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मंगलवार, 14 जनवरी 2025

जनवरी १४, लोहड़ी, दुल्ला भट्टी, गीत, सॉनेट, संक्रांति, दोहागीत, लघुकथा,

 सलिल सृजन जनवरी १४

संस्कृति
लोहड़ी का गीत : सुंदर मुंदरीए होए
*
लोहड़ी उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा और पंजाब का एक प्रसिद्ध त्योहार है। लोहड़ी पर्व पर लोगों के घर जा कर लोहड़ी जलाने के लिए लकड़ियाँ माँगी जाती हैं और दुल्ला भट्टी के गीत गाए जाते हैं। लोहड़ी के की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं। महिलाएँ आग के चारों और चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं। कहते हैं कि अकबर के शासन काल में दुल्ला भट्टी एक लुटेरा था लेकिन वह हिंदू लड़कियों को गुलाम के तौर पर बेचे जाने का विरोधी था। उन्हें बचा कर वह उनकी हिंदू लड़कों से शादी करा देता था। उसे लोग पसंद करते थे। लोहड़ी गीतों में उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है।’ कहा जाता है कि एक मुस्लिम फ़क़ीर ने एक हिन्दू अनाथ लड़की को पाला था। फिर जब लड़की जवान हुई तो उस फ़कीर ने उस लड़की की शादी के लिए घूम-घूम कर पैसे इकट्ठे किए और फिर धूमधाम से उसका विवाह किया। इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं। कहा जाता है कि सम्राट अकबर के ज़माने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाक़ों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था। इस गीत का नातालोक नायक दुल्ला भट्टी से ज़रूर है। यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर ख़ूब गया जाता है।
*
लोहड़ी का गीत
सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां
***
दोहा सलिला
सूर्य रश्मि लोरी सुना, कहे जगो हे राम!
राजकुमार उठो करो, धन्य धरा भू धाम।।
कोहरा घूँघट ओट से, कर चितवन का वार।
रश्मि निमंत्रण दे करो, सबसे सब दिन प्यार।।
वाक् ब्रह्म है नाद हरि, ताल- थाप शिव जान।
स्वर सरगम शारद-रमा, उमा तान मतिमान।।
योग प्रयोग करें सतत, मिट जाए हर रोग।
हों वियोग अति भोग से, संयम सदा सुयोग।।
मिला मुकद्दर मुफ्त में, मान महज मेहमान।
अवसर-कशिश की कशिश, घरवाली वत जान।।
श्याम पूर्ण हो शुभ्र से, शुभ्र श्याम से पूर्ण।
शुभ न अशुभ बिन शुभ रहे, अशुभ बिना शुभ चूर्ण।।
कर अक्षर आराधना, होगा नहीं अभाव।
भाव शब्द में रस भरे, सब से कर निभाव।।
१४.१.२०२४
शोक गीत
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
प्रकृति प्रेमी चेताते थे, हुआ प्रशासन था बहरा।
शासन ने भी बात न मानी, स्वार्थ-राज अंधा ठहरा।।
जंगल काट लिए धरती माँ का है चीर हरा तुमने।
कच्चे नए पहाड़ों की छाती छलनी की दानव ने।।
दुःशासन-शासन को तरस न आता किस्मत वाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
आँसू बहा रही हैं नदियाँ, चीख रहे पर्वत-टीले।
आर्तनाद करती है जनता, नयन सभी के हैं गीले।।
नेता-अफसर-सेठ काटते माल तिजोरी भरते हैं।
सरकारी धन चारा समझें, बेरहमी से चरते हैं।।
सपने टूट गए, सिर पीटें राहत के पैगाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
चेताया केदारनाथ ने, लेकिन तनिक नहीं चेते।
बना-बना सीमेंट कंठ गिरि-पर्वत के तुमने रेते।।
पॉवर प्लांट बना न्योता है खुद विनाश को तुमने ही।
बर्फ ग्लेशियर पिघल रहे, यह बतलाया इसरो ने भी।।
धँसती धरा' मशीन दानवी है अभिशाप अवाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
विस्फोटों से कँपी दिशाएँ, आसमान भी दहल गया।
भाषण-आश्वासन सुन भोला जनगण- जनमत बहल गया।।
बाँध-सुरंगों को रोको, भू संरक्षण तत्काल करो।
दूब-पौध से आच्छादित कर धरती को नवजीवन दो।।
पूर्ण नाश के पहले सम्हले, शासन जीवन-शाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
सकल हिमालय की घाटी पर खतरा कम मत आँको तुम।
दोष न औरों को दो, अपने अंतर्मन में झाँको तुम।।
जनगण मन ने किया भरोसा, सिसक रहा है ठगा गया।
गया पुराना भी हाथों से, आया हाथ विनाश नया।।
हाय राम! तुम चीख न सुनते, मुग्ध हुए श्री राम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
१४-१-२०२३
•••
सॉनेट
संक्रांति
*
भुवन भास्कर शत अभिनंदन।
दक्षिणायणी था अब तक पथ।
उत्तरायणी होगा अब रथ।।
अर्पित अक्षत रोली चंदन।।
करूँ पुष्प बंधूक समर्पित।
दो संक्रांति काल को मति-गति।
शारद-रमा-उमा की हो युति।।
विधि-हरि-हर मन-मंदिर अर्चित।।
चित्र गुप्त उज्जवल हो अपना।
शुभ सबका, अब रहे न सपना।
सत-शिव-सुंदर हो प्रभु! नपना।।
पोंगल बैसाखी हँस गाए।
बीहू सबको गले लगाए।
मिल खिचड़ी गुड़ लड्डू खाए।।
१४-१-२०२२
***
सॉनेट
रस
*
रस जीवन का सार है।
रस बिन नीरस जिंदगी।
रसमय प्रभु की बंदगी।।
सरस ईश साकार है।।
नीरसता भाती नहीं।
बरस बरस रस बरसता।
रस पाने मन तरसता।।
पारसता आती नहीं।।
परस मिले प्रिय का सदा।
चरस दूर हो सर्वदा।
दरस ईश का हो बदा।
हो रसलीन करूँ सृजन।।
रसानंद पा कर जतन।।
हो रसनिधि रसखान मन।।
१४-१-२०२२
***
गीत
सरकार
*
बेगानी है सरकार
*
करते न जो कहते तुम
कैसे भरोसा हो?
कहते न जो करते तुम।
जनता को दिया बिसार
अब दीख रहा तुमको
मनमानी में ही सार।
बेगानी है सरकार
*
किस्मत के भरोसे ही
आवाज दे रहे हैं
सुनते ही नहीं बहरे।
सुलझे कैसे तकरार
दूर न करते पीर
अनसुनी रही इसरार।
बेगानी है सरकार
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
...
लघुकथा-
पतंग
*
- बब्बा! पतंग कट गयी....
= कट गयी तो कट जाने दे, रोता क्यों है? मैंने दूसरी लाकर रखी है, वह लेकर उड़ा ले।
- नहीं, नयी पतंग उड़ाऊँगा तो बबलू फिर काट देगा।
= काट देगा तो तू फिर नयी पतंग ले जाना और उड़ाना
- लेकिन ऐसा कब तक करूँगा?
= जब तक तू बबलू की पतंग न काट दे। जीतने के लिये हौसला, कोशिश और जुगत तीनों जरूरी हैं। चरखी और मंझा साथ रखना, पतंग का संतुलन साधना, जिस पतंग को काटना हो उस पर और अपनी पतंग दोनों पर लगातार निगाह रखना, मौका खोजना और झपट्टा मारकर तुरंत दूर हो जाना, जब तक सामनेवाला सम्हाले तेरा काम पूरा हो जाना चाहिए। कुछ समझा?
