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गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

दिसंबर ५, सॉनेट, कबीर, कब क्या, हुर्रेमारा, अलंकार, अतिशयोक्ति, नवगीत

सलिल सृजन दिसंबर ५
*
सॉनेट
कबीर
*
ज्यों की त्यों चादर धर भाई
जिसने दी वह आएगा।
क्यों तैंने मैली कर दी है?
पूछे; क्या बतलायेगा?
काँकर-पाथर जोड़ बनाई
मस्जिद चढ़कर बांग दे।
पाथर पूज ईश कब मिलता?
नाहक रचता स्वांग रे!
दो पाटन के बीच न बचता
कोई सोच मत हो दुखी।
कीली लगा न किंचित पिसता
सत्य सीखकर हो सुखी।
फेंक, जोड़ मत; तभी अमीर
सत्य बोलता सदा कबीर।।
५-१२-२०२१
***
सॉनेट
भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
उठो न आलस करना।
कलरव करती चिड़िया आई।।
ईश-नमन कर हँसना।
खिड़की खोल, हवा का झोंका।
कमरे में आकर यह बोले।
चल बाहर हम घूमें थोड़ा।।
दाँत साफकर हल्का हो ले।।
लौट नहा कर, गोरस पी ले।
फिर कर ले कुछ देर पढ़ाई।
जी भर नए दिवस को जी ले।।
बाँटे अरुण विहँस अरुणाई।।
कोरोना से बचकर रहना।
पहन मुखौटा जैसे गहना।।
५-१२-२०२१
***
कब क्या दिसंबर
*
०१. एड्स जागरूकता दिवस, नागालैंड दिवस १९६३, सीमा सुरक्ष बल गठित १९६५, क्रांन्तिकारी राजा महेंद्र प्रताप जन्म १८८६
०२. संत ज्ञानेश्वर दिवस, अरविन्द आश्रम स्कूल पॉन्डिचेरी १९४२
०३. किसान दिवस, विश्व विकलाँग दिवस, शहीद खुदीराम बोस जन्म १८८९ शहीद ११-८-१९०८, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जयंती १८८४, यशपाल जन्म १९०३ चद्रसेन विराट जन्म १९३६, देवानंद निधन २०११, भारत-पाक युद्ध १९७१, भोपाल गैस रिसाव १९८४
०४. भारतीय जल सेना दिवस, सती प्रथा समापन आदेश जारी १८२९ (लार्ड विलियम बेंटिक), शेख अब्दुल्ला जन्म १९०५
०५. आर्थिक-सामाजिक विकास दिवस, महर्षि अरविन्द दिवस, पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' जन्म १९१४, रामकृष्ण दीक्षित जन्म १९२८
०६. डॉ. अंबेडकर निधन १९५६, तुर्की महिला मताधिकार १९२९
०७. झंडा दिवस, भारत प्रथम विधवा विवाह १८५६, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जन्म १८७९
०८. तेजबहादुर सप्रू जन्म १८७५, क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन) जन्म १८७९, शर्मिला टैगोर जन्म
०९. संविधान सभा प्रथम बैठक १९४६, महाकवि सूरदास जन्म १४८४, क्रन्तिकारी राव तुलाराम जन्म १८२५, शत्रुघ्न सिन्हा जन्म,
१०. मानव अधिकार दिवस, डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस निधन १९४२ चीन में
११. डॉ. राजेंद्र प्रसाद अध्यक्ष १९४६, कवि प्रदीप जन्म, ओशो जन्म १९३१, अमरीकी अंतरिक्ष उतरे १९७२ (अपोलो)
१२. मैथिलीशरण गुप्त निधन १९६४, प्रो. सत्य सहाय निधन २०१०, प्रिवीपर्स समाप्ति कानून पारित १०७१
१३. भवानी प्रसाद तिवारी निधन
१४. ऊर्जा बचत दिवस, उपेंद्र नाथ अश्क जन्म १९१०, राजकपूर जन्म १९२४, शैलेन्द्र जन्म १९६६
१५. सरदार पटेल निधन १९५०
१६. बांगला देश दिवस १९७१, प्रथम परमाणु भट्टी कलपक्कम १९८५
१७. क्रन्तिकारी राजेंद्र लाहिड़ी निधन १९२७, भगत सिंह- स्कॉट के धोखे में सांडर्स को गोली मारी, नूरजहाँ निधन १६४५, सत्याग्रह स्थगित १९४०, पाक सेना सर्पण ढाका १९७१
१८. राष्ट्रीय संग्रहालय उद्घाटित १९६०
१९. रामप्रसाद बिस्मिल-अशफ़ाक़ उल्ला खान शहीद १९२७, गोवा विजय १९६१,
२०. क्रांतिकारी बाबा सोहन सिंह भखना शहीद १९६८, वनडे मातरम् रचना १८७६ (बंकिम चन्द्र चटर्जी)
२२. श्रीनिवास रामानुजम जन्म १८८७
२३. स्वामी श्रद्धानन्द निधन १९२६
२४. राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस, विश्व भारती स्थापना १९२१, मो.रफ़ी जन्म १९२४
२५. बड़ा दिन, मदन मोहन मालवीय जन्म १८६१, मो. अली जिन्ना जन्म, अटल बिहारी बाजपेयी जन्म १९२४, कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव जन्म, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी निधन, अभिनेत्री साधना निधन २०१५
२६. शहीद ऊधम सिंह जन्म १८९९, डॉ. किशोर काबरा जन्म १९३४, यशपाल निधन १९७६,
२७. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष स्थापित १९४५, जान गण मन गायन दिवस १९११ मिर्ज़ा ग़ालिब जन्म १७९७, बेनज़ीर भुट्टो हत्या २००७
२८. सुमित्रा नंदन पंत निधन १९७७, प्रथम सिनेमा गृह पेरिस १८९५, कश्मीर युद्ध १९४७
२९. कोलकाता मेट्रो कार्यारंभ १९७२
३०. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराकर भारत को स्वतंत्र घोषित किया, बाबर मारा १५३०
३१. स्वराज्य संकल्प लाहौर १९२९, विश्व युद्ध समाप्त १९४६, रघुवीर सहाय निधन, दुष्यंत कुमार निधन
***
दोहांजलि
*
जयललिता-लालित्य को
भूल सकेगा कौन?
शून्य एक उपजा,
भरे कौन?
छा गया मौन.
*
जननेत्री थीं लोकप्रिय,
अभिनेत्री संपूर्ण.
जयललिता
सौन्दर्य की
मूर्ति, शिष्ट-शालीन.
*
दीन जनों को राहतें,
दीं
जन-धन से खूब
समर्थकी जयकार में
हँसीं हमेशा डूब
*
भारी रहीं विपक्ष पर,
समर्थकों की इष्ट
स्वामिभक्ति
पाली प्रबल
भोगें शेष अनिष्ट
*
कर विपदा का सामना
पाई विजय विशेष
अंकित हैं
इतिहास में
'सलिल' न संशय लेश
***
दो द्विपदियाँ - दो स्थितियाँ
*
साथ थे तन न मन 'सलिल' पल भर
शेष शैया पे करवटें कितनी
*
संग थे तुम नहीं रहे पल भर
हैं मगर मन में चाहतें कितनी
***
दोहा सलिला-
कवि-कविता
*
जन कवि जन की बात को, करता है अभिव्यक्त
सुख-दुःख से जुड़ता रहे, शुभ में हो अनुरक्त
*
हो न लोक को पीर यह, जिस कवि का हो साध्य
घाघ-वृंद सम लोक कवि, रीति-नीति आराध्य
*
राग तजे वैराग को, भक्ति-भाव से जोड़
सूर-कबीरा भक्त कवि, दें समाज को मोड़
*
आल्हा-रासो रच किया, कलम-पराक्रम खूब
कविपुंगव बलिदान के, रंग गए थे डूब
*
जिसके मन को मोहती, थी पायल-झंकार
श्रंगारी कवि पर गया, देश-काल बलिहार
*
हँसा-हँसाकर भुलाई, जिसने युग की पीर
मंचों पर ताली मिली, वह हो गया अमीर
*
पीर-दर्द को शब्द दे, भर नयनों में नीर
जो कवि वह होता अमर, कविता बने नज़ीर
*
बच्चन, सुमन, नवीन से, कवि लूटें हर मंच
कविता-प्रस्तुति सौ टका, रही हमेशा टंच
*
महीयसी की श्रेष्ठता, निर्विवाद लें मान
प्रस्तुति गहन गंभीर थी, थीं न मंच की जान
*
काका की कविता सकी, हँसा हमें तत्काल
कथ्य-छंद की भूल पर, हुआ न किन्तु बवाल
*
समय-समय की बात है, समय-समय के लोग
सतहीपन का लग गया, मित्र आजकल रोग
५.१२.२०१६
***
देवी दंतेश्वरी के दामाद - हुर्रेमारा
----------------
दंतेश्वरी देवी और आदिवासी संयोजन की अनेक कहानियों में से एक है उनके दामाद हुर्रेमारा की। आदिवासी मान्यतायें न केवल उन्हें अपने परिवार के स्तर तक जोड़ती हैं अपितु वे देवी के भी बेटे-बेटियों, नाती-पोतों की पूरी दुनिया स्थापित कर देते हैं। देवी के ये परिजन आपस में लड़ते-झगडते भी हैं तथा प्रेम-मनुहार भी करते हैं।
कहते हैं देवी दंतेश्वरी की पुत्री मावोलिंगो को देख कर जनजातीय देव हुर्रेमारा आसक्त हो गये। उन्होंने मावोलिंगो से अपना प्रेम व्यक्त किया। यह प्यार अपनी परिणति तक पहुँचता इससे पहले ही लड़की की माँ अर्थात देवी दंतेश्वरी को इसकी जानकारी मिल गयी और उन्होंने विवाह को अपनी असहमति प्रदान कर दी। हुर्रेमारा भी कोई साधारण देव तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समय तक प्रयास किया कि दंतेश्वरी मान जायें और अपनी पुत्री से उनके विवाह को स्वीकारोक्ति प्रदान कर दें। बात न बनते देख वे क्रोधित हो गये। उन्होंने अपनी बात मनवाने की जिद में शंखिनी-डंकिनी नदियों के पानी को ही संगम के निकट रोक दिया। अब जलस्तर बढने लगा और धीरे धीरे देवी दंतेश्वरी का मंदिर डूब जाने की स्थिति निर्मित हो गयी। दंतेश्वरी को हार कर हुर्रेमारा की जिद माननी ही पड़ी। इस तरह उनकी पुत्री मावोलिंगो से हुर्रेमारा का विवाह सम्पन्न हो सका।
बात यहीं समाप्त नहीं होती। दामाद हुर्रेमारा जब ससुराल पहुँचे तो उनके अपने ही नखरे थे। तुनक मुजाज हुर्रेमारा हर रोज नयी मांग रखते, अपने स्वागत की नयी नयी अपेक्षायें प्रदर्शित करते और किसी न किसी बात पर झगड़ लेते। अंतत: एक दिन सास-दामाद अर्थात दंतेश्वरी और हुर्रेमारा में ऐसी बिगडी कि अब दोनो ही एक दूसरे से मिलना पसंद नहीं करते। यद्यपि देवी के स्थान में हुर्रेमारा की और हुर्रेमारा के स्थान में देवी दंतेश्वरी की विशेष व्यवस्था की जाती है। दंतेवाड़ा से कुछ ही दूर भांसी गाँव के पास एक पहाड़ी तलहटी में हुर्रेमारा का स्थान है जहाँ वे अपनी पत्नी मावोलिंगो व अपने एक पुत्र के साथ रह रहे हैं। इस देव परिवार की अनेक संततियाँ हैं जो निकटस्थ अनेक गाँवों में निवासरत हैं और वहाँ के निवासियों द्वारा सम्मान पाती हैं।
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***
अलंकार सलिला ३९
अतिशयोक्ति सीमा हनें
*
जब सीमा को तोड़कर, होते सीमाहीन
अतिशयोक्ति तब जनमती, सुनिए दीन-अदीन..
बढा-चढ़ाकर जब कहें, बातें सीमा तोड़.
अतिशयोक्ति तब जानिए, सारी शंका छोड़..
जहाँ लोक-सीमा का अतिक्रमण करते हुए किसी बात को अत्यधिक बढा-चढाकर कहा गया हो, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
जहाँ पर प्रस्तुत या उपमेय को बढा-चढाकर शब्दांकित किया जाये वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. परवल पाक, फाट हिय गोहूँ।
