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रविवार, 25 मई 2025

मई २४, सॉनेट, निशा तिवारी, लघुकथा, हिंदी, शृंगार गीत, बुन्देली मुक्तिका,

सलिल सृजन मई २४

*
सॉनेट
*
मन की बात करें सब खुलकर
सॉनेट लिखें न थकिए रुककर
फैलाएं सुगंध हिलमिलकर
फूलों जैसे झूमें झुककर
चौ चौ चौ त्रै पंक्ति भार सम
एक-तीन, दो-चार मिला तुक
प्रथम अंतरा हो वसुधा नम
दूजा किसलय झांक सके टुक
पल्लव-पुष्प मनोरम भाएं
महकाएं मिल मन-आंगन को
धूप-छांव नित गले लगाएं
पर्व मना सावन फागुन को
तंत समेटे फलित अंत में
कंत मन रमे ईश-संत में
24-5-2023
सॉनेट
दर्पण
दाएँ को बायाँ दिखलाए
फिर भी दुनिया यह कहती है
दर्पण केवल सत्य बताए।
असत सत्य सम चुप तहती है।
धूल नहीं मन पर जमती है
सही समझ सबको यह आए
दर्पण पोंछ धूल जमती है।
मत कह मन दर्पण कहलाए।
तेरे पीछे जो रहती है
वस्तु उसे आगे दिखलाए
हाथ बढ़ा तो कब मिलती है?
दर्पण हरदम ही भरमाए।
मत बन रे मन मूरख भोले।
मत कह दर्पण झूठ न बोले।।
२४-५-२०२२
•••
मुक्तिका
*
जब हुए जंजीर हम
तब हुए गंभीर हम
फूल मन भाते कभी हैं
कभी चुभते तीर हम
मीर मानो या न मानो
मन बसी हैं पीर हम
संकटों से बचाएँगे
घेरकर प्राचीर हम
भय करो किंचित न हमसे
नहीं आलमगीर हम
जब करे मन तब परख लो
संकटों में धीर हम
पर्वतों के शिखर हैं हम
हैं नदी के तीर हम
***
मुक्तिका
क्या बताएँ कौन हैं?
कुछ न बोले मौन हैं।
आँख में पानी सरीखे
या समझ लो नौन हैं।
कहीं तो हम नर्मदा हैं
कहीं पर हम दौन हैं।
पूर्व संयम था कभी पर
आजकल यह यौन है।
पूर्णता पहचान अपनी
नहीं अद्धा-पौन हैं।
***
गीत
*
सोते-सोते उमर गँवाई
खुलीं न अब तक आँखें
आँख मूँदने के दिन आए
काम न दें अब पाँखें
कोई सुनैना तनिक न ताके
अब जग बगलें झाँके
फना हो गए वे दिन यारों
जब हम भी थे बाँके
व्यथा कथा कुछ कही न जाए
मन की मन धर मौन
हँसी उड़ाएगा जग सारा
आँसू पोछे कौन?
तन की बाखर रही न बस में
ढाई आखर भाग
मन की नागर खाए न कसमें
बिसर कबीरा-फाग
चलो समेटो बोरा-बिस्तर
रहे न छाया संग
हारे को हरिनाम सुमिरकर
रंग जा हरी के रंग
***
कृति चर्चा
'आदमी अभी जिन्दा है', लघुकथा संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
डॉ. निशा तिवारी
*
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है। यह नव्यता द्विपक्षीय है, प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के साँचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है। यों नवीन शब्द समय सापेक्ष है। कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है। स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं। अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है। कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है। संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है। मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं। अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है। यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं।
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं। ये कहानियाँ संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंतरता में साक्षात् करता हुआ भाव-निमग्न होकर अगली कथा की ओर बढ़ जाता है। कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं।
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भाँति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है। सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है। इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है।
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं। उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है। लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है। भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है।
