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शनिवार, 18 जनवरी 2025

जनवरी १८, सॉनेट, लघुकथा, नवगीत, सुजान छंद, रूपमाला, शाल, आभा,

सलिल सृजन जनवरी १८
सॉनेट
कनक हिरन
कनक हिरन आज अवध भेज रे अहेरी,
कनक महल कनक शिखर कनक द्वार बस रहे,
कनककशिपु कनक अक्ष ठठा ठठा हँस रहे,
कनक की बना बिछा सेज रे अहेरी।
कनक जोड़ जोड़ बढ़ा तेज रे अहेरी,
कनक कनक से अधिक मादक ले मान,
कनक कनक से अधिक पातक ले जान,
कनक की सनक नहीं सहेज रे अहेरी।
कन न साथ जाए कभी त्याग रे अहेरी,
जोड़-होड़ द्रोह-मोह छोड़ चेत आप,
कनकासुर वधें राम मत कर अभिमान।
छन न कभी राह तके कभी न कर देरी,
राग-द्वेष, नाश करें, नफरत है शाप,
पद-मद से दूर, कह न सत्ता भगवान।
१८.१.२०२४
•••
सॉनेट
दीप प्रज्जवलन
*
दीप ज्योति सब तम हरे, दस दिश करे प्रकाश।
नव प्रयास हो वर्तिका, ज्योति तेल जल आप।
पंथ दिखाएँ लक्ष्य वर, हम छू लें आकाश।।
शिखर-गह्वर को साथ मिल, चलिए हम लें नाप।।
पवन परीक्षा ले भले, कँपे शिखा रह शांत।
जले सुस्वागत कह सतत, कर नर्तन वर दीप।
अगरु सुगंध बिखेर दे, रहता धूम्र प्रशांत।।
भवसागर निर्भीक हो, मन मोती तन सीप।।
एक नेक मिल कर सकें, शारद का आह्वान।
चित्र गुप्त साकार हो, भाव गहें आकार।
श्री गणेश विघ्नेश हर, विघ्न ग्रहणकर मान।।
शुभाशीष दें चल सके, शुभद क्रिया व्यापार।।
दीप जले जलता रहे, हर पग पाए राह।
जिसके मन में जो पली, पूरी हो वह चाह।।
छंद- दोहा
१८-१-२०२२
***
छंद शाला
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
पाठ
कथ्य भाव लय छंद है
*
(इस लेख माला का उद्देश्य नवोदित कवियों को छंदों के तत्वों, प्रकारों, संरचना, विधानों तथा उदाहरणों से परिचित कराना है। लेखमाला के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ख्यात छन्दशास्त्री, नवगीतकार, लघुकथाकार, संपादक व् समालोचक हैं। सलिलजी ने ५०० से अधिक नए छंदों का अन्वेषण किया है। लेखमाला के भाग १ में मूल अवधारणों को स्पष्ट करते हुए दोहा लेखन के सूत्र स्पष्ट किये गए हैं। - सं.)
*
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला अनाहद, भाव-भंगिमा जाप।।
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द।।
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण / अक्षर :
ध्वनि विशेष के लिए निर्धारित रैखिक आकार को वर्ण कहा जाता है। उस आकार से वही ध्वनि समझी जाती है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:। स्वर के दो प्रकार १. हृस्व (अ, इ, उ, ऋ) तथा दीर्घ (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
शब्द के प्रकार
१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि)।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोड़ागाड़ी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि)।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है। यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि)।
४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं।
छंद :
सामान्यतः ध्वनि से उत्पन्न लयखंड को पहचानने के लिये छन्द शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'चद' धातु से बने 'छंद' शब्द का अर्थ आल्हादित या प्रसन्न करना है। वर्णों को क्रम विशेष में रखने पर विशेष तरह का लय खंड (रुक्न उर्दू, मीटर अंग्रेजी) उत्पन्न होता है। लय खण्डों की आवृत्ति को छंद (बह्र, फॉर्म ऑफ़ पोएट्री) कहा जाता है। 'छंद' का अर्थ है छाना, जो मन-मस्तिष्क पर छा जाए वह छंद है। छ्न्द से काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियों को उच्चारण के अनुसार वर्ण कहा जाता है। वर्ण के लघु-गुरु उच्चारणों को मात्रा कहते हैं। मात्राओं का विशिष्ट समायोजन लय विशेष (धुन) को जन्म देता है। मात्रा क्रम, मात्रा संख्या या विरामस्थल में परिवर्तन होने से लय और तदनुसार छंद परिवर्तित हो जाता है।
छंद के प्रकार -
१.मात्रिक छंद - मात्रा गणना के आधार पर रचे गए छंद कहे जाते हैं। जैसे दस मात्राओं से निर्मित छंद को दैशिक छंद कहा जाता है। बारह मात्राओं से निर्मित छंद आदित्य छंद हैं। मात्रिक छंद की हर पंक्ति (पद) में मात्रा संख्या समान होती है।
२. वर्णिक छंद - वर्ण (अक्षर) अथवा गण संयोजन के आधार पर रचे गए छंदों को वर्णिक छंद कहा जाता हैं। उदाहरण प्रतिष्ठा छंद ४ वर्ण से जबकि गायत्री छंद ६ वर्णों के समायोजन से बनते हैं। वर्णिक छंद की हर पंक्ति में वर्ण अथवा गण संख्या व् क्रम समान होना आवश्यक है।
गण - तीन वर्णों को मिलाकर बनी ईकाई को गण कहते हैं। हिंदी में ८ गण हैं जिनकी संयोजन से गण छंद बनते हैं।
गण सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' के पहले ८ अक्षरों में अगले २ -२ अक्षर जोड़ कर गानों की संरचना ज्ञात की जाती है। तदनुसार यगण यमाता १२२, मगण मातारा २२२, तगण ताराज २२१, रगण राजभा २१२ , जगण जभान १२१, भगण भानस २११ तथा सगण सलगा ११२ हैं।
उदाहरण :
यगण - यमाता - १२२ - हमारा
मगण - मातारा - २२२ - दोधारा
तगण - ताराज - २२१ - शाबाश
रगण - राजभा - २१२ - आइए
जगण - जभान - १२१ - सुहास
भगण - भानस - २११ - भारत
नगण - नसल - १११ - सहज
सगण - सलगा - ११२ - सहसा
पिंगल / छंद शास्त्र - छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँछंद शास्त्र का प्रथम ग्रंथ आचार्य पिंगल ने लिखा इसलिए इसे पिंगलशास्त्र भी कहते हैं। गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ और कविता की कसौटी ‘छन्द’ है।
काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं आना चाहिए।
छंद के अंग :
छंद के आठ अंग १. वर्ण या मात्रा, २. गण ३. पद या पंक्ति, ४. चरण, ५. यति या विराम स्थल, ६. तुकांत ७. पदांत तथा ८. गति हैं।
१. वर्ण या मात्रा - अनुभूति या विचार को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त शब्दों के वर्ण या मात्राएँ।
२. गण - छंद में प्रयुक्त गण प्रकार तथा क्रम।
३. पद या पंक्ति - छंद में प्रयुक्त पंक्ति संख्या।
४. चरण - पंक्ति में आये दो विराम स्थलों या यति स्थानों के बीच का भाग अथवा ऐसे भागों की संख्या। चरणों को उनके स्थान के अनुसार आदि चरण, मध्य चरण, अंतिम चरण, सम चरण, विषम चरण आदि कहा जाता है।
५. यति या विराम स्थल - छंद की पंक्ति को पढ़ते या बोलते समय कुछ शब्दों के बाद श्वास लेने हेतु रुका जाता है। ऐसे स्थल को यति कहा जाता है।
६. तुकांत - छंद-पंक्तियों के अंत में समान उच्चार के शब्द।
७. पदांत - छंद पंक्ति का अंतिम शब्द।
८. गति - छंद विशेष को पढ़ने का प्रवाह।
मात्रा गणना -
हिंदी में वर्ण की दो मात्राएँ लघु और गुरु होती हैं जिनका पदभार क्रमश: १ और २ गिना जाता है। अ, इ, उ, ऋ तथा इनकी मात्राओं (मात्रा रहित वर्ण, ि, ु) से युक्त वर्ण लघु, ह्रस्व या छोटे कहे जाते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्राओं (ा, ी, ू, े, ै, ो, ौ, ां, ा:) से युक्त वर्ण गुरु, दीर्घ या बड़ी कही जाती हैं।
उदाहरण -
विकास - १२१ = ४, भारती - २१२ = ५, हिंदी - २२ = ४, ह्रदय - १११ = ३, मार्मिक २११ = ४, स्थल - ११ = २, मनस्वी - १२२ = ५, त्यक्त - २१ = ३, प्रयास - १२१ = ४, विप्र - २१ = ३, अहं - १२ = ३ आदि।
रस - रस का अर्थ है आनंद। काव्य को रचने, सुनने या पढ़ने से प्राप्त आनंद ही रस है। रस को काव्य की आत्मा, व आत्मानन्द भी कहा गया है।नाट्यशास्त्र प्रवर्तक भरत मुनि के काल से ही रस को काव्य माधुर्य और अलंकार दोनों रूपों में देखा गया। अग्निपुरनकार के अनुसार " वाग्वैदग्ध्य प्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं", विश्वनाथ के शब्दों में "रसात्मकं वाक्यं काव्यं" , राजशेखर के मतानुसार शब्दार्थौ ते शरीर रस आत्मा" ।
अलंकार - अलम् अर्थात् भूषण, जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) डंडी के अनुसार "तै शरीरं च काव्यानमलंकारश्च दर्शिता:" तथा "काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते। वामन के शब्दों में -"सौन्दर्यंलंकार" । ध्वन्यालोक में "अनन्ता हि वाग्विकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेयता की ओर संकेत किया गया है। दंडी ने "ते चाद्यापि विकल्प्यंते" कहकर इनकी नित्य संख्यवृद्धि का ही निर्देश किया है। विचारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, रसालंकार, भावालंकार, मिश्रालंकार, उभयालंकार तथा संसृष्टि और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द तथा अर्थ के आश्रित अलंकार हैं।