यहाँ प्रसिद्ध कवि मालिक मोहम्मद जायसी ने नायिका नागमती के विरह का वर्णन करते हुए कहा है कि उसके विरह के ताप के कारण परवल पक गये तथा गेहूँ का ह्रदय फट गया।
२. मैं तो राम विरह की मारी, मोरी मुंदरी हो गयी कँगना।
इन पंक्तियों में श्री राम के विरह में दुर्बल सीताजी की अँगूठी कंगन हो जाने का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।
३. ऐसे बेहाल बेबाइन सों, पग कंटक-जल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा, तुम आये न इतै कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करि के करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुओ नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।।
४. बूँद-बूँद मँह जानहू।
५. कहुकी-कहुकी जस कोइलि रोई।
६. रकत आँसु घुंघुची बन बोई।
७. कुंजा गुन्जि करहिं पिऊ पीऊ।
८. तेहि दुःख भये परास निपाते।
९. हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सारी जल गयी, गए निसाचर भाग।। -तुलसी
१०. देख लो साकेत नगरी है यही।
स्वर्ग से मिलने गगन को जा रही।। -मैथिलीशरण गुप्त
११. प्रिय-प्रवास की बात चलत ही, सूखी गया तिय कोमल गात।
१२. दसन जोति बरनी नहिं जाई. चौंधे दिष्टि देखि चमकाई.
१३. आगे नदिया पडी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार, तब तक था चेतक उस पार।।
१४. भूषण भनत नाद विहद नगारन के, नदी नाद मद गैबरन के रलत है।
१५. ये दुनिया भर के झगडे, घर के किस्से, काम की बातें।
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ।। -जावेद अख्तर
१६. मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार।
दुःख ने दुःख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।। -निदा फाज़ली
अतिशयोक्ति अलंकार के निम्न ८ प्रकार (भेद) हैं।
१. संबंधातिशयोक्ति-
जब दो वस्तुओं में संबंध न होने पर भी संबंध दिखाया जाए अथवा जब अयोग्यता में योग्यता प्रदर्शित की जाए तब संबंधातिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
१. फबि फहरहिं अति उच्च निसाना।
जिन्ह मँह अटकहिं बिबुध बिमाना।।
फबि = शोभा देना, निसाना = ध्वज, बिबुध = देवता।
यहाँ झंडे और विमानों में अटकने का संबंध न होने पर भी बताया गया है।
२. पँखुरी लगे गुलाब की, परिहै गात खरोंच
गुलाब की पँखुरी और गात में खरोंच का संबंध न होने पर भी बता दिया गया है।
३. भूलि गयो भोज, बलि विक्रम बिसर गए, जाके आगे और तन दौरत न दीदे हैं।
राजा-राइ राने, उमराइ उनमाने उन, माने निज गुन के गरब गिरबी दे हैं।।
सुजस बजाज जाके सौदागर सुकबि, चलेई आवै दसहूँ दिशान ते उनींदे हैं।
भोगी लाल भूप लाख पाखर ले बलैया जिन, लाखन खरचि रूचि आखर ख़रीदे हैं।।
यहाँ भुला देने अयोग्य भोग आदि भोगीलाल के आगे भुला देने योग्य ठहराये गये हैं।
४. जटित जवाहर सौ दोहरे देवानखाने, दूज्जा छति आँगन हौज सर फेरे के।
करी औ किवार देवदारु के लगाए लखो, लह्यो है सुदामा फल हरि फल हेरे के।।
पल में महल बिस्व करमै तयार कीन्हों, कहै रघुनाथ कइयो योजन के घेरे में।
अति ही बुलंद जहाँ चंद मे ते अमी चारु चूसत चकोर बैठे ऊपर मुंडेरे के।।
५. आपुन के बिछुरे मनमोहन बीती अबै घरी एक कि द्वै है।
ऐसी दसा इतने भई रघुनाथ सुने भय ते मन भ्वै है।।
गोपिन के अँसुवान को सागर बाढ़त जात मनो नभ छ्वै है।
बात कहा कहिए ब्रज की अब बूड़ोई व्है है कि बूडत व्है हैं।।
२. असम्बन्धातिशयोक्ति-
जब दो वस्तुओं में संबंध होने पर भी संबंध न दिखाया जाए अथवा जब योग्यता में अयोग्यता प्रदर्शित की जाए तब असंबंधातिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
१. जेहि वर वाजि राम असवारा। तेहि सारदा न बरनै पारा।।
वाजि = घोडा, न बरनै पारा = वर्णन नहीं कर सकीं।
२. अति सुन्दर लखि सिय! मुख तेरो। आदर हम न करहिं ससि केरो।।
करो = का। चन्द्रमा में मुख- सौदर्य की समानता के योग्यता होने पर भी अस्वीकार गया है।
३. देखि गति भासन ते शासन न मानै सखी
कहिबै को चहत गहत गरो परि जाय
कौन भाँति उनको संदेशो आवै रघुनाथ
आइबे को न यो न उपाय कछू करि जाय
विरह विथा की बात लिख्यो जब चाहे तब
ऐसे दशा होति आँच आखर में भरि जाय
हरि जाय चेत चित्त सूखि स्याही छरि जाय
३. चपलातिशयोक्ति-
जब कारण के होते ही तुरंत कार्य हो जाए।
उदाहरण-
१. तव सिव तीसर नैन उघारा। चितवत काम भयऊ जरि छारा।।
शिव के नेत्र खुलते ही कामदेव जलकर राख हो गया।
२. आयो-आयो सुनत ही सिव सरजा तव नाँव।
बैरि नारि दृग जलन सौं बूडिजात अरिगाँव।।
४. अक्रमातिशयोक्ति-
जब कारण और कार्य एक साथ हों।
उदाहरण-
१. बाणन के साथ छूटे प्राण दनुजन के।
सामान्यत: बाण छूटने और लगने के बाद प्राण निकालेंगे पर यहाँ दोनों क्रियाएं एक साथ होना बताया गया है।
२. पाँव के धरत, अति भार के परत, भयो एक ही परत, मिली सपत पताल को।
३. सन्ध्यानों प्रभु विशिख कराला, उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।
४. क्षण भर उसे संधानने में वे यथा शोभित हुए।
है भाल नेत्र जवाल हर, ज्यों छोड़ते शोभित हुए।।
वह शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ।
धड से जयद्रथ का उधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।।
५. अत्यंतातिशयोक्ति-
जब कारण के पहले ही कार्य संपन्न हो जाए।
उदाहरण:
१. हनूमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सगरी जर गयी, गये निसाचर भाग।।
२. धूमधाम ऐसी रामचद्र-वीरता की मची, लछि राम रावन सरोश सरकस तें।
बैरी मिले गरद मरोरत कमान गोसे, पीछे काढ़े बाण तेजमान तरकस तें।।
६. भेदकातिशयोक्ति-
जहाँ उपमेय या प्रस्तुत का अन्यत्व वर्णन किया जाए, अभेद में भी भेद दिखाया जाए अथवा जब और ही, निराला, न्यारा, अनोखा आदि शब्दों का प्रयोग कर किसी की अत्यधिक या अतिरेकी प्रशंसा की जाए।
उदाहरण-
१. न्यारी रीति भूतल, निहारी सिवराज की।
२. औरे कछु चितवनि चलनि, औरे मृदु मुसकान।
औरे कछु सुख देत हैं, सकें न नैन बखान।।
अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान।
वह चितवन औरे कछू, जेहि बस होत सुजान।।
७. रूपकातिशयोक्ति-
उदाहरण-
१. जब केवल उपमान या अप्रस्तुत का कथन कर उसी से उपमेय या प्रस्तुत का बोध कराया जाए अथवा उपमेय का लोप कर उपमान मात्र का कथा किया जाए अर्थात उपमान से ही अपमान का भी अर्थ अभीष्ट हो तब रूपकातिशयोक्ति होता है। रूपकातिशयोक्ति का अधिक विक्सित और रूढ़ रूप प्रतिक योजना है।
उदाहरण-
१. कनकलता पर चंद्रमा, धरे धनुष दो बान।
कनकलता = स्वर्ण जैसी आभामय शरीर, चंद्रमा = मुख, धनुष = भ्रकुटी, बाण = नेत्र, कटाक्षकनकलता यहाँ नायिका के सौन्दर्य का वर्णन है। शरीर, मुख, भ्रकुटी, कटाक्ष आदि उप्मेयों का लोप कर केवल लता, चन्द्र, धनुष, बाण आदि का कथन किया गया है किन्तु प्रसंग से अर्थ ज्ञात हो जाता है।
२. गुरुदेव! देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा।
यहाँ उपमेय अभिमानु का उल्लेख न कर उपमान सिंह मात्र का उल्लेख है जिससे अर्थ ग्रहण किया जा सकता है।
३.विद्रुम सीपी संपुट में, मोती के दाने कैसे।
है हंस न शुक यह फिर क्यों, चुगने को मुक्त ऐसे।।
४. पन्नग पंकज मुख गाहे, खंजन तहाँ बईठ।
छत्र सिंहासन राजधन, ताकहँ होइ जू दीठ।।
८. सापन्हवातिशयोक्ति-
यह अपन्हुति और रूपकातिशयोक्ति का सम्मिलित रूप है। जहाँ रूपकातिशयोक्ति प्रतिषेधगर्भित रूप में आती है वहाँ सापन्हवातिशयोक्ति होता है।
उदाहरण-
१. अली कमल तेरे तनहिं, सर में कहत अयान।
यहाँ सर में कमल का निषेध कर उन्हें मुख और नेत्र के रूप में केवल उपमान द्वारा शरीर में वर्णित किया गया है।
टिप्पणी: उक्त ३, ४, ५ अर्थात चपलातिशयोक्ति, अक्रमातिशयोक्ति तथा अत्यंतातिशयोक्ति का भेद कारण के आधार पर होने के कारण कुछ विद्वान् इन्हें कारणातिशयोक्ति के भेद-रूप में वर्णित करते हैं।
***
***
गीत -
*
महाकाल के पूजक हैं हम
पाश काल के नहीं सुहाते
नहीं समय-असमय की चिंता
कब विलंब से हम घबराते?
*
खुद की ओर उठीं त्रै ऊँगली
अनदेखी ही रहीं हमेशा
एक उठी जो औरों पर ही
देख उसी को ख़ुशी मनाते
*
कथनी-करनी एक न करते
द्वैत हमारी श्वासों में है
प्यासों की कतार में आगे
आसों पर कब रोक लगाते?
*
अपनी दोनों आँख फोड़ लें
अगर तुम्हें काना कर पायें
संसद में आचरण दुरंगा
हो निलज्ज हम रहे दिखाते
*
आम आदमी की ताकत ही
रखे देश को ज़िंदा अब तक
नेता अफसर सेठ बेचकर
वरना भारत भी खा जाते
५.१२.२०१५
***
नवगीत :
*
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
मर्जी हो तो पंगु को
गिरि पर देता है चढ़ा
अंधे को देता दिखा
निर्धन को कर दे धनी
भक्तों को लेता बचा
वो खुले-आम, बिन आड़ के
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
पानी बिन सूखा कहीं
पानी-पानी है कहीं
उसका कुछ सानी नहीं
रहे न कुछ उससे छिपा
मनमानी करता सदा
फिर पत्ते चलता ताड़ के
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
अपनी बीबी छुड़ाने
औरों को देता लड़ा
और कभी बंसी बजा
करता डेटिंग रास कह
चने फोड़ता हो सलिल
ज्यों भड़भूंजा भाड़ बिन
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
३-१२-२०१५
***

