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सोमवार, 23 सितंबर 2024

सितंबर २३, मुक्तक, मंदिर-मस्जिद, नवगीत, दोहा, पितर

सलिल सृजन सितंबर २३
*
'सलिल' करे अभिषेक पितर का, शब्द अंजलि करे समर्पित 
भाव पुष्प ले करतल में निज, गीत-गजल सब सादर अर्पित
करे नीलिमा रंजन नभ से, सरला वसुधा निशि को दिन कर
सुमिरेँ पल पल हर पुरखे को, पूर्वज निशिकर हों या दिनकर
अरुणा प्राची पर प्रमुदित हो, कर संतोष गहे यश अक्षय
निर्भय होकर सत्य कह सकें, संगीता हो श्वास न कर भय
मुकुल मना हो श्राद्ध कर सकें, श्रद्धा सहित जोड़ कर नत शिर 
भावी पीढ़ी को दे पाएँ वह जो सब जग को हो हितकर 
२३.९.२०२४ 
***
विमर्श 
- शब्दों का गलत प्रयोग मत कीजिए।
क्यों पूछते हो राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां, रास्ते जाते नहीं हैं।।
- हम रेल में नहीं रेलगाड़ी(ट्रेन) में बैठते हैं।
रेल = पटरी
- जबलपुर आ गया कहना ग़लत है।
जबलपुर (स्थान) कहीं आता-जाता नहीं, हम आते-जाते हैं।
- पदनाम उभय लिंगी होता है। प्रधान मंत्री स्त्री हो या पुरुष प्रधान मंत्री ही कहा जाता है, प्रधान मंत्रिणी नहीं होता। सभापति महिला हो तो सभा पत्नी नहीं कही जा सकती। राष्ट्रपति भी नहीं बदलता। इसलिए शिक्षक, चिकित्सक आदि भी नहीं बदलेंगे, शिक्षिका, चिकित्सका, अधीक्षिका आदि प्रयोग गलत हैं।
-भाषा का भी विज्ञान होता है। साहित्य लिखते समय भाषा शास्त्र और भाषा विज्ञान का ध्यान रखना जरूरी है।
२३.९.२०२४ 
***
पुरुखों!
तुम्हें तिलोदक अर्पित
*
मन-प्राणों से लाड़-प्यार दे
तुमने पाला-पोसा
हमें न भाये मूल्य, विरासत
पिछड़ापन कह कोसा
पश्चिम का परित्यक्त ग्रहणकर
प्रगतिशील खुद को कह
दिशाहीनता के नाले को
गंगा कह जाते बह
सेवा भूल, चाहते मेवा
स्वार्थ
साधकर हों गर्वित
*
काया-माया साथ न देगी
छाया छोड़े हाथ
सोच न पाए, पीट रहे अब
पछता अपना माथ
थोथा चना, घना बजता है
अब समझे चिर सत्य
याद आ रहा पल-पल बचपन
लाड़ मिला जो नित्य
नाते-ममता मिली अपरिमित
करी न थी अर्जित
*
श्री-समृद्धि दी तुमने हमको
हम देते तिल-पानी
भूल विरासत दान-दया की
जोड़ रहे अभिमानी
भोग न पाते, अगिन रोगों का
देह बनी है डेरा
अपयश-अनदेखी से अाहत
मौत लगाती फेरा
खाली हाथ न फैला पाते
खुद के बैरी दर्पित 
१-१०-२०१८
***
पितृ-स्मरण
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितरों के आशीष से, बनें शूल भी फूल
*
जड़ होकर भी जड़ नहीं, चेतन पितर तमाम
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
गत-आगत को जोड़ता, पितर पक्ष रह मौन
ज्यों भोजन की थाल में, रहे- न दिखता नौन
*
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़े, वंश वृक्ष अभिराम
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़े, पाने लक्ष्य ललाम
*
कल के आगे विनत हो, आज 'सलिल' हो धन्य
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
जन्म अन्न जल ऋण लिया, चुका न सकते दाम
नमन न मन से पितर को, किया- विधाता वाम
*
हमें लाये जो उन्हीं का, हम करते हैं दाह
आह न भर परवाह कर, तारें तब हो वाह
२८.९.२०१६
***
मुक्तक
नारी भारी नर हल्का है 
वह फल यह केवल छिलका है 
चाँद कहोगे यदि तुम उसको-
वह बोले 'तू तो उल्का है'। 
*
चार न बजते जब, न क्यों कहते उसे अ-चार?
कारण खट्टे दाँत कर, करता चुप्प अचार। 
दाँत निपोरो व्यर्थ क्यों जब खुद हो बे-दाँत  
कहती दाल बघारकर, और न शान बघार।।  
*
जो न नार उसको कभी कहना नहीं अ-नार 
जो सु-नार क्या उसे तुम कहते कभी सुनार?
शब्द-अर्थ का खेल है धूप-छाँव सम मीत-
जो बे-कार न मानिए आप उसे बेकार।। 
*
बात करें बेबात गर हो उसमें भी अर्थ 
बिना अर्थ हर बात को आप मानिए व्यर्थ। 
रहे स्व-अर्थ, न स्वार्थ हो, साध्य 'सलिल' सर्वार्थ - 
अगर न कुछ परमार्थ तो होगा सिर्फ अनर्थ।। 
***
दोहा सलिला
*
मीरा का पथ रोकना, नहीं किसी को साध्य।
दिखें न लेकिन साथ हैं, पल-पल प्रभु आराध्य।।
*
श्री धर कर आचार्य जी, कहें करो पुरुषार्थ।
तभी सुभद्रा विहँसकर, वरण करेगी पार्थ।।
*
सरस्वती-सुत पर रहे, अगर लक्ष्मी-दृष्टि।
शक्ति मिले नव सृजन की, करें कृपा की वृष्टि।।
*
राम अनुज दोहा लिखें, सतसई सीता-राम।
महाकाव्य रावण पढ़े, तब हो काम-तमाम।।
*
व्यंजन सी हो व्यंजना, दोहा रुचता खूब।
जी भरकर आनंद लें, रस-सलिला में डूब।।
*
काव्य-सुधा वर्षण हुआ, श्रोता चातक तृप्त।
कवि प्यासा लिखता रहे, रहता सदा अतृप्त।।
*
शशि-त्यागी चंद्रिका गह, सलिल सुशोभित खूब।
घाट-बाट चुप निरखते, शास्वत छटा अनूप।।
*
दीप जलाया भरत ने, भारत गहे प्रकाश।
कीर्ति न सीमित धरा तक, बता रहा आकाश।।
*
राव वही जिसने गहा, रामानंद अथाह।
नहीं जागतिक लोभ की, की किंचित परवाह।
*
अविरल भाव विनीत कहँ, अहंकार सब ओर।
इसीलिए टकराव हो, द्वेष बढ़ रहा घोर।।
*
तारे सुन राकेश के, दोहे तजें न साथ।
गयी चाँदनी मायके, खूब दुखा जब माथ।।
*
कथ्य रखे दोहा अमित, ज्यों आकाश सुनील।
नहीं भाव रस बिंब में, रहे लोच या ढील।।
*
वंदन उमा-उमेश का, दोहा करता नित्य।
कालजयी है इसलिए, अब तक छंद अनित्य।।
*
कविता की आराधना, करे भाव के साथ।
जो उस पर ही हो सदय, छंद पकड़ता हाथ।।
*
कवि-प्रताप है असीमित, नमन करे खुद ताज।
कवि की लेकर पालकी, चलते राजधिराज।।
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय सृष्टि।
कथ्य, भाव रस बिंब लय, करें सत्य की वृष्टि।।
*
करे कल्पना कल्पना, दोहे में साकार।
पाठक पढ़ समझे तभी, भावों का व्यापार।।
*
दूर कहीं क्या घट रहा, संजय पाया देख।
दोहा बिन देखे करे, शब्दों से उल्लेख।।
*
बेदिल से बेहद दुखी, दिल-डॉक्टर मिल बैठ।
कहें बिना दिल किस तरह, हो अपनी घुसपैठ।।