***
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भँवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
दोहा
हिंदी महिमा
*
हिंदी बिंदी हिन्द की, अद्भुत इसकी शान
जो जन हिंदी बोलटे, बढ़ता उनका मान
*
हिंदी में कहिए कथा, विहँस मनाएँ पर्व
मुदित हुए सुन ईश्वर, गॉड खुदा गुरु सर्व
*
हिंदी हिन्दुस्तान के, जनगण की आवाज
सकल विश्व में गूँजती, कर जन-मन पर राज
*
नेह नर्मदा सम सरम, अमल विमल अम्लान
हिंदी पढ़ते-बोलते, समझदार विद्वान्
*
हिंदी राखी दिवाली, हिंदी फाग अबीर
घाघ भड्डरी ईसुरी, जगनिक संत कबीर
*
पनघट नुक्क्ड़ झोपड़ी, पगडंडी खलिहान
गेहूँ चाँवल दाल है, हिंदी खेत मचान
*
हिंदी पूजा आरती, घंटी शंख प्रसाद
मन मानस में पूजिए, रहें सदा आबाद।
२४-५-२०२०
***
शृंगार गीत
*
अधर पर मुस्कान १०
नयनों में निमंत्रण, ११
हाथ में हैं पुष्प, १०
मन में शूल चुभते, ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
ओ अमित शाही इरादों! १४
ओ जुमलिया जूठ-वादों! १४
लूटते हो चैन जन का १४
नीरवों के छिपे प्यादों! १४
जिस तरह भी हो न सत्ता १४
हाथ से जाए। ९
कुर्सियों में जान १०
संसाधन स्व-अर्पण, ११
बात में टकराव, १०
धमकी खुली देते, ११
धर्म का ले नाम, कर अलगाव, १७
खुद को थोप ऊपर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
रक्तरंजित सरहदें क्यों? १४
खोलते हो मैकदे क्यों? १४
जीविका अवसर न बढ़ते १४
हौसलों को रोकते क्यों? १४
बात मन की, ध्वज न दल का १४
उतर-छिन जाए। ९
लिया मन में ठान १०
तोड़े आप दर्पण, ११
दे रहे हो घाव, १०
नफरत रोज सेते, ११
और की गलती गिनाकर मुक्त, १७
ज्यों संतुष्ट शूकर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
२३-५-२०१८
***
मुक्तिका ​:
*
अंधे देख रहे हैं, गूंगे बोल रहे
पोल​ उजालों की अँधियारे खोल रहे
*
लोभतंत्र की जय-जयकार करेगा जो
निष्ठाओं का उसके निकट न मोल रहे
*
बाँध बनाती है संसद संयम के जो
नहीं देखती छिपे नींव में होल रहे ​
​*
हैं विपक्ष जो धरती को चौकोर कहें
सत्ता दल कह रहा अगर भू गोल रहे
*
कौन सियासत में नियमों की बात करे?
कुछ भी कहिए, पर बातों में झोल रहे
२४-५-२०१७
***
इंगलिश की यादगार कविताओं का हिन्दी में अनुवादकी श्रंखला में पहला अनुवाद
A Dream Within A Dream
by Edgar Allan Poe
*
Take this kiss upon the brow!
And, in parting from you now,
Thus much let me avow--
You are not wrong, who deem
That my days have been a dream;
Yet if hope has flown away
In a night, or in a day,
In a vision, or in none,
Is it therefore the less gone?
All that we see or seem
Is but a dream within a dream.
I stand amid the roar
Of a surf-tormented shore,
And I hold within my hand
Grains of the golden sand--
How few! yet how they creep
Through my fingers to the deep,
While I weep--while I weep!
O God! can I not grasp
Them with a tighter clasp?
O God! can I not save
One from the pitiless wave?
Is all that we see or seem
But a dream within a dream?
*
ख्वाब में ख्वाब - एडगर एलन पो
अनुवाद - सलिल
*
चूमकर माथा तुम्हारा
हो रहा तुमसे विदा मैं।
कहूँ निस्संकोच खुलकर
तुम नहीं थीं गलत तब जब
सोचती थीं दिवस मेरे स्वप्न हैं
आस पाखी उड़ गया है दूर।
एक रजनी या कि दिन में
दिख रहे में या अदिख में
इसलिए क्या न्यून खोया?
देखते-महसूसते जो हम सभी
ख्वाब; केवल ख्वाब है वह ख्वाब में।
हूँ खड़ा मैं तरंगों के शोर में
क्षुब्ध सागर के किनारे;
हाथ में हूँ सहेजे मैं
सुनहरे सिकता-कणों को
हैं बहुत थोड़े मगर फिर भी फिसलते।
अंगुलियाँ मेरी घुसी गहराई में
रो रहा जब रो रहा मैं।
दैव! क्या मैं नहीं सकता बाँध
इनको बंद मुट्ठी में,
बचाने निर्दयी जल-तरंगों से?
देखते जो या कि देखा
ख्वाब में है ख्वाब क्या सब?
