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बुधवार, 13 नवंबर 2024

नवंबर १३, प्रदीप शुक्ल, सरस्वती, हाइकु गीत, सगुण, सुमेरु, नरहरी, राम, विभा तिवारी,

सलिल सृजन नवंबर १३
*
चमेली चर्चा
°
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी  करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४ 
°
कृति चर्चा :
"गाँव देखता टुकुर-टुकुर" शहर कर रहा मौज
*
[कृति विवरण - गाँव देखता टुकुर-टुकुर, नवगीत संग्रह, नवगीतकार - प्रदीप कुमार शुक्ल, प्रथम संस्करण, वर्ष २०१८, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक, आकार - २१ से. x १४ से., पृष्ठ १०७, मूल्य ११०/-, प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क - एन.एच.१, सेक्टर डी, एलडीए कॉलोनी, कानपुर मार्ग, लखनऊ २२६०१२ चलभाष ९४१५०२९७१३ ]
*
गाँव से शहरों की ओर निरंतर तथा दिन-ब-दिन बढ़ते पलायन के दुष्काल में, गाँव से आकर महानगर में बसे किन्तु यादों, संपर्कों और स्मृतियों के माध्यम से गाँव से निरन्तर जुड़े नवगीतकार डॉ. प्रदीप शुक्ल द्वारा अपने गाँव को समर्पित यह नवगीत कृति अपनी माटी में जमीं ही नहीं अपितु उससे जुडी हुई जड़ों का जीवंत दस्तावेज है। खड़ी बोली और अवधी के गंगो-जमुनी संगम को समेटे यह प्रति नवगीत पटल पर नवाचार का एक पृष्ठ जोड़ती है। पेशे से चिकित्सक डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल भली-भाँति जानते हैं कि दर्द की दवा किसी एक जीवन सत्व में नहीं, विविध जीवन सत्वों के सम्यक-समुचित समायोजन और सेवन में होती है। उनके नवगीत किसी एक तत्व को न तो अतिरेकी महत्व देते हैं, न ही किसी तत्व की अवहेलना करते हैं। मानवीय चेतना परिवेश, परंपरा और जीवन मूल्यों में विकसित होने के साथ उन्हें नवता प्रदान करती है। संवेदनशीलता नवगीत लेखन और रोग निदान दोनों के लिए उर्वरक का कार्य करती है। प्रदीप जी की बहुआयामी संवेदनशीलता "गुल्लू का गाँव" बाल गीत संग्रह में चांचल्य, "यहै बतकही" अवधी नवगीत संग्रह में पारिवारिक सारल्य तथा "अम्मा रहतीं गाँव में" एवं "गाँव देखता टुकुर-टुकुर" दोनों हिन्दी नवगीत संग्रहों में समरसता की सरस धार प्रवाहित करती है। प्रदीप जी वाचिक परंपरा में अमीर खुसरो प्रणीत कह मुकरियाँ रचने में भी निपुण हैं। यह पृष्ठभूमि उनके नवगीतों को रस, लय व् छंद से समृद्ध करती है। उनका 'रामदीन' रोजी मिलने - न मिलने के चक्रव्यूह में घिरा हगोने के बाद भी धुकुर पुकुर करते दिल से सुरसतिया की अनकही पीड़ा में साझेदार है। गाँवों से पलायन, आजीविका अवसरों का भाव, युवाओं के जाने से नष्ट होती खेती, कॉन्क्रीटी सड़कों से पशुओं के नष्ट होते खुर, गावों को निगलने के लिए तटपर शहर और अपने अस्तित्व खोने की आशंका से टुकुर-टुकुर तकते गाँव सब कुछ चंद शब्दों में बयां कर देना कवी की सामर्थ्य का परिचायक है -
यहाँ शहर में
सारा आलम
आँख खुली बस दौड़ रहा,
वहाँ गाँव में रामदीन
बस दिन उजास के जोड़ रहा
मनरेगा में काम मिलेगा?
दिल करता है धुकुर-पुकुर
सुरतिया के
दोनों लड़के
सूरत गए कमाने हैं
गेहूँ के खेतों में लेकिन
गिल्ली लगी घमाने हैं
लँगड़ाकर चलती है गैया
सड़कों ने खा डाले खुर
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकर-टुकर।
गीतज नवगीत विधा को सामाजिक विसंगति, समसामयिक विडंबना, पारिवारिक बिखराव, व्यक्तिगत दर्द, समष्टिगत पीड़ा, बेबस रुदन आदि का पर्याय माननकर शोकगीत, रुदाली या स्यापा बनाने की असफल कोशिश में निमग्न दुराग्रहियों को प्रदीप जी अपने नवगीतों में प्रकृति सौंदर्य के मनोरम शब्द चित्र अंकित कर सटीक और सशक्त उत्तर देते हैं -
जाड़े में धूप के बिछौने
गुड़हल की पत्ती से
लटक रहे मोती।
अलसाई सुबह बहुत
देर तलक सोती
खिड़की पर किरणों के
फुदक रहे छौने।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल ठीक ही लिखते हैं - "जब व्यक्ति की अनुभूति, अपनी रागात्मक अवस्था में यथार्थ को छूती है तो गीत का जन्म होता है। यथर्थ की यह आतंरिक सच्चाई जब गहन अनुभूति से शब्द-रूप में परिवर्तित होती है तो उसकी लोक संवेदना सामाजिक सरोकारों से जुड़ जाती है।" व्यक्तिगत पीड़ा का यह सार्वजनीकरण डॉ. प्रदीप शुक्ल के गीतों में सहज दृष्टव्य है किन्तु यह एकाकी या अतिरेकी नहीं है। गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह एक-दूसरे के लिए अश्पृश्य, सर्वथा भिन्न और अस्वीकार्य बनाने की जिद ठाने नासमझों को भारतीय परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों का समय सापेक्ष उल्लेख कर, प्रदीप जी अपनी रचनाओं में विद्रूपता से साथ सुरूपता का सम्यक सामंजस्य का नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हैं। 'गुलमुहर ने आज हमसे बात की' शीर्षक नवगीत की पंक्तियों में दिशाओं की महक महसूस कीजिए -
"प्यार से
पुचकार कर
उसने हमें विश्राम बोला
वहीं हमने देर तक
भटके हुए मन को टटोला
गुलमुहर ने फिर हमें
बातें कहीं उस रात की।
रात में उस रोज़
महकी थीं सभी चारों दिशाएँ
ओस भीगी रात में जब
खौल उठी थी शिराएँ
और फिर खामोशियाँ थीं
थम चुकी बरसात की
प्रदीप शुक्ल जी की अनेक रचनाएँ गीत-नवगीत दोनों के हाशियों या सीमा रेखाओं पर रची गई हैं। घर के आँगन में जाड़े की धूप का लजाना, कुहरे की चादर में शर्माना, गौरैया का उतरकर चूं-चूं-चूं बोलना, आहट सुनकर कुत्ते का आँखें खोलना और सन्नाटे का भागना जैसे छोटे-छोटे विवरण प्रदीप जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। इस परिवेश में दर्द की झालं नकली, अतिरेकी या थोपी हुई नहीं लगती। जीवन में धूप-छाँव की तरह सुख-दुख आते-जाते रहते हैं, प्रदीप जी उनका सम्यक सम्मिश्रण करने की सामर्थ्य रखते है-
खड़ी हुई है धूप लजाई
घर के आँगन में
आलस बिखरा
हर कोने में
दुबकी पड़ी रजाई
भोर अभी कुहरे की चादर
में बैठी शरमाई....
.... उतरी है गौरैया
आकर
चूं चूं चूं बोली
आहट सुनकर सोये कुत्ते
ने आँखें खोलीं
दबे भागा
आनन-फानन में
रात रानी की महक से सुवासित 'साँझ का गीत' कको भी महका रहा है-
खिल-खिल कर
हँसते हैं दूर खड़े तारे
अभी और चमकेंगे
रात के दुलारे
उन से ही पूछेंगे
रात की कहानी
खुशबू से महकेगी
अभी रात रानी
चंदा उग आया है
बरगद की डाल
ओ अमलतास, कनेर की बात, गुलमुहर के फूल, देखो आगे मौलसिरी है, जैसे नवगीत पादप संसार, गर्मी का गीत, फागुन, फागुन है पसरा, बरखा, बारिश, मेघा आये रे, बारिश को आना था,अगहन, जाड़े की धूप, चैट, मई का गीत, आदि ऋतुचक्र , यह भारत देश है मेरा, सीमा पर चिट्ठी, याद आयीं अम्मा में संबंधों तथा कहाँ गए तुम पानी, प्यासा रहा शहर, अच्छे दिन अभी लौटे नहीं हैं आदि सामाजिक-राजनैतिक-पर्यावरणीय विसंगतियों पर केंद्रित हैं। प्रदीप जी के गीतों की वैषयिक विविधता उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की परिचायक है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि आगामी संकलनों में रोगों पर केंद्रित दें। उनकी सृजन सामर्थ्य मौलिक और लीक से हटकर लिखने में विश्वास रखती है। 'कनेर की बात' बचपन की यादों से बाबस्ता है-
तुम कनेर की बात ना छेड़ो,
बचपन याद दिला जाता है,
हरी-भरी पतली डाली पर
एक नजर रक्खूँ माली पर
किसी तरह से मिल जाए वह
रख दूँ पूजा की थाली पर
बाबा कहते हैं ठाकुर को
पीला फूल बहुत भाता है
सामाजिक सौहार्द्र को क्षति पहुँचाते, मतभेदों को बढ़ाते नवगीतों की खरपतवार के बीच में प्रदीप शुक्ल के नवगीत पंकज पुष्पों की तरह अलग आनंदित करते हैं। इन गीतों की भाषा आक्रामक, तेवर विद्रोही, भाव मुद्रा टकराव प्रधान, भाषा पैनी, शब्द चुभते हुए नहीं हैं। रचनाकार विखंडन नहीं, सृजन और समन्वय का पक्षधर है। वह फिर से सूरज उगाने को गीत रचना का लक्ष्य मानता है। उसके गीतों में विसंगति सुसंगती स्थापित करने की पृष्ठभूमि का काम करती है। वह दर्द पर हर्ष की जय का गायक है। प्रदीप शुक्ल के नवगीत जीवन और जिजीविषा की जय गुँजाते हैं। 'मैं तो चलता हूँ' शीर्षक नवगीत प्रदीप जी के गीतों में नव हौसलों की बानगी पेश करता है। तुमको रुकना हो
रुक जाओ
मैं तो चलता हूँ.
