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शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

मई २४, सॉनेट, दर्पण, मुक्तिका, निशा तिवारी, हिंदी, शृंगार गीत, एडगर एलन पो, अंग्रेजी, दोहा

सलिल सृजन मई २४
*
सॉनेट
*
मन की बात करें सब खुलकर
सॉनेट लिखें न थकिए रुककर
फैलाएं सुगंध हिलमिलकर
फूलों जैसे झूमें झुककर
चौ चौ चौ त्रै पंक्ति भार सम
एक-तीन, दो-चार मिला तु क
प्रथम अंतरा हो वसुधा नम
दूजा किसलय झांक सके टुक
पल्लव-पुष्प मनोरम भाएं
महकाएं मिल मन-आंगन को
धूप-छांव नित गले लगाएं
पर्व मना सावन फागुन को
तंत समेटे फलित अंत में
कंत मन रमे ईश-संत में
24-5-2023
सॉनेट
दर्पण
दाएँ को बायाँ दिखलाए
फिर भी दुनिया यह कहती है
दर्पण केवल सत्य बताए।
असत सत्य सम चुप तहती है।
धूल नहीं मन पर जमती है
सही समझ सबको यह आए
दर्पण पोंछ धूल जमती है।
मत कह मन दर्पण कहलाए।
तेरे पीछे जो रहती है
वस्तु उसे आगे दिखलाए
हाथ बढ़ा तो कब मिलती है?
दर्पण हरदम ही भरमाए।
मत बन रे मन मूरख भोले।
मत कह दर्पण झूठ न बोले।।
२४-५-२०२२
•••
मुक्तिका
*
जब हुए जंजीर हम
तब हुए गंभीर हम
फूल मन भाते कभी हैं
कभी चुभते तीर हम
मीर मानो या न मानो
मन बसी हैं पीर हम
संकटों से बचाएँगे
घेरकर प्राचीर हम
भय करो किंचित न हमसे
नहीं आलमगीर हम
जब करे मन तब परख लो
संकटों में धीर हम
पर्वतों के शिखर हैं हम
हैं नदी के तीर हम
***
मुक्तिका
क्या बताएँ कौन हैं?
कुछ न बोले मौन हैं।
आँख में पानी सरीखे
या समझ लो नौन हैं।
कहीं तो हम नर्मदा हैं
कहीं पर हम दौन हैं।
पूर्व संयम था कभी पर
आजकल यह यौन है।
पूर्णता पहचान अपनी
नहीं अद्धा-पौन हैं।
***
गीत
*
सोते-सोते उमर गँवाई
खुलीं न अब तक आँखें
आँख मूँदने के दिन आए
काम न दें अब पाँखें
कोई सुनैना तनिक न ताके
अब जग बगलें झाँके
फना हो गए वे दिन यारों
जब हम भी थे बाँके
व्यथा कथा कुछ कही न जाए
मन की मन धर मौन
हँसी उड़ाएगा जग सारा
आँसू पोछे कौन?
तन की बाखर रही न बस में
ढाई आखर भाग
मन की नागर खाए न कसमें
बिसर कबीरा-फाग
चलो समेटो बोरा-बिस्तर
रहे न छाया संग
हारे को हरिनाम सुमिरकर
रंग जा हरी के रंग
***
कृति चर्चा
'आदमी अभी जिन्दा है', लघुकथा संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
डॉ. निशा तिवारी
*
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है। यह नव्यता द्विपक्षीय है, प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के साँचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है। यों नवीन शब्द समय सापेक्ष है। कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है। स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं। अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है। कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है। संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है। मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं। अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है। यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं।
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं। ये कहानियाँ संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंतरता में साक्षात् करता हुआ भाव-निमग्न होकर अगली कथा की ओर बढ़ जाता है। कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं।
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भाँति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है। सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है। इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है।
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं। उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है। लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है। भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है।
***
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भँवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
दोहा
हिंदी महिमा
*
हिंदी बिंदी हिन्द की, अद्भुत इसकी शान
जो जान हिंदी बोलता, बढ़ता उसका मान
*
हिंदी में कहिए कथा, विहँस मनाएँ पर्व
मुदित हुए सुन ईश्वर, गॉड खुदा गुरु सर्व
*
हिंदी हिन्दुस्तान के, जनगण की आवाज
सकल विश्व में गूँजती, कर जन-मन पर राज
*
नेह नर्मदा सम सरम, अमल विमल अम्लान
हिंदी पढ़ते-बोलते, समझदार विद्वान्
*
हिंदी राखी दिवाली, हिंदी फाग अबीर
घाघ भड्डरी ईसुरी, जगनिक संत कबीर
*
पनघट नुक्क्ड़ झोपड़ी, पगडंडी खलिहान
गेहूँ चाँवल दाल है, हिंदी खेत मचान
*
हिंदी पूजा आरती, घंटी शंख प्रसाद
मन मानस में पूजिए, रहें सदा आबाद।
२४-५-२०२०
***
शृंगार गीत
*
अधर पर मुस्कान १०
नयनों में निमंत्रण, ११
हाथ में हैं पुष्प, १०
मन में शूल चुभते, ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
ओ अमित शाही इरादों! १४
ओ जुमलिया जूठ-वादों! १४
लूटते हो चैन जन का १४
नीरवों के छिपे प्यादों! १४
जिस तरह भी हो न सत्ता १४
हाथ से जाए। ९
कुर्सियों में जान १०
संसाधन स्व-अर्पण, ११
बात में टकराव, १०
धमकी खुली देते, ११
धर्म का ले नाम, कर अलगाव, १७
खुद को थोप ऊपर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
रक्तरंजित सरहदें क्यों? १४
खोलते हो मैकदे क्यों? १४
जीविका अवसर न बढ़ते १४
हौसलों को रोकते क्यों? १४
बात मन की, ध्वज न दल का १४
उतर-छिन जाए। ९
लिया मन में ठान १०
तोड़े आप दर्पण, ११
दे रहे हो घाव, १०
नफरत रोज सेते, ११
और की गलती गिनाकर मुक्त, १७
ज्यों संतुष्ट शूकर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
२३-५-२०१८
***
मुक्तिका ​:
*
अंधे देख रहे हैं, गूंगे बोल रहे
पोल​ उजालों की अँधियारे खोल रहे
*
लोभतंत्र की जय-जयकार करेगा जो
निष्ठाओं का उसके निकट न मोल रहे
*
बाँध बनाती है संसद संयम के जो
नहीं देखती छिपे नींव में होल रहे ​
​*
हैं विपक्ष जो धरती को चौकोर कहें
सत्ता दल कह रहा अगर भू गोल रहे
*
कौन सियासत में नियमों की बात करे?
कुछ भी कहिए, पर बातों में झोल रहे
२४-५-२०१७
***
इंगलिश की यादगार कविताओं का हिन्दी में अनुवादकी श्रंखला में पहला अुनुवाद
A Dream Within A Dream
by Edgar Allan Poe
*
Take this kiss upon the brow!
And, in parting from you now,
Thus much let me avow--
You are not wrong, who deem
That my days have been a dream;
Yet if hope has flown away
In a night, or in a day,
In a vision, or in none,
Is it therefore the less gone?
All that we see or seem
Is but a dream within a dream.
I stand amid the roar
Of a surf-tormented shore,
And I hold within my hand
Grains of the golden sand--
How few! yet how they creep
Through my fingers to the deep,
While I weep--while I weep!
O God! can I not grasp
Them with a tighter clasp?
O God! can I not save
One from the pitiless wave?
Is all that we see or seem
But a dream within a dream?
*
ख्वाब में ख्वाब - एडगर एलन पो 
अनुवाद - सलिल 
*
चूमकर माथा तुम्हारा 
हो रहा तुमसे विदा मैं। 
कहूँ निस्संकोच खुलकर 
तुम नहीं थीं गलत तब जब 
सोचती थीं दिवस मेरे स्वप्न हैं 
आस पाखी उड़ गया है दूर। 
एक रजनी या कि दिन में 
दिख रहे में या अदिख में 
इसलिए क्या न्यून खोया?
देखते-महसूसते जो हम सभी 
ख्वाब; केवल ख्वाब है वह ख्वाब में।   
हूँ खड़ा मैं तरंगों के शोर में 
क्षुब्ध सागर के किनारे;
हाथ में हूँ सहेजे मैं 
सुनहरे सिकता-कणों को 
हैं बहुत थोड़े मगर फिर भी फिसलते।  
अंगुलियाँ मेरी घुसी गहराई में 
रो रहा जब रो रहा मैं। 
दैव! क्या मैं नहीं सकता बाँध 
इनको बंद मुट्ठी में, 
बचाने निर्दयी जल-तरंगों से?
देखते जो या कि  देखा 
ख्वाब में है ख्वाब क्या सब?
***
मुक्तिका
*
बँधी नीलाकाश में
मुक्तता भी पाश में
.
प्रस्फुटित संभावना
अगिन केवल 'काश' में
.
समय का अवमूल्यन
हो रहा है ताश में
.
अचेतन है ज़िंदगी
शेष जीवन लाश में
.
दिख रहे निर्माण के
चिन्ह व्यापक नाश में
.
मुखौटों की कुंडली
मिली पर्दाफाश में
.
कला का अस्तित्व है
निहित संगतराश में
***
[बारह मात्रिक आदित्य जातीय छन्द}
११.५.२०१६, ६.४५
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहर रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जुड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*
केश-पाश में जो बँधा, उसे न भाती मुक्ति।
केशवती को पा सकें, अधर खोजते युक्ति।।
*
'सलिल' बाल बाँका न हो, रोज गूँथिये बाल।
किन्तु निकालें मत कभी, आप बाल की खाल।।
*
बाल खड़े हो जाएँ तो, झुका लीजिए शीश।
रुष्ट रूप से भीत ही, रहते भूप-मनीष।।
***
२४-५०२०१६
***
कृति चर्चा:
कृति विवरण:
रत्ना मंजूषा : छात्रोपयोगी काव्य संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: रत्न मंजूषा, काव्य संग्रह, रत्ना ओझा 'रत्न', आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १८०, मूल्य १५० रु., प्राप्ति संपर्क: २४०५/ बी गाँधी नगर, नया कंचनपुर, जबलपुर]
*
रत्न मंजूषा संस्कारधानी जबलपुर में दीर्घ काल से साहित्य सृजन और शिक्षण कर्म में निमग्न कवयित्री श्रीमती रत्ना ओझा 'रत्न' की नवीन काव्यकृति है. बँटवारे का दर्द कहानी संग्रह, गीत रामायण दोहा संग्रह, जरा याद करो क़ुरबानी भाग १ वीरांगनाओं की जीवनी, जरा याद करो क़ुरबानी भाग २ महापुरुषों की जीवनी, का लेखन तथा ७ स्मारिकाओं का संपादन कर चुकी रत्ना जी की कविताओं के विषय तथा शिल्प लक्ष्य पाठक शालेय छात्रो को ध्यान में रखकर काव्य कर्म और रूपाकार और दिशा निर्धारित की है. उच्च मापदंडों के निकष पर उन्हें परखना गौरैया की उड़ान की बाज से तुलना करने की तरह बेमानी होगा. अनुशासन, सदाचार, देशभक्ति, भाईचारा, सद्भाव, परिश्रम तथा पर्यावरण सुधार आदि रत्ना जी के प्रिय विषय हैं. इन्हें केंद्र में रखकर वे काव्य सृजन करती हैं.
