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सोमवार, 6 जनवरी 2025

जनवरी ६, लघुकथा, दोधक छंद, मुक्तिका, गीत, सॉनेट, चक्की, कोहरा, शारदा, सोरठा

सलिल सृजन जनवरी ६
सॉनेट
फ़साना
*
नए सिरे से फ़साना कहा-सुना जाए,
बदल न खुद को सके तो बदल लिए कपड़े,
न कोई बात तो बेबात ही मिले-झगड़े,
न हकीकत सहन तो ख्वाब ही बुना जाए ।
रुई नहीं तो चलो शीश ही धुना जाए,
जो ढोल पीट रहे; वे नहीं रहे अगड़े,
लड़े तकदीर से जो बढ़ गए नहीं पिछड़े,
कमी कहाँ है हमारी चलो गुना जाए।
करें जो काम तो अकाम हो बिसार सकें,
करें गलत न कभी; जो करें वही हो सही,
मिलें खुद से जो कभी, गमगुसार हो जाए ।
मिले जो नाम तो अनाम पे निसार सकें,
कभी गुमनाम न हो याद हसीं जो है तही,
लिखे नगमे जो कभी जिसके लिए वो गाए ।
***
सोनेट
कोहरा
*
कोहरा छाया राजनीति में, नहीं सूझती राह,
राह न रुचती सद्भावों की, सत्ता-पद का मोह,
जनसेवा व्यवसाय बनाकर करें देश से द्रोह,
अपने दुश्मन आप हुए हम, लड़ा रही है डाह ।
कहे न कोई वाह, चोट दे-पा भरते हैं आह,
फूटी आँख न कोई किसी को तनिक रहा है सोह,
लें कानून हाथ में जनगण रोज करे विद्रोह,
आम आदमी को न कहीं भी मिलती आज पनाह ।
कोहरा छाया संबंधों पर हुआ लापता नेह,
देह साध्य, आत्मा को कोई नहीं रहा पहचान,
भूल गए परमार्थ, स्वार्थ ही आज हो गया साध्य।
आँगन में उठती दीवारें, बिखर रहा है गेह,
क्रंदन करते-सुनते भूले, हम कोयल का गान,
तज विराटता; हुई क्षुद्रता कहिए क्यों आराध्य ।
६.१.२०२४
***
नव प्रयोग
(छंद- सॉनेट सोरठा)
नमन शारदे मातु, मति दे आत्मा जगा दे।
खुद की कर पहचान, काम सभी निष्काम कर।
कोई रहे न गैर, जीवन सकल ललाम कर।।
सविता ऊषा प्रात, नव उजास मन समा दे।।
सोते बीता जन्म, माँ झकझोर जगा हमें।
अनुशासन का पाठ, भूल गए कर याद लें।
मातृभूमि पर प्राण, कर कुर्बां मुस्का सकें।।
करें प्रकृति से प्रेम, पौधारोपण कर हँसें।।
नाद अनाहद भूल, भवसागर में सिसकते।
निष्फल रहे प्रयास, बाधित हो पग भटकते।
माता! थामो बाँह, छंद सिखा दो अटकते।।
मैया! सुत नादान, बुद्धि-ज्ञान दे तार दे।
जग मतलब का मीत, जननी अविकल प्यार दे।
कर माया से मुक्त, जीवन जरा निखार दे।।
६-१-२०२३, १०•२५
●●●
मुक्तक
तमन्ना है तमन्ना को सकें, सुन-समझ मिलकर संग।
सुनें अशआर नज़्में चंद, बिखरे ग़ज़ल के भी रंग।।
सलिल संजीव हो पाकर सखावत, हुनर कुछ सीखे।
समझदारों की संगत के, तनिक लायक बने-दीखे।।
६-१-२०२३
***
सॉनेट
चक्की
*
चक्की चलती समय की, पीस रही बारीक।
अलग सभी से दीख, बच जा कीली से चिपक।
दूर ईश से आत्म, काल करे स्वागत लपक।।
पक्षपात करती नहीं, सत्य सनातन लीक।।
चक्की पीसा ग्रहणकर, चले सृष्टि व्यापार।
अन्य पिसे तो हँसा, आप पिसा सब हँस रहे।
मोह जाल मजबूत, माया मृग जा फँस रहे।।
परम शक्ति गृहणी कुशल, पाले कह आभार।।
निशि-दिन चक्की पाट हैं, कीली है भगवान।
नादां प्रभु को भज बचे, जाने जीव सुजान।
हथदंडा है पुरोहित, दाना तू यजमान।
परम ब्रह्म है कील, सज समझ मौन मतिमान।।
शेष कर रहे भूल, भज सक न, भूल भगवान।।
कर्म-दंड चुप झेल, संबल प्रभु का गुणगान।।
६-१-२०२२
***
मुक्तक
विधान : ३० वर्ण, भ य र त म न स न भ य।
*
अंबर निराला, नीलिमा में लालिमा घोले, मगन मन लीन चुप है, कुछ न बोले।
उषा भास्कर उजाला, कालिमा पी मस्त हो डोले, मनुज जग गीत नव गा, उठ अबोले।।
करे स्वागत उसी का, भाग्य जो नैना न हो मूँदे, डगर पर हो विचरता, हर सवेरे।
बहाए हँस पसीना, कामना ले काम ना छोड़े, फिसल कर हो सँभलता, सफल हो ले।
६-१-२०२१
***
लघुकथा
समानाधिकार
*
"माय लार्ड! मेरे मुवक्किल पर विवाहेतर अवैध संबंध बनाने के आरोप में कड़ी से कड़ी सजा की माँग की जा रही है। उसे धर्म, नैतिकता, समाज और कानून के लिए खतरा बताया जा रहा है। मेरा निवेदन है कि अवैध संबंध एक अकेला व्यक्ति कैसे बना सकता है? संबंध बनने के लिए दो व्यक्ति चाहिए, दोनों की सहभागिता, सहमति और सहयोग जरूरी है। यदि एक की सहमति के बिना दूसरे द्वारा जबरदस्ती कर सम्बन्ध बनाया गया होता तो प्रकरण बलात्कार का होता किंतु इस प्रकरण में दोनों अलग-अलग परिवारों में अपने-अपने जीवन साथियों और बच्चों के साथ रहते हुए भी बार-बार मिलते औए दैहिक सम्बन्ध बनाते रहे - ऐसा अभियोजन पक्ष का आरोप है।
भारत का संविधान भाषा, भूषा, क्षेत्र, धर्म, जाति, व्यवसाय या लिंग किसी भी अधर पर भेद-भाव का निषेध कर समानता का अधिकार देता है। यदि पारस्परिक सहमति से विवाहेतर दैहिक संबंध बनाना अपराध है तो दोनों बराबर के अपराधी हैं, दोनों को एक सामान सजा मिलनी चाहिए अथवा दोनों को दोष मुक्त किया जाना चाहिए।अभियोजन पक्ष ने मेरे मुवक्किल के साथ विवाहेतर संबंध बनानेवाली के विरुद्ध प्रकरण दर्ज नहीं किया है, इसलिए मेरे मुवक्किल को भी सजा नहीं दी जा सकती।
वकील की दलील पर न्यायाधीश ने कहा- "वकील साहब आपने पढ़ा ही है कि भारत का संविधान एक हाथ से जो देता है उसे दूसरे हाथ से छीन लेता है। मेरे सामने जिसे अपराधी के रूप में पेश किया गया है मुझे उसका निर्णय करना है। जो अपराधी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया गया है, उसका विचारण मुझे नहीं करना है। आप अपने मुवक्किल के बचाव में तर्क दे पर संभ्रांत महिला और उसके परिवार की बदनामी न हो इसलिए उसका उल्लेख न करें।"
अपराधी को सजा सुना दी गयी और सिर धुनता रह गया समानाधिकार।
****
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
६.१.२०१७
***
लघुकथा
दस्तूर
*
अच्छे अच्छों का दीवाला निकालकर निकल गई दीपावली और आ गयी दूज...
सकल सृष्टि के कर्म देवता, पाप-पुण्य नियामक निराकार परात्पर परमब्रम्ह चित्रगुप्त जी और कलम का पूजन कर ध्यान लगा तो मनस-चक्षुओं ने देखा अद्भुत दृश्य.
निराकार अनहद नाद... ध्वनि के वर्तुल... अनादि-अनंत-असंख्य. वर्तुलों का आकर्षण-विकर्षण... घोर नाद से कण का निर्माण... निराकार का क्रमशः सृष्टि के प्रागट्य, पालन और नाश हेतु अपनी शक्तियों को तीन अदृश्य कायाओं में स्थित करना...
महाकाल के कराल पाश में जाते-आते जीवों की अनंत असंख्य संख्या ने त्रिदेवों और त्रिदेवियों की नाम में दम कर दिया. सब निराकार के ध्यान में लीन हुए तो हर चित्त में गुप्त प्रभु की वाणी आकाश से गुंजित हुई:
__ "इस समस्या के कारण और निवारण तुम तीनों ही हो. अपनी पूजा, अर्चना, वंदना, प्रार्थना से रीझकर तुम ही वरदान देते हो औरउनका दुरूपयोग होने पर परेशान होते हो. करुणासागर बनने के चक्कर में तुम निष्पक्ष, निर्मम तथा तटस्थ होना बिसर गये हो."
-- तीनों ने सोच:' बुरे फँसे, क्या करें कि परमपिता से डांट पड़ना बंद हो?'.
एक ने प्रारंभ कर दिया परमपिता का पूजन, दूसरे ने उच्च स्वर में स्तुति गायन तथा तीसरे ने प्रसाद अर्पण करना.
विवश होकर परमपिता को धारण करना पड़ा मौन.
तीनों ने विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर कब्जा किया और भक्तों पर करुणा करने के लिए बढ़ दिया दस्तूर।
***
लघुकथा
भाव ही भगवान
*
एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया कि नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद दिखी उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मताई औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. 'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो. भाव ही भगवान है''
१९.११.२०१५
***
नवगीत:
.
उठो पाखी!
पढ़ो साखी
.
हवाओं में शराफत है
फ़िज़ाओं में बगावत है
दिशाओं की इनायत है
अदाओं में शराफत है
अशुभ रोको
आओ खाखी
.
अलावों में लगावट है
गलावों में थकावट है
भुलावों में बनावट है
छलावों में कसावट है
वरो शुभ नित
बाँध राखी
.
खत्म करना अदावत है
बदल देना रवायत है
ज़िंदगी गर नफासत है
दीन-दुनिया सलामत है
शहद चाहे?
पाल माखी
***
मुक्तिका:
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
चंदा कहलाती कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
नागिन क्वांरी रह जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
६-१-२०१५
***
छंद सलिला:
दोधक छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला, हंसी)
दोधक दो गुरु तुकान्ती पंक्तियों का मात्रिक छंद है. इस छंद में हर पंक्ति में ३ भगण तथा २ गुरु कुल १६ मात्राएँ तथा ११ वर्ण मात्राएँ होते हैं ।
तीन भगण दो गुरु मिल रचते, दोधक छंद ललाम
ग्यारह अक्षर सोलह मात्रा, तालमेल अभिराम
उदाहरण:
१. काम न काज जिसे वह नेता।
झूठ कहे जन-रोष प्रणेता।।
होश न हो पर जोश दिखाये।
लोक ठगा सुनता रह जाए।।
दे खुद ही खुद को यश सारा।
भोग रहा पद को मद-मारा।।
२. कौन कहो सुख-चैन चुराते।
काम नहीं पर काम जताते।।
मोह रहे कब से मन मेरा।
रावण की भगिनी पग-फेरा।।
होकर बेसुध हाय लगाती।
निष्ठुर कौन? बनो मम साथी।।
स्त्री मुझ सी तुम सा नर पाये।
मान कहा, नहिं जीवन जाए।।
३. बंदर बालक एक सरीखे…
बात न मान करें मनमानी।
मान रहे खुद को खुद ज्ञानी।
कौन कहे कब क्या कर देंगे।
कूद गिरे उठ रो-हँस लेंगे।
ऊधम खूब करें, संग चीखें…
खा कम फेंक रहे मिल ज्यादा,
याद नहीं रहता निज वादा।
शांत रहें खाकर निज कसमें,
आज कहें बिसरें सब रस्में।
राह नहीं इनको कुछ दीखे…
६.१.२०१४
***
लघुकथा:
एकलव्य
संजीव 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
६.१.२०१३