***
मुक्तिका
*
बँधी नीलाकाश में
मुक्तता भी पाश में
.
प्रस्फुटित संभावना
अगिन केवल 'काश' में
.
समय का अवमूल्यन
हो रहा है ताश में
.
अचेतन है ज़िंदगी
शेष जीवन लाश में
.
दिख रहे निर्माण के
चिन्ह व्यापक नाश में
.
मुखौटों की कुंडली
मिली पर्दाफाश में
.
कला का अस्तित्व है
निहित संगतराश में
***
[बारह मात्रिक आदित्य जातीय छन्द}
११.५.२०१६, ६.४५
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहर रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जुड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*
केश-पाश में जो बँधा, उसे न भाती मुक्ति।
केशवती को पा सकें, अधर खोजते युक्ति।।
*
'सलिल' बाल बाँका न हो, रोज गूँथिये बाल।
किन्तु निकालें मत कभी, आप बाल की खाल।।
*
बाल खड़े हो जाएँ तो, झुका लीजिए शीश।
रुष्ट रूप से भीत ही, रहते भूप-मनीष।।
***
२४-५०२०१६
***
कृति चर्चा:
कृति विवरण:
रत्ना मंजूषा : छात्रोपयोगी काव्य संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: रत्न मंजूषा, काव्य संग्रह, रत्ना ओझा 'रत्न', आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १८०, मूल्य १५० रु., प्राप्ति संपर्क: २४०५/ बी गाँधी नगर, नया कंचनपुर, जबलपुर]
*
रत्न मंजूषा संस्कारधानी जबलपुर में दीर्घ काल से साहित्य सृजन और शिक्षण कर्म में निमग्न कवयित्री श्रीमती रत्ना ओझा 'रत्न' की नवीन काव्यकृति है. बँटवारे का दर्द कहानी संग्रह, गीत रामायण दोहा संग्रह, जरा याद करो क़ुरबानी भाग १ वीरांगनाओं की जीवनी, जरा याद करो क़ुरबानी भाग २ महापुरुषों की जीवनी, का लेखन तथा ७ स्मारिकाओं का संपादन कर चुकी रत्ना जी की कविताओं के विषय तथा शिल्प लक्ष्य पाठक शालेय छात्रो को ध्यान में रखकर काव्य कर्म और रूपाकार और दिशा निर्धारित की है. उच्च मापदंडों के निकष पर उन्हें परखना गौरैया की उड़ान की बाज से तुलना करने की तरह बेमानी होगा. अनुशासन, सदाचार, देशभक्ति, भाईचारा, सद्भाव, परिश्रम तथा पर्यावरण सुधार आदि रत्ना जी के प्रिय विषय हैं. इन्हें केंद्र में रखकर वे काव्य सृजन करती हैं.
विवेच्य कृति रत्न मञ्जूषा को कवयित्री ने २ भागों में विभाजित किया है. भाग १ में राखी गयी ४३ कवितायेँ राष्ट्रीय भावभूमि पर रची गयी हैं. मातृ वंदना तथा शहीदों को नमन करने की परम्परानुसार रत्ना जी ने कृति का आरंभ शईदों को प्रणतांजलि तथा वीणा वंदना से किया है.रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानन्द, बापू, सुभद्रा कुमारी चौहान, इंदिराजी, जैसे कालजयी व्यक्तित्वों के साथ पर्यावरण और किसानों की समस्याओं को लेकर शासन-प्रशासन के विरुद्ध न्यायालय और ज़मीन पर नेरंतर संघर्षरत मेघा पाटकर पर कविता देकर रत्ना जी ने अपनी सजगता का परिचय दिया है. नर्मदा जयंती, वादियाँ जबलपुर की, ग्राम स्वराज्य, आदमी आदि परिवेश पर केन्द्रित रचनाएँ कवयित्री की संवेदनशीलता का प्रतिफल हैं. इस भाग की शेष रचनाएँ राष्ट्रीयता के रंग में रंगी हैं.