विवेच्य कृति रत्न मञ्जूषा को कवयित्री ने २ भागों में विभाजित किया है. भाग १ में राखी गयी ४३ कवितायेँ राष्ट्रीय भावभूमि पर रची गयी हैं. मातृ वंदना तथा शहीदों को नमन करने की परम्परानुसार रत्ना जी ने कृति का आरंभ शईदों को प्रणतांजलि तथा वीणा वंदना से किया है.रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानन्द, बापू, सुभद्रा कुमारी चौहान, इंदिराजी, जैसे कालजयी व्यक्तित्वों के साथ पर्यावरण और किसानों की समस्याओं को लेकर शासन-प्रशासन के विरुद्ध न्यायालय और ज़मीन पर नेरंतर संघर्षरत मेघा पाटकर पर कविता देकर रत्ना जी ने अपनी सजगता का परिचय दिया है. नर्मदा जयंती, वादियाँ जबलपुर की, ग्राम स्वराज्य, आदमी आदि परिवेश पर केन्द्रित रचनाएँ कवयित्री की संवेदनशीलता का प्रतिफल हैं. इस भाग की शेष रचनाएँ राष्ट्रीयता के रंग में रंगी हैं.
रत्न मञ्जूषा के भाग २ में सम्मिलित ८८ काव्य रचनाएँ विषय, छंद, कथ्य आदि की दृष्टि से बहुरंगी हैं. तस्वीर बदलनी चाहिए, मिट जाए बेगारी, लौट मत जाना बसंत, माँ रेवा की व्यथा-कथा, दहेज, आँसू, गुटखा, बचपन भी शर्मिंदा, ये कैसी आज़ादी आदि काव्य रचनाओं में कवयित्री का मन सामाजिक सामयिक समस्याओं की शल्य क्रिया कर कारण और निवारण की ओर उन्मुख है. रत्ना जी ने संभवत: जन-बूझकर इन कविताओं की भाषा विषयानुरूप सरस, सरल, सहज, बोधगम्य तथा लयात्मक रखी है. भूमिका लेखक आचार्य भगवत दुबे ने इसे पिन्गलीय आधार पर काव्य-दोष कहा है किन्तु मेरी दृष्टि में जिन पाठकों के लिए रचनाएँ की गयीं हैं, उनके भाषा और शब्द-ज्ञान को देखते हुए कवयित्री ने आम बोलचाल के शब्दों में अपनी बात कही है. प्रसाद गुण संपन्न ये रचनाएं काव्य रसिकों को नीरस लग सकती हैं किन्तु बच्चों को अपने मन के अनुकूल प्रतीत होंगी.
कवयित्री स्वयं कहती है: 'नवोदित पीढ़ी में राष्ट्रीयता, नैतिकता, पर्यावरण, सुरक्षा, कौमी एकता और संस्कार पनप सकें, काव्य संग्रह 'रत्न मञ्जूषा' में यही प्रयास किया गया है. कवयित्री अपने इस प्रयास में सफल है. शालेय बच्चे काव्यगत शिल्प और पिंगल की बारीकियों से परिचित नहीं होते. अत: उन्हें भाषिक कसावट की न्यूनता, अतिरिक्त शब्दों के प्रयोग, छंद विधान में चूकके बावजूद कथ्य ग्रहण करने में कठिनाई नहीं होगी. नयी पीढ़ी को देश के परिवेश, सामाजिक सौख्य और समन्वयवादी विरासत के साथ-साथ पर्यावरणीय समस्याओं और समाधान को इंगिर करती-कराती इस काव्य-कृति का स्वागत किया जाना चाहिए.
***
आरक्षण समस्या: एक समाधान
*
सबसे पहला आरक्षण संसद में हो
शत-प्रतिशत दें पिछड़े-दलित-आवर्णों को
आरक्षित डोक्टर आरक्षित को देखे
आरक्षित अभियन्ता ही बनवाये मकान
कुछ वर्षों में समाधान हो जाएगा
फिर न कहीं भी घमासान हो पायेगा...
२४-५-२०१५
***
दोहा गाथा ९ : दोहा कम में अधिक है
संजीव
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.
*
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे तो फ़िर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय.
*
दोहे रचे कबीर ने, शब्द-शब्द है सत्य.
जन-मन बसे रहीम हैं, जैसे सूक्ति अनित्य. कबीर
दोहा सबका मीत है, सब दोहे के मीत.
नए काल में नेह की, 'सलिल' नयी हो नीत.
सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान.
शान्ति सौख्य संतोष दो, मुझको हे भगवान.
गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ.
औरों की करने मदद, बढ़े रहें मम हाथ.
दोहा रचकर आपको, मिले सफलता-हर्ष.
नेह नर्मदा नित नहा, पायें नव उत्कर्ष.
नए सृजन की रश्मि दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
पा जीवन में पूर्णता, करें राष्ट्र की वृद्धि.
जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य.
इसके जैसी है नहीं, भाषा कोई अन्य.
'सलिल' शीश ऊँचा रखें, नहीं झुकाएँ माथ.
ज्यों की त्यों चादर रहे, वर दो हे जगनाथ.
दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।
मुगल सम्राट अकबर के पराक्रमी अभिभावक बैरम खान खानखाना के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना उर्फ़ रहीम ( संवत १६१० - संवत १६८२) अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान, वीर योद्धा, दानवीर तथा राम-कृष्ण-शिव आदि के भक्त कवि थे। रहीम का नीति तथा शृंगार विषयक दोहे हिन्दी के सारस्वत कोष के रत्न हैं। बरवै नायिका भेद, नगर शोभा, मदनाष्टक, श्रृंगार सोरठा, खेट कौतुकं ( ज्योतिष-ग्रन्थ) तथा रहीम काव्य के रचियता रहीम की भाषा बृज एवं अवधी से प्रभावित है। रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा देखिये--
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव २००९ में मुख्य अतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु...
छंद क्या है?
संस्कृत काव्य में छंद का रूप श्लोक है जो कथ्य की आवश्यकता और संधि-नियमों के अनुसार कम या अधिक लम्बी, कम या ज्यादा पंक्तियों का होता है। संकृत की क्लिष्टता को सरलता में परिवर्तित करते हुए हिंदी छंदशास्त्र में वर्णित अनुसार नियमों के अनुरूप पूर्व निर्धारित संख्या, क्रम, गति, यति का पालन करते हुए की गयी काव्य रचना छंद है। श्लोक तथा दोहा क्रमशः संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के छंद हैं। ग्वालियर निवास स्वामी ॐ कौशल के अनुसार-
दोहे की हर बात में, बात बात में बात.
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात.
श्लोक से आशय किसी पद्यांश से है। जन सामान्य में प्रचलित श्लोक किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति की लम्बाई परिवर्तनशील होती है।
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की को बंधक बनाते ही आतंकवादी छोड़ दिए जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट के बाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था।
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए? संकटग्रस्त के परिजनों को क़तर न होकर देश हित में सर्वोच्च बलिदान का अवसर पाने को अपना सौभाग्य मानना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
*
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
गोष्ठी के अंत में :
दोहा सुहृदों का स्वजन, अक्षर अनहद नाद.
बिछुडे अपनों की तरह, फ़िर-फ़िर आता याद.
बिसर गया था आ रहा, फ़िर से दोहा याद.
दोहा रचना सरल यदि, होगा द्रुत संवाद.
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.
दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता, निडरता, स्पष्टता से संक्षिप्तता में कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
गुण पूजित हो कौन सा?,क्या अवगुण दें त्याग?
वरित पूज्य- तज चम्पई, अवरित बिन अनुराग..
चम्पई = चंपकवर्णी सुन्दरी
बेवफा प्रियतम को साथ लेकर न लौटने से लज्जित दूती को के दुःख से भावाकुल प्रेमिका भावाकुल के मन की व्यथा कथा दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं, दूती क्यों नत मुख?
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख..
हर प्रियतम बेवफा नहीं होता। सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है। जिस विरहणी की अंगुलियाँ प्रियतम के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
प्रिय जब गये प्रवास पर, बतलाये जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.
परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गये तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आये तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी। करें तो क्या करे?
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.
मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है। 'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.
दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे। बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरनन करत, आल्हा छंद बनाय.
इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.
कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चंद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतिय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
*
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.
दोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास.
'मावस भी पूनम बने, फागुन भी मधुमास.
बौर आम के देखकर, बौराया है आम.
बौरा गौरा ने वरा, खास- बताओ नाम?
लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल.
जलता है या फूलता, बूझे कौन सवाल?
लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन.
नील गगन हँसता, लगे- पवन वसन बिन दीन.
सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ.
हँसते-रोते हैं नयन, उठता-झुकता माथ.
राम राज्य का दिखाते, स्वप्न किन्तु खुद सूर.
दीप बुझाते देश का, क्यों कर आप हुजूर?
'कम लिखे को अधिक समझना' लोक भाषा का यह वाक्यांश दोहा रचना का मूलमंत्र है. उक्त दोहों के भाव एवं अर्थ समझिये.
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चो त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.
करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पडत निसान.
दोहा गाथा की इस कड़ी के अंत में वह दोहा जो कथा समापन के लिये ही लिखा गया है-
कथा विसर्जन होत है, सुनहूँ वीर हनुमान.
जो जन जहाँ से आए हैं, सो तंह करहु पयान।
***
बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
*
मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल
रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल
यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल
आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल
मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल
२४-५-२०१३
*

