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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

लाँगुरिया, चंद्रयान, सॉनेट, श्यामलाल उपाध्याय, गीत, दोहा, हाइकु गीत-मुक्तक

सलिल सृजन २१ दिसंबर 
*
|| लाँगुरिया लोकगीत ||
इसरो बारौ धरा छोड़ चंदा पै लैग्यो लाँगुरिया!

ध्वजा तिरंगी एल वी एम पे जिसको ऊजर रंग,
ए टी एल-केल्ट्रॉन-कार्टस खूब निभाओ संग,
धू-धू इंजन जलो, भगो रे रॉकेट राम-बान सम लाँगुरिया!
प्रोपल्शन-इंटर-लैंडर मॉड्यूल ने करो कमाल, 
भू कक्षा में परकम्मा कर सबने कियो धमाल,
इलिप्टिकल पार्किंग ऑर्बिट में घूमो लाँगुरिया!
विक्रम राजा काँध चढ़ो प्रज्ञान बनो बैताल,
मजनू लैला चंदा-द्वारे पहुँचो लै जैमाल,
सॉफ्ट लैंडिंग भई बजाऊत ताली लाँगुरिया!
उतर चाँद पै भारत-ईसरो की दै दई निसानी,
इत-उत घूमे छैल-छबीलो बता रओ है पानी,
गड्ढा देख फलाँगे झट ज्यों वानर लाँगुरिया!
सोलर पैनल च्यवनप्रास घाईं दै ऊर्जा-ताकत,
एन ए वी कैमरा दनादन फोटू लै जग ताकत,
सूर्य छाँव में आओ; थम कें सो गओ लाँगुरिया!
सब दुनिया नें भारत मैया का लोहा लौ मान,
इसरो अभियंता-वैज्ञानिक ठाँड़े सीना तान,
मंगल-सूरज जाबे की जिद ठाने लाँगुरिया!
२१.१२.२०२३
***
सॉनेट
हार
हार का कर हार धारण
जीत तब ही तो वरेगी
तिलक तेरा तब करेगी
हारकर मत बैठ, कर रण
हार को गुपचुप निहारो
कर्म की कर साधना नित
तभी होगा आत्म-परहित
भूल मत भूलो, सुधारो
हार को त्यौहार मानो
बंधु बाँधव मीत जानो
सबक सीखो समर ठानो
हार ही तब हार जाए
जीत तब ही निकट आए
हार से तू जीत पाए
संजीव
२१-१२-२०२२
९४२५१८३२४४
७•५८,जबलपुर
●●●
दोहा
सलिल हुआ संजीव पा,शशि-किरणों का साथ.
खिल-खिल खिला पलाश भी, उठा-उठाकर हाथ.
***
आचार्य श्याम लाल उपाध्याय के प्रति दोहांजलि
*
निर्मल निश्छल नर्मदा, वाक् अबाध प्रवाह
पाई शारद की कृपा, अग्रज! अगम-अथाह
*
शब्द-शब्द सार्थक कहें, संशय हरें तुरंत
छाया दें वट-वृक्ष सम, नहीं कृपा का अंत
*
आभा-किरण अनंत की, हरे सकल अज्ञान
शारद-सुत प्रतिभा अमित, कैसे सकूँ बखान?
*
तुम विराट के पग कमल, प्रक्षालित कर धन्य
'सलिल' कर रहा शत नमन, करिये कृपा अनन्य
*
'नियति निसर्ग' पढ़े-बढ़े, पाठक करे प्रणाम
धन्य भाग्य साहित्य पा, सार्थक ललित ललाम
*
बाल ह्रदय की सरलता, युवकोचित उत्साह
प्रौढ़ों सा गाम्भीर्य मिल, पाता जग से वाह
*
नियति भेद-निक्षेपते, आपद-विपद तमाम
वैदिक चिंतन सनातन, बाँटें नित्य अकाम
*
गद्य-पद्य के हिमालय, शब्द-पुरुष संजीव
ममता की मूरत मृदुल, वंदन करुणासींव!
*
श्याम-लाल का विलय या, लाल श्याम का मेल?
विद्यासागर! बताओ, करो न हमसे खेल
*
विद्यावारिधि! प्रणत युग, चाह रहा आशीष
करो कृपा अज्ञान हर, बाँटो ज्ञान मनीष
*
गद्य माल है गले में, तिलक समीक्षा भाल
पद्य विराजित ह्रदय में, दूजी कहाँ मिसाल?
*
राष्ट्र चिंतना ही रही, आजीवन तव ध्येय
धूप-छाँव दो पक्ष हों, पूरक और विधेय
*
देश सुखी-सानंद हो, दुश्मन हों संत्रस्त
श्रमी युवा निर्माण नव, करें न हों भयग्रस्त
*
धर्म कर्म का मर्म है, देश-प्रेम ही मात्र
सबल निबल-रक्षक बने, तभी न्याय का पात्र
*
दोहा-दोहा दे रहा, सार्थक-शुभ संदेश
'सलिल' ग्रहण कर तर सके, पाकर दिशा विशेष
*
गति-यति, मात्रा-भार है, सही-संतुलित खूब
पाठक पढ़कर गह सकें, अर्थ पाठ में डूब
*
दोहा-दोहा दुह रहा, गौ भाषा कर प्रीत
ग्रहण करे सन्देश जो, बना सके नव रीत
*
आस्था के अंकुर उगा, बना दिए वट-वृक्ष
सौरभ के स्वर मनोहर, सृजनकार है दक्ष
*
कविता-कानन में उगे, हाइकु संग्रह मौन
कम में कहते हैं अधिक, ज्यों होजान में नौन
*
बहे काव्य मन्दाकिनी, 'सलिल' नित्य अवगाह
गद्य सेतु से हो सके, भू दर्शन की चाह
*
'लोकनाथ' के 'कुञ्ज' में, 'ज्योतिष राय' सुपंथ
निरख 'पर्ण श्री' रच रहे, नित्य सार्थक ग्रंथ
२१-१२-२०१६
***
गीत -
एक दिन ही नया
*
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
मन सनातन सत्य
निश-दिन गुनगुनाना।
*
समय कब रुकता?
निरंतर चला करता।
स्वर्ण मृग
संयम सिया को
छला करता।
लक्ष्मण-रेखा कहे
मत पार जाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
निठुर है बाज़ार
क्रय-विक्रय न भूले।
गाल पिचका
आम के
हैं ख़ास फूले।
रोकड़़ा पाए अधिक जो
वह सयाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
सबल की मनमानियाँ
वैश्वीकरण है।
विवश जन को
दे नहीं
सत्ता शरण है।
तंत्र शोषक साधता
जन पर निशाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
२०. १२.२०१५
***
कविता क्या???
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार कविता ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
***
हाइकु मुक्तक :
जापानी छंद / पाँच सात औ' पाँच / देता आनंद
तजिए द्वंद / सदा कहिए साँच / तजिए गंद
तोड़िए फंद / साँच को नहीं आँच / सूर्य अमंद
आनंदकंद / मन दर्पण काँच / परमानंद
२१-१२-२०१४
***

मंगलवार, 19 दिसंबर 2023

सलिल सृजन १९ दिसंबर, भाषा, कैथी, सॉनेट, सरस्वती, अभियान, दोहे, चुटकी, चित्रगुप्त, नवगीत

सलिल सृजन १९ दिसंबर
*
भाषा
जो जनगण-मन की आशा है
जो भावों की परिभाषा है
जिसमें रस-सलिला बहती है
शब्द सिंधु अपनी भाषा है।
*
हर अनुभूति ग्रहण करती है
ज्यों की त्यों झट-पट कहती है
कहा हुआ शब्दों में लिखती
सुन-पढ़ मति समझा करती है।
*
भाषा माँ जैसे भाती है
धीरे-धीरे ही आती है
कभी बोलती मीठी बोली
कभी दर्द में भी गाती है।
१९.१२.२०२३
*
विरासत 
कायस्थों की लिपि 'कैथी'
*
कैथी एक ऐतिहासिक लिपि है जिसे मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बृहत रूप से प्रयोग किया जाता था। खासकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं।
कैथी एक पुरानी लिपि है जिसका प्रयोग कम से कम 16 वी सदी मे धड़ल्ले से होता था। मुगल सल्तनत के दौरान इसका प्रयोग काफी व्यापक था। 1880 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इसे प्राचीन बिहार के न्यायलयों में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया था। इसे खगड़िया जिले के न्यायालय में वैधानिक लिपि का दर्ज़ा दिया गया था।