माना बहुत कठिन है राहें
आगे बढ़ने की
मन में लेकिन है इच्छाएँ
सूरज चढ़ने की
तुम सूरज के किस्से गाओ
मैं बस चढ़ता हूँ
प्रदीप शुक्ल का चिकित्सक उन्हें सामाजिक परिवेश में नवगीतों के माध्यम से घाव लगाने या घावों को कुरेदने की मन:स्थिति से दूर है। वे गीतों के माध्यम से घावों की मरहम-पट्टी करते हैं या विसंगतियों से आहत-संत्रस्त मानों को राहत पहुँचाते हैं। सामाजिक विसंगतियों का अतिरेकी चित्रण कर, असंतोष की वृद्धि कर, जनक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े तथाकथित नवगीतकारों के रुष्ट होने या उनके द्वारा अनदेखे किए जाने जोखिम उठाकर भी डॉ. प्रदीप शुक्ल गीत-नवगीत को रस-सलिला के दो किनारे मानते हुए सटीक भाव-बिम्बों और सम्यक प्रतीकों के द्वारा हैं जो कहा जाना सामाजिक समरसता के है। प्रसाद गुण संपन्न भाषिक शब्दावली और अमिधा में बात करते ये गीत-नवगीत अवध की सरजमीं को तरह-तरह से सजदा करते हैं। दादा, आम आये, पाठक को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। इन नवगीतों में आशावादिता का जो स्वर बार-बार उभरता है वह बहुमूल्य और दुर्लभ है। ऐसा नहीं है की समाज के अमांगलिक पक्ष की और से बंद कर ली गयी हैं। नए साल में क्या बदलेगा, यह भारत देश है मेरा आदि नवगीतों में दीपक अँधेरे की किन्तु अर्चा दीपक के प्रकाश की है। भावी नवगीत को के उन्नयन का साक्षी बनकर अपनी सामायिक-सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करनी होगी, चिरजीवी होंगे। यह सृष्टि का सनातन सत्य है कि जो उपयोगी नहीं होता, मिटा जाता है। डॉ. प्रदीप शुक्ल के नवगीत अभिव्यक्ति विश्वम लखनऊ तथा विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के नवगीत सृजन आयोजनों की सार्थकता प्रमाणित करते हैं। जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही', गिरि मोहन गुरु, दयाराम गुप्त 'पथिक', निर्मल शुक्ल, मधु प्रधान, अशोक गीते, पूर्णिमा बर्मन, संजीव 'सलिल', संध्या सिंह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. वीरेंद्र निर्झर, बसंत शर्मा, गोपालकृष्ण 'आकुल', कल्पना रामानी, शीला पांडे,, रामशंकर वर्मा, धीरज श्रीवास्तव, शुभम श्रीवास्तव ॐ, गरिमा सक्सेना, अवनीश त्रिपाठी, शशि पुरवार, रोहित रूसिया, छाया सक्सेना, मिथिलेश बड़गैया आदि का नवगीत सृजन नवगीतों में प्रकृति, परिवेश और समाज की विसंगतियों के साथ-साथ उल्लास, आशावादिता, पर्व, श्रृंगार, आदि के माध्यम सुसंगतियों को भी शब्दांकित किया गया है। डॉ. प्रदीप शुक्ल इसी गीत-गंगा महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। भविष्य में यह नवगीतीय भावधारा अधिकाधिक पुष्ट होना है।
'गाँव देखता टुकुर-टुकुर' के नवगीत विसंगतिवादियों को भले ही रुचें किन्तु सुसंगतिवादी इनका स्वागत करने के साथ ही आगामी संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।

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सरस्वती वंदना
(हाइकु गीत)
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
विनत हम
सिर पर हमारे
हाथ धरिए।।
*
हंसवाहिनी!
अमल विमल दो
मति हमें माँ।
ध्याएँ तुमको
भजन गाकर
नित्य प्रति माँ।।
भाव-रस के
सृजन पथ पर
साथ चलिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
शब्द-अक्षर
सरस सहचर
बन सहारे।
पकड़कर
कर कलम छवि
प्यारी उतारे।।
आँख मन की
खुल निरख जग
कथा कहिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
*
बात अपनी
बिन हिचक हम
मिल लिखेंगे।
समय सच
दर्पण सदृश बिन
भय कहेंगे।।
पीर जग की
सकल हर भव
पार करिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
१३-११-२०२२
●●●
मुक्तक
खड़े सीमा पर सजग, सोते न प्रहरी ।
अड़े सरहद पर अभय, रोते न प्रहरी।।
शत्रु भय से काँपते, आएँ न सम्मुख -
मिले अवसर तो कभी, खोते न प्रहरी।।
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
छंदशाला ५१
सुमेरु छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल व सगुण छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १२-७ या १०-९।
लक्षण छंद
रखे यति बारह-सात, सुमेरु छंद।
दस-नौ भी हो यति, पाएं आनंद।।
लघु आदि; यगण से, पदांत भी करें-
काठज्या भाव लय रस, बिंब संग रखें।
उदाहरण
सत्य का अनुगमन, करना है सदा।
धर्म का अनुसरण, करना है बदा।।
जूझना खुद से हमें, प्रभु को भजें-
संतुलन ही साध्य है, सुख मत तजें।।
१३-११-२०२२
•••
छंदशाला ५२
नरहरी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व सुमेरु छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १४-५, पदांत न ग ।
लक्षण छंद
बचाने प्रह्लाद प्रगटे, नरहरी।
यति रखे यम-तत्व झपटे, नरहरी।।
नगण गुरु पद अंत रखकर, कवि रचें।
लोक में रचना सरस पुनि, पुनि बचें।।
टीप - याम १४, तत्व ५।
उदाहरण
छल न अपने आपसे किंचित करें।
फल न अपना आपका जो, मत धरें।।
बीज बोया आपने जो वह फले।
देखकर अरि आपसे नाहक जले।।
१३-११-२०२२
•••
***
दोहा सलिला
राम कथा
वह नर हुआ सुरेश, राम कृपा जिस पर हुई।
उससे खुद देवेश, करे स्पृहा निरंतर।।
कहें आंगिरस सत्य, राम कृष्ण दोउ एक हैं।
वे परमेश अनित्य, वेणु छोड़ धनु कर गहें।।
संगीता हर श्वास, जिसके मन संतोष है।
पूरी हो हर आस, सदानंद उसको मिले।।
जब कृपालु हों राम, जय जयंत को तब मिले।
प्रभु बिन विधना वाम, सिय अनंत गुण-धाम हैं।।
कृष्ण कथा रवि-रश्मि, राम कथा आदित्य है।
प्रभु महिमा का काव्य, सच सच्चा साहित्य है।।
भरद्वाज आश्रम चलें, राम कथा सुन धन्य।
मूल्य आचरण में ढलें, जीवन बने प्रणम्य।।
करिए मंगल कार्य, बाधाएँ हों उपस्थित।
करें विहँस स्वीकार्य, तजें न शुभ संकल्प हम।।
परखें आस्था दैव, किसकी कैसी भक्ति है?