- हाँ, बब्बा! अभी आता हूँ काटकर बबलू की पतंग।
***
लघुकथा -
रफ्तार
*
प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आते ही उसके सपनों को रफ्तार मिल गयी। समाचार पत्रों में सचित्र समाचार छपा, गाँव भी पहुँचा। ठाकुर ने देखा तो कलेजे पर साँप लोट गया। कर्जदार की बेटी हाकिम होकर गाँव में आ गयी तो नाक न कट जायेगी? जैसे भी हो रोकना होगा।
जश्न मनाने के बहाने हरिया को जमकर पिलाई और बिटिया के फेरे अपने निकम्मे शराबी बेटे से करने का वचन ले लिया। उसने नकारा तो पंचायत बुला ली गयी जिसमें ठाकुर के चमचे ही पञ्च थे जिन्होंने धार्मिक पाखंड की बेडी उसके पैर में बाँधने वरना जात बाहर करने का हुक्म दे दिया।
उसके अपनों और सपनों पर बिजली गिर पड़ी। उसने हार न मानी और रातों-रात दद्दा को भेज महापंचायत करा दी जिसने पंचायत का फैसला उलट दिया। ठाकुर के खिलाफ दबे मामले उठने लगे तो वह मन मसोस कर बैठ रहा।
उसने धार्मिक पाखंड, सामाजिक दबंगई और आर्थिक शोषण के त्रिकोण से जूझते हुए भी फिर दे दी अपने सपनों को रफ्तार।
***
लघुकथा:
अनजानी राह
*
कोशिश रंग ला पाती इसके पहले ही तूफ़ान ने कदमों को रोक दिया, धूल ने आँखों के लिये खुली रहना नामुमकिन कर दिया, पत्थरों ने पैरों से टकराकर उन्हें लहुलुहान कर दिया, वाह करनेवाला जमाना आह भरकर मौन हो रहा।
इसके पहले कि कोशिश हार मानती, कहीं से आवाज़ आयी 'चली आओ'। कौन हो सकता है इस बवंडर के बीच आवाज़ देनेवाला? कान अधिकाधिक सुनने के लिये सक्रिय हुए, पैर सम्हाले, हाथों ने सहारा तलाशा, सर उठा और चुनौती को स्वीकार कर सम्हल-सम्हल कर बढ़ चला उस ओर जहाँ बाँह पसारे पथ हेर रही थी अनजानी राह।
***
लघुकथा-
चेतना शून्य
*
उच्च पदस्थ बेटी की उपलब्धि पर आयोजित अभिनन्दन भोज में आमंत्रित माँ पहुँची। बेटी ने शैशव में दिवंगत हो चुके पिता के निधनोपरांत माँ द्वारा लालन-पालन किये जाने पर आभार व्यक्त करते हुए अपनी श्रेष्ठ शिक्षा, आत्म विश्वास और उच्च पद पाने का श्रेय माँ को दिया तो पत्रकारों के प्रश्न और छायाकारों के कैमरे माँ पर केंद्रित हो गये।
सामान्य घरेलू जीवन की अभ्यस्त माँ असहज अनुभव कर शीघ्र ही हट गयी। घर आते ही माँ ने बेटी से उसकी सफलता के इतने बड़े आयोजन में उसके जीवन साथी और संतान की अनुपस्थिति के बारे पूछा। बेटी ने झिझकते हुए अपने लिव इन रिलेशन, वैचारिक टकराव और जीवनसाथी तथा संतान से अलगाव की जानकारी दी। माँ को लगा वह हुई जा रही है चेतना शून्य ।
***
लघुकथा :
सहारे की आदत
*
'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आयी और चल पड़ी अनजानी राह पर।
रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी। उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था।
साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ? दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गयी। अंतत: मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी और से उसकी नहीं माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी माँ और बोली बिटिया वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत।
स्तब्ध रह गयी वह, माँ से क्या कहती?
तुरंत बाद माँ के बताये चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँची चिकित्सालय, वह इसे देख चौंका तो बोली मत परेशान हो, मैं तम्हें साथ ले जा रही हूँ। अब मुझे नहीं तुम्हें डालनी है सहारे की आदत।
***
लघुकथा-
यह स्वप्न कैसा?
*
आप एक कार से उतर कर दूसरी में क्यों बैठ रहे है? जहाँ जाना है इसी से चले जाइये न.
नहीं भाई! अभी तक सरकारी दौरा कर रहा था इसलिए सरकारी वाहन का उपयोग किया, अब निजी काम से जाना है इसलिए सरकारी वाहन और चालक छोड़कर अपने निजी वाहन में बैठा हूँ और इसे खुद चलाकर जा रहा हूँ अगर मैं जन प्रतिनिधि होते हुए सरकारी सुविधा का दुरूपयोग करूँगा तो दूसरों को कैसे रोकूँगा?
सोच रहा हूँ जो कभी साकार न हो सके वह स्वप्न कैसा?
***
लघुकथा
जीत का इशारा
*
पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई. आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई।
उसने माँ के चहरे की खोटी हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे औटो उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, उसे घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गयी होगी। पिता के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद तक वह न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा औटो भी नहीं है।
बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पडोसी को बुलाने का विचार किया। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी कर रही थी जीत का इशारा।
***
लघुकथा -
संक्रांति
*
- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
१४.१.२०१६
***
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
६-१-२०१५
***
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
*
रविवार, ४ जनवरी २०१५
***
नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
२-१-२०१५
***

सोमवार, 13 जनवरी 2025

जनवरी १३, सॉनेट,सूरज, सॉनेट, कृष्ण, महेश योगी, लालबहादुर, हाइकु, देवरहा बाबा, पलाश

सलिल सृजन जनवरी १३
शारद! लिए पलाश आए हम, माँ सिंगार करो।
किंशुक कुसुम लगा वेणी में, भव-भय पीर हरो।।
करधन टेसू, कंगन छेवला, पायल सजे समिद्धर।
कौसुंबी कंचुकी, हरित आँचल स्वीकार करो।।
धारण कर गलहार त्रिपर्णी, बाले पहन सुपर्णी।
माते! बीजस्नेह दे संतति का उद्धार करो।।
करक ब्रह्मपादप पोरासू पलसु पिलासु पुतद्रु,
पालोशी पांगोंग लिए हम हँस उपहार वरो।।
अनुपम छवि रस रूप मनोहर स्वर व्यंजन मतिमय लख।
जीव सभी संजीव हो सकें, मातु! सलिल सह विचरो।।
१३.१.२०२५
०००
सॉनेट
सूरज छिपकर तरु पीछे से झाँक रहा है,
उषा भीत है सोचे साथ रहे या छोड़े?
लव जिहाद का नारा सुन पग पीछे मोड़े,
निकलूँ या छिप जाऊँ, गुपचुप आँक रहा है।
अरुणोदय का दृश्य मनोरम टाँक रहा है,
बाजों ने गौरैया के सब सपने तोड़े,
जवां कबूतर घायल खा श्रद्धा के कोड़े,
हृदय ऐक्य का हाय! टूट दो फाँक रहा है।
बाल राम को जिसने दूल्हा राजा देखा,
सिया सहित दरबार सजाकर हर पल पूजा,
हैं अवाक् वह अवध, देख धनुधारी आया।
कौन करे हमलों-दंगों का लेखा-जोखा?
१३.१.२०२४
•••
सोरठा सलिला
कृष्ण
*
अनुपम कौशल कृष्ण, काम करें निष्काम रह।
हुए नहीं वे तृष्ण, थे समान सुख-दुःख उन्हें।।
खींचो रेखा एक, अकरणीय-करणीय में।
जाग्रत रखो विवेक, कृष्ण न कह करते रहे।।
कृष्ण कर्म पर्याय, निष्फल कुछ करते नहीं।
सक्रियता पर्याय, निष्क्रियता वरते नहीं।।
गहो कर्म सन्यास, यही कृष्ण-संदेश है।
हो न मलिन विन्यास, जग-जीवन का तनिक भी।.