गुप्त वंश के उत्थान के दौरान अस्तित्व में आयी कैथी भाषा वर्ष १८८० तक जनमानस की भाषा बन चुकी थी । न्यायालयों में, बही खाते में तथा यत्र तत्र इनके प्रयोग की पराकाष्ठा थी । परन्तु एक किताब ("कल्चर एंड पावर ऑफ़ बनारस ") के अध्ययन के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि किस तरह से इस भाषा के साथ अन्याय हुआ. इस किताब के पृष्ठ संख्या १९० पर ब्रज भाषा के अवसान की व्याख्या के दौरान इस भाषा के अवसान का भी जिक्र है... हुआ कुछ यूँ था की ब्रज भाषा और हिंदी देवनागरी की भाषा को लेकर एक विवाद हुआ था.. हिंदी भाषा के एक बहुत बड़े विद्वान या यूँ कहें कि चैंपियन श्री श्रीधर पाठक और एक सज्जन थे श्री राधा चरण गोस्वामी जी .. ये दोनो हिंदी भाषा को कवियों कि भाषा बनाये जाने पर जोर दे रहे थे, और १९१० के पहले हिंदी साहित्य सम्मलेन में ब्रज भाषा को कोई स्थान नहीं दिया गया जबकि ब्रज भाषा उस वक्त के लेखकों या यूँ कहें कि कवियों की आधिकारिक भाषा बन गयी थी... सोने पे सुहागा तो तब हुआ जब एक साल के बाद हिंदी साहित्य के दूसरे सम्मेलन में श्री बद्री नाथ भट्ट जी ने ब्रज भाषा के लिए अपशब्द का प्रयोग किया.. सिलसिला यही से शुरू होता है... १९१४ में पांचवें हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान प्रख्यात कवि, जो श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के आश्रित थे , उन्होंने ब्रज भाषा का साथ देने वालों को राष्ट्र भाषा हिंदी का दुश्मन करार दे दिया और यहीं से ब्रज भाषा के साथ साथ अन्य लिपियों का भी समापन होने लगा..
बात शुरू हुई थी कैथी पर, तो वापस आते हैं कि कैथी कैसे समाप्त हुई .. एक बंगाली शिक्षाविद थे , और उस दौरान भी लाल सलाम जोरों पर था । उन्होंने देखा कि बिहार में जो किताबें आती हैं वो बनारस से छप कर आती हैं... और यही एक बात थी जो बिहार के कायस्थों को उत्तर प्रदेश के कायस्थों से जोड़ती थी.. (शिक्षा आयोग की रिपोर्ट १८८४ पैराग्राफ ३३४). उन्होंने शिक्षा आयोग को पत्र लिखकर ये बात बताई कि कैथी बिहारी हिन्दुओं की धार्मिक पहचान बनती जा रही है, जो कि हिंदी भाषा के लिए खतरनाक हो सकती है , इसलिए आनन् फानन में हिंदी साहित्य सम्मेलन की नौवीं बैठक बुलाई गयी और काफी विवेचना के बाद ये प्रस्ताव पारित किया ...
"सभा के अनुसार नागरी से अति उत्कृष्ट कोई भाषा नहीं है, और नागरी शब्द ही भारत के लिए उपयुक्त है . इसी कारण से सभा कैथी भाषा के उन्नयन के लिए कोई उत्साह और सहयोग ना करने का निर्णय लेती है ।"
इसे यन. पी. यस. की वार्षिक रिपोर्ट १९२३ के पैराग्राफ १३ और १४ से देखा जा सकता है ..और इस प्रकार कैथी को दरकिनार कर उर्दू को कोर्ट की भाषा बना दी गयी , क्यूंकि उस वक्त की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजो ने एक सर्वे में पाया कि धनी वर्ग के ज्यादातर लोग हिंदी या उर्दू का इस्तेमाल करते है तो उन्होंने इसे ही आधिकारिक भाषा बना दी .. और लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को बाद में अनिवार्य कर दिया...इस प्रकार कायस्थों की प्रचलित भाषा कैथी का अंत हो गया।
***
जानकारी
दुर्घटना-मुआवजा 
*
अगर किसी व्यक्ति की accidental death होती है और वह व्यक्ति पिछले तीन साल से लगातार इनकम टैक्स रिटर्न फ़ाइल कर रहा था तो उसकी पिछले तीन साल की एवरेज सालाना इनकम की दस गुना राशि उस व्यक्ति के परिवार को देने के लिए सरकार बाध्य है ।
आपको आश्चर्य हो रहा होगा यह सुनकर लेकिन यही सरकारी नियम है। उदहारण के तौर पर अगर किसी की सालाना आय क्रमशः पहले दूसरे और तीसरे साल चार लाख पांच लाख और छः लाख है तो उसकी औसत आय पांच लाख का दस गुना मतलब पचास लाख रूपए उस व्यक्ति के परिवार को सरकार से मिलने का हक़ है।
ज़्यादातर जानकारी के अभाव में लोग यह क्लेम सरकार से नहीं लेते हैं ।
जानेवाले की कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता है किंतु पैसा पास में हो तो भविष्य सुचारु रूप से चल सकता है ।
लगातार तीन साल तक रिटर्न दाखिल नहीं किया है तो ऐसे केस में सरकार एक डेढ़ लाख देकर किनारा कर लेती है। लगातार तीन साल तक लगातार रिटर्न फ़ाइल किया गया है तो केस ज़्यादा मजबूत होता है और यह माना जाता है कि मरनेवाला व्यक्ति अपने परिवार का रेगुलर अर्नर था और अगर वह जिन्दा रहता तो अपने परिवार के लिए अगले दस सालो में वर्तमान आय का दस गुना तो कमाता ही जिससे वह अपने परिवार का अच्छी तरह से पालन-पोषण कर पाता ।
सर्विस वाले रेगुलर अर्नर रिटर्न फ़ाइल नहीं करते जिसकी वजह से न तो कंपनी द्वारा काटा हुआ पैसा सरकार से वापस लेते हैं और न ही इस प्रकार से मिलने वाले लाभ का हिस्सा बन पाते हैं। आप अपने वकील से पूरी जानकारी लें और रिटर्न जरूर फ़ाइल करें ।
***
पुरुष विमर्श -
तपस्यारत ऋषि को अल्पसंख्यक वस्त्रों, सौन्दर्य, भाव-भंगिमा से मुग्ध कर तप-च्युत करनेवाली अप्सरा नहीं, ऋषि लांछित होता है। क्यों?
इसी विरासत को ग्रहण कर नग्न प्राय आधुनिकाएँ पुरुष को यौन अपराधों का दोषी ठहराकर अश्लील साहित्य परोसना और अमर्यादित आचरण करना स्त्री विमर्श मान रही हैं.
आप का मत?