रत्न मञ्जूषा के भाग २ में सम्मिलित ८८ काव्य रचनाएँ विषय, छंद, कथ्य आदि की दृष्टि से बहुरंगी हैं. तस्वीर बदलनी चाहिए, मिट जाए बेगारी, लौट मत जाना बसंत, माँ रेवा की व्यथा-कथा, दहेज, आँसू, गुटखा, बचपन भी शर्मिंदा, ये कैसी आज़ादी आदि काव्य रचनाओं में कवयित्री का मन सामाजिक सामयिक समस्याओं की शल्य क्रिया कर कारण और निवारण की ओर उन्मुख है. रत्ना जी ने संभवत: जन-बूझकर इन कविताओं की भाषा विषयानुरूप सरस, सरल, सहज, बोधगम्य तथा लयात्मक रखी है. भूमिका लेखक आचार्य भगवत दुबे ने इसे पिन्गलीय आधार पर काव्य-दोष कहा है किन्तु मेरी दृष्टि में जिन पाठकों के लिए रचनाएँ की गयीं हैं, उनके भाषा और शब्द-ज्ञान को देखते हुए कवयित्री ने आम बोलचाल के शब्दों में अपनी बात कही है. प्रसाद गुण संपन्न ये रचनाएं काव्य रसिकों को नीरस लग सकती हैं किन्तु बच्चों को अपने मन के अनुकूल प्रतीत होंगी.
कवयित्री स्वयं कहती है: 'नवोदित पीढ़ी में राष्ट्रीयता, नैतिकता, पर्यावरण, सुरक्षा, कौमी एकता और संस्कार पनप सकें, काव्य संग्रह 'रत्न मञ्जूषा' में यही प्रयास किया गया है. कवयित्री अपने इस प्रयास में सफल है. शालेय बच्चे काव्यगत शिल्प और पिंगल की बारीकियों से परिचित नहीं होते. अत: उन्हें भाषिक कसावट की न्यूनता, अतिरिक्त शब्दों के प्रयोग, छंद विधान में चूकके बावजूद कथ्य ग्रहण करने में कठिनाई नहीं होगी. नयी पीढ़ी को देश के परिवेश, सामाजिक सौख्य और समन्वयवादी विरासत के साथ-साथ पर्यावरणीय समस्याओं और समाधान को इंगिर करती-कराती इस काव्य-कृति का स्वागत किया जाना चाहिए.
***
आरक्षण समस्या: एक समाधान
*
सबसे पहला आरक्षण संसद में हो
शत-प्रतिशत दें पिछड़े-दलित-आवर्णों को
आरक्षित डोक्टर आरक्षित को देखे
आरक्षित अभियन्ता ही बनवाये मकान
कुछ वर्षों में समाधान हो जाएगा
फिर न कहीं भी घमासान हो पायेगा...
२४-५-२०१५
***
दोहा गाथा ९ : दोहा कम में अधिक है
संजीव
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.
*
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे तो फ़िर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय.
*
दोहे रचे कबीर ने, शब्द-शब्द है सत्य.
जन-मन बसे रहीम हैं, जैसे सूक्ति अनित्य. कबीर
दोहा सबका मीत है, सब दोहे के मीत.
नए काल में नेह की, 'सलिल' नयी हो नीत.
सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान.
शान्ति सौख्य संतोष दो, मुझको हे भगवान.
गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ.
औरों की करने मदद, बढ़े रहें मम हाथ.
दोहा रचकर आपको, मिले सफलता-हर्ष.
नेह नर्मदा नित नहा, पायें नव उत्कर्ष.
नए सृजन की रश्मि दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
पा जीवन में पूर्णता, करें राष्ट्र की वृद्धि.
जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य.
इसके जैसी है नहीं, भाषा कोई अन्य.
'सलिल' शीश ऊँचा रखें, नहीं झुकाएँ माथ.
ज्यों की त्यों चादर रहे, वर दो हे जगनाथ.
दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।
मुगल सम्राट अकबर के पराक्रमी अभिभावक बैरम खान खानखाना के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना उर्फ़ रहीम ( संवत १६१० - संवत १६८२) अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान, वीर योद्धा, दानवीर तथा राम-कृष्ण-शिव आदि के भक्त कवि थे। रहीम का नीति तथा शृंगार विषयक दोहे हिन्दी के सारस्वत कोष के रत्न हैं। बरवै नायिका भेद, नगर शोभा, मदनाष्टक, श्रृंगार सोरठा, खेट कौतुकं ( ज्योतिष-ग्रन्थ) तथा रहीम काव्य के रचियता रहीम की भाषा बृज एवं अवधी से प्रभावित है। रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा देखिये--
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव २००९ में मुख्य अतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु...
छंद क्या है?
