३.९.२०१९
***
लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता
*
साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।
देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था।
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।
ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
3-9-2016
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नवगीत:
*
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
मौत उजाले की होती
कब-किसने देखी?
सौत अँधेरी रात
हमेशा रही अदेखी।
किस्मत जुगनू सी
टिमटिम कर राह दिखाती।
शरत चाँदनी सी मंज़िल
पथ हेर लुभाती।
दौड़ा लपका हाथ बढ़ा
कर लूँ कुड़माई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
अपने सपने
पल भर में नीलाम हो गये।
नपने बने विधाता
काहे वाम हो गये?
को पूछे किससे, काहे
कब, कौन बताये?
किस्से दादी संग गये
अब कौन सुनाये?
पथवारी मैया
लगती हैं गैर-पराई।
कोशिश कर-कर हारा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
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दोहा मुक्तिका:
आशा जिसके साथ हो, तोड़ निराशा-पाश
पा सकता है एक को, फेंट मुश्किलें-ताश
*
धरती पर पग भले हों, निकट लगे आकाश
जब-जब होता सन्निकट, 'सलिल' संग कैलाश
*
जब कथनी को भूल मन, वर लेता मन 'काश'
तज यथार्थ को कल्पना, करे समय का नाश
*
ढोता है आतंक की, जब-जब मजहब लाश
पाखंडों का हो तभी, जग में पर्दाफाश
*
नफरत के सौदागरों, तज तम गहो प्रकाश
अगर न सुधरे सुनिश्चित, होगा सत्यनाश
३.९.२०१५
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नवगीत:
*
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
***
दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
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चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
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नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
*
नवगीत:
*
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
३.९.२०१४
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श्री गणेश वंदना
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कजरी गीत:१
भोला-भोला गणपति बिसरत नहीं, गौरा के लाला रे भोला.
भोला-भोला सुमिरत टेर रहे हम, दरसन दे दो रे भोला.
भोला-भोला नन्दी सेर मूस पर चढ़कर आओ रे भोला.
भोला-भोला कहाँ गजानन बिलमे, कहाँ षडानन रे भोला.
भोला-भोला ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी संग, जाओ न आके रे भोला.
भोला-भोला भ्रस्ट असुर नेतागण, गणपति मारें रे भोला.
भोला-भोला मोदक थाल धरे, कर ग्रहण विराजो रे भोला.
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कजरी गीत:२
हरि-हरि जय गनेस के चरना, दीन के दानी रे हरि.
हरि-हरि मंगलमूर्ति गजानन, महिमा बखानी रे हरि.
हरि-हरि विद्या-बुद्धि प्रदाता, युक्ति के ज्ञानी रे हरि.
हरि-हरि ध्यान धरूँ नित तुमरो, कथा सुहानी रे हरि.
हरि-हरि मार रही मँहगाई, कठिन निभानी रे हरि.
हरि-हरि चरण पखार तरे, यह 'सलिल' सा प्राणी रे हरि.
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