विचलित हुआ न कौन?, जिसकी दृढ़ अनुरक्ति है।।
हों सात्विक तब लोग, संत रूप राजा रहे।
तब सत्ता है रोग, अगर नहीं सद आचरण।।
हो शासक सामान्य, हो विशिष्ट किंचित नहीं।
जनमत का प्राधान्य, राम राज्य तब हो यहीं।।
नहीं किसी से बैर, सदा सभी से निकटता।
तभी रहेगी खैर, जब शासक निष्पक्ष हो।।
समरसता ही साध्य, कहें राम दें बैर तज।
स्वामी-सेवक सम रहें, तभी सकेंगे ईश भज।।
राम सखा वर दीन, दीनों के प्रिय हो गए।
बंधु मानकर दौड़ , भेंटें भुज भरकर भरत।।
हैं परमेश्वर एक, किन्तु विभूति अनंत हैं।
हम मानव हों नेक, भिन्न भले ही पंथ हैं।।
कोई ऊँच; न नीच, कण-कण में सिय-राम।
देश-बाग दें सींच, फूले-फले सुदेश तब।।
राजपुत्र होकर नहीं, जन-चयनित थे राम।
जन आकांक्षा थी तभी, राम अवध-राजा हुए।।
मानव है चैतन्य, प्रश्न करे; हल चाहता।
क्यों जग में वैभिन्न्य, प्रभु से उत्तर चाहता।।
परम शक्ति भगवान्, सब कुछ करता है वही।
रखें हमेशा ध्यान, जो करते भोगें 'सलिल'।।
मनुज सोचता रहा, जाकर आते या नहीं?
एक नहीं मत रहा, विविध पंथ तब ही बने।।
भक्ति शक्ति अनुरक्ति, गुरु अनुकंपा से मिले।
साध्य न होती मुक्ति, प्रभु सेवा ही साध्य हो।।
सोच गहे आनंद, कामी नारी मिलन बिन।
धन से रखता प्रेम, लोभी करता व्यय नहीं।।
भक्त न साधे स्वार्थ, प्रेम अकारण ही करे।
लक्ष्य मात्र परमार्थ, कष्ट अगिन हँसकर सही।।
चित्रकार हर चित्र, निजानंद हित बनाता।
कब देखेगा कौन?, क्रय-विक्रय नहिं सोचता।।
निष्ठा ही हो साध्य, बार-बार बदलें नहीं।
अगिन न हों आराध्य, तभी भक्ति होती सफल।।
तन न; साध्य हो आत्म, माय-छाया एक है।
मूर्त तभी परमात्म, काया जब हो समर्पित।।
१३-११-२०२२
***
पुरोवाक
फ़ुरक़त के बहाने : वस्ल के तराने
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'फ़ुरक़त' (विरह) और वस्ल (मिलन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सृष्टि की उत्पत्ति ही प्रकृति और पुरुष के मिलन से होती है। मिलन नव संतति को जन्म देता है जिसका पालन-पोषण मिलनकी अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अन्य प्राणियों के लिए 'वस्ल' वंश-वृद्धि का माध्यम मात्र है इसलिए 'फ़ुरक़त' का वॉयस सिर्फ मौत होती है। इंसान ने अपने दिमाग के जरिए 'वस्ल' को रोजमर्रा की ज़िंदगी में शामिल कर लिया है। साइंसदां न्यूटन के मुताबिक कुदरत में हर 'एक्शन' का समान लेकिन उलटा 'रिएक्शन' होता है। जब इंसान ने 'वस्ल' की ख़ुशी को रोजमर्रा की ज़िंदगी में जोड़ लिया तो कुदरत ने इंसान के न चाहने पर भी 'फ़ुरक़त' को ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया। 'वस्ल' और 'फ़ुरक़त' की शायरी ही 'ग़ज़ल' है। हिंदी में श्रृंगार रस के दो रंग 'मिलन' और 'विरह' के बिना रसानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह श्रृंगार जब सूफियाना रंग में ढलता है तो भक्त और भगवान के मध्य संवाद बन जाता है और जब दुनियावी शक्ल अख्तियार करता है तो माशूक और माशूका के दरमियां बातचीत का वायस बनता है।
ग़ज़ल : दिल को दिल से जोड़ती
ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, बांगला, मराठी, अंग्रेजी सहित विश्व की कई भाषाओँ में कहीं-पढ़ी और सुनी जाती है। अरबी में ग़ज़ल की पैदाइश भारत में आम लोगों और संतों द्वारा गयी जाती दूहों, त्रिपदियों और चौपदियों और षट्पदीयों के परंपरा में थोड़ा बदलाव कर किया गया। चौपदी की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह समभारिक पंक्तियों को जोड़ने पर मुक्तक ने जो शक्ल पाई, उसे ही 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत से अरब-फारस तक आम लोगों, संत-फकीरों और व्यापारियों का आना-जाना हमेशा से होता रहा है। उनके साथ अदबी किताबें और जुबान भी यहाँ से वहां जाती रही। पहले तो जुबानी (मौखिक) लेन-देन हुआ होगा , बाद में लिपि का विकास होने पर ताड़पत्र, भोजपत्र पर कलम से लिखकर किताबें और उनकी नकलें इधर से उधर और उधर से इधर होती रहीं। भारत पर मुगलों के हमलों और उनकी सल्तनत कायम होने के दौर में अरबी-फ़ारसी-तुर्की वगैरह का भारत के सरहदी सूबों की जुबानों के साथ घुलना-मिलना होता रहा। नतीजतन एक नई जुबान सिपाहियों, मजदूरों, किसानों, व्यापारियों और हुक्मरानों के काम-काज के दौरान शक्ल अखित्यार करती रही। लश्करों में बोले जाने की वजह से इसे लश्करी, बाजारू काम-काज की जुबान होने की वजह से 'उर्दू' और महलों में काम आने की वज़ह से 'रेख़्ता' कहा गया। बाद में दिल्ली, हैदराबाद और लखनऊ मुगलों की सत्ता के केंद्र बने तो उर्दू जुबान की तीन शैलियाँ (स्कूल्स) सामने आईं।
हिंदी - उर्दू
अरबी-फारसी की जो काव्य शैलियाँ भारत में पसंद की गईं, उनमें 'भारत की चौपदियों को बढ़ाकर सातवीं सदी में बनाई गई ग़ज़ल' अव्वल थी और है। भारत में अपभृंश, संस्कृत, हिंदी तथा अन्य भाषाओँ/बोलिओं में गीति काव्य का विकास उच्चार (सिलेबल्स) के आधार पर उपयोग किये जा रहे वर्णों और मात्राओं से विकसित लय खंड (रुक्न) और छंद (बह्र) से हुआ। बहुत बाद में इसी तरह अरबी-फ़ारसी में ग़ज़ल कही गई। इसी वजह से भारत के लोगों को ग़ज़ल अपनी सी लगी और हिंदी ही नहीं भारत की कई सी दीगर जुबानों में ग़ज़ल कही जाने लगी। भारत में ग़ज़ल की दो शैलियाँ सामने आईं - पहली जो अरबी-फारसी ग़ज़लों की नकल कर उनके भाष-नियमों और बह्रों को आधार बनाकर लिखी गईं और दूसरी जो भारत के छंदों और हिंदी भाषा के व्याकरण, छंदशास्त्र, षट्कोण, बिम्बों का उपयोग कर कही गईं। शुरुआत में उर्दूभाषियों ने हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की कोशिश की बावजूद इसके कि उनके घरों में चूल्हे हिन्दीवालों द्वारा देवनागरी लिपि में उनकी गज़लें पढ़ने की वजह से जल रहे थे। इस तंग नज़रिए ने हिंदी ग़ज़ल को अलहदा पहचान दिलाने के हालत बनाये और हिंदी ग़ज़ल या भारतीय ग़ज़ल मुक्तिका, गीतिका, पूर्णिका, सजल, तेवरी आदि कही जाने लगी।
हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल
एक बात और साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल न तो एक ही चीज हैं, न उनको शब्दों (अलफ़ाज़) की बिना पर अलग-अलग किया जा सकता है। बकौल प्रेमचंद बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्राय:एक सी हैं। दोनों जुबानों की निरस्त साझा है सिवाय इसके कि उर्दू की लिपि विदेशी है हिंदी की स्वदेशी। उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी में लिखेजाने से यह फर्क भी खत्म होता जा रहा है। अब जो फर्क है वह है भाषाओं के भिन्न व्याकरण और पिंगल का। अरबी-फ़ारसी और हिंदी वर्णमाला का अंतर ही उर्दू-हिंदी ग़ज़ल को अलग-अलग करता है। अरबी-फ़ारसी के कुछ हर्फ़ हिंदी वर्णमाला में नहीं हैं, इसी तरह हिंदी वर्णमाला के कुछ अक्षर (वर्ण) अरबी-फारसी जुबान में नहीं हैं। तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) नियमों के अनुसार उनके उच्चार भिन्न नहीं समान होने चाहिए। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनिवाले शब्द तुकांत-पदांत में हों तो वे अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में न होने के कारण उर्दू ग़ज़ल में नहीं लिखे जा सकते। इसी तरह कुछ ध्वनियों के लिए हिंदी वर्णमाला में एक वर्ण है किंतु अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में एक से अधिक हर्फ़ हैं, इस वजह से हिंदी के शायर जिन शब्दों को ठीक समझ कर उपयोग करेगा कि उनमें सम ध्वनि है, अरबी-फ़ारसी के अनुसार उनमें भिन्न ध्वनि वाले हर्फ़ होने की वज़ह से उसे गलत कहा जाएगा। हिंदी के संयुक्ताक्षर भी उर्दू ग़ज़ल में स्थान नहीं पा सकते। अरबी-फ़ारसी के बिम्ब-प्रतीक हिंदी ग़ज़ल में अनुपयुक्त होंगे।