सॉनेट
सरस्वती
सरस वती माँ स रसवती
रहें हमेशा ही रस-लीन।
रस-निधि दें, मैं याचक हीन।।
सदय रहें माँ सरस्वती।।
मैया! गाऊँ निश-दिन गान।
कह न सकूँ महिमा तेरी।
करो कृपा अब बिन देरी।।
हो मेरा जीवन रसखान।।
स्वीकारो दंडौत प्रणाम
बन जाएँ सब बिगड़े काम
हो जाए मम नाम अनाम।।
भव-बंधन काटो मैया!
'सलिल' गहे कर की छैंया
शरण मिले पकड़ूँ पैंया।।
१९-१२-२०२२
जबलपुर, १०•३२
९४२५१८३२४४
●●●
सॉनेट
शारदा
*
शारदा माता नमन शत, चित्र गुप्त दिखाइए।
सात स्वर सोपान पर पग सात हमको दे चला।
नाद अनहद सुनाकर, भव सिंधु पार कराइए।।
बिंदु-रेखा-रंग से खेलें हमें लगता भला।।
अजर अक्षर कलम-मसि दे, पटल पर लिखवाइए।
शब्द-सलिला में सकें अवगाह, हों मतिमान हम।
भाव-रस-लय में विलय हों, सत्सृजन करवाइए।।
प्रकृति के अनुकूल जीवन जी सकें, हर सकें तम।।
अस्मिता हो आस मैया, सुष्मिता हो श्वास हर।
हों सकें हम विश्व मानव, राह वह दिखलाइए।
जीव हर संजीव, दे सुख, हों सुखी कम कष्ट कर।।
क्रोध-माया-मोह से माँ! मुक्त कर मुस्काइए।।
साधना हो सफल, आशा पूर्ण, हो संतोष दे।
शांति पाकर शांत हों, आशीष अक्षय कोष दे।।
१९-१२-२०२१
***
सॉनेट
अभियान
*
सृजन सुख पा-दे सकें, सार्थक तभी अभियान है।
मैं व तुम हम हो सके, सार्थक तभी अभियान है।
हाथ खाली थे-रहेंगे, व्यर्थ ही अभिमान है।।
ज्यों की त्यों चादर रखें, सत्कर्म कर अभियान है।।
अरुण सम उजियार कर, हम तम हरें अभियान है।
सत्य-शिव-सुंदर रचें, मन-प्राण से अभियान है।
रहें हम जिज्ञासु हरदम, जग कहे मतिमान है।।
सत्-चित्-आनंद पाएँ, कर सृजन अभियान है।।
प्रीत सागर गीत गागर, तृप्ति दे अभियान है।
छंद नित नव रच सके, मन तृप्त हो अभियान है।
जगत्जननी-जगत्पितु की कृपा ही वरदान है।।
भारती की आरती ही, 'सलिल' गौरव गान है।।
रहे सरला बुद्धि, तरला मति सुखद अभियान है।
संत हो बसंत सा मन, नव सृजन अभियान है।।
१९-१२-२०२१
***
सामयिक दोहे
तीर अगिन तूणीर में, चुना मरो अब झेल।
जो न साथ होगी तुरत, जेल न पाए बेल।।
तंत्र नाथ है लोक का, मालिक सत्ताधीश।
हुआ न होगा फिर कभी, कोई जुमलाधीश।।
छप्पन इंची वक्ष का, झेले वार तमाम।
जन पदच्युत कर दे बता, करना आता काम।।
रोजी छीनी भाव भी, बढ़ा रही है खूब।
देशभक्ति खेती मिटा, सेठ भक्ति में डूब।।
मूरत होगी राम की, सिया न होंगी साथ।
रेप करेंगे विधायक, भगवा थाने हाथ।।
अहंकार की होड़ है, तोड़ सके तो तोड़।
आग लगाता देश में, सत्ता का गठजोड़।।
'सलिल' सियासत है नहीं, तुझको किंचित साध्य।
जन-मन का दुख-दर्द कह, भारत माँ आराध्य।।
१९-१२-२०१९
***
चुटकी गीत
*
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
बरस इस बरस मेघ आ!
नमन करे संसार।
न मन अगर तो नम न हो,
तज मिथ्या आचार।।
एक राह पर चलाचल
कदम न होना भ्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
कह - मत कह आ रात तू ,
खुद आ जाती रात।
बिना निकाले निकलती
सपनों की बारात।।
क्रांति-क्रांति चिल्ला रहे,
खुद भय से आक्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
छंद: दोहा
१९-१२-२०१८
***
चित्रगुप्त-रहस्य
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
*
षट्पदी
श्वास-आस में ग्रह-उपग्रह सा पल-पल पलता नाता हो.
समय, समय से पूर्व, समय पर सच कहकर चेताता हो.
कर्म भाग्य का भाग्य बताये, भाग्य कर्म के साथ रहे-
संगीता के संग आज, कल-कल की बात बताता हो.
जन्मदिवस पर केक न काटें, कभी बुझायें ज्योति नहीं
दीप जला दीवाली कर लें, तिमिर भाग छिप जाता हो
१९-१२-२०१७
***
नव गीत
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
देश एक है हम अनेक
खोया है जाग्रत विवेक
परदेशी के संग लडे
हाथ हमारे रहे जुड़े
कानून कई थे तोड़े
हौसले रहे कब थोड़े?
पाकर माने आज़ादी
भारत माँ थी मुस्कादी
चाह था
शेष न फूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
जब अपना शासन आया
अनुशासन हमें न भाया
जनप्रतिनिधि चाहें सुविधा
जनहित-निजहित में दुविधा
शोषक बन बैठे अफसर
धनपति शोषक हैं अकसर
जन करता है नादानी
कानून तोड़ मनमानी
तुम मानो
हमको छूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
धनतंत्र हुआ है हावी
दलतंत्र करे बरबादी
दमतोड़ रहा जनतंत्र
फल-फूल रहा मनतंत्र
सर्वार्थ रहे क्यों टाल
निज स्वार्थ रहे हैं पाल
टकराकर
खुद से टूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
घात लगाये पडोसी हैं
हम खुद को कहते दोषी हैं
ठप करते संसद खुद हम
खुद को खुद ही देते गम
भूखे मजदूर-किसान
भूले हैं भजन-अजान
निज माथा
खुद ही कूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
कुदरत सचमुच नाराज
ला रही प्रलय गिर गाज
तूफ़ान बवंडर नाश
बिछ रहीं सहस्त्रों लाश
कह रहा समय सम्हलो भी
मिल संग सुपंथ चलो भी
सच्चे हों
शेष न झूठ रहे
१९-१२-२०१५
***
नव गीत:
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
करो नमस्ते
या मुँह फेरो
सुख में भूलो
दुःख में टेरो
अपने सुर में गाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
एक दूसरे
को मारो या
गले लगाओ
हँस मुस्काओ
दर्पण छवि दिखलाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
चाह न मिटना
तो खुद सुधरो
या कोसो जिस-
तिस को ससुरों
अपना राग सुनाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
१९-१२-२०१४
***

सोमवार, 18 दिसंबर 2023

अदम गौड़वी

सॉनेट 
अदम गौड़वी
*
ठाकुर थे न रुची ठकुराई 
देख गरीबी मन रोया था, 
तन सोया; मन कब सोया था, 
तजी निगोड़ी व्यर्थ पढ़ाई। 
ठकुरसुहाती नहीं सुहाई,
गज़लों में युग-सच बोया था,
कभी नहीं ईमां खोया था,
सत्ता की की खूब धुनाई। 
मिली गजल को जुबां अदम से,  
शेर-शेर आईन बन गया, 
कही नंगई लोक राज की। 
कड़वा सच लिख दिया कलम से, 
लाज बचाई लोक-लाज की। 
१८.१२.२०२३ 
***
भारतीयता 
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
*
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए
राजनीति 
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे
स्त्री विमर्श 
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
*
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
*
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
*
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
गजल 
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
शब्द चित्र 
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
*
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
*
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
*
अदम गौड़वी
मूल नाम- रामनाथ सिंह
जन्म : २२ अक्तूबर १९४७, अट्टा ग्राम, परसपुर, गोंडा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु : १८ दिसंबर २०११, संजय गाँधी पोस्टग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस, लखनऊ,
उत्तर प्रदेश 
कृतियाँ : धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़, 
पुरस्कार : मध्य प्रदेश सरकार १९९८, दुष्यंत कुमार पुरस्कार, अवधी / हिंदी योगदान  हेतु शहीद शोभा संस्थान द्वारा माटी रतन सम्मान। 
*
रचनाएँ 
चुनिंदा अश'आर
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
०१
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

सुरा व सुंदरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर
दिल्ली को रंगीलेशाह का हम्माम कर देंगे

ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे

सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
अगली योजना में घूसख़ोरी आम कर देंगे
०२
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे

एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे
०३
भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है
अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साये में है

छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है

बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ
और कश्ती कागजी पतवार के साये में है

हम फ़कीरों की न पूछो मुतमईन वो भी नहीं
जो तुम्हारी गेसुए खमदार के साये में है
०४
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की ,संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.
०५
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
०६
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें

चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया

'अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं'
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया.

