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शनिवार, 28 सितंबर 2024

सितंबर २८, नवगीत, पुरखे, चित्र अलंकार, दोहा,

सलिल सृजन सितंबर २८
*
नवगीत
तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।

*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त रख, विधि बन
सृष्टि रची अंशों से।
नाद-ताल-ध्वनि, सुर-सरगम
व्यापे वंशों में।
अणु-परमाणु-विषाणु
विष्णु हो धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल-नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
बन श्रद्धा-विश्वास
व्याप्त हो हर कंकर में।
जननी-जनक देखते हम
गौरी-शंकर में।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
सतत प्रणाम।
*
भूत-अभूत तुम्हीं ने
नाते, बना निभाए।
पैर जमीं पर जमा
धरा को थे छू पाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज हो खरा।
लड़े, मर-मिटे
असुर और सुर।
मिलकर जिए
किंतु वानर-नर।
सेतुबंध कर मिटा दूरियाँ
काम करे रहकर निष्काम।
मेरे पुरखों!
विनत प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत,
हाय! न हमने।
चूक करी
रौंदा प्रकृति को।
अपनाया मोहक विकृति को।
आम न रहकर
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
अपने हाथों आप बो रहे।
खाली हाथों जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
मेरे पुरखों!
अगिन प्रणाम।।
***
चिंतन
दुर्गा पूजा
*
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है। माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया। इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए। मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी अादि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे महामीरी में रोजगार गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से उत्पादन का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
दुर्गा सप्तशती में महामारी को भी भगवती कहा गया है। रक्तबीज की तरह कोरोना भी अपने अंश से ही बढ़ता है। रक्तबीज तभी मारा जा सका जब रक्त बिंदु का संपर्क समाप्त हो गया। रक्त बिंदु और भूमि (सतह) के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़ा था मैया ने। आज बेटों की बारी है। कोरोना वायरस और हवा, मानवांग या स्थान के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़कर कोरोना को मार दें। यह न कर कोरोना के प्रसार में सहायक जन देशद्रोही ही नहीं मानव द्रोही भी हैं। उनके साथ कानून वही करे जो माँ ने शुंभ-निशुंभ के साथ किया। कोरोना को मानव बम बनाने की सोच को जड़-मूल से ही मिटाना होगा।
२-४-२०२०
***
: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार
काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.
कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं.
चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं.
शोध लेख:
चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य
हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो.
चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं. इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ.
चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना, २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से परखा जा सकता है.
१. भाव व्यंजना:
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है.
२. वास्तु - विचार निरूपण:
निराकार तथा जटिल-विशाल आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं. विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं.
३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:
चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है.
मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं.
४. नव प्रयोग:
जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों ने चित्र काव्य को नये आयाम कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर, चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम) का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय दृश्येन्द्रित का प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है.
चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है. अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है. चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है.
इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं. श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों रचा, समझ, सराहा जाए.
यहाँ हमारा उद्देश्य काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है. कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं:
उदाहरण:
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र १.
मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम
ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम
देखें संलग्न चित्र १.
२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र २.
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है.
की नी रा न न रा नी की.
सो है स दा दास है सो.
मो हैं को न न को हैं मो.
ती खे न चै चै न खे ती.
३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र ३.
भोर हुई सूरज किरण, झाँक थपकति द्वार
पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
चलो हम ध्वज फहरा दें.
संग जय हिन्द गुँजा दें.
*
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
४. चित्र: देखें संलग्न चित्र ४.
हिंदी जन-मन में बसी, जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर
हिंदी
जन-मन में बसी
जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
ज कै
ग सा
वा अ
णी ॐ द
प भु
र त
छा नू
रहा र।
अंग्रेजी - प्रेमी कुढ़ें , देख रहे हैं घूर
हिंदी जग - भाषा बने , विधि को है मंजूर
हिंदी - प्रेमी हो रहे , 'सलिल' हर्ष से चूर
५. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है.
देखें संलग्न चित्र ५.
मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
मुखरित अभिनन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और
शिवना की जलधाराओं से
प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा-
आदि नगरियों के जन-जन से
प्रतिपल अभिवन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
***
नवगीत:
संजीव
*
समय-समय की बलिहारी है
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
***
मुक्तक:
हर रजनी हो शरद पूर्णिमा, चंदा दे उजियाला
मिले सफलता-सुयश असीमित, जीवन बने शिवाला
देश-धर्म-मानव के आयें काम सार्थक साँसें-
चित्र गुप्त उज्जवल अंतर्मन का हो दिव्य निराला
२८-९-२०१५
***
दोहा सलिला:
पितृ-स्मरण
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितरों के आशीष से, बनें शूल भी फूल
*
जड़ होकर भी जड़ नहीं, चेतन पितर तमाम
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
गत-आगत को जोड़ता, पितर पक्ष रह मौन
ज्यों भोजन की थाल में, रहे- न दिखता नौन
*
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़े, वंश वृक्ष अभिराम
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़े, पाने लक्ष्य ललाम
*
कल के आगे विनत हो, आज 'सलिल' हो धन्य
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
जन्म अन्न जल ऋण लिया, चुका न सकते दाम
नमन न मन से पितर को, किया- विधाता वाम
*
हमें लाये जो उन्हीं का, हम करते हैं दाह
आह न भर परवाह कर, तारें तब हो वाह
२८-९-२०१३
*

 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

सितंबर २७, सरस्वती, रामकृष्ण, विवेकानंद, शिवतांडव, बुंदेली मुक्तिका, वक्रोक्ति, चरण स्पर्श

सलिल सृजन सितंबर २७
*
मुक्तिका
राम लला से राम राम कह
सिया लली के संग सुखी रह
दशरथ मन दस इंद्रिय घोड़े
कैकेई बन अनुचित मत सह
गुरु गंभीर वशिष्ठ तपस्वी
कौशल्या सरयू कलकल बह
मौन सुमित्रा से सुमंत्र ले
भरत त्याग-चादर पल-पल तह
बन शत्रुघ्न अकाम काम कर
लंका दहा न निष्क्रिय हो दह
कर निशांत नित नई उर्मि ला
हो मांडवी सदा धीरज गह
जन मन में श्रुति कीरति अंकित 
नेह नरमदा नहा हर सुबह
जवा कुसुम ले शक्ति-भक्ति कर
विपद् ग्रस्त होकर तू मत ढह
सिया प्रथम फिर राम नाम ले
सुमन-सुरभि जैसे कर मह मह
२७.९.२०२४
•••
सरस्वती कवच
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार विश्वविजय सरस्वती कवच का नित्य पाठ करने से साधक में अद्भुत शक्तियों का संचार होता है तथा जीवन के हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। देवी सरस्वती के इस विश्वविजय सरस्वती कवच को धारण करके ही महर्षि वेदव्यास, ऋष्यश्रृंग, भरद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पाई थी। यह विश्वविजय सरस्वती कवच इस प्रकार है
*
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वत:।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।।
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्र पातु निरन्तरम्।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु।।
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोवतु।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु।।
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपंक्ती: सदावतु।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु।।
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदावतु।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।।
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम पृष्ठं सदावतु।।
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु।
ॐ रागधिष्ठातृदेव्यै सर्वांगं मे सदावतु।।
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु।।
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु।।
ॐ सदाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ॐ गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेवतु।।
ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोध्र्वं सदावतु।।
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु।
ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोवतु।।
(ब्र. वै. पु. प्रकृतिखंड ४/७३-८५
२७-९-२०१९
***
नवगीत
सिया हरण को देख रहे हैं
आँखें फाड़ लोग अनगिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
'गिरि गोपाद्रि' न नाम रहा क्यों?
'सुलेमान टापू' क्यों है?
'हरि पर्वत' का 'कोह महाजन'
नाम किया किसने क्यों है?
नाम 'अनंतनाग' को क्यों हम
अब 'इस्लामाबाद' कहें?
घर में घुस परदेसी मारें
हम ज़िल्लत सह आप दहें?
बजा रहे हैं बीन सपेरे
राजनीति नाचे तिक-धिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
हम सबका 'श्रीनगर' दुलारा
क्यों हो शहरे-ख़ास कहो?