*
मुक्तक खुद में पूर्ण है, होता नहीं अपूर्ण।
छंद बिना हो किस तरह, मुक्तक कोई पूर्ण।।
*
तनहा-तनहा फिर रहा, जो वह है निर्जीव।
जो मनहा होकर फिर, वही हुआ संजीव।।
*
पूर्ण मात्र परमात्म है, रचे सृष्टि संपूर्ण।
मानव की रचना सकल, कहें लोग अपूर्ण।।
*
छंद सरोवर में खिला, दोहा पुष्प सरोज।
प्रियदर्शी प्रिय दर्श कर, चेहरा छाए ओज।.
*
किस लय में दोहा पढ़ें, समझें अपने आप।
लय जाए तब आप ही, शब्द-शब्द में व्याप।।
*
कृष्ण मुरारी; लाल हैं, मधुकर जाने सृष्टि।
कान्हा जानें यशोदा, अपनी-अपनी दृष्टि।।
*
नारायण देते विजय, अगर रहे यदि व्यक्ति।
भ्रमर न थकता सुनाकर, सुनें स्नेहमय उक्ति।।
*
शकुंतला हो कथ्य तो, छंद बने दुष्यंत।
भाव और लय यों रहें, जैसे कांता-कंत।।
*
छंद समुन्दर में खिले, दोहा पंकज नित्य।
तरुण अरुण वंदन करे, निरखें रूप अनित्य।।
*
विजय चतुर्वेदी वरे, निर्वेदी की मात।
जिसका जितना अध्ययन, उतना हो विख्यात।।
*
श्री वास्तव में गेह जो, कृष्ण बने कर कर्म।
आस न फल की पालता, यही धर्म का मर्म।।
*
राम प्रसाद मिले अगर, सीता सा विश्वास।
जो विश्वास न कर सके, वह पाता संत्रास।।
२३.९.२०१८
***
मुक्तक
एक से हैं हम मगर डरे - डरे
जी रहे हैं छाँव में मरे - मरे
मारकर भी वो नहीं प्रसन्न है
टांग तोड़ कह रहे अरे! अरे!!
२३.९.२०१६
***
दो रचनाकार एक कुंडलिनी
*
गरजा बरसा मेघ फिर , कह दी मन की बात
कारी बदरी मौन में सिसकी सारी रात - शशि पाधा
सिसकी सारी रात, अश्रु गिर ओस हो गए
मिला उषा का स्नेह, हवा में तुरत खो गए
शशि ने देखा बिम्ब सलिल में, बादल गरजा
सूरज दमका धूप साथ, फिर जमकर लरजा - संजीव 'सलिल'
***
नवगीत:
*
एक शाम
करना है मीत मुझे
अपने भी नाम
.
अपनों से,
सपनों से,
मन नहीं भरा.
अनजाने-
अनदेखे
से रहा डरा.
परिवर्तन का मंचन
जब कभी हुआ,
पिंजरे को
तोड़ उड़ा
चाह का सुआ.
अनुबंधों!
प्रतिबंधों!!
प्राण-मन कहें
तुम्हें राम-राम.
.
ज्यों की त्यों
चादर कब
रह सकी कहो?
दावानल-
बड़वानल
सह, नहीं दहो.
पत्थर का
वक्ष चीर
गंग
सलिल सम बहो.
पाये को
खोने का
कुछ मजा गहो.
सोनल संसार
हुआ कब कभी कहो
इस-उस के नाम?
.
संझा में
घिर आयें
याद मेघ ना
आशुतोष
मौन सहें
अकथ वेदना.
अंशुमान निरख रहे
कालचक्र-रेख.
किस्मत में
क्या लिखा?,
कौन सका देख??
पुष्पा ले जी भर तू
ओम-व्योम, दिग-दिगंत
श्रम कर निष्काम।
बेंगलुरु, २२.९.२०१५
***
बाल रचनाएँ:
१. श्रेया रानी
श्रेया रानी खूब सयानी
प्यारी लगती कर नादानी
पल में हँसे, रूठती पल में
कभी लगे नानी की नानी
चाहे मम्मी कभी न टोंकें
करने दें जी भर मनमानी
लाड लड़ाती है दादी से
बब्बाजी से सुने कहानी
***
२. अर्णव दादा
अर्णव दादा गुपचुप आता
रहे शांत, सबके मन भाता
आँखों में सपने अनंत ले-
मन ही मन हँसता-मुस्काता
मम्मी झींके:'नहीं सुधरता,
कभी न खाना जी भर खाता
खेले कैरम हाथी-घोड़े,
ऊँट-वज़ीरों को लड़वाता
***
३. आरोही
धरती से निकली कोंपल सी
आरोही नन्हीं कोमल सी
अनजाने कल जैसी मोहक
हँसी मधुर, कूकी कोयल सी
उलट-पलटकर पैर पटकती
ज्यों मछली जल में चंचल सी
चाह: गोद में उठा-घुमाओ
करती निर्झर ध्वनि कलकल सी
२३.९.२०१५
***
सामयिक रचना:
मंदिर बनाम मस्जिद
*
नव पीढ़ी सच पूछ रही...
*
ईश्वर-अल्लाह एक अगर
मंदिर-मस्जिद झगड़ा क्यों?
सत्य-तथ्य सब बतलाओ
सदियों का यह लफड़ा क्यों?
*
इसने उसको क्यों मारा?
नातों को क्यों धिक्कारा?
बुतशिकनी क्यों पुण्य हुई?
किये अपहरण, ललकारा?
*
नहीं भूमि की तनिक कमी.
फिर क्यों तोड़े धर्मस्थल?
गलती अगर हुई थी तो-
हटा न क्यों हो परिमार्जन?
*
राम-कृष्ण-शिव हुए प्रथम,
हुए बाद में पैगम्बर.
मंदिर अधिक पुराने हैं-
साक्षी है धरती-अम्बर..
*
आक्रान्ता अत्याचारी,
हुए हिन्दुओं पर भारी.
जन-गण का अपमान किया-
यह फसाद की जड़ सारी..
*
ना अतीत के कागज़ हैं,
और न सनदें ही संभव.
पर इतिहास बताता है-
प्रगटे थे कान्हा-राघव..
*
बदला समय न सच बदला.
किया सियासत ने घपला..
हिन्दू-मुस्लिम गए ठगे-
जनता रही सिर्फ अबला..
*
एक लगाता है ताला.
खोले दूजा मतवाला..
एक तोड़ता है ढाँचा-
दूजे का भी मन काला..
*
दोनों सत्ता के प्यासे.
जन-गण को देते झाँसे..
न्यायालय का काम न यह-
फिर भी नाहक हैं फासें..
*
नहीं चाहता कोई दल.
मसला यह हो पाये हल..
पंडित,मुल्ला, नेता ही-
करते हलचल, हो दलदल..
*
जो-जैसा है यदि छोड़ें.
दिशा धर्म की कुछ मोड़ें..
मानव हो पहले इंसान-
टूट गए जो दिल जोड़ें..
*
पंडित फिर जाएँ कश्मीर.
मिटें दिलों पर पड़ी लकीर..
धर्म न मजहब को बदलें-
काफ़िर कहों न कुफ्र, हकीर..
२३-९-२०१०
***
मुक्तक 
हर इंसां हो एक समान.
अलग नहीं हों नियम-विधान..
कहीं बसें हो रोक नहीं-
खुश हों तब अल्लाह-भगवान..
*
जिया वही जो बढ़ता है.
सच की सीढ़ी चढ़ता है..
जान अतीत समझता है-
राहें-मंजिल गढ़ता है..
*
मिले हाथ से हाथ रहें.
उठे सभी के माथ रहें..
कोई न स्वामी-सेवक हो-
नाथ न कोई अनाथ रहे..
*
सबका मालिक एक वही.
यह सच भूलें कभी नहीं..
बँटवारे हैं सभी गलत-
जिए योग्यता बढ़े यहीं..
*
हम कंकर हैं शंकर हों.
कभी न हम प्रलयंकर हों.
नाकाबिल-निबलों को हम
नाहक ना अभ्यंकर हों..
*
पंजा-कमल ठगें दोनों.
वे मुस्लिम ये हिन्दू को..
राजनीति की खातिर ही-
लाते मस्जिद-मन्दिर को..
*
जनता अब इन्साफ करे.
नेता को ना माफ़ करे..
पकड़ सिखाये सबक सही-
राजनीति को राख करे..
*
मुल्ला-पंडित लड़वाते.
गलत रास्ता दिखलाते.
चंगुल से छुट्टी पायें-
नाहक हमको भरमाते..
*
सबको मिलकर रहना है.
सुख-दुख संग-संग सहना है..
मजहब यही बताता है-
यही धर्म का कहना है..
*
एक-दूजे का ध्यान रखें.
स्वाद प्रेम का 'सलिल' चखें.
दूध और पानी जैसे-
दुनिया को हम एक दिखें..
***