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए
१०
घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है

बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है

सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर अहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
११
विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है
बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है

क्रूर नियति ने इसकी किस्‍मत से कैसा खिलवाड़ किया है
मन के पृष्‍ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है

छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्‍वप्निल स्‍मृतियों में सीता का वनवास लिखा है

नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्‍वास लिखा है

लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तनहाई के मरुथल में मधुमास लिखा है

अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्‍य पर विरहदग्‍ध उच्छ्‌वास लिखा है
***


अदम गोंडवी ने हिंदी में कविता लिखी, जो हाशिए की जातियों, दलितों, गरीब लोगों की दुर्दशा को उजागर करती है. उन्होंने हिंदी में कविता लिखी, जो हाशिए की जातियों, दलितों, गरीब लोगों की दुर्दशा को उजागर करती है। एक गरीब किसान परिवार में जन्मे, हालाँकि, उनके पास काफी कृषि योग्य भूमि थी। गोंडवी की कविता सामाजिक टिप्पणी के लिए जानी जाती थी, जो भ्रष्ट राजनेताओं और प्रकृति में क्रांतिकारी विचारों के प्रति घृणा करती थी। समाज के संचालन के लिए संवेदना ज़रूरी शर्त है। भौतिक प्रगति के साथ, हमने सबसे मूल्यवान जो चीज़ खोई है, वह है संवेदनशीलता। व्यवस्था से जोंक की तरह चिपके हुए लोग, आख़िर संवेदनहीन व्यवस्था के प्रति विद्रोह का रुख कैसे अख़्तियार करें? बहुत कम शायर हिंदी गज़ल साहित्य को संवेदना का स्वर देने की कोशिश करते हैं, जिनकी आवाज़ में जड़ व्यवस्था के प्रति विद्रोह का भाव है। उनकी कलम हमेशा आज़ाद रही  जिसने कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाया। एक ऐसा गज़लगो, जिसने ग़ज़ल की दुनिया में दुष्यंत के तेवर को बरकरार रखा। एक ऐसा रचनाकार, जिसकी रचनाएँ नारों में तब्दील हो गईं। 

श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के सुपुत्र अदम का मूल नाम रामनाथ सिंह था। बचपन में वो बीमार रहते थे इस वजह से ज्यादा पढ़ नहीं पाए। वह एक वैद्य के पास 11 साल तक रहे जो कि फारसी के भी विद्वान थे। उन्होंने ही उन्हें 'अदम' नाम दिया क्योंकि वह वंचितों के लिए लड़ते थे। अदम खुद भी अपनी पहचान बदलना चाहते थे और वह ठाकुर रामनाथ सिंह से अदम गोंडवी हो गए। वह बहुत विद्वान थे। मैं उनके साथ भी रहा हूं।वह इतना पढ़ते थे कि देश के सभी विचारकों के अलावा उन्होंने दुनिया के हर विचारक सुकरात, मार्क्स, लेनिन हर किसी को पढ़ा। वह पढ़े-लिखे दृष्टिवान हिंदी कवि थे।एक छोटे से गाँव से निकलकर अदम ने हिंदी गज़लकों की दुनिया में अपना विशिष्ट स्थान बनाया और भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। एक ऐसा कवि जो बौद्धिक विलासिता से दूर किसान, गरीब, मज़दूर, दलित, शोषित और वंचित तबकों की बात करता है। एक ऐसा रचनाकार जिसकी रचनाओं में व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और आक्रोश भी है और अथाह पीड़ा भी। अदम ने कभी भी सत्ता की सरपरस्ती स्वीकार नहीं की। वे लगातार भारतीय समाज में विद्यमान जड़ताओं और राजनीतिक मौकापरस्ती पर प्रहार करते रहे। अदम एकदम खाँटी अंदाज़ में अपने समय और परिवेश के नग्न यथार्थ को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत करते हैं। ज़िंदगी की बेबसी को व्यक्त करते हुए अदम कहते हैं-

‛आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी।’

अदम महिलाओं पर हिंसा और बलात्कार की घटनाओं का बयान बड़ी बेबाकी से करते हैं-

‛चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया।’

अदम हमेशा बेबाकी से सधे हुए लहज़े में अपनी बात रखते हैं। अदम संविधान में किए गए प्रावधानों के बावजूद आधारभूत ज़रूरतों से वंचित वर्ग की स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि-

‛आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको।’

अदम गोंडवी हिंदी ग़ज़ल को शृंगार की परिधि से निकालकर आम जन के जीवन तक ले जाते हैं। ग्रामीण जीवन को एक विशेष पारदर्शी चश्मे से देखने वाले गोंडवी कहते हैं-

‛ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलक़श नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में।’

भुखमरी के दौर में आमजन की ग़रीबी का मज़ाक उड़ाने वाली शानो-शौक़त का सजीव चित्रण करते हुए गोंडवी कहते हैं कि-

‛काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।’

वे ग़रीब अवाम की भूख की बेबसी को बहुत स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं-

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।

गोंडवी राजनीति में विचारधाराओं के घालमेल को भी बखूबी चित्रित करते हुए कहते हैं कि-

‛पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।’

अदम भारतीय राजनीति में ब्रिटिश सत्ता के बचे हुए अवशेषों के आधार पर कहते हैं कि-

‛जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे।’

महंगाई पर तीक्ष्ण व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि-

‛ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे।’

आज की उथली राजनीति पर भी वो मौंजू व्यंग्य करते हैं-

‛एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे।’

अदम गोंडवी जनता को सिर्फ़ व्यवस्था की जकड़न में यथास्थिति में रहने की वकालत नहीं करते बल्कि बगावत का उद्घोष करते हुए कहते हैं-

‛जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में।’

अदम गोंडवी स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय समाज में विद्यमान ऊँच-नीच, भेदभाव और सांप्रदायिकता की समस्या पर मुखर होकर कहते हैं-

‛हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए।

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए।’

अदम गोंडवी आज की नौकरशाही में विद्यमान फीताशाही और पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा का भी बखूबी बयान करते हैं-

‛जो उलझ कर रह गयी हैं फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में।’

गांधी के सपनों के भारत की तस्वीर को धूमिल होता देख अदम बोल पड़ते हैं-

‛देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गए

कल तलक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाज़ार में उनके कलेंडर आ गए।’

गांधीवाद को धूल धूसरित होता देख, अदम सपाट लहज़े में कहते हैं-

‛वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।’

नई पीढ़ी के वर्तमान और भविष्य को लेकर चिंतित अदम पीड़ा के स्वर में बोल पड़ते हैं-

‛आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की।’

अदम गोंडवी सामाजिक दुर्दशा को देखते हुए झूठ लिखना स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं-

‛घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।’

आदम कविताओं में व्यक्त किए गए भाव का कारण भी बताते हैं-

‛याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की।’

आलोचकों का मानना है कि अदम को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह काबिल थे। अदम सत्ता के किसी पद्म सम्मान की परवाह किए बगैर सदैव भारत के आम आवाम की आवाज़ बनते रहे। सत्ता प्रतिष्ठानों और समाज की व्यवस्था को चुनौती देने वाले अदम की रचनाएँ नारों के रूप में तब्दील उनकी रचनाएँ, भारत के अलग-अलग हिस्सों में आज भी गूँजती रहती हैं।

हरेराम 'समीप'- अदम एक ऐसे अदम्य कवि थे, जिन्होंने अन्याय और शोषण के खिलाफ निडर होकर आवाज उठाई। 'अदम' का मतलब है वंचित। यह नाम उन्हें उनके गुरु ने दिया था। बचपन से ही वह क्रांतिकारी थे। उनका एक ही विषय था सामाजिक न्याय । अन्याय के खिलाफ उनके अंदर विद्रोह की आग भरी हुई थी। मनुष्यता का अपमान उन्हें बर्दाश्त नहीं था। वो उत्तर प्रदेश गोंडा से एक ठाकुर परिवार से थे और गरीबों, दलितों, वंचितों पर अत्याचार के खिलाफ उन्होंने अपने ही समुदाय के लोगों का विरोध किया। वहां से लड़ते-लड़ते समाज की लड़ाई और फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की स्थिति पर उन्होंने लड़ाई लड़ी। अन्याय, अपमान, अत्याचार, इन तीन शब्द पर ही उनकी लड़ाई का आधार और विस्तार रहा।