संस्कृत काव्य में छंद का रूप श्लोक है जो कथ्य की आवश्यकता और संधि-नियमों के अनुसार कम या अधिक लम्बी, कम या ज्यादा पंक्तियों का होता है। संकृत की क्लिष्टता को सरलता में परिवर्तित करते हुए हिंदी छंदशास्त्र में वर्णित अनुसार नियमों के अनुरूप पूर्व निर्धारित संख्या, क्रम, गति, यति का पालन करते हुए की गयी काव्य रचना छंद है। श्लोक तथा दोहा क्रमशः संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के छंद हैं। ग्वालियर निवास स्वामी ॐ कौशल के अनुसार-
दोहे की हर बात में, बात बात में बात.
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात.
श्लोक से आशय किसी पद्यांश से है। जन सामान्य में प्रचलित श्लोक किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति की लम्बाई परिवर्तनशील होती है।
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की को बंधक बनाते ही आतंकवादी छोड़ दिए जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट के बाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था।
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए? संकटग्रस्त के परिजनों को क़तर न होकर देश हित में सर्वोच्च बलिदान का अवसर पाने को अपना सौभाग्य मानना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
*
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
गोष्ठी के अंत में :
दोहा सुहृदों का स्वजन, अक्षर अनहद नाद.
बिछुडे अपनों की तरह, फ़िर-फ़िर आता याद.
बिसर गया था आ रहा, फ़िर से दोहा याद.
दोहा रचना सरल यदि, होगा द्रुत संवाद.
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.
दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता, निडरता, स्पष्टता से संक्षिप्तता में कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
गुण पूजित हो कौन सा?,क्या अवगुण दें त्याग?
वरित पूज्य- तज चम्पई, अवरित बिन अनुराग..
चम्पई = चंपकवर्णी सुन्दरी
बेवफा प्रियतम को साथ लेकर न लौटने से लज्जित दूती को के दुःख से भावाकुल प्रेमिका भावाकुल के मन की व्यथा कथा दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं, दूती क्यों नत मुख?
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख..
हर प्रियतम बेवफा नहीं होता। सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है। जिस विरहणी की अंगुलियाँ प्रियतम के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
प्रिय जब गये प्रवास पर, बतलाये जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.
परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गये तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आये तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी। करें तो क्या करे?
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.
मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है। 'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.
दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे। बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरनन करत, आल्हा छंद बनाय.
इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.
कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चंद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतिय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
*
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.
दोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास.
'मावस भी पूनम बने, फागुन भी मधुमास.
बौर आम के देखकर, बौराया है आम.
बौरा गौरा ने वरा, खास- बताओ नाम?
लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल.
जलता है या फूलता, बूझे कौन सवाल?
लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन.
नील गगन हँसता, लगे- पवन वसन बिन दीन.
सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ.
हँसते-रोते हैं नयन, उठता-झुकता माथ.
राम राज्य का दिखाते, स्वप्न किन्तु खुद सूर.
दीप बुझाते देश का, क्यों कर आप हुजूर?
'कम लिखे को अधिक समझना' लोक भाषा का यह वाक्यांश दोहा रचना का मूलमंत्र है. उक्त दोहों के भाव एवं अर्थ समझिये.
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चो त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.
करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पडत निसान.
दोहा गाथा की इस कड़ी के अंत में वह दोहा जो कथा समापन के लिये ही लिखा गया है-
कथा विसर्जन होत है, सुनहूँ वीर हनुमान.