प्रतीक - प्रतीक का संबंध मनुष्य की चिंतन प्रणाली से है । प्रतीक का शाब्दिक अर्थ अवयव या चिह्न है। कविता में प्रतीक हमारी भाव सत्ता को प्रकट अथवा गोपन करने का माध्यम है। प्रत्येक भाव व्यंजना की विशिष्ट प्रणाली है। इससे सूक्ष्म अर्थ व्यंजित होता है । डॉक्टर भगीरथ मिश्र कहते हैं कि ” सादृश्य के अभेदत्व का घनीभूत रूप ही प्रतीक है”। उनके मंतव्य में प्रतीक की सृष्टि अप्रस्तुत बिंब द्वारा ही संभव है।प्रतीक के कुछ मौलिक गुण धर्म है जैसे सांकेतिकता, संक्षिप्तता, रहस्यात्मकता, बौद्धिकता, भावप्रकाशयत्ता एवं प्रत्यक्षतः प्रतिज्ञा प्रगटीकरण से बचाव आदि। आधुनिक काव्य प्रतीक सामान्य लक्षण को अपने अंदर समाहित कर पाठक को विषय को समझने, अनुभव करने और अर्थ में संबोधन का व्यापक विकल्प प्रस्तुत करने में सहायक होते हैं।
प्रकार :
१. रूपात्मक प्रतीक - राधा चमक रही चंदा सी, कान्ह सूर्य सा दमक रहा
२. गुण-स्वभावात्मक प्रतीक - कागा हैं सत्ता के वाहक, राजहंस सड़कों पर
३. क्रियात्मक प्रतीक - यंत्रों की जयकार न हो अब, श्रम को पूजा जाए
४. मिश्र प्रतीक - झोपड़ी में श्रम करे उत्पाद, भोग महलों में करते नेता
बिम्ब - बिंब किसी पदार्थ का मानचित्र या मानसी चित्र होता है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र में बिंब को कविता का अनिवार्य अंग माना है। बिंब शब्दों द्वारा चित्रित किए जाने वाला वह न्यूनाधिक संविदात्मक चित्र है जो अंश का रूप आत्मक होता है और अपने संदर्भ में मानवीय संवेदनाओं से संबंध रखता है। किंतु वह कविता की भावना या उसके आगे को पाठक तक पहुँचाता है। चित्रमयता वर्तमान कविता की अनिवार्यता है , क्योंकि चित्रात्मक स्थितियों का पाठक चाक्षुष अनुभव कर पाता है। कविता में बिंब के प्रयोग से पाठक या श्रोता कविता को इंद्रिय बोध और मानसिक वह दोनों ही प्रकार किसे सुगमता से आत्मसात कर लेता है। छायावादी कविता और आधुनिक कविता ने बिम्बों को स्वीकार किया। इसलिए यह कविताएँ छंद मुक्त होकर भी पाठक को सम्वेदनाओं से अधिक निकट ठहरती है। बिम्बों के दो मौलिक वर्ग हैं।
(अ) शुद्ध इंद्रियबोध गम्य बिंब- १ चाक्षुष बिंब, २ नाद बिंब, ३ गन्ध बिम्ब, ४ स्वाद बिंब, स्पर्श बिंब। पाँचों ज्ञानेइंद्रियों के विषयों से संबंधित बिंब इंद्रिय बोध गम्य बिंब कहलाते है ।
गाल गुलाबी कर-किरण, लिए हुए जयमाल
किसका स्वागत कर रही, उषा सूर्य रख भाल
(आ) मिश्रित इंद्रिय बोध के आधार पर यह संवेदात्मक बिम्ब - १ मानस बिंब , २ स्रोत वैभिन्नयगत बिंब -(अ) धार्मिक एवं पौराणिक बिंब (ब) तंत्रों से गृहीत बिंब (स) महाकाव्यों से गृहीत बिंब (द) ऐतिहासिक स्रोतों से गृहीत बिंब।
भरत पर अगर नहीं विश्वास, किया तो सहे अयोध्या त्रास
नृपति ने वचन किया है भंग, न होगा अधरों पर अब हास
मिथक - प्राचीन पुराकथाओं के वे तत्व जो नवीन स्थितियों में नये अर्थ का वहन करे मिथक कहलाते हैं। मिथकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि वे प्रागैतिहासिक मनुष्य के उस आघात और आतंक को कम कर सकें, जो उसे प्रकृति से सहसा अलग होने पर महसूस हुआ था-और मिथक यह काम केवल एक तरह से ही कर सकते थे-स्वयं प्रकृति और देवताओं का मानवीकरण करके। इस अर्थ में मिथक एक ही समय में मनुष्य के अलगाव को प्रतिबिम्बित करते हैं और उस अलगाव से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, उससे मुक्ति भी दिलाते हैं। प्रकृति से अभिन्न होने का नॉस्टाल्जिया, प्राथमिक स्मृति की कौंध, शाश्वत और चिरन्तन से पुनः जुड़ने का स्वप्न ये भावनाएँ मिथक को सम्भव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका अदा करती हैं। सच पूछें, तो मिथक और कुछ नहीं प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न है जो व्यक्ति के स्वप्न की तरह काफी अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट भी है। कालान्तर में पुरातन अतीत की ये अस्पष्ट गूँजें, ये धुँधली आकांक्षाएँ एक तर्कसंगत प्रतीकात्मक ढाँचे में ढल जाती हैं और प्राथमिक यथार्थ की पहली, क्षणभंगुर, फिसलती यादें महाकाव्यों की सुनिश्चित संरचना में गठित होती हैं। मिथक और इतिहास के बीच महाकाव्य एक सेतु है, जो पुरातन स्वप्नों को काव्यात्मक ढाँचे में अवतरित करता है। माना गया है कि जितने मिथक हैं, सब परिकल्पना पर आधारित हैं। फिर भी यह मूल्य आधारित परिकल्पना थी जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करना था। प्राचीन मिथकों की खासियत यही थी कि वह मूल्यहीन और आदर्शविहीन नहीं थे। मिथकों का जन्म समाज व्यवस्था को कायम रखने के लिए हुआ। मिथक लोक विश्वास से जन्मते हैं। पुरातनकाल में स्थापित किये गये धार्मिक मिथकों का मंतव्य स्वर्ग तथा नरक का लोभ, भय दिखाकर लोगों को विसंगतियों से दूर रखना था। मिथ और मिथक भिन्न है। मिथक असत्य नहीं है। इस शब्द का प्रयोग साहित्य से इतर झूठ या काल्पनिक कथाओं के लिए भी किया जाता है।
मिथ - मिथ अतीत में घटी प्राकृतिक घटना, सामाजिक विश्वास या धार्मिक रीति को स्पष्ट करने हेतु गढ़ी सर्वश्रुत गयी कहानी है। मिथ को पुराण कथा भी कहा जाता है।
१. दोहा
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत।
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत।।
दोहा हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय, लोकोपयोगी, पुराना तथा मारक छंद है। दोहा गागर में सागर की तरह कम शब्दों में गहरी बात कहने की सामर्थ्य रखता है। दोहा को 'दोपदी' (दो पंक्ति वाला छंद) भी कहते हैं। गौ रूपी भाषा को दूह कर अर्थ रूपी दूध निकलने की असीम सामर्थ्य रखने के कारण इसे 'दूहा व् दूहड़ा भी कहा गया। दोहा छंद में ' दो' का बहुत महत्व है।
दोहा में पंक्ति संख्या २
प्रति पंक्ति चरण संख्या २
प्रति पंक्ति यति स्थान (१३-११ मात्राओं पर) २
पदांत में सुनिश्चित वर्ण २ (गुरु लघु)
पदादि में लय साधने में सहायक शब्द/शब्दांश की मात्रिक आवृत्ति २
निषेध - पंक्ति के आरम्भ में एक शब्द में जगण (जभान १२१ )
प्रथम पंक्ति - १३ मात्रा यति ११ मात्रा यति
१ विषम चरण , २ सम चरण
प्रथम पंक्ति - १३ मात्रा यति ११ मात्रा यति
३ विषम चरण , ४ सम चरण
अमरकंटकी नर्मदा , दोहा अविरल धार। - पहला पद
पहला / विषम चरण / दूसरा / सम चरण
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार।। - दूसरा पद
तीसरा / विषम चरण / चौथा / सम चरण
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
११ २ ११ २ २१ २ ११११ २ २२१
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
११ २ ११ २२ १२ ११११ २२ २१
(कल = अतीत, भविष्य, शान्ति, यंत्र, कलरव पंछियों का स्वर, कलकल पानी बहने का स्वर)
दोहा में प्रयुक्त लघु और गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हो सकते हैं।
दोहा और शेर :
दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में फ़ारसी काव्य में भिन्न भाव-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव। शेर की पंक्तियाँ आसमान पदभार की हो सकती हैं जबकि दोहा की पंक्तियाँ सांभर और यति की होना आवश्यक है। शे'र में पद का चरण (पंक्ति या मिसरा का विभाजन) नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।
२. सोरठा
दोहा के विषम चरण को सम और सम चरण को विषम बनाने पर सोरठा छंद बनता है। सोरठा भी दो पदीय, चार चरणीय छंद है। इसके पद २४ मात्रा के होते हैं जिनमें ११-१३ मात्रा पर यति होती है। दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है। दोहा में विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-
बन जाता रच मीत, दोहा उल्टे सोरठा।
११ २२ ११ २१, २२ २२ २१२
काव्य-सृजन की रीत, दोनों मिलकर बनाते।।
दोहा और सोरठा
दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.
करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.
सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.
अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.
सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.
है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?
दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.
ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?
३. रोला छंद
रोला छंद के हर पद में सोरठा की ही तरह ११-१३ की यति सहित २४ मात्राएँ होती हैं। रोला के विषम चरण के अंत में गुरु लघु का बंधन नहीं होता। रोला का पदांत या सम चरणान्त गुरु होता है। दोहा तथा सोरठा में २ पद होते हैं जबकि रोला में ४ पद होते हैं।
हरे-भरे थे बाँस, वनों में अब दुर्लभ हैं
१२ १२ २ २१ , १२ २ ११ २११ २
नहीं चैन की साँस, घरों में रही सुलभ है
बाँस हमारे काम, हमेशा ही आते हैं
हम उनको दें काट, आप भी दुःख पाते हैं
४. कुण्डलिया
दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिनी या कुण्डली छंद बनता है। कुण्डलिया की पहली दो पंक्तियों में १३-११ की यति सहित गुरु-लघु पदांत होता है। शेष ४ पंक्तियों में ११-१३ पर यति सहित गुरु पदांत होता है। इसके अतिरिक्त कुण्डलिया में दो बंदन और हैं। दोहा का अंतिम (चौथा) चरण रोला का पहला (पाँचवे) चरण के रूप में दोहराया जाता है। दोहा के आरम्भ में प्रयुक्त शब्द या शब्द समूह रोला के अंत में प्रयोग किये जाते हैं।