कृष्ण -राधिका एक, कृष्ण न मिलते कृष्ण भज।
भजों राधिका नेंक, आ जाएँगे कृष्ण खुद।।
तहाँ कृष्ण जहँ प्रेम, हो न तनिक भी वासना।
तभी रहेगी क्षेम, जब न वास हो मोह का।।
१३-१-२०२३
***
सॉनेट
महर्षि महेश योगी
*
गुरु-पद-रज, आशीष था।
मार्ग आप अपना गढ़ा।
ध्यान मार्ग पर पग बढ़ा।।
योग हुआ पाथेय था।।
महिमा थी ओंकार की।
ब्रह्मानंद सुयश भजा।
फहराई जग में ध्वजा।।
बना विश्व सरकार दी।।
सपने थे अनगिन बुने।
वेद-ज्ञान हर जन गुने।
जतन निरंतर अनसुने।
पश्चिम नत हो सिर धुने।।
योगमार्ग अपना चुने।।
त्याग भोग के झुनझुने।।
१३-१-२०२२
***
सॉनेट
लालबहादुर
*
छोटा कद, ऊँचा किरदार।
लालबहादुर नेता सच्चे।
सादे सरल जिस तरह बच्चे।।
भारत माँ पे हुए निसार।।
नन्हें ने दृढ़ कदम बढ़ाया।
विश्वशक्ति को धता बताया।
भूखा रहना मन को भाया।।
सीमा पर दुश्मन थर्राया।।
बापू के सच्चे अनुयायी।
दिशा देश को सही दिखायी।
जनगण से श्रद्धा नित पायी।
विजय पताका थी फहरार्ई।।
दुश्मन ने भी करी बड़ाई।।
सब दुनिया ने जय-जय गाई।।
१३-१-२०२२
***
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
हाइकु
*
झूठ को सच
करती सियासत
सच को झूठ
*
सुबहो-शाम
आराम है हराम
राम का नाम
*
प्राची लगाती
माथे पर बिंदिया
साँझ सुहाती
*
शंख निनाद
मग्न स्वर तरंग
मिटा विषाद
*
गया बरस
तनिक न दे सका
सुख हरष
*
अस न बस
मनाना ही होगा
नया बरस
*
बिच्छू का डंक
सहे संत स्वभाव
रहे नि:शंक
१३.१.२०१६
***
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रुको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आए घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
***
कृति चर्चा:
हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान
चर्चाकार: आचार्य संजीव
.
[कृति विवरण: हौसलों के पंख, नवगीत संग्रह, कल्पना रामानी, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, नवगीत ६५, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद]
.
ओम निश्चल: 'गीत-नवगीत के क्षेत्र में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्‍ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं... एक वक्‍त उनके गीत... एक नया रोमानी उन्माद पैदा करते थे पर धीरेधीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्‍म हो गयी. कुछ कवि अन्य विधाओं में चले गए .... नये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्‍या गीतों की आभा मंद पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे?'
'गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्रा में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है।'
उक्त दो बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत संग्रह 'हौसलों के पंख' को पढ़ना और और उस पर लिखना दिलचस्प है।
कल्पना जी उस सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए साहित्य रचा जाता है और जो साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता है। जहाँ तक ओम जी का प्रश्न है वे जिस 'रोमानी उन्माद' का उल्लेख करते हैं वह उम्र के एक पड़ाव पर एक मानसिकता विशेष की पहचान होता है। आज के सामाजिक परिवेश और विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं नई ने इसे हाशिये पर रखना आरंभ कर दिया है। अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती, आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस तक सीमित नहीं रह सकता।
कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसार में विचरण नहीं कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं। कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित एकाकीपन से जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं।
प्रतिष्ठित नवगीतकार यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि 'रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।'
डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द (संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित, प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड, मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि), उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू. तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा, नादां, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबां, इंक़लाब, फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि) के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटां, जुगाड़, फूल बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं।
इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन, फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार, पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है। इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त तरुवर तृण, सारू सरिता सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार, वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना, सचेतना सुभावना सुकमना, मृदु महक माधुरी, सात सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी, कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित, कोयलिया की कूक आदि।
कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है: जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादां, स्वत्व स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महलों का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं
कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों, मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश), पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए, कहलाऊं तेरा सपूत, आज की नारी, जीवन संध्या, माँ के बाद के बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नो पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि) के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों में दिवाली, दशहरा, राम जन्म, सूर्य, शरद पूर्णिमा, संक्रांति, वसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं।
पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं। जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएं?, जान-जान कर तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार, पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता, हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर, भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर पाठक रुक्षता, नीरसता, विसंगतियोंजनित पीड़ा, विषमता और टूटन को बिसर जाता है।
सारतः विवेच्य कृति का जयघोष करती जिजीविषाओं का तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन कर आल्हादित अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट, लगन और सृजन के लिये। सुरुचिपूर्ण और शुद्ध मुद्रण के लिए अंजुमन प्रकाशन का अभिनन्दन।
१३-१-२०१५
नवगीत:
*.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
रविवार, 4 जनवरी 2015
***
नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
१३.१.२०१४
***
समयजयी सिद्धसंत देवरहा बाबा
*
देव भूमि भारत आदिकाल से संतों-महात्माओं की साधना स्थली है. हर पल समाधिस्थ रहनेवाले समयजयी सिद्ध दंत देवरहा बाबा संसार-सरोवर में कमल की तरह रहते हुए पूर्णतः निर्लिप्त थे.
आचार्य शंकर ने जीवन की इस मुक्तावस्था के सम्बन्ध में कहा है:
समाधिनानेन समस्तवासना ग्रंथेर्विनाशोsकर्मनाशः.
अंतर्वहि सर्वत्र एवं सर्वदा स्वरूपवि स्फूर्तिरयत्नतः स्यात..
अर्थात समाधि से समस्त वासना-ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती हैं. वासनाओं के नाश से कर्मों का विनाश हो जाता है, जिससे स्वरूप-स्थिति हो जाती है. अग्नि के ताप से जिस तरह स्वर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार समाधि से सत्व-राज-तम रूप मल का निवारण हो जाता है. हरि ॐ तत्सत...
बाबा मेरे जन्म-जन्मान्तर के गुरु हैं, वे विदेह हैं. अनादि काल से अनवरत चली आ रही भारतीय सिद्ध साधन बाबा में मूर्त है. धूप, सीत, वर्षा आदि संसारीं चक्रों से सर्वथा अप्रभावित, अष्टसिद्ध योगी बाबा सबपर सदा समान भाव से दया-दृष्टि बरसाते रहते थे. वे सच्चे अर्थ में दिगम्बर थे अर्थात दिशाएँ ही उनका अम्बर (वस्त्र) थीं. वे वास्तव में धरती का बिछौना बिछाते थे, आकाश की चादर ओढ़ते थे. शुद्ध जीवात्मायें उनकी दृष्टि मात्र से अध्यात्म-साधन के पथ पर अग्रसर हो जाती थीं. वे सदैव परमानंद में निमग्न रहकर सर्वात्मभाव से सभी जीवों को कल्याण की राह दिखाते हैं.
जय अनादि,जय अनंत,
जय-जय-जय सिद्ध संत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
धरा को बिछौनाकर, नील गगन-चादर ले.