जो जन जहाँ से आए हैं, सो तंह करहु पयान।
***
बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
*
मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल
रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल
यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल
आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल
मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल
२४-५-२०१३
*

मई २५, बिटिया, दुर्गा भाभी, हिंदी, जाति, विवाह, स्वरबद्ध दोहे, हाइकु, अंगिका,

 सलिल सृजन मई २५

*
एक रचना
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
पहला पैर रखा धरती पर
खड़े न रहकर
गिरे धम्म से।
कदम बढ़ाया चल न सके थे
बार बार
कोशिश की हमने।
'इकनी एक' न एक बार में
लिख पाए हम
तो न करें गम।
'अ अनार का' बार बार
लिख गलत
सही सीखा था हमने।
नहीं विफलता से घबराया
जो उसने ही
मंजिल पाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
उड़ा न पाता जो पतंग वह
कर अभ्यास
उड़ाने लगता।
गोल न रोटी बनती गर तो
आंटा बेलन
तवा न थकता।
बार बार गिरती मकड़ी पर
जाल बनाए बिना
न रुकती।
अगिन बार तिनके गिरते पर
नीड़ बिना
पाखी कब रुकता।
दुखी न हो, संकल्प न छोड़ो
अश्रु न मीत
न सखी रुलाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
कुंडी बार बार खटकाओ
तब दरवाजा
खुल पाता है।
अगणित गीत निरंतर गाओ
तभी कंठ-स्वर
सध पाता है।
श्वास ट्रेन पर आस मुसाफिर
थके-चुके बिन
चलते रहता।
प्रभु सुन ले या करें अनसुनी
भक्त सतत
भजता जाता है।
रुके न थक जो
वह तरुणाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
२५-५-२०२३
***
दुर्गा भाभी और हम
*
विधि की विडंबना किअंग्रेजो से माफी माँगनेवाले स्वातंत्र्य वीर और प्रधान मंत्री हो गए किन्तु जान हथेली पर रखकर अंग्रेजों की नाक में दम करनेवाले किसी को याद तक नहीं आते।
एक वो भी थे जो देश हित कुर्बान हो गए।
एक हम हैं जो उनको याद तक नहीं करते।।
दुर्गा भाभी साण्डर्स वध के बाद राजगुरू और भगतसिंह को लाहौर से अंग्रेजो की नाक के नीचे से निकालकर कोलकत्ता ले गई थीं। इनके पति क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा थे। ये भी कहा जाता है किचंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में दुर्गा भाभी द्वारा दी गई माउजर पिस्तौल थी।
१४ अक्टूबर १९९९ में वो इस दुनिया से चुपचाप ही विदा हो गईं।
आज तक उस वीरांगना को इतिहास के पन्नों में वो जगह मिली जिसकी वो हकदार थीं और न ही वो किसी को याद रही चाहे वो सरकार हो या जनता।
एक स्मारक तक उनके नाम पर नहीं है, कहीं कोई मूर्ति नहीं है उनकी। सरकार, पत्रकार और जनता किसी को नहीं आती उनकी याद। कितने कृतघ्न हैं हम?
***
दोहा दुनिया
कर उपासना सिंह की, वन में हो तव धाक
सिर नीचा पर समझ ले, तेरी ऊँची नाक
*
दोहा प्रगटे आप ही, मेरा नहीं प्रयास
मातु शारदा की कृपा, अनायास सायास
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, तभी प्रगट हो सत्य
बाकी मायाजाल है, है असत्य भी सत्य
*चाह चाहकर हो चली, जर्जर देह विदेह
वाह वाह कर ले तनिक, हो संजीव अगेह
***
मुक्तिका
*
परिंदे मिल कह रहे हैं ईद मुबारक
सेठ दौलत तह रहे हैं ईद मुबारक
कामगर बेकाम भूखे पेट मर रहा
दे रहे हैं कर्ज बैंक ईद मुबारक
खेत की छाती पे राजमार्ग बन गया
है नहीं दरख्त-कुआँ ईद मुबारक
इंजीनियर मजदूर की है कद्र कुछ नहीं
नेता पुलिस की बोलिए जय ईद मुबारक
जा आइने के सामने मिलिए गले खुद से
आँखों नें आँख डाल कहें ईद मुबारक
***
हिंदी के सोरठे
*
हिंदी मोतीचूर, मुँह में लड्डू सी घुले
जो पहले था दूर, मन से मन खुश हो मिले
हिंदी कोयल कूक, कानों को लगती भली
जी में उठती हूक, शब्द-शब्द मिसरी डली
हिंदी बाँधे सेतु, मन से मन के बीच में
साधे सबका हेतु, स्नेह पौध को सींच के
मात्रिक-वर्णिक छंद, हिंदी की हैं खासियत
ज्योतित सूरज-चंद, बिसरा कर खो मान मत
अलंकार है शान, कविता की यह भूल मत
छंद हीन अज्ञान, चुभा पेअर में शूल मत
हिंदी रोटी-दाल, कभी न कोई ऊबता
ऐसा सूरज जान, जो न कभी भी डूबता
हिंदी निश-दिन बोल, खुश होगी भारत मही
नहीं स्वार्थ से तोल, कर केवल वह जो सही
२२-५-२०२०
***
अनुलोम-विलोम
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया प्राण
*
अनुलोम अर्थात रचना की किसी पँक्ति को सीधा पढ़ने पर भी अर्थ निकले और विलोम अर्थात् उल्टा (पीछे से ) पढ़ने पर भी अर्थ दे ।
संस्कृत के कई कवियों तथा रीतिकालीन हिन्दी के आचार्य कवि केशव दास ने भी ऐसी रचनाएँ की हैं ।
नीचे लिखी रचना में अनुलोम लावणी में और विलोम ताटंक छन्द में बन पड़ा है।
अनुलोम
=======
क्यों दी रोक सार कह नारी गोधारा नीलिमा नदी ।
क्यों दी मोको तालि लय जया माता मम कालिमा पदी ।।
विलोम
=====
दीन मालिनी राधा गोरी नाहक रसा करोदी क्यों ?