नाग के बैठने की मुद्रा को कुंडली मारकर बैठना कहा जाता है। इसका भावार्थ जमकर या स्थिर होकर बैठना है। इस मुद्रा में सर्प का मुख और पूंछ आस-पास होती है। इस गुण के आधार पर कुण्डलिनी छंद बना है जिसके आदि-अंत में एक समान शब्द या शब्द समूह होता है।
दोहा
हिंदी की जय बोलिए, उर्दू से कर प्रीत
अंग्रेजी को जानिए, दिव्य संस्कृत रीत
रोला
दिव्य संस्कृत रीत, तमिल-तेलुगु अपनायें
गुजराती कश्मीरी असमी, अवधी गायें
बाङ्ग्ला सिन्धी उड़िया, 'सलिल' मराठी मधुमय
बृज मलयालम कन्नड़ बोलें हिंदी की जय
इन छंदों की रचना संबंधी कोी शंका या जिज्ञासा हो तो इस पत्रिका संपादक के माध्यम से अथवा निम्न से सम्पर्क किया जा सकता है। अगले अंक में कुछ और छंदों की जानकारी दी जाएगी।
१८.१.२०२०
***
एक रचना
पाई शाल
*
बड़े भाग से पाई शाल
हम लपेट बैठे खुशहाल
*
हुई प्रेरणा खीचें चित्र
भले आपको लगे विचित्र
*
चली कानपुर से चुपचाप
आई जबलपुर अपने आप
*
गंग-नर्मदा सेतु बनी
ह्रद-ऊष्मा से सनी-सनी
*
ठंड न लगने देगी यह
नेहिल नदी लहर सम बह
*
लड्डू, तिल-गुड़ गजक मधुर
खाकर हर्षित हम जी भर
*
सब दुनिया है दोरंगी
समझे तो मति हो चंगी
*
***
लघुकथा-
निर्दोष
*
उसने मनोरंजन के लिए अपने साथियों सहित जंगल में विचरण कर रहे पशुओं का वध कर दिया.
उसने मदहोशी में सडक के किनारे सोते हुए मनुष्यों को कार से कुचल डाला.
पुलिस-प्रशासन के कान पर जून नहीं रेंगी. जन सामान्य के आंदोलित होने और अखबारबाजी होने पर ऐसी धाराओं में वाद स्थापित किया गया कि जमानत मिल सके.
अति कर्तव्यनिष्ठ न्यायालय ने अतिरिक्त समय तक सुनवाई कर तत्क्षण फैसला दिया और जमानत के निर्णय की प्रति उपलब्ध कराकर खुद को धन्य किया.
बरसों बाद सुनवाई आरम्भ हुई तो एक-एक कर गवाह मरने या पलटने लगे.
दिवंगतों के परिवार चीख-चीख कर कहते रहे कि गवाहों को बचाया जाए पर कुछ न हुआ.
अंतत:, पुलिस द्वारा लगाये गए आरोप सिद्ध न हो पाने का कारण बताते हुए न्यायालय ने उसे घोषित कर दिया निर्दोष.
***
नवगीत
अभी नहीं
*
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
कृष्ण मृगों को
मारा तुमने
जान बचाकर भागे.
सोतों को कुचला
चालक को
किया आप छिप आगे.
कर्म आसुरी करते हैं जो
सहज न दंडित होते.
बहुत समय तक कंस-दशानन
महिमामंडित होते.
लेकिन
अंत बुरा होता है
समय करे निबटारा.
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
तुमने निर्दोषों को लूटा
फैलाया आतंक.
लाज लूट नारी की
निज चेहरे पर मलते पंक.
काले कोट
बचाते तुमको
अंधा करता न्याय.
मिटा साक्ष्य-साक्षी
जीते तुम-
बन राक्षस-पर्याय.
बोलो क्या आत्मा ने तुमको
कभी नहीं फटकारा?
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
जन प्रतिनिधि बन
जनगण-मन से
कपट किया है खूब.
जन-जन को
होती है तुमसे
बेहद नफरत-ऊब.
दाँव-पेंच, छल,
उठा-पटक हर
दिखा सुनहरे ख्वाब
करे अंत में निपट अकेला
माँगे समय जवाब.
क्या जाएगा साथ
कहो,
फैलाया खूब पसारा.
१८.१.२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १३
रूपमाला / मद / मदन / मदनावतारी छंद
लक्षण छंद:
रूपमाला रत्न चौदह, दस दिशा सम ख्यात।
कला गुरु-लघु रख चरण के, अंत उग प्रभात।।
नाग पिंगल को नमनकर, छंद रचिए आप्त।
नव रसों का पान करिए, 'सलिल' सुख मन-व्याप्त।।
*
तीन दो दो, तीन दो दो, तीन दो दो ताल
रूपमाला छंद की है यही उत्तम चाल - नारायण दास, हिंदी छ्न्दोलक्षण
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति पंक्ति मात्रा २४ मात्रा, यति चौदह-दस, पदांत गुरु-लघु (तगण, जगण), दो-दो पदों की तुकांतता।
मात्रा बाँट - २१२२ / २१२२ / २१२२ / २१, २१ के स्थान पर १११ भी मान्य। तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं मात्रा यथा संभव लघु।
*
उदाहरण:
१. देश ही सर्वोच्च है- दें, देश-हित में प्राण।
जो- उन्हीं के योग से है, देश यह संप्राण।।
करें श्रद्धा-सुमन अर्पित, यादकर बलिदान।
पीढ़ियों तक वीरता का, 'सलिल' होगा गान।।
२. वीर राणा अश्व पर थे, हाथ में तलवार।
मुगल सैनिक घेर करते, अथक घातक वार।।
दिया राणा ने कई को, मौत-घाट उतार।
पा न पाये हाय! फिर भी, दुश्मनों से पार।।
ऐंड़ चेटक को लगायी, अश्व में थी आग।
प्राण-प्राण से उड़ हवा में, चला शर सम भाग।।
पैर में था घाव फिर भी, गिरा जाकर दूर।
प्राण त्यागे, प्राण-रक्षा की- रुदन भरपूर।।
किया राणा ने, कहा: 'हे अश्व! तुम हो धन्य।
अमर होगा नाम तुम हो तात! सत्य अनन्य।।
३. रत्न दिसि कल रूपमाला, साजिए सानंद।
    रामही के शरण में रहि, पाइये आनंद।।
जातु हौ वन वादिही गल, बांधिके बहु तंत्र ।
धामहीं किन जपत कामद, रामनाम सुमंत्र।। - जगन्नाथ प्रसाद भानु
४. दृष्टि की धुँधली परिधि में, आ गया आकार।
बज गया आनंददायी, ह्रदयतंत्री तार।।
केश की काली घटा में, चंद्र सी मुख-छाप।
प्रीति-पथ पर फेंकती थी, ज्योति अपने आप।। - रामदेव लाल 'विभोर'
५. धडकनें मदहोश पागल, नयन छलके प्यार।
बोल कुछ बोलें नहीं लब, मौन सब व्यवहार।।
शांति, चिरस्थायित्व खुशियाँ, प्रीत के उपहार।
झूमता जब प्रेम-अँगना, बह चले रस-धार।। - डॉ. प्राची सिंह
६. गर बचाना चाहते हम आज यह संसार।
है जरूरी पेड़-पौधों से करें सब प्यार।।
पेड़ ही तो बनाते हैं मेघमय आकाश।
पेड़ वर्ष ला बुझाते इस धरा की प्यास।। - संजय मिश्र 'हबीब'
७.स्पर्श करने लगी लज्जा, ललित कर्ण कपोल।
खिला पुलक कदम्ब सा था, भरा गदगद बोल।। -जय शंकर प्रसाद, कामायनी
***
आइये कविता करें: ७
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एक और प्रयास.......
नव गीत
आभा सक्सेना
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सूरज ने छाया को ठगा १५
किरनों नेे दिया दग़ा १२
अब कौन है, जो है सगा १४
कांपता थर थर अंधेरा १४
कोहरे का धुन्ध पर बसेरा १७
जागता अल्हड़ सवेरा १४
रोशनी का अधेरों से १४
दीप का जली बाती से १४
रिश्तें हैं बहुत करीब से १५
कांपती झीनी सी छांव १४
पकड़ती धूप की बांह १३
ताकती एक और ठांव १४
इस नवगीत के कथ्य में नवता तथा गेयता है. यह मानव जातीय छंद में रचा गया है. शैल्पिक दृष्टि से बिना मुखड़े के ४ त्रिपंक्तीय समतुकान्ती अँतरे हैं. एक प्रयोग करते हैं. पहले अँतरे की पहली पंक्ति को मुखड़ा बना कर शेष २ पंक्तियों को पहले तीसरे अँतरे के अंत में प्रयोग किया गया है. दूसरे अँतरे के अंत में पंक्ति जोड़ी गयी है. आभा जी! क्या इस रूप में यह अपनाने योग्य है? विचार कर बतायें।
सूर्य ने ५
छाया को ठगा ९
काँपता थर-थर अँधेरा १४
कोहरे का है बसेरा १४
जागता अल्हड़ सवेरा १४
किरनों नेे ६
दिया है दग़ा ८
रोशनी का दीपकों से १४
दीपकों का बातियों से १४
बातियों का ज्योतियोँ से १४
नेह नाता ७
क्यों नहीं पगा ८
छाँव झीनी काँपती सी १४
बाँह धूपिज थामती सी १४
ठाँव कोई ताकती सी १४
अब कौन है ७
किसका सगा ७
१८.१.२०१५
***
कार्यशाला
आइये! कविता करें ६ :
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मुक्तक
आभा सक्सेना
कल दोपहर का खाना भी बहुत लाजबाब था, = २६
अरहर की दाल साथ में भुना हुआ कबाब था। = २६
मीठे में गाजर का हलुआ, मीठा रसगुल्ला था, = २८
बनारसी पान था पर, गुलकन्द बेहिसाब था।। = २६
लाजवाब = जिसका कोई जवाब न हो, अतुलनीय, अनुपम। अधिक या कम लाजवाब नहीं होता, भी'' से ज्ञात होता है कि इसके अतिरिक्त कुछ और भी स्वादिष्ट था जिसकी चर्चा नहीं हुई. इससे अपूर्णता का आभास होता है. 'भी' अनावश्यक शब्द है.
तीसरी पंक्ति में 'मीठा' और 'मीठे' में पुनरावृत्ति दोष है. गाजर का हलुआ और रसगुल्ला मीठा ही होता है, अतः यहाँ मीठा लिखा जाना अनावश्यक है.
पूरे मुक्तक में खाद्य पदार्थों की प्रशंसा है. किसी वस्तु का बेहिसाब अर्थात अनुपात में न होना दोष है, मुक्तककार का आशय दोष दिखाना प्रतीत नहीं होता। अतः, इस 'बेहिसाब' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त है.
कल दुपहर का खाना सचमुच लाजवाब था = २४
अरहर की दाल बाटी औ' भुना कवाब था = २४
गाजर का हलुआ खीर रसगुल्ला न भूलिए- = २५
गुलकंदी पान बनारसी भी खुशगवार था = २५
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छंद सलिला:
सुजान छंद
*
द्विपदीय मात्रिक सुजान छंद में चौदह तथा नौ मात्राओं पर यति तथा पदांत में गुरु-लघु का विधान होता है.
चौदह-नौ यति रख रचें, कविगण छंद सुजान
हो पदांत लघु-गुरु 'सलिल', रचना रस की खान
उदाहरण :
१. चौदह-नौ पर यति सुजान / में'सलिल'-प्रवाह
गुरु-लघु से पद-अंत करे, कवि पाये वाह
२. डर न मुझको किसी का भी / है दयालु ईश
देश-हित हँसकर 'सलिल' कर / अर्पित निज शीश
३. कोयल कूके बागों में / पनघट पर शोर
मोर नचे अमराई में / खेतों में भोर
* * *