विश्वनाथ त्रिपाठी- ग़ज़ल का रूप विधा संभाल पाना बड़ा मुश्किल काम है। अदम गोंडवी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह हिंदी के कवि थे मगर उन्होंने उर्दू की ग़ज़ल का अनुशासन उसी तरह संभाला है, जिस तरह एक उर्दू का कवि संभालता है। हिंदी का होते हुए ही भी वह उर्दू कवियों जैसी ग़ज़ल करते थे। दूसरा, उन्होंने किसानों, मजदूरों के जीवन पर और शोषितों, वंचितों के दुख और विसंगतियों पर खूब कविताएं लिखीं और इसके लिए उन्होंने अपनी भाषा रची, मुहावरे रचे, अपने बिम्ब रचे। सामंती व्यवस्था, समाज के पाखंड पर उन्होंने सटीक और चुभती हुई कविताएं लिखी हैं।

सॉनेट, नवगीत, सरस्वती, हाइकु, बृज, सरायकी, लघुकथा, दोहा, मुक्तक


सलिल सृजन १८ दिसंबर 
सॉनेट
• 
श्वास-श्वास मोगरे सी महके, 
गुल गुलाब मन मुदित मदिर हो, 
तरुणे तन पंक में कमल हो, 
अगिन आस अमलतास दहके। 
चारु चाह चंपई चपल हो, 
कामना कनेर की कसक हो, 
राह तके रातरानी रह के। 
बरगदी संकल्प जड़ जमाए,
 नीम तले चढ़-उतर गिलहरी,
 सिर नवाए सींच-पूज तुलसी।
 सूर्य रश्मि तोम तम मिटाए, 
गौरैया संग मिल टिटहरी, 
चहके लख प्रीति बेल हुलसी। 
१८-८-२०२३ 
•••
सॉनेट
चित्रगुप्त
*
काया-स्थित ईश का चित्र गुप्त है मीत
अंश बसा हर जीव में आत्मा कर संजीव
चित्र-मूर्ति के बिना हम पूजा करते रीत
ध्यान करें आभास हो वह है करुणासींव
जिसका जैसा कर्म हो; वैसा दे परिणाम
सबल-बली; निर्धन-धनी सब हैं एक समान
जो उसको ध्याए, बनें उसके सारे काम
सही-गलत खुद जाँचिए; घटे न किंचित आन
व्रत पूजा या चढ़ावा; पा हो नहीं प्रसन्न
दंड गलत पाए; सही पुरस्कार का पात्र
जो न भेंट लाए; नहीं वह पछताए विपन्न
अवसर पाने के लिए साध्य योग्यता मात्र
आत्म-शुद्धि हित पूजिए, जाग्रत रखें विवेक
चित्रगुप्त होंगे सदय; काम करें यदि नेक
१८-१२-२०२१
***
***
सॉनेट
सौदागर
*
भास्कर नित्य प्रकाश लुटाता, पंछी गाते गीत मधुर।
उषा जगा, धरा दे आँचल, गगन छाँह देता बिन मोल।
साथ हमेशा रहें दिशाएँ, पवन न दूर रहे पल भर।।
प्रक्षालन अभिषेक आचमन, करें सलिल मौन रस घोल।।
ज्ञान-कर्म इंद्रियाँ न तुझसे, तोल-मोल कुछ करतीं रे।
ममता, लाड़, आस्था, निष्ठा, मानवता का दाम नहीं।
ईश कृपा बिन माँगे सब पर, पल-पल रही बरसती रे।।
संवेदन, अनुभूति, समझ का, बाजारों में काम नहीं।।
क्षुधा-पिपासा हो जब जितनी, पशु-पक्षी उतना खाते।
कर क्रय-विक्रय कभी नहीं वे, सजवाते बाजार हैं।
शीघ्र तृप्त हो शेष और के लिए छोड़कर सुख पाते।।
हम मानव नित बेच-खरीदें, खुद से ही आजार हैं।।
पूछ रहा है ऊपर बैठे, ब्रह्मा नटवर अरु नटनागर।
शारद-रमा-उमा क्यों मानव!, शप्त हुआ बन सौदागर।।
१८-१२-२०२१
***
***
एक दोहा
रौंद रहे कलियों को माली,
गईँ बहारें रूठ।
बगिया रेगिस्तान हो रहीं,
वृक्ष कर दिए ठूँठ।।
***
सरस्वती वंदना
बृज भाषा
*
सुरसती मैया की किरपा बिन, नैया पार करैगो कौन?
बीनाबादिनि के दरसन बिन, भव से कओ तरैगो कौन?
बेद-पुरान सास्त्र की मैया, महिमा तुमरी अपरंपार-
तुम बिन तुमरी संतानन की, बिपदा मातु हरैगो कौन?
*
धरा बरसैगी अमरित की, माँ सारद की जै कहियौ
नेह नरमदा बन जीवन भर, निर्मल हो कै नित बहियौ
किशन कन्हैया तन, मन राधा रास रचइयौ ग्वालन संग
बिना-मुरली बजा मोह जग, प्रेम गोपियन को गहियौ
***
सरायकी हाइकु
*
लिखीज वेंदे
तकदीर दा लेख
मिसीज वेंदे
*
चीक-पुकार
दिल पत्थर दा
पसीज वेंदे
*
रूप सलोना
मेडा होश-हवास
वजीज वेंदे
*
दिल तो दिल
दिल आख़िरकार
बसीज वेंदे
*
कहीं बी जाते
बस वेंदे कहीं बी
लड़ीज वेंदे
*
दिल दी माड़ी
जे ढे अपणै आप
उसारी वेसूं
*
सिर दा बोझ
तमाम धंधे धोके
उसारी वेसूं
*
साड़ी चादर
जितनी उतने पैर
पसारी वेसूं
*
तेरे रस्ते दे
कण्डये पलकें नाल
बुहारी वेसूं
*
रात अँधेरी
बूहे ते दीवा वाल
रखेसी कौन?
*
लिखेसी कौन
रेगिस्तान दे मत्थे
बारिश गीत?
*
खिड़दे हिन्
मौज बहारां फुल्ल
तैडे ख़ुशी दे
*
ज़िंदणी तो हां
पर मौत मिलदी
मंगण नाल
*
मैं सुकरात
कोइ मैं कूं पिलेसी
ज़हर वी न
*
तलवार दे
कत्ल कर दे रहे
नाल आदमी
*
बणेसी कौन
घुँघरू सारंगी तों
लोहे दे तार?
*
कौन करेंसी
नीर-खीर दा फर्क
हंस बगैर?
*
खून चुसेंदी
हे रखसाणी रात
जुल्मी सदियाँ
*
नवी रौशनी
डेखो दे चेहरे तों
घंड लहेसी
*
रब जाण दे
केझीं लाचारी हई?
कुछ न पुच्छो
*
आप छोड़ के
अपणे वतन कूं
रहेसी कौन?
*
खैर-खबर
जिन्हां यार ते पुछ
खुशकिस्मत
*
अलेसी कौन?
कबर दा पत्थर
मैं सुनसान
*
वंडेसी कौन?
वै दा दर्द जित्थां
अपणी पई
*
मरण बाद
याद करेसी कौन
दुनिया बिच?
*
झूठ-सच्च दे
कोइ न जाणे लगे
मुखौटे हिन्
१८-१२-२०१९
***
गीत
*
हम जो कहते
हम जो करते
वही ठीक है मानो
*
जंगल में जनतंत्र तभी
जब तंत्र बन सके राजा।
जन की जान रखे मुट्ठी में
पीट बजाये बाजा।
शिक्षालय हो या कार्यालय
कभी शीश मत तानो
*
लोकतंत्र में जान लोक की
तंत्र जब रुचे ले ले।
जन प्रतिनिधि ऐय्याश लोक की
इज्जत से हँस खेले।
मत विरोध कर रहो समर्पित
सेवा में सुख जानो
*
प्रजा तंत्र में प्रजा सराहे
किस्मत अन्न उगाये।
तंत्र कोठियों में भर बेचे
दो के बीस बनाये।
अफसरशाही की जय बोलो
उन्हें ईश पहचानो
*
गण पर चलती गन को पूजो
भव से तुम्हें उबारे।
धन्य झुपड़िया राजमार्ग हित
प्रभु यदि तोड़ उखाड़े।
फैक्ट्री तान सेठ जी कृषकों
तारें सुयश बखानो
१८-१२-२०१९
***
लघुकथा:
ठण्ड
*
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया।
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया।
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएँ-बाएँ देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड।
१८-१२-२०१८
***
मुक्तक
जग उठ चल बढ़ गिर मत रुक
ठिठक-झिझिक मत, तू मत झुक।
उठ-उठ कर बढ़, मंजिल तक-
'सलिल' सतत चल, कभी न चुक।।
*
नियति का आशीष पाकर 'सलिल' बहता जा रहा है।
धरा मैया की कृपा पा गीत कलकल गा रहा है।।
अतृप्तों को तृप्ति देकर धन्य जीवन कर रहा है-
पातकों को तार कर यह नर्मदा कहला रहा है।।
*
दोहा
जब तक चंद्र प्रकाश दे, जब तक है आकाश।
तब तक उद्यम कर 'सलिल', किंचित हो न निराश।।
१८.१२.१८

