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बुधवार, 13 सितंबर 2023

सुंदरी सवैया, जे पी, श्रीकांत, कुण्डलिया, मुक्तक, दोहा विधान, मुक्तिका

सुंदरी सवैया,
प्रियदर्शिनि के प्रिय दर्शन पा गति-यति-लय-रस नव धार बहेगी।
कर काव्य कामिनी का थामा, वामा गुण गा तब जान बचेगी।।
विधि-हरि-हर त्रय है मुश्किल में, नारद जिह्वा क्या कथा कहेगी।
रस हरष बरस जस कथा कहे या अपजस सुन निज दृष्टि झुकेगी।।
१३-९-२०२३ 
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हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका)
*
परदेशी भाषा रुचे, जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा, कैसा अद्भुत नूर
*
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
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हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
उन्नत पिंगल व्याकरण, छंद निहित भरपूर
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अंग्रेजी-उर्दू नशा, करते मिले हुजूर
हिंदी-रोटी खा रहे, सत्य नहीं मंजूर
*
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर
कल्प वृक्ष पिंगल रहे, नित्य कलम ले झूर
*
छंद - दोहा
१३-९-२०१९
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कृति चर्चा-
'ओझल रहे उजाले' चुप्पियों के गाँव में सरस नवगीतों की छाँव
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: ओझल रहे उजाले, नवगीत, विजय बागरी, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १५१, आकार १४ से. x २१ से., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, मूल्य २५०/-, उद्भावना प्रकाशन एच ५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजिअबाद चलभाष ९८११५८२९०२, रचनाकार संपर्क: कछारगाँव बड़ा, कटनी, ४८३३३४, चलभाष ०९६६९२५१३१९, समीक्षक संपर्क: ४०१, विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ / ७९९५५५९६१८]
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नवगीत हिंदी गीतिकाव्य ही नहीं सकल हिंदी साहित्य की वह विधा है जो जन-मन से और जिससे जन-मन अभिन्न है। नवगीती कचनार की गझिन शाखाओं में दिन-ब-दिन गहरे सुर्ख फूलों को खिलते देखना सगोत्री विस्तार से मिलनेवाले सुख या 'गूँगे के गुड़' की तरह है। नर्मदांचल के बुंदेलखंड क्षेत्र में नवगीत की क्यारी में सृजन के पौधे रोपने निरंतर रोपने में सर्व श्री विनोद निगम, राम सेंगर, भोलानाथ, आचार्य भगवत दुबे, गिरिमोहन गुरु, जंगबहादुर श्रीवास्तव, जयप्रकाश श्रीवास्तव, राजा अवस्थी, आनंद तिवारी, रामकिशोर दाहिया आदि उल्लेखनीय हैं। यत्किंचित योगदान मुझ अकिंचन का भी रहा है। इस क्रम में अनुजवत विजय बागरी का जुड़ाव स्वागतेय है। शीघ्र ही सर्वश्री बसंत शर्मा, अरुण अर्णव खरे, सुरेश तन्मय, राजकुमार महोबिया तथा अविनाश ब्योहार की उपस्थिति दर्ज होनी है। नवगीत उद्यान में निरंतर नए पुष्प खिलते रहें और अपनी सुवास बिखेरते रहें इस हेतु विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर सतत प्रयासरत है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', स्व. श्याम श्रीवास्तव, श्री यतीन्द्र नाथ 'राही', श्री कृष्णकुमार 'पथिक', श्री शिव कुमार 'अर्चन' तथा कुछ अन्य गीतकारों के रचना संसार में कई रचनाएँ नवगीत और गीत की परिधि पर हैं किंतु नवगीतों में विशिष्ट विचारधारा और शब्दावली के प्रति आग्रह से