शनिवार, 21 सितंबर 2024

सितंबर २१, कायस्थ, सॉनेट, हाइकु गीत, दोहे, अनुप्रास,

सलिल सृजन सितंबर २१ 

*

कायस्थों के कुलनाम

कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कई कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = प्रकाशक, विश्वभानु = अँधेरा मिटानेवाला तथा वीर्यवान = बहु संततिवान। कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम निम्न हैं।  

सक्सेना - शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परसर करनेवाले, शक (संदेहों) का समाधान करने वाले। 
श्रीवास्तव- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न। 
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
भटनागर- सभ्य योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले।  
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले। 
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले। 
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाल्व, कानून बनानेवाले। 
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले। 
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं। 
व्यवहार-ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
श्रीवास्तव- वास्तव में 'श्री' (धन-विद्या) संपन्न।                                                                                                                                              नारायण- विष्णु भक्त। 
रंजन - कला निष्णात। 
सारंग- समर्पित प्रेमी, सरंग पक्षी अपने साथ का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।  
बहादुर- पराक्रमी। 
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ। 
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।  
सिंह/सिन्हा/सिन्हे/सिंघे/जयसिन्हा/ जय सिंघे- सिंह की तरह।   
माथुर- मथुरा निवासी।  
कर्ण- राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके नाम पर शासन करनेवाले। 
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले। 
दास- सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेववाले। 
घोष- इनका जयघोष किया जाता रहा। 
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त। 

गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थों में गोत्र तथा अल्ल (वैश्यों में आँकने) भी होते हैं। 
*
सॉनेट
राजू भाई!
*
बहुत हँसाया राजू भाई!
संग हमेशा रहे ठहाके
झुका न पाए तुमको फाके
उन्हें झुकाया राजू भाई!
खुद को पाया राजू भाई!
आम आदमी के किस्से कह
जन गण-मन में तुम पाए रह
युग-सच पाया राजू भाई!
हो कठोर क्यों गया ईश्वर?
रहे अनसुने क्रंदन के स्वर
दूर धरा से गया गजोधर
चाहा-पाया राजू भाई!
किया पराया राजू भाई!
बहुत रुलाया राजू भाई!
२१-९-२०२२
***
त्रिपदिक (हाइकु) गीत
बात बेबात
*
बात बेबात
कहते कटी रात
हुआ प्रभात।
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं।
*
हो गया कक्ष
आलोकित ज्यों तुम
प्रगट हुईं।
*
कुसुम कली
परिमल बिखेरे
दस दिशा में -
*
मन अवाक
सृष्टि मोहती
छबीली मुई।
*
परदा हटा
बज उठी पायल
यादों की बारात।
*
दे पकौड़ियाँ
आँखें, आँखों में झाँक
कुछ शर्माईं ?
*
गाल गुलाबी
अकहा सुनकर
आप लजाईं।
*
अघट घटा
अखबार नीरस
लगने लगा-
*
हौले से लिया
हथेली को पकड़
छुड़ा मुस्काईं।
*
चितवन में
बही नेह नर्मदा
सिहरा गात
*
चहक रही
गौरैया मुंडेर पर
कुछ गा रही।
*
फुदक रही
चंचल गिलहरी
मन भा रही।
*
झोंका हवा का
उड़ा रहा आँचल
नाचतीं लटें-
*
खनकी चूड़ी
हाथ न आ, ललचा
इठला रही।
*
फ़िज़ा महकी
घटा घिटी-बरसी
गुँजा नग़मात
२१-९-२०२०
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
*
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२१-९-२०१३
***
हाइकु गीत :
प्रात की बात
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोए?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गई.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी खबरें.
*
दुर्घटनाएँ,
रिश्वत, हत्या, चोरी,
पढ़ ऊबा हूँ.
*
चहक रही
गौरैया, समझूँ क्या
कहती वह?
*
चें-चें करती
नन्हीं चोचें दिखीं
ज़िन्दगी हँसी.
*
घुसा हवा का
ताज़ा झोंका, मुस्काया
मैं बाकी आशा.
*
मिटा न सब
कुछ अब भी बाकी
उठूँ-सहेजूँ.
२१.९.२०१०
***

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

सितंबर १९, बधाई, गणेश, बघेली, मुक्तिका, अवधी, प्रभाती,

सलिल सृजन सितंबर १९
*
मुक्तिका
अंकों की थामकर अँगुली हम जी रहे
एक अहं पाल-पोस, माया घी पी रहे।