***

रविवार, 5 जनवरी 2025

जनवरी ५, नीरज, सोरठा, वंदना, सॉनेट, हाइकु गीत, लघुकथा, नवगीत, हंसी छंद, हास्य

सलिल सृजन जनवरी ५
पूर्णिका
पौधे छोटे फूल बड़े हैं।
हिलमिल रहते, नहीं लड़े हैं।।
झुकते हैं, फिर उठ जाते हैं।
नहीं ठूँठ की तरह अड़े हैं।।
जब बेदम हों, गिर जाते हैं।
जिनमें दम सिर उठा खड़े हैं।।
माया-मोह नहीं रत्ती भर।
नहीं स्वार्थ के हेतु भिड़े हैं।।
वर्तमान में जीते हैं हँस
खोद अतीत नहीं झगड़े हैं।।
भेद-भाव से दूर सलिल सम
अगड़े या कि नहीं पिछड़े हैं।।
५.१.२०२५
०००
आधुनिक मंत्र
कराग्रे वसते चलभाषम्,
करमध्ये वाट्स एपम्।
कर मूले तु एन्ड्राइडम्,
प्रभाते तु फेसबुकम्।।
*
दोहे
किया कलेवा जा रहा, अनुज खोजने काम।
नैनों से आशीषती, बहिन न हो कुछ वाम।
*
नचा रहा है मदारी, नचे जमूरा देख।
चमक नयन में आ गई, अधर हँसी की रेख।।
*
ऐ सखि! छिप-छिप मिल रही, भैया जी से आज।
जा अम्मा को बताऊँ, तभी बनेगा काज।
*
भाई जी का मित्र है, सुंदर शिष्ट जवान।
मन करता है छिड़क दूँ, उस पर अपनी जान।।
*
करें प्रतीक्षा द्वार पर, नयन अधर मन प्राण।
झट से आ जा साँवरे!, हो-कर दे संप्राण।।
*
नयन नयन दो घाट हैं, स्नेह-सलिल रस धार।
डूब रही मँझधार में, कौन उतारे पार।।
*
लाज किवड़िया खोलकर, झाँके लज्जा मौन।
बिन बोले क्या बोलती, किससे समझे कौन।।
*
भाव विह्वल मीरा हुई, देख श्याम छवि मूक।
समझ नहीं पाता जगत, ह्रदय उठे जो हूक।।
५.१.२०२४
सोरठा सलिला
भुज भर लिया समेट, तन ने मन की बात कर।
स्वर्ण हिरन आखेट, बनने-करने आ गया।।
लिखा किसी के नाम, संधि-पत्र रूमाल ने।
फल था युद्ध-विराम, घर में घर घर कर गया।।
हिलता हाथ-रुमाल, दिखते-दिखते खो गया।
सुधियों की शत शाम, मन-उपवन में बो गया।।
पाकर लाल गुलाब, मन ही मन में मन हँसा।
आए याद जनाब, साक्षी हृदय-किताब है।।
समय-सफे पर प्रीत, आस कलम से मिल लिखी।
प्यास बन गई गीत, हास-रास सुधियाँ मुई।।
छुईमुई का दर्श, बन सुधियों का मोगरा।
छुईमुई सा स्पर्श, सिहरन याद दिला गया।।
स्मृति के वनफूल, मादक महुआ सम महक।
मनस पटल पर झूल, मन को मधुवन कर रहे।।
●●●
सोरठा सलिला
***
प्रात वंदना
अंगुलियों पर रमा, करतल पर शारद रहें।
हस्त-मूल में उमा, दें दर्शन सुरगण सभी।।
सिंधु वसन नग वक्ष, छत्र नभ पवन श्वास है।
पावक पावन चक्षु, नमन धर-गौ-भारती।।
प्राची दिनकर उषा, दिशा दस अभय कीजिए।
दुपहर संध्या निशा, दिखा कर्म पथ दीजिए।।
काम सभी निष्काम, चित्रगुप्त प्रभु! कर सकूँ।
विधि-हरि-हर हों संग, मातु नंदिनी-दक्षिणा।।
नेह नर्मदा नहा, यथायोग्य सबको नमन।
श्वास-आस सुख-त्रास, ईश-प्रसादी समर्पित।।
५-१-२०२३
***
सॉनेट
दिल हारे दिल जीत
*
मेघ उमड़ते-घुमड़ते लेते रवि भी ढाँक।
चीर कालिमा रश्मियाँ फैलतीं आलोक।
कूद नदी में नहातीं, कोइ सके न रोक।।
कौन चितेरा मनोरम छवि छिप लेता आँक?
रूप देखकर सिहरते तीर खड़े तरु मौन।
शाखाओं चढ़ निहारें पक्षी करते वाह।
करतल ध्वनि पत्ते करें, भरें बेहया आह।।
गगन-क्षितिज भी मुग्ध हैं, संयं साढ़े कौन?
लहर-लहर के हो रहे गाल गुलाबी-पीत।
गव्हर-गव्हर छिप कर करे मत्स्य निरंतर प्रीत।
भ्रमर कुमुदिनी रच रहे लिव इन की नव रीत।
तप्त उसाँसे भर रही ठिठुरनवाली शीत।।
दादुर ढोलक-थाप दे, झींगुर गाता गीत।।
दिल जीते दिल हारकर, दिल हारे दिल जीत।।
५-१-२०२२
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
बहुत हुआ
अब न काम में हो
झोल रे हिंदी
*
सुने न अब
सब जग में पीटें
ढोल रे हिंदी
***
लघुकथा :
खिलौने
*
दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद घर पहुँचते ही पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया तो वह उलटे पैर बाज़ार भागा। किराना लेकर आया तो बिटिया रानी ने शिकायत की 'माँ पिकनिक नहीं जाने दे रही।' पिकनिक के नाम से ही भड़क रही श्रीमती जी को जैसे-तैसे समझाकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए हुए बेटा दिखा। उसे बुलाकर पूछ तो पता चला कि खेल का सामान चाहिए। 'ठीक है' पहली तारीख के बाद ले लेना' कहते हुए उसने चैन की साँस ली ही थी कि पिताजी के खाँसने और माँ के कराहने की आवाज़ सुन उनके पास पहुँच गया। माँ के पैताने बैठ हाल-चाल पूछा तो पाता चला कि न तो शाम की चाय मिली है, न दवाई है। बिटिया को आवाज़ देकर चाय लाने और बेटे को दवाई लाने भेजा और जूते उतारने लगा कि जीवन बीमा एजेंट का फोन आ गया 'क़िस्त चुकाने की आखिरी तारीख निकल रही है, समय पर क़िस्त न दी तो पालिसी लेप्स हो जाएगी। अगले दिन चेक ले जाने के लिए बुलाकर वह हाथ-मुँह धोने चला गया।
आते समय एक अलमारी के कोने में पड़े हुए उस खिलौने पर दृष्टि पड़ी जिससे वह कभी खेलता था। अनायास ही उसने हाथ से उस छोटे से बल्ले को उठा लिया। ऐसा लगा गेंद-बल्ला कह रहे हैं 'तुझे ही तो बहुत जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की। रोज ऊँचाई नापता था न? तब हम तुम्हारे खिलौने थे, तुम जैसा चाहते वैसा ही उपयोग करते थे। अब हम रह गए हैं दर्शक और तुम हो गए हो सबके हाथ के खिलोने।
***
दोहा सलिला
*
सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम
*
चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान
*
महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब
वर्मा संरक्षण करे, रहे वीरता डूब
*
मित्र मनोहर हो अगर, अभय ज़िंदगी जान
अभय संग पा मनोहर, जीवन हो रस-खान
*
उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत
***
कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
५.१.२०१८
***
मुक्तिका
*
नेह नर्मदा बहने दे
मन को मन की कहने दे
*
बिखरे गए रिश्ते-नाते
फ़िक्र न कर चुप तहने दे
*
अधिक जोड़ना क्यों नाहक
पीर पुरानी सहने दे
*
देह सजाते उम्र कटी
'सलिल' रूह को गहने दे
*
काला धन जिसने जोड़ा
उसको थोड़ा दहने दे
*
मुक्तक-
बिखर जाओ फिजाओं में चमन को आज महकाओ
​बजा वीणा निगम-आगम ​कहें जो सत्य वह गाओ
​अनिल चेतन​ हुआ कैलाश पर ​श्री वास्तव में पा
बनो​ हीरो, तजो कटुता, मधुर मन मंजु ​हो जाओ
***
लघुकथा-
कतार
*
दूरदर्शनी बहस में नोटबन्दी के कारण लग रही लंबी कतारों में खड़े आम आदमियों के दुःख-दर्द का रोना रो रहे नेताओं के घड़ियाली आँसुओं से ऊबे एक आम आदमी ने पूछा-
'गरीबी रेखा के नीचे जी रहे आम मतदातों के अमीर जनप्रतिनिधियों जब आप कुर्सी पर होते हैं तब आम आदमी को सड़कों पर रोककर काफिले में जाते समय, मन्दिरों में विशेष द्वार से भगवान के दर्शन करते समय, रेल और विमान यात्रा के समय विशेष द्वार से प्रवेश पाते समय क्या आपको कभी आम आदमी की कतार नहीं दिखी? यदि दिखी तो अपने क्या किया? क्या आपको अपने जीवन में रुपयों की जरूरत नहीं होती? होती है तो आप में से कोई भी बैंक की कतार में क्यों नहीं दिखता?
आप ऐसा दोहरा आचरण कर आम आदमी का मजाक बनाकर आम आदमी की बात कैसे कर सकते हैं? कालाबाजारियों, तस्करियों और काला धन जुटाते व्यापारियों से बटोर चंदा उपयोग न कर पाने के कारण आप जन गण द्वारा चुनी सरकार से सहयोग न कर जनमत का अपमान करते हैं तो जनता आप के साथ क्यों जुड़े?
सकपकाए नेता को कुछ उत्तर न सूझा तो जन समूह से आवाज आई 'वहां मत बैठे रहो, हमारे दुःख से दुखी हो तो हमारा साथ दो। तुम सबको बुला रही है कतार।
५.१.२०१७
***
सलिल दोहावली -
*
जूझ रहे रण क्षेत्र में, जो उन पर आरोप
लगा रहे हम घरों से, ईश्वर करे न कोप
*
जायज है दुश्मन अगर, पैदा करता विघ्न
कैसे जायज़ मन गढ़ी, कहते हम निर्विघ्न?
*
जान दे रहे देश की, खातिर सैनिक रोज
हम सेना को दोष दे, करते घर में भोज
*
सेंध लगाना हमेशा, होता है आसान
कठिन खोजना-रोकना, सत्य लीजिये मान
*
पिटती पाकी फ़ौज के, साथ रहें वे लोग
विजयी की निंदा? लगा, हमको घातक रोग
*
सदा काम करना कठिन, सरल दिखाना दोष
संयम आवश्यक 'सलिल', व्यर्थ न करिए रोष
५.१.२०१६
***
नवगीत:
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
५.१.२०१५
.
छंद सलिला:
हंसी छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला)
हंसी छंद में २ पद, ४ चरण, ४४ वर्ण तथा ७० मात्राएँ होती हैं. प्रथम-तृतीय चरण उपेन्द्रवज्रा जगण तगण जगण २ गुरु तथा द्वितीय-चतुर्थ चरण में इन्द्रवज्रा तगण तगण जगण २ गुरु मात्राएँ होती हैं.
हंसी-चरण इन्द्रवज्रा में, दूजा-चौथा हों लें मान
हो उपेन्द्रवज्रा में पहला-तीजा याद रखें श्री मान
उदाहरण:
१. न हंस-हंसी बदलें ठिकाना, जानें नहीं वे करना बहाना
न मांसभक्षी तजते डराना, मानें नहीं ठीक दया दिखाना
२. सियासती लोग न जान पाते, वादे किये जो- जनता न भूले
दिखा सके जो धरती अजाने, कोई न जाने उसको बचाना
३. हँसें न रोयें चुपचाप देखें, होता तमाशा हर रोज़ कोई
मिटा न पायें हम आपदाएँ, जीतें हमेशा हँस मुश्किलों को
---
हास्य रचना :
एक पहेली
*
लालू से लाली हँस बोली: 'बूझो एक पहेली'
लालू थे मस्ती में बोले: 'पूछो शीघ्र सहेली'
लाली बोली: 'किस पक्षी के सिर पर पैर बताओ?
अकल लगाओ, मुँह बिसूर खोपड़िया मत खुजलाओ,
बूझ सकोगे अगर मिलेगा हग-किस तुमको आज
वर्ना झाड़ू-बर्तन करना, पैर दबा पतिराज'
कोशिश कर हारे लालूजी बोले 'हल बतलाओ
शर्त करूँगा पूरी मन में तुम संदेह न लाओ'
लाली बोली: 'तुम्हें रहा है सदा अकल से बैर'
'तब ही तुमको ब्याहा' मेरी अब न रहेगी खैर'
'बकबकाओ मत, उत्तर सुनकर चलो दबाओ पैर
हर पक्षी का होता ही है देखो सिर, पर, पैर
माथा ठोंका लालू जी ने झुँझलाये, खिसियाये
पैर दबाकर लाली जी के अपने प्राण बचाये।
५.१.२०१४
***
कालजयी गीतकार नीरज के ८९ वें जन्म दिन पर काव्यांजलि:
*
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
नवम दशक में कर प्रवेश मन-प्राण तरुण .
जग आलोकित करता शब्दित भाव अरुण..
कथ्य कलम के भूषण, बिम्ब सखा प्यारे.
गुप्त चित्त में अलंकार अनुपम न्यारे..
चित्र गुप्त देखे लेखे रचनाओं में-
अक्षर-अक्षर में मानवता का वंदन
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
ऊर्जस्वित रचनाएँ सुन मन मगन हुआ.
ज्यों अमराई में कूकें सुन हरा सुआ..
'सलिल'-लहरियों की कलकल ध्वनि सी वाणी.
अन्तर्निहित शारदा मैया कल्याणी..
कभी न मुरझे गीतों का मादक मधुवन.
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
गीति-काव्य की पल-पल जय-जयकार करी.
विरह-मिलन से गीतों में गुंजार भरी..
समय शिला पर हस्ताक्षर इतिहास हुए.
छन्दहीनता मरू गीतित मधुमास हुए..
महका हिंदी जगवाणी का नन्दन वन.
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*

शनिवार, 4 जनवरी 2025

जनवरी ४, सॉनेट, वागीश्वरी सवैया, श्रीलंका, घनाक्षरी, राजस्थानी, हिंदी वंदना, नवगीत, दोहा,