असहमति ने इन्हें नवगीत से दूर ही रखा। इस कारण इन श्रेष्ठ रचनाकारों को नवगीत के आँगन में अपनी वाणी सुनाने का अवसर न मिला तो नवगीत भी इनकी उपस्थिति से गौरवान्वित होने के क्षण न पा सका। गीत और नवगीत को पिता-पुत्र की तरह परिभाषित किये जाने और पिता का प्रवेश पुत्र के आँगन में वर्जित बतानेवालों ने अपनी अहं तुष्टि भले ही कर ली हो, नवगीत की हानि होने को नहीं रोक सके। गीत के मरने का मिथ्यानुमान कर गर्व के हिमालय पर जा खड़ी हुई प्रगतिवादी कविता को फिसलने में देर न लगी। 'नानक नन्हें यों रही जैसी नन्हीं दूब' और 'प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर' को जी रहा गीत नव वस्त्र धारण कर 'नव' विशेषण से अभिषिक्त होकर पुन: लहलहा रहा है। अब नवगीत के वैचारिक पक्ष को प्रगतिवादी कविता से व्युत्पन्न, छांदसिकता को उर्दू ग़ज़ल से आयातित, गेयता को पारंपरिक गीत की देन और लोकगीतों को प्रतिरोधी बताने की दुरभिसंधि नवगीत को उसकी अपनी जमीन से दूर कर उसके प्रासाद में सेंध लगाने का तथाकथित प्रगतिवादी विचारधारा प्रणीत कुत्सित प्रयास है। वरिष्ठ नवगीतकार हर खेमे में अपनी पूछ-परख का ध्यान रखते हुए भले ही मौन रहें किंतु विजय बागरी जैसे कलमकार जो नवगीत को गीत का वारिस मानते हुए दोनों को अभिन्न देखते, मानते और साँस-साँस में जीते हैं, अपनी रचनाओं से प्रमाणित करते हैं कि नवगीत वैचारिकता अपने समय को जीते हुए गीत से, गेयता पग-पग, डग-डग हर दिन गुनगुन करते लोकगीत से ग्रहण करता है। नवगीत छंद को कथ्य, लय और शैली के समायोजन से आवश्यकतानुसार बनाता-अपनाता है। इसीलिये नवगीत पारंपरिक छंदों के समान्तर विविध छंदों का सम्मिश्रण भी मुखड़े और अंतरे में स्वाभाविकता, सहजता और अधिकारपूर्वक कर पाता है।
विजय बागरी का वैशिष्ट्य अपने परिवेश, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील होना है। उनकी गीति रचनाएँ कपोल कल्पना से दूर स्वभोगे अथवा अन्यों द्वारा भोगे हुए को साक्षी भाव से ग्रहण किये गए अनुभवों से नि:सृत हैं। विजय ग्राम्य और नागर दोनों अंचलों से जुड़े हैं इसलिए उनकी दृष्टि के सामने सृष्टि का व्यापक रूप अपनी छटा बिखेरता है। वे पूंजी द्वारा श्रम का शोषण होते देखकर चुप न रहकर अपनी कलम से शब्द-वार करते हैं-
आँखों में घड़ियाली आँसू
बगुले करते जाप।
रंग बदलते-
गिरगिट देखे ,
आसमान में साँप।
चमक-दमक,
कीकर की लगती,
जैसे हो सागौन।
.
मौसम गुंडा-
गर्दी करता
आदमखोर हवाएँ।
संवेदन की लाशें ढोतीं
कपटी शोकसभाएँ।
श्रम सीकर के
हरे घाव पर
लेपन करते लौन।
विजय का युवा मन समस्याओं को सुलझाने की प्रयास करता है और समाधान के रास्तों पर अवरोधों को देखकर कुंठित नहीं होता, वह व्यवस्था परिवर्तन का उद्देश्य लेकर कमियों को निडरता से इंगित करता है-
समाधान के दरवाज़े पर
लटक रहे हैं ताले।
.
जिरह पेशियाँ, कूट दलीलें
ढोती रोज कचहरी।
कैद फाइलों की कारा में,
अर्जी गूँगी-बहरी।
छद्म गवाही देनेवाले
गुंडे डेरा डाले।
.
सजी वकीलों की दूकानें
प्रतिष्ठान पंडों के।
बड़े-बड़े दफ्तर फरेब के
लहराते झंडों के।
मुंशी चपरासी लगते हैं
जैसे जीजा-साले।
जीवन के दरवाजे पर ताले लटकने के साथ-साथ दफ्तर की खिड़की भी बंद हो तो स्थिति बद से बदतर और गंभीर हो जाती है-
जीवन के
दफ़्तर की खिड़की
कब से नहीं खुली।
हठधर्मी के
ताले लटके,
सदियाँ बीत गईं।
मनुहारें करतीं
आँखों की
झीलें रीत गईं।
खुसुर-फुसुर
कर रहीं कुर्सियाँ,
मेजें मिलीं-जुलीं।
.