वस्त्रकर दिशाओं को, अमृत मन्त्र बोलते..
सत-चित-आनंदलीन, समयजयी चिर नवीन.
साधक-आराधक हे!, देव-लीन, थिर-अदीन..
नश्वर-निस्सार जगत,
एकमात्र ईश कंत..
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
''दे मत, कर दर्शन नित, प्रभु में हो लीन चित.''
देते उपदेश विमल, मौन अधिक, वाणी मित..
योगिराज त्यागी हे!, प्रभु-पद-अनुरागी हे!
सतयुग से कलियुग तक, जीवित धनभागी हे..
'सलिल' अनिल अनल धरा,
नभ तुममें मूर्तिमंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
पूज्यपाद बाबाजी द्वारा लिखाया गया और 'योगिराज देवरहा बाबा के चमत्कार' शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित लेख का कुछ अंश बाबाश्री के आशीर्वाद-स्वरूप प्रस्तुत है:
''धारणा, ध्यान और समाधि- इन तीनों का सामूहिक नाम संयम है. संयम से अनेक प्रकार की विभूतियाँ प्राप्त होती हैं परन्तु योगी का लक्ष्य विभूति-प्राप्ति नहीं है, परवैराग्य प्राप्ति है. 'योग दर्शन' में विभूतियों का वर्णन केवल इसलिए किया गया है कि योगी इनके यथार्थ रूप को समझकर उनसे आकृष्ट न हो. योगदर्शन का विभूतिपाद साधनपाद की ही कड़ी है..... विभूतिपाद में इसी प्रकार की विभूतियों का विस्तार से वर्णन हुआ है-जैसे सब प्राणियों की वाणी का ज्ञान, परचित्त ज्ञान, मृत्यु का ज्ञान, लोक-लोकान्तरों का ज्ञान, आपने शरीर का ज्ञान, चित्त के स्वरूप का ज्ञान इत्यादि. संयम के ही द्वारा योगी अंतर्ध्यान हो सकता है, अधिक से अधिक शक्ति प्राप्त कर सकता है, परकाया में प्रवेश कर सकता है, लोक-लोकान्तरों में भ्रमण कर सकता है और अष्टसिद्धियों और नवनिधियों को प्राप्तकर सकता है.
बच्चा! योग एक बड़ी दुर्लभ और विचित्र अवस्था है. योगी की शक्ति और ज्ञान अपरिमित होते हैं. उसके लिये विश्व की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है. ईश्वर की शक्ति माया है और योगी की शक्ति योगमाया है. 'सर्वम' के सिद्धांत को योगी कभी भी प्रत्यक्ष कर सकता है. आज विज्ञान ने जिस शक्ति का संपादन किया है, वह योगशक्ति का शतांश या सहस्त्रांश भी नहीं है. योगी के लिये बाह्य उपादानों की अपेक्षा नहीं है.
मैं तो यह कहता हूँ कि यदि योगी चाहे तो अपने सत्य-संकल्प से सृष्टि का भी निर्माण कर सकता है. वह ईश्वर के समान सर्वव्यापक है. अष्टसिद्धियाँ भी उसके लिये नगण्य हैं. वह अपनी संकल्प-शक्ति से एक ही समय में अनेक स्थानों पर अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है. उसे शरीर से कहीं आना-जाना नहीं पड़ता.
बच्चा! योगी को न विश्वास की परवाह है, न प्रदर्शन की आवश्यकता है, जो सिद्धियों का प्रदर्शन करता है, उसे योगी कहना ही नहीं चाहिए.
एक कथा है: आपने किसी योगिराज गुरुसे योग की शिक्षा प्राप्तकर एक महात्मा योग-साधना करने लगे. कुछ समय पश्चात् महात्मा को सिद्धियाँ प्राप्त होने लगीं. महात्मा एक दिन आपने गुरुदेव के दर्शन करने के लिये चल दिए. योगिराज का आश्रम एक नदी के दूसरे किनारे पर था. नदी में बड़ी बाढ़ थी और चारों ओर तूफ़ान था. महात्मा को नदी पारकर आश्रम में पहुँचना था. अपनी सिद्धि के बलपर महात्मा योंही जलपर चल दिए और नदी को पारकर आश्रम में पहुँचे. गुरुदेव ने नदी पार करने के साधन के सम्बन्ध में पूछा तो महात्मा ने अपनी सिद्धि का फल बता दिया. योगिराज ने कहा कि तुमने दो पैसे के बदले अपनी वर्षों की तपस्या समाप्त कर ली. तुम योग-साधन के योग्य नहीं हो.
१३.१.२०१४


***

रविवार, 12 जनवरी 2025

जनवरी १२, पूर्णिका, सॉनेट, चिड़िया, विवेकानंद, सरस्वती, नवगीत, मुक्तिका, पलाश

सलिल सृजन जनवरी १२
पूर्णिका
.
मैं जिजीविषा जयी पलाश।
धरा बिछौना, छत आकाश।।
.
तीनों देव विराजे मुझमें
विपदाओं का करता नाश।।
.
क्रांति-दूत जलता अंगारा
नव युग को नित रहा तराश।।
.
जंगल में मंगल करता हूँ।
बाधाओं के तोड़ूँ पाश।।
.
फगुनौटी को रंग कुसुंबी
दे खुशियों की करूँ तलाश।।
.
रास रचाएँ कान्ह-राधिका
गोप-गोपियाँ आकर काश।।
१२.१.२०२५
०००
दोहा सलिला
सूरज मजदूरी करे, लगातार दिन-रात।
मिले मजूरी कुछ नहीं, तपे आप बेबात।।
हिंदी-संतति कर रही, अंग्रेजी में बात।
परदेसन के पग कमल, घरवाली की लात।।
करें अंजना को नमन, नित्य सुमिर हनुमान।
दें आशीष करें कृपा, पल पल सिय-भगवान।।
१२.१.२०२४
•••
मुक्तिका
*
इस-उस में उलझा रही
आस व्यर्थ भटका रही
मस्ती में हैं लीन मन
मौन जिह्वा बतला रही
कलकल-कलरव सुन विहँस
किलकिल चुप बिसरा रही
शब्द संपदा बचा रख
सबक सीख; सिखला रही
नयन मूँद कर देख हरि
नियति तुझे मिलवा रही
१२-१-२०२३
***
बाल सॉनेट
चिड़िया
*
चूँ चूँ चिड़िया फुर्र उड़े।
चुग्गा चुग चुपचाप।
चूजे चें-चें कर थके।।
लपक चुगाती आप।।
पंखों में लेती लुका।
कोई करे न तंग।
प्रभु का करती शुक्रिया।।
विपदा से कर जंग।।
पंख उगें तब नीड़ से
देखी आप निकाल।
उड़ गिर उठ नभ नाप ले   
व्यर्थ बजा मत गाल।।
खोज संगिनी घर बसा।
लूट जिंदगी का मजा।।
***
सॉनेट
विवेकानंद
*
मिल विवेक आनंद जब दिखलाते हैं राह।
रामकृष्ण सह सारदा मिल करते उद्धार।
नर नरेंद्र-गुरु भक्ति जब होती समुद अथाह।।
बनें विवेकानंद तब कर शत बाधा पार।।
गुरु-प्रति निष्ठा-समर्पण बन जीवन-पाथेय।
संकट में संबल बने, करता आत्म प्रकाश।
विधि-हरि-हर हों सहायक, भाव-समाधि विधेय।।
धरती को कर बिछौने, ओढ़े हँस आकाश।।
लगन-परिश्रम-त्याग-तप, दीन-हीन सेवार्थ।
रहा समर्पित अहर्निश मानव-मानस श्रेष्ठ।
सर्व धर्म समभाव को जिया सदा सर्वार्थ।।
कभी न छू पाया तुम्हें, काम-क्रोध-मद नेष्ठ।।
जाकर भी जाते नहीं, करते जग-कल्याण।
स्वामि विवेकानंद पथ, अपना तब हो त्राण।।
१२-१-२०२२
***
विमर्श
क्या सरस्वती वास्तव में एक फारसी देवी अनाहिता हैं ?