सलिल सृजन जनवरी ४
*
सॉनेट
.
क्षण में युग को जीना सीखें
अपनी किस्मत आप लिखें हम
भिन्न तनिक औरों से दीखें
अपनी मंजिल आप चुनें हम।
अपने पग हैं; अपनी राहें
मन ठोकर से मत घबराना
अपनी बाँहें; अपनी चाहें
जो मन भाए; हृदय लगाना।
अवगाहन श्रम-सीकर में कर
बिंदु सिंधु को जन्म दे सके
हो भगवान भक्त के वश में
भोग लगे जो विहँस ले सके।
नित नव कोशिश-माला जपते
प्रभु! तब हाथ शीश पर रखते।
०००
मुक्तक
नए साल में शशि अनुरागी हो पल-पल
नए साल में रवि सहभागी हो पल-पल
जनता कसे कसौटी पर नित नेता को-
नए साल में सत्ता त्यगी हो पल-पल
४.१.२०२५
०००
सवैया सलिला १:
वागीश्वरी सवैया
*
गले आ लगो या गले से लगाओ, तिरंगी पताका उड़ाओ।
कहो भी, सुनो भी, न बातें बनाओ, भुला भेद सारे न जाओ।।
जरा पंछियों को निहारो, न जूझें, रहें साथ ही ये हमेशा।
न जोड़ें, न तोड़ें, न फूँकें, न फोड़ें, उड़ें साथ ही ये हमेशा।।
विधान: (सात यगण) प्रति पंक्ति ।
***
सॉनेट
हयात
है हयात यह धूप सुनहरी
चीर कोहरा हम तक आई
झलक दिखाए ठिठक रुपहली
ठिठुर रहे हर मन को भाई
गौरैया बिन आँगन सूना
चपल गिलहरी भी गायब है
बिन खटपट सूनापन दूना
छिपा रजाई में रब-नब है
कायनात की ट्रेन खड़ी है
शीत हवाओं के सिगनल पर
सीटी मारे घड़ी, अड़ी है
कहे उठो पहुँचो मंज़िल पर
दुबकी मौत शीत से डरकर
चहक हयात रही घर-बाहर
संजीव
४-१-२०२३, ८•२२
●●●
सॉनेट
नूपुर
नूपुर की खनखन हयात है
पायल सिसक रही नूपुर बिन
नथ-बेंदी बिसरी बरात है
कंगन-चूड़ी करे न खनखन
हाई हील में जीन्स मटकती
पिज्जा थामे है हाथों में
भूल नमस्ते, हैलो करती
घुली गैरियत है बातों में
पीढ़ी नई उड़ रही ऊँचा
पर जमीन पर पकड़ खो रही
तनिक न भाता मंज़र नीचा
आँखें मूँदे ख्वाब बो रही
मान रही नूपुर को बंधन
अब न सुहाता माथे चंदन
संजीव
४-१-२०२३, ८•५७
●●●
सॉनेट
दीवार
*
क्या कहती? दीवार मनुज सुन।
पीड़ा मन की मन में तहना।
धूप-छाँव चुप हँसकर सहना।।
हो मजबूत सहारा दे तन।।
थक-रुक-चुक टिक गहे सहारा।
समय साइकिल को दुलराती।
सुना किसी को नहीं बताती।।
टिके साइकिल कह आभार।।
झाँक झरोखा दुनिया दिखती।
मेहनत अपनी किस्मत लिखती।
धूप-छाँव मिल सुख-दुख तहती।
दुनिया लीपे-पोते-रँगती।।
पर दीवार न तनिक बदलती।।
न ही किसी पर रीझ फिसलती।।
संवस
४-१-२०२२
*
आश्चर्यजनक पुरातात्विक स्थल सिगिरिया (श्रीलंका)
आप दुनिया के सबसे महान पुरातात्विक स्थलों में से एक को सिगिरिया कहा जाता है जिसे रावण के महलों में से एक माना जाता है। श्रीलंका में स्थित यह अद्भुत स्थल दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, इसीलिए इसे दुनिया का 8वां अजूबा भी कहा जाता है। अब आप सोच रहे होंगे कि इस साइट में ऐसा क्या खास है। यह वास्तव में एक विशाल अखंड चट्टान है, लगभग 660 फीट लंबा, और आप देख सकते हैं कि इसका एक सपाट शीर्ष है, जैसे किसी ने इसे एक विशाल चाकू से काटा। शीर्ष पर अविश्वसनीय खंडहर हैं जो बेहद रहस्यमय हैं।
जैसा कि आप देख सकते हैं कि यहां और वहां बहुत सी अजीबोगरीब ईंट संरचनाएं हैं और यह न केवल आगंतुकों के लिए भ्रमित करने वाली है, बल्कि पुरातत्वविद भी पूरी तरह से यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इन संरचनाओं का उपयोग किस लिए किया गया था। वे पुष्टि करते हैं कि आप जो कुछ भी देखते हैं वह कम से कम 1500 वर्ष पुराना है। लेकिन रहस्य यह नहीं है कि ये संरचनाएं क्या हैं, यह है कि इन संरचनाओं का निर्माण कैसे हुआ। प्राचीन बिल्डरों ने इन सभी ईंटों को चट्टान के शीर्ष पर ले जाने का प्रबंधन कैसे किया? बताया जाता है कि यहां कम से कम 30 लाख ईंटें मिलती हैं, लेकिन इन ईंटों को चट्टान के ऊपर बनाना असंभव होगा, यहां पर्याप्त मिट्टी उपलब्ध नहीं है। उन्हें इन ईंटों को जमीन से ले जाना होगा।
अब, वास्तव में विचित्र बात यह है कि जमीनी स्तर से कोई प्राचीन सीढ़ियां नहीं हैं जो चट्टान की चोटी तक जाती हैं। देखिए, ये सभी धातु सीढ़ियां पिछली शताब्दी में बनाई गई थीं। इन नई सीढ़ियों के बिना इस चट्टान पर चढ़ना काफी मुश्किल होगा। यह पूरी चट्टान अब विभिन्न प्रकार की सीढ़ियों से स्थापित है, यह एक अलग स्तर पर सर्पिल सीढ़ियाँ हैं। प्राचीन बिल्डरों ने बहुत सीमित सीढ़ियाँ बनाईं, लेकिन ये सीढ़ियाँ निश्चित रूप से ऊपर तक नहीं पहुँचीं। यही कारण है कि 200 साल पहले तक सिगिरिया के बारे में यहां तक ​​कि स्थानीय लोगों को भी नहीं पता था क्योंकि ऊपर तक सीढ़ियां नहीं थीं। 1980 के दशक के दौरान श्रीलंकाई सरकार ने धातु के खंभों का उपयोग करके सीढ़ियों का निर्माण किया ताकि इसे एक पर्यटक स्थल के रूप में इस्तेमाल किया जा सके और मुर्गी ने इसे एक विरासत स्थल घोषित किया।
और यही कारण है कि जोनाथन फोर्ब्स के नाम से एक अंग्रेज ने 1831 में सिगिरिया के खंडहरों की "खोज" की। तो प्रारंभिक मानव सिगिरिया के शीर्ष पर कैसे पहुंचे? आइए मान लें कि इन बहुत खड़ी, जंगली इलाकों के माध्यम से चढ़ाई करना संभव है। लेकिन जमीनी स्तर से 30 लाख ईंटें लाने के लिए आपको उचित सीढ़ियों की जरूरत जरूर पड़ेगी। इसके बिना उन्हें शीर्ष पर पहुंचाना असंभव होगा। भले ही हम यह दावा करें कि ईंटों को चट्टान के ऊपर ही किसी चमत्कारी तरीके से बनाया गया था, यहां के निर्माण कार्य में सैकड़ों श्रमिकों की आवश्यकता होती। उन्हें अपना भोजन कैसे मिला? और टूल्स के बारे में क्या? उन्होंने अपने विशाल आदिम औजारों को कैसे ढोया? वे कहाँ आराम और सोते थे?
यहाँ केवल ईंटें ही नहीं हैं, आप संगमरमर के विशाल ब्लॉक भी पा सकते हैं। दूधिया सफेद संगमरमर के पत्थर इस क्षेत्र के मूल निवासी नहीं हैं। ये ब्लॉक वास्तव में बहुत भारी होते हैं, एक कदम बनाने वाले हर पत्थर का वजन लगभग 20-30 किलोग्राम होता है। और हम यहां हजारों संगमरमर के ब्लॉक पा सकते हैं। विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि संगमरमर प्राकृतिक रूप से आस-पास कहीं नहीं पाया जाता है, तो उन्हें 660 फीट की ऊंचाई तक कैसे ले जाया गया, खासकर बिना सीढ़ियों के? इसमें पानी की एक बड़ी टंकी भी है। यदि आप इसके चारों ओर ईंटों और संगमरमर के ब्लॉकों को नजरअंदाज करते हैं, तो आप समझते हैं कि यह ग्रेनाइट से बना दुनिया का सबसे बड़ा मोनोलिथिक टैंक है। यह पत्थर के ब्लॉकों को जोड़कर नहीं बनाया गया है, इसे ग्रेनाइट को हटाकर, सॉलिड रॉक से टन और टन ग्रेनाइट को निकालकर बनाया गया है।