कचनार

कचनार 

   
हाँगकाँग का राष्ट्रीय, फूल बना कचनार।
बवासीर खाँसी दमा, हरकर दे उपहार।।
         
            कचनार (काँचनार, कराली, बौहिनिया वेरिएगाटा) एक पर्णपाती वृक्ष है जिसमें विशिष्ट तितली के आकार के पत्ते और दिखावटी आर्किड जैसे फूल होते हैं। दक्षिण एशिया का मूल निवासी, यह वृक्ष १२ मीटर की ऊँचाई तक बढ़ता है, जिसमें फैला हुआ मुकुट और हरी-भूरी छाल होती है। इसके सफेद फ़ेद, पीले, लाल रंग के फूल, गुलाबी रंग की धारियों के साथ बेहद खूबसूरत दिखाई देते हैं। संस्कृत में कचनार शब्द का अर्थ है 'एक सुंदर चमकती हुई महिला', जो इस तरह के सुंदर वृक्ष के लिए एक उपयुक्त नाम है। इसे बगीचों और पार्कों में लगाया जाता है। फूलने पर इसका सौंदर्य देखने लायक होता है। दो-लोब वाली पत्तियों की विशेषता के कारण इस वृक्ष को इसका लैटिन नाम बौहिनिया मिला। इसकी पत्तियों के आकार के कारण इसे 'ऊँट के पैर का पेड़' भी कहा जाता है। कचनार मार्च-अप्रैल महीनों में फूलता है। मई-जून में  इसकी फलियों में बीज पकते हैं जिन्हें इकट्ठा कर नए पौधे पाए जा सकते हैं। कचनार के पौधे में हेनट्रीकॉन्टेन, ऑक्टाकोसानॉल, साइटोस्टेरॉल और स्टिगमास्टरोल जैसे फाइटोकोन्स्टिट्यूएंट्स होते हैं जो पौधे की एंटीएलर्जिक गुणों में सहायक होते हैं। कचनार की दो प्रजातियाँ होती हैं। एक में सफेद कलर की पुष्प कालिकाएँ आती हैं जबकि दूसरी पर  लाल रंग के फूल खिलते हैं। सर्दियों में यह पेड़ गुलाबी रंग के बहुत प्यारे प्यारे फूलों से लद जाता है। कचनार का पेड़ भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, चीन, वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, और इंडोनेशिया आदि देशों में पाया जाता है। भारत में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, और ओडिशा राज्यों में अधिक पाया जाता है। 

            कचनार एंटीऑक्सीडेंट, एंटी-हेल्मिंटिक, एस्ट्रिंजेंट, एंटी-लेप्रोटिक, एंटी-डायबिटिक, एंटी-हाइपरग्लाइसेमिक और एंटी-माइक्रोबियल है। यह रक्त शर्करा स्तर को नियंत्रित करने में मदद कर मधुमेह (डायबिटीज) को प्रभावी रूप से प्रबंधित करने में मदद करते हैं। यह क्षय रोग, खाँसी, कफ  में रामबाण औषधि का काम करता है। कचनार (बौहिनिया वेरिएगाटा) चयापचय में सुधार करस्टेम वजन घटाने में सहायक होता है। 'ग्रोथ हर्ब' के नाम से प्रसिद्ध कचनार घावों को ठीक कर नई कोशिकाओं के निर्माण को तेज करता है। आयुर्वेद के अनुसार कचनार-चूर्ण का गुनगुने पानी और शहद के साथ सेवन करें तो यह हाइपोथायरॉइड-प्रबंधन में मदद करता है। इस में त्रिदोष संतुलन और दीपन (क्षुधावर्धक) गुण होते हैं। अपने शीत और कसैले गुणों के कारण कचनार त्वचा की समस्याओं जैसे कि कील, मुँहासे आदि के इलाज में बहुत उपयोगी है। कचनार पौधे के यौगिक  शरीर में इंसुलिन तंत्र को नियंत्रित कर बढ़ते रक्त शर्करा का स्तर कम करते हैं। मुँह में छाले, मसूड़े में कीड़े सहित जख्म या दुर्गंध हो तो दिन में तीन बार कचनार के पेड़ की छाल का काढ़ा बनाकर, छान कर गरारे करने से राहत मिलती है।  कचनार की छाल को अच्छे से पीसकर बना चूर्ण रोज सुबह २ ग्राम पानी के साथ सेवन करने से पेट से संबंधित बीमारियों से भी राहत मिलती है। कचनार की पत्तियों का काढ़ा बनाकर पिएँ तो लिवर से संबंधित समस्याएँ, मधुमेह, रक्तचाप आदि नियंत्रित रहेगा। कचनार-चूर्ण शहद यागुनगुने पानी के साथ सेवन करें, तो उससे थायरायड का समाधान होता है। 