दीवारों पर
शीश पटकती,
मन की उथल-पुथल।
संदूकों में
बंद अपीलें,
कुंठित अगल-बगल।
टूट रही
बूढ़ी साँसों की,
हिम्मत नपी-तुली।
तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के बावजूद ज़िंदगी दर्द का दस्तावेज मात्र नहीं है, उसमें अन्तर्निहित आनंद की अनुभूतियाँ उसे जीने योग्य बनाये रखती हैं। विजय इस जीवनानंद को नवगीत का अलंकार बनाते हैं-
एक बदरिया
अँगना उतरी
छानी मार रही किलकारी।
.
कोयल मंगल-
गान सुनाती,
अमराई में रास रचाती।
चौमासे की-
शगुन पत्रिका
बाँच रही पुरवा लहराती।
बट-पीपर
आलिंगन करते,
पाँव-पखार रही फुलवारी।
.
भींज रही
पनघट पे गोरी,
उर अनुरागी चाँद-चकोरी।
ताँक-झाँक
कर रही बिजुरिया,
नैन मटक्का चोरा-चोरी।
बहुत दिनों के-
बाद दिखी हैं,
धरती की आँखें कजरारी।
रस को नवगीत का प्राणतत्व माननेवाले विजय नीरसता को किनारे कर सरसता की गगरी नवगीतों की पंक्ति-पंक्ति में उड़ेलने की सामर्थ्य रखते हैं-
मेरे गीत,
तुम्हारे मन की-
गलियों से जब गुजर रहे थे।
कर सोलह-
श्रृंगार सुहाने,
सपन सलोने सँवर रहे थे।
अधर-अधर-
दोहा चौपाई,
नज़र-नज़र कुण्डलिया रागी।
धड़कन-धड़कन
राग बसंती,
कल्याणी कविता अनुरागी।
.
कंठ-कंठ से
कलकंठी के,
सरगम के स्वर उतर रहे थे।
विजय के नवगीतों में मौलिक बिंबों की छटा देखते ही बनती है-
सूरज की
बूढ़ी आँखों में,
गहन मोतियाबिंद हुआ.
खेल रही है
धवल चाँदनी,
अँधियारे के साथ जुआ।
भिनसारे का
कुटिल कुहासा,
धुआँधार तेजाबी है।
मलय पवन
के, नैंन नशीले,
अटपट चाल शराबी है।
मौसम की
मादक नीयत से,
टपक रहा जैसे महुआ।
आधुनिक समाज में छद्म मुखौटा लगाने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि खाने से अधिक फेंकनेवाले भुखमरी पर पोथियाँ भरे जा रहे हैं जबकि भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया गया आम जन तमाम अभावों से घिरा हुआ होकर भी पर्व-त्यौहार का आनंद ले-दे पाता है। विजय 'आजकल / कितनी विकल है / सभ्यता की नव सदी' 'लिख रहा / इतिहास गोया / रुग्णता की नव सदी' और 'हो रही / पत्थर ह्रदय / स्वच्छंदता की नव सदी' लिखकर विसंगतियाँ मात्र उद्घाटित नहीं करते अपितु 'कब पुजेगी / उल्लसित / उत्कृष्टता की नव सदी' लिखकर मुखौटों को उतारकर अकृत्रिमता की प्रतिष्ठा किये जाने का आव्हान भी करते हैं
नवगीत में मैंने अपने नाम या उपनाम का प्रयोग उनके शब्दकोशीय अर्थ में किया है। 'चुप्पियों के गाँव में' शीर्षक नवगीत में विसंगतियों को उद्घाटित करने के साथ विजय ने भी अपने नाम / उपनाम का प्रयोग अंतिम पंक्ति में किया है। कवि के नाम या उपनाम को रचना में प्रयोग करने की यह परंपरा लोकगीतों तथा भक्ति काव्य से होते हुए उर्दू ग़ज़ल में 'तखल्लुस' के रूप में अपनी गयी।
थरथराते
मौसमी मनुहार के,
गीत घायल
चुप्पियों के गाँव में।
चूम रहे काँटे,
अंधेरों के कुटिल,
दिन दहाड़े, रौशनी के पाँव में।
ऋतुमती पछुआ
हवा-आसक्त उर,
सिद्धपीठों के पुजारी हो गए....