दीप मालिका ममता माया जयललिता को मोदी क्यों ?
अनुलोम का अर्थ
===
हे नारी तूने नीलिमा ( यमुना ) नदी की बहती हुई गो धारा क्यों रोक दी ।ऐसा ही करना था तो उस काले पैरों वाली ( कालिमापदी) मेरी जया माता ने मुझे लय और ताल क्यों दी ? यह बता ।
विलोम का अर्थ
====
दीन गरीब मालिनी ने राधा गोरी से पूछा कि तू नाहक धरती क्यों कुरेद रही है पता लगा कि तेरे होते हुए आजकल ये दीप मालिका सी ममता माया व जयललिता को मोदी क्यों चाहिए ?
***
चिंतन:
जाति, विवाह और कर्मकांड
*
जात कर्म = जन्म देने की क्रिया, जातक = नज्म हुआ बच्चा, जातक कथा = विविध योनियों में अवतार लिए बुद्ध की कथाएं.
विविध योनियों में बुद्ध कौन थे यह पहचान उनकी जाति से हुई. जाति = गुण-धर्म.
'जन्मना जायते शूद्रो' के अनुसार हर जातक जन्मा शूद्र होता है.
कर्म के अनुसार वर्ण होता है. 'चातुर्वण्य मया सृष्टम गुण कर्म विभागश:' कृष्ण गीता में.
सनातन धर्म में एक गोत्र, एक कुल, पिता की सात पीढ़ी और माँ की सात पीढ़ी में, एक गुरु के शिष्यों में, एक स्थान के निवासियों में विवाह वर्जित है. यह 'जेनेटिक मिक्सिंग' का भारतीय रूप ही है.
इनमें से हर आधार के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है.
जो अव्यक्त है, वह निराकार है. जो निराकार है उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात चित्र गुप्त है. यह चित्रगुप्त कौन है?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनाम' चित्रगुप्त सर्व प्रथम प्रणाम के योग्य हैं जो सर्व देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं'
'कायास्थिते स: कायस्थ:' वह (चित्रगुप्त या परमात्मा) जब किसी काया का निर्माण कर उसमें स्थित (आत्मा रूप में) होता है तो कायस्थ कहलाता है.
जैसे कुँए में जल, बाल्टी में निकाला तो जल, लोटे में भरा तो जल, चुल्लू से पिया तो जल, उसी प्रकार परमात्मा का अंश हर आत्मा भी काया धारण कर कायस्थ है.इसीलिये कायस्थ किसी एक वर्ण में नहीं है.
तात्पर्य यह कि सनातन चिंतन में वह है ही नहीं जो समाज में प्रचलन में है. आवश्यकता चिंतन को छोड़ने की नहीं सामाजिक आचार को बदलने की है. जो परिवर्तन की दिशा में सबसे आगे चले वह अग्रवाल, जिसके पास वास्तव में श्री हो वह श्रीवास्तव. जब दोनों का मेल हो तो सत्य और श्रेष्ठ ही बढ़ेगा.
विवाह दो जातकों का होता है, उनके रिश्तेदारों, परिवारों, प्रतिष्ठा या व्यवसाय का नहीं होता. पारस्परिक ताल-मेल, समायोजन, सहिष्णुता और संवेदनशीलता हो तो विवाह करना चाहिए अन्यथा विग्रह होना ही है.
पंडा, पुजारी, मुल्ला, मौलवी, ग्रंथी, पादरी होना धंधा है. जब कोई दूकानदार, कोई मिल मालिक हमें नियंत्रित नहीं करता करे तो हम स्वीकारेंगे नहीं तो कर्मकांड का व्यवसाय करनेवालों की दखलंदाजी हम क्यों मानते हैं? कमजोरी हमारी है, दूर भी हमें ही करना है.