कचनार का उपयोग हाइपोथायरायडिज्म के उपचार में किया जाता है। एक क्लासिकल आयुर्वेदिक पॉलीहर्बल औषधि 'कचनार गुग्गुल'  हैत्वचा रोग, घाव, सूजन, पेचिश और अल्सर जैसी विभिन्न बीमारियों के इलाज में मदद करता है। यह फ्री रेडिकल्‍स से लड़ने में मदद करता है, इम्‍यूनिटी को बढ़ाता है,  एंटी-इंफ्लेमेटरी गुणों के कारण सूजन कम करता है। आयुर्वेद के अनुसार, जब शहद के साथ मिलाया जाता है तो यह त्वचा के लिए एक क्लींजिंग एजेंट के रूप में काम कर खुजली, मुँहासे (पिंपल्स) आदि समस्याओं से राहत देता है। इसके कसैले गुणों के कारण त्वचा पर इसका कूलिंग प्रभाव पड़ता है। कचनार गुग्गुल गोली (टैबलेट) का उपयोग थायरॉयड डिसऑर्डर, पीसीओएस, सिस्ट, कैंसर, लिपोमा, फाइब्रॉएड, बाहरी और आंतरिक वृद्धि, त्वचा रोग आदि के लिए किया जाता है। कचनार अपने कषाय (कसैला) और सीत (ठंडा) स्वभाव के कारण प्रभावित क्षेत्र पर लगाने से दाँत दर्द कम करने में मदद करता है। यह बैक्टीरिया के विकास को भी रोकता है जो दाँत दर्द और मुँह से दुर्गंध का कारण बनते हैं। कचनार की पत्तियों में अल्सर रोधी गुण होते हैं और ये लीवर, किडनी की रक्षा करने के साथ ही जीवाणुरोधी गुण भी रखती हैं। मलेरिया बुखार में सिरदर्द से राहत पाने के लिए भारतीय लोग कचनार-पत्तियों के काढ़े का इस्तेमाल करते हैं।
दक्षिण भारत, सिक्किम, बंगाल, बिहार और ओडिशा में इसकी पत्तियों का उपयोग पीलिया के इलाज तथा पेट में घाव और ट्यूमर को ठीक करने के लिए किया जाता है।

संस्कृति और परंपरा: कचनार प्रेम और पर्वोल्लास का पर्याय है। इसके फूलों का उपयोग पारंपरिक समारोहों और सजावट में किया जाता है। कला, साहित्य और धार्मिक प्रतीकवाद में इस पेड़ का सांस्कृतिक महत्व है। बच्चों को इसकी दो खंडीय पत्तियाँ बहुत रोचक लगती हैं और वे इसे अपने खेलों में पुस्तक के रूप में प्रयोग करते हैं। यह पौधा हिंदुओं के लिए पवित्र है, दशहरा पर इसकी पूजा की जाती है। कचनार के सफेद फूलों का उपयोग धन की देवी लक्ष्मी और ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा के लिए किया जाता है। इसकी पत्तियों में १०-१६ प्रतिशत प्रोटीन होने के कारण टहनियों और फलियों का उपयोग पशुओं के चारे के रूप में किया जाता है। हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों में कचनार का स्थान महत्वपूर्ण और कालजयी है। 

कचनार के फूल को हांगकांग के झंडे और सिक्कों पर दर्शाया गया है।

पर्यावरणीय प्रभाव: यह पेड़ फलीदार परिवार से संबंधित है और राइजोबियम बैक्टीरिया के साथ सहजीवी संबंध में रहता है, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को ठीक करने और मिट्टी की उर्वरता में सुधार करने में मदद करता है। आर्किड के पेड़ परागणकों के लिए उच्च मूल्य प्रदान करते हैं। लंबी पूँछ वाली स्किपर तितली के लिए मेजबान कचनार के फूल का रस अन्य तितलियों, मधुमक्खियों और पक्षियों सहित कई अन्य परागणकों को आकर्षित करता है। यह चिलाडेस पांडवा - प्लेन्स क्यूपिड के लिए लार्वा मेजबान पौधा है।

भोजन और पाककला में उपयोग : हल्के तीखे स्वाद के कचनार के फूल पारंपरिक व्यंजनों तथा सलाद, स्टर-फ्राई या अचार जैसे व्यंजनों में शामिल किए जाते हैं। झारखंड के आदिवासी समुदाय इस बहुउद्देशीय पेड़ के हर हिस्से का सेवन करते हैं। कचनार के फूल, फल और पत्ते खाने योग्य और पोषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। भोजन के बारहमासी स्रोत पत्तियों को करी के रूप में, तलकर या उन्हें थोड़े से नमक के साथ उबालकर चावल के साथ खाया जा सकता है।
मुंडा जनजातीय समुदाय सूखी पत्तियों को कई तरीकों से पकाते हैं। वे इसे गर्म पानी में भिगोकर मिर्च, लहसुन या सूखी मछली या सूखे झींगे या बाँस के अंकुर के साथ चटनी बनाकर या पके हुए चावल के पानी में मसालों के साथ पकाकर भूनते हैं। पत्तियों के चूर्ण (पाउडर) को इडली और कचौरी में भी मिलाया जा सकता है। सूप, चीला और उत्तपम में भी ताज़ी पत्तियों को मिलाया है। इससे व्यंजनों का पोषण मूल्य बढ़ जाता है। उत्तर भारत और नेपाल में "कचनार की काली की सब्जी" बनाने के लिए नई कचनार कलियों का उपयोग किया जाता है। कचनार के फूल और कलियाँ कच्चे होने पर कड़वे लगते हैं। इसका उपयोग अचार में किया जाता है।

गुण - लघु (पचाने में हल्का), रूक्ष (सूखापन), रस (स्वाद) - कषाय (कसैला), विपाक (पाचन के बाद का प्रभाव) - कटु (तीखा), वीर्य - शीतल (शीत), प्रभाव (विशेष प्रभाव) - गंडमाला नशा - सर्वाइकल लिम्फैडेनाइटिस और सभी प्रकार की थायरॉयड जटिलताओं में उपयोगी। त्रिदोष पर प्रभाव - कफ और पित्त से राहत दिलाता है।सोफहारा - सूजन से राहत दिलाता है। स्वराहार - अस्थमा से राहत दिलाता है। रसायन - कायाकल्प। कृमिघ्न - कीड़ों के संक्रमण में उपयोगी। कंदुघ्न- खुजली से राहत दिलाता है।। विशघ्न - विषहरण में उपयोगी। वृनहारा - घावों में उपयोगी। कसहारा-खांसी से राहत दिलाता है। कचनार के एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण बवासीर के कारण होने वाली सूजन और दर्द को कम करने में मदद करते हैं। इससे मल का मार्ग आसान हो जाता है। कचनार की छाल शरीर में कफ दोष की समस्या को ठीक करने में मदद करती है। यह थायरॉयड से हार्मोन के स्तर के संतुलन में असंतुलन को ठीक करने में मदद करता है। ऐसा इसलिए क्‍योंकि कचनार शरीर से कफ को बाहर निकालने में मदद करती है। कचनार की छाल डाइजेस्टिव सिस्‍टम को बेहतर बनाने में मदद करती है, यह पेट की समस्याओं को दूर करती है। कचनार के कसैले गुणों का पाचन तंत्र पर ठंडा प्रभाव पड़ता है। कचनार कैंसर कोशिकाओं के विकास को धीमा कर देता है और इस प्रकार कैंसर को रोकता है। कचनार के अर्क में इंसुलिन जैसे केमिकल्‍स होते हैं जो शुगर लेवल को कम करने और कंट्रोल में लाने में मदद करते हैं। कचनार के फूल शरीर के अंदरुनी घाव को भरने में काफी कारगर होते हैं। कचनार के पेड़ की छाल का पाउडर मुंह में बैक्टीरिया और कीटाणुओं से लड़ने में मदद करता है। यह बैक्टीरिया को मारने और मुँह में पीएच संतुलन बहाल करने में बहुत प्रभावी है। यह मुँह को सांसों की दुर्गंध से प्राकृतिक रूप से मुक्त रखता है। कचनार के कड़वे फूल रक्त शोधक का काम करते हैं। यह महिलाओं के लिए बेहद फायदेमंद है क्योंकि यह पीरियड्स को कंट्रोल करने में मदद करता है। यह ब्‍लड को साफ करता है और इसलिए शरीर के अन्य आवश्यक अंग, जैसे लिवर को भी साफ करता है। कचनार के फूल खाँसी को ठीक करते हैं और अपने एंटी-बैक्टीरियल गुणों से श्वसन पथ को साफ करते हैं। इसकी कलियाँ व फूल सब्जी, पत्तियाँ  पशुओं के चारे के और लकड़ी ईंधन (जलावन) के रूप में प्रयोग होती है। तासीर ठंडी होने के कारण इसे सुखाकर गर्मी में सब्जी, अचार, पकौड़े बनाते हैं। कचनार की कली और फूल वात,रक्त पित, फोड़े, फुंसियों से निजात दिलाती हैं। पहाड़ी गीतों में भी है कराली (कचनार) को पिरोया गया है। १९९३ में बने हिंदी चलचित्र 'वक्त हमारा है' में अक्षय कुमार व आयशा जुल्का पर गीत 'कच्ची कली कचनार की तोड़ी नहीं जाती' का फिल्मांकन है। 