*
या कुन्देंदु तुषार हार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता
या वीणा वर दण्ड मंडित करा, या श्वेत पद्मासना
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभितभिर्सदा वंदिता
सा माम् पातु सरस्वती भगवती निश्शेष जाड्यापहा।
“देवी सरस्वती चमेली के रंग के चंद्रमा की तरह श्वेत हैं, जिनकी शुद्ध सफेद माला ठंडी ओस की बूंदों की तरह है, जो दीप्तिमान सफेद पोशाक में सुशोभित हैं, जिनकी सुंदर भुजा वीणा पर टिकी हुई है, और जिसका सिंहासन एक सफेद कमल है। जो ब्रह्मा को अच्युत रखतीं और शिवादि देवों द्वारा वन्दित हैं, मेरी रक्षा करें । आप मेरी सुस्ती, और अज्ञानता को
दूर करिये। "
ऋग्वेद में सरस्वती को "सरम वरति इति सरस्वती" के रूप में समझाया गया है - "वह जो पूर्ण की ओर बहती है वह सरस्वती है" - ३ री - ४ थी
सहस्राब्दी, ई.पू. में नदी स्वरास्वती एक प्रमुख जलधारा थी। यह खुरबत की खाड़ी से सुरकोटदा और कोटड़ा तक और नारा-हकरा-घग्गर-सरस्वती चैनलों के माध्यम से, मथुरा के माध्यम से ऊपर की ओर फैल गयी। यह दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तानों में से एक, मरुस्थली रेगिस्तान से सीधे बहती थी। इस नदी को वेदों में "सभी नदियों की माँ" के रूप में वर्णित किया गया है, जिसे सबसे शुद्ध और शुभ माना जाता है। प्रचलित मानसूनी हवाओं के कारण जब यह नदी सूख गई, तो इसके किनारे रहने वाली सभ्यता कुभा नदी में चली गई, और उस नदी का नाम बदलकर अवेस्तां सरस्वती (हराहवती) कर दिया। उपनिषदों में यह माना जाता है कि जब देवताओं को अग्नि / अग्नि को समुद्र में ले जाने की आवश्यकता थी, तो इसके जल की शुद्धता के लिए सरस्वती को जिम्मेदारी दी गई थी। हालांकि यह कार्य पूरा हुआ, लेकिन कुछ का मानना ​​है कि इस प्रक्रिया में नदी सूख गई।
फारसी कनेक्शन
अरदेवी सुरा अनाहिता ( Arədvī Sārā Anāhitā)); एक इंडो-ईरानी कॉस्मोलॉजिकल फिगर की एवेस्टन भाषा का नाम 'वाटर्स' (अबान) की दिव्यता के रूप में माना जाता है और इसलिए प्रजनन क्षमता, चिकित्सा और ज्ञान से जुड़ा है। अर्देवी सुरा अनाहिता मध्य में अर्दवीसुर अनाहिद या नाहिद है और आधुनिक फारसी, अर्मेनियाई में अनाहित। सरस्वती की तरह, अनाहिता को उसके पिता अहुरा मज़्दा (ब्रह्मा) से शादी करने के लिए जाना जाता है। दोनों तीन कार्यों के तत्वों के अनुरूप हैं। जॉर्ज डूमज़िल ने प्रोटो-इंडो-यूरोपीय धर्म में शक्ति संरचना पर काम करने वाले एक दार्शनिक ने कहा कि अनाहिता वी 85-87 में योद्धाओं द्वारा 'आर्द्र, मजबूत और बेदाग' के रूप में विकसित किया गया है, तत्वों को तीसरे, दूसरे और दूसरे को प्रभावित करता है। पहला समारोह। और उन्होंने वैदिक देवी वाक्, परिभाषित भाषण के मामले में एक समान संरचना पर ध्यान दिया, जो पुरुष देवता मित्रा-वरुण (पहला कार्य), इंद्र-अग्नि (दूसरा कार्य) और दो अश्व (तीसरा कार्य) को बनाए रखने के रूप में प्रतिनिधित्व करता है। सरस्वती के बारे में कहा जाता है कि वह मां के गर्भ में भ्रूण का रोपण करती है।
आर्टेमिस, कुंवारी शिकारी
मिथरिक पंथ में, अनहिता को मिथरा की कुंवारी माँ माना जाता था। क्या यह सही है? यह देखना दिलचस्प है कि 25 दिसंबर को एक प्रसिद्ध फ़ारसी शीतकालीन त्योहार मैथैरिक परंपराओं से ईसाई धर्म में आया और क्रिसमस मनाया।रोमन साम्राज्य में मिथ्रावाद इतना लोकप्रिय था और ईसाई धर्म के महत्वपूर्ण पहलुओं के समान था कि कई चर्च पिता निश्चित रूप से, इसे संबोधित करने के लिए मजबूर थे। इन पिताओं में जस्टिन मार्टियर, टर्टुलियन, जूलियस फर्मिकस मेटरनस और ऑगस्टाइन शामिल थे, जिनमें से सभी ने इन हड़ताली पत्राचारों को प्रस्तोता शैतान के लिए जिम्मेदार ठहराया। दूसरे शब्दों में, मसीह की आशा करते हुए, शैतान ने आने वाले मसीहा की नकल करके पैगनों को मूर्ख बनाने के बारे में निर्धारित किया। हकीकत में, इन चर्च पिताओं की गवाही इस बात की पुष्टि करती है कि ये विभिन्न रूपांकनों, विशेषताओं, परंपराओं और मिथकों को ईसाई धर्म से प्रभावित करते हैं।
जापान में सरस्वती
बेनज़ाइटन हिंदू देवी सरस्वती का जापानी नाम है। बेन्ज़िटेन की पूजा 8 वीं शताब्दी के माध्यम से 6 वीं शताब्दी के दौरान जापान में पहुंची, मुख्य रूप से गोल्डन लाइट के सूत्र के चीनी अनुवादों के माध्यम से , जो उसके लिए समर्पित एक खंड है। लोटस सूत्र में उसका उल्लेख भी किया गया है और अक्सर एक पूर्वाग्रह , सरस्वती के विपरीत एक पारंपरिक जापानी लुटे का चित्रण किया जाता है , जो एक कड़े वाद्य यंत्र के रूप में जाना जाता है, जिसे वीणा कहा जाता है।
हड़प्पा की मुहरों में सरस्वती और उषा
One of the frequently occurring signs in the seal is the compound symbol which occurs on 236 seals. Many scholars have held that the Indus symbols are often conjugated. Thus the symbol can be seen as a compound between and the symbol which may represent the sceptre which designated royal authority and may thus be read as ‘Ras’. The symbol-pair occurs in 131 texts and in many copper plate inscriptions which shows its great religious significance. The ending ‘Tri’ or ’Ti’ is significant and cannot but remind one of the great Tri-names like Saraswati and Gayatri. As Uksha was often shortened to ‘Sa’ the sign-pair becomes Sarasa-tri or Sarasvati.
१२-१-२०२०
***
नवगीत
कौन नहीं?