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शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

जनवरी १७, सॉनेट, हास्य, सरस्वती, दोहागीत, बुंदेली, हाड़ौती, हिंदी ग़ज़ल, नवगीत

सलिल सृजन जनवरी १७
हास्य सॉनेट
दावत
*
दावत कुबूल कीजिए कविराज! आइए।
नेवता पठा रहीं हैं कवयित्रि जी हुलस।
क्या खूब खयाली पुलाव बना, खाइए।।
खट्टे करेंगीं दाँत एक साथ मिल पुलक।।

लोहे के चने चाब धन्यवाद दीजिए।
दिमाग का दही न सिर्फ दाल में काला।
मौन रह छठी का दूध याद कीजिए।।
किस खेत की मूली से पड़ गया पाला।।

घी में हुईं न अँगुलियाँ, टेढ़ी खीर है।
खट्टे हुए अंगूर पानी घड़ों पड़ गया।
हाय! गुड़ गोबर हुआ, नकली पनीर है।।
जले पे नमक व्यंग्य बाण कह छिड़क दिया।।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद देख लो।
दाल न गली तो तिल का ताड़ मत करो।।
०००
दंत निपोरी
रिक्त स्थान में हाँ या न लिखकर जानेंअपना सच
............ मैं इंसान नहीं, बंदर हूँ।
............ मैं ही पागल हूँ।
............ मेरे दिमाग का कोई इलाज नहीं।
............ मुझे पागलखाना जाना है।
०००
मुक्तक
मत हों अशांत, शांत रहें, शांति पाइए।
भज राधिका के कांत को कुछ कांति पाइए।।
कह देवकीनंदन यशोदा लाल यह रहा-
वसुदेव-नंद की तरह सब साथ आइए।।
१७.१.२०२५
०००
छंद शाला
दोहा २
दोहा में दो की प्रमुखता है।
दोहा ने दोहा सदा, शब्द गाय से अर्थ।
चुनता शब्द सटीक ही, तज अनर्थ या व्यर्थ।।
दोहा में दो पंक्तियाँ, कल-कल भाव प्रवाह।
अलंकार रस मिल करें, चमत्कार पा वाह।।
दो पद दोनों पंक्ति में, जैसे हों दिन-रात।
दो सम दो ही विषम हैं, रवि-शशि जैसे तात।।
विषम चरण आरंभ में, यदि मात्रिक दोहराव।
गति-यति लय की सहजता, सुगठित करें रचाव।।
सम चरणों के अंत में, गुरु-लघु है अनिवार्य।
तीनों लघु से अंत भी, हो सकता स्वीकार्य।।
कारक का उपयोग कम, करिए रहे कसाव।
संयोजक शब्दों बिना, बेहतर करें निभाव।।
सुमिर गुनगुना साधिए, दोहे की लय मीत।
अलंकार लालित्यमय, मोहें करिए प्रीत।।
१७.१.२०२४
•••
विश्व स्वास्थ्य दिवस 
: महत्वपूर्ण मानक :
०१.रक्त चाप : १२०/८० 
०२. नाड़ी : ७०-१०० 
०३. तापमान: ३६.८-३७ 
०४. श्वास: १२-१६
०५. हीमोग्लोबिन: पुरुष - १३.५-२८, स्त्री - ११.५-१६ 
०६.कोलेस्ट्रॉल: १३०-२०० 
०७.पोटेशियम: ३.५-५ 
०८. सोडियम: १३५-१४५ 
०९. ट्राइग्लिसराइड्स: २२० 
१०. शरीर में खून की मात्रा: पीसीवी ३०%-४०%
११. शुगर लेवल: बच्चे ७०-१३०,  वयस्क: ७०-११५ 
१२. आयरन :८-१५  मिलीग्राम
१३. श्वेत रक्त कोशिकाएँ WBC: ४,०००-११,००० 
१४. प्लेटलेट्स: १,५०,०००-४,००,००० 
१५. लाल रक्त कोशिकाएँ आरबीसी: ४.५-६.०  मिलियन।
१६. कैल्शियम: .६-१०.३ mg/dL
१७. विटामिन डी३: २०-५०  एनजी/एमएल।
१८. विटामिन B१२: २००-९०० पीजी/एमएल।
स्वास्थ्य सूत्र :
१:  पानी पिएँ, किसी को पानी पिलाने का विचार छोड़ दें। अधिकांश स्वास्थ्य समस्याएँ शरीर में पानी की कमी से होती हैं। 
२: शरीर से जितना हो सके उतना काम करें, शरीर को चल, तैर या खेल कर गतिशील रखें।
३: भूख से कम खाएँ। ज्यादा खाने की लालसा छोड़ें। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जीवन सत्व (विटामिन) युक्त खाद्य पदार्थों का अधिक प्रयोग करें।
४:  वाहन का प्रयोग अत्यंत आवश्यक होने पर ही करें। अधिक से अधिक चलने की कोशिश करें। लिफ्ट, एस्केलेटर पर सीढ़ी को वरीयता दें। ५;  गुस्सा-चिंता करना छोड़ दें। अप्रियबातों को अनदेखा करें। सकारात्मक लोगों से बात करें और उनकी बात सुनें।
६:  छठा निर्देश सबसे पहले धन, स्वाद और ईर्ष्या का मोह त्याग दें। 
७: जो न पा सकें उसे भूल जाइए। दूसरों को क्षमा करें। 
८: धन, पद, प्रतिष्ठा, शक्ति, सौंदर्य, मोह और अहंकार तजें । विनम्र बनें।
९:  सच को स्वीकारें। बुढ़ापा जीवन का अंत नहीं है। पूर्णता की शुरुआत है। आशावादी रहें, परिस्थितियों का आनंद लें। 
***
बुंदेली वंदना
सारद माँ
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे!।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउं चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
ध्यान धरूँ आ दरसन देओ।
सुन्दर छबि दिखला दे रे!।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा माँ पधराओ
तबआगे बढ़ पाऊँ ना।।
थाम अँगुरिया राह दिखाखें।
मंज़िल तक पहुँचा दे रे!।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
***
सॉनेट
कण-कण में जो बस रहा
सकल सृष्टि जो रच रहा
कहिए किसके बस रहा?
बाँच रहा, खुद बँच रहा।
हँसा रहा चुप हँस रहा
लगे झूठ पर सच कहा
जीव पंक में फँस रहा
क्यों न मोह से बच रहा।
काल निरंतर डँस रहा
महाकाल जो नच रहा
बाहुबली में कस रहा
जो वह प्रेमिल टच रहा।
सबको प्रिय निज जस रहा।
कौन कहे टू मच रहा।।
१७-१-२०२२
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
हाड़ौती
सरस्वती वंदना
*
जागण दै मत सुला सरसती
अक्कल दै मत रुला सरसती
बावन आखर घणां काम का
पढ़बो-बढ़बो सिखा सरसती
ज्यूँ दीपक; त्यूँ लड़ूँ तिमिर सूं
हिम्मत बाती जला सरसती
लीक पुराणी डूँगर चढ़बो
कलम-हथौड़ी दिला सरसती
आयो हूँ मैं मनख जूण में
लख चौरासी भुला सरसती
नांव सुमरबो घणूं कठण छै
चित्त न भटका, लगा सरसती
जीवण-सलिला लांबी-चौड़ी
धीरां-धीरां तिरा सरसती
१८-११-२०१९
***
मुक्तिका
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
'सुधर जा' संदेश देती है सदा
न हो फिर जो भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका या गीतिका या पूर्णिका
तेवरी का तूल है हिंदी गजल
.
सजल अरु अनुगीत में भी समाहित
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
.
१७.९.२०१८
***
सामयिक लेख
हिंदी के समक्ष समस्याएं और समाधान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल सृष्टि में भाषा का विकास दैनंदिन जीवन में और दैनन्दिन जीवन से होता है। भाषा के विकास में आम जन की भूमिका सर्वाधिक होती है। शासन और प्रशासन की भूमिका अत्यल्प और अपने हित तक सीमित होती है। भारत में तथाकथित लोकतंत्र की आड़ में अति हस्तक्षेपकारी प्रशासन तंत्र दिन-ब-दिन मजबूत हो रहा है जिसका कारण संकुचित-संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ तथा बढ़ती असहिष्णुता है। राजनीति जब समाज पर हावी हो जाती है तो सहयोग, सद्भाव, सहकार और सर्व स्वीकार्यता ​के लिए स्थान नहीं रह जाता। दुर्भाग्य से भाषिक परिवेश में यही वातावरण है। हर भाषा-भाषी अपनी सुविधा के अनुसार देश की भाषा नीति चाहता है। यहाँ तक कि परंपरा, प्रासंगिकता, भावी आवश्यकता या भाषा विकास की संभावना के निष्पक्ष आकलन को भी स्वीकार्यता नहीं है।
निरर्थक प्रतिद्वंद्विता
संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित होने की दिशाहीन होड़ जब-तब जहाँ-तहाँ आंदोलन का रूप लेकर लाखों लोगों के बहुमूल्य समय, ऊर्जा तथा राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश का कारण बनता है। ८वीं अनुसूची में जो भाषाएँ सम्मिलित हैं उनका कितना विकास हुआ या जो भाषाएँ सूची में नहीं हैं उनका कितना विकास अवरुद्ध हुआ इस का आकलन किये बिना यह होड़ स्थानीय नेताओं तथा साहित्यकारों द्वारा निरंतर विस्तारित की जाती है। विडंबना यह है कि 'राजस्थानी' नाम की किसी भाषा का अस्तित्व न होते हुए भी उसे राज्य की अधिकृत भाषा घोषित कर दिया जाता है और उसी राज्य में प्रचलित ५० से अधिक भाषाओँ के समर्थक पारस्परिक प्रतिद्वंदिता के कारण यह होता देखते रहते हैं।