फरवरी १६, सॉनेट, सोरठा, उपेन्द्रवज्रा, प्रदोष, नवगीत, लघुकथा, बरगद, प्रेमगीत, मुक्तिका

 सलिल सृजन फरवरी १६

*
सोरठा
सूरज नित्य प्रणाम, किरण करों से कर रहा।
औमनु की किस्मत वाम, वसुधा को मैला करे।।
भोगे दुष्परिणाम, तनिक न लेकिन चेतता।
दौड़ रहा अविराम, ठोकर खा सँभले नहीं।।
भली करेंगे राम, कह खाता प्रभु भोग भी।
है आराम हराम, भूल न करता परिश्रम।।
किसको प्यारा चाम, जाहिर जग है काम प्रिय।
काम करो निष्काम, कृष्ण वचन माने नहीं।।
सभी चाहते दाम, ज्यादा से ज्यादा मिले।
माया जोड़ तमाम, जाते खाली हाथ सब।।
१६.२.२०२४
•••
सॉनेट
धीर धरकर
पीर सहिए, धीर धरिए।
आह को भी वाह कहिए।
बात मन में छिपा रहिए।।
हवा के सँग मौन बहिए।।
मधुर सुधियों सँग महकिए।
स्नेहियों को चुप सुमिरिए।
कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।।
दर्द हो बेदर्द सहिए।।
श्वास इंजिन, आस पहिए।
देह वाहन ठीक रखिए।
बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।
असत् के आगे न झुकिए।।
शिला पर सिर मत पटकिए।
मान सुख-दुख सम विहँसिए।।
१६-२-२०२२
•••
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
...
नवगीत:
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
...
दोहा गीत: धरती ने हरिय...
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा सांप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
*
नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.
*
निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.
रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.
ऊसर-बंजर धरा न हो,
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
*
अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
***
नवगीत:
*
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
***
लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं. उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता ही रहता है. इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं. अब तो उसका पीछा छोड़ दे'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"हैं न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न?धरती माने या न माने सूरज धूप देना बंद तो नहीं करता. मैं सूरज की रोज पूजा करूं और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन."
***
दोहा सलिला
*
कौर त्रिलोचन के हुए, गत अब आगत मीत.
उमा मौन हो देखतीं, जगत्पिता की प्रीत.
*
यह अनुपम वह निरुपमा, गौरा-बौरा साथ.
'सलिल' धन्य दर्शन मिले, जुड़े हाथ नत माथ.
*
क्या दूँ कैसे मैं इन्हें, सोच रहे मिथलेश?
त्रिपग नापते पग खड़े, बन दामाद रमेश.
*
रमा दे रहे शेष क्या, रहा कहीं भी तात?
राम जोड़ कर नत हुए, वंदन करे प्रभात
*
श्यामल विश्वंभर प्रभा, गौर उमा की कांति
इन्हें लुभाती उग्रता, उन्हें सुहाती शांति
*
थामे लता यशोधरा, तनिक नहीं भयभीत
सिंह अखंड पीड़ा लखे, अश्रु बहाए प्रीत
१६.२.२०१८
***
एक दोहा
*
लाड़ शब्द से कीजिए, शब्द जताते प्यार
जान लुटाई शब्द पर, शब्द हुए बलिहार
***
कार्यशाला
दो कवि एक कुण्डलिया
*
शब्दों ने मिलकर किया , शब्दों का श्रंगार।
शब्दों की दुल्हन सजी , शब्दों के गलहार।। -मिथलेश
शब्दों के गलहार, छंद गहने-पहनाए।
आनन्दित मिथलेश, विनीता सिय मुस्काए।।
सुलभ प्रेरणा करी, कल्पना-प्रारब्धों ने।
'सलिल' राय दी सत्य, कांता के शब्दों ने।। -संजीव
***
मुक्तिका
वार्णिक छंद उपेन्द्रवज्रा –
मापनी- १२१ २२१ १२१ २२
सूत्र- जगण तगण जगण दो गुरु
तुकांत गुरु, पदांत गुरु गुरु
*
पलाश आकाश तले खड़ा है
उदास-खो हास, नहीं झुका है
हजार वादे कर आप भूले
नहीं निभाए, जुमला कहा है
सियासती है मनुआ हमारा
चचा न भाए, कर में छुरा है
पड़ोस में ही पलते रहे हो
मिलो न साँपों, अब मारना है
तुम्हें दई सौं, अब तो बताओ
बसंत में कंत कहाँ छिपा है
***
सुभ्रामर दोहा
[२७ वर्ण, ६ लघु, २१ गुरु]
*
छोटी मात्रा छै रहें, दोहा ले जी जीत
सुभ्रामर बोलें इसे, जैसे मन का मीत
*
मैया राधा द्रौपदी, हेरें-टेरें खूब
आता जाता सताता, बजा बाँसुरी खूब
*
दादा दादी से कहें, पोते हैं नादान
दादी बोलीं- 'पोतियाँ, शील-गुणों की खान
*
कृष्णा सी मानी नहीं, दानी कर्ण समान
मीरा सी साध्वी कहाँ, कान्हा सी संतान
*
क्या लाया?, ले जाय क्या?, क्यों जोड़ा है व्यर्थ?
ज्यों का त्यों है छोड़ना, तो क्यों किया अनर्थ??
*
पाना खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय
हा-हा ही-ही ही नहीं, है साँसों का ध्येय
*
टोटा है क्यों टकों का, टकसालों में आज?
छोटा-खोटा मूँड़ पे, बैठा पाए राज
*
भोला-भाला देव है, भोला-भाला भक्त
दोनों दोनों से कहें, मैं तुझसे संयुक्त
*
देवी देवी पूजती, 'माँगो' माँगे माँग
क्या माँगे कोई कहे?, भरी हुई है माँग
*
माँ की माँ से माँ मिली, माँ से पाया लाड़
लाड़ो की लाड़ो लड़ी, कौन लड़ाए लाड़?
१६.२.२०१७
***
एक रचना-
आदमी
*
हमने जहाँ
जब भी लिखा
बस आदमी लिखा
*
मेहनत लिखी
कोशिश लिखी
मुस्कान भी लिखी
ठोकर लिखी
आहें लिखीं
नव तान भी लिखी
पीड़ा लिखी
आँसू लिखे
पहचान भी लिखी
ऐसा नहीं कि
कुछ न कहीं
वायवी लिखा
*
कुछ चाहतें
कुछ राहतें
मधुगान भी लिखा
पनघट लिखा
नुक्कड़ लिखा
खलिहान भी लिखा
हुक्का लिखा
हाकिम लिखा
फरमान भी लिखा
पत्थर लिखा
ठोकर लिखी
मधुगान भी लिखा
*
गेंती लिखी
छाले लिखे
प्याले नहीं लिखे
उपले लिखे
टिक्कड़ लिखे
निवाले भी लिखे
अपने लिखे
सपने लिखे
यश-मान भी लिखा
अमुआ लिखा
महुआ लिखा
बेचारगी लिखा
***
एक रचना
बरगद बब्बा
*
बरगद बब्बा
खड़े दिख रहे
जड़ें न लेकिन
अब मजबूत
*
बदलावों की घातक बारिश
संस्कार की माटी बहती।
जटा न दे पाती मजबूती
पात गिर रहे, डालें ढहतीं।
बेपेंदी के
लोटों जैसे
लुढकें घबरा
पंछी-पूत
*
रक्षक मानव छाया पाता
भक्षक बन फिर काट गिराता
सिर पर धूप पड़े जब सहनी
हाय-हाय तब खूब मचाता
सावन-झूला
गिल्ली-डंडा
मोबाइल को
लगे अछूत
*
मिटा दिये चौपाल-चौंतरे
भूले पूजा-व्रत-फेरे
तोता-मैना तोड़ रहे दम
घिरे चतुर्दिक बाँझ अँधेरे
बरगद बब्बा
अड़े दिख रहे
टूटी हिम्मत
मगर अकूत
***
दोहा-
जिस थाली में खा रहे, करें उसी में छेद
नर-विषधर में रह गया, कहिए अब क्या भेद?
*
द्विपदी
खोजा बाहर न मिला, हार के मैं बैठ गया
मन में झाँका तो आनंद को पाया मैंने
*
खोजा बाहर न मिला, हार के मैं बैठ गया
मन में झाँका तो आनंद को पाया मैंने
***
पुस्तक सलिला:
परिंदे संवेदना के : गीत नव सुख-वेदना के
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: परिंदे संवेदना के, गीत-नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेटयुक्त, बहुरंगी, पृष्ठ ७०, मूल्य १५०/-, पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस कॉम्प्लेक्स, भोपाल ०७६१ २५५५७८९, गीतकार संपर्क- आई. सी. ५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ०७८६९१९३९२७, ईमेल- jaiprakash09.shrivastava@gmail.com]
*
गीत-नवगीत के मानकों, स्वीकार्यताओ-अस्वीकार्यताओं को लेकर तथाकथित मठाधीशों द्वारा छेड़ी गयी निरर्थक कवायद से दूर रहते हुए जिन नवगीतकारों ने अपनी कृति गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित करना बेहतर समझा जयप्रकाश श्रीवास्तव उनमें से एक हैं। हिंदी साहित्य में स्नाकोत्तर उपाधि प्राप्त रचनाकार गीत-नवगीत को भली-भाँति समझता है, उनके वैशिष्ट्य, साम्य और अंतर पर चर्चा भी करता है किन्तु अपने रचनाकर्म को आलोचकीय छीछालेदर से दूर रखने के लिये गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित कर संतुष्ट है। इस कारण नवगीत के समीक्षकों - शोधछात्रों की दृष्टि से ऐसे नवगीतकार तथा उनका रचना कर्म ओझल हो जाना स्वाभाविक है।
'परिंदे संवेदना के' शीर्षक चौंकाता है परिंदे अनेक, संवेदना एक अर्थात एक संवेदना विशेष से प्रभावित अनेक भाव पक्षियों की चहचहाहट किन्तु संग्रह में संकलित गीत-नवगीत जीवन की विविध संवेदनाओं सुख-दुःख, प्रीति-घृणा, सर्जन-शोषण, राग-विराग, संकल्प-विकल्प आदि को अभिव्यक्त करते हैं। अत:, 'परिंदे संवेदनाओं के' शीर्षक उपयुक्त होता। जयप्रकाश आत्मानंदी रचनाकार हैं, वे छंद के शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। उनके सभी गीत-नवगीत जय हैं किन्तु विविध अंतरों में समान संख्या अथवा मात्रा भार की पंक्तियों की सामान्यत: प्रचलित प्रथा का अनुकरण वे हमेशा नहीं करते। हर अंतरे के पश्चात मुखड़े के समान तुकांती पंक्तियों की प्रथा का वे पालन करते हैं। उनके नवगीत कथ्य-केंद्रित हैं। प्रकृति-पर्यावरण, शासन-प्रशासन, शोषण-विलास, गिराव-उठाव, आशा-निराशा आदि उनके इन ५८ नवगीतों में अन्तर्निहित हैं।
इन नवगीतों की भाषा सामान्यत: बोली जा रही शब्दावली से संपन्न है, जयप्रकाश अलंकरण पर स्वाभाविक सादगी को वरीयता देते हैं। वे शब्द चुनते नहीं, नदी के जलप्रवाह में स्वयमेव आती लहरियों के तरह शब्द अपने आप आते हैं।
आश्वासन के घर / खुशियों का डेरा
विश्वासों के / दीपक तले अँधेरा
बीज बचा / रक्खा है हमने
गाढ़े वक़्त अकाल का
हर संध्या / झंझावातों में बीते
स्नेह-प्यार के / सारे घट हैं रीते
संबंधों की /पगडंडी पर
रिश्ता सही कुदाल का
जाड़े के सूरज को अँगीठी की उपमा देता कवि दृश्य को सहजता से शब्दित करता है-