'मुख्य चौक' को 'चौक मदीना'
कहने से सब दूर रहो
नाम 'उमा नगरी' है जिसका
क्यों हो 'शेखपुरा' वह अब?
'नदी किशन गंगा' को 'दरिया-
नीलम' कह मत करो जिबह
प्यार न जिनको है भारत से
पकड़ो-मारो अब गिन-गिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
पण्डित वापिस जाएँ-बसाएँ
स्वर्ग बनें फिर से कश्मीर
दहशतगर्द नहीं बच पाएँ
कायम कर दो नई नज़ीर
सेना को आज़ादी दे दो
आज नया इतिहास बने
बंगला देश जाए दोहराया
रावलपिंडी समर ठने
हँस बलूच-पख्तून संग
सिंधी आज़ाद रहें हर दिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
२७-९-२०१७
***
रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच हुए एक अद्भुत संवाद के अंश...
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स्वामी विवेकानंद : मैं समय नहीं निकाल पाता। जीवन आपाधापी से भर गया है।
रामकृष्ण परमहंस : गतिविधियां तुम्हें घेरे रखती हैं, लेकिन उत्पादकता आजाद करती है।
स्वामी विवेकानंद : आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?
रामकृष्ण परमहंस : जीवन का विश्लेषण करना बंद कर दो। यह इसे जटिल बना देता है। जीवन को सिर्फ जियो।
स्वामी विवेकानंद : फिर हम हमेशा दु:खी क्यों रहते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : परेशान होना तुम्हारी आदत बन गई है, इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते।
स्वामी विवेकानंद : अच्छे लोग हमेशा दुःख क्यों पाते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है। सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है। अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं। इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता।
स्वामी विवेकानंद : आपका मतलब है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?
रामकृष्ण परमहंस : हां, हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है। पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है।
स्वामी विवेकानंद : समस्याओं से घिरे रहने के कारण हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं?
रामकृष्ण परमहंस : अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो। अपने भीतर झांको। आखें दृष्टि देती हैं। हृदय राह दिखाता है।
स्वामी विवेकानंद : क्या असफलता सही राह पर चलने से ज्यादा कष्टकारी है?
रामकृष्ण परमहंस : सफलता वह पैमाना है, जो दूसरे लोग तय करते हैं। संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो।
स्वामी विवेकानंद : कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाए रख सकता है?
रामकृष्ण परमहंस : हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है। जो कुछ पाया है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका उसे नहीं।
स्वामी विवेकानंद : लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?
रामकृष्ण परमहंस : जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, 'मैं ही क्यों?' जब वे खुशियों में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, 'मैं ही क्यों?'
स्वामी विवेकानंद : मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूं?
रामकृष्ण परमहंस : बिना किसी अफसोस के अपने अतीत का सामना करो। पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो। निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो।
स्वामी विवेकानंद : एक आखिरी सवाल। कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं?
रामकृष्ण परमहंस : कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती। अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो। जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है। यह कोई समस्या नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है। मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है।
***
कार्यशाला
सवाल-जवाब
*
सच कहूँ तो चोट उन को लगती है
झूठ कहने से जुबान मेरी जलती है - राज आराधना
*
न कहो सच, न झूठ मौन रहो
सुख की चाहत जुबान सिलती है -संजीव
***
शिवतांडवस्तोत्र
:: शिव स्तुति माहात्म्य ::
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धारें, कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधना सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विकराल सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम || २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २..
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पर लहरा रही हैं, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं विभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रमकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक: श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दहकाएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में रेवा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब नर्मदा जी के कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय: || १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनो विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखें हरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर. करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
***
दोहा-
*
पुरुष कभी स्वामी लगा, कभी चरण का दास
कभी किया परिहास तो, कभी दिया संत्रास
*
चित्र गुप्त जिसका, बनी मूरत कैसे बोल?