इस्तेमाल का तरीका
कचनार की छाल का चूर्ण ३-६  ग्राम,फूलों का रस १०-२० मिलीलीटर और छाल का काढ़ा ४०-८०  मिलीलीटर की मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इसकी छाल का महीन पिसा-छना चूर्ण ३-६  ग्राम (आधा से एक चम्मच) ठंडे पानी के साथ सुबह-शाम लेना लाभकारी होता है। इसका काढ़ा बनाकर भी सुबह-शाम ४-४ चम्मच मात्रा में (ठंडा करके) एक चम्मच शहद मिलाकर लेना फायदेमंद होता है।
- सूजन: कचनार की जड़ को पानी में घिसकर बनाया लेप गर्म कर सूजन वाली जगह पर लगाए, जल्दी ही आराम मिलेगा।
- मुँह के छाले: कचनार की छाल के काढ़े में थोड़ा-सा कत्था मिलाकार लगाएँ  तुरंत आराम मिलता है और छाले जल्दी ठीक हो जाते हैं।
- बवासीर: कचनार की एक चम्मच छाल को एक कप मट्ठा (छाछ) के साथ दिन में ३ बार सेवन करने से बवासीर में खून गिरना बंद हो जाएगा। कचनार की कलियों के पाउडर को मक्खन और शक्कर मिलाकर ११ दिन खाने से पेट के कीड़े साफ हो जाते हैं।
- भूख न लगना: कचनार की फूल की कलियाँ घी में भूनकर सुबह-शाम खाएँ, भूख बढ़ जाएगी।
- वायु( गैस) विकार: कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर, इसके २० मिलीलीटर काढ़े में आधा चम्मच पिसी अजवायन मिलाकर नियमित रूप से सुबह-शाम भोजन करने बाद पिएं,  पेट फूलने की समस्या और गैस की तकलीफ दूर होती है।
-खांसी-दमा : शहद के साथ कचनार की छाल का काढ़ा २ चम्मच, दिन में ३ बार सेवन करने से खाँसी और दमा में आराम मिलता है।
- दांतों का दर्द: कचनार के पेड़ की छाल जलाकर उसकी राख से सुबह एवं रात को खाना खाने के बाद मंजन करने से दाँत-दर्द तथा मसूढ़ों से खून निकलना बंद होता है। इसकी छाल को उबालने के बाद  ५०-५०  मिलीलीटर गर्म पसनी से रोजाना ३-४ बार कुल्ला करें, दांतों का हिलना, दर्द, खून निकलना, मसूढों की सूजन और पायरिया खत्म हो जाता है।
- कब्ज:  कचनार के फूलों को चीनी के साथ घोटकर शर्बत की तरह बनाकर सुबह-शाम पीने से कब्ज दूर होती है और पेट साफ रहता है। कचनार के फूलों का गुलकन्द रात में सोने से पहले २ चम्मच की मात्रा में कुछ दिनों तक सेवन करने से कब्ज दूर होती है।
- कैंसर: कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर पीने से पेट का कैंसर ठीक होता है।
- दस्त:  कचनार की छाल का काढ़ा दिन में २ बार पीने से दस्त रोग में ठीक होता है। 
- पेशाब के साथ खून आना: कचनार के फूलों का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम पीने से पेशाब में खून का आना बंद होता है। इसके सेवन से रक्त प्रदर एवं रक्तस्राव आदि भी ठीक होता है।
- बवासीर: कचनार की छाल का  ३ ग्राम चूर्णएक गिलास छाछ के साथ प्रति दिन सुबह-शाम पीने से बवासीर एवं खूनी बवासीर में लाभ मिलता है। कचनार का ५ ग्राम चूर्ण   प्रतिदिन सुबह पानी के साथ खाने से बवासीर ठीक होता है।
- खूनी दस्त: कचनार के फूल का काढ़ा सुबह-शाम पीने  से खूनी दस्त (रक्तातिसार) में जल्दी लाभ मिलता है।
- कुबड़ापन: पीठ के नीचे कचनार का फूल बिछाकर सुलाने से, लगभग १ ग्राम का चौथाई भाग कचनार और गुग्गुल को शहद के साथ मिलाकर सेवन करने व  कचनार का काढ़ा पीने से कुबड़ापन दूर होता है।  
- घाव: कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम पीने से घाव ठीक होता है। इसके काढ़े से घाव को धोना भी चाहिए।
- स्तन-गाँठ: कचनार की छाल पीसकर बना चूर्ण आधे ग्राम की मात्रा में सौंठ और चावल के पानी (धोवन) के साथ मिलाकर पीने और स्तनों पर लेप करने से गाँठ ठीक होती है।
- थायराइड: कचनार के फूल थायराइड की सबसे अच्छी दवा हैं। लिवर में किसी भी तरह की तकलीफ हो तो कचनार की जड़ का काढ़ा पीना बेहद लाभकारी होता है।
ध्यान रखें- 
कचनार देर से हजम होती है और इसका सेवन करने से कब्ज हो सकता है। इसलिए जब तक कचनार का सेवन करें, तब तक पपीता खाएँ। 
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डाक टिकटों के संसार में कचनार
 पूर्णिमा वर्मन


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०२ में हांगकांग चाइना ओपन के अवसर पर जारी एक टिकट पर कचनार


डाक टिकटों की दुनिया को सबसे अधिक रिझाते है फूल। फूल किसे अच्छे नहीं लगते और किस अवसर पर काम नहीं आतेजन्म से मृत्यु तक फूलों का महत्व हमारे जीवन में बना ही रहता है। राजनीति शास्त्र में भी फूलों की अच्छी पैठ है तभी तो हर देश का एक राष्ट्रीय फूल होता है। कचनार को हांगकांग का राष्ट्रीय फूल होने का गौरव प्राप्त है। शायद वह एक ऐसा अकेला फूल है जो किसी देश के झंडे का हिस्सा है। शोभाकर फूलों वाले वृक्षों में कचनार को विभिन्न देशों के डाक टिकटों में महत्वपूर्ण स्थान मिला है पर सबसे ज्यादा कचनार की तस्वीरों वाले डाक टिकट हांगकांग के ही हैं।

२५ सितंबर १९८५ को जारी एक डाक-टिकट के साथ बिलकुल वैसा ही प्रथम दिवस आवरण जारी किया गया। प्रथम दिवस आवरण को दाहिनी ओर के चित्र पर क्लिक कर के देखा जा सकता है। १.७० हांगकांग डॉलर वाले इस टिकट पर चीनी और अंग्रेज़ी में बुहेनिया लिखा गया है। यह बुहेनिया की ब्लैकियाना प्रजाति का पुष्प है। यह एक संकरित प्रजाति है अर्थात इसमें बीज या फल नहीं होते जिसके कारण नगर की सजावट के लिए इसका प्रयोग बहुत सुविधाजनक हो जाता है। बीज या फल न होने के कारण फूलों का समय लंबा होता है साथ ही सफ़ाई की आवश्यकता बीज और फल वाले पेड़ों की अपेक्षा बहुत कम होती है।

१४ मार्च २००८ को हांगकांग पुष्प प्रदर्शनी के अवसर पर उद्घाटन समारोह में देश में बहुलता से पाए जाने वाले ६ फूलों वाली एक डाक टिकट शृंखला को जारी किया। फूलों के ये चित्र पारंपरिक चीनी शैली में हाथ से बनाए गए थे जबकि इनकी पृष्ठभूमि को कंप्यूटर से बनाया गया था। इन फूलों में एक स्थान बुहेनिया ब्लैकियाना यानी कचनार को भी दिया गया था और ये एक सुंदर प्रथम दिवस कवर के साथ जारी किए गए थे। इनका मूल्य १.४० हांगकांग डॉलर रखा गया था। संग्रहकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए इनके दो तीन प्रकाऱ के अलग अलग आकर्षक पैकिंग भी बनाए गए थे जिसमें स्मारिका पैक, मिनिएचर शीट और उपहार पैक भी शामिल थे। चित्र पर क्लिक करने से इस पूरी शृंखला को मिनियेचर शीट के साथ देखा जा सकता है।

टिकट इतिहास की अमूल्य धरोहर भी होते हैं। दाहिनी ओर दिखाए गए हांगकांग के टिकट पर ताज और महारानी एलिजबेथ की फ़ोटो हांगकांग पर ब्रिटिश अधिकार की याद दिला देते है। ६५ सेंट के इस टिकट में कचनार के स्केच के नीचे बुहेनिया ब्लैकियाना पढ़ा जा सकता है।

१९९७ में जब हांगकांग चीन को वापस किया गया तो उसकी याद में भी छे टिकटों के साथ एक प्रथम दिवस आवरण जारी किया गया। बाईं ओर दिया गया कचनार की फूलों वाला यह टिकट बड़े शीट पर नीचे की ओर बाएँ कोने में स्थित है। इस टिकट के साथ जारी किया गया पूरा सेट टिकट पर क्लिक कर के देखा जा सकता है।

२००७ में चीन के अधिकार में हांगकांग के १० वर्ष पूरे हुए। इस उपलक्ष्य में दसवीं जयंती के को मनाते हुए हांगकांग और चीन के प्रमुख चिह्नों और प्रतीकों को प्रदर्शित करने वाला यह टिकट जारी किया गया। यह टिकट हांगकांग और चीन ने एक साथ जारी किया था। इन पर लगाने जाने के लिए विशेष मोहरों का निर्माण भी किया गया था। चित्र में हांगकांग के लाल झंडे पर सफ़ेद कचनार का फूल देखा जा सकता है। १९ जून २००७ को जारी इस टिकट का मूल्य १.४० डॉलर था।

प्रशांत महासागर में चार द्वीपों का एक देश है जिसे पिटकर्न आईलैंड के नाम से जाना जाता है। पत्तियों पर चित्रकारी यहाँ का परंपरिक लोक हस्त शिल्प है। इस शिल्प में जिन पत्तों का प्रयोग किया जाता है उसमें कचनार की एक प्रजाति बुहेनिया मोनान्ड्रा प्रमुख है।


इस देश द्वारा १८ अगस्त २००३ को जारी किए गए, देश की लोक कला को समर्पित पाँच टिकटों के इस समूह में तीन ऐसे वृक्षों को चित्रित किया गया है जिनकी पत्तियाँ चित्रकारी के काम आती हैं। इनमें बाईं ओर कचनार के गुलाबी फूल और द्विदलीय पत्तियों से पहचाने जा सकते हैं। चित्र में इनमें पत्तियों के साफ़ करने और उन पर चित्रकारी करने की प्रक्रिया को दिखाया गया है जबकि टिकटों के साथ छपे हाशिए पर इसे विस्तार से लिखा भी गया है। (यह हाशिया यहाँ दिखाई नहीं दे रहा है।) टिकटों पर इस कला में दक्ष कुछ महिला कलाकारों को भी दिखाया गया है। १.५० डॉलर वाले टिकट पर बरनिस का चित्र है जिनका देहांत १९९३ में ९४ वर्ष की आयु में हुआ था और जो अपने अंतिम समय तक कलाकृतियाँ बनाती रहीं थीं। ३ डॉलर वाले टिकट पर उनकी बेटी कार्लो क्रिश्चियन हैं। कार्लो ने यह कला आपनी बेटी कैरोल और नातिनों डार्लिन और चार्लिन को सिखाई। ८० सेंट के टिकटों पर कैरोल तथा  सेंट के टिकट पर  डार्लिन और चार्लिन के चित्र हैं। 