यह पूरा टैंक 90 फीट लंबा और 68 फीट चौड़ा और करीब 7 फीट गहरा है। इसका मतलब है कि कम से कम 3,500 टन ग्रेनाइट को हटा दिया गया है। तो आप वास्तव में वापस बैठने के लिए एक मिनट ले सकते हैं और सोच सकते हैं कि मुख्यधारा के पुरातत्वविद सही हैं या नहीं। यदि मनुष्य ग्रेनाइट पर छेनी, हथौड़े और कुल्हाड़ी जैसे आदिम औजारों का उपयोग कर रहे होते, जो कि दुनिया की सबसे कठोर चट्टानों में से एक है, तो 3,500 टन को हटाने में वर्षों लग जाते। और इतने सालों में ये मजदूर अपना पेट कैसे पालते थे, जब उनके पास जमीनी स्तर तक जाने के लिए सीढ़ियां भी नहीं हैं? मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में कुछ मौलिक रूप से गलत है जो प्राचीन लोगों को छेनी और हथौड़े से चट्टानों को काटने की बात करती है। लेकिन यह सिर्फ एक सिद्धांत नहीं है, हमारे आंखों के सामने वास्तविक सबूत हैं। क्या यह अद्भुत नहीं है?
***
:छंद सलिला:
घनाक्षरी
*
सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूती चतुष्पदी, रच घनाक्षरी आप्त..
तीन चरण में आठ सात चौथे में अक्षर.
लघु-गुरु मात्रा से से पदांत करते है कविवर..
*
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|
लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|
भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|
छल-छद्म, दाँव-पेंच, द्वंद-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|
चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|
गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|
मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|
रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए|
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए|
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए|
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारी जाइए||
छत्तीसगढ़ी
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे|
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे|
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे|
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे||
निमाड़ी
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट, उल्लूs की दुम हुयो|
मनखs को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो|
टीला पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो|
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरs माsतम हुयो||
मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||
कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ से झरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर न धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे न टरे||
राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़ तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?, होड़ तरां-तरां का.||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के न ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान न हों, आशिकी की रस्म है कि, सिर भी मुड़ाइए|
चलिए न ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई न करें सवाल, नखरे उठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरल बिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरल गुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपल संवरिया||
===========================================
राजस्थानी मुक्तिकाएँ :
संजीव 'सलिल'
*
१. ... तैर भायला
लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..
गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..
मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..
घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..
सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..
*
२. ...पीर पराई
देख न देखी पीर पराई.
मोटो वेतन चाट मलाई..
इंगरेजी मां गिटपिट करल्यै.
हिंदी कोनी करै पढ़ाई..
बेसी धन स्यूं मन भरमायो.
सूझी कोनी और कमाई..
कंसराज नै पटक पछाड्यो.
करयो सुदामा सँग मिताई..
भेंट नहीं जो भारी ल्यायो.
बाके नहीं गुपाल गुसाईं..
उजले कपड़े मैले मन ल्ये.
भवसागर रो पार न पाई..
लडै हरावल वोटां खातर.
लोकतंत्र नै कर नेताई..
जा आतंकी मार भगा तूं.
ज्यों राघव ने लंका ढाई..
४.१.२०२०
***
एक कविता:
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
***
हिंदी वंदना
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
****
गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं।
***
एक द्विपदी :
*
मन अमन की चाह में भटका किया है
भले बेमन ही सही पर मन जिया है
*
***
दोहा सलिला :
*
इधर घोर आतंक है, उधर तीव्र भूडोल
रखें सियासत ताक पर, विष में अमृत घोल
*
गर्व शहीदों पर अगर, उनसे लें कुछ सीख
अनुशासन बलिदान के, पथ पर आगे दीख
*
प्राण निछावर कर गये, जो कर उन्हें सलाम
शपथ उठायें आयेंगे, ;सलिल' देश के काम
*
आतंकी यह चाहते, बातचीत हो बंद
ठेंगा उन्हें दिखाइए, करें न वार्ता मंद
*
सेना भारत-पाक की, मिल जाए यदि साथ
दहशतगर्दों को कुचल, बढ़े उठाकर माथ
*
अखबारी खबरें रहीं, वातावरण बिगाड़
ज्यों सुन्दर उद्यान में, उगें जंगली झाड़
*
सबसे पहले की न हो, यदि आपस में होड़
खबरी चैनल ना करें, सच की तोड़-मरोड़
*
संयम बरत नहीं सके,पत्रकार नादान
रुष्ट हुआ नेपाल पर,उन्हें नहीं है भान
*
दूरदर्शनी बहस का, होता ओर न छोर
सत्य न कोई बोलता, सब मिल करते शोर
४-१-२०१६
***
नवगीत:
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
*
***
नवगीत:
.
गोल क्यों?
चक्का समय का गोल क्यों?
.
कहो होती
हमेशा ही
ढोल में कुछ पोल क्यों?
.
कसो जितनी
मिले उतनी
प्रशासन में झोल क्यों?
.
रहे कड़के
कहे कड़वे
मुफलिसों ने बोल क्यों?
.
कह रहे कुछ
कर रहे कुछ
ओढ़ नेता खोल क्यों?
.
मान शर्बत
पी गये सत
हाय पाकी घोल क्यों?
...
नवगीत:
.
भारतवारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे पाक सियार
.
घेर लओ बदरन नें सूरज
मचो सब कऊँ हाहाकार
ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
कौनौ आ करियो उद्धार
बही बयार बिखर गै बदरा
धूप सुनैरी कहे पुकार
सीमा पार छिपे बनमानुस
कबऊ न पइयो हमसें पार
.
एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंके हर बार
ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
जान बखस दो करें पुकार
(प्रयुक्त छंद: आल्हा, रस: वीर, भाषा रूप: बुंदेली)
...