*
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
इसके पग में
जात-पाँत की
बेड़ी पड़ी हुई।
कर को कसकर
ऊँच-नीच जकड़े
हथकड़ी मुई।
छूत-अछूत
न मन से बिसरा
रहा अड़ाता टाँग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
तिलक-तराजू
की माया ने
बाँध दई ठठरी।
लोकतंत्र के
काँध लदी
परिवारवाद गठरी।
मित्रो! कह छलते
जनगण को जब-तब
रचकर स्वांग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
वैताली ममता
काँधे पर लदा
स्वार्थ वैताल।
चचा-भतीजा
आप ठोंकते
खोद अखाड़ा ताल।
सैनिक भूखा
करे सियासत
आरक्षण की माँग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
१२.१.२०१७
***
नवगीत:
.
दर्पण का दिल देखता
कहिए, जग में कौन?
.
आप न कहता हाल
भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल
नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नज़र उतारता
लेकर राई-नौन
.
पूछे नहीं सवाल
नहीं किसी से हिचकता
कभी न देता टाल
और न किंचित ललकता
रूप-अरूप निहारता
लेकिन रहता मौन
.
रहता है निष्पक्ष
विश्व हँसे या सिसकता
सब इसके समकक्ष
जड़ चलता या फिसलता
माने सबको एक सा
हो आधा या पौन
(मुखड़ा दोहा, अन्तरा सोरठा)
***
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
१२-१-२०१५
***
मुक्तिका:
है यही वाजिब...
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
१२.१.२०१३
***

शनिवार, 11 जनवरी 2025

जनवरी ११, बुंदेली, सॉनेट, गीत, लघुकथा, कौन हूँ मैं?, लावणी, मुक्तिका, पर्यावरण, वानिकी, हिंदी

सलिल सृजन जनवरी ११
० 
हिंदी 
हिंदी की पूजा मत करिए  
हिंदी को नित वापरिए।
हिंदी में ही पूजा करिए
हिंदी में प्रभु को भजिए।    
हिंदी हो जिह्वा पर हर पल
हिंदी आस पले मन में। 
हिंदी ही हो श्वास-श्वास में 
हिंदी व्यापे जीवन में । 
हिंदी अपनी आस-आस में 
हिंदी दिल की धड़कन में। 
हिंदी सुमन सुमन में महके 
हिंदी हो हर क्यारी में।
हिंदी मन मंदिर में पूजें 
हिंदी हो अग्यारी में।
हिंदी उत्सव-पर्व-धर्म हो 
हिंदी की दस दिश हो धूम। 
हिंदीभाषी हों सब जग में 
हिंदी सुन पाएँ जग घूम। 
हिंदी में लोरी गा मैया 
हिंदी में शिशु गीत सुने। 
हिंदी में ही खेले बचपन
हिंदी सपने युवा बुने। 
हिंदी पर्चा लिखे डॉक्टर 
हिंदी में सामान मिले। 
हिंदी बोले हर अभियंता 
हिंदी में निर्माण करे।
हिंदी में सुनवाई-न्याय हो 
हिंदी में फैसले मिलें।    
हिंदी में ही द्वन्द-मिलन हो 
हिंदी में शहनाई बजे। 
हिंदी में ही गीत-गजल हो
हिंदी में हो शिक्षा। 
हिंदी ले जाएँ नव ग्रह पर
हिंदी में पाएँ दीक्षा। 
११.१.२०२५ 
०००      
बुंदेली सॉनेट
*
आकें देखो कभऊँ गाँव में,
पता परैगी तब सच्चाई,
अब नें मताई नार पराई,
घाम तपत है इतै छाँव में।
नरदा बह रओ सूख नाँव में,
जीत रई हर रोज बुराई,
हार गई सच में सच्चाई,
लगो सनिश्चर जवां पाँव में।
एक बहन जी पाँच किलासें,
होते पास पढ़े बिन बच्चे,
देस कर रओ खूब तरक्की।
पंच-खसम श्रमिकों को ठाँसे,
तंग कर रए शह पा लुच्चे,
भई लाड़ली हक्की-बक्की।
११.१.२०२४
***
सॉनेट
विरोधाभास
*
वे बाल काव्य लिख रहे हैं बाल श्याम कर।
दाँत मुँह में हैं नहीं लोहे के हैं चने।
जला रहे फसलें, हैं दाम आसमान पर।।
है नाम नम्रता मगर तेवर रहें तने।।
भाषा न भाव है मगर साहित्य रच रहे।
क्यों नाम बदल छंद का भरमा रहे कहें।
पढ़ते न और को कभी, सुनने से बच रहे।।
जैसी बयार हो कलम क्यों उस तरफ बहें।।
कुछ लोग देख डर गए, वक्तव्य वीर जी।
है चोर की दाढ़ी में, तिनका रहा सदा।
जनता कुचल रहे हैं, मंत्री के पूत जी।।
हैं वायदे जुमले हुए, क्या भाग्य में बदा।।
कुम्हला रहे कमल कहा दुष्यंत ने सही।
तालाब का पानी बदल, सुपंथ चुन सही।।
११.१.२०२२
***
गीत
भीड़ का हिस्सा नहीं
छाँव हूँ मैं, धूप भी हूँ
खेत हूँ मैं, कूप भी हूँ
महल का ठस्सा नहीं
लोक हूँ मैं स्वाभिमानी
देशप्रेमी आत्मदानी
वायवी किस्सा नहीं
खींच कर तृष्णा बुझाओ
गले बाँधो, मुक्ति पाओ
कसूरी रस्सा नहीं
भाग्य लिखता कर परिश्रम
बाँध मुट्ठी, आँख रख नम
बेतुका घिस्सा नहीं
११.१.२०२०
***
लघुकथा:
निपूती भली थी
*
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.
अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आई.
उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे. दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीडाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.
अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- 'ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.
* * *
मेरा परिचय:
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमे.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वंदित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि काव्यापार हूँ मैं.
हिंस्र खातिर काल हूँ मैं
हलाहल की ज्वाल हूँ मैं
कभी दुर्गा, कभी काली
दनुज-सर की माल हूँ मैं
चाहते हो स्नेह पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
रागिनी जग में गुँजाओ.
जलधि जल की धार हूँ मैं
हिंद-हिंदी सार हूँ मैं.
कायरों की मौत हूँ मैं
सज्जनों हित ज्योत हूँ मैं
नर्मदा हूँ, वर्मदा हूँ.
धर्मदा हूँ, कर्मदा हूँ.
कभी कंकर, कभी शंकर.
कभी सैनिक कभी बंकर.
दहशतगर्दों! मौत हूँ मैं.
ज़िंदगी की सौत हूँ मैं.
सुधर आओ शरण हूँ मैं.
सिर रखो शिव-चरण हूँ मैं.
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
***
लावणी
*
छंद विधान: यति १६-१४, समपदांती द्विपदिक मात्रिक छंद, पदांत नियम मुक्त।
पुस्तक मेले में पुस्तक पर, पाठक-क्रेता गायब हैं।
थानेदार प्रकाशक कड़ियल, विक्रेतागण नायब हैं।।
जहाँ भीड़ है वहाँ विमोचन, फोटो ताली माला है।
इंची भर मुस्कान अधर पर, भाषण घंटों वाला है।।
इधर-उधर ताके श्रोता, मीठा-नमकीन कहाँ कितना?