एक जलती अँगीठी सा / सूर्य धरकर भेष
ले खड़ा पूरब दिशा में / भोर का सन्देश
कुनकुनी सी धूप / पत्ते पेड़ के उजले
जागकर पंछी / निवाले खोजने निकले
नदी धोकर मुँह खड़ी / तट पर बिखेरे केश
जयप्रकाश मन में उमड़ते भावों को सीधे कागज़ पर उतार देते हैं। वे शिल्ल्प पर अधिक ध्यान नहीं देते। गीतीय मात्रात्मक संतुलन जनित माधुर्य के स्थान पर वे अभिव्यक्ति की सहजता को साधते हैं। फलत:, कहीं-कहीं कविता की अनुभूति देते हैं नवगीत। अँतरे के पश्चात मुखड़े की संतुकान्ति-समभारीय पंक्तिया ही रचनाओं को गीत में सम्मिलित कराती हैं-
संवेदनायें / हुईं खारिज, पड़ी हैं / अर्ज़ियाँ (९-१२-५)
बद से बदतर / हो गये हालात (८-१०)
वेदनाएँ हैं मुखर / चुप हुए ज़ज़्बात (१२-१०)
आश्वासनों की / बाँटी गईं बस / पर्चियाँ (९-९-५)
सोच के आगे / अधिक कुछ भी नहीं (९-१०)
न्याय की फ़ाइल / रुकी है बस वहीं (९-१०)
व्यवस्थाओं ने / बयानों की उड़ाईं / धज्जियाँ (१०-१२-५)
प्रतिष्ठित अपराध / बिक चुकी है शर्म (१०-१०)
हाथ में कानून/ हो रहे दुष्कर्म (१०-१०)
मठाधीशों से / सुरक्षित अब नहीं / मूर्तियाँ (९-१०-५)
स्पष्ट है कि मुखड़ा तथा उसकी आवृत्ति ९-१२-५ = २६ मात्रीय अथवा ५-८-३ के वर्णिक बंधन में आसानी से ढली जा सकती हैं किंतु अभिव्यक्ति को मूल रूप में रख दिया गया है। इस कारण नवगीतों में नादीय पुनरावृत्ति जनित सौंदर्य में न्यूनता स्वाभाविक है।
जयप्रकाश जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य बिना किसी प्रयास के आंग्ल शब्दों का प्रयोग न होना है। केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक होने के नाते उनके कोष में अनेक आंग्ल शब्द हैं किंतु भाषा पर उनका अधिकार उन्हें आंग्ल शब्दों का मुहताज नईं बनाने देता जबकि संस्कृत मूल के शिरा, अवशेष, वातायनों, शतदल, अनुत्तरित, नर्तन, प्रतिमान, उत्पीड़न, यंत्रणाएँ, श्रमफल आदि, देशज बुंदेली के समंदर, मीड़, दीवट, बिचरें, दुराव, दिहाड़ी, तलक, ऊसर आदि और उर्दू के खारिज, अर्जियाँ, बदतर, हालात, ज़ज़्बात, बयानों, बहावों, वज़ीर, ज़मीर, दरख्तों, दुशाले, निवाले, दुश्वारियों, मंज़िल, ज़ख्म, बेनूर, ख्याल. दहलीज़ आदि शब्द वे सहजता से प्रयोग करते हैं। शब्दों को एकवचन से बहुवचन बनाते समय वे ज़ज़्बा - ज़ज़्बात, हालत - हालात में उर्दू व्याकरण का अनुकरण करते हैं तो बयान - बयानों में हिंदी व्याकरण के अनुरूप चलते हैं। काले-गोरे, शह-मात, फूल-पत्ते, अस्त्र-शस्त्र, आड़ी-तिरछी जैसे शब्द युग्म भाषा को सरसता देते हैं।
इस संग्रह के मुद्रण में पथ्य-शुद्धि पर काम ध्यान दिया गया है। फलत: आहूति (आहुति), दर्पन (दर्पण), उपरी (ऊपरी), रुप (रूप), बिचरते (विचरते), खड़ताल (करताल), उँचा (ऊँचा), सोंपकर (सौंपकर), बज़ीर (वज़ीर), झंझाबातों (झंझावातों) जैसी त्रुटियाँ हो गयी हैं।
जयप्रकाश के ये नवगीत आम आदमी के दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध हैं। श्री शिवकुमार अर्चन ने ठीक ही आकलित किया है- इन 'गीतों की लयात्मक अभिव्यक्ति के वलय में प्रेम, प्रकृति, परिवार, रिश्ते, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक विद्रूप, असंगतियों का कुछ जाना, कुछ अनजाना कोलाज है'।
जयप्रकाश जी पद्य साहित्य में छंदबद्धता से उत्पन्न लय और संप्रेषणीयता से न केवल सुपरिचित है उसे जानते और मानते भी हैं, इसलिए उनके गीतों में छान्दस अनुशासन में शैथिल्य अयाचित नहीं सुविचारित है जिससे गीत में रस-भंग नहीं होता। उनका यह संग्रह उनकी प्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के प्रति आश्वस्त करता है। उनके आगामी संग्रह को पढ़ने की उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
१६.२.२०१६
***
नवगीत:
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
*
नवगीत:
*
अहंकार का
सिर नीचा
.
अपनेपन की
जीत है
करिए सबसे प्रीत
सहनशीलता
हमेशा
है सर्वोत्तम रीत
सद्भावों के
बाग़ में
पले सृजन की नीत
कलमकार को
भुज-भींचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पद-मद का
जिस पर चढ़ा
उतरा शीघ्र बुखार
जो जमीन से
जुड़ रहा
उसको मिला निखार
दोष न
औरों का कहो
खुद को रखो सँवार
रखो मनोबल
निज ऊँचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पर्यावरण
न मलिन कर
पवन-salilसलिल रख साफ
करता दरिया-
दिल सदा
दोष अन्य के माफ़
निबल-सबल को
एक सा
मिले सदा इन्साफ
गुलशन हो
मरु गर सींचा
अहंकार का
सिर नीचा
१५.२.२०१५
***
छंद सलिला:
प्रदोष छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक प्रदोष छंद में दो चतुष्कल एक पंचकल होते हैं तथा चरणान्त में गुरु-लघु (तगण, जगण) वर्जित हैं.
उदाहरण:
१. प्रदोष व्रत दे शांति सुख, उमेश हर लें भ्रान्ति-दुःख
त्रिदोष मेंटें गजानन, वर दें दुर्गे-षडानन
२. भारत भू है पुरातन, धरती है यह सनातन
जां से प्यारा है वतन, चिन्तन-दर्शन चिरंतन
३. झण्डा ऊंचा तिरंगा, नभ को छूता तिरंगा
अपना सपना तिरंगा, जनगण वरना तिरंगा
*
१. लक्षण संकेत: उमेश = १२ ज्योतिर्लिंग = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१६.२.२०१४
***
विमर्श :
प्रेम गीत
*
स्थापना और प्रतिस्थापना के मध्य संघात, संघर्ष, स्वीकार्यता, सहकार और सृजन सृष्टि विकास का मूल है। विज्ञान बिग बैंग थ्योरी से उत्पन्न ध्वनि तरंग जनित ऊर्जा और पदार्थ की सापेक्षिक विविधता का अध्ययन करता है तो दर्शन और साहित्य अनाहद नाद की तरंगों से उपजे अग्नि और सोम के चांचल्य को जीवन-मृत्यु का कारक कहता है। प्राणमय सृष्टि की गतिशीलता ही जीवन का लक्षण है। यह गतिशीलता वेदना, करुणा, सौन्दर्यानुभूति, हर्ष और श्रृंगार के पञ्चतात्विक वृत्तीय सोपानों पर जीवनयात्रा को मूर्तित करती है।
'जीवन अनुभूतियों की संसृति है। मानव का अपने परिवेश से संपर्क किसी न किसी सुखात्मक या दुखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनती चलती है। विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मक वृत्ति सक्रिय हो जाती है।'-महादेवी वर्मा, संधिनी, पृष्ठ ११
इस रागात्मक वृत्ति की प्रतीति, अनुभूति और अभिव्यक्ति की प्रेम गीतों का उत्स है। गीत में भावना, कल्पना और सांगीतिकता की त्रिवेणी का प्रवाह स्वयमेव होता है। गीतात्मकता जल प्रवाह, समीरण और चहचहाहट में भी विद्यमान है। मानव समाज की सार्वजनीन और सरकालिक अनुभूतियों को कारलायल ने 'म्यूजिकल थॉट' कहा है. अनुभूतियों के अभिव्यमति कि मौखिक परंपरा से नि:सृत लोक गीत और वैदिक छान्दस पाठ कहने-सुनने की प्रक्रिया से कंठ से कंठ तक गतिमान और प्राणवंत होता रहा। आदिम मनुष्य के कंठ से नि:सृत नाद ब्रम्ह व्यष्टि और समष्टि के मध्य प्रवाहमान होकर लोकगीत और गीत परंपरा का जनक बना। इस जीवन संगीत के बिना संसार असार, लयहीन और बेतुक प्रतीत होने लगता है। अतः जीवन में तुक, लय और सार का संधान ही गीत रचना है। काव्य और गद्य में क्रमशः क्यों, कब, कैसे की चिंतनप्रधानता है जबकि गीत में अनुभूति और भावना की रागात्मकता मुख्य है। गीत को अगीत, प्रगीत, नवगीत कुछ भी क्यों न कहें या गीत की मृत्यु की घोषणा ही क्यों न कर दें गीत राग के कारण मरता नहीं, विरह और शोक में भी जी जाता है। इस राग के बिना तो विराग भी सम्भव नहीं होता।
आम भाषा में राग को प्रेम कहा जाता है और राग-प्रधान गीतों को प्रेम गीत।
१६.२.२०१४
***
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
*
करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
*
करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
*
धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
*
करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
१६.२.२०१३
***
क्षणिका
याद बन पाथेय
जीवन को नये
नित अर्थ देती.
यदि नहीं तो
भाव की
होती 'सलिल'
सब व्यर्थ खेती..
***
मुक्तिका
खुद से ही
*
खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..
जंग लगी है, धार नहीं
व्यर्थ मौन धारे हैं हम..
श्रम हमको प्यारा न हुआ.
पर श्रम को प्यारे हैं हम..
ऐक्य नहीं हम वर पाये.
भेद बहुत सारे हैं हम..
अधरों की स्मित न हुए.
विपुल अश्रु खारे हैं हम..
मार न सकता कोई हमें.
निज मन के मारे हैं हम..
बाँहों में नभ को भर लें.
बादल बंजारे हैं हम..
चिबुक सजे नन्हे तिल हैं.
नयना रतनारे हैं हम..
धवल हंस सा जनगण-मन.
पर नेता करे हैं हम..
कंकर-कंकर जोड़ रहे.
शंकर सम, गारे हैं हम..
पाषाणों को मोम करें.
स्नेह-'सलिल'-धारे हैं हम..
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
१६.२.२०११
***
गीत
*
धरती ने हरियाली ओढ़ी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा साँप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
*
नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.
*
निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.
रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.
ऊसर-बंजर धरा न हो,
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
*
अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
***
नवगीत:
*
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
१६.२.२०१०
***