.... सभ्यता के
आचरण बगुलामुखी,
संस्कारों के शिकारी हो गए।
राजमहलों के
उजाले भी 'विजय'
आजकल षड्यंत्रकारी हो गए।
विजय के इन नवगीतों की भाषा बुंदेलखंड के कस्बों में प्रयुक्त हो रही आम बोलचाल की भाषा है। आधुनिक हिंदी का शुद्ध स्वरूप इनमें दृष्टव्य है। यह भाषा खड़ी हिंदी, बुंदेली, संस्कृत, देशज, उर्दू तथा अंगरेजी शब्दों के यथावश्यक शब्दों के मेल-जोल से बनाती है जिसमें व्याकरणिक नियम हिंदी के प्रयोग किये जाते हैं। विजय ने अंगरेजी शब्दों का प्रयोग (अपवाद नैट-चैट, टी. वी., मोबाइल) नहीं किया है। यह उनका वैशिष्ट्य है। संस्कृत निष्ठ शब्दों में स्वच्छंद, उद्घोष, निर्वासन, उल्लसित, कुम्भज, उदधि, गन्तव्य, मर्माहत, अहर्निश, विहंगम, अगोचर, अविरल, अभ्युत्थान, प्रहर्षित, हेमवर्णी, अंतर्व्यथा, निदाघ, नयनोदक, स्वस्तिवाचन, अंतर्तिमिर, शब्दातीत, तमासावृत्त, संसृति, प्रभंजन, संकल्पनाएं, प्रक्षालित, प्रनिपतों, पुलकावली, वल्लरियाँ आदि से देशज बुन्देली शब्द अवां, होरा, चौमासा, खुसुर-फुसुर, भिनसारा, बतकहाव, बदरिया, भींज, बिजुरिया, बखर, माटी, नेंगचार, बूंदाबारी, चिरैया, बिलोना, कुठारी, भिनसारे, पहरुए, बिछुआ, दुपहरिया, टकोरे, छतनारी, परपंच, लगैया, को है, समुहानी, सपन, बौराने, ठकुरसुहाती, कमरिया, ओसारे, गठरिया, धुंधुवाती, नदिया, राम रसोई, चौंतरा, रामजुहारें आदि गले मिलते हुए कथ्य को सरस और ह्रदयग्राही बनाते हैं। उर्दू शब्द इम्तिहान, दफ्तर, नजरें, ज़हर, दुआ-सलाम, वक्त, सैलाब, परवाज़, रौशनी, ज़िंदगी, गर्द-गुबार, तेजाबी, नुक्ताचीनी, सरेआम, मशहूर, पनाह, नागवार, दस्तूर, सबक, मगरूर, गुस्ताखी, बगावत, अदावत, मासूम, निशाना, दिल, अरमानों, नासूर, जिगर, गाफिल, सिरफिरे, मातमपुरसी, नफरत, फ़कीर, तस्वीर, दागी, महबूब, बड़ा, मुनादी, अहसासों, हुकूमत, पर्दाफाश, फरेबी, हलाकान, मगरूर, तहकीकातों, तबाही, सवालों, बाज़ार, आबरू, तनहाइयों, शोखियाँ वगैरह हमारी गंगो-जमुनी विरासत को आगे बढ़ाते हैं।
इस कृति के गीतों-नवगीतों में हिंदी के व्याकरण नियमों का पालन उचित ही किया गया है। उर्दू शब्दों के बहुवचन हिंदी व्याकरण के अनुसार हैं। जैसे- नजरें, अरमानों, अहसासों, तहकीकातों, सवालों, शोखियाँ आदि। कथ्य की सरसता में जन की जुबान पर चढ़े मुहावरों यथा- छाती पर होरा भूंजना, नैन मटक्का, घर का भेदी लंका ढाए, ठिकाने लगाना, जंगल में मंगल आदि वृद्धि की है।
इस दशक के नवगीतकारों की भाषा शैली में में पूर्ववर्तियों की तुलना में दो नए रुझान बहुलता से शब्द-युग्मों का प्रयोग तथा शब्दावृत्तियों का प्रयोग देखने में आ रहे हैं। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में मैंने शब्द-युग्मों तथा शब्दवृत्ति के प्रयोग किए हैं। इससे कथ्य के भाषिक-प्रवाह, लयात्मकता, सरसता तथा लोकरंजकता में वृद्धि होती है। विजय के नवगीत भी इन रुझानों से युक्त हैं। इस कृति में प्रयोग किये गए शब्द युग्मों में कुछ पारंपरिक किंतु अनेक सर्वथा नवीन हैं। मन-मतंग, हरा-भरा, धूल-धूसरित, सावन-भादों, दीन-हीन, खेतों-खलिहानों, राग-द्वेष, मान-मनौती, बाहर-भीतर, उथल-पुथल, सज-धज, पल-छिन, साँझ-सकारे, मेल-मुलाकातें, व्यथा-कथा, खेत-खलिहान, घाट-प्रतिघात, नेट-चैट, राम-रसोई, सुचिता-सच्चाई, रात-दिन, देह-पिंजरे, प्राण-पंछी, सुर-टाल, उमड़-घुमड़, दादुर-चातक, लपक-झपक, शब्द-अर्थ, लोक-लाज, हेल-मेल, रंग-बिरंगी, माया-मृग, मन-गन, तर्क-वितर्क, खंडन-मंडन, खेल-खिलौने, धरती-अम्बर, चाँद-सितारों, नदिया, पनघट, भूख-प्यास, चाँद-चकोरी, ताक-झाँक, चोरा-चोरी, मेघ-मल्हार, काल-कवलित, संगी-साथी, कुटुम-कबीले, पल-छिन, हरी-भारी, कोर-किनारे, हँसी-ठहाके, ठौर-ठिकाने, मन-मधुबन, सोलह-श्रृंगार, सपन-सलोने, दोहा-चौपाई, दुखी-निराश, सरित-सरोवर, उमड़-घुमड़, दर्द-पीर, वयः-कथा, गुना-भाग, रिश्ते-नातों, हर्ष-उल्लास, गर्द-गुबार, पुष्कर-पुण्डरीक, तुलसी-चौरे, विषय-वासना, नून-तेल, माखन-मिसरी, धक्का-मुक्की, भीड़-भाद, हाथा-पाई, ताना-बना, लुटे-पिटे, सृष्टि-दृष्टि, संत-कंत, गीत-प्रीत, नेह-गह, हेल-मेल, भूखी-प्यासी, हेरा-फेरी, जोड़-घटना, ज्ञान-ध्यान, पूजा निष्ठा, मन-मंदिर, रंग-भंग, छल-छंद, कुआँ-बावली, लू-लपट, भूखी-प्यासी, तट-तरुवर, मथुरा-काशी, माघ-पूस, जोगन-बैरागन, नाप-तौल, हँसी-खुशी, चाल-चलन, सुख-शांति, चाँद-तारे, घात-प्रतिघात, महकी-चहकी, कपट-कौशल, माघ-पूस, खात-बिछौना, छल-बल, संझा-बाती, गाँव-शहर, दावानल-पतझर, हानि-लाभ, सुख-दुःख, चहल-पहल, भूल-भूलैंया, नोंक-झोंक, रुदन-मुस्कान, छल-छंद-चतुरी, वर्ष-मास-दिन, सत्यं-शिवं-सुन्दरं आदि-आदि शब्द युग्म कथ्य की अर्थवत्ता तथा वाचिक सौन्दर्य की वृद्धि कर रहे हैं।
यह कृति शब्दावृत्तियों के प्रयोग की दृष्टि से भी समृद्ध है। शब्दावृत्ति से आशय किसी शब्द के दो बार प्रयोग करने से है। ऐसा कथ्य पर अतिरिक्त जोर देने के लिए किया जाता है। इससे उत्पन्न पुनरावृत्ति अलंकार भाषिक तथा वाचिक सौन्दर्य वर्धक होता है। विजय ने अधर-अधर, नज़र-नज़र, धड़कन-धड़कन, कंठ-कंठ, लहर-लहर, अंग-अंग, छंद-छंद, रोम-रोम, किरण-किरण, अंग-अंग, गात-गात, कण-कण, पात-पात, पोर-पोर, पनघट-पनघट, धड़कन-धड़कन, पोर-पोर, फूंक-फूंक, लहर-लहर, घाट-घाट, कली-कली, दर-दर, धार-धार, लौट-लौट, पल-पल, चुपके-चुपके, रात-रात, करवट-करवट, शब्द-शब्द, उलट-उलट, अभी-अभी, जनम-जनम, सहते-सहते, कदम-कदम, कहीं-कहीं, किराचा-किराचा, सर-सर, पोर-पोर, जन-जन, चेहरे-चेहरे, तौबा-तौबा, प्रश्न-प्रशन, अक्षर-अक्षर, क्रंदन-क्रंदन, सींच-सींच, कुहू-कुहू, चुपके-चुपके, बूँद-बूँद, घाट-घाट, तिनका-तिनका, गली-गली, घर-घर, ऊँचे-ऊँचे, रिमझिम-रिमझिम, पोर-पोर, मंद-मंद, पट्टा-पट्टा, क्या-क्या, कभी-कभी, चूर-चूर, कण-कण, सांय-सांय, माखन-मिसरी, चाल-चरित्र आदि शब्दावृत्तियों का सार्थक-सटीक प्रयोग कर गीति रचनाओं को अर्थवत्ता प्रदान की है।