२५-५-२०१७
***
स्वरबद्ध दोहे :
*
अक्षर अजर अमर असित, अजित अतुल अमिताभ
अकत अकल अकलक अकथ, अकृत अगम अजिताभ
*
आप आब आनंदमय, आकाशी आल्हाद
आक़ा आक़िल अजगबी, आज्ञापक आबाद
*
इश्वाकु इच्छुक इरा, इर्दब इलय इमाम
इड़ा इदंतन इदंता, इन इब्दिता इल्हाम
*
ईक्षा ईक्षित ईक्षिता, ई ईड़ा ईजान
ईशा ईशी ईश्वरी, ईश ईष्म ईशान
*
उत्तम उत्तर उँजेरा, उँजियारी उँजियार
उच्छ्वासित उज्जवल उतरु, उजला उत्थ उकार
*
ऊजन ऊँचा ऊजरा, ऊ ऊतर ऊदाभ
ऊष्मा ऊर्जा ऊर्मिदा, ऊर्जस्वी ऊ-आभ
*
एकाकी एकाकिनी, एकादश एतबार
एषा एषी एषणा, एषित एकाकार
*
ऐश्वर्यी ऐरावती, ऐकार्थ्यी ऐकात्म्य
ऐतरेय ऐतिह्यदा, ऐणिक ऐंद्राध्यात्म
*
ओजस्वी ओजुतरहित, ओंकारित ओंकार
ओल ओलदा ओबरी, ओर ओट ओसार
*
औगत औघड़ औजसिक, औत्सर्गिक औचिंत्य
औंगा औंगी औघड़ी, औषधीश औचित्य
*
अंक अंकिकी आंकिकी, अंबरीश अंबंश
अंहि अंशु अंगाधिपी, अंशुल अंशी अंश
*
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
२५-५-२०१६
***
एक दोहा
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
***
मुक्तिका:
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं
कमल-दल सम, भा गयीं
*
ज़िन्दगी के मंच पर
बन्दगी बन छा गयीं
*
विरह-गीतों में विहँस
मिलन-रस बिखरा गयीं
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं
*
हर कहानी अनकही
बिन कहे फरमा गयीं
***
मुक्तिका:
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है
*
जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***
हाइकु चर्चा : १.
*
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती है. हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं. मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी.
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है.
हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ haikai no renga सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है. 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है. हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है.
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं.
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
Write a Haiku Poem Step 2.jpgपारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं. अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं. समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं. अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते है जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं. इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है. ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढाये जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है. हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है. अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है. अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
२५-५-२०१४
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
***
कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
२३-५-२०१५
***
नवगीत:
लौटना मत मन...
*
लौटना मत मन,
अमरकंटक पुनः
बहना नर्मदा बन...
*
पढ़ा, सुना जो वही गुना
हर काम करो निष्काम.
सधे एक सब सधता वरना
माया मिले न राम.
फल न चाह,
बस कर्म किये जा
लगा आत्मवंचन...
*
कर्म योग कहता:
'जो बोया निश्चय काटेगा'.
सगा न कोई आपद-
विपदा तेरी बाँटेगा.
आँख मूँद फिर भी
जग सारा
जोड़ रहा कंचन...
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क्यों सोचूँ 'क्या पाया-खोया'?
होना है सो हो.
अंतर क्या हों एक या कि
माया-विरंची हों दो?
सहज पके सो मीठा
मान 'सलिल'
पावस-सावन...
२५.५.२०१४
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अंगिका दोहा मुक्तिका
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काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
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मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
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एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
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कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
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धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
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मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
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ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
२१-५-२०१३
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गीत:
संजीव 'सलिल'
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साजों की कश्ती से
सुर का संगीत बहा
लहर-लहर चप्पू ले
ताल देते भँवर रे....
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थापों की मछलियाँ,
नर्तित हो झूमतीं
नादों-आलापों को
सुन मचलतीं-लूमतीं.
दादुर टरटरा रहे
कच्छप की रास देख-
चक्रवाक चहक रहे
स्तुति सुन सिहर रे....
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टन-टन-टन घंटे का
स्वर दिशाएँ नापता.
'नर्मदे हर' घोष गूँज
दस दिश में व्यापता. .
बहते-जलते चिराग
हार नहीं मानते.
ताकत भर तम को पी
डूब हुए अमर रे...
२५-५-२०१०
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