मैं-तू तूतू-मैंमैं, दो न एक हो सके
तीन-पाँच करते पर होंठ नहीं सी रहे।

चार धाम जाते, पुरुषार्थ चार भूलकर
पंच के प्रपंच को बोल जिंदगी रहे।

षड् रागी खटरागी होकर अंग्रेजी पढ़
हिंग्लिश में गिटपिट कर भूल भारती रहे।

सात स्वर न जानते, तानसेन नाम धर
आठ प्रहर चादर को करते मैली रहे।

नौ के निन्यान्नबे चाह रहे, रात-दिन
हाथ लगे शून्य हम ढपोरशंख ही रहे।
१९.९.२०२४
••••
बधावा-
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
श्री गणेश - आमंत्रण
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***
प्रभाती
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
***
卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२-११-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
*
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : संजीव 'सलिल'
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*
अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
भजन:
सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...
***
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
विमर्श - गणेश चतुर्थी और शिव परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
***
विमर्श :
गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र
*
भाद्रपद मास पर्वों का मास है। आजकल जनगण गणपति, गणेश या गणनायक की पूजाराधना करने में निमग्न है।
शिव पुराण में वर्णित आख्यान के अनुसार गृहस्वामिनी पार्वती ने स्नान करने जाते समय, अपनी और गृह की सुरक्षा तथा किसी अवांछित का प्रवेश रोकने के लिए अपने उबटन (अंश) से पुतला बनाकर उसमें प्राण डाले और उसे रक्षक के रूप में नियुक्त किया। पार्वती स्नान कर पातीं इसके पूर्व ही गृहपति शिव वापिस लौटे। रक्षक ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। शिव ने बलात प्रवेश का प्रयास किया, द्व्न्द हुआ, अंतत: क्रुद्ध शिव ने रक्षक का मस्तक काट कर गृह में प्रवेश किया। पार्वती स्नान कर बाहर आईं तो शिव के क्रोध कारण जानना चाहा और सकल वृत्तांत जानकार अपनी संरचना के अकाल काल के गाल में सामने पर शोक संतप्त हो गईं। शिव ने गणों (सेवकों) को आदेश दिया की जो माता अपनी नवजात शिशु से मुँह फेरकर शयन कर रही हो उसके शिशु का मस्तक काट कर ले आएँ। गण एक गजशिशु का मस्तक ले आए जिसे शिव ने पार्वती-पुत्र के धड़ से संयुक्त कर उसे पुनर्जीवित कर दिया। दोनों ने इसे अनेक शक्तियों से संपन्न होने का वर दिया।
शिव-पार्वती कौन हैं? वे पुतले और निर्जीव में प्राण कैसे डाल देते हैं? इन कथाओं का मर्म क्या है? क्या मात्र वही जो इस कथाओं को रूढ़ रूप में लेने पर ज्ञात होता है या इनमें कुछ और कथ्य प्रतीक रूप में कहा गया है, जिसे सामान्यत: हम ग्रहण नहीं कर पाते।
शिव-पार्वती जगतपिता और जगतजननी हैं। तुलसी अधिक स्पष्ट करते हैं- 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ'। श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ हों तो ही शुभ होता है। जब-जब विश्वास पर विश्वास न कर श्रद्धा भिन्न पथ अपनाती है तब अनिष्ट होता है। सती द्वारा राम की परीक्षा लेने और शिव-वर्जना की अनदेखी कर दक्ष यज्ञ में भाग लेने के दुष्परिणाम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। जब विश्वास श्रद्धा को छोड़कर अलग जाता है तब भी अनिष्ट ही होता है, यह गजानन-कथा से विदित होता है। यह निर्विवाद है कि श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हों तभी कल्याण है। पति-पत्नी दैनंदिन जीवन में श्रद्धा-विश्वास हों तो कुछ अशुभ घट ही नहीं सकता। नागरिक और सरकार (शासन-प्रशासन) के मध्य श्रद्धा-विश्वास का संबंध हो तो इससे अधिक मंगलमय कुछ और नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं होता?, कैसे हो सकता है?, यह चिंतन करने का अवसर ही गणेश जन्मोत्सव है।
यह प्रसंग जीवन के कई रहस्य उद्घाटित करता है। श्रद्धा की संतान पर विश्वास को विश्वास करना ही चाहिए अन्यथा विश्वास 'विष-वास' हो जाएगा, जीवन से सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी। इसके विपरीत यदि विश्वास की आत्मा (आत्मज) पर श्रद्धा न कर, श्रद्धा स्वयं अश्रद्धा जाएगी। सांसारिक जीवन में श्रद्धा पर श्रद्धा होने और विश्वास विश्वास खोने के कारण कितनी ही गृहस्थियाँ नष्ट होने के समाचार छपते हैं। तिनका आँख के अति निकट हो तो उसके पीछे सूर्य भी छिप जाता है। शंका का डंका बजते ही श्रद्धा-विश्वास दोनों मौन हो जाते हैं, संवाद बंद हो जाता है और शेष रह जाता है केवल विवाद। संसद और विधान सभाओं में पक्ष-विपक्ष, श्रद्धा-विश्वास कर एक-दूसरे के पूरक हों तो ही सार्थक विमर्श सहमतिकारक नीतियाँ बनाकर जन-हित और देश हित साधा जा सकता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव में संसद, विधान सभा ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ भी परस्पर दाँव-पेंच का अखाड़ा मात्र होकर रह गया है।
एक अन्य आख्यान के अनुसार शिव-संतान कार्तिकेय और पार्वती-तनय तनय गजानन के मध्य श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर सृष्टि परिक्रमा करने की कसौटी पर सकल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने गए कार्तिकेय पराजित होते हैं जबकि अपने जनक-जननी शिव-पार्वती की परिक्रमा का गजानन विजयी होकर प्रथम पूज्य होने का वरदान पाकर गणेश, गजानन या गणनायक हो जाते हैं।
यहाँ भी बात श्रद्धा-विश्वास की ही है। गजानन के लिए जन्मदात्री और प्राणदाता समूचा संसार हैं, उनके बिना सकल सृष्टि का कुछ अर्थ नहीं है। इसीलिए वे श्रद्धा और विश्वास परिक्रमा कर समझते हैं कि सृष्टि परिक्रमा हो गई। उनका जन्म ही श्रद्धा है इसलिए श्रद्धा (पार्वती) पर श्रद्धा हो यह स्वाभाविक है किन्तु वे अपने प्राणहर्ता विश्वास (शिव) में विष का वास (नीलकंठ, सर्प) होने पर भी उन पर अखंड विश्वास कर पाते हैं, यही उनका वैशिष्ट्य है। दूसरी ओर कार्तिकेय मूलत: विश्वास (शिव) की संतान हैं वे विश्वास पर विश्वास न कर, श्रद्धा पर श्रद्धा खो देते हैं और अपना बल आजमाने निकल पड़ते हैं। यही नहीं वे जीवन की सबसे अधिक कठिन परीक्षा को सबसे अधिक सरल परीक्षा मानकर जाते समय श्रद्धा और विश्वास का शुभाशीष भी नहीं प्राप्त करते जबकि गजानन आरंभ और अंत दोनों समय यह करते हैं।
गजानन और कार्तिकेय की वृत्ति का यह अंतर उनके द्वारा वाहन चयन में भी दृष्टव्य है। गजानन मंदगामी मूषक को वाहन चुनते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का भोज्य है, उन्हें विश्वास है कि शिव सदय हैं तो कुछ अनिष्ट नहीं सकता। दूसरी ओर कार्तिकेय क्षिप्रगति मयूर का चयन करते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का शिकार करता है। कार्तिकेय शंका करते हैं, गजानन विश्वास। 'विश्वासं फलदायकं' इसलिए गजानन प्राप्ति होती है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं' इसीलिए गजानन को ज्ञान और ज्ञान से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं। लोकोक्ति है 'जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार'। कार्तिकेय बल (तरवार) पर भरोसा करते हैं, गजानन बुद्धि (सुई पर)। जीवन में बुद्धि और बल दोनों आवश्यक हैं। 'जो जस करहिं सो तस फल चाखा', बल के बल पर कार्तिकेय देवताओं के बलाध्यक्ष (सेनापति) बन पाते हैं जबकि बुद्धि पर श्रद्धा-विश्वास करनेवाले गजानन देवों में प्रथम पूज्य बन जाते हैं। बुद्धि की श्रेष्ठता बल से अधिक है यह जानने के बाद भी दैनिक लोक व्यवहार में सर्वत्र बल प्रयोग की चाह और राह ही सकल क्लेश का कारण है। प्रथम पूज्य होने पर गजानन गणेश, गणपति, गणनायक आदि विरुदों से विभूषित किए जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि उन्हें विघ्नेश्वर बनाती हैं।
गण द्वारा संचालित गणतंत्र को गणनायक पूजक भारत अपनाए यह सहज-स्वाभाविक है। विसंगति यह हो गई है कि गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण प्रतिनिधि ही गण से दूर हैं।चयन का कार्य गण नहीं दल कर रहे हैं। फलत:, मतभेदों के दलदल, दल बदल के कंटक और सदल बल जनआकांक्षों पर दलीय हितों को वरीयता देने के कारण प्रतिनिधि जनगण पर श्रद्धा और जनगण प्रतिनिधयों पर विश्वास खो चुके हैं। इस दुष्चक्र का लाभ उठाकर जनसेवक गणस्वामी बनकर पद के मद में मस्त है। गण स्वामी कहा जाता है पर वास्तव में सेवक मात्र है। तंत्र गण के काम न आकर गण से काम ले रहा है। विधि-विधान बनानेवाले ही विधि-विधान की हत्या कर रहे हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों के साथ बुद्धि-विवेक कर न्याय दिए जाने के स्थान पर, आँखों पर पट्टी बाँधकर न्याय को तौला जा रहा है। इस संक्रमणकाल लोक को आराध्य माननेवाले कृष्ण के जन्मोत्सव के तुरंत बाद गणदेवता जन्मोत्सव मनाया जाना पूरी तरह सामयिक और समीचीन है। जनगण परंपरा-पालन के साथ-साथ उनका वास्तविक मर्म भी ग्रहण कर सके तो लोक, जन, गण और प्रजा पर तंत्र हावी न होकर उसका सेवक होगा, तभी वास्तविक लोकतंत्र, जनतंत्र, गणतंत्र और प्रजातंत्र मूर्त हो सकेगा।
**
श्री गणेश
श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश, लड्डू
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
*
गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]
1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.
Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.
===