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 'हिंदी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं है, उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा भी एक सी है।१ डॉ. शर्मा भूल जाते हैं कि जाती और भाषा एक होने पर भी आदमी-औरत, बच्चे-जवान-बूढ़े कुछ समानता रखते हुए भी पूरी तरह एक ही नहीं, भिन्न होते हैं। वे हिंदी-उर्दू के मुख्य अंतर वर्णमाला और विरासत या अतीत को भुला देते हैं। दुर्भाग्य से देवनागरी लिपि में हिंदी भाषियों द्वारा स्वीकारे जाने के बाद भी, अरबी-फ़ारसी से जुड़े रहने का अंधमोह उर्दू ग़ज़ल में भारतीय बिम्ब-प्रतीकों को दोयम दर्जा देता रहा है। खुद को अलग दिखाने की चाह सिर्फ ग़ज़ल में नहीं मुस्लिम संस्थाओं और लोगों के नामों में भी देखी जा सकती है।
हिंदी ग़ज़ल में तुकांत-पदांत का पालन किया जाता है किन्तु अंग्रेजी ग़ज़ल में ऐसा संभव नहीं हो पाता। अंग्रेजी ग़ज़ल में 'पेंशन' और 'अटेंशन' का पदांत स्वीकार्य है, जबकि हिंदी ग़ज़ल में 'होश' और 'कोष' का पदांत दोषपूर्ण कहा जाता है।
ग़ज़ल और संगीत
संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से एक अलग शैली निर्मित हुई। भारतीय शास्त्रीय संगीत की ख्याल और ठुमरी शैली से शुरुआत कर अब ग़ज़ल को विविध सरल और मधुर रागों पर लिखा और गाया जाता है।
फ़ुरक़त की गज़लें
इस पृष्ठभूमि में फ़ुरक़त की ग़ज़लों में हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल की विरासत का सम्मिश्रण है। ग़ज़लों की गंगो-जमनी भाषा आँखों से दिमाग में नहीं, दिल में उतरती है। यह ख़ासियत इस ग़ज़लों को खास बनाती है। इन ग़ज़लों में 'कसीदे' से पैदा बताई जाती ग़ज़ल की तरह हुस्नों-इश्क़ के चर्चे नहीं हैं, न ही आशिको-माशूक की चिमगोइयाँ हैं। ये गज़लें वक़्त की आँखों में आँखें डालकर सवाल करती हैं -
मुझको आज़ादी से लेकर आज तक बतलाइए
आस क्या थी और क्या सरकार से हासिल हुआ?
आज़ादी के बाद से 'ब्रेन ड्रेन' (काबिल लोगों का विदेश जा बसना) की समस्या के शिकार इस मुल्क की तरफ से ऐसे खुदगर्ज़ लोगों को आईना दिखाती हैं विभा -
बहुत सोचा कि मैं जीवन गुजारूँ मुल्क के बाहर
मगर ग़ैरों के दर पर मौत भी अच्छी नहीं होती।।
विभा हिदायत देते समय मुल्क के बाशिंदों को भी नहीं बख्शतीं। वे हर उस जगह चोट करती हैं जहाँ बदलाव और सुधार की गुंजाइश देखती हैं।
गली हो या मोहल्ला हो 'विभा' ये ज़ह्न हो दिल हो
कहीं पे भी हो फ़ैली गंदगी अच्छी नहीं लगती।
ज़िन्दगी के मौजूदा हालात पर निगाह डालते हुए विभा देख पाती हैं कि घरों में जैसे-जैसे सहूलियात के सामन आते हैं, आपस में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। इस हक़ीक़त की तनक़ीद करती हुई वे कहती हैं -
फिर तमन्नाओं ने रक्खा है मेरे दिल में क़दम
चाँद मिट्टी के खिलौने मेरे घर में आ गए।।
बेसबब फिर बढ़ गयी हैं घर से अपनी दूरियाँ
हम भले बैठे-बिठाये क्यों सफर में आ गए।।
शहर जाकर गाँव को भूल जाने, शहर से आकर गाँव की फिज़ा बिगाड़ने, माँ की ममता को भूल जाने और अत्यधिक आधुनिकता के लिबास में इतराने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुई विभा लिखती हैं -
फ़िज़ाएँ इस गाँव की कहती हैं उससे दूर रह
शह्र से लौटा है कितने पल्लुओं से खेलकर।।
मेरा भाई अब उसी माँ की कभी सुनाता नहीं
बन गया पापा वो जिसके पहलुओं में खेलकर।।
किस कदर लैलाएँ इतराने लगी हैं ऐ 'विभा'
आजकल के मनचले कुछ मजनूओं से खेलकर।।
सदियों पहले आदमी की आंख का पानी मरने की फ़िक्र करते हुए रहीं ने लिखा था 'बिन पानी सब सून', यह फ़िक्र तब से अब तक बरकरार है-
इस ज़माने में अब नहीं ग़ैरत
शर्म आँखों में मर गई साहिब।।
विभा का अंदाज़े-बयां, आम आदमी की जुबान में, उसी के हालात पर इस अंदाज़ में तब्सिरा करना है कि वह खुद ठिठककर सोचने लगे। शर्म ही नहीं साथ में ख़ुशी भी गायब हो गई-
आरज़ू दिल से हो गई रुख़सत
और ख़ुशी रूठकर गई साहिब।।
दुनिया-ए-फ़ानी में आना-जाना, एक दस्तूर की तरह है। विभा सूफियाना अंदाज़ में कहती हैं-
तेरी दुनिया सराय जैसी है
कोई आया अगर गया कोई।।
विभा बेहद सादगी से बात कहती हैं, वे पाठक को चौंकाती या डराती नहीं हैं। पूरी सादगी के बाद भी बात पुरअसर रहती हैं। 'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा' -
यूँ तो सच्चाई की चिड़िया छटपटाई थी बहुत
आख़िरश फँस ही गई मक्कारियों के बीच में।।
एक माँ कई औलादों को पाल-पोसकर बड़ा और खड़ा कर देती है पर वे औलादें मिलकर भी माँ को नहीं सम्हाल पातीं। इस कड़वी सचाई को विभा एक शे'र में सामने रखती हैं -
बाँट के खाना ही जिस माँ ने सिखाया था कभी
आज वो खुद बँट गई दो भाइयों के बीच में।।
आज की भौतिकतावादी सोच और स्वार्थकेंद्रित जीवनदृष्टि बच्चों को बदजुबानी और बदगुमानी सिखा रही है -
निगल गई है शराफ़त को आज की तहज़ीब
है बदज़ुबान हुए बेज़ुबान से लड़के।।
कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान'। विभा कहती हैं -
अपनी मर्जी से कोई कब काम होता है यहाँ
वक़्त के हाथों की कठपुतली रहा है आदमी।।
जीवन को समग्रता में देखती इन हिंदी ग़ज़लों में प्रेम भी है, पूरी शिद्दत के साथ है लेकिन वह खाम-ख़याली (कपोल कल्पना) नहीं जमीनी हक़ीक़त की तरह है।
इश्क़ में सोचना क्या है।
सोचने के लिए बचा क्या है?
लड़ गयी आँख हो गया जादू
गर नहीं ये तो हादसा क्या है?
बह्र छोटी हो या बड़ी विभा अपनी बैठत बहुत सफ़ाई और खूबसूरती से कहती हैं -
रात भर मुंतज़िर रहा कोई
छत पे आने से डर गया कोई।।
दिल था बेकार उसको तोड़ गया
ये भला काम कर गया कोई
इन ग़ज़लों में अनुपास अलंकार तो सर्वत्र है ही। यमक की छटा देखिए -
मेरी आँखों से तारे टपकते रहे
रात रोती रही रात भर देखिए।।
'व्यंजना' में बात कहने का सलीका और वक्रोक्ति अलंकार की झलक देखिए -
यह हुनर भी तुम्हीं से सीखा है
चार में दो मिलाके सात करूँ।।
सारत:, फ़ुरक़त की गज़लें वक़्त की नब्ज़ टटोलने की कामयाब कोशिश है। गज़लसरा का यह पहला दीवान पाठकों को पसंद आएगा, यह भरोसा है। विभा हालात की हालत पर नज़र रखते हुए ग़ज़ल कहने का सिलसिला न केवल जरी रखें अपना अगला दीवान जल्द से जल्द लाएँ 'अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा'।
संदर्भ १, भाषा और समाज पृष्ठ ३५७।
१३.११.२०२१
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विशववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
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हाइकु गीत
*
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।
*
हमेशा रहे / गतिमान जो वह / है मतिमान।
सही हो दिशा / साथ हो मति-गति / चाहें सुजान।।
पास या दूर
न भूलता मंजिल
तभी वरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
रजनी संग सो / उषा के साथ जागे / रंगे प्राची को।
सखी किरणें / गुइंया दोपहरी / वरे संध्या को।।
ताके धरा को
करता रंगरेली
छैला सजता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
आँखें दिखाता / कभी नहीं झुकाता / नैना लड़ाता।
तम हरता / किसी से न डरता / प्रकाशदाता।।
है खाली हाथ
जग झुकाए माथ
धैर्य धरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
१३.११.२०२१
***
***
कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
संजीव, १३.११.२०१८
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मुक्तक : गहोई
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?
मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?
सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-
गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
*
कहो किसका कब सदा होता है कोई?
कहो किसने कमाई अपनी न खोई?
कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-
कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
*
सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?
श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.
रास होगी श्वास की जब आस के संग-
गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
*
कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?
आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?
आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना-
गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
*
सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.
विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..
प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या?
गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई।
*
(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा,
१३.११.२०१७
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गीत
*
पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया
तब उत्तर पाया मौन
*
मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
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षट्पदी
*
करे न नर पाणिग्रहण, यदि फैला निज हाथ
नारी-माँग न पा सके, प्रिय सिंदूरी साज?
प्रिय सिंदूरी साज, न सबला त्याग सकेगी
'अबला' 'बला' बने क्या यह वर-दान मँगेंगी ?
करता नर स्वीकार, फजीहत से न डरे
नारी कन्यादान, न दे- वरदान नर करे
१३.११.२०१६
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मंगलवार, 12 नवंबर 2024

नवंबर १२, यमक दोहा, अपन्हुति, बुंदेली, छठ दोहे, मानस मंत्र, पीयूषवर्ष, सरस्वती

सलिल सृजन नवंबर १२
*
एक सोरठा 
दें सुगंध बेदाम, अलबेली है चमेली।
खुश हर खासो-आम, उसको यह संतोष है।।
*
बुंदेली सरस्वती वंदना
मुक्त छंद
सारद री!
कितै बिलम गईं सारद री!
रस्ता हेरत पथरा रईं अँखियाँ।
हंसा! कितै बिलानो रे!
उरत-उरत थक गईं का पँखियाँ?
मन मंदिर में आन बिराजो,
बुरो बखत मत भटक सारदा!
बनो कलेवा आकर खाओ,
पनघट पर मत अटक सारदा!
झटपट सपर घरे आ जाओ
माँ मो से सिंगार कराओ
माथे बेंदा, कानों बाली
चरन महावर, अधरन लाली
हाथन कंगन, बालन बैनी
मनमोहक छबि हे सुख दैनी!
बनो कलेवा भोग लगाओ
सारद! घर सें कहूँ नें जाओ।
१२-११-२२
●●●
छंदशाला ४८
पीयूषवर्ष छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली व पुरारि छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १०-९, पदांत ल ग।
लक्षण छंद
रच पीयूषवर्ष, मन में हो हर्ष।
दिश-ग्रह तक पाओ, अप्रतिम उत्कर्ष।।
लघु-गुरु पदांत रहे, लक्ष्य नहीं भूल-
होना निराश मत, पल भर अपकर्ष।
उदाहरण
मीत था जो गीत, सारे ले गया
ख्वाब देखे जो ह,मारे ले गया
.
दर्द से कोई न,हीं नाता रखा
वस्ल के पैगाम, प्यारे ले गया
.
हारने की दे दु,हाई हाय रे!
जीत के औज़ान, न्यारे ले गया
.
ताड़ मौका वार, पीछे से किया
फोड़ आँखें अश्क, खारे ले गया
.
रात में अच्छे दि,नों का वासता
वायदों को ही स,कारे ले गया
.
बोल तो जादूग,री कैसे करी
पूर्णिमा से ही सि,तारे ले गया
.
साफ़ की गंगा न, थोड़ी भी कहीं
गंदगी जो थी कि,नारे ले गया
*
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
***
रामचरित मानस में जीवन रक्षक मंत्र
मानस रचना के पश्चात् गोस्वामी तुलसीदास जी से पूछा गया कि अब तक राम कथा को 'रामायण' ही कहा गया है। विशिष्टता दर्शाने के लिए रामायण के साथ विशेषण जोड़ दिया जाता है. यथा - वाल्मीकि रामायण, कंबन रामायण, अध्यात्म रामायण आदि।
गोस्वामी जी ने उत्तर दिया कि रामायण का रथ है राम का मंदिर। मंदिर में जाने की मर्यादा है। मंदिर स्वच्छ हो, वास्तु के अनुसार बना हो, नियमानुसार पूजन-आरती और विश्राम आदि हो, मंदिर जानेवाला स्नान आदि कर स्वच्छ ही, स्वच्छ वस्त्र पहने हो, पूजन सामग्री लिए हो। मानस अर्थात मन का सरोवर, सरोवर में मलिनता से मुक्ति हेतु जाते हैं, सरोवर में जाने के लिए कोई सामग्री नहीं चाहिए, समय का प्रतिबंध नहीं होता। कोई भी, कभी भी, कहीं भी सरोवर में जा सकता है और अपनी मलिनता से मुक्त होकर निर्मल हो सकता है।
१. रक्षा हेतु - मामभिरक्षय रघुकुल नायक। घृत वर चाप रुचिर कर सायक।।
२. विपत्ति मुक्ति - राजिव नयन धरे धनु सायक। भक्त विपति भंजन सुखदायक।।
३. सहायता हेतु - मोरे हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोई होऊ।।
४. कार्य सिद्धि हेतु - बन्दौं बाल रूप सोइ रामु। सब सिधि सुलभ जपत जेहि नामू।।
५. वशीकरण हेतु - सुमिर पवनसुत पावन नामू। अपने वाश कर रखे रामू।।
६. संकट निवारण हेतु - दीनदयालु विरुद संभारि। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
७. विघ्न विनाश हेतु - सकल विघ्न व्यापहु नहीं तेहि। राम सुकृपा बिलोकहिं जेहि।।
८. रोग मुक्ति हेतु - राम कृपा नासहि सब रोगा। जो यहि भाँति बनहि संयोगा।।
९. ज्वर निवारण हेतु - दैहिक दैविक भौतिक जापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
१०. दुःख मुक्ति हेतु - राम भक्ति मणि जिस उर बस जाके। दुःख लवलेस न सपनेहु ताके।।
११. गुमी वस्तु प्राप्ति हेतु - गई बहोरि गरीबनवाजू। सरल सहज साहब रघुराजू।।
१२. अनुराग वृद्धि हेतु - सीताराम चरण रत मोरे। अनुदिन बढ़े अनुग्रह मोरे।।
१३. सुख प्राप्ति हेतु - जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख-संपति नाना विध पावहिं।।
१४. सुधार हेतु - मोहि सुधारहि सोई सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।।
१५. विद्या प्राप्ति हेतु - गुरु गृह पढ़न गए रघुराई। अलप काल विद्या सब आई।।
१६. सरस्वती की कृपा हेतु - जेहि पर कृपा करहि जन जानी। कवि उर अजिर नचावहि बानी।।
१७. निर्मल मति हेतु - ताके युग पद कमल मनाऊँ। जासु कृपा निर्मल मति पाऊँ।।
१८. मोह/भ्रम नाश हेतु - होय विवेक मोह भ्रम भंगा। टीवी रघुनाथ चरण अनुरागा।।
१९. स्नेह संवर्धन हेतु - सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति रीति।।
२०. बैर नाश हेतु - बैर न करु काहू संग कोई। राम प्रताप बिसमता खोई।।
२१. परिवार-सुख प्राप्ति हेतु - अनुजन संयुत भोजन करहिं। देखि सकल जननी सुख भरहीं।।
२२. भातृ सुख हेतु - सेवहिं सानुकूल भाई। राम चरन रति अति अधिकाई।।
२३. मेल-मिलाप हेतु - गरल सुधा रिपु करहिं मिलाई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
२४. शत्रु नाश हेतु - जाके सुमिरन ते रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।
२५. आजीविका हेतु - बिस्व भरण पोसन करि सोई। ताकर नाम भरत अस होई।।
२६. मनोकामना पूर्ति हेतु - राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
२७. मुक्ति हेतु - पापी जाकर नाम सुमिरहीं। अति अपार भव सागर तरहीं।।
२८. अल्प मृत्यु नाश /सौंदर्य हेतु - अलप मृत्यु नहिं कवनिहुँ पीरा। सब सुंदर सब नीरज सरीरा।।
२९. दरिद्रता नाश हेतु - नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना।।
३०. प्रभु प्राप्ति हेतु - अतिशय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदय हरन भाव पीरा।।
३१. प्रभु साक्षात् हेतु - नयनबंत रघुपतिहिं बिलोकी। आए जनम फल होहिं बिसोकी।।
३२. क्षमा प्राप्ति हेतु - अनुचित बहुत कहहुँ अज्ञाता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।
३३. विश्राम/शांति हेतु - रामचरित मानस एहि नामा। कहत सुनत पाइअ बिसरामा।।
११-११-२०२२
•••
मुक्तिका
卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२.११.२०२१
***
नवगीत
*
सहनशीलता कमजोरी है
सीनाजोरी की जय
*
गुटबंदीकर
अपनी बात कहो
ताली पिटवाओ।
अन्य विचार
न सुनो; हूटकर
शालीनता भुलाओ।
वृद्धों का
अपमान करो फिर
छाती खूब फुलाओ।
श्रम की कद्र
न करो, श्रमिक के
हितकारी कहलाओ।
बातें करें किताबी पर
आचरण न किंचित है भय
*
नहीं गीत में
छंद जरूरी
मिथ्या भ्रम फैलाते।
नव कलमों को
गलत दिशा में
नाहक ही भटकाते।
खुद छंदों में
नव प्रयोग कर
आगे बढ़ते जाते।
कम साहित्य,
सियासत ज्यादा
करें; घूम मदमाते।
मौन न हारे,
शोर न जीते,
हो छंदों की ही जय
*
एक विधा को
दूजी का उच्छिष्ट
बताकर फूलो।
इसकी टोपी
उसके सर धर
सुख-सपनों में झूलो।
गीत न आश्रित
कविता-ग़ज़लों का
यह सच भी भूलो।
थाली के पानी में
बिम्ब दिखा कह
शशि को छू लो।
छद्म दर्द का,
गुटबंदी का,
बिस्तर बँधना है तय
१२-११-२०१९
***
छठ के दोहे,
*
छठ पूजन कर एक दिन, शेष दिवस नाबाद
दूध छठी का कराती, गृहस्वामी को याद
*
हरछठ पर 'हऱ' ने किए, नखरे कई हजार
'हिज़' बेचारा उठाता, नखरे बाजी हार
*
नाक-शीर्ष से सर तलक, भरी देख ले माँग
माँग न पूरी की अगर, बच न सकेगी टाँग
*
'मी टू' छठ का व्रत रही, तू न रहा क्यों बोल?