***

नवगीत
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
१८. १२. २०१५


***
नवगीत:
बस्ते घर से गए पर
लौट न पाये आज
बसने से पहले हुईं
नष्ट बस्तियाँ आज
.
है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
.
लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
.
ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़
.
***
नवगीत:
पेशावर के नरपिशाच
धिक्कार तुम्हें
.
दिल के टुकड़ों से खेली खूनी होली
शर्मिंदा है शैतानों की भी टोली
बना न सकते हो मस्तिष्क एक भी तुम
मस्तिष्कों पर मारी क्यों तुमने गोली?
लानत जिसने भेज
किया लाचार तुम्हें
.
दहशतगर्दों! जिसने पैदा किया तुम्हें
पाला-पोसा देखे थे सुख के सपने
सोचो तुमने क़र्ज़ कौन सा अदा किया
फ़र्ज़ निभाया क्यों न पूछते हैं अपने?
कहो खुदा को क्या जवाब दोगे जाकर
खला नहीं क्यों करना
अत्याचार तुम्हें?
.
धिक्-धिक् तुमने भू की कोख लजाई है
पैगंबर मजहब रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर
तुमको जननेवाली माँ पछताई है
क्यों भाया है बोलो
हाहाकार तुम्हें?
.

नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
१८.१२.२०१४
.