बुधवार, 18 सितंबर 2024

सितंबर १८, हिंदी, अनंतवाद, यमक अलंकार,

सलिल सृजन सितंबर १८
*
अनंतवाद (Infinitheism) की अंग्रेजी प्रार्थना और उसका भावानुवाद
इन्फ़िनीथीइज़्म के मुताबिक, पारलौकिकता पवित्र है। इसमें ही जीवन मनुष्य की उच्चतर महिमा प्रकट होती है। हमारी कई प्रार्थनाएँ तभी पूरी होती हैं, जब हम इसके लिए कड़ी मेहनत करते हैं। हम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन व्यायाम नहीं करते। हम समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन काम के लिए पूरी मेहनत नहीं करते। हम खुशी के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन अपने परिपक्व होने तक विकास नहीं करते। हम भगवान के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन अपने आपको शुद्ध नहीं करते। इसलिए अनंतवादी प्रार्थना करते हैं, "मुझे और भी आगे ले जाएँ..." अपने स्रोत तक। अनंतवादियों की इस अभिव्यक्ति का अनिवार्य रूप से अर्थ है, "मैं अपने आप को आपके प्रति समर्पित करता हूँ मेरे प्रभु। मैं अपने जीवन की ज़िम्मेदारी आपके हाथों में सौंप रहा हूँ।

PRAYER

Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना 
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती 
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है। 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती 
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है। 

Dancing with You, without You…
तुझ बिन तेरे साथ नाचता 
Dancing with You, without You…
तुझ बिना तेरे साथ नाचता
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है।
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Dancing with You, without You…
तुझ बिन तेरे साथ नाचता 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित।
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है
Dancing with You, without You…
तुझ बिन तेरे साथ नाचता
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित।
*
(मूल अँग्रेजी में  प्रेयर की कड़ी : www.infinitheism.com/infiniprayer.html
यह संस्था ध्यान, अध्यात्म आदि से संबन्धित है। 
मेरा इस संस्था से कोई संबंध नहीं है।)
१८.९.२०२४ 
***
दोहा सलिला

हिंदी की तस्वीर के, अनगिन उजले पक्ष
जो बोलें वह लिख-पढ़ें, आम लोग, कवि दक्ष
*
हिदी की तस्वीर में, भारत एकाकार
फूट डाल कर राज की, अंग्रेजी आधार
*
हिंदी की तस्वीर में, सरस सार्थक छंद
जितने उतने हैं कहाँ, नित्य रचें कविवृंद
*
हिंदी की तस्वीर या, पूरा भारत देश
हर बोली मिलती गले, है आनंद अशेष
*
हिंदी की तस्वीर में, भरिए अभिनव रंग
उनकी बात न कीजिए, जो खुद ही भदरंग
*
हिंदी की तस्वीर पर अंग्रेजी का फेम
नौकरशाही मढ़ रही, नहीं चाहती क्षेम
*
हिंदी की तस्वीर में, गाँव-शहर हैं एक
संस्कार-साहित्य मिल, मूल्य जी रहे नेक
१८.९.२०१६
***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
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मंगलवार, 17 सितंबर 2024