मई १०, लघुकथा, राख, सॉनेट, श्री श्री, माँ, धरती, गीत, चित्रगुप्त, व्योमिका, सोफिया,

सलिल सृजन मई १०

*
भारतीय सैन्य बलों ने ७ मई को 'ऑपरेशन सिंदूर' के तहत POK और पाकिस्तान के कई आतंकी ठिकानों पर स्ट्राइक की। इस ऑपरेशन के 
प्रेस ब्रीफिंग की जिम्मेदारी भारतीय सेना ने विंग कमांडर व्योमिका सिंह और सोफिया कुरैशी को दी थी। विंग कमांडर व्योमिका सिंह  भारतीय वायुसेना (आईएएफ) में एक अधिकारी हैं , जो फ्लाइंग ब्रांच में हेलीकॉप्टर पायलट के रूप में कार्यरत हैं ।  

व्योमिका बचपन से ही थी निडर और तेज  
व्योमिका के पिता बताते हैं कि व्योमिका जब दसवीं कक्षा में थीं तभी उन्होंने कह दिया था कि उन्हें पायलट बनना है।व्योमिका सिंह का जन्म लखनऊ के ऐक राजपुताना परिवार में हुआ था, हालांकि उनकी सही जन्मतिथि और जन्मस्थान सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। उनका नाम "व्योमिका" जिसका अर्थ है "आकाश में रहने वाली" या "आकाश की पुत्री", उनके पायलट बनने के करियर से मेल खाता है।  उन्होंने अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में राष्ट्रीय कैडेट कोर (एनसीसी) में भाग लिया था। १२ वीं के बाद उन्होंने बी.टेक. किया और कुछ समय नौकरी भी की लेकिन एयरफोर्स में जाने का सपना उन्होंने छोड़ा नहीं। व्योमिका ने अपनी माँ को बिना बताए एयरफोर्स की परीक्षा दी और फिर एक दिन फोन पर बताया कि"मेरा सेलेक्शन हो गया है।"

माँ करुणा सिंह बताती हैं कि व्योमिका हमेशा से ही एक्टिव और निडर स्वभाव की रही हैं. वह बचपन से ही खेलकूद, डांस, डिबेट हर एक्टिविटी में पार्टिसिपेट करती थीं। व्योमिका की माँ उनके बचपन से जुड़ा एक किस्सा भी सुनाया कि 'एक दिन जब व्योमिका की बड़ी बहन ने उन्हें कमरे में बंद कर दिया था, तब वह छत की पाइप से नीचे उतर गईं जिसे देखकर आसपास के लोग हैरान रह गए थे। इसके साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि कैसे जब एक लड़के ने व्योमिका से बदतमीज़ी करने की कोशिश की थी तो उन्होंने उसकी पिटाई कर दी थी। करुणा सिंह कहती हैं, "व्योमिका सिर्फ हमारी बेटी नहीं, पूरे देश की बेटी है. मैं सभी माता-पिता से कहना चाहती हूं कि बेटियों को सपने देखने दीजिए.लड़का-लड़की में फर्क न करें। जो ठान लिया जाए, उसे पूरी मेहनत और हिम्मत से हासिल किया जा सकता है।"


उत्तर प्रदेश के लखनऊ की रहने वालीं व्योमिका सिंह ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारतीय वायु सेना (IAF) में १८ दिसंबर, २००४ को कमीशन प्राप्त किया। १३ वर्षों के भीतर व्योमिका सिंहविंग कमांडर  (२०१७) के पद तक पहुंचीं।उन्हें दिसंबर २०१९ में स्थायी कमीशन मिला। एक अनुभवी हेलीकॉप्टर पायलट के रूप में, वह चेतक और चीता हेलीकॉप्टरों को चलाने में माहिर हैं। उनके पास२५०० घंटे से अधिक का उड़ान अनुभव है। २०२१ में उन्होंने त्रि-सेवा महिला पर्वतारोहण अभियान में माउंट मणिरंग (२१,६५० फीट) पर तिरंगा फहराया, जिसे वायुसेना प्रमुख ने सराहा था। 


कर्नल सोफिया क़ुरैशी: (जन्म: १८ अप्रैल १९७२, लखनऊ, उत्तर प्रदेश) भारतीय सेना में कर्नल के पद पर कार्यरत सोफिया  संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में एक अखिल पुरुष भारतीय दल का नेतृत्व करने वाली पहली महिला होने के लिए उल्लेखनीय हैं। २०२५ के भारत-पाकिस्तान संघर्ष में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उनकी नेतृत्वकारी भूमिका ने राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। सैन्य संचार और साइबर युद्ध के विशेषज्ञ के रूप में कुरैशी ने सशस्त्र बलों में लैंगिक बाधाओं को तोड़ने के साथ-साथ भारतीय सेना की तकनीकी क्षमताओं को आधुनिक बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई है। 