कचनार पिटकर्न द्वीप की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके पेड़ यहाँ बहुतायत से मिलते हैं। यहाँ उत्पन्न होने वाली एक और प्रजाति बुहेनिया वेरियागाटा का तना मज़बूत होता है, घनी शाखाएँ फूल और पत्तियों को इस प्रकार सहारा देती हैं कि यह एक सुंदर छायादार वृक्ष दिखाई देता है। १९८३ में इस देश  के डाक विभाग ने अपने देश के महत्वपूर्ण वृक्षों को प्रदर्शित करने वाले टिकटों की एक शृंखला जारी की जिसमें कचनार की इस प्रजाति एक पेड़ दिखाया गया है। ३५ सेंट के इस टिकट में बाईं ओर ऊपर के कोने पर इसका स्थानीय नाम हैटी ट्री भी लिखा गया है।

इसी अवसर पर जारी एक और टिकट में कचनार की इसी प्रजाति  बोहेनिया वेरियागाटा का एक और रूप चित्रित किया गया है। इस प्रजाति के कचनार पत्तों पर भी इस देश की बहुचर्चित लोककला अंकित की जाती है। टिकट पर इस कला से अंकित दो पत्ते भी दिखाए गए हैं। ऊपर की ओर बीच में महीन अक्षरों में हैटी ट्री और बोहेनिया वैरिगाटा भी लिखा गया है।

 

इसी देश के गुलाबी रंग के एक और सुंदर चौकोर टिकट पर कचनार की ही एक प्रजाति बुहेनिया मोनान्ड्रा के एक फूल को प्रदर्शित किया गया है। १० डॉलर मूल्य के इस टिकट पर बायीं और ऊपर देश का नाम है दाहिनी ओर ब्रिटिश साम्राज्य का ताज दिखाई दे रहा है और नीचे की ओर बाएँ कोने पर हैटी ट्री लिखा गया है।

१९९५में प्रकाशित थाईलैंड के एक टिकट में कचनार के सफ़ेद रंग के छोटे फूलों वाली एक जाति बुहेनिया एक्युमिनाटा को चित्रित किया गया है। २ बहत के हरे रंग के इस सुंदर चित्र में दाहिनी ओर ऊपर प्रकाशन तिथि को अंग्रेज़ी और थाईलैंड की भाषा में लिखा गया है। नीचे दाहिनी ओर देश का नाम दोनों भाषाओं में है।

दाहिनी ओर दिए गए कांगो के टिकट में कचनार की बोहेनिया वेरियागाटा प्रजाति का नाम लिखा है। क्षेत्रफल के हिसाब से कांगो अफ्रीका महाद्वीप का तीसरा सबसे बड़ा देश है। टिकट पर लिखी गई भाषा से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि इस देश की आधिकारिक भाषा फ्रांसीसी है। १० फ्रैंक वाले इस टिकट पर नीचे फ्रेन्च में उष्णकटिबंधीय पुष्प लिखा है। बायीं ओर प्रजाति का नाम है और दायीं ओर टिकट के जारी किए जाने का वर्ष १९७१ लिखा हुआ है। पूरे अफ्रीका और प्रशांत क्षेत्र में बहुनिया की बोहेनिया वेरियागाटा और बोहेनिया मोनान्ड्रा प्रजातियाँ बहुतायत से पाई जाती हैं। यही कारण है कि कांगो, लीबिया, मोंत्सेरात कंबोडिया और सॉल्मन द्वीप के डाकटिकटों में इन्हीं को स्थान मिला है।

मोंटेसेराट कैरेबियन सागर में स्थित लीवार्ड द्वीप समूह में ब्रिटेन का सागर पार क्षेत्र के अंतरगत एक छोटा सा द्वीप है। साढ़े चार हज़ार की जनसंख्या वाला यह द्वीप प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। कचनार यहाँ के प्रमुख फूलों में से एक है। इसी कारण दिए गए चित्र में कचनार की एक झाड़ी और उसके फूलों के गुच्छे को दिखाया गया है। टिकट का मूल्य १५ सेंट हैं। यहाँ पश्चिम कैरेबियन डॉलर मुद्रा के रूप में प्रयोग किए जाते हैं।

गिनि बिसाउ पश्चिम अफ्रीका का एक देश है। इससे मिलते जुलते नाम का एक देश गिनि गणतंत्र इसके पास ही है। गिनी बिसाऊ की भाषा पुर्तगीज़ है और राजधानी बिसाऊ है। कचनार की बोहेनिया वेरियागाटा प्रजाति के चित्र वाला यह टिकट १९८३ में जारी किया गया था.। मुद्रा के स्थान नीचे ध्यान से देखें तो अंग्रेज़ी के "सी ओ आर आर ई आई सी एस (CORREICS)" अक्षर दिखाई देते हैं। यह इनकी डाक संस्था का संक्षेप है जिसका पूरा नाम है- इम्प्रेसा ब्राज़िलियेरा डि कोरियोस ए टेलीग्राफ़ोस, इसका अर्थ है ब्राजीलियन डाक व तार संस्थान। यह ब्राज़ील की राष्ट्रीय डाक सेवा है। हो सकता है गिनी बिसाउ के टिकट छापने का काम इसी संस्था के पास हो या यह संस्था गिनी बिसाऊ में भी डाक की ज़िम्मेदारी संभालती हो।

१ सितंबर १९८१ में भारत ने भी देश के प्रमुख पेड़ों के चित्रों से युक्त एक टिकट शृंखला जारी की थी। इसके चार टिकटों में अमलतास, पलाश, वरना और कचनार के अत्यंत सुंदर चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। ये चित्र भारत के दो प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़रों द्वारा खींचे गए हैं। अमलतास व कचनार के टिकटों पर के एम वैद द्वारा खींचे गए फ़ोटो हैं और पलाश व वरना के टिकटों पर राजेश बेदी द्वारा खींचे गए। टिकटों में बाईं ओर ऊपर मूल्य अंकित किया गया है और दाहिनी ओर दो भाषाओं में देश का नाम छापा गया है। चित्र के नीचे पेड़ का नाम और टिकट का प्रकाशन वर्ष अंकित किया गया है। मौसम की कड़ी मार सहकर भी खुशी से खिलने वाले इन बहुरंगे टिकटों की २० लाख प्रतियाँ जारी की गई थीं। लगभग ढाई से.मी. चौड़े और ३.५ से.मी. ऊँचे टिकटों के इस सेट के साथ एक प्रथम दिवस कवर भी जारी किया गया था जिसे सुहमिंदर सिंह ने डिज़ाइन किया था।

दाहिनी और स्थित कंबोडिया के टिकट में कचनार का एक और सुंदर चित्र प्रदर्शित किया गया है। कंबोडिया की वर्तनी पर ध्यान देने पर देखा जा सकता है इस पर देश के नाम की प्राचीन भारतीय ग्रंथों में प्रयुक्त वर्तनी कांबोज का प्रयोग किया गया है ना कि बुहेनिया अंग्रेज़ी वर्तनी का। सुदूर पूर्व में स्थित थाईलैंड के पास बसे इस देश की भारत के साथ सांस्कृतिक आदान प्रदान की ऐतिहासिक परंपरा पाई जाती है।

सॉल्मन आईलैंड द्वारा जारी किए गए उष्णकटिबंधीय देशों के वृक्षों की शृंखला में १९८७ में प्रकाशित २५ सेंट के इस टिकट पर बाएँ निचले कोने में बोहेनिया वेरियागाटा लिखा है।  बीच में कचनार का चित्र है बाएँ ऊपरी कोने पर देश का नाम है और दाहिने ऊपरी कोने पर राजचिह्न अंकित है। इसको १७ टिकटों के साथ जारी किया गया था जिसमें देश के सत्रह प्रमुख फूलों को प्रदर्शित किया गया था। नीले, गुलाबी और हरे रंग के इस टिकट पर किसी फ़ोटो को नहीं बल्कि एक कलाकृति को प्रदर्शित किया गया है। यह देश भी दक्षिण एशिया में पापुआ और गुयाना के पास प्रशांत महासागर में स्थित हैं और यहाँ की जलवायु कंबोडिया और इंडोनेशिया से काफ़ी मिलती जुलती है जिसके कारण यहाँ कचनार, के वृक्षों को पनपने का अच्छा अवसर मिलता है।

बारबाडोस से इस टिकट पर कचनार की बोहेनिया  ब्लेकियाना की एक झाड़ी और फूलों का एक गुच्छा चित्रित किया गया है। इस वृक्ष का बोहेनिया नाम १६ वीं शती के वनस्पति वैज्ञानिक भाइयों जोहानेस और कैस्पर बोहिन के नाम पर रखा गया है। इसकी दो हिस्सों वाली पत्तियाँ इन दो जुड़वाँ भाइयों की स्मृति ताज़ा करती हैं।

 १६ जून २००८                                                                         साभार अभिव्यक्ति 




शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

जगदीश किंजल्क

जगदीश किंजल्क

जन्म- २५ नवंबर १९४८ टीकमगढ़, मध्य प्रदेश। निधन- २४ जनवरी २०२३ भोपाल। 
आत्मज- अंबिका प्रसाद वर्मा 'दिव्य', (१६ मार्च १९०७- ५ सितंबर ) राष्ट्रपति पुरस्कृत शिक्षक, कवि, उपन्यासकार, नाटककार, चित्रकार, क्रांतिकारी, समाज सेवी, ६० पुस्तकें, महाकाव्य गाँधी पारायण । उन्होंने शिक्षा विभाग में रहते हुये अपनी बेहतरीन शिक्षा पद्धति , बेहतरीन व्यवस्था और बेहतरीन कार्य शैली के लिये तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम डॉ .राजेन्द्र प्रसाद जी से आज की तिथि पांच सितम्बर को ही राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया था । उन्होंने पांच सितम्बर को ही सेवा काल से अवकाश ग्रहण किया था और स्मरणीय है कि पांच सितम्बर शिक्षक दिवस पर ही वे संसार को अलविदा कह गये ।
शिक्षा- एम. ए. (अंग्रेजी, हिंदी), बी.एड., डिप्लोमा पत्रकारिता।
संप्रति- कार्यक्रम अधिकारी आकाशवाणी टीकमगढ़, जबलपुर, सागर, भोपाल।
परिचर्चा सम्राट, कहानीकार, व्यंग्यकार, धर्मयुग से लंबा जुड़ाव।
संपादक- दिव्यालोक।
संयोजक- अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार।
शिक्षक मॉडल स्कूल भोपाल।
पुस्तकें- ९ सुकूने-जिगर, हम तो परनिंदा करिवे, जिंदगी कुछ पृष्ठों की आदि।
विशेष- एक हजार से अधिक परिचर्चाएँ।
उपलब्धि- जिंदगी कुछ पृष्ठों की पर द्वितीय पुरस्कार मध्य प्रदेश युवक कल्याण संचालनालय भोपाल द्वारा।
संचालनालय पंचायत एवं समाज सेवा भोपाल द्वारा अखिल भारतीय लोक कथा प्रतियोगिता १९७६-७७ में दो बार पुरस्कृत। 
संस्कृति-साहित्य-कला विद्यापीठ मथुरा द्वारा साहित्यलंकार १९७७। 
प्रेमचंद जन्म शताब्दी समारोह समिति जबलपुर द्वारा १९८२- उत्कृष्ट लेखक सम्मान। 
प्रगतिशील लेखक संघ टीकमगढ़ द्वारा बसंत पंचमी पर अभिनंदन। 
केशव जयंती समिति ओरछा द्वारा अभिनंदन १९८९। 
अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा साहित्य श्री १९९२। 
मध्य प्रदेश कला संगम पन्ना द्वारा अभिनंदन १९९३।
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My View : God is life and Life is God...!
----------------- Jagdish Kinjalk -----------
First priority of Man is to love his Life. Other priorities may be his Wife, Children,Health, Wealth etc.Question is - Why a man loves his life so much..? Where as he has no control on his Life. Life is given by the God. God has scheduled every moment of man's Life.
I think, Life is the man's Identity, that is why he loves it in priority. Much has been written by the Authors on Life. This is not the end of writing. Much more will be written on life in future. Still, no fully accepted definition is on the platform.
The biggest creation of God is Man. Second biggest creation is Life. Both are essential parts of each other. Some times I think - God is Life and Life is God. If you think some thing otherwise, please express your view also. Life may be explained in many ways. As many men so many definitions of Life may be.
Can you come forward with a new view about Life..?
@ Jagdish Kinjalk @
Email-- jagdishkinjalk@gmail.com
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My View : Never smile in front of weeping eyes...!
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We have no control on tears. They may come out any where, any time on any occasion. Tears and Smile, both are powerful expressions of human being. Both these expressions may give opposite, and inhuman results, if they are expressed in different situations. We are not supposed to smile on the occasion of sorrow, likewise weep on the occasion of happiness.
Some times we commit mistakes, without caring for other's emotions. Our smallest mistakes may deeply heart other's feelings. To hurt the feelings of others, is an act of inhumanity. We should be very much causes and should escape ourselves from this penetrating act. Here I remember a line of a poem of famous Poetess Smt. Vijai lakshmi Vibha. She writes...
" Jinki aankhon mai ask dikh jayan,
Unke aage na muskara dena... "
It means, " Never smile in front of persons, whose eyes may have tears..." This is a small saying with big message, and big humanity. Can we keep this thing in our minds always..to save the humanity...? Pl. go deep and deep to understand the feeling , which is hidden in this line...!
@ Jagdish Kinjalk @
My View : The Speed of Bad Name is much more than Good Name..!
---------------------------- Jagdish Kinjalk ----------------------------
We know well that Bad Name and Good Name, both are Names, but Bad Name runs very faster than Good Name. Not only this, the stability of Bad Name , is also much more than Good Name.
A Man has two choices only. Either he can earn Good Name or Bad Name. There is no mid way. I have heard some Politicians saying, " Name is Name, weather it is Good or Bad, Both give Publicity ...."
I think, No Name is also a silent Name. It has also potentiality . Let us do our work silently. Let the Name do it's work. Silent Name will walk slowly and will reach to it's destination in his own Time.
We should not run behind the Name . We should do our work silently and honestly. One day the Name itself decide the future of the Worker.
Let us leave this responsibility on the Name.We should do our work silently and honestly.
@ Jagdish Kinjalk @

भोपाल : मंगलवार, जनवरी 24, 2023, 
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने वरिष्ठ लेखक और आकाशवाणी के सेवानिवृत्त अधिकारी श्री जगदीश किंजल्क के निधन पर दुख व्यक्त किया है। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि श्री किंजल्क एक आदर्श शिक्षक, लेखक और एक अच्छे मनुष्य के रूप में सदैव याद किए जाएंगे। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि स्व. किंजल्क जीवनभर साहित्य सृजन से जुड़े रहे, लेखन उन्हें विरासत में मिला था। किंजल्क जी ने परिचर्चा लेखन जैसी विधा को हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रतिष्ठा दिलवाई।

मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि स्व. श्री किंजल्क नए लेखकों को प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने साहित्य कर्मियों को पुरस्कार प्रदान करने का सेवा कार्य किया। उनकी सेवाओं को याद रखा जाएगा। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने ईश्वर से दिवंगत आत्मा की शांति और उनके परिजन को यह दुख सहन करने की शक्ति देने की प्रार्थना की है।

उल्लेखनीय है कि स्व. श्री किंजल्क ने भोपाल के एक निजी अस्पताल में अंतिम साँस ली। वे कुछ दिन से अस्वस्थ चल रहे थे। उनका अंतिम संस्कार बुधवार को भोपाल में होगा। स्व. श्री किंजल्क आकाशवाणी से लंबे समय तक जुड़े रहे। उन्होंने आकाशवाणी छतरपुर, भोपाल, जबलपुर, सागर, शिवपुरी को सेवाएँ दी। वे राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित हुए थे। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में परिचर्चा की विधा इजाद की। पत्रिका धर्मयुग से लंबे समय तक जुड़े रहे। देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे। स्व. श्री जगदीश किंजल्क ने मॉडल स्कूल भोपाल में शिक्षक के तौर पर भी सेवाएँ दी।