विश्व कीर्तिमानधारी ग्रंथों के प्रणयन में जबलपुर का अवदान

विश्व कीर्तिमानधारी ग्रंथों के प्रणयन में जबलपुर का अवदान

गीतिका श्रीव
*

            संस्कारधानी जबलपुर का हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में अवदान अमूल्य और चिरस्मरणीय रहा है। संस्कारधानी कहे जाने वाले इस नगर को छायावाद की एक स्तंभ, 'हिंदी की आधुनिक मीरा' विशेषण से विभूषित की गई महीयसी महादेवी वर्मा की ननिहाल तथा हिंदी के प्रथम मान्य वैयाकरण कांटा प्रसाद गुरु, एक भारतीय आत्मा माखन लाल चतुर्वेदी, संपादक प्रवर महावीर प्रसाद द्विवेदी, ख्यात टीकाकार रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', प्रकांड मेधा के धनी महादेव प्रसाद 'सामी', केशव प्रसाद पाठक, पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर, भवानी प्रसाद मिश्र, ब्योहर राजेन्द्र सिंह। लक्ष्मण सिंह चौहान, सुभद्रा कुमारी चौहान, द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविंद दास तथा आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी आदि महान विभूतियों की कर्म भूमि होने का सौभाग्य मिला है। इस विरासत को ग्रहण कार वर्तमान समय में जबलपुर के रचनाकार हिंदी के विकास में अपना योगदान देते हुए विश्व कीर्तिमान धारी ग्रंथों के प्रयणन में सहभागी होकर नगर को नया गौरव प्रदान कर रहे हैं।

भारत को जानें : राष्ट्रीय एकता का महाग्रंथ

            गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड से सम्मानित ग्रंथ 'भारत को जानें' के लेखन में ४६६ रचनाकारों ने अपना योगदान किया है। इस ग्रंथ में भारत के सभी २८ राज्यों और ८ केंद्र शासित प्रदेशों की जन सांख्यिकी, संस्कृति-कला-साहित्य, इतिहास, प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक संरचना, प्रमुख व्यक्तित्व तथा उपलब्धियों पर दोहों-चौपाइयों के माध्यम से प्रकाश डाला गया है। ग्रंथ की रूपरेखा निर्धारण में तंजानिया निवासी संपादक डॉ. ममता सैनी श्रीमती के साथ श्रीमती विनीता श्रीवास्तव तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का पूर्ण सहयोग रहा। सलिल जी ने अपने साहित्यिक समूह विश्ववाणी हिंदी संस्थान में सक्रिय रहे रचनाकारों को इस पुनीत कार्य से जुड़ने हेतु प्रेरित किया। फलत: जबलपुर से सलिल जी और विनीता जी के अतिरिक्त बसंत कुमार शर्मा, सुरेंद्र सिंह पवार, डॉ. साधना वर्मा, छाया सक्सेना 'प्रभु', मीना भट्ट, हरि सहाय पाण्डेय, उदय भानु तिवारी 'मधुकर', कृष्णा राजपूत, डॉ. अनिल कुमार कोरी, विनीता पैगवार 'विधि', उमा मिश्रा 'प्रीति', अनुराधा गर्ग 'दीप्ति' के अतिरिक्त अन्य नगरों के २० रचनाकारों ने अपने भाव सुमनों से इस ग्रंथ को अलंकृत किया। सलिल जी का सहयोग इस ग्रंथ संबंधी कार्यक्रमों के लिए गीतकार के रूप में भी रहा।

आयुर्वेद को जानें : पारंपरिक ज्ञान की पताका

            आयुर्वेद भारत की सनातन ज्ञान परंपरा का मानवता को कालजयी उपहार है। डॉ. ममता सैनी के संपादन में इस विश्व कीर्तिमानधारी ग्रंथ को मूर्तरूप देने वाले १२५ रचनाकारों में जबलपुर से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', बसंत शर्मा, विनीता श्रीवास्तव, मनोज शुक्ल, मिथलेश बड़गैया आदि का योगदान महत्वपूर्ण रहा।

छंदबद्ध भारत का संविधान : राष्ट्रीयता का पुराण

            संविधान किसी देश को एक सूत्र में पिरोने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। यह नागरिकों, शासन और प्रशासन के कर्तव्यों और अधिकारों का निर्धारण करता है। खेद का विषय है की अधिकांश भारतीयों के घरों में अनेक धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथ होते हैं जिन्हें समय समय पर पढ़ जाता है किंतु भारत का संविधान बमुश्किल १% घरों में है। यही कारण है की भारतीयों में संविधान और कानूनों के प्रति जागरूकता और सम्मान भाव की कमी है। इस अभाव की पूर्ति का उद्देश्य लेकर डॉ. ओंकार साहू 'मृदुल', डॉ.सपना दत्ता, डॉ. मधु शंखढर 'स्वतंत्र' तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस सारस्वत अनुष्ठान को पूर्ण किया। इस महत्वपूर्ण कार्य में मध्य प्रदेश के १० रचनाकारों में से ७ जबलपुर से रहे। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सुनीता परसाई, कृष्णा राजपूत, अनुराधा पारे, अनुराधा गर्ग, भारती नरेश पाराशर तथा आशा निर्मल जैन (सीहोरा) इस ग्रंथ की रचना में महत्वपूर्ण योगदान किया।

हिंदी सोनेट सलिला : सृजन नर्मदा विमला

            विश्व कीर्तिमान धारी ग्रंथों की परिकल्पना, परियोजन और मूर्तन में नींव की तरह भूमिका निभा रहे सलिल जी के मन में जबलपुर को केंद्र में रखकर एक ग्रंथ तैयार करने का विचार आया। हिंदी साहित्य में इटेलियन छंद सॉनेट को जीवंत करने के लिए ख्यात छंदज्ञ सलिल जी ने स्वयं अध्ययन कर सॉनेट के इतिहास, रचना विधान, प्रकारों आदि का अध्ययन किया, सैंकड़ों सॉनेट रचे, हिंदी पिंगल की मान्यताओं व विधानों के अनुसार मानक निर्धारण कार अपने ५० साथियों से ५०-५० सॉनेट लिखवाए और तब उनमें से ३२ का चयन कार उनके १०-१० प्रतिनिधि सॉनेट इस ग्रंथ में प्रकाशित किए। इस एक ग्रंथ ने ३ कीर्तिमान (१) हिंदी का प्रथम साझा सॉनेट संकलन (शेक्सपीरियन शैली), (२) प्रथम संकलन जिसमें ३२ सॉनेटकार सम्मिलित हैं तथा (३) प्रथम संकलन जिसमें ३२१ सॉनेट एक साथ प्रकाशित हुए हैं, स्थापित किए हैं। इस ग्रंथ में जिले से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. संतोष शुक्ला, छाया सक्सेना 'प्रभु', सुरेंद्र सिंह पवार, हरि सहाय पांडे, सुनीता परसाई, इं. विपिन श्रीवास्तव, मनीष सहाय 'सुमन', भारती नरेश पाराशर तथा आशा निर्मल जैन ने सहभागिता कर हिंदी साहित्य में सॉनेट छंद को स्थापित करने का सफल प्रयास किया है।

छंद सोरठा खास : पढ़ें अधर रख हास

            विश्व कीर्तिमान धारी उक्त प्रयासों के अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से विश्व कीर्तिमान स्थापित करने का श्रेय विश्ववाणी हिंदी संस्थान की संरक्षक डॉ. संतोष शुक्ला मिल जिन्होंने हिंदी की प्रथम सोरठा सतसई "छंद सोरठा खास' की रचना अपने साहित्यिक गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के मार्गदर्शन में की इस ग्रंथ का सुंदर आवरण नगर की सिद्धहस्त कलाकार, सुकवि स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' की पुत्री अस्मिता शैली ने बनाया है।