नवगीत:
संजीव
.
करना सदा
वह जो सही
.
तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं मन भी खिले
वरना सदा
वह जो सही
भरना सदा
वह जो सही
.
गिरता रहा, उठता रहा
मिलता रहा, छिनता रहा
सुनता रहा, कहता रहा
तरता रहा, मरता रहा
लिखना सदा
वह जो सही
दिखना सदा
वह जो सही
.
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
सहना सदा
वह जो सही
तहना सदा
वह जो सही
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)
...
नवगीत:
.
भारतवारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे पाक सियार
.
घेर लओ बदरन नें सूरज
मचो सब कऊँ हाहाकार
ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
कौनौ आ करियो उद्धार
बही बयार बिखर गै बदरा
धूप सुनैरी कहे पुकार
सीमा पार छिपे बनमानुस
कबऊ न पइयो हमसें पार
.
एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंके हर बार
ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
जान बखस दो करें पुकार
(प्रयुक्त छंद: आल्हा, रस: वीर, भाषा रूप: बुंदेली)
४.१.२०१५
***
नवगीत:
संजीव
.
उगना नित
हँस सूरज
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज
लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज
कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज
***
२.१.२०१५

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

जनवरी १, सॉनेट, नया साल, अंक माहात्म्य, गीत, दोहा, लघुकथा, मुक्तिका, छंद

सलिल सृजन जनवरी १
*
छंद सलिला
नव वर्ष के स्वागत में कुछ छंद
१. राम छंद

ईश
राम!
हो न
वाम।

२. वैदिक छंद
दैहिक
दैविक
कायिक
वैदिक
मानव
भू पर।

३. याज्ञिक छंद
हरि! नमन।
कर जतन,
बिन थकन-
मन मगन।

४. रागी छंद
वसुंधरा
न बंजरा
पौध रोप
करो हरा।

५. सुगती छंद
शुभ शुभ कहें।
कहते रहें।
हों नर्मदा
बहते रहें।

६. वासव छंद
सत्-शिव-सुंदर।
भीतर-बाहर।
हो विधि-हरि-हर
दो हमको वर।

७. छबि छंदशिव-सुत गणेश!
हरिए कलेश।
माँ ऋद्धि-सिद्धि
हों सँग हमेश।

८. गंग छंद

नव वर्ष आए।
सुख हर्ष लाए।
सबको सभीकी
मंजिल दिलाए।

९. निधि छंद
होता कवि मंद।
बिन जाने छंद।
छोड़ो छल-छंद
पाओ आनंद।।

१०. हाइकु
नए बरस
तरसा न तरस
पा-दे सुयश।

११. माहिया
हर पल स्वागत है
हे नए साल आओ
उन्नति दे मुस्काओ।
१२. दीप छंद
हो पुलकित निशांत।
गगनपति रवि कांत।।
देव! कर तम अंत।
रखो जग को शांत।।

१३. अहीर छंद
भारत देश महान।
देव भूमि शुभ जान।।
करो सदा गुण गान।
विहँस बढ़ाओ मान।।

१४. शिव छंद
गहो देव की शरण।
करो नेक आचरण।।
निबल का करो भरण।
नेक रखो आचरण।।

१५. भव छंद
जय भारत कहो रे!
प्रगति पंथ वरो रे!
बाधा से लड़ो रे!
लक्ष्य विहँस वरो रे!