यदि जयंती तो मरण दिन, बतला मत कर झोल
***
मुक्तिका बुंदेली में
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।।
*
सूपनखा सें चाल-चलन कर
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*
कीचड़ रहो उछाल हंस पर
मैला-बैठो दुष्ट काक है।।
*
अँधरा दहशतगर्द पाल खें
आँखन पे मल रओ आक है।।
*
कल अँधियारो पक्का जानो
बदी भाग में सिर्फ ख़ाक है।।
*
पख्तूनों खों कुचल-मार खें
दिल बलूच का करे चाक है।।
***
विमर्श - चरण स्पर्श क्यों?
*
चरण स्पर्श के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है। के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है।
२७-९-२०१६
***
हमारी ही भूल आज हुई है पथ का शूल
चन्दन को फेंक दिया दूर, माथे मलते कीचड़-धूल
*
: अलंकार चर्चा १२ :
अर्थ द्वैत वक्रोक्ति है
किसी एक के कथन को, दूजा समझे भिन्न
वक्र उक्ति भिन्नार्थ में, कल्पित लगे अभिन्न
स्वराघात मूलक अलंकारों में वक्रोक्ति का स्थान महत्वपूर्ण है. किसी काव्य अंश में किसी व्यक्ति द्वारा कही गयी बात में कोई दूसरा व्यक्ति जब मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना करता है तब वक्रोक्ति अलंकार होता है. वक्र उक्ति का अर्थ 'मूल से भिन्न' होता है. एक अर्थ में कही गयी बात को जान-बूझकर दूसरे अर्थ में लेने पर वक्रोक्ति अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२.
मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा होती है. इस आधार पर वक्रोक्ति अलंकार के २ प्रकार श्लेष वक्रोक्ति तथा काकु वक्रोक्ति हैं.
श्लेष वक्रोक्ति:
श्रोता अर्थ विशेष पर, देता है जब जोर
वक्ता ले अन्यार्थ को, ग्रहण करे गह डोर
एक शब्द से अर्थ दो, चिपक न छोड़ें हाथ
वहीं श्लेष वक्रोक्ति हो, दो अर्थों के साथ
रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ
वक्ता-श्रोता हँस करें, भिन्न शब्द के अर्थ
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष वक्रोक्ति
श्रोता-वक्ता सजग हों, मत समझें अन्योक्ति
जिस काव्यांश में एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग कर वक्ता का अर्थ एक अर्थ विशेष पर होता है किन्तु श्रोता या पाठक का किसी दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग होने पर वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है.
उदाहरण:
१. हैं री लाल तेरे?, सखी! ऐसी निधि पाई कहाँ?
हैं री खगयान? कह्यौं हौं तो नहीं पाले हैं?
हैं री गिरिधारी? व्है हैं रामदल माँहिं कहुँ?
हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
हैं री सखी कृष्णचंद्र? चंद्र कहूँ कृष्ण होत?
तब हँसि राधे कही मोर पच्छवारे हैं?
श्याम को दुराय चन्द्रावलि बहराय बोली
मोरे कैसे आइहैं जो तेरे पच्छवारे हैं?
२. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस है न कछू हरि हैं तो हरैवे
वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे
दीबे को ल्याये हैं माल तुम्हें, रगुनाथ ले आये हैं माल लरैबे
छोड़िए मान वे पा पकरैं, कहैं, पाप करैं कहैं अबस करैबे
इस उदाहरण में 'हरि' के दो अर्थ 'कृष्ण' और 'हारेंगे', विनती के दो अर्थ 'प्रार्थना' और 'बिना स्त्री के', 'माल' के दो अर्थ 'माला' तथा 'सामान' तथा 'पाप करै' के दो अर्थ 'पैर पकड़ें' तथा 'कुकर्म करें हैं.
३. कैकेयी सी कोप भवन में, जाने कब से पड़ी हुई है
दशरथ आये नहीं मनाने, फाँस ह्रदय में गड़ी हुई है -चंद्रसेन विराट, ओ गीत के गरुड़, ३२
यहाँ कैकेयी के दो अर्थ 'रानी' तथा 'जनता' और दशरथ के दो अर्थ 'राजा' तथा 'शासक' हैं.