            उक्त सभी महत्वपूर्ण प्रयासों तथा उनके साकार होने में जबलपुर के रचनाकारों की भूमिका की सराहना की जानी चाहिए। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि यह क्रम निरंतर चलता रहे और जबलपुर के साहित्यकार भारत की राजभाषा हिंदी के उन्नयन में सार्थक भूमिका निभाते रहें।
*** 
संपर्क- द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, नृसिंह वार्ड, नरसिंहपुर 





साहित्य में पर्यावरण

भारतीय साहित्य में पर्यावरण
*
            प्रकृति ईश्वर का सर्वोत्तम उपहार और मनुष्य उसकी सर्वोत्तम रचना है। शास्त्रानुसार परमात्मा एकमात्र पुरुष और प्रकृति उसकी लीला सहचरी है। दोनों के मिल से ही जीव का जन्म होता है- 'जगन्माता च प्रकृति पुरुषश्च जगत्पिता'। मानव के तन का संगठन पाँच तत्वों से हुआ है और अंत में वह पंच तत्वों में ही विलीन भी हो जाता है। 

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
माटी में माटी मिले, आत्म अगेह विदेह।।

            नागर सभ्यता के पूर्व मनुष्य ग्राम्य जीवन जीत हुआ प्रकृति के समीप था। एक ग्रामीण बाल सावन में होती घनघोर बारिश में चंदा पर खेती करने और सूरज पर खलिहान बनाने की कल्पना लोकगीत में करती है, आज से सदियों पूर्व उसे क्या पता था कि कभी मनुष्य उसकी कल्पना को साकार कर लेगा। लोक गीत की कुछ पंक्तियों का आनंद लें-

चंदा पे खेती करौं, सूरज पै करौं खरयान
जोबन के बदरा करौं, मोरे पिया बखर खों जांय
झमक झम लाग रही साहुन की

            इन लोक गीतों में भगवान भी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। आदिवासियों के निंगा देव जो कालांतर में बड़ा देव, महादेव और शंकर हो गए, वनवासी बैरागी हैं। वे नाग गले में लपेटे हैं, वृषभ की सवारी करते हैं। 

            भवानी को प्रसन्न करने के लिए भगतें गाने का रिवाज बुंदेलखंड में चिर काल से है। भगतें गाते समय वाद्य यंत्रों का प्रयोग वर्जित होता है। एक भगत की कुछ पंक्तियाँ देखिए-

मोरी मैया पत रखियों बारे जन की
मैया के मठ में चम्पो घनेरों, वास भई फुलवन की
मैया के मठ में गौएँ घनेरी, वास भई लरकन की
मैया के मठ में बहुएँ भौत हैं, वास भई लरकन की
मैया के मठ में घाम लगी है हैं, वास भई घी-गुर की

            अयोध्या में राम लला और लखन लाल महलों में नहीं, वृक्ष की छाँव में थकान उतारते हैं-

नगर अजुध्या की गैल में इक महुआ इक आम
जे तरे बैठे दो जनें, इक लछमन दूजे राम

            गोकुल के कान्हा और राधा का प्रकृति के साथ पल-पल का साथ है। गौ चराने, गोवर्धन उठाने, रास रचाने, कालिया वधकर जल प्रदूषण मिटाने आदि सभी प्रसंग पर्यावरण चेतना से परिपूर्ण हैं। लोकगीतों में इस चेतन के दर्शन कीजिए-

गिरधारी तोर बारो गिर नै परै
एक हात हरि मुकुट सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े
एक हात हरि खौर सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े

            मानव प्रकृति की क्रोड़ में जन्मता, सहवास लेता, अन्न-जल का पान करता हुई अंत में उसे में विलीन हो जाता है। गो. तुलसी दास लिखते हैं-
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित अति अधम सरीरा।। - राम चरित मानस

            चेतना, मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं। मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है किंतु मानव द्वारा निरंतर किए जा रहे पर्यावरण के विनाश से हमें भविष्य की चिंता सताने लगी है। हमारे प्राचीन वेदों (ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद एवं अथर्ववेद) में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। वेदों में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। 'अथर्ववेद' के एक श्लोक 'पृथ्वी सूक्त' में वर्णित है कि 'पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ'। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के कई घटकों जैसे वृक्षों को पूज्य माना जाता है. पीपल के वृक्ष को पवित्र माना जाता है. वट के वृक्ष की भी पूजा होती है. जल, वायु, अग्नि को भी देव मानकर उनकी पूजा की जाती है। शकुंतला खरे द्वारा संपादित गारी संग्रह सुहानों लागे अँगना में संकलित 'बारहमासी' इस लोकगीत में मनुष्य और प्रकृति का नैकट्य देखिए- 

लगे अगहन पूस मास / पिया प्यारे की आस 
देख देख भई उदास / माघ मास जाड़ों में नींद नहीं आई / मैं कैसी करूँ भाई
आई फागुन की बहार / नहीं आए पिया भरतार 
सौत रंग खेलें रंग भार / चिंता भई, अकती बैसकहें आई /  मैं कैसी करूँ भाई
जेठ गर्मी न भाए / उतै अषढ़ा लग जाए
झेली गर्मी न जाए / सावन के झूले पै छा रही पुरवाई  /  मैं कैसी करूँ भाई
दिए भादों हमें भुलाए / क्वांर कुआंरा हमें न भाए
पिया कार्तिक गए न आए / कहें बाथम-मलखान खुशी लौंद में मनाई / मैं कैसी करूँ भाई  

            भोजपुरी गारी गीतों में पर्यावरण और प्रकृति का रसमय चित्रण अद्भुत है। हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' द्वारा संपादित  लोकगंधी भोजपुरी के संस्कार गीत में विरहिणी बदल में छिपे चंदा को देखकर आह भरती  है-
 चंदा छीपी गइल / चंदा छीपी गइल / कारी बदरिया में 
रोवेला कवन / मरदा धुनेला कपार / चंदा छीपी गइल

            एक और चित्रण देखिए- 
राजा जी के बाग में / छयल जी के बाग में 
ए मोर लाल फुलवा/  एगो फुलेला गुलाब    

            लोक साहित्य में जीवन की हर परिस्थिति का चित्रण है। पर्यावरण को सजग दृष्टि से निहारते हुए छत्तीसगढ़ की युवतियों द्वारा धान कूटते समय गाया जानेवाला एक लोक गीत की कुछ पंक्तियाँ डॉ. अनीता शुक्ला की कृति 'छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन से प्रस्तुत है- 
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म / सूपा ऊपर नाचे लछममी  छुम्म-छुम्म
कोंढ़ा कनकी भूँसा चाँउर जममो ला निमारय  
कुकुरा बासत लीपय-पोतय घर-अँगना सँवारय 
बेर ऊवत तरिया जावय करय रपज असनान 
पीपर तेरी देवता पूजय, मन मा धरम के धियान 
गधरी ऊपर कलसा बोहय रेंगय झुम्मा-झुम्म
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म