१६. तोमर छंद
बारह आदित्य श्रेष्ठ।
तिमिर हरें सदा ज्येष्ठ।।
तोमर गुरु लघु पदांत-
परहित-पथ वरें कांत।।

१७. ताण्डव छंद महादेव ताण्डव कर।
अभयदान देते हर।।
डमरू डिमडिम डमडम.
बम भोले शंकर बम।।

१८. लीला छंद
सलिल ज्योति लिंग नाथ।
पद पखार जोड़ हाथ।
शक्ति पीठ कीर्ति गान।
लीला का कर बखान।।

१९. नित छंद
कथ्य लय रस संग हों।
भाव ध्वनि सत्संग हों।।
छंदों में रहो मगन।
नये बनें करो जतन।।

२०. उल्लाला छंद
उल्लाला तेरह कला।
ग्यारहवाँ लघु ही भला।।
मिले चंद्र मणि लें तुरत।
गुमे नहीं करिए जुगत।।

२१. चंडिका छंद
करिए हर दिन वंदना।
श्रम सीकर से अर्चना।।
भारत माँ खुश हों तभी-
घर घर हो जब प्रार्थना।।

२२. कज्जल छंद करेंगे हिंदी में काम।
तभी हो भारत का नाम।।
तजिए मत लें धैर्य थाम-
समय ठीक या रहे वाम।।

२३. सखी छंद
आप बोलें या न बोलें।
सत्य खोलें या न खोलें।।
फैसला है आपका ही-
प्यार के हो लें, न हो लें।।

२४. विजाति छंद
कहो क्या साथ लाए थे?
कहो क्या साथ जाएगा?
रहेंगे हाथ खाली ही -
न कोई साथ आएगा।।

२५. जनक छंद
हम आदम इंसान हों
भले देह म्रियमाण हो
खुद अपने भगवान हों
१.१.२०२५
***

सॉनेट
नया साल

नया साल है, नया हाल हो, नई चाल चलना है,
बीती ताहि बिसार हमें लिखना है नई कहानी,
मन में जग पाए शिव शंकर, तन बन सके भवानी,
जाग उठें मिल सूर्य देव सम कर्मव्रती बनना है।
सबके सपने अपने हों ताना-बाना बुनना है,
मिलें स्नेह से बोलें साथी हम सब मीठी बानी,
छोड़ सकें जाने से पहले कोई कहीं निशानी,
अपनी कम कह औरों की हमको ज्यादा सुनना है।
अनिल अनल भू धरा सलिल सम ताल-मेल रख पाएँ,
नेह नर्मदा नित्य नहाएँ भुज भेंटें सब हिल-मिल,
अगली पीढ़ी को दे पाएँ नव मांगलिक विरासत।
श्रम सीकर की गंग बहाकर जग तारें तर जाएँ,
बंजर में भी नव आशा के सुमन सकें शत शत खिल,
रखें अधर पर हास करें हम नए साल का स्वागत।
१.१.२०२४
•••
सॉनेट
नया साल

दो हजार चौबीस स्वागत है, आ जाओ,
जो बीता सो बीता कुछ शुभ नया करो,
दर्द दूर कर, सबके मन में हर्ष भरो,
तिमिर दूरकर, नव उजास बनकर छाओ।
जन-गण को दे हर्ष झूम आल्हा गाओ,
जनमंगल की राह चलो, बिल्कुल न डरो,
आसमान छूती मंँहगाई, पर कतरो,
सपने हों साकार युक्ति कुछ बतलाओ,
आपदा विपदा युद्ध त्रास दे रहे मिटा,
शांति-राज कर दो हर जन को चैन मिले,
बजे बाँसुरी कान्हा की हो रास मधुर।
जिनके मन हैं मलिन, उन्हें दो कुचल हटा,
शत्रु देश के ढह जाएँ मजबूत किले,
सुख-संतोष सभी पाएँ सब सकें निखर।
३१-१२-२०२३
•••
सोनेट
कल-आज-कल
*
जाने वाला राह बनाता आने वाला चलता है,
पलता है सपना आँखों में तब ही जब हम सोए हों,
फसल काटता केवल वह ही जिसने बीजे बोए हों,
उगता सूरज तब ही जब वह नित संझा में ढलता है।
वह न पनपता जिसको सुख-सौभाग्य अन्य का खलता है,
मुस्कानों की कीमत जानें केवल वे जो रोए हों,
अपनापन पाते हैं वे जो अपनेपन में खोए हों,
लोहा हो फौलाद आग में तप जब कभी पिघलता है।
कल कल करता निर्झर बहता कल पाता मन बैठ निकट,
किलकिल करता जो हो बेकल उसमें सचमुच नहीं अकल,
दास न होना कल का मानव कल-पुर्जों का स्वामी बन।
ठोकर मार न कंकर को तू शंकर उससे हुए प्रगट,
काट न जंगल खोद न पर्वत मिटा न नदी बचा ले जल,
कल से कल को जोड़ आज तू होकर नम्र न नाहक तन।।
३१.१२.२०२३
***
गीत
उजास दे
*
नवल वर्ष के
प्रथम सूर्य की
प्रथम रश्मि
पल पल उजास दे।

गूँजे गौरैया का कलरव
सलिल-धार की घटे न कलकल
पवन सुनाए सन सन सन सन
हो न किसी कोने में किलकिल
नियति अधर को
मधुर हास दे।

सोते-जगते देखें सपने
मानें-तोड़ें जग के नपने
कोशिश कर कर थक जाएँ तो
लगें राम की माला जपने
पीर दर्द सह
झट हुलास दे।

लड़-मिलकर सँग रहना आए
कोई छिटककर दूर न जाए
गले मिल सकें, हाथ मिलाएँ
नयन नयन को नयन बसाए
अधर अधर को
नवल हास दे।
१-२-२०२३,१५•२३
•••
सॉनेट
बेधड़क

बेधड़क बात अपनी कही
कोई माने न माने सचाई
हो न जाती सुता सम पराई
संग श्वासा सी पल पल रही
पीर किसने किसी की गही?
मौज मस्ती में जग साथ था
कष्ट में झट तजा हाथ था
वेदना सब अकेले तही
रेणु सब अश्रुओं से बही
नेह की नर्मदा ना मिली
शेष है हर शिला अनधुली
माँग पूरी करी ना भरी
तुम उड़ाते भले हो हँसी
दिल में गहरे सचाई धँसी
संजीव
१-१-२०२३,४•३८
जबलपुर
●●●
सॉनेट
पग-धूल

ईश्वर! तारो दे पग-धूल
अंश तुम्हारा आया दर पर
जागो जागो जागो हरि हर
क्षमा करो मेरी सब भूल
पग मग पर चल पाते शूल
सुनकर भी अनसुना रुदन-स्वर
क्यों करते हो करुणा सागर
देख न देखी आँसू-झूल
क्या कर सकता भेंट अकिंचन?
अँजुरी में कुछ श्रद्धा-फूल
स्वीकारो यह ब्याज समूल
तरुण पथिक, हो मधुर कृपालु
आस टूटती दिखे न कूल
आकुल किंकर दो पग-धूल
संजीव
१-१-२०२३, ४•२०
जबलपुर
●●●
सॉनेट
*
नया साल है, नया हाल हो, चाल नई,
आशा-अरमानों का सफर नया हो अब,
अमरकंटकी सलिल सदा निर्मल हो सब,
याद न कर जो बीत गई सो बीत गई।
बना सके तो बना सृजन की रीत नई,
जैसा था वैसा ही है इंसां-जग-रब,
किया न अब, साकार करेगा सपना कब?
पूरा पुरातन ही प्रतीत हो प्रीत गई।
नया-पुराना चित-पट दो पहलू जैसे,
करवट बदले समय न जानें हम कैसे?
नहीं बदलते रहते जैसे के तैसे।
जैसे भी हो पाना चाहें पद-पैसे,
समझ न पाते अकल बड़ी है या भैंसे?
जैसा छह आओ हम-तुम हों वैसे।
***
सॉनेट
जाड़ा आया है
*
ठिठुर रहे हैं मूल्य पुराने, जाड़ा आया है।
हाथ तापने आदर्शों को सुलगाया हमने।
स्वार्थ साधने सुविधाओं से फुसलाया हमने।।
जनमत क्रयकर अपना जयकारा लगवाया है।।
अंधभक्ति की ओढ़ रजाई, करते खाट खड़ी।
सरहद पर संकट के बादल, संसद एक नहीं।
जंगल पर्वत नदी मिटाते, आफत है तगड़ी।।
उलटी-सीधी चालें चलते, नीयत नेक नहीं।।
नफरत के सौदागर निश-दिन, जन को बाँट रहे।
मुर्दे गड़े उखाड़ रहे, कर ऐक्य भावना नष्ट।
मिलकर चोर सिपाही को ही, नाहक डाँट रहे।।
सत्ता पाकर ऐंठ रहे, जनगण को बेहद कष्ट।।
गलत आँकड़े, झूठे वादे, दावे मनमाने।
महारोग में रैली-भाषण, करते दीवाने।।
१.१.२०२२
***
अंक माहात्म्य (०-९)
*
शून्य जन्म दे सृष्टि को, सकल सृष्टि है शून्य।
जुड़-घट अंतर शून्य हो, गुणा-भाग फल शून्य।।
*
एक ईश रवि शशि गगन, भू मैं तू सिर एक।
गुणा-भाग धड़-नासिका, है अनेक में एक।।
*
दो जड़-चेतन नार-नर, कृष्ण-शुक्ल दो पक्ष।
आँख कान कर पैर दो, अधर-गाल समकक्ष।।
*
तीन देव व्रत राम त्रय, लोक काल ऋण तीन।
अग्नि दोष-गुण ताप ऋतु, धारा मामा तीन।।
*
चार धाम युग वेद रिपु, पीठ दिशाएँ चार।
वर्ण आयु पुरुषार्थ चौ, चौका चौक अचार।।
*
पाँच देव नद अंग तिथि, तत्व अमिय शर पाँच।
शील सुगंधक इन्द्रियाँ, कन्या नाड़ी साँच।।
*
छह दर्शन वेदांग ऋतु, शास्त्र पर्व रस कर्म।
षडाननी षड राग है, षड अरि-यंत्र न धर्म।।
*
सात चक्र ऋषि द्वीप स्वर, सागर पर्वत रंग।
लोक धातु उपधातु दिन, अश्व अग्नि शुभ अंग।।
*
अष्ट लक्ष्मी सिद्धि वसु, योग कंठ के दोष।
योग-राग के अंग अठ, आत्मोन्नति जयघोष।
*
नौ दुर्गा ग्रह भक्ति निधि, हवन कुंड नौ तंत्र।
साड़ी मोहे नौगजी, हार नौलखा मंत्र।।
१.१.२०२२
***
गीत
बिदा दो

बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
भूमिका जो मिली थी मैंने निभाई
करी तुमने अदेखी, नजरें चुराई
गिर रही है यवनिका अंतिम नमन लो
नहीं अपनी, श्वास भी होती पराई
छाँव थोड़ी धूप हमने साथ झेली
हर्ष गम से रह न पाया दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जब मिले थे किए थे संकल्प
लक्ष्य पाएँ तज सभी विकल्प
चल गिरे उठ बढ़े मिल साथ
साध्य ऊँचा भले साधन स्वल्प
धूल से ले फूल का नव नूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
तीन सौं पैंसठ दिवस थे साथ
हाथ में ले हाथ, उन्नत माथ
प्रयासों ने हुलासों के गीत
गाए, शासन दास जनगण नाथ
लोक से हो तंत्र अब मत दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जा रहा बाईस का यह साल
आ रहा तेईस करे कमाल
जमीं पर पग जमा छू आकाश
हिंद-हिंदी करे खूब धमाल
बजाओ मिल नव प्रगति का तूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
अभियान आगे बढ़ाएँ हम-आप
छुएँ मंज़िल नित्य, हर पथ माप
सत्य-शिव-सुंदर बने पाथेय
नव सृजन का हो निरंतर जाप
शत्रु-बाधा को करो झट चूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
३१-१२-२०२२
१६•३६, जबलपुर
●●●
कविता
*
महाकाल ने महाग्रंथ का पृष्ठ पूर्ण कर,
नए पृष्ठ पर लिखना फिर आरंभ किया है।
रामभक्त ने राम-चरित की चर्चा करके
आत्मसात सत-शिव करना प्रारंभ किया है।
चरण रामकिंकर के गहकर
बहे भक्ति मंदाकिनी कलकल।
हो आराम हराम हमें अब
छू ले लक्ष्य, नया झट मधुकर।
कृष्ण-कांत की वेणु मधुर सुन
नर सुरेश हों, सुर भू उतरें।
इला वरद, संजीव जीव हो।
शंभुनाथ योगेंद्र जगद्गुरु
चंद्रभूषण अमरेंद्र सत्य निधि।
अंजुरी मुकुल सरोज लिए हो
करे नमन कैलाश शिखर को।
सरला तरला, अमला विमला
नेह नर्मदा-पवन प्रवाहित।
अग्नि अनिल वसुधा सलिलांबर
राम नाम की छाया पाएँ।
नए साल में, नए हाल में,
बढ़े राष्ट्र-अस्मिता विश्व में।
रानी हो सब जग की हिंदी
हिंद रश्मि की विभा निरुपमा।
श्वास बसंती हो संगीता,
आकांक्षा हर दिव्य पुनीता।
निशि आलोक अरुण हँस झूमे
श्रीधर दे संतोष-मंजरी।
श्यामल शोभित हरि सहाय हो,
जय प्रकाश की हो जीवन में।
मानवता की जय जय गाएँ।
राम नाम हर पल गुंजाएँ।।
३१-१२-२०२२
●●●
नये साल की दोहा सलिला:
संजीव'सलिल'
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
*
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
*
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
*
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
*
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत..
*
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
*
भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद.
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
*
प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष.
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
*
जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़.
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़..
*
ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल.
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
*
पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
*
आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
*
गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
*
धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन.
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
१-१-२०११
***
।। ॐ ।।
गीत
चित्र गुप्त है नए काल का हे माधव!
गुप्त चित्र है कर्म जाल का हे माधव!
स्नेह साधना हम कर पाएँ श्री राधे!
जीवन की जय जय गुंजायें श्री राधे!
मानव चाहे बनना भाग्य विधाता पर
स्वार्थ साधकर कहे बना जगत्राता पर
सुख-सपनों की खेती हित दुख बोता है
लेख भाल का कब पढ़ पाया हे माधव!
नेह नर्मदा निर्मल कर दो श्री राधे!
रासलीन तन्मय हों वर दो श्री राधे!
रस-लय-भाव तार दे भव से सदय रहो
शारद-रमा-उमा सुत हम हों श्री राधे!
खुद ही वादों को जुमला बता देता
सत्ता हित जिस-तिस को अपने सँग लेता
स्वार्थ साधकर कैद करे संबंधों को
न्यायोचित ठहरा छल करता हे माधव!
बंधन में निर्बंध रहें हम श्री राधे!
स्वार्थरहित संबंध वरें हम श्री राधे!
आए हैं तो जाने की तैयारी कर
खाली हाथों तारकर तरें श्री राधे!
बिसरा देता फल बिन कर्म न होता है
व्यर्थ प्रसाद चढ़ा; संशय मन बोता है
बोये शूल न फूल कभी भी उग सकते
जीने हित पल पल मरता मनु हे माधव!
निजहित तज हम सबहित साधें श्री राधे!
पर्यावरण शुद्धि आराधें श्री राधे!
प्रकृति पुत्र हों, संचय-भोग न ध्येय बने
सौ को दें फिर लें कुछ काँधे श्री राधे!
माधव तन में राधा मन हो श्री राधे!
राधा तन में माधव मन हो हे माधव!
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में हे माधव!
हो सहिष्णु सद्भाव पथ वरें श्री राधे!
१-१-२०२०
***
दोहा गीत
शिव-शिव कह उठ हर सुबह,
सुमिर शिवा सो रात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय-शिला पर दे बना,
कोशिश के नव चित्र.
समय-रेत से ले बना,
नया घरौंदा मित्र.
मिला आँख से आँख तू,
समय सुनेगा बात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय सिया है, सती भी,
तजें राम-शिव जान.
यशोधरा तज बुद्ध बन,
सही समय अनुमान.
बंध रहे सम तो उचित
अनुचित उचित न तात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय सत्य-सुंदर वरो,
पूज शिवा-शिव संग.
रंग न हों बदरंग अब,
साध्य न बने अनंग.
सतत सजग रह हर समय,
समय न करे दे घात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
१.१.२०१८
...
नवगीत
*
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
*
देश दिनों से खड़ा हुआ है,
जो जैसा है अड़ा हुआ है,
किसे फ़िक्र जनहित का पेड़ा-
बसा रहा है, सड़ा हुआ है।
चचा-भतीजा ताल ठोंकते,
पिता-पुत्र ज्यों श्वान भौंकते,
कोई काट न ले तुझको भी-
इसीलिए कहता हूँ-
रुक जा।
*
वादे जुमले बन जाते हैं,
घपले सारे धुल जाते हैं,
लोकतंत्र के मूल्य स्वार्थ की-
दीमक खाती, घुन जाते हैं।
मौनी बाबा बोल रहे हैं
पप्पू जहँ-तहँ डोल रहे हैं
गाल बजाते जब-तब लालू
मत टकराना
बच जा झुक जा।
*
एक आदमी एक न पाता,
दूजा लाख-करोड़ जुटाता,
मार रही मरते को दुनिया-
पिटता रोये, नहीं सुहाता।
हुई देर, अंधेर यहाँ है,
रही अनसुनी टेर यहाँ है,
शुद्ध दलाली, न्याय कहाँ है?
जलने से पहले
मत बुझ जा।
***
नए साल की पहली रचना-
कलह कथा
*
कुर्सी की जयकार हो गयी, सपा भाड़ में भेजें आज
बेटे के अनुयायी फाड़ें चित्र बाप के, आये न लाज
स्वार्थ प्रमुख, निष्ठा न जानते, नारेबाजी शस्त्र हुआ
भीड़तंत्र ही खोद रहा है, लोकतंत्र के लिए कुआं
रंग बदलता है गिरगिट सम, हुआ सफेद पूत का खून
झुका टूटने के पहले ही बाप, देख निज ताकत न्यून
पोल खुली नूरा कुश्ती की, बेटे-बाप हो गए एक