जितना मिलना माल मुफ्त का, उतना ही हमको सुनना।।
फोटो-सेल्फी सुंदरियों के, साथ खिंचा लो चिपक-चिपक।
गुस्सा हो तो सॉरी कह दो, खोज अन्य को बिना हिचक।।
मुफ्त किताबें लो झोला भर, मगर खरीदो एक नहीं।
जो पढ़ने को कहे समझ लो, कतई इरादे नेक नहीं।।
हुई देश में व्याप्त आजकल, लिख-छपने की बीमारी।
बने मियाँ मिट्ठू आपन मुँह, कविगण करते झखमारी।।
खुद अभिनंदन पत्र लिखा लो, ले मोमेंटो श्रीफल शाल।
स्वल्पाहार हरिद्रा रोली, भूल न जाना मल थाल।।
करतल ध्वनि कर चित्र खींच ले, छपवा दे अख़बारों में।
वह फोटोग्राफर खरीद लो, सज सोलह सिंगारों में।।
जिम्मेदारी झोंक भाड़ में, भूलो घर की चिंता फ़िक्र।
धन्य हुए दो ताली पाकर, तरे खबर में पाकर ज़िक्र।।
११.१.२०१९
शान्तिराज पुस्तकालय
जिन शिक्षा संस्थाओं में अर्थाभाव के कारण विद्यार्थियों के लिए पुस्तकालय सुविधा उपलब्ध नहीं है, उनके प्राचार्य द्वारा आवेदन करने और शिक्षकों द्वारा पुस्तकालय संचालन का दायित्व ग्रहण करने की सहमति होने पर प्रतिवर्ष १०० पुस्तकें तथा साहित्यिक पत्रिकाएँ निशुल्क प्रदान की जाती हैं।
संस्था के केंद्रीय कार्यालय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर में सदस्यों हेतु निशुल्क पुस्तकालय है जिसमें लगभग १५००० पुस्तकें व पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं। सहयोगी संस्था आईसेक्ट द्वारा निशुल्क उपलब्ध कराई गई पुस्तकें / पत्रिकाएँ आदि यहाँ सदस्यों को उपलब्ध रहती हैं। संस्था के संस्थापक सभापति आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', अध्यक्ष श्री बसंत शर्मा, सचिव इंजी. अरुण भटनागर हैं। संस्था द्वारा विविध साहित्यक विधाओं की कृतियों तथा विशिष्ट अवदान पर वार्षिक सम्मेलन के अवसर पर पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। वर्ष २०२१ में तरुण स्मृति गीत-नवगीत सम्मान (५०००/- नगद) से श्री विनोद निगम को सम्मानित किया गया।
महीयसी पुस्तक प्रसार योजना
संस्था द्वारा वाट्सऐप समूह अभियान जबलपुर पर हर मंगलवार को शाम ५ बजे से आयोजित बाल जगत कार्यक्रम में सहभागिता कर रहे बच्चों की प्रतिभा विकास कर उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए न्यायमूर्ति शिवदयाल जी की पुण्य स्मृति में सबसे अच्छी प्रस्तुति पर एक पुस्तक पुरस्कार में दी जाएगी। ये पुस्तकें भोपाल से डॉ. ज्योत्स्ना निगम जी के माध्यम से दी जाएँगी। पुरस्कार के निर्णायक विशववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के सभापति होंगे। पुरस्कार घोषणा के पश्चात् विजयी बच्चा अपना डाक का पता, चलभाष क्रमांक आदि पटल पर सूचित करेगा।
बच्चे अपना खुद का पुस्तकालय बना सकें तो उनमें पुस्तक पढ़ने की आदत का विकास होगा। पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें पढ़ने से बाल पाठक शब्द भण्डार, शब्दों के अर्थ की समझ बढ़ेगी, वाक्य अथवा छंद की संरचना के प्रति लगाव होगा और वे अपनी परीक्षा पुस्तिका या साक्षात्कार में अपने उत्तर देते समय या भाषण आदि देते समय सटीक शब्दों व भाषा का प्रयोग कर सफल होंगे।
प्रथम पुरस्कार सुरभि मुले को
पटल पर श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों की सुंदर प्रस्तुति करने के लिए सुरभि मुले को प्रथम 'न्यायमूर्ति शिवदयाल स्मृति पुरस्कार' प्रदान करने के निर्णय लिया गया है। सुरभि को पूरी गीता कंठस्थ है। ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा सुरभि गीता के श्लोकों का सस्वर वाचन तथा व्याख्या करने में निपुण है। सुरभि का पता- प्लाट क्रमांक ४६ बी, मकान क्रमांक ७८२ बदनपुर, साई पैलेस के सामने, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१।
पाठक पंचायत
संस्था के सदस्यों तथा अन्य रचनाकारों से प्राप्त पुस्तकों की समीक्षा नियमित गोष्ठियों में निरंतर की जाती है। संस्थान की ११ ईकाइयाँ विविध नगरों में कार्यरत हैं। सभी ईकाइयों में समीक्षा हेतु प्रति इकाई २ पुस्तकें आना आवश्यक है। कम प्रतियाँ मिलने पर केवल केंद्रीय ईकाई में चर्चा की जाती है।
वॉट्सऐप जीवंत गोष्ठियाँ
वॉट्सऐप पर जीवंत (लाइव) गोष्ठियाँ प्रतिदिन ५ बजे से आयोजित की जा रही हैं जिनके विषय सोमवार उपनिषद वार्ता, मंगलवार बाल जगत, बुधवार भाषा विविधा, गुरूवार लोक साहित्य, शुक्रवार रस-छंद-अलंकार तथा समीक्षा, शनिवार काव्य गोष्ठी, रविवार संत समागम (११ बजे से) हैं।
दिव्य नर्मदा
संस्थान की पत्रिका दिव्य नर्मदा.इन पर प्रतिदिन नई रचनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। इसका गणक अब तक आ चुके पाठकों की संख्या ३८,१४,४५५ दिखा रहा है। इस पर १२६६१ रचनाएँ प्रस्तुत की जा चुकी हैं।
अन्य गतिविधियाँ
संस्था अपने सदस्यों को लेखन विधाओं, हिंदी व्याकरण, हिंदी छंद आदि की जानकारी तथा लेखन हेतु मार्गदर्शन देने के साथ पांडुलिपियों के संशोधन, मुद्रण, भूमिका लेखन, समीक्षा लेखन, विमोचन आदि में सहायक होती है।
***
पर्यावरण - वानिकी
*
साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा के आमंत्रण पर बाल साहित्य सम्मेलन में सहभागिता हेतु राजस्थान के कुछ भू भाग का भ्रमण करने का लोभ संवरण न कर सका। अत्यधिक शीत और कोहराजनित असुविधा की आशंका पर श्रीनाथ जी के दर्शन मिलने के सौभाग्यजनित भक्ति भाव ने विजय पाई।
मैं और उदयभानु तिवारी 'मधुकर' दयोदय एक्सप्रेस में पूर्वारक्षित बी ३, ९-१२ शायिकाओं से ४ जनवरी को रात्रि ८ बजे प्रस्थित हुए, सिहोरा से भाई विजय बागरी जुड़ गए। शयन से पूर्व जीवित काव्य गोष्ठी हो गई, सहयात्री भी रसानंद लेते रहे। बिरला इंस्टीयूट ऑफ़ टैक्नॉलॉजी पिलानी का एक युवा विद्यार्थी तकनीकी शिक्षा में गिरावट और अंग्रेजी के वर्चस्व के प्रति चिंतित मिला। मैं और मधुकर जी अभियंता भी हैं, जानकर प्रसन्न हुआ। मध्यप्रदेश में इंजीनियरिंग की शिक्षा हिंदी में होती यह जानकर वह विस्मित और प्रसन्न हुआ। स्नेह सम्मेलन या परिसंवाद में हिंदी में तकनीकी शिक्षा पर मार्ग दर्शन हेतु उसने सहमति माँगी। उसे विषय को विविध पहलुओं से अवगत कराकर रात्रि ११.३० बजे सपनों की दुनिया की सैर करने चला गया।
प्रात: लगभग ६ बजे आँख खुली, खिड़की से झाँकते ही घने कोहरे ने सिहरा दिया। पटरियों को किनारे लगे वृक्ष तक दिखाई नहीं दे रहे थे। अधुनातन दृष्टिवर्धक उपकरणों से सज्जित होने पर भी रेलगाड़ी मंथर गति से बढ़ पा रही थी। लगभग सवा घंटे विलंब से हम कोटा पहुँचे।
कोटा से बस द्वारा भीलवाड़ा जाते समय राजस्थानी जन-जीवन की झलकियाँ, विशेषकर निरंतर बढ़ती हरियाली देखकर प्रसन्नता हुई। लगभग १० वर्ष पूर्व की तुलना में राजस्थान में पर्वतों का विनाश बड़े पैमाने पर हुआ है किन्तु हरियाली बढ़ी है। प्रकृति मनुष्य के मुनाफे का माध्यम बना दी गई है।
***
मुक्तिका
*
ज़िंदगी है बंदगी, मनुहार है.