ढँकी न अब रह सकेगी, खोलेगी वह पोल
*
माँग नहीं जिसकी भरी, रही एक वर माँग
माँग भरे वह कर सके, जो पूरी हर माँग
*
१२.११.२०१८
अनपढ़ पढ़ता अनलिखा, समझ-बूझ चुपचाप
जीवन पुस्तक है बडी, अक्षर-अक्षर आप
१२.११.२०१७
*
मैं औ' मेरी डायरी, काया-छाया संग
कहने को हैं दो मगर, 'सलिल'एक है रंग
१२.११.२०१६
***
अलंकार सलिला: ३०
अपन्हुति अलंकार
*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत।।
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है। प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है।
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख।
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख।।
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत।।
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग।
यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है। अतः, अपन्हुति अलंकार है।
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला।
यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है।
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है।
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल।।
अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं, शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे।
ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे।।
यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
६.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं।
भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं? -सलिल
यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
बैठे कुछ मक्कार हैं। -सलिल
यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक।
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं।
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग।
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत।
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद।
१३. अरध रात वह आवै मौन
सुंदरता बरनै कहि कौन?
देखत ही मन होय अनंद
क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद।
अपन्हुति अलंकार के प्रकार:
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान।
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान।।
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं।।
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं।
बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं।।
विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये।
धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये।।
३. ये न न्यायाधीश हैं,
धृतराष्ट्र हैं ये।
न्याय ये देते नहीं हैं,
तोलते हैं।।
४. नहीं जनसेवक
महज सत्ता-पिपासु,
आज नेता बन
लूटते देश को हैं।
५. अब कहाँ कविता?
महज तुकबन्दियाँ हैं,
भावना बिन रचित
शाब्दिक-मंडियाँ हैं।
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग।
उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग।।
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार।
बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार।।
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै।
छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै।।
मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै।
ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै।।
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक
साध्य विद्या नहीं निज देयक।
३. पर्यस्तापन्हुति:
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है।
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है।।
३ . जहाँ दुःख-दर्द
जनता के सुने जाएँ
न वह संसद।
जहाँ स्वार्थों का
सौदा हो रहा
है देश की संसद।।
४. चमक न बाकी चन्द्र में
चमके चेहरा खूब।
५. डिग्रियाँ पाई,
न लेकिन ज्ञान पाया।
लगी जब ठोकर
तभी कुछ जान पाया।।
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है।
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि।
कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि।।
बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि।
सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि।।
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल।
फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल।।
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम।।
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान।
रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान।।
५. बिन बदरा बरसात?
न, सिर धो आयी गोरी।
टप-टप बूँदें टपकाती
फिरती है भोरी।।
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है।
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी।
करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की।।
देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी।
भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की।।
२. अर्धनिशा वह आयो भौन।
सुन्दरता वरनै कहि कौन?
निरखत ही मन भयो अनंद।
क्यों सखी साजन?
नहिं सखि चंद।।
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर।
देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर।।
४. चाहें सत्ता?,
नहीं-नहीं,
जनसेवा है लक्ष्य।
५. करें चिकित्सा डॉक्टर
बिना रोग पहचान।
धोखा करें मरीज से?
नहीं, करें अनुमान।
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है। कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है।।
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी।
नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी।।
यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी।
मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी।
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक।
३. नूतन पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के।
यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है।
४. निपट नीरव ही मिस ओस के
रजनि थी अश्रु गिरा रही
ओस नहीं, आँसू हैं।
५. जनसेवा के वास्ते
जनप्रतिनिधि वे बन गये,
हैं न प्रतिनिधि नेता हैं।
===
गजानन-लक्ष्मी पूजा:
.
*
शांति सौख्य सुख चैन दो
हे मेरे करतार
देश-देशवासी सकें
पा उत्तम सरकार।
*
दीपमालिका
का हर दीपक
नव समृद्धि
यश-कीर्ति
विपुल दे.
*
मन में आशा दीप जलें शत
घेरे नहीं निराशा.
सुख-दुःख दोनों सम सह पायें
अधिक न हो प्रत्याशा।
*
मथुरा के लड्डू गोपाल,
गंडक नदी के शालिग्राम,
श्रीनाथ द्वारा की चौकी,
भुज का कच्छप और तुलसी चौरा दीप,
पशुपतिनाथ के नगर की रुद्राक्ष माला,
माँ-पापा द्वारा परंपरा से संकलित सिक्के,
सासू जी द्वारा प्रदत्त कसौटी पत्थर का शिवलिंग सिंहासन,
जगन्नाथ पुरी समुद्र के दक्षिणावर्त शंख-अधबने मोतीयुक्त सीप,
मन-आंगन उजियारने की कामना करते दीप और नतमस्तक हम
भारत भाग्य विधाता सदय हों तो हो गयी दीपावली।
१२.११.२०१५
***
दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
*
जिस का रण वह ही लड़े, किस कारण रह मौन.
साथ न देते शेष क्यों?, बतलायेगा कौन??
*
ताज महल में सो रही, बिना ताज मुमताज.
शिव मंदिर को मकबरा, बना दिया बेकाज..
*
भोग लगा प्रभु को प्रथम, फिर करना सुख-भोग.
हरि को अर्पण किये बिन, बनता भोग कुरोग..
*
योग लगते सेठ जी, निन्यान्नबे का फेर.
योग न कर दुर्योग से, रहे चिकित्सक-टेर..
*
दस सर तो देखे मगर, नौ कर दिखे न दैव.
नौकर की ही चाह क्यों, मालिक करे सदैव?
*
करे कलेजा चाक री, अधम चाकरी सौत.
सजन न आये चौथ पर, अरमानों की मौत..
*
चढ़े हुए सर कार पर, हैं सरकार समान.
सफर करे सर कार क्यों?, बिन सरदार महान..
*
चाक घिस रहे जन्म से. कोइ न समझे पीर.
गुरु को टीचर कह रहे, मंत्री जी दे पीर..
*
रखा आँख पर चीर फिर, दिया कलेजा चीर.
पीर सिया की सलिल थी, राम रहे प्राचीर..
*
पी मत खा ले जाम तू, है यह नेक सलाह.
जाम मार्ग हो तो करे, वाहन इंजिन दाह..
*
कर वट की आराधना, ब्रम्हदेव का वास.
करवट ले सो चैन से, ले अधरों पर हास..