चित्त हुए बेचारे चाचा, दिए गए कूड़े में फेंक
'आजम' की जाजम पर बैठे, दाँव आजमाते जो लोग
नींव बनाई जिनने उनको ठुकराने का पाले रोग
'अमर' समर में हों शहीद पछताएँ, शत्रु हुए वे ही
गोद खिलाया जिनको, भोंका छुरा पीठ में उनने ही
जे.पी., लोहिया, नरेन्द्रदेव की, आत्माएँ करतीं चीत्कार
लालू, शरद, मुलायम ने ही सोशलिज्म पर किया प्रहार
घर न घाट की कोंग्रेस के पप्पू भाग चले अवकाश
कहते थे भूकम्प आएगा, हुआ झूठ का पर्दाफाश
अम्मा की पादुका उठाये हुईं शशिकला फिर आगे
आर्तनाद ममता का मिथ्या, समझ गए जो हैं जागे
अब्दुल्ला कर-कर प्रलाप थक-चुप हो गए, बोलती बन्द
कमल कर रहा आत्मप्रशंसा, चमचे सुना रहे हैं छंद
सेनापति आ गए नए हैं, नया साल भी आया है
समय बताएगा दुश्मन कुछ काँपा या थर्राया है?
इनकी गाथा छोड़ चलें हम,घटीं न लेकिन मिटीं कतार
बैंकों में कुछ बेईमान तो मिले मेहनती कई हजार
श्री प्रकाश से नया साल हो जगमग करिये कृपा महेश
क्यारी-क्यारी कुसुम खिलें नव, काले धन का रहे न लेश
गुप्त न रखिये कोई खाता, खुला खेल खेलें निर्भीक
आजीवन अध्यक्ष न होगा, स्वस्थ्य बने खेलों में लीक
१.१.२०१७
***
लघुकथा
नया साल
*
चंद कदमों के फासले पर एक बूढ़े और एक नवजात को सिसकते-कराहते देखकर चौंका, सजग हो धीरज बँधाकर कारण पूछा तो दोनों एक ही तकलीफ के मारे मिले। उनकी व्यथा-कथा ने झकझोर दिया।
वे दोनों समय के वंशज थे, एक जा रहा था, दूसरा आ रहा था, दोनों को पहले से सत्य पता था, दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं के लिये तैयार थे। फिर उनके दर्द और रुदन का कारण क्या हो सकता था? बहुत सोचने पर भी समझ न आया तो उन्हीं से पूछ लिया।
हमारे दर्द का कारण हो तुम, तुम मानव जो खुद को दाना समझने वाले नादान हो। कुदरत के कानून के मुताबिक दिन-रात, मौसम, ऋतुएँ आते-जाते रहते हैं। आदमियों को छोड़कर कोई दूसरी नस्ल कुदरत के काम में दखल नहीं देती। सब अपना-अपना काम करते हैं। तुम लोग बदलावों को खुद से जोड़कर और सबको परेशान करते हो।
कुदरत के लिये सुबह दोपहर शाम रात और पैदा होने-मरने का क्रम का एक सामान्य प्रक्रिया है। तुमने किसी आदमी से जोड़कर समय को साल में गिनना आरंभ कर दिया, इतना ही नहीं अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग आदमियों के नाम पर साल बना लिये।
अब साल बदलने की आड़ में हर कुछ दिनों में नये साल के नाम पर झाड़ों को काट कर कागज़ बनाकर उन पर एक दूसरे को बधाई कामना देते हो जबकि इसमें तुम्हारा कुछ नहीं होता। कितना शोर मचाते हो?, कितनी खाद्य सामग्री फेंकते हो?, कितना धुआँ फैलाते हो? पशु-पक्षियों का जीना मुश्किल कर देते हो। तुम्हारी वज़ह से दोनों जाते-आते समय भी चैन से नहीं रह सकते। सुधर जाओ वरना भविष्य में कभी नहीं देख पालोगे कोई नया साल। समय के धैर्य की परीक्षा मत लो, काल को महाकाल बनने के लिये मजबूर मत करो।
इतना कहकर वे दोनों तो ओझल हो गये लेकिन मेरी आँख खुल गयी, उसके बाद सो नहीं सका क्योंकि पड़ोसी जोर-शोर से मना रहे थे नया साल।
***
मुक्तिका:
रहें साल भर
*
रहें साल भर हँस चाहों में
भले न रह पाएँ बाँहों में
*
कोशिश, कशिश, कदम का किस्सा
कह-सुन, लिख-पढ़-गढ़ राहों में
*
बहा पसीना, चाय बेचकर
कुछ की गिनती हो शाहों में
*
संगदिली या तंगदिली ने
कसर न छोड़ी है दाहों में
*
भूख-निवाला जैसे हम-तुम
संग रहें चोटों-फाहों में
*
अमर हुई है 'सलिल' लगावट
ज़ुल्म-जुदाई में, आहों में
*
परवाज़ों ने नाप लिया है
आसमान सुन लो वाहों में
***
दोहा सलिला:
साल रहा है दर्द यह, कैसा आया साल?
जा बैठा है चीन की, गोद अनुज नेपाल
*
बड़ा न होकर सगा हो, अपना भारत देश
रहें पडोसी संग तो, होगी शक्ति विशेष
*
सैन्य कटाकर मिल रहे, नायक गले सहास
नर मुंडों पर सियासत, जनगण को संत्रास
*
साल मिसाल बने 'सलिल', घटे प्रदूषण रोज
नेता लूटें देश को, गिद्ध करें ज्यों भोज
*
अफसरशाही ने किया, लोकतंत्र को कैद
मना रहा रंगरेलियाँ, लोभ तन्त्र नापैद
१.१.२०१६
***
प्रथम नवगीत २०१५
.
हे साल नये!
मेहनत के रच दे गान नये
.
सूरज ऊगे
सब तम पीकर खुद ही डूबे
शाम हँसे, हो
गगन सुनहरा, शशि ऊगे
भूचाल नये
थक-हार विफल तूफ़ान नये
.
सामर्थ्य परख
बाधा-मुश्किल वरदान बने
न्यूनता दूर कर
दृष्टि उठे या भृकुटि तने
वाचाल न हो
पुरुषार्थ गढ़े प्रतिमान नये
.
कंकर शंकर
प्रलयंकर, बन नटराज नचे
अमृत दे सबको
पल में सारा ज़हर पचे
आँसू पोंछे
दस दिश गुंजित हों गान नये
.
१-१-२०१५, ०१.१०
***
नवगीत:
भाल उठा...
*
बहुत झुकाया अब तक तूने
अब तो अपना भाल उठा...
*
समय श्रमिक!
मत थकना-रुकना.
बाधा के सम्मुख
मत झुकना.
जब तक मंजिल
कदम न चूमे-
माँ की सौं
तब तक
मत चुकना.
अनदेखी करदे छालों की
गेंती और कुदाल उठा...
*
काल किसान!
आस की फसलें.
बोने खातिर
एड़ी घिस ले.
खरपतवार
सियासत भू में-
जमी- उखाड़
न न मन-बल फिसले.
पूँछ दबा शासक-व्यालों की
पोंछ पसीना भाल उठा...
*
ओ रे वारिस
नए बरस के.
कोशिश कर
क्यों घुटे तरस के?
भाषा-भूषा भुला
न अपनी-
गा बम्बुलिया
उछल हरष के.
प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
बजा मंजीरा ताल उठा...
***
२०१४ का अंतिम नवगीत:
कब आया, कब गया
साल यह
.
रोजी-रोटी रहे खोजते
बीत गया
जीवन का घट भरते-भरते
रीत गया
रो-रो थक, फिर हँसा
साल यह
.
आये अच्छे दिन कब कैसे?
खोज रहे
मतदाता-हित नेतागण को
भोज रहे
छल-बल कर ढल गया
साल यह
.
मत रो रोना, चैन न खोना
धीरज धर
सुख-दुःख साथी, धूप-छाँव सम
निशि-वासर
सपना बनकर पला
साल यह
.
३१.१२. २०१४, २३.५५
***
गीत:
झाँक रही है...
संजीव 'सलिल'
*
झाँक रही है
खोल झरोखा
नए वर्ष में धूप सुबह की...
*
चुन-चुन करती चिड़ियों के संग
कमरे में आ.
बिन बोले बोले मुझसे
उठ! गीत गुनगुना.
सपने देखे बहुत, करे
साकार न क्यों तू?
मुश्किल से मत डर, ले
उनको बना झुनझुना.
आँक रही
अल्पना कल्पना
नए वर्ष में धूप सुबह की...
*
कॉफ़ी का प्याला थामे
अखबार आज का.
अधिक मूल से मोह पीला
क्यों कहो ब्याज का?
लिए बांह में बांह
डाह तज, छह पल रही-
कशिश न कोशिश की कम हो
है सबक आज का.
टाँक रही है
अपने सपने
नए वर्ष में धूप सुबह की...
१.१.२०१४
***
बाल गीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फाँदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
गीत
नया पृष्ठ
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
***
गीत
साल नया
*
कुछ ऐसा हो साल नया
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाए फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रात जग जगा किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.
प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.
तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...
*
स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रखे
हरेक हाथ में मालपुआ...
१.१.२०११

*****