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परिचर्चा - सम्राट को श्रद्धांजलि
गंभीर सिंह पलानी 
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हिंदी में परिचर्चा विधा को ऊँचाईयों पर ले जाने वाले श्री जगदीश किंजल्क का दिनाँक २४ जनवरी २०२३ को भोपाल में निधन हो गया. आज भोपाल में साईंनाथ नगर स्थित उनके आवास पर उन की तेरहवीं का आयोजन किया गया है. इस अवसर पर मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.
मैं उन के नाम से पहली बार तब परिचित हुआ जब मैं कक्षा ७-८ में पढ़ता था. प्रतिष्ठित पत्रिका 'धर्मयुग' में उनके द्वारा आयोजित परिचर्चायें प्रायः पढ़ने को मिलती. यह १९६७-६८ के दिनों की बात है . ज्यों - ज्यों मैं बड़ा होता गया और अन्य पत्रिकाओं के संपर्क में आया, उनमें भी किंजल्क जी द्वारा आयोजित सैंकड़ों परिचर्चायें पढ़ीं. कुछ लोगों ने तो उन्हें 'परिचर्चा सम्राट ' की उपाधि भी दे दी थी .
वर्ष १९९७ से उन्होंने प्रतिवर्ष अपने पिता सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार व नाटककार श्री अंबिका प्रसाद 'दिव्य ' की स्मृति में अंबिका प्रसाद 'दिव्य ' साहित्य सम्मान की घोषणा करना भी शुरु किया था. इस सम्मान से सम्मानित सारे लेखकों के नाम तो अभी मुझे याद नहीं आ रहे पर जो याद आ रहे हैं, वे हैं : मीरा कांत, सुधा ओम ढींगरा, उर्मिला शिरीष, शरद सिंह, बल्ली सिंह चीमा, पवन चौधरी 'मनमौजी ', शैलेय, शम्भू दत्त सती आदि.( जो - जो नाम मुझे याद आते जायेंगे, इस पोस्ट में बाद में जोड़ता जाऊँगा.)
वर्ष २००१ या २००२ में किंजल्क जी से मेरी पहली मुलाकात बड़े ही नाटकीय ढंग से नैनीताल बैंक, भीमताल (नैनीताल ) के बाहर एक रविवार को हुई जिसे एक दुर्लभ संयोग ही कहा जायेगा. उन दिनों मैं उक्त बैंक शाखा में प्रबंधक के पद पर कार्यरत था और वे आकाशवाणी : सागर में कार्यरत थे. हमारे बैंक के चेयरमैन श्री वी. के. वर्मा उन्हें अपने साथ भीमताल घुमाने लाये थे.
प्रख्यात व्यंग्य लेखक श्री अरविन्द तिवारी का एक उपन्यास है, 'हैड ऑफिस के गिरगिट.' उन दिनों वर्मा जी से मेरे संबंध अच्छे नहीं चल रहे थे चूँकि ऐसे गिरगिट मेरे खिलाफ भी सक्रिय थे और उन्होंने मेरे विरुद्ध वर्मा जी के कान भर रखे थे.
बैंक के बाहर जब कार रुकी तो श्री वर्मा ने किंजल्क जी से मेरा परिचय यह बतलाते हुए कराया,"ये जगदीश किंजल्क जी हैं, मेरे होने वाले समधी. आकाशवाणी : सागर में प्रोग्राम एग्जिक्यूटिव हैं. "
विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित किंजल्क जी का फोटो तो मैं पहचानता ही था. परिचर्चा में शामिल होने वाली उनकी पत्नी श्रीमती राजो किंजल्क के नाम से भी मैं परिचित था ही . मेरे मुँह से एकाएक निकल पड़ा, " किंजल्क जी, कैसे हैं आप? राजो किंजल्क जी कैसी हैं? मेरी जानकारी में तो आप आकाशवाणी : छतरपुर में कार्यरत थे. सागर कब पहुँच गये….. मैं गंभीर सिंह पालनी हूँ."
" अर् रे 'मेंढक' कहानी वाले गंभीर सिंह पालनी हैं आप? आपसे एकाएक इस तरह मुलाक़ात होगी – यह तो मैंने कभी सोचा न था."-- किंजल्क जी के मुँह से यह सब सुनकर वर्मा जी हतप्रभ रह गये.
उनके होने वाले समधी किंजल्क जी उनके बैंक में कार्यरत गंभीर सिंह पालनी को लेखक के रूप में पहचानते हैं – यह जानना उन्हें आश्चर्य में डाल गया था.
उस दिन भीमताल से लौटते हुए वर्मा जी मेरा कहानी - संग्रह 'मेंढक ' भी अपने साथ ले गये. उस दिन के बाद वर्मा जी की नजर में मेरा कद बढ़ गया था. मैं उन की 'गुड बुक्स ' में शामिल हो गया था. इसका दूरगामी परिणाम यह भी हुआ कि वर्मा जी के बैंक से चले जाने के बाद नये चेयरमैन मिस्टर ए. के. गर्ग के आने के कुछ दिनों बाद गिरगिट मेरे ट्रांसफर का ऑर्डर भीमताल से दिल्ली के लिये करवाने में कामयाब हो गये तो वर्मा जी ने नये चेयरमैन को फोन कर के मेरा ट्रांसफर रातों-रात कैंसिल करवा दिया. ( उन दिनों मेरे बच्चे बहुत छोटे थे और मैं दिल्ली नहीं जाना चाहता था.)
वर्मा जी को जब मैंने इस विषय में फोन पर धन्यवाद देना चाहा तो बोले, " यह काम कुछ खास भी तो नहीं था. यह समझ लो कि 'मेंढक ' कहानी की रायल्टी तुम्हें मिल गयी." यही नहीं, उसके बाद यह भी हुआ कि जब गर्ग साहब से मैंने कहा कि मेरी इच्छा है कि मेरी बेटी कक्षा छः से नैनीताल के प्रसिद्ध सेंट मैरीज कान्वेंट में पढ़े तो उन्होंने मेरी इस इच्छा का मान रखते हुए मेरा ट्रांसफर नैनीताल कर दिया जिसका दूरगामी परिणाम यह रहा कि वहाँ के शैक्षिक माहौल में उसकी नींव मज़बूत हो जाने के कारण आजकल वह ब्रिटेन में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है.
किंजल्क जी की भीमताल यात्रा का प्रसंग तो बीच में ही छूट गया. उन दोनों के भीमताल से जाने के कुछ दिनों बाद हतप्रभ होने की बारी मेरी थी. 'मेंढक' के लिये मुझे 'अंबिका प्रसाद दिव्य सम्मान ' दिये जाने की घोषणा की जा चुकी थी. यह सम्मान मुझे आदरणीय श्री अमृत लाल बेगड़ जी ,प्रभाकर श्रोत्रिय जी , कांति कुमार जैन जी व किंजल्क जी के कर कमलों द्वारा प्रदान किया गया.
इस प्रकार अनायास हुई यह मुलाकात मेरे जीवन में नये चटक रंग लाई. बाद में हम लोग पारिवारिक मित्र भी हो गये थे.हाँ, यह बताना तो मैं भूल ही गया कि नैनीताल में वर्मा जी के बेटे के साथ हुए उनकी बेटी अनन्या के विवाह में मैं कन्या पक्ष की ओर से घराती के रूप में शामिल हुआ था. बैंक - स्टाफ के बीच होने वाली चर्चा का एक विषय यह भी रहा कि पालनी की जेब में इस शादी के दोनों पक्षों की तरफ के निमंत्रण कार्ड हैं.

किंजल्क जी से मेरी आखिरी मुलाक़ात भोपाल स्थित उनके आवास पर सवा तीन वर्ष पूर्व हुई थी जब मैं टैगोर विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक आयोजन 'विश्वरंग' में भाग लेने भोपाल गया था. उनका मुस्कराता हुआ चेहरा आज भी मेरी स्मृति में है. उन्हें सादर नमन.
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सौरभ भारत- बचपन में जब पहली बार कोई कहानी लिखी थी तो मौका मिलते ही, Jagdish Kinjalk दादाजी को सुनाई। कहानी तो कुछ खास याद नही पर दादाजी ने जो कहा वो याद रहा हमेशा, कहानी सुनने और सुनाने वाले दोनो को मजा आना चाहिए! तभी कहानी दिल को छूती है। उसके बाद अनेको मौकों पर दादा जी जाने अंजाने मुझे प्रेरणा देते रहे! कभी दाऊजी ( अंबिका प्रसाद दिव्य जी ) की कहानियों और किस्से सुना कर और कभी यूंही किवदंतियों के सहारे। हमेशा चेहरे पे मुस्कान और हमेशा कुछ न कुछ नया परिपेक्ष्य देते हुए, दादाजी ने हमेशा मुझे लिखने और लिखते रहने के लिए प्रोत्साहित किया। जिस तरह से आपने दाऊजी को जिंदा रखा, आपको भी हमेशा जिंदा रखेंगे, यादों में!
ओम शांति !
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प्रीत व्यास- विदा परिचर्चा सम्राट
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अभी अभी रजनी सक्सेना दी की पोस्ट से पता चला कि छतरपुर (म. प्र.) शहर की एक और विभूति प्रस्थान कर गई. जगदीश किंजल्क अंकल नहीं रहे. सालों पुराना नाता. उनके पिता अम्बिकाप्रसाद 'दिव्य' जी मेरे दादाजी श्री विंध्य कोकिल भैयालाल जी व्यास के साथ रह चुके थे और इसी नाते उन्हें अंकल कहा करती थी.
दिव्य जी के स्वर्गवास के बाद जगदीश अंकल ने उनके साहित्यिक पक्ष को जीवित रखने के लिए बहुत काम किया और इस बात पर हमेशां दादाजी कहते कि ये योग्य उत्तराधिकारी है, इसने अपना साहित्यिक विरसा संभाला. उन्होंने ना सिर्फ दिव्य जी के अप्रकाशित लेखन को प्रकाशित करवाया बल्कि उनके नाम से एक पुरस्कार भी आरंभ किया.
वे आकाशवाणी छतरपुर में कार्यक्रम अधिकारी थे और मैं भी तब अपनी पढाई के साथ-साथ कैजुअल एनाउंसर के तौर पर जाया करती थी. उन्होंने उस समय कम प्रचलित विधा "परिचर्चा" को अपनाया और बहुत काम किया. ये वो समय था जब धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि हर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका में उनकीपरिचर्चाएं छपा करती थीं और जब सौ छप चुकीं तो वे परिचर्चा सम्राट कहे जाने लगे.
जब भी हम उनके घर जाते वे अपनी परिचर्चाओं की कटिंग्स की व्यवस्थित फ़ाइल्स दिखाया करते.उनकी बीसियों परिचर्चाओं में मैंने भी कुछ अपनी बाल- बुद्धि अनुरुप लिखा था. उनकी पत्नी राजो, बहन विभा सभी साहित्य से संगीत से जुड़े हुए.
अपने शहर के हर परिचित की विदा अंदर से मुझे थोड़ा सा खाली कर जाती है. नमन. श्रद्धांजलि.
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गिरीश पंकजJagdish Kinjalk

24 जनवरी 2023 
नहीं रहे परिचर्चा सम्राट !
जगदीश किंजल्क जी के निधन की खबर से मन विचलित हो गया । मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय था। तब वे छतरपुर आकाशवाणी में काम करते थे। सन १९९० से पहले की बात है। तब एक साहित्यिक सम्मेलन में जगदीश जी अपने पिता अम्बिकाप्रसाद 'दिव्य' जी के साथ रायपुर पधारे थे। तब मैंने उनके पिताजी का एक साक्षात्कार भी लिया था, जो नवभारत में प्रकाशित हुआ था। तब मैं नवभारत का साहित्यिक पर देखा करता था जो मध्य प्रदेश ,महाराष्ट्र तक जाया करता था । किंजल्क जी से लगातार संवाद कायम रहा। यह वह दौर था जब धर्मयुग जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में उनके द्वारा ली गई परिचर्चाएँ खूब छपा करती थी। लोग उन्हें परिचर्चा सम्राट के रूप में जानते थे। एक-दो परिचर्चा ओं में उन्होंने मेरे विचार भी लिए थे। अपने पिताजी के नाम से उन्होंने दिव्य सम्मान भी शुरू किया था, जो वर्षों तक चला । एक बार अतिथि के रूप में उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया था। किसी कारणवश मैं उसमें शामिल नहीं हो सका था। किंजल्क जी का परिवार साहित्यिक था। सबका अपना अपना नाम था ।जगदीश जी से भोपाल में भी मेरी मुलाकाते समय-समय पर भी होती रहीं। आज उनके निधन की खबर सुनकर पीड़ा पहुंची। उन्हें शत-शत नमन
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