१२-११-२०११
***

सोमवार, 11 नवंबर 2024

नवंबर ११, हाइकु गीत, दोहा, रविशंकर, गीत, चंपा

सलिल सृजन नवंबर ११
*
११ नवंबर विश्व शिक्षा दिवस 
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : अभिनव कार्यशाला 'फुलबगिया' 
जासौन, मोगरा, गेंदा, सदा सुहागिन, कमल और चंपा के बाद महक बिखेरेगी 'चमेली' 
चमेली की कलियाँ चुनिए, महक से मस्त हो लिखि, टंकित कर औडियो सहित भेजें अभियान पटल पर डॉ. मुकुल तिवारी को रविवार तक। 
गीत
चंपा
रूप छटा चंपई मनोहर देख लुभाया
अपना ही मन रहा न अपना, हुआ पराया
पीताभित श्वेताभ वदन मन मुकुलित प्रमुदित
हास अधर पर ज्यों कलिका पर भँवरा नर्तित
शोभित रति सह काम, अकाम न काम सुहाया
कर पल्लव सम पर्ण हरित करतल ध्वनि गुंजित
क्षीण मृणाल मनो कटि मनहर लचके हर्षित
तापस पवन करे तप भंग, फिरे बौराया
जड़ न रही जड़, है जमीन को जकड़े चेतन
कली विकस हो कुसुम तजे तरु हो अनिकेतन
नव पीढ़ी का पथ प्रशस्त करना मन भाया
हरित पर्ण खुशहाली का संदेश सुनाएँ
सुमन सफेद-पीत मिल राग-विराग बसाएँ
तना तना कमजोर शाख पा रहे लजाया
चंपा षष्ठी-नदी-नगर का नाम हो अमर
मिथ्या भाषी शापित, शिव पूजन से वंचित
कार्तिकेय प्रिय चंपा प्रभु पर गया चढ़ाया 
११.११.२०२४
•••
दोहा
किरण सलिल जब जब मिले, स्वर्णिम आभा देख।
निशि में भी आलोक हो, पवन मुग्ध हो लेख।।
***
हाइकु गीत
*
ऊषा की माँग
माँग भरे सूरज
हो गई पूरी।
*
गगन सजा / पंछी बने बाराती / आ रहा मजा
फहर रही / भू से गगन तक / प्रणय ध्वजा
ऊषा शर्माई
चेहरे पर छाई
लालिमा नूरी।
*
गूँजते गीत / पत्ते बजाते वाद्य / मजा ही मजा
धरती सास / हँसती मुँह देख / प्रभु की रजा
देवर चंदा
करे जब मजाक
भौजी सिंदूरी।
*
देता आशीष / बाबुल आसमान / हो सुखी सदा
दूध नहाओ / हमेशा फूलो फलो / पुत्री शुभदा
दोनों कुलों का
रखना तुम मान
सीख है जरूरी।
११.११.२०२१
***
किताबों में से निकली किताब - साहित्य बगिया में महकता गुलाब
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - किताबों में से निकली किताब, समीक्षा संकलन, डॉ. रमेशचंद्र खरे, प्रथम संस्करण २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ १८०, मूल्य १७५/-, प्रकाशक इंद्र पब्लिशिंग हाउस भोपाल]
*
मानव समाज में नीतिशास्त्र या संविधान की तरह साहित्य में समीक्षा अथवा समलोचना का महत्वपूर्ण स्थान है। समालोचना द्वारा ही किसी कृति की श्रेष्ठता, सामान्यता या हीनता का चिंतन किया जाता है। समालोचक साहित्य के सिद्धांतों के निकष पर कसने के साथ स्वविवेक से कृति की श्रेष्ठता, उपादेयता आदि पर विचार व्यक्त करता है। समालोचना के सिद्धांत, मानक या नियम देश-काल-परिस्थति सापेक्ष होते हैं, नश्वर नहीं। समालोचक की विचारधारा, मान्यताएँ, रुचि-अरुचि तथा लोकमत का भी महत्व है। किसी कृति को एक समीक्षक श्रेष्ठ निरूपित करता है तो अन्य सामान्य या हीन, तथापि निष्पक्ष और विवेकी समीक्षक नीर-क्षीर विवेचन कर कृति का मूल्यांकन करते हैं। संस्कृत की 'लोच्' क्रिया का अर्थ देखना (नयनों से), समझना (मन से) और प्रकाशित करना है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ है चारों और से अथवा पूर्णतया। आलोचना का अर्थ है किसी वस्तु या कृति को सांगोपांग देख-समझकर उस पर / उसके संबंध में कुछ कहन या लिखना। 'सम' उपसर्ग के साथ संयुक्त होकर आलोचना, समालोचना हो जाती है जिसका अर्थ है संतुलित, निष्पक्ष या भली-भाँति मूल्यांकन करना। संस्कृत की टीका, व्याख्या या भाष्य, अंग्रेजी के क्रिटिसिज़्म, रिव्यू या ओपिनियन, अरबी के नज़रसानी, नुक्ताचीनी से समालोचना का आशय लिया जा सकता है। संस्कृत की एक उक्ति है 'कवि: करोति काव्यानां रसं जानाति पंडित:' अर्थात कवि कृति की रचना करता है जबकि विद्वान् उसका रस लेता है। बाबू श्यामसुंदर दास के अनुसार 'अच्छा कवि जीवन की व्याख्या करता है तो अच्छा समालोचक उस व्याख्या को समझने में सहायक होता है।'
डॉ. रमेशचंद्र खरे राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक, सहृदय कवि, प्रखर व्यंग्यकार, कुशल कहानीकार, सक्षम समीक्षक तथा समझदार पाठक हैं। इस नाते किसी कृति पर उनके विचार, उनका चिंतन, उनका अभिमत समीक्षा के रूप में उपलब्ध होना रचनाकार, पाठकों, शोधार्थियों व विद्वानों सबके लिए बहुत उपयोगी है। विवेच्य कृति 'किताबों में से निकली किताब लघु समीक्षा कोष है जिसमें डॉ. खरे द्वारा समकालिक कृतियों पर लिखित ४२ महत्वपूर्ण समीक्षाएँ संकलित हैं। ये पुस्तकें विविध विधाओं (८ उपन्यास, ५ गीत-नवगीत संग्रह, ४ निबंध संग्रह ,३ खंडकाव्य, ३ काव्य संकलन, ३ व्यंग्य लेख संग्रह ,२ उपन्यासिकाएँ, २ प्रबंध काव्य, २ कहानी संग्रह, २ मुक्तक संग्रह, २ ग़ज़ल संग्रह, १ महाकाव्य, १ शोधकृति, १ दैनन्दिनी, १ पत्र संकलन, १ व्यंग्य काव्य, १ संस्मरण संग्रह, १ यात्रा संस्मरण, १ समालोचना कृति, १ भाषा शास्त्र) पर महत्वपूर्ण रचनाकारों (अम्बिका प्रसाद दिव्य, हरिभाऊ उपाध्याय, इंद्रबहादुर खरे, नरेश मेहता, प्रभाकर श्रोत्रिय, लीलाधर मंडलोई, कुँअर नारायण, डॉ. श्यामसुंदर दुबे, चंद्रसेन विराट, गंगाप्रसाद बरसैंया, मयंक श्रीवास्तव, संतोष खरे, डॉ. रामनारायण शर्मा, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, डॉ. शिवकुमार तिवारी, ओमप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. देवप्रकाश खन्ना, डॉ. रामबल्लभ आचार्य, जंगबहादुर श्रीवास्तव, पूनम ए. चावला, दिलजीतसिंह रील, निर्मला जोशी, रमेश बख्शी, सत्यमोहन वर्मा, डॉ. रघुनंदन चिले, डॉ. नाथूराम राठौर, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', शंकर शरण बत्रा, विनोद श्रीवास्तव, डॉ. अनिता, अभभरती, डॉ. गिरीश कुमार श्रीवास्तव तथा विनोद गुप्ता) द्वारा लिखी गयी और चर्चित हुई हैं।
विधा-वैविध्य से डॉ. रमेशचंद्र खरे के विस्तृत अध्ययन आकाश का आभास होता है। किसी पुस्तक की समीक्षा करना अपने आपमें जटिल काम है। विविध विधाओं की पुस्तकों की समीक्षा करना अर्थात उन सब विधाओं के मानकों, उनमें हुए महत्वपूर्ण सृजन से परिचित होना और मनोयोगपूर्वक हर कृति के गुण-दोष परख कर इस तरह प्रस्तुत करना कि कृति, कृतिकार और पाठक सबके साथ न्याय होते हुए कुछ नया और सार्थक कथ्य संप्रेषित हो सके। एक ही विधा की कई कृतियों की समीक्षाओं संकलित करते समय दुहराव और ऊब न हो, विविध कालखंडों की रचनाओं में प्रामाणिकता और ऐतिहासिकता का आकलन करना, भिन्न-भिन्न विचारधाराओं से प्रेरित कृतियों की सटीक विवेचना कर निष्पक्षता बनाये रख पाना और वह भी कम से कम शब्दों में, यह कार्य रज्जु पर खेल दिखाते नट के संतुलन-कौशल से भी बहुत अधिक दुष्कर है।
सामान्यत: पुस्तक का समीक्षा लेखन सैद्धांतिक समीक्षा का अंश मात्र है। समीक्षक के समक्ष अनेक प्रतिबंध होते हैं। यथा कृति की अंतर्वस्तु का आभास सामान्य पाठक को हो सके ताकि वह पढ़ने के लिए प्रेरित हो, विद्वानों के लिए नीर-क्षीर विवेचन हो, रचनाकार हतोत्साहित न हो तथा पत्रिकाओं में उपलब्ध सीमित स्थान के अनुरूप समीक्षा भी 'गागर में सागर' की तरह संक्षिप्त हो। डॉ. खरे स्वयं श्रेष्ठ-ज्येष्ठ और बहुविधायी लेखन के धनी रचनाकार हैं, इसलिए वे इस कठिनतम कार्य को सहजता और प्रमाणिकता के साथ निष्पादित कर सके हैं। कृति की भूमिका में वरिष्ठ भाषाशास्त्री, शिक्षाविद, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, नाटककार और कवि डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने ठीक ही लिख है "समीक्षक की यात्रा दो चरणों में संपन्न होती है- अध्ययन और लेखन। अध्ययन से रचना (समीक्षा) में परिपक्वता आती है और तुलनात्मक समीक्षा के नए आयाम खुलते हैं। रमेश खरे जी की बहुज्ञता का एक कारण उनका विपुल अध्ययन है। उन्होंने गद्य-पद्य की समस्त विधाओं के महत्वपूर्ण ग्रंथों को गंभीरता से पढ़ा है। यह पठन उनके समस्त लेखन में झलकता है और उनकी रचनाओं की विश्वसनीयता में वृद्धि करता है। खरे जी ने अपने समीक्षा कर्म में नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग किया है।'' मैं इस आकलन से पूरी तरह सहमत हूँ।