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा 

सोफिया के पिता मुहम्मद कुरैशी सिविल इंजीनियर और माता अमीना कुरैशी गणित की प्रोफेसर थीं। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा लोरेटो कॉन्वेंट, लखनऊ से पूरी की और १९९३  में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर से इलेक्ट्रॉनिक्स और संचार इंजीनियरिंग में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि प्राप्त की। सोफिया ने १९९९  में तकनीकी स्टाफ अधिकारी पाठ्यक्रम, मिलिट्री कॉलेज ऑफ टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग, महू से तथा २००५-०६ में, उन्नत संचार पाठ्यक्रम, रॉयल स्कूल ऑफ सिग्नल्स, यूके से २००७ में,  रक्षा सेवा स्टाफ कॉलेज, वेलिंगटन – रक्षा और सामरिक अध्ययन में मास्टर उच्च कमान पाठ्यक्रम, आर्मी वॉर कॉलेज, महू से २०१३ में, नाटो साइबर रक्षा अभ्यास, एस्टोनिया से २०१५ में तथा  २०१८ में  राष्ट्रीय रक्षा कॉलेज, नई दिल्लीसे रणनीतिक साइबर सुरक्षा पाठ्यक्रम पूर्ण किया। १९९४ में सेना सिग्नल कोर में कमीशन प्राप्त करने के बाद सोफिया ने जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में आतंकवाद विरोधी अभियानों में अपनी सेवाएं दी।२००१ में, उन्होंने सेना के पहले मोबाइल डिजिटल संचार नेटवर्क को विकसित करने में मदद की। २००८ तक लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में उन्होंने सिग्नल इंटेलिजेंस विंग, सेना मुख्यालय में आधुनिकीकरण का नेतृत्व किया। २०१६ में  कर्नल के रूप में, उन्होंने मोनूस्को, डीआरसी में ५०० से अधिक भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया। वे एक सर्व-पुरुष भारतीय शांति सेना इकाई की कमान संभालने वाली पहली महिला हैं।  उनकी इकाई ने अस्थिर उत्तरी किवु में शांति बनाए रखी, निरस्त्रीकरण किया और मानवीय सहायता को सक्षम बनाया। भारत की साइबर रक्षा कमान के ब्रिगेडियर और उप महानिदेशक नियुक्त, उन्होंने भारत के सैन्य साइबर सिद्धांत को परिभाषित करने, साइबर प्रशिक्षण रेंज विकसित करने और खतरे का पता लगाने की पहल का नेतृत्व करने में मदद की। २०२२ में वह मेजर बनीं और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध और साइबर ऑप्स के एकीकरण की देखरेख करते हुए सामरिक संचार प्रभाग की कमान संभाली। उन्हें २०१९ में ग्लोबल पीस गाँधी पुरस्कार प्राप्त हुआ। 

सोफिया भारत की सेना में महिलाओं की उभरती भूमिका का प्रतीक हैं। उन्होंने महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन और एनडीए प्रवेश सहित नीतिगत परिवर्तनों को प्रभावित किया है। विश्लेषक उन्हें आधुनिक युद्ध नेतृत्व का प्रतीक मानते हैं। कर्नल सोफिया कुरैशी और कर्नल ताजुद्दीन बागेवाड़ी की शादी २०१५ में हुई थी और यह एक प्रेम विवाह था। ताजुद्दीन वर्तमान में झांसी में तैनात हैं, जबकि सोफिया जम्मू में ऑपरेशन सिंदूर के तहत कार्यरत हैं। उन्हें पर्वतारोहण का शौक है और उन्होंने स्टोक कांगरी (६,१५३ मीटर) की चोटी पर चढ़ाई की है। आप हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और फ्रेंच भाषा में निपुण हैं।

००० 

लघु कथा
उबुन्टू
.
वन में एक वन मानुष बच्चा माँ से अन्य बच्चों से अधिक खाने के लिए जिद कर रहा था। माँ ने कुछ दूर फलों से भरी टोकरी रखकर कहा कि जो बच्चा सब से पहले टोकरी तक पहुँचेगा, उसे सारे फल जीत जाएगा। कुछ बच्चे बलिष्ठ थे कुछ कमजोर। बच्चों ने एक दूसरे को देखा, एक दूसरे का हाथ पकड़ा और दौड़ते हुए एक साथ टोकरी तक पहुँचकर मिल-बाँटकर फल खा लिए।

गाँव में एक बच्चा माँ से महानगर जाने की जिद कर रहा था। माँ ने ने कुछ दूर फलों से भरी टोकरी रखकर कहा कि जो बच्चा सब से पहले टोकरी तक पहुँचेगा, उसे सारे फल जीत जाएगा। कुछ बच्चे बलिष्ठ थे कुछ कमजोर। बच्चों ने दौड़ लगाई, जो बच्चा सबसे पहले टोकरी तक पहुँचा उसे सारे फल खा लिए बाकी बच्चे टुकुर-टुकुर ताकते रह गए।

नगर में एक बच्चा माँ से महानगर जाने की जिद कर रहा था। माँ ने कुछ दूर फलों से भरी टोकरी रखकर कहा कि जो बच्चा सब से पहले टोकरी तक पहुँचेगा, उसे सारे फल जीत जाएगा। कुछ बच्चे बलिष्ठ थे कुछ कमजोर। बच्चों ने दौड़ लगाई, आगे निकलते बच्चे को साथवाले ने टँगड़ी मारकर गिर दिया। एक दूसरे को गिराते रहने के कारण कोई टोकरी तक नहीं सका। सब टुकुर-टुकुर ताकते रह गए।

वन मानुष के अपने बच्चे ने यह सुनकर माँ से इसका कारण पूछा। माँ ने कहा 'उबुन्टू' (मैं नहीं हम)। बच्चे ने कहा ''मैं नहीं समझा।''

माँ बोली- 'जंगल के निवासी प्रकृति को देखकर जानते हैं कि जब पानी बरसता है तो सब कुएँ, नदी, सागर एक साथ भरते हैं, अकाल पड़ता है तो सब प्राणी भूख से मरते हैं, आग लगती तो सबको जलाती है। इसलिए बच्चे जानते हैं कि जब किसी एक को जीत मिलेगी तो बाकी सब दुखी होंगे, इसलिए सब एक साथ दौड़े और सफल हुए। गाँव में किसी की झोपड़ी छोटी है, किसी की बड़ी। बच्चे जानते हैं कि जो ज्यादा पाएगा, उसका प्रभाव दूसरों से अधिक होगा। वह दूसरों की चिंता नहीं करेगा इसलिए वे अकेले-अकेले दौड़े। शहर में किसी को किसी से कोई मतलब नहीं रहता, सब कमाने और पेट भरने में ही व्यस्त रहकर सोचते हैं कि दूसरा न कमा सके तो उसका भाग भी मेरे पास आ जाए इसलिए बच्चे एक दूसरे को गिरते रहे, किसी को कुछ नहीं मिला।'

'समझ गया, कम हो तो तो सब साथ रहते हैं, जैसे-जैसे अधिक मिलता है, स्वार्थ और लालच बढ़ता जाता है। कोई एक सुखी नहीं हो सकता अगर अन्य जन कम सुखी या दुखी हों। इसलिए मैं भी सबके साथ सबके बराबर ही खाऊँगा 'उबुन्टू'।
१०.५.२०२५
००० 
राख - एक रोगाणुनाशक 
० 
पहले घरों में हैंड साबुन/सैनीटाइजर नहीं होते थे। उस समय हाथ धोने के लिए सर्वसुलभ वस्तु थी राख जो लकड़ी और गोबर के कण्डों के जलाये जाने से मिलती थी।इसका प्रयोग बर्तन साफ करने में भी किया जाता था। राख में ऐसा क्या था कि उसेशरीर या बर्तन साफ करने के लिए प्रयोग किया जाता था?

राख में वो सभी तत्व पाए जाते हैं जो पौधों में उपलब्ध होते हैं। सबसे अधिक मात्रा में होता है कैल्शियम। इसके अलावा होता है पोटेशियम, अल्युमिनियम, मैग्नीशियम, आयरन, फॉस्फोरस, मैगनीज, सोडियम और नाइट्रोजन। कुछ मात्रा में जिंक, बोरोन, कॉपर, लैड, क्रोमियम, निकल, मोलीब्डीनम, आर्सेनिक, कैडमियम, मरकरी और सेलेनियम भी होता है। राख में मौजूद कैल्शियम और पोटेशियम के कारण इसकी पीएच वैल्यू ९ से १३.५ तक होती है। इसी पीएच के कारण जब कोई व्यक्ति हाथ में राख लेकर और उस पर थोड़ा पानी डालकर रगड़ता है या बर्तन साफ करता है तो जीवाणुओं और विषाणुओं का खात्मा हो जाता है।

सनातन धर्म में मृत देह को जलाने और फिर राख को बहते पानी में अर्पित करने का प्रावधान है। मृत व्यक्ति की देह की राख को पानी में मिलाने से वह पंचतत्वों में समाहित हो जाती है। मृत देह को अग्नि तत्व के हवाले करते समय उसके साथ लकड़ियाँ और उपले भी जलाये जाते हैं और अंततः जो राख पैदा होती है उसे जल में प्रवाहित किया जाता है। जल में प्रवाहित की गई राख जल के लिए डिसइंफैक्टेन्ट का काम करती है। इस राख के कारण मोस्ट प्रोबेबिल नम्बर ऑफ कोलीफॉर्म (MPN) में कमी आती है और साथ ही डिजोल्वड ऑक्सीजन (DO) की मात्रा में वृद्धि होती है। वैज्ञानिक अध्ययनों में यह स्पष्ट हो चुका है कि गाय के गोबर से बनी राख डिसइन्फेक्शन पर्पज के लिए लो कोस्ट एकोफ़्रेंडली विकल्प है जिसका उपयोग सीवेज वाटर ट्रीटमेंट (STP) के लिए भी किया जा सकता है।