            प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े पर्व त्योहारों में कजलिया, भजलिया या भोजली का अपना स्थान है। यह पर्व उत्पादक गाँवों और भोक्ता  नगरों के मध्य सामाजिक संवेदना सेतु का निर्माण करता है। खेद है कि शासन-प्रशासन इं लोक पर्वों की अनदेखी और उपेक्षा कर रहे हैं जिस कारण ये लुप्त होते जा रहे हैं। एक भोजली गीत का रस लें- 
रेवा मैया! हो रेवा मैया!! लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा
तूँहरों लहर म भोजली, भींजे आठों अंगा / अ sss हो रेवा मैया 
आए ल पूरा बोहाय ल मलगी, बोहाय ल मलगी
हमरो भोजली दाई के सोने-सोने के कलगी / अ sss हो रेवा मैया 

            लोक चेतना में प्राण फूंकता है प्रकृति का संसर्ग। एक अवधी फाग में प्रकृति का मनोरम चित्रण देखिए आद्या प्रसाद सिंह 'प्रदीप की पुस्तक 'लोक स्वर' से-

अमवन मा भँवर भुलाने, खेत पियराने 
आजु वसंत नवेली नागरि जिय धीरे धीरे सयाने 
मादक मदिर सुगंध सुहावनि आवति अपने मनमाने 
फूल माल गरवा महँ डारति आरति भाउ लुभाने 
रसुक हृदय रस-रस होइ भीजत, रस में सब आजु भुलाने   
कोइलि केलि करत डरिया पइ, पपिहा पिउ रागि भुलाने
करवन तरु मँह मँह मँहकारति खोलत रस प्रीति पुराने           

            आदिकालीन कवि विद्यापति की रचित पदावली प्रकृति वर्णन की दृष्टि से अद्वितीय है-
मौली रसाल मुकुल भेल ताब समुखहिं कोकिल पंचम गाय।

            भक्तिकालीन कवियों में कबीर सूर तुलसी जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई स्थलों पर रहस्यात्मक- वर्णन हुआ है। तुलसी ने रामचरितमानस में सीता और लक्ष्मण को वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है -

तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहुँ सीता कहुँ लखन लगाए

            रीतिकालीन कवियों में बिहारी, पद्माकर, देव, सेनापति ने प्रकृति में सौंदर्य को देखा-परखा है। बिहारी के एक दोहे का लालित्य देखिए-
चुवत स्वेद मकरंद कन, तरु तरु तरु विरमाय।
आवत दक्षिण देश ते, थक्यों बटोही बाय।।

            आधुनिक काल में प्रकृति के सौंदर्य का उपादान क्रूर दृष्टि का शिकार होना प्रारंभ हो जाता है मैथिलीशरण गुप्त कृत पंचवटी में चंद्र ज्योत्सना में रात्रि कालीन बेला की प्राकृतिक छटा का मोहक वर्णन है-
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।।
पुलक प्रगट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हैं तृ भी एमएनएस पवन क्व झोंकों से।।

            छायावादी काव्य के चारों चितेरों प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी के काव्य में में प्रकृति का सूक्ष्म और उत्कट और पर्यावरण चेतना यत्र-तत्र पाई जाती है। महाकवि  ने प्रकृति को ही सौंदर्य और सौंदर्य को ही प्रकृति माना है। कामायनी का पहला पद पर्यावरण और मनुष्य की  सन्निकटता का उत्कृष्ट उदाहरण है-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।।

            प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध कौसानी निवासी, प्रकृति का सुकुमार कवि कहे गए पंत कहते हैं-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन

            निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका बादल के समान गम्भीर और विद्रोही व्यक्तित्व उनके प्रकृति वर्णन में भली-भाँति निखरा है। निराला प्रारम्भ से ही प्रकृति वर्णन के गीत लिखते रहे और परवर्ती कल में भी यह धारा अबाध गति से प्रवाहित होती रही। फूलों पर आधारित उनकी कविता 'जूही की कली' एक प्रभावोत्पादक रचना है। इसमे जूही की कली नायिका और मलयानिल नायक के रूप में चित्रित है। इसमें वर्णित प्रकृति का नवीन रूपक आश्चर्यचकित करता है निद्रामग्न नायिका के रूप में जूही की कली का प्रकृति के माध्यम से मानवीकरण किया गया है -
विजन - वन - वल्लरी पर / सोती थी सुहाग -भरी -
स्नेह -स्वपन -मग्न -अमल -कोमल -तनु -तरुणी / जूही की कली।

            महादेवी जी ने जड़ प्रकृति को चेतन रूप में प्रस्तुत किया है। बसंत की रजनी का मन मुग्ध करता चित्रण देखिए-
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी / तारकमय नव वेणी बंधन
शीश फूल शशि का कर नूतन / रश्मि वलय सित घन अवगुंठन
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे / चितवन से अपनी / पुलकती आ वसंत रजनी

            महादेवी जी नायक-नायिका के प्रथम मिलन का चित्रण भी प्रकृति से जोड़कर करती हैं-
निशा को धो देता राकेश / चाँदनी में जब अलकें खोल
कली से कहता था मधु मास / बता दो मधु-मदिरा का मोल

            प्रख्यात समीक्षक हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' में लिखते हैं- 'यह धरती मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ इसलिए मैं इसका सदैव सम्मान करता हूँ और इसके प्रति नतमस्तक हूँ।' आधुनिक समय में पर्यावरण विषय को केन्द्र में रखकर अनेक रचनाएँ लिखी जा रही हैं। बुंदेली के वरिष्ठ कवि पूरन चंद श्रीवास्तव लिखते हैं-

बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ
ढील ढाल हे धरौ धरी पर / पोंछों माथ पसीना
तपी दुपहरिया देह झाँवरी / कर्रो क्वांर महिना
भैंसें परीं डबरियन लोरें / नदी तीर गईं गइयाँ
बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ

            काशीनाथ सिंह की कहानी 'जंगल जातकम्' पर्यावरण संरक्षण की अच्छी कोशिश है। 'चिपको आंदोलन' के समय लिखी गई इस कहानी में लेखक ने संवेदनात्मक धरातल पर जंगल का मानवीकरण कर बरगद, बांस, पीपल आदि वृक्षों की भूमिका को दिशा दी है।

            राजस्थानी कवि शिव मृदुल पर्यावरण चिंता को लेकर मुखर हैं-
रूख लगाया राख्या कोणी / मीठा फल भी चाख्या कोणी
सवारथ री लै हाथ कुल्हाड़ी / काटण हुआ उतावला
बोलो किणरा काम सरावां । किणनै बोलां बावला

            कुँवर कुसुमेश वृक्षों को भगवान का वरदान कहते हैं-
खुद पर न सही लेकिन पेड़ों पर भरोसा रख
नायाब जमीं पर ये भगवान का तोहफा रख
मन कि गरीबी में मुश्किल है बागवानी
गमले में मगर छोटा तुलसी का पौधा ही रख
            
            पर्यावरण चिंतन के क्रम में प्रस्तुत है एक स्वरचित पर्यावरण गीत- 
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
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नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
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पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
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अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
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पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
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मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
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