विवेच्य कृति हिंदी वांग्मय को समृद्ध करने के साथ वन रचनाकारों का पथप्रदर्शन करने में भी समर्थ है। इसे पढ़कर रचनाकार समझ सकता है की उसे अपने विषय और विधा के साथ न्याय किस तरह करना है? उसकी कृति का मूल्यांकन किन आधारों पर किया जाएगा। नव समीक्षकों के लिए यह कृति पाठ्य पुस्तक की तरह है। विविध विधाओं की कृतियों में किन पहलूओं को कितना महत्व दिया जाना चाहिए,किन मानकों के आधार पर उन्हें परखा जाना चाहिए आदि जानकारी सप्रयोग उपलब्ध है। इस दृष्टि से इस कृति का वही महत्त्व है जो विज्ञान में प्रयोग कार्य के मैनुअल का होता है।
हिंदी भाषा और साहित्य को गंभीर क्षति डॉ. रमेशचंद्र खरे के असामयिक निधन से हुई है। महाप्रस्थान कुछ दिन पूर्व ही उनसे मुझे यह कृति प्राप्त हुई थी। काश, यह समीक्षा वे पढ़ पाते। विधि का विधान डॉ. खरे के कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन उनके जीवन काल में नहीं हो सका, अब होना चाहिए। उनके अप्रकाशित कार्य को प्रकाशित करने की दिशा में भी पहल की जानी चाहिए। स्व. विष्णुस्वरूप खरे और स्व. श्यामा बाई खरे के पुत्र रमेश जी क जन्म १९ जुलाई १९३७ को होशंगाबाद में हुआ था। उन्होंने साहित्य रत्न, एम. ए., (इतिहास, हिंदी) तथा पीएच। डी. की उपाधियाँ अर्जित कीं। 'अंबिका प्रसाद 'दिव्य' : व्यक्तित्व और कृतित्व' उनका महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ अब तक अप्रकाशित है। डॉ. खरे रचित प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ है- पद्य : गोस्वामी तुलसीदास पर रचित महाकाव्य 'विरागी अनुरागी' (३ संस्करण,अभियान जबलपुर द्वारा भाषा भूषण १९९८, बालकृष्ण शर्मा पुरस्कार), गीत संग्रह 'संवेदनाओं के सोपान' (चंद्रप्रकाश वर्मा पुरस्कार), व्यंग्यायन खंड काव्य (म.प्र. लेखिका संघ पुरस्कार), गीता योगायन खंड काव्य (अक्षर आदित्य सम्मान), संभावनाओं के आयाम, बहरा युग, बाल साहित्य : आओ गाएँ शाला पढ़ते-पढ़ते, आओ सीखें मैदानों में गाते-गाते, आओ खेलें रंगमंच पर मंथन करते, आओ बाँटें यादें बचपन की हँसते-हँसते, प्रकृति से पहचान, कहानियाँ बुद्धि और विवेक की (दिव्य पुरस्कार, बाल पुरस्कार), व्यंग्य : अधबीच में लटके, शेष कुशल है, मेरे भरोसे मत रहना शरद जोशी व्यंग्य पुरस्कार, सूत्रों के हवाले से, निबंध : भावानुभूति, भावानुकृति, कृतित्व से झाँकते व्यक्तित्व आदि।
'किताबों में से निकली किताब' डॉ. राम्रश्चंद्र खरे की साहित्यिक पैठ, बहुविधायी सामर्थ्य, समीक्षकीय नैपुण्यता तथा तटस्थ चिंतन की साक्षी है। डॉ. खरे लिखित समीक्षाओं का वैशिष्ट्य कृति की विधा व अंतर्वस्तु के अनुरूप परख करना तथा सरसता है। उनकी विपुल अध्ययनशीलता गुण-दोष निर्धारण में सहायक है। आदर्श शिक्षक होने के नाते वे संप्रेषणीयता कला पर अधिकार रखते हैं। उनके गयी समीक्षाएँ पाठकों को बाँधती हैं। वे न तो विधा के मानकों को पुलिस के डंडे की तरह प्रयोग करते हैं, न नेताओं द्वारा विधान को ठेंगे पर मारने की तरह मानकों की अनदेखी करते हैं। घर के तटस्थ मुखिया की तरह वे सहृदयता पूर्वक गुण-दोषों के मध्य तटस्थ रहकर समीक्षा कर्म से रचनाकारों और कृतियों को अभिसिंचित करते हैं। डॉ.खरे की प्रथम समालोचना कृति 'किताबों में से निकली किताबें उन्हें कुशल समीक्षकों की पंक्ति में प्रतिष्ठित करती है।
११.११.२०२०
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दोहा सलिला
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श्री श्री की श्री-सरलता, मीठी वाणी खूब
उतना ही ज्यादा मिले, जितना जाओ डूब
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अरुण! गीतमय हो रहा, रजनी भाव विभोर
उषा लाल-पीली हुई, पवन कर रहा शोर
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शिशु शशि शीश शशीश चुप, शशिवदनी-शशिनाथ
कुंडलि कुंडलिनाथ की, निरखें गहकर हाथ
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दिन कर दिनकर ने कहा, उठो! करो कुछ काम
काम करो निष्काम तब, नाम न रख हो नाम
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सरसों के पीले किये, जब से भू ने हाथ
एक साथ हँस-रो रही, उठा-झुका कर माथ
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जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
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तन कुंडा में कुंडली, आत्म चेतना जान
छंद कुंडली रच 'सलिल', मन होगा रसखान
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भू, जल, अग्नि, पवन,गगन, पञ्च चक्र के तत्व
रख विवेक जाग्रत सलिल', तभी प्राप्त हो सत्व
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खुद में खुद ही डूब जा, खुद रह खुद से दूर
खुद ही खुद मिल जायेगा, तुझको खुद का नूर
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खुदा खुदी खुद में रहे, खुद न खुदा से भिन्न
जुदा खुदा से कब हुआ, कोई सलिल'अभिन्न
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कौन जगत में सगा है?, बोल कौन है गैर?
दोनों हाथ पसारकर, माँग सभी की खैर
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मत प्रयास करना अधिक, और न देना छोड़
थोड़ी-थोड़ी कोशिशें, लोहा भी दें मोड़
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जोड़-तोड़ से क्या मिला?, खोया मन का चैन
होड़ न करना किसी से, छोड़ स्वार्थ पा चैन
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अधिक खींचने से 'सलिल', टूटे मन की डोर
अधिक ढील से उलझकर, गुम चैन के छोर
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सु-मन ग्रहण कविता करे, मिले सुमन सी गंध
दूर दृष्ट भी हो निकट, हट जाए मन-बंध
११.११.२०१६
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गीत:
कौन हो तुम?
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कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
*
समय के अश्वों की वल्गा
निरंतर थामे हुए हो.
किसी को अपना किया
ना किसी के नामे हुए हो.
अनवरत दौड़ा रहे रथ
दिशा, गति, मंजिल कहाँ है?
डूबते ना तैरते, मझधार या
साहिल कहाँ है?
क्यों कभी रुकते नहीं हो?
क्यों कभी झुकते नहीं हो?
क्यों कभी चुकते नहीं हो?
क्यों कभी थकते नहीं हो?
लुभाते मुझको बहुत हो
जहाँ भी हो जौन हो तुम.
कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
*
पूछता है प्रश्न नाहक,
उत्तरों का जगत चाहक.
कौन है वाहन सुखों का?
कौन दुःख का कहाँ वाहक?
करो कलकल पर न किलकिल.
ढलो पल-पल विहँस तिल-तिल.
साँझ को झुरमुट से झिलमिल.
झाँक आँकों नेह हिलमिल.
क्यों कभी जलते नहीं हो?
क्यों कभी ढलते नहीं हो?
क्यों कभी खिलते नहीं हो?
क्यों कभी फलते नहीं हो?
छकाते हो बहुत मुझको
लुभाते भी तौन हो तुम.
कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
११.११.२०१०
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