राष्ट्र भाषा और राज भाषा
राज-काज चलाने के लिए जिस भाषा को अधिसंख्यक लोग समझते हैं उसे राज भाषा होना चाहिए किंतु विदेशी शासकों ने खुद कि भाषा को गुलाम देश की जनता पर थोप दिया। उर्दू और अंग्रेजी इसी तरह थोपी और बाद में प्रचलित रह गयीं भाषाएँ हैं. शासकों की भाषा से जुड़ने की मानसिकता और इनका उपयोग कर खुद को शासक समझने की भ्रामक धारणा ने इनके प्रति आकर्षण को बनाये रखा है। देश का दुर्भाग्य कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजीप्रेमी प्रशासक और भारतीय अंग्रेज प्रधान मंत्री के कारण अंग्रेजी का महत्व बना रहा तथा राजनैतिक टकराव में भाषा को घसीट कर हिंदी को विवादस्पद बना दिया गया।
किसी देश में जितनी भी भाषाएँ जन सामान्य द्वारा उपयोग की जाती हैं, उनमें से कोई भी अराष्ट्र भाषा नहीं है अर्थात वे सभी राष्ट्र भाषा हैं और अपने-अपने अंचल में बोली जा रही हैं, बोली जाती रहेंगी। निरर्थक विवाद की जड़ मिटाने के लिए सभी भाषाओँ / बोलियों को राष्ट्र भाषा घोषित कर अवांछित होड़ को समाप्त किया जा सकता है। इससे अनचाहे हो रहा हिंदी-विरोध अपने आप समाप्त हो जाएगा। ७०० से अधिक भाषाएँ राष्ट्र भाषा हो जाने से सब एक साथ एक स्तर पर आ जाएँगी। हिंदी को इस अनुसूची में रखा जाए या निकाल दिया जाए कोई अंतर नहीं पड़ना है। हिंदी विश्व वाणी हो चुकी है। जिस तरह किसी भी देश का धर्म न होने के बावजूद सनातन धर्म और किसी भी देश की भाषा न होने के बावजूद संस्कृत का अस्तित्व था, है और रहेगा वैसे ही हिंदी भी बिना किसी के समर्थन और विरोध के फलती-फूलती रहेगी।
शासन-प्रशासन के हस्तक्षेप से मुक्ति
७०० से अधिक भाषाएँ/बोलियां राष्ट्र भाषा हो जाने पाए पारस्परिक विवाद मिटेगा, कोई सरकार इन सबको नोट आदि पर नहीं छाप सकेगी। इनके विकास पर न कोई खर्च होगा, न किसी अकादमी की जरूरत होगी। जिसे जान सामान्य उपयोग करेगा वही विकसित होगी किंतु राजनीति और प्रशासन की भूमिका नगण्य होगी।
हिंदी को प्रचार नहीं चाहिए
विडम्बना है कि हिंदी को सर्वाधिक क्षति तथाकथित हिंदी समर्थकों से ही हुई और हो रही है। हिंदी की आड़ में खुद के हिंदी-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटनेवाले व्यक्तियों और संस्थाओं ने हिंदी का कोई भला नहीं किया, खुद का प्रचार कर नाम और नामा बटोर तथा हिंदी-विरोध के आंदोलन को पनपने का अवसर दिया। हिंदी को ऐसी नारेबाजी और भाषणबाजी ने बहुत हानि पहुँचाई है। गत जनवरी में ऐसे ही हिंदी प्रेमी भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और सरकार की प्रशंसा में कसीदे पढ़कर साहित्य और भाषा में फूट डालने का काम कर रहे थे। उसी सरकार की हिंदी विरोधी नीतियों के विरोध में ये बगुला भगत चुप्पी साधे बैठे हैं।
हिंदी समर्थक मठाधीशों से हिंदी की रक्षा करें
हिंदी के नाम पर आत्म प्रचार करनेवाले आयोजन न हों तो हिंदी विरोध भी न होगा। जब किसी भाषा / बोली के क्षेत्र में उसको छोड़कर हिंदी की बात की जाएगी तो स्वाभाविक है कि उस भाषा को बोलनेवाले हिंदी का विरोध करेंगे। बेहतर है कि हिंदी के पक्षधर उस भाषा को हिंदी का ही स्थानीय रूप मानकर उसकी वकालत करें ताकि हिंदी के प्रति विरोध-भाव समाप्त हो।
हिंदी सम्पर्क भाषा
किसी भाषा/बोली को उस अंचल के बाहर स्वीकृति न होने से दो विविध भाषाओँ/बोलियों के लोग पारस्परिक वार्ता में हिंदी का प्रयोग करेंगे ही। तब हिंदी की संपर्क भाषा की भूमिका अपने आप बन जाएगी। आज सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को प्रतिस्पर्धी मानकर उसका विरोध कर रही हैं, तब सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को अपना पूरक मानकर समर्थन करेंगी। उन भाषाओँ/बोलियों में जो शब्द नहीं हैं, वे हिंदी से लिए जाएंगे, हिंदी में भी उनके कुछ शब्द जुड़ेंगे। इससे सभी भाषाएँ समृद्ध होंगी।
हिंदी की सामर्थ्य और रोजगार क्षमता
हिंदी के हितैषियों को यदि हिंदी का भला करना है तो नारेबाजी और सम्मेलन बन्द कर हिंदी के शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाएं। इसके लिए हर विषय हिंदी में लिखा जाए। ज्ञान - विज्ञान के हर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग किया जाए। हिंदी के माध्यम से वार्तालाप, पत्राचार, शिक्षण आदि के लिए शासन नहीं नागरिकों को आगे आना होगा। अपने बच्चों को अंग्रेजी से पढ़ाने और दूसरों को हिंदी उपदेश देने का पाखण्ड बन्द करना होगा।
हिंदी की रोजगार क्षमता बढ़ेगी तो युवा अपने आप उस ओर जायेंगे। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और इस बाजार में आम ग्राहक सबसे ज्यादा हिंदी ही समझता है। ७०० राष्ट्र भाषाएँ तो दुनिया का कोई देश या व्यापारी नहीं सीख-सिखा सकता इसलिए विदेशियों के लिए हिंदी ही भारत की संपर्क भाषा होगी. स्थिति का लाभ लेने के लिए देश में द्विभाषी रोजगार पार्क पाठ्यक्रम हों। हिंदी के साथ कोई एक विदेशी भाषा सीखकर युवजन उस देश में जाकर हिंदी सिखाने का काम कर सकेंगे। ऐसे पाठ्यक्रम हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के साथ बेरोजगारी कम करेंगे। कोई दूसरी भारतीय भाषा इस स्थिति में नहीं है कि यह लाभ ले और दे सके।
हिंदी में हर विषय की किताबें लिखी जाने की सर्वाधिक जरूरत है। यह कार्य सरकार नहीं हिंदी के जानकारों को करना है। किताबें अंतरजाल पर हों तो इन्हें पढ़ा-समझ जाना सरल होगा। हिंदी में मूल शोध कार्य हों, केवल नकल करना निरर्थक है। तकनीकी, यांत्रिकी, विज्ञान और अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी में पर्याप्त साहित्य की कमी तत्काल दूर की जाना जरूरी है। हिंदी की सरलता या कठिनता के निरर्थक व्यायाम को बन्द कर हिंदी की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा। हिंदी अन्य भारतीय भाषाओँ को गले लगाकर ही आगे बढ़ सकती है, उनका गला दबाकर या गला काटकर हिंदी भी आपने आप समाप्त हो जाएगी।
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मुक्तिका
*
नाव ले गया माँग, बोल 'पतवार तुम्हें दे जाऊँगा'
यह न बताया सलिल बिना नौका कैसे खे पाऊँगा?
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कहा 'अनुज' हूँ, 'अग्रज' जैसे आँख दिखाकर चला गया
कोई बताये क्या उस पर आशीष लुटाने आऊँगा?
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दर्पण दरकाया संबंधों का, अनुबंधों ने बरबस
प्रतिबंधों के तटबंधों को साथ नहीं ले पाऊँगा
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आ 'समीप' झट 'दूर' हुआ क्यों? बेदर्दी बतलाए तो
यादों के डैनों-नीचे पीड़ा चूजे जन्माऊँगा
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अंबर का विस्तार न मेरी लघुता को सकता है नाप
बिंदु सिंधु में समा, गीत पल-पल लहरों के गाऊँगा
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बुद्धि विनीतामय विवेक ने गर्व त्याग हो मौन कहा
बिन अवधेश न मैं मिथलेश सिया को अवध पठाऊँगा
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कहो मुक्तिका सजल तेवरी ग़ज़ल गीतिका या अनुगीत