०००
सॉनेट
आयुर्वेद को जानें
हम सब आयुर्वेद को जानें,
जीव जीव का भोजन जैसे,
प्रकृति रोग की औषधि तैसे,
कंकर में शंकर पहचानें।
कुछ न निरुपयोगी हम मानें,
बीज छाल जड़ अमृत ऐसे,
पात फूल फल औषधि कैसे,
समझ सीख सिखलाना ठानें।
चलो वनस्पति सघन उगाएँ,
डगर डगर में हो हरियाली,
वृक्ष जी सकें सीना तानें।
भू पर रहने सुर भी आएँ,
घर घर में हो अब खुशहाली,
तरुओं को पुरखों सम मानें।
१०.५.२०२४
•••
सॉनेट
भारत को जानें
नित्य नया इतिहास, भारत को जानें, रचें।
हो अधरों पर हास, हाथ हाथ में हाथ गह।
वर दें करुणासींव, कीर्तिमान नित नव बनें।।
हो जाएँ संजीव, सलिल लहर सम साथ बह।।
ममता का पाथेय, समता का अभियान बन।
करतल करे विधेय, काव्य प्रेम मन जोड़ दे।
हृदय विराजे छंद, शारद-रमा-उमा नमन।।
काटे भव के फंद, बाधाओं से होड़ ले।।
हों वर विजय सुरेंद्र, राजकुमार व आम जन।
बने विश्व का केंद्र, भारत कर नेतृत्व अब।
जन प्रतिनिधि मिथिलेश, अनिल विरागी कर जतन।।
हे गोविंद बृजेश, बुद्धि विनीता रखें सब।।
मन-वन बसे बसंत, अनुराधा सम श्रम-लगन।
कर साधना अनंत, भारत को जानें स्वजन।।
९.५.२०२४
•••
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के सप्तम सारस्वत अनुष्ठान कला पर्व में आप सबका सस्नेह स्वागत है।
माँ शारदा - माँ भारती को नमन।
ले बसंत के पुष्प माँ, आए तेरे द्वार।
मुकुलित मन सुत सलिल का, नमन करो स्वीकार।।
आज मातृ दिवस पर सभी माताओं को नमन।
लिए मंजरी माल हम, विनत कर रहे भेंट।
अपनी बाँहों में हमें, मैया विहँस समेट।।
माता की छाया तले, बैठे बन मिथिलेश।
बुद्धि विनीता हो सदा, चाह नहीं अवधेश।।
मुख्य अतिथि डॉ. मुकुल तिवारी जी का वंदन।
छाया सक्सेना जी ने कोकिलकंठी स्वर में दीप प्रज्वलन पश्चात् सरस्वती वंदना प्रस्तुत की।
आत्मदीप जलता रहे, ज्योतित रहे हमेश।
शब्दब्रह्म आराध हम, मिलें तुम्हें परमेश।।
संस्कारधानी को अपनी स्वर लहरी से मोह चुकी अर्चना गोस्वामी जी ने "मेघा रे जल भर लाए" प्रस्तुत कर सब को मंत्र मुग्ध कर दिया।
करे अर्चना मधुर स्वर, भाव पुनीता दिव्य
राम सुन रहे लीन हो, भक्ति भाव है भव्य
माननीय मंजरी शर्मा जी ने पाककला का अध्याय खोलते हुए लच्छेदार रबड़ी, मिथिलेश बड़गैया जी ने गुलाब जामुन, आशा नारायण जी ने आइसक्रीम तथा छाया सक्सेना जी ने बिना अंडे का केक बनाने की विधि व चित्र प्रस्तुत कर सबके मुँह में पानी ला दिया।
नृत्य गुरु बिटिया उपासना के निर्देशन में कालजयी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता "ये मेरी गोदी की शोभा" पर मौसमी नंदी जी तथा बालिका आराध्या तिवारी ने उत्तम नृत्य प्रस्तुत किया।
आराध्या जिनको कला, गुरु उपासना श्रेष्ठ ।
अभिनंदन मौसमी का, कलाकार है ज्येष्ठ।।
अरुण लिए आलोक आ, जला रहा मणि दीप।
मणि मुक्ता है कला हर, कलाकार हैं सीप।।
तालाबंदी पर संदेशपरक फिलम मुकुल जी के माध्यम से प्रस्तुत की गयी। केरल की नृत्य कला 'कथकळि' की मनोहर नृत्य मुद्राओं और हस्त संचालन की रोचक प्रस्तुति बसंत शर्मा जी के माध्यम से हुई।
नन्हीं प्रशिक्षा रंजन राज पलामू झारखण्ड ने मनोहर नृत्य प्रस्तुति दी।
प्रतिभा बहुत प्रशिक्षा में, मिल हम सकें तराश।
धरती पर पग जमाकर, छू पाए आकाश।।
अभियंता अरुण भटनागर ने वास्तु व् अभियांत्रिकी की समृद्ध विरासत पर जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया।
वास्तु कला की विरासत, अद्वितीय लें मान।
नव यांत्रिकी के क्षेत्र में, नहीं देश का सान।।
तान्या श्रीवास्तव द्वारा कत्थक नृत्य प्रस्तुति को सबने सराहा।
तान्या कत्थक नृत्य में, है प्रवीण लें मान।
फूँक सके पाषाण में, नृत्य दिखाकर जान।।
लौह तरंग पर अमर चित्रपटीय गीत 'मेरा जूता है जापानी' सुनकर श्रोता झूम उठे।
बोनसाई कला पर सारगर्भित संबोधन बसंत शर्मा जी ने प्रस्तुत किया।
बौने पौधों की कला, बोनसाई लें जान।
मनहर छटा बसंत की, देख झूमिए जान!
बारह मास बसंत की, छटा मंजरी भव्य।
बोनसाई ने दिखा दी, प्रकृति सुंदरी नव्य।।
"यादों के बेतरतीब बिखरे पन्ने" विनीता श्रीवास्तव की कविता की चित्रांकन सहित प्रस्तुति की हेमंत मोहन ने -
यादों के पन्ने लिए, श्री वास्तव में देख
खींच रहे हेमंत स्वर, चित्रांकन से रेख
१०.५.२०२०
***
श्री श्री चिंतन दोहा गुंजन: ७
विषय: विष्णु के अवतार
*
श्री-श्री का प्रवचन सुना, अंतरजाल कमाल।
प्रगटे दोहे समर्पित, स्वीकारें मन-पाल।।
*
दानी में हो अहं तो, वामन बनें विराट।
गुरु होता मोहांध; खो, नैन खड़ी हो खाट।।
*
पितृ कहे से मातृ-वध, कर चाहा वरदान।
फिर जीवित हो माँ, न हो सपने में अपमान।।
*
क्षत्रिय में विप्रत्व के, भार्गव बोते बीज।
अहं-नाश क्षत्रियों का, हुआ गर्व-घट छीज।।
*
राम-श्याम दो छोर हैं, रख दोनों को थाम।
तजा एक को भी अगर, लगे विधाता वाम।।
*
ये जन्मे दोपहर में, वे जन्मे अध रात।
सखा-सखी प्रिय उन्हें हैं, इनको प्रिय पितु -मात।।
*
कल्कि न कल अब में जिए, रखें ज्ञान तलवार।
काटेंगे अज्ञान सर, कर मानव उद्धार।।
*
'श्व' कल बीता-आ रहा, अ-श्व अ-कल 'अब' जान।
कल्कि करें 'अब' नियंत्रित, 'कल' का काट वितान।।
*
सार तत्व गुरु मुख-वचन, त्रुटियाँ मेरा दोष।
लोभ बाँट लूँ सगों से, गुरु वचनामृत-कोष।।
***
एक दोहा
'भली करेंगे राम जू!', कह मनमाना काम.
किया; दंड दे राम ने, कहा: 'भला यह काम.'
१०.५.२०१८, ८.२५,
***
लघुकथा
आग
अफसर पिता की लाडली बिटिया को किसी प्रकार की कमी नहीं थी. जब जो चाह तुरंत मिला गया. बढ़ती उम्र के साथ उसकी जिद भी बढ़ती गयी. माँ टोंकती तो पिता उन्हें चुप करा देते 'बाप के राज में मौज-मस्ती नहीं करेगी तो कब करेगी?
माँ ससुराल और शादी की फ़िक्र करतीं तो पिता कह देते जिसकी सौ बार गरज होगी, नाक रगड़ता हुआ आएगा देहलीज पर और मैं अपनी शर्तों पर बिटिया को रानी बनाकर भेजूँगा.
समय पर किसका वश? अनियमित खान-पान ने पिता को काल का ग्रास बना दिया. अफसरी का रौब-दाब समाप्त होते दो दिन न लगे. जो दिन-रात सलाम बजाते नहीं थकते थे, वही उपहास की दृष्टि से देखने लगे. शोक की अवधि समाप्त होते ही माँ-बेटी अपने पैतृक घर में आ गयीं. सगे-संबंधी जमीन-जायदाद में हिस्सा देने में आनाकानी करने लगे. साहब ने अपने रहते कभी ध्यान ही नहीं दिया, न कोई जानकारी दी पत्नि या बेटी को.
बाबूराज की महिमा अपरम्पार... पेंशन की नस्ती जिस मेज पर जाती उस बाबू को याद आता की कब-कब उसे डपटा गया था और वह नस्ती को दबा कर बैठ जाता. साल-दर-साल बीतने लगे... किसी प्रकार ले-देकर पेंशन आरम्भ हो सकी.
बिटिया जिद्दी और फिजूलखर्च और पार्टी करने की शौक़ीन थी. माँ के समझाने का असर कुछ दिन रहता फिर वही ढाक के तीन पात.
मुसीबत अकेले नहीं आती. माँ को सदमे और चिंताओं ने तो घेर ही लिया था. कोढ़ में खाज यह कि डोक्टर ने असाध्य बीमारी का रोगी बता दिया. अत्यंत मँहगी चिकित्सा. मरता क्या न करता ? जमा -पूँजी खर्च कर माँ को बचाने में जुट गयी वह. मौज-मस्ती के साथी उससे जो चाहते थे वह करने से बेहतर उसे मर जाना लगता. बस चलता तो ऐसे मतलबपरस्तों को ठिकाने लगा देती वह पर समय की नजाकत को देखते हुए उसे हर कदम फूँक-फूँक कर रखना था.
देर रात अस्पताल से घर आयी और आग जलाकर ठण्ड भगाने बैठी तो उसे लगा वह खुद भी सुलग रही है. समय ने भले ही उससे पिता का साया और माँ की गोद से वंचित कर दिया है पर वह हार नहीं मानेगी. अपने दोनों पैरों में पिता और हाथों में माँ का सम्बल है उसके पास. अपने पैरों को जमीन पर टिका कर वह न केवल मुसीबतों से जूझेगी बल्कि सफलता के आसमान को भी छुएगी. आत्मविश्वास ने उसमें ऊर्जा का संचार किया और वह आग के सामने जा बैठी पिता-माँ के आशीष की अनुभूति करने घुटनों पर हाथ और सर रखकर. कल के संघर्ष के लिए उसके तन को करना था विश्राम और मन को जलाए रखनी आग.
***
दोहा मुक्तिका
*
असत जीत गौतम हुए ब्रम्ह जीत जिस प्रात
पैर जमाने की हुई भर उड़ान शुरुआत
*
मोह-माधुरी लुटाकर गिरिधारी थे मस्त
चैन गँवाकर कंस ने तत्क्षण पाई मात
*
सुन बृजेंद्र की वंदना, था सुरेंद्र बेचैन
पार न लेकिन पा सका, जी भर कर ली घात
*
वास्तव में श्री मनोरमा, चेतन सदा प्रकाश
मीठी वाणी बोल तू, सूरज करे प्रभात
*
चंद्र किरण लख कुमुद को, उतर धरा पर मौन
पूनम बैठी शैल पर, करे रात में प्रात
१०-५-२०१७
***
बाल गीत
*
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
सुबह उठाती गले लगाकर,
नहलाती है फिर बहलाकर,
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती ,
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर. ,