काकु वक्रोक्ति:
जब विशेष ध्वनि कंठ की, ध्वनित करे अन्यार्थ
तभी काकु वक्रोक्ति हो, लिखते समझ समर्थ
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य
व्यक्त कंठ की खास ध्वनि, करती- समझें धन्य
किसी काव्य पंक्ति में कंठ से उच्चरित विशेष ध्वनि के कारण शब्द का मूल से भिन्न दूसरा अर्थ ध्वनित हो तो वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. भरत भूप सियराम लषन बन, सुनि सानंद सहौंगौ
पर-परिजन अवलोकि मातु, सब सुख संतोष लहौंगौ
इस उदाहरण में भरतभूप, सानंद तथा संतोष शब्दों का उच्चारण काकु युक्त होने से विपरीत अर्थ ध्वनित होता है.
२. बातन लगाइ सखान सों न्यारो कै, आजु गह्यौ बृषभान किशोरी
केसरि सों तन मंजन कै दियो अंजन आँखिन में बरजोरी
हे रघुनाथ कहा कहौं कौतुक, प्यारे गोपालै बनाइ कै गोरी
छोड़ि दियो इतनो कहि कै, बहुरो फिरि आइयो खेलेन होरी
यहाँ 'बहुरो फिरि आइयो' में काकु ध्वनि होने से व्यंग्यार्थ है कि 'अब कभी नहीं आओगे'.
३. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं?, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं
दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में 'मंज़र', 'गाते', ''चिल्लाने', 'तालाब', 'पानी', 'फूल', तथा 'कुम्हलाने' शब्दों में काकु ध्वनि से उत्पन्न व्यंग्यार्थ ने आपातकाल में सेंसरशिप के बावजूद कवि का शासन परिवर्तन का सन्देश लोगों को दिया.
२७-९-२०१५
***
रचना पर रचना रचें
*
संध्या सिंह:
पूरब से जीवन उगा ,प्राण-वायु चहुँ ओर
बूँद- बूँद अमृत गिरा , सुधा-कलश है भोर
*
संजीव
दोहा:
सतरंगी संध्या सरस, सुधियों संग समेट
सिंह सूर्य तम का करे, 'सलिल'अथक आखेट
*
सोरठा:
अधर धरे मुस्कान, शांत सौम्य सुन्दर छटा
किंचित सके बखान, सीमा कौन असीम की
*
हाइकु:
सूर्य किरण
गगन से धरा का
करे वरण
*
सूरज झाँके
भू की चुनरिया में
किरणें टाँके
*
जनक छन्द:
फूल फूलते झूलते
रवि किरणों को चूमते
नहीं गर्व से फूलते
*
***
विघ्नेश्वर गणेश जी की विदाई-बेला:
प्रस्तुत आरती में जोड़ी गयी अंतिम दो पंक्तियाँ मूल पंक्तियों की तरह निर्दोष नहीं है. इस परंपरागत आरती में हम अपने मनोभाव पिरोएँ इस तरह कि छंद, भाव, बिम्ब निर्दोष रहे.
*
अग्रजवत श्री चंद्रसेन विराट ने प्रचलित आरती में एक पद जोड़ा है. उन्हें हार्दिक बधाई।
प्रथम पूज्य ज्योतिर्मय, बुद्धि-बल विधाता
मंगलमय पूर्णकाम ऋद्धि-सिद्धि दाता
कदली फल मोदक का प्रिय उन्हें कलेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
मेरी समिधा:
जड़-जमीन में जमाये दूबा मन भाये
विपदा को जीतें प्रभु! पूजें-हर्षायें
स्नेह 'सलिल' साँसें हों, जीवन हो रेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
***
कविता:
शेर के बाड़े में
कूदा आदमी
शेर था खुश
कोई तो है जो
न घूरे दूर से
मुझसे मिलेगा
भाई बनकर.
निकट जा देखा
बँधी घिघ्घी
थी उसकी
हाथ जोड़े
गिड़गिड़ाता:
'छोड़ दो'
दया आयी
फेरकर मुख
चल पड़ा
नरसिंह नहीं
नरमेमने
जा छोड़ता हूँ
तब ही लगा
पत्थर अचानक
हुआ हमला
क्यों सहूँ मैं?
आत्मरक्षा
है सदा
अधिकार मेरा
सोच मारा
एक थप्पड़
उठा गर्दन
तोड़ डाली
दोष केवल
मनुज का है
२७-९-२०१४
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