दोहा दीप्त दिनेश, समीक्षा, नीना उपाध्याय

पुस्तक चर्चा:
कालजयी छंद दोहा का मणिदीप "दोहा दीप्त दिनेश"
चर्चाकार: प्रो. नीना उपाध्याय
*
आदर्शोन्मुखता, उदात्त दार्शनिकता और भारतीय संस्कृति की त्रिवेणी के पावन प्रवाह, सामाजिक जागरण और साहित्यिक सर्जनात्मकता से प्रकाशित मणिदीप की सनातन ज्योति है विश्ववाणी हिंदी संस्थान के तत्वावधान में 'शांति-राज पुस्तक माला' के अंतर्गत आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' और प्रो. साधना वर्मा के कुशल संपादन में समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग ३ "दोहा दीप्त दिनेश।" सलिल जी से अथक प्रयासों के प्रतिफल इस संकलन के रचनाएँ प्रवाही, और संतुलित भाषा के साथ, अनुकूल भाव-भंगिमा को इंगित तथा शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करनेवाली हैं।
'दोहा दीप्त दिनेश' के प्रथम दोहाकार श्री अनिल कुमार मिश्र ने 'मन वातायन खोलिए' में भक्ति तथा अनुराग मिश्रित आध्यात्म तथा वैष्णव व शाक्त परंपरा का सम्यक समावेशन करते हुए आज के मानव की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है-
देवी के मन शिव बसे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम हैं, मानव के मन दाम।।
सगुण-निर्गुण भक्त और संत कवियों की भावधारा को प्रवाहित करते हुए दोहाकार कहता है-
राम-नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल-पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़ मूल।।
दोहा लेखन के पूर्व व्यंग्य तथा ग़ज़ल-लेखन के लिए सम्मानित हो चुके इंजी. अरुण अर्णव खरे 'अब करिए कुछ काम' शीर्षक के अंतर्गत जान सामान्य की व्यथा, आस्था व् भक्ति का ढोंग रचनेवाले महात्माओं व् नेताओं के दोहरे आचरण पर शब्दाघात करते हुए कहते हैं-
राम नाम रखकर करें, रावण जैसे काम।
चाहे राम-रहीम हों, चाहे आसाराम।।
प्रिय-वियोग से त्रस्त प्रिया को बसंत की बहार भी पतझर की तरह प्रतीत हो रही है-
ऋतु बसंत प्रिय दूर तो, मन है बड़ा उदास।
हरसिंगार खिल योन लगे, उदा रहा उपहास।।
दोहा दीप्त दिनेश के तृतीय दोहाकार अविनाश ब्योहार व्यंग्य कविता, नवगीत व् लघुकथा में भी दखल रखते हैं। आपने "खोटे सिक्के चल रहे" शीर्षक के अंतर्गत पाश्चात्य सभ्यता और नगरीकरण के दुष्प्रभाव, पर्व-त्योहारों के आगमन, वर्तमान राजनीति, न्याय-पुलिस व सुरक्षा व्यवस्था पर सफल अभिव्यक्ति की है-
अंधियारे की दौड़ में, गया उजाला छूट।
अंधाधुंध कटाई से, वृक्ष-वृक्ष है ठूँठ।।
न्यायालयों में धर्मग्रंथ गीता की सौगंध का दुरूपयोग देखकर व्यथित अविनाश जी कहते हैं-
गीता की सौगंध का, होता है परिहास।
झूठी कसमें खिलाकर, न्याय करे परिहास।।
हास्य कवि इंजी. इंद्रबहादुर श्रीवास्तव " कौन दूसरा आ गया" शीर्षक के अनतरगत भक्ति रस, ऋतु वर्णन, देश-भक्ति तथा लगातार बढ़ती मँहगाई पर नीति दोहों की तरह सरल-सहज दोहे कहते हैं। देश-रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करनेवाले शहीद परिवार के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हुए कवि कहते हैं-
रक्षा करते वतन की, जो देकर बलिदान।
हम उनके परिवार को, अपनाकर दें मान।।
निरंतर बढ़ती हुई मँहगाई को दोहों के माध्यम से प्रगट करते हुए आप कहते हैं-
मुश्किल से हो पा रहा, अब जीवन-निर्वाह।
मँहगाई आकाश छू, बढ़ा रहे है चाह।।
दोहाकार श्रीमती कांति शुक्ल 'उर्मि' ने "देखे फूल पलाश" शीर्षक से नीति, भक्ति, ऋतु वर्णन तथा श्रम की महत्ता पर सजीव दोहे कहे हैं। जो. तुलसीदास की चौपाई" कलियुग केवल नाम अधारा" के अनुरूप राम-नाम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए वे कहती हैं-
राम-नाम सुख मूल है, अतिशय ललित-ललाम।
सम्मति, शुभ गति, अति प्रियं, सकल लोक अभिराम।।
कवि पद्माकर ने बसंत को ऋतुराज माना है। इस मान्यता से सहमत कांता जी कहती हैं-
धानी आँचल धरा का, उड़ता है स्वच्छंद।
ऋतु बसंत उल्लासमय, लिखती मधुरिम छंद।।
जल संसाधन विभाग से सेवा निवृत्त इंजी. गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ने "छोड़ गुलामी मानसिक" शीर्षक के अंतर्गत वीर रस से ओत-प्रोत दोहे, औद्योगिकीकरण के दुष्परिणाम, भारतीय संस्कृति की विशेषता अनेकता में एकता तथा बेटी को लक्ष्मी के समान, दो कुलों की शान तथा घर की आन बताया है।
समर्पित स्वतंत्रता सत्याग्रही के पुत्र मधुर जी ने स्वातंत्र्य-वीरों को स्मरण करते हुए उन्हें प्रतिमान बताया है-
दीवाने स्वातंत्र्य के, अतुल अमर अवदान।
नमन वीरता-शौर्य को, प्राणदान प्रतिमान।।
विश्व की संस्कृतियों में भारत की संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए अपने कहा है कि-
अनेकता में एकता, इंद्रधनुष से रंग।
है विशिष्टता देश की, देखे दुनिया दंग।।
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' ने "जीवन में आनंद" शीर्षक से विगत नौ दशकों में हुए परिवर्तन और विकास को अपने दोहों के माध्यम से व्यक्त करते हुए शिल्प पर कथ्य को प्राथमिकता दी है। आपके आदर्श ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीर दास जी हैं। सामाजिक समरसता का भाव दोहा में व्यक्त करते हुए विदग्ध जी कहते हैं कि मनुष्य सद्गुणों से ही सम्मान का अधिकारी बनता है, धन से नहीं-
गुणी व्यक्ति का ही सदा, गुणग्राहक संसार।
ऐसे ही चलता रहा, अग-जग-घर-परिवार।।
श्री रामचरित मानस में गो. तुलसीदास प्रभु श्री राम के माध्यम से कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
इस चौपाई के कथ्य की सार्थकता प्रमाणित करते हुए विदग्ध जी कहते हैं-
जिसका मन निर्मल उसे, सुखप्रद यह संसार।
उसे किसी का भय नहीं, सबका मिलता प्यार।।
संकलन के आठवें दोहाकार डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ने जन सामान्य के जन-जीवन की दोहों के माध्यम से सरल सहज अभिव्यक्ति की है। आपके दोहों में कहीं-कहीं व्यंग्य का पुट भी समाहित है। प्रायः देखा जाता है कि बड़े-बड़े अपराधी बच निकलते हैं जबकि नौसिखिये पकड़े जाते हैं। लोकोक्ति है कि हाथी निकल गया, पूँछ अटक गई'। बघेल जी इस विसंगति को दोहे में ढाल कर कहते हैं-
लेते ही पकड़े गए, रिश्वत रुपए पाँच।
पाँच लाख जिसने लिए, उसे न आई आँच।।
आपने अपनी पैनी दृष्टि से सामाजिक व व्यक्तिगत को है व्यंग्य द्वारा दोहों का सजीव सृजन करने का करने का उत्तम प्रयास किया है-
बुध्द यहीं बुद्धू बने, विस्मृत हुआ अशोक।
कलमों ने लीकें रचीं, चलता आया लोक।।
संकलन के नवमें दोहाकार मनोज कुमार 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं। आपके दोहे बाल शिक्षा के लिए उपयोगी होने के साथ-साथ भावी पीढ़ी के दिशा-निर्देश की सामर्थ्य रखते हैं। : मन-विश्वास जगाइए' शीर्षक के अंतर्गत आपने आदिशक्ति की उपासना से दोहों का श्री गणेश किया है। राम चरित मानस की चौपाई 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा, करहिं सो तस फल चाखा' तथा गीता के कर्मयोग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए मनोज जी कहते हैं-
बिना कर्म के व्यर्थ है, इस जग में इंसान।
गीता की वाणी कहे, कर्म बने पहचान।।
गोंडवाना राज्य की रानी वीरांगना दुर्गावती के शौर्य-पराक्रम को आपने वर्णन 'यश कथा' में किया है-
शासन सोलह वर्ष का, रहा प्रजा में हर्ष।
जनगण का सहयोग ले, किया राज्य-उत्कर्ष।।
श्री महातम मिश्रा संकलन के दसवें दोहाकार हैं। आपने खड़ी बोली और भोजपुरी मिश्रित भाषा शैली में ईश भक्ति, प्रकृति, पर्यावरण, भारतीय संस्कृति आदि के साथ ही जीवनानुभवों को दोहों में पिरोने का कार्य किया है। दिन-ब-दिन दूषित होते जाते पर्यावरण को शुद्ध और हरा-भरा बनाये रखने हेतु सचेत करते हुए मिश्र जी कहते हैं-
पर्यावरण सुधार लो, सबकी होगी खैर।
जल जीवन सब जानते, जल से करें न बैर।।
देश में जनसंख्या-वृद्धि के कारण बेरोजगारी तीव्र गति से फ़ैल रही है। उपाधिधारी युवा लघु-कुटीर उद्योग अथवा अन्य उपलब्ध कार्य करना अपनी योग्यता के विरुद्ध मानकर निठल्ले घूम रहे हैं। मिश्र जी कहते हैं-
रोजगार बिन घूमता, डिग्री-धार सपूत।
घूम रहा पगला रहा, जैसे काला भूत।।
संकलन के ग्यारहवें दोहाकार श्री राजकुमार महोबिया ने "नई प्रगति के मंच पर" शीर्षक के माध्यम से भक्ति, श्रृंगार, पर्यावरण आदि पर केंद्रित दोहे रचने का सफल प्रयास कर, सर्वप्रथम सरस्वती जी की आराधना की है-
विद्या-बुद्धि-विवेक का, रहे शीश पर हाथ।
वीणा पुस्तक धारिणी, सदा नवाऊँ माथ।।
पेड़ों को काटकर प्रकृति को पहुँचाई जा रही क्षति युवा राजकुमार को व्यथित करती है-
जंगल-जंगल में गिरी, विस्थापन की गाज।
सागौनों शोर में, कौन सुने आवाज।।
श्री रामलखन सिंह चौहान 'भुक्कड़' जी ने "सम्यक करे विकास जग" शीर्षक से पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक सद्भाव तथा समरसता वृद्धि के दोहों का सफल सृजन किया है। स्वस्थ्य जीवन के लिए आपने खान-पान पर नियंत्रण रखने की बात कही है-
खान-पान के दोष से, बीमारी बिन मोल।
करे अतिथि सत्कार क्यों?, कोल्ड ड्रिंक घोल।।
राजनेताओं के क्रिया-कलापों से परेशान मतदाताओं की व्यथा को आपने दोहों में करते हुए है-
मतदाता हैं सोच में, सौंपे किसे कमान?
जो भी बैठे तख़्त पर, मनमानी ले ठान।।
संकलन के तेरहवें दोहाकार प्रो. विश्वम्भर शुक्ल ने "आनंदित होकर जिए" शीर्षक से भारतीय संस्कृति, वर्तमान राजनीति भक्ति-प्रधान एवं श्रृंगारपरक दोहों की सारगर्भित-सरल-सहज अभिव्यक्ति लयात्मकता और माधुर्य के साथ की है। आपके दोहों में प्रसाद युग की तरह सौंदर्य और कल्पना दोनों का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है-
उगा भाल पर बिंदु सम, शिशु सूरज अरुणाभ।
अब निंदिया की गोद में, रहा कौन सा लाभ।।
हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता को संपूर्ण विश्व की भाषाओँ में अद्वितीय बताते हुए आपने लिखा है-
शब्द ग्रहण साहित्य हो, धनी बढ़े लालित्य।
सकल विश्व में दीप्त हो, हिंदी का आदित्य।।
वर्षा ऋतु के आगमन के साथ जिसमें प्रिय अपने प्रियतम की निरंतर राह देख रही है हुए उसके आने की सूचना पाते ही उसका मन मयूर हो जाता है। संयोग श्रृंगार की उत्तम अभिव्यक्ति का रसानंद अद्भुत है-
लो घिर आए निठुर गहन, ऐसा चढ़ा सुरूर।
प्रिय के पग की चाप सुन, मन हो गया मयूर।।
दोहाकार श्रीमती शशि त्यागी ने "हँसी-ठिठोली ही भली" शीर्षक से नैतिक मूल्यों, कृषि, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ एवं प्रकृति के द्वारा प्रस्तुत किया है। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड की स्मृति में आपने लिखा है-
सदा गवाही रहा, जलियाँवाला बाग़।
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश-धर्म अनुराग।।
पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन हेतु पौधे लगाने का संदेश देते हुए शशि जी को कटते हुए वृक्ष की पीड़ा भी याद आती है-
मानव मन कपटी हुआ, दया न किंचित शेष।
पौध लगाए वृक्ष हो, काटे पीर अशेष।।
ब्रज धाम के सौंदर्य और उसके अधिष्ठाता प्रभु श्री कृष्ण की मधुर मुरली की तान को दोहे द्वारा शशि जी ने सुंदरता से अभिव्यक्त किया है-
श्यामा प्रिय घनश्याम को, ब्रज की शोभा श्याम।
अधर मधुर मुरली धारी, सुने धेनु अविराम।।
संकलन के अंतिम सोपान पर "जीवन नाट्य समान" शीर्षक से दोहाकार श्री संतोष नेमा ने वर्षा ऋतु की प्राकृतिक सुंदरता, गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की वीरता, हिंदी साहित्य में संत कबीरदास के अवदान के साथ ही धर्म-अध्यात्म को अपने दोहों का विषय बनाया है। आपने आज मानव कल्याणकारी और हितकारी बताते हुए कहा-
मानवता का धर्म ही, है कबीर की सीख।
दिखा गए हैं प्रेम-पथ, सबके जैसा दीख।।
भारतीय संस्कृति की नींव संयुक्त परिवार प्रणाली को संस्कार का कोष बताते हुए संतोष जी कहते हैं-
नींव नहीं परिवार बिन, यह जीवन-आधार।
संस्कार का कोष है, सभी सुखों का सार।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' तथा प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के सारस्वत अनुष्ठान 'दोहा शतक मंजूषा' के भाग ३ 'दोहा दीप्त दीनेष में १५ दोहाकारों ने विविध विषयों और प्रसंगों पर अपने चिंतन की दोहा में अभिव्यक्ति की है। भक्ति, अध्यात्म, प्रकृति चित्रण, राष्ट्र-अर्चन, बलिदानियों का वंदन, श्रृंगार, राजनीति, सामयिक समस्याएँ, पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन आदि विषयों को समाहित करते हुए 'दोहा दीप्त दिनेश' के दोहे सहज प्रवाही भाषा और संतुलित भाषाभिव्यक्ति के साथ शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करते हैं।
***
संपर्क: हिंदी विभाग, शासकीय मानकुँवर बाई स्वशासी स्नाकोत्तर महिला महाविद्यालय जबलपुर।

नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ला, समीक्षा

पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
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नवगीत की सृजन यात्रा को इस दशक में वैविध्य और विकास के सोपानों से सतत आगे ले जानेवाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में लखनऊ निवासी निर्मल शुक्ला जी की भूमिका महत्वपूर्ण है। नवगीतकार, नवगीत संपादक, नवगीत प्रकाशक और नव नवगीतकार प्रोत्साहक की चतुर्मुखी भूमिका को दिन-ब-दिन अधिकाधिक सामर्थ्य से मूर्त करते निर्मल जी अपनी मिसाल आप हैं। 'सच कहूँ तो' निर्मल जी के इकतीस जीवंत नवगीतों का बार-बार पठनीय ही नहीं संग्रहणीय, मननीय और विवेचनीय संग्रह भी है। निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं जीते हैं। ''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो
पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी
सारी इबारत
अब गुरु जी
शब्द अब तक
आपने जितने पढ़ाये
याद हैं सब
स्मृति में अब भी
तरोताज़ा
पृष्ठ के संवाद हैं अब
.
सच कहूँ तो
छोड़ आए
हम अँधेरों की बहुत
पीछे इमारत
अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी
शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो
कृत्य की परिकल्पना,
अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित
भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी
हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो
धरणि से
आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच
संस्कृत
चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो
हर किसी के दर्द को
अपना समझना
हो सके तो
एक पल को मान लेना
हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो
साँस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो
उन क्षणों में, एक छोटी
चूक से
बचना-सम्हलना
हो सके तो
एक पल को, कोख की
हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत
हवा के
हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में रचनात्मकता का आव्हान है-
'नदी से जन्मती है
सच कहूँ तो
आज संस्कृतियाँ'
.
नदी के कंठ में कल-कल
उफनती धार में छल-छल
प्रकृति को
बाँटती सुषमा
लुटाती राग वेगों में.
.
अछूती अल्पना देकर
सजाती छरहरे जंगल
प्रवाहों में समाई
सच कहूँ तो
आज विकृतियाँ'.....
...तरंगों में बसी हैं
सच कहूँ तो
स्वस्ति आकृतियाँ...
....सिरा लें, आज चलकर
सच कहूँ तो
हर विसंगतियाँ '
निर्मल जी के नवगीत सत्यजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग
फिर जल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
बादलों की, परत
फिर गल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज
भी खुलकर बजेंगी देख लेना
सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गुनगुनाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, दो बिम्बों, प्रतीकों या विचारों के बीच सेतु बनाते हैं।
उर्दू ग़ज़ल में लम्बे-लम्बे रदीफ़ रखने की चुनौती स्वीकारनेवाले गजलकारों की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज-सज्जा के साथ प्रयोग करने का कौशल रखते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुँचात है कि बारम्बार पुनरावृत्तियों के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समूचा नवगीत इस 'सच कहूँ के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयता में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ - तहँ करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम,
संवेदन के जुगनू हैं
हम से
तम भी थर्राता है
निर्मल जी नवगीत में नए रुझान के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते उनके नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में
नाव कागजी भी
उतराती है
सच कह दूँ तो
रोज सभ्यता
आँख चुराती है...
...ऐसे में तो, जी करता है
सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को
मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
किंतु वेदना संघर्षों की
सिर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो
यहाँ सभ्यता
चीख दबाती है
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दलित-पीड़ित को हौसला देने और दालान-मुक्ति से संघर्ष का संबल बनने का परोक्ष संदेश अंतर्निहित कर पाना है। यह संदेश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है, अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह सुग्राह्य रख पाना निर्मल जी का वैशिष्ट्य है-
इसी समय यदि
समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें
तो,
आगे अच्छे दिन होंगे
यही समय है
सच कह दूँ तो
फिर जीने के
और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित
जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर
समय बाँचकर
समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा
रंग-बिरंगे अंबर होंगे
सच कह दूँ तो
फिर जीने के वासंती
संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल in नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की असाधारण अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है।
नवगीत की बढ़ती लोकप्रियता और तथाकथित प्रगतिशील कविता की लोक विमुखता ने नवगीत के रचनाक्षेत्र में अयाचित हस्तक्षेप और अतिक्रमणों को जन्म दिया है। साम्यवादी चिंतन से प्रभावित लोगों ने नवगीत की लोक संवेदना के मूल में नयी कविता की वैचारिकता होने की, उर्दू ग़ज़ल के पक्षधरों ने नवगीत की सहज-सरस कहन पर ग़ज़ल से आयातित होने की जुमलेबाजी करते हुए नवगीत में पैठ बनने का सफल प्रयास किया है। निर्मल जी ऐसी हास्यास्पद कोशिशों से अप्रभावित रहते हुए नवगीत में अन्तर्निहित पारंपरिक गीतज लयात्मकता, लोकगीतीय अपनत्व तथा गीति-शास्त्रीय छान्दस विरासत का उपयोग कर वैयक्तिक अनुभूतियों को वैचारिक प्रतिबद्धता, अन्तरंग अभिव्यक्ति और रचनात्मक लालित्य के साथ सम्मिश्रित कर सम्यक शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों की ऐसी नवगीत-बगिया बनाते हैं जो रूप-रंग-गंध और आकार का सुरुचिसंपन्न स्वप्न लोक साकार कर देता है। पाठक और श्रोता इस गीत-बगिया में भाव कलियों पर गति-यति भ्रमर तितलियों को लय मधु का पान करते देख सम्मोहित सा रह जाता है। नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे नव हस्ताक्षरों के लिए निर्मल जी के नवगीत संकलन पाठ्य पुस्तकों की तरह हैं जिनसे न्यूनतम शब्दों में अधिकताम अर्थ अभिव्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है।
इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
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