शब्द-शब्द रस भाव बिंब लय सलिला में नहलाऊँगा
१७-१-२०१७ 
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समीक्षा:
आश्वस्त करता नवगीत संग्रह 'सड़क पर'
देवकीनंदन 'शांत'
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[कृति विववरण: सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१८, आकार २१ x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, कलाकार मयंक वर्मा, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com]
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मुझे नवगीत के नाम से भय लगने लगा है। एक वर्ष पूर्व ५० नवगीत लिखे। नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना जो हमें वर्षों से जानते हैं, ने कई महीनों तक रखने के पश्चात् ज्यों का त्यों हमें मूल रूप में लौटते हुए कहा कि गीत के हिसाब से सभी रचनाएँ ठीक हैं किंतु 'नवगीत' में तो कुछ न कुछ नया होना ही चाहिए। हमने उनके डॉ. सुरेश और राजेंद्र वर्मा के नवगीत सुने हैं। अपने नवगीतों में जहाँ नवीनता का भाव आया, हमने प्रयोग भी किया जो अन्य सब के नवगीतों जैसा ही लगा लेकिन आज तक वह 'आँव शब्द समझ न आया जो मधुकर जी चाहते थे। थकहार कर हमने साफ़-साफ़ मधुकर जी की बात कह दी डॉ. सुरेश गीतकार से जिन्होंने कहा कि सजन्त जी! आप चिंता न करें हमने नवगीत देखे हैं, बहुत सुंदर हैं लेकिन हम इधर कुछ अस्त-व्यस्त हैं, फिर भी शीघ्र ही आपको बुलाकर नवगीत संग्रह दे देंगे। आज ४ माह हो चुके हैं, अब थक हार कर हम बगैर उनकी प्रतिक्रिया लिए वापस ले लेंगे।
यह सब सोचकर 'सड़क पर' अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में हाथ काँप रहा है। तारीफ में कुछ लिखा तो लोग कहेंगे ये ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, छंद और लोकगीत का कवि नवगीत के विषय में क्या जाने? तारीफ पर तारीफ जबरदस्ती किये जा रहा है। यदि कहीं टिप्पणी या आलोचनात्मक बात कह दी तो यही नवगीत के बने हुए आचार्य हमें यह कहकर चुप करा देंगे कि जो नवगीत प्रशंसा के सर्वतः तयोग्य था, उसी की यह आलोचना? आखिर है तो ग़ज़ल और लोक गीतवाला, नवगीत क्या समझेगा? हमें सिर्फ यह सोचकर बताया जाए कि कि नवगीत लिखनेवाले कवि क्या यह सोचकर नवगीत लिखते हैं कि इन्हें सिर्फ वही समझ सकता है जो 'नवगीत' का अर्थ समझता हो?
हम एक पाठक के नाते अपनी बात कहेंगे जरूर....
सर्वप्रथम सलिल जी प्रथम नवगीत संग्रह "काल है संक्रांति का" पर निकष के रूप में निम्न साहित्यकारों की निष्पक्ष टिप्पणी हेतु अभिवादन।
* श्री डॉ. सुरेश कुमार वर्मा का यह कथन वस्तुत: सत्य प्रतीत होता है -
१. कि मुचुकुन्द की तरह शताब्दियों से सोये हुए लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है और
२. 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है।
बीएस एक ही कशिश डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने जो जबलपुर के एक भाषा शास्त्री, व्याख्याता हैं ने अपनी प्रतिक्रिया में "काल है संक्रांति का" सभी गीतों को सहज गीत के रूप में हे ेदेखा है। 'नवगीत' का नाम लेना उनहोंने मुनासिब नहीं समझा।
* श्री (अब स्व.) चन्द्रसेन विराट जो विख्यात कवि एवं गज़लकार के रूप में साहित्य जगत में अच्छे-खासे चर्चित रहे हैं। इंदौर से सटीक टिप्पणी करते दिखाई देते हैं- " श्री सलिल जी की यह पाँचवी कृति विशुद्ध 'नवगीत' संग्रह है। आचार्य संजीव सलिल जी ने गीत रचना को हर बार नएपन से मंडित करने की कोशिश की है। श्री विराट जी अपने कथन की पुष्टि आगे इस वाक्य के साथ पूरी करते हैं- 'छंद व कहन' का नयापन उन्हें सलिल जी के नवगीत संग्रह में स्पष्ट दिखाई देना बताता है कि यह टिप्पणी नवगीतकार की न होकर किसी मंजे हुए कवी एवं शायर की है - जो सलिल के कर्तृत्व से अधिक विराट के व्यक्तित्व को मुखर करता है।
* श्री रामदेवलाल 'विभोर' न केवल ग़ज़ल और घनाक्षरी के आचार्य हैं बल्कि संपूर्ण हिंदुस्तान में उन्हें समीक्षक के रूप में जाना जाता है- " कृति के गीतों में नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा की दृष्टी से लक्षण-व्यंजना शब्द शक्तियों का वैभव भरा है। वे आगे स्पष्ट करते हैं कि बहुत से गीत नए लहजे में नव्य-दृष्टी के पोषक हैं। यही उपलब्धि उपलब्धि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को नवगीतकारों की श्रेणी में खड़ा करने हेतु पर्याप्त है।
* डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई बड़ी साफगोई के साथ रेखांकित कर देते हैं कि भाई 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है "काल है संक्रांति का" कृति। नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना 'सलिल' जी को नवगीतकार मानने हेतु विवश करती है। कृति के सभी नवगीत एक से एक बढ़कर सुंदर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। वे एक सुधी समीक्षक, श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ साहित्यकार हैं लेकिन गीत और नवगीतों दोनों का जिक्र वे करते हैं- पाठकों को सोचने पर विवश करता है।
* शेष समीक्षाकारों में लखनऊ के इंजी. संतोष कुमार माथुर, राजेंद्र वर्मा, डॉ. श्याम गुप्ता तथा इंजी. अमरनाथ जी ने 'गीत-नवग़ीत, तथा गीत-अगीत-नवजीत संग्रह कहकर समस्त भ्रम तोड़ दिए।
* इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार समीक्षक जबलपुर ने अपनी कलम तोड़कर रख दी यह कहकर कि "सलिल जैसे नवगीतकार ही हैं जो लीक से हटने का साहस जुटा पा रहे हैं, जो छंद को साध रहे हैं और बोध को भी। सलिल जी के गीतों/नवगीतों को लय-ताल में गाया जा सकता है।
अंत में "सड़क पर", आचार्य संजीव 'सलिल' की नवीनतम पुस्तक की समीक्षा उस साहित्यकार-समीक्षक के माध्यम से जिसने विगत दो दशकों तक नवगीत और तीन दशकों से मधुर लयबढ़ गीत सुने तथा विगत दस माह से नवगीत कहे जिन्हें लखनऊ के नवगीतकार नवगीत इसलिए नहीं मानते क्योंकि यह पारम्परिक मधुरता, सहजता एवं सुरीले लय-ताल में निबद्ध हैं।
१. हम क्यों निज भाषा बोलें? / निज भाषा पशु को भाती / प्रकृति न भूले परिपाटी / संचय-सेक्स करे सीमित / खुद को करे नहीं बीमित / बदले नहीं कभी चोलें / हम क्यों निज भाषा बोलें?
आचार्य संजीव 'सलिल' ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार कर लिया है कि 'नव' संज्ञा नहीं, विशेषण के रूप में ग्राह्य है। गीत का उद्गम कलकल-कलरव की लय (ध्वन्यात्मक उतार-चढ़ाव) है। तदनुसार 'गीत' का नामकरण लोक गीत, ऋतु गीत, पर्व गीत, भक्ति गीत, जनगीत, आव्हान गीत, जागरण गीत, नव गीत, बाल गीत, युवा गीत, श्रृंगार गीत, प्रेम गीत, विरह गीत, सावन गीत आदि हुआ।
परिवर्तन की 'सड़क पर' कदम बढ़ाता गीत-नवगीत, समय की चुनौतियों से आँख मिलता हुआ लोकाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना है। नव भाव-भंगिमा में प्रस्तुत होनेवाला प्रत्येक गीत नवगीत है जो हमारे जीवन की उत्सानधर्मिता, उमंग, उत्साह, उल्लास, समन्वय तथा साहचर्य के तत्वों को अंगीकार कर एकात्म करता है। पृष्ठ ८६ से ९६ तक के गीतों की बोलिया बताएंगी कि उन्हें "सड़क पर" कदम बढ़ाते नवगीत क्यों न कहा जाए?