बंदगी ही ज़िंदगी है, प्यार है.
सुबह-संझा देख अरुणिम आसमां
गीत गाए, प्रीत की झंकार है.
अचानक आँखें, उठीं, मिल, झुक गईं
अनकहे ही कह गयीं 'स्वीकार है'.
.
सांस सांसों में घुलीं, हमदम हुईं
महकता मन हुआ हरसिंगार है.
मौन तजकर मौन बरबस बोलता
नासमझ! इनकार ही इकरार है.
११.१.२०१७
***
नवगीत:
समझदारी
*
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
*
बीज, पानी, खाद की
मात्रा प्रचुर है
भूमि है पर्याप्त
उर्वरता मुखर है
सुरक्षा कर नहीं पाता
निबल माली
उपकरण थामे
मगर क्यारी नहीं है
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
*
औपचारिकता
हुए कानून सारे
स्वार्थ-सुविधा ही
हुए हैं हमें प्यारे
नगद सौदे की
नहीं है चाह बाकी
उधारी की प्रथा
हितकारी नहीं है
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
*
त्याग का कर त्याग
भोगें भोग सारे
अस्पतालों में
पले हैं रोग न्यारे
संक्रमण से ग्रस्त
ऑपरेशन थियेटर
मरीजों से कहाँ
बटमारी नहीं है?
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
***
नवगीत-
गुनो
*
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी
*
सिर्फ रट लेना विषय
काफी नहीं है
जानकार ना जानना?
माफ़ी नहीं है
किताबों को
खोलकर, सर
धुनों भी
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी
*
बात अपनी बोलना
बेहद जरूरी
जानकारी लें न दें
आधी-अधूरी
कोशिशों की
ऊन ले, चादर
बुनो भी
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी
*
जीभ पायी एक
लेकिन कान दो हैं
गीत अपने नहीं
किसको कहो मोहें?
अन्य क्या कहते
कभी उसको
सुनो भी
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी
***
नवगीत
*
भीड़ का हिस्सा नहीं
छाँव हूँ मैं, धूप भी हूँ
खेत हूँ मैं, कूप भी हूँ
महल का ठस्सा नहीं
लोक हूँ मैं स्वाभिमानी
देशप्रेमी आत्मदानी
वायवी किस्सा नहीं
खींच कर तृष्णा बुझाओ
गले बाँधो, मुक्ति पाओ
कसूरी रस्सा नहीं
भाग्य लिखता कर परिश्रम
बाँध मुट्ठी, आँख रख नम
बेतुका घिस्सा नहीं
११-१-२०२०
***
नवगीत-
बहती नदी
*
नवगीत तो
बहती नदी है
*
चेतना ने
कैद नियमों की
न मानी
वेदना ने
विभाजन रेखा
न जानी
स्नेह का
क्षण मात्र भी
जीवित सदी है
नवगीत तो
बहती नदी है
*
विषमता को
कौन-कैसे
साध्य माने?
विड़ंबनामय
नियति क्यों
आराध्य ठानें?
प्रीति भी तो
मनुज!
किस्मत में बदी है
नवगीत तो
बहती नदी है
*
हास का
अरविन्द खिलता
तो न रोको
आस का
मकरंद प्रसरित हो
न टोको
बदलाव ही
हर विधा की
प्रकृति रही है
नवगीत तो
बहती नदी है
११.१.२०१६
***
नवगीत:
.
ग्रंथि श्रेष्ठता की
पाले हैं
.
कुटें-पिटें पर बुद्धिमान हैं
लुटे सदा फिर भी महान हैं
खाली हाथ नहीं संसाधन
मतभेदों का सर वितान है
दो-दो हाथ करें आपस में
जाने क्या गड़बड़
झाले हैं?
.
बातें बड़ी-बड़ी करते हैं
मनमानी का पथ वरते हैं
बना तोड़ते संविधान खुद
दोष दूसरों पर धरते हैं
बंद विचारों की खिड़की
मजबूत दिशाओं पर
ताले हैं
.
सच कह असच नित्य सब लेखें
शीर्षासन कर उल्टा देखें
आँख मूँद 'तूफ़ान नहीं' कह
शतुरमुर्ग निज पर अवरेखें
परिवर्तित हो सके न तिल भर
कर्म सकल देखे
भाले हैं.
१४.३०, २९.१२.२०१४
पंचायती धर्मशाला, जयपुर
नवगीत:
.
दिशा न दर्शन
दीन प्रदर्शन
.
क्यों आये हैं?
क्या करना है??
ज्ञात न पर
चर्चा करना है
गिले-शिकायत
शिकवे हावी
यह अतीत था
यह ही भावी
मर्यादाओं का
उल्लंघन
.
अहंकार के
मारे सारे
हुए इकट्ठे
बिना बिचारे
कम हैं लोग
अधिक हैं बातें
कम विश्वास
अधिक हैं घातें
क्षुद्र स्वार्थों
हेतु निबंधन
.
चित्र गुप्त
सू रत गढ़ डाली
मनमानी
मूरत बनवा ली
आत्महीनता
आत्ममोह की
खुश होकर
पीते विष-प्याली
पल में गाली
पल में ताली
मंथनहीन
हुआ मन-मंथन
२९.१२. २०१४ जयपुर
मुक्तिका:
क्या कहूँ...
*
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाता.
बिन कहे भी रहा नहीं जाता..
काट गर्दन कभी सियासत की
मौन हो अब दहा नहीं जाता..
ऐ ख़ुदा! अश्क ये पत्थर कर दे,
ऐसे बेबस बहा नहीं जाता.
सब्र की चादरें जला दो सब.
ज़ुल्म को अब तहा नहीं जाता..
हाय! मुँह में जुबान रखता हूँ.
सत्य फिर भी कहा नहीं जाता..
देख नापाक हरकतें जड़ हूँ.
कैसे कह दूं ढहा नहीं जाता??
सर न हद से अधिक उठाना तुम
मुझसे हद में रहा नहीं जाता..
***
मुक्तिका :
नया आज इतिहास लिखें हम
*
नया आज इतिहास लिखें हम.
गम में लब पर हास लिखें हम..
दुराचार के कारक हैं जो
उनकी किस्मत त्रास लिखें हम..
अनुशासन को मालिक मानें
मनमानी को दास लिखें हम..
ना देवी, ना भोग्या मानें
नर-नारी सम, लास लिखें हम..
कल की कल को आज धरोहर
कल न बनें, कल आस लिखें हम..
(कल = गत / आगत / यंत्र / शांति)
नेता-अफसर सेवक हों अब
जनगण खासमखास लिखें हम..
स्वार्थ भावना दूर करें
सर्वार्थ भावना पास लिखें हम..
हाथ मिला जीतें हर बाधा
मरुथल में मधुमास लिखें हम..
श्रम हो कृष्ण, लगन हो राधा
'सलिल' सफलता रास लिखें हम..
११.१.२०१३
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