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आँचल में छिप जाता मैं ज्यों
रहे गाय सँग बछड़ा.
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा.
बारिश में छतरी आँचल की ,
ठंडी में गर्मी दामन की.,
गर्मी में साड़ी का पंखा-,
पल्लू में छाया बादल की !
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
***
माँ को अर्पित चौपदे:
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ..
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल सीढ़ी है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ
***
एक कविता
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
***
गीत:
माँ
*
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
सत्य है यह
खा-कमाती,
सदा से सबला रही.
*
खुरदरे हाथों से टिक्कड़
नोन के संग जब दिए.
लिए चटखारे सभी ने,
साथ मिलकर खा लिए.
तूने खाया या न खाया
कौन कब था पूछता?
तुझमें भी इंसान है
यह कौन-कैसे बूझता?
यंत्र सी चुपचाप थी क्यों
आँख क्यों सजला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
काँच की चूड़ी न खनकी,
साँस की सरगम रुकी.
भाल पर बेंदी लगाई,
हुलस कर किस्मत झुकी.
बाँट सपने हमें अपने
नित नया आकाश दे.
परों में ताकत भरी
श्रम-कोशिशें अहिवात दे.
शिव पिता की है शिवा तू
शारदा-कमला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
इंद्र सी हर दृष्टि को
अब हम झुकाएँ साथ मिल.
ब्रम्ह को शुचिता सिखायें
पुरुष-स्त्री हाथ मिल.
राम को वनवास दे दें
दु:शासन का सर झुके.
दीप्ति कुल की बने बेटी
संग हित दीपक रुके.
सचल संग सचला रही तू
अचल संग अचला रही.
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
***
मातृदिवस पर गीत :
माँ जी हैं बीमार...
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
प्रभुजी! सुनिए नम्र प्रार्थना
तन-मन से सेवा करती हूँ
सफल कीजिए सकल साधना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
***
बाल कविता :
भय को जीतो
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक।
सुबह देर से उठना
मन को भाता था।
ग्वाला लाया दूध
मिला पानी तो
माँ ने बंद कर दिया
लेना उससे।
निकट खुली थी डेरी
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे
निकला घर से
डेरी को मैं
लेकर आया दूध
मिली माँ से शाबाशी।
कुछ दिन बाद
अचानक
काला कुत्ता आया
मुझे देख भौंका
डर कर
मैं पीछे भागा।
सज्जन एक दिखे तो
उनके पीछे-पीछे गया,
देखता रहा
न कुत्ता तब गुर्राया।
घर आ माँ को
देरी का कारण बतलाया
माँ बोली:
'जो डरता है
उसे डराती सारी दुनिया।
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर
मारो एक पत्थर।
तब न करेगा
कुत्ता पीछा।
अगले दिन
हिम्मत कर मैंने
एक छड़ी ली और
जेब में पत्थर भी कुछ।
ज्यों ही कुत्ता दिखा
तुरत मारे दो पत्थर।
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर।
घर आ माँ को
हाल बताया
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
***
प्रो. श्यामलाल उपाध्याय कोलकाता के प्रति भावांजलि:
*
हिंदी माँ के पूत लाडले श्यामलाल जी
जगभाषा के दूत बावले श्यामलाल जी
.
है बुलंद आवाज़ पहुँचती सीधे दिल तक
सतत सृअजं करते है हर दिन दिन ढलने तक
पिंगल और व्याकरण पर अधिकार एक सा
स्वप्न करें साकार नया सपना पलने तक
.
अपनेपन का मानी दुनिया इनसे पूछे
इतनी ऊर्जा पाई कहाँ से, कैसे बूझे?
कतिहं कार्य भी बहुत सहजता से करते हैं
हे मुश्किल का हल क्या जाने कैसे सूझे?
.
नहीं श्याम मन नहीं लाल पर श्याम लाल हैं
बसे कोलकाता में ये सचमुच कमाल हैं
वार्धक्य को बने चुनौती शब्द-सिपाही
निर्मल-निश्छल-सहज, शांत करते धमाल हैं
.
अट्टहास जो सुने बिसारे चिंता सारी
शरद अनुष्ठान नित करते, धुनी पुजारी
बने विश्ववाणी हिंदी यह शुभ इच्छा ले-
श्वास-श्वास से हिंदी की आरती उतारी
.
'सलिल' धन्य वन्दन कर, पा आशीष आपसे
खोजे मिलते नहीं शब्द-ऋषि अन्य आपसे
सम्मानित सम्मान हुए कर कमलों जाकर
करें अनुकरण, सीख सकें कुछ सबक आपसे
.
हम बडभागी वन्दन कर श्री श्यामलाल जी
अर्पित चन्दन-कुंकुम-अक्षत श्यामलाल जी
१०-५-२०१५
***
दोहा
श्वास-श्वास माँ से मिली, ममता है उपहार
शब्द ब्रम्ह की साधना, हिंदी माँ का प्यार.
१०-५-२०१५
***
गीत
कनक पात्र का सत्य अनावृत्त हो न जाए, ढाँका करता हूँ
जीवन की चादर को तांका रच-रचकर थांका करता हूँ    
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
***
गीत
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
***
चित्रगुप्त जयंती पर विशेष रचना:
मातृ वंदना
*
ममतामयी माँ नंदिनी, करुणामयी माँ इरावती.
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
*
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी.
सत्पथ दिखाओ माँ, बनें सन्तान सब तेरी सुखी..
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहें आचार, पायें अंत में हम सद्गति...
*
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें.
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें..
निष्काम रह, निस्वार्थ रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निर्मल रहें मन-प्राण, रखना माँ! सदा निश्छल मति...
*
चित्रेश प्रभु की कृपा मैया!, आप ही दिलवाइए.
जैसी भी है सन्तान तेरी है, न अब ठुकराइए..
आशीष दो माता! 'सलिल', कंकर से शंकर बन सकें-
कर सफल मम साधना माँ!, पद-पद्म में होवे रति...
***
मुक्तिका:
तुम क्या जानो
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
१०-५-२०११
***
मुक्तिका
कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ.
*
खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ.
*
प्यार की, मनुहार की,इकरार की,अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत,कहीं फिर बुझ न जाएँ.
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ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना सलिल फिर बुझ न जाएँ.
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सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ
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माँ की सुधियाँ
पुरवाई सी....
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तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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दूर रहा जो उसे खलिश है तुमको देख नहीं वह पाया.
निकट रहा मैं लेकिन बेबस रस्ता छेक नहीं मैं पाया..
तुम जाकर भी गयी नहीं हो, बस यह है इस बेटे का सच.
साँस-साँस में बसी तुम्हीं हो, आस-आस में तुमको पाया..
चिंतन में लेखन में तुम हो, शब्द-शब्द सुन हर्षाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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तुम्हें देख तुतलाकर बोला, 'माँ' तुमने हँस गले लगाया.
दौड़ा गिरा बिसूरा मुँह तो, उठा गुदगुदा विहँस हँसाया..
खुशी न तुमने खुद तक रक्खी, मुझसे कहलाया 'पापा' भी-
खुशी लुटाने का अनजाने, सबक तभी माँ मुझे सिखाया..
लोरी भजन आरती कीर्तन, सुन-गुन धुन में छवि पाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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भोर-साँझ, त्यौहार-पर्व पर, हुलस-पुलकना तुमसे पाया.
दुःख चुप सह, सुख सब संग जीना, पंथ तुम्हारा ही अपनाया..
आँसू देख न पाए दुनिया, पीर चीर में छिपा हास दे-
संकट-कंटक को जय करना, मन्त्र-मार्ग माँ का सरमाया.
बन्ना-बन्नी, होरी-गारी, कजरी, चैती, चौपाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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गुदड़ी, कथरी, दोहर खो, अपनों-सपनों का साथ गँवाया..
चूल्हा-चक्की, कंडा-लकड़ी, फुंकनी सिल-लोढ़ा बिसराया.
नथ, बेन्दा, लंहगा, पायल, कंगन-सज करवाचौथ मनातीं-
निर्जल व्रत, पूजन-अर्चन कर, तुमने सबका क्षेम मनाया..
खुद के लिए न माँगा कुछ भी, विपदा सहने बौराई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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घूँघट में घुँट रहें न बिटियाँ, बेटा कहकर खूब पढाया.
सिर-आँखों पर जामाता, बहुओं को बिटियों सा दुलराया.
नाती-पोते थे आँखों के तारे, उनमें बसी जान थी-
'उनका संकट मुझको दे', विधना से तुमने सदा मनाया.
तुम्हें गँवा जी सके न पापा, तुम थीं उनकी परछाईं सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
१०-५-२०१०
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