सड़क पर सतत ज़िंदगी चल रही है / जमूरे-मदारी रुँआसे सड़क पर / बसर ज़िंदगी हो रहे है सड़क पर / सड़क को बेजान मत समझो / रही सड़क पर अब तक चुप्पी, पर अब सच कहना ही होगा / सड़क पर जनम है, सड़क पर मरण है, सड़क खुद निराश्रित, सड़क ही शरण है / सड़क पर आ बस गयी है जिंदगी / सड़क पर, फिर भीड़ ने दंगे किये / दिन-दहाड़े, लुट रही इज्जत सड़क पर / जन्म पाया था, दिखा दे राह सबको, लक्ष्य तक पहुँचाए पर पहुंचा न पाई, देख कमसिन छवि, भटकते ट्रक न चूके छेड़ने से, हॉर्न सुनकर थरथराई पा अकेला, ट्रॉलियों ने चींथ डाला, बमुश्किल, चल रही हैं साँसें सड़क पर।
सड़क पर ऐसा नवगीत संग्रह है जिसे हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो कवी हो, अकवि हो पर सहृदय हो।
६.१.२०१९
संपर्क: १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष ९९३५२१७८४१
***
समय
*
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है।
*
समय रहता मौन
गुपचुप देखता सब।
आप माने या न माने
देखता कब?
चाल चलता
बिना पूछे या बताये
हेरते हैं आप
उसकी चाल जब-तब।
वृत्त का आरंभ या
आखिर न देखा
तो कहें क्या
वृत्त ही भास्वर नहीं है?
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है.
*
समय को असमय
करें मत काल-कवलित
समय असमय में
नहीं क्या रहा करता?
सदा सुसमय बन
रहे वह साथ बेहतर
देव कुसमय से
सदा ही मनुज डरता।
समय ने सामर्थ्य दी
तुझको मनुज, ले मान
वह वेटर नहीं है।
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है।
१७.१.२०१६
***
नवगीत:
.
कल का अपना
आज गैर है
.
मंज़िल पाने साथ चले थे
लिये हाथ में हाथ चले थे
दो मन थे, मत तीन हुए फिर
ऊग न पाये सूर्य ढले थे
जनगण पूछे
कहें: 'खैर है'
.
सही गलत हो गया अचंभा
कल की देवी, अब है रंभा
शीर्षासन कर रही सियासत
खड़ा करे पानी पर खंभा
आवारापन
हुआ सैर है
.
वही सत्य है जो हित साधे
जन को भुला, तंत्र आराधे
गैर शत्रु से अधिक विपक्षी
चैन न लेने दे, नित व्याधे
जन्म-जन्म का
पला बैर है
===
नवगीत:
.
कल के गैर
आज है अपने
.
केर-बेर सा संग है
जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे
बदला ऐसा रंग है
चाह पूर्ण हों
अपने सपने
.
जो सत्ता के साथ है
उसका ऊँचा माथ है
सिर्फ एक है वही सही
सच नाथों का नाथ है
पल में बदल
गए हैं नपने
.
जैसे भी हो जीत हो
कैसे भी रिपु मीत हो
नीति-नियम बस्ते में रख
मनमाफिक हर रीत हो
रोज मुखौटे
चहिए छपने
.
१६.१. २०१५
***
आइये कविता करें: ५
आज हमारे सम्मुख आभा सक्सेना जी के ३ दोहे हैं।
दोहा द्विपदिक (दो पंक्तियों का), चतुश्चरणिक (चार चरणों का), अर्द्धसम मात्रिक छंद है।
दोहा की दोनों पंक्तियों में १३-११, १३-११ मात्राएँ होती हैं। छंद प्रभाकर के अनुसार तेरह मात्रीय विषम चरणारंभ में एक शब्द में जगण (१२१) वर्जित कहा जाता है। दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं होता। विषम चरणांत में सगण (लघु लघु गुरु), रगण (गुरु लागु गुरु) या नगण (लघु लघु लघु) का विधान है। ग्यारह मात्रीय सम (२,४) चरणों में चरणांत में जगण (लघु गुरु लघु) या तगण (गुरु गुरु लघु) सारतः गुरु लघु आवश्यक है।
लघु-गुरु मात्रा के विविध संयोजनों के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं। दोहा नाम-गुरु मात्रा-लघु मात्रा-कुल वर्ण क्रमशः इस प्रकार हैं: भ्रमर २२-४-२६, भ्रामर २१-६-२७, शरभ २०-८-२८, श्येन १९-१०-२९, मंडूक १८-१२-३०, मर्कट १७-१४-३१ , करभ १६-१६-३२, नर १५-१८-३३, हंस १४- २०-३४, गयंद १३-२२-३५, पयोधर १२-२४-३६, बल ११-२६-३७, पान १०-२८-३८, त्रिकल ९-३०-३९, कच्छप ८-३२-४०, मच्छ ७-३४-४१, शार्दूल ६-३६-४२, अहिवर ५-३८-४३, व्याल ४-४०-४४, विडाल ३-४२-४५, श्वान २-४४-४६, उदर १-४६-४७, सर्प ०-४८-४८।
दोहा की विशेषता १. संक्षिप्तता (कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहना), २. लाक्षणिकता (संकेत या इंगित से कहना, विस्तार की कल्पना पाठक के लिये छोड़ना), ३. मार्मिकता या बेधकता (मन को छूना या भेदना), ४. स्पष्टता (साफ़-साफ़ कहना), ५. सरलता (अनावश्यक क्लिष्टता नहीं), ६. सम-सामयिकता तथा ७. युगबोध है। बड़े ग्रंथों में मंगलाचरण अथवा आरम्भ दोहों से करने की परंपरा रही है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में दोहा का उपयोग चौपाई समूह के अंत में कड़ी के रूप में किया है।
दोहा कालजयी और सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। दोहा रचना के उक्त तथा नया नियमों का सार यह है की लय भंग नहीं होना चाहिए। लय ही छंद का प्राण है। दोहे में अन्त्यानुप्रास (पंक्त्यांत में समान वर्ण) उसकी लालित्य वृद्धि करता है।
.
१. क्यारी क्यारी खिल रहे, हरे हरे से पात
पूछ रहे हर फूल से, उनसे उनकी जात।।
यह दोहा मात्रिक संतुलन के साथ रचा गया है। द्वितीय पंक्ति में कथ्य में दोष है। 'फूल से' और 'उनसे' दोनों शब्दों का प्रयोग फूल के लिए ही हुआ है, दूसरी ओर कौन पूछ रहा है? यह अस्पष्ट है। केवल एक शब्द बदल देने से यह त्रुटि निराकृत हो सकती है:
क्यारी-क्यारी खिल रहे, हरे-हरे से पात
पूछ रहे हर फूल से, भँवरे उनकी जात
कुछ और बदलाव से इस दोहे को एक विशेष आयाम मिलता है और यह राजनैतिक चुनावों के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट हो जाता है:
क्यारी-क्यारी खिल रहे, हरे-हरे से पात
पूछ रहे जन फूल को, भँवरे नेता जात
.
२. कठिनाई कितनी पड़ें, ना घबराना यार
सुख के दिन भी आयेंगे, दुख आयें जित बार।।
इस दोहे के तीसरे चरण में १४ मात्रा होने से मात्राधिक्य दोष है। खड़ी (टकसाली) हिंदी में 'न' शुद्ध तथा 'ना' अशुद्ध कहा गया है। इस दृष्टि से 'जित' अशुद्ध क्रिया रूप है, शुद्ध रूप 'जितनी' है। कठिनाई 'पड़ती' नहीं 'होती' है। इस दोहे को निम्न रूप देना ठीक होगा क्या? विचार करें:
कितनी हों कठिनाइयाँ, मत घबराना यार
सुख के दिन भी आएँगे, दुःख हो जितनी बार
३. रूखा सूखा खाइके, ठंडा पानी पीव
क्या करें बताइये जब, चाट मांगे जीभ।।
इस दोहे के सम चरणान्त में अन्त्यानुप्रास न मिलने से तुकांत दोष है। 'खाइके' तथा 'पीव' अशुद्ध शब्द रूप हैं। द्वितीय पंक्ति में लय भंग है, चतुर्थ चरण में १० मात्राएँ होने से मात्राच्युति दोष है। कथ्य में हास्य का पुट है किंतु दोहे के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के कथ्य में अंतर्संबंध नहीं है।
रूखा-सूखा जो मिले, खा कर ले जल-पान।
जीभ माँगती चाट दें, प्रगटें दयानिधान।।
यहाँ इंगित सुधार अन्य काव्य विधाओं के लिए भी उपयोगी हैं, इन्हें दोहा तक सीमित मत मानिये।
***
हास्य सलिला:
चाय-कॉफी
*
लाली का आदेश था: 'जल्दी लाओ कॉफ़ी
देर हुई तो नहीं मिलेगी ए लालू जी! माफ़ी'
लालू बोले: 'मैडम! हमको है तुमरी परवाह
का बतलायें अधिक सोनिया जी से तुमरी चाह
चाय बनायी गरम-गरम पी लें, होगा आभार'
लाली डपटे: 'तनिक नहीं है तुममें अक्कल यार
चाय पिला मोड़ों-मोड़िन को, कॉफी तुरत बनाओ
कहे दुर्गत करवाते हो? अपनी जान बचाओ
लोटा भर भी पियो मगर चैया होती नाकाफ़ी
चम्मच भर भी मिले मगर कॉफ़ी होती है काफ़ी'
१७.१.२०१४
***
नवगीत:
सड़क पर....
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा माँगता है.
कलियों से काँटा
डरा-काँपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
१७-१-२०११
***



गुरुवार, 16 जनवरी 2025

हिमकर श्याम, समीक्षा, दिल बंजारा

कृति चर्चा
: समय साक्षी गजल संकलन 'दिल बंजारा' :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण : दिल बंजारा, ग़ज़ल संग्रह, हिमकर श्याम, पृष्ठ १२५, मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, संपर्क ८६०३१७१७१०]   
*
                    भारतीय भाषाओं की द्विपदियों ने समय के साथ साक्षात करते हुए खुद को विविध रूपों में ढाला है। संस्कृत में श्लोक, हिंदी में दोहा-सोरठा और फारसी में शे'र के रूप में कथ्य और शिल्प के विविध संयोजनों और रंगों ने अपने समय का सच उद्घाटित किया। दोहों और शे'रों (अशआर) में अर्थ गांभीर्य और नफासत गीति-सलिला के दो किनारों की तरह सतत प्रवाहमान रहे हैं। काव्य सत्य के शूल को कल्पना के फूल के साथ ग्रहणीय बनाने की कला है। इस कला को साधना पीर और धीर, दर्द और हर्ष को साँस-साँस, साथ-साथ जीने की तरह है। हिमकर श्याम सोते-जागते इस अंतर्विरोध को बखूबी जीते रहे हैं। समय ने उनकी कड़ी परीक्षा ली है और वे समय की आँखों में आँखेँ डालकर हर बार जीतते आए हैं। उनकी गजलें इस संघर्ष को बखूबी बयान करती है। 

                    ये गजलें किसी भाषा की सरहदों में कैद नहीं हैं, ये आम आदमी की जुबान की कायल हैं। जज़्बात बयानी के लिए जब जहाँ जो शब्द सटीक लगा उसे लेने में हिमकर को गुरेज नहीं है। दोहकार-गजलकार-कवि हिमकर छंद और बह्र दोनों को गंभीरता से लेते हैं। उनके दोहे हिंदी के मात्रा और लय के अनुसार लिखे जाते हैं तो शे'र बह्र के वज़्न और तरन्नुम का खयाल रखते हैं। मौजूदा दौर में अदब में छा रहे छिछोरेपन और नकारात्मकता को दरकिनार करते हुए हिमकर 'है' पर 'हो' को वरीयता देते हुए गजल को आशिकों-माशूक की हसीन गुफ्तगू नहीं, आम लोगों के जद्दोजहद और उम्मीदों का तब्सिरा मानते हैं। उनके लिए लिखना पेशा नहीं पूजा है। 

                    दीवान की शुरुआत में ही गजलकार अदब में हाथ आजमाने का मकसद बयां करता है- 

मिटाना हर बुराई चाहता हूँ / जमाने की भलाई चाहता हूँ
लकीरों से नहीं हारा अभी मैं / मुकद्दर से लड़ाई चाहता हूँ  


                    हर हाल में हिम्मत और हौसले के झण्डा बुलंद कर हार रहे लोगों को जीतने का रास्ता दिखाती गजलें फारस नहीं, भारत की माटी और संस्कार की थाती सम्हाले है- 

राह मुश्किल सही हौसला कीजिए / क्या किसी का यहाँ आसरा कीजिए 
धर्म क्या, जात क्या देखिए खूबियाँ / फ़र्क अच्छे-बुरे में किया कीजिए

और- मुश्किलों को हौसलों से पार कर / जिंदगी के मरहलों से प्यार कर 
सामने आते मसाइल नित नये / बैठ मत इन गर्दिशों से हार कर

                    कोशिशों की कामयाबी के लिए  काबलियत भी जरूरी है। नौजवानों को हुनरमंद होने की अहमियत मालूम होना ही चाहिए- 

हर कदम पे हुनर काम आता यहाँ / कौन देता भला साथ फन के सिवा    

                    भारत के सनातन मूल्यों में सहअस्तित्व, समानता और सहिष्णुता नीव के पत्थर की तरह है। इसलिए भारत कभी हमलावर नहीं हुआ। हिमकर समानता का उद्घोष करते हैं- 

छोटा नहीं है कोई न कोई यहाँ बड़ा / कुदरत ने हर किसी को बराबर बना दिया

                    कोशिश करनेवालों की हौसला अफजाई करते हुए गजलगो उम्मीद का दामन थामे रहने का मशवरा देता है- 

अँधेरा हर तरफ गहरा हुआ लेकिन / कहीं उम्मीद का इक दीप जलता है 

                    आदमी में खूबियों और खामियों दोनों का होना लाजमी है लेकिन हर बशर खुद को खामियों से दूर और खूबियों से भरपूर मानने की गलतफहमी पाल लेता है। बकौल हिमकर- 

खामियाँ अपनी कहाँ आतीं नज़र इंसान को / दूसरों की खूबियाँ किसको कभी अच्छी लगी

                    तरक्कीपसंद दिखाने की होड़ में समाज अपनी विरासत से दूर होता जा रहा है। सादगी की जगह दिखावा पसंद करती नई पीढ़ी को आईना दिखाते हैं हिमकर-

ढल रहे हैं लोग सारे इक नयी तहज़ीब में / बात मीठी है जुबां पर हाथ में शमशीर भी 
नेकियाँ ईमां शराफ़त सादगी दरियादिली / पास इंसां के कभी थी ये बड़ी जागीर भी

                    आम आदमी की जिन्दगी में दिनों-दिन ज्यादा से ज्यादा जहर घोलती सियासत के खतरे से चेताते हुए शायर किसी पार्टी या नेता का नाम लिए बिना कड़वी हकीकत पूरी ईमानदारी से बयां करता है-   

फक्त आंकड़ों में नुमाया तरक्की / यहाँ मुफलिसी दर-ब-दर फिर रही है 

कब तक यूं बहलाएँगे / कब अच्छे दिन आएँगे 

है सारा खेल कुर्सी का  समझते क्यों नहीं लोगों / लगाकर आग नफरत की उन्हें बस वोट पाना है 

अब भरोसा उठ गया इंसाफ से / हाय इकतरफ़ा बयानी मुल्क में  

फ़क़त लीडरों में है उलझा सिपाही / भला कैसे होगी हिफाजत किसी की 
                
                    इन गज़लों में मुहावरों, लोकोक्तियों आदि को बखूबी शामिल किया गया है- 

साँच को आँच नहीं कहता पर / सच सलीके से दबा रखा है

किसी ने याद किया आज मुझको शिद्दत से / खड़ी हैं साथ मिरे हिचकियाँ गवाहों में 

चादर से बढ़कर पाँव न निकल कभी मेरा / होता नहीं निबाह भी रस्ता दिखाइए 

                    भारत की सरजमीं के ज़रखेजपन पर पूरी तरह भरोसा है हिमकर को। शायर भारत की बहुरंगी सभ्यता और संस्कृति का कल है। उसे पूरा भरोसा है कि वहशत के इस दौर में भी भारत महफूज है और रहेगा- 

कोई नफरत भी बोता तो पनपती है मुहब्बत ही  / अजब जादू है माटी में, कोई वरदान है भारत 

                    'दिल बंजारा' की गज़लों की कसौटी शायर ने ही तय कर दी है-  

ग़ज़ल ऐसी कहो जो दिल को छू ले / न पहुँचे दिल तलक क्या शायरी है 

है एहसास इसमें तो छूती है दिल / सुखन को है करती मोअत्तर ग़ज़ल 

                    इन ग़ज़लों में फिक्रे कुदरत है तो टूटते परिवार और बूढ़े माँ-बाप की चिंता भी है, समाज की बदसूरत तस्वीर है तो खूबसूरत और दिलकश चित्र भी हैं, तराजू के दो पलड़ों की तरह ग़ज़लों के अश'आर धूप-छाँव दोनों को सामने लाते हैं। अ इन ग़ज़लों के कई शे'र वाम की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखते हैं। बकौल हिमकर- 

सबके हिस्से की कुछ चिट्ठी / बाँट रहा हिमकर हरकारा 

ये केवल अशआर नहीं हैं हिमकर के / अपने ग़म शेरों में ढाले है साहब   

                    जब रचनाकार रचना को होने देता है तब वह अपनी स्वाभाविकता में मन में घर कर लेती है लेकिन जब रचनाकार कथ्य को अपने अनुसार पेश करना चाहता है तो वह बनावटी हो जाता है। दिल बंजारा की ग़ज़लें दिल से दिल तक का सफ़र करने में समर्थ हैं। 
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