युवा नवगीतकार अपने परिवेश और पर्यावरण के प्रति सचेत है। नवगीतों में वट, पीपल, अमराई, कचनार, केतकी, सरसों, हरसिंगार, पलाश, मोगरा, मंजरियाँ, फुलवारी आदि अपनी सुषमा यथास्थान बिखेर रहे हैं। कोयल, चिरैया, मैना, दादुर, चातक, बैल आदि पात्र ग्राम्यांचली परिवेश को जीवंत कर रहे हैं। यह नवगीतकार अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य के बाल पर कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की पारंपरिक विरासत को सम्हाल सका है। पंख थकावट ओढ़े / बैठे, परवाजें संकट में पारिस्थिक विवशता, धूप पसीना पोंछ रही में विरोधाभास, चटनी-रोटी / खाते-खाते गयी ज़िंदगी ऊब में निराशा, बीजों से / जब अंकुर फूटे /खेतों ने श्रृंगार किया तथा उम्मीदों की / खोल खिड़कियाँ / मुखरित हुईं मचाने में आशावाद, उठ भिनसारे / विहग-स्वरों ने / गीतों का गुंजार किया तथा छलक उठे प्यासे अधरों से / प्रीति पेय, नवगीत तुम्हारे में श्रृंगार, रौशनी के तामसी / बरताव पर, मैं चुप रहूँ में दुविधा, नेताओं के / बतकहाव से / झरने लगे बताशे में राजनैतिक हलचल, हेरा-फेरी / के चक्कर में / चोरों के सरदार में सामाजिक वातावरण, खोटे सिक्के / चाल-चलन से / हुए बहुत मगरूर में सटीक बिम्बात्मकता, बेशर्मी की / मोटी खालें / सत्ता का दस्तूर में शासन के प्रति घटती जनास्था, वक्त छोड़कर / चला गया कुछ / तहकीकातें नयी-नयी में राजनैतिक भ्रष्टाचार, रात काटती / जलती बीडी / टूटा छप्पर, टाट-बिछौना में ग्रामीण विपन्नता, रोज दिहाड़ी / मारी जाती / सरे-आम छल-बल से में श्रमिक शोषण, चले शहर की / ओर गाँव की / पगडंडी के पाँव में ग्रामीण पलायन, कहीं-कहीं / छल-छंद-चातुरी / भला करे भगवान् में पारंपरिक भाग्यवादिता, दहक रही है / अंगारों में / मधुमासी तरुणाई में युवाओं के समक्ष उपस्थित विषम परिस्थितियाँ, बदल रही / चिन्तन की भाषा / मूल्यों का अनुवाद में सतत बदलते मूल्य, कितनी बरसातों / ने आकर / पूछा कभी हिसाब में प्रकृति की उदारता, नैट-चैट / टी. वी., मोबाइल / का जूनून, लादे सर पर / राम-रसोई / अंतर्पुर तक / विज्ञापन की गिद्ध नज़र में हावी होता बाजारवाद, उमड़-घुमड़ / कर बदरा छाए / नाचन लागे मोर में ऋतु-परिवर्तन, बंदनवार / सजें गीतों के / आभूषित अनुप्रास से में लोक की उत्सवधर्मिता, ज़िंदगी ही/ जिंदगी का / आखिरी पैगाम में जिजीविषा शब्दित होकर पाठक को रचनाओं से एकात्मकता स्थापित करने में सहायक है।
'चुप्पियों के गाँव में' समय-साक्षी गीति-रचनाओं (गीत-नवगीत) का गुलदस्ता है जिसमें नाना प्रकार के पुष्प अपने रूप, रंग, सुरभि की नैसर्गिक छटा से पाठक को मंत्र-मुग्ध कर जीवन की विषमताओं के चक्रव्यूह से उपजी पीड़ा और दर्द के संत्रास को सहने, उससे बाहर निकलने के आस्था-दीप को जलाये रखने तथा अभिमन्यु की तरह जूझने की प्रेरणा देता है। नर्मदांचली लोक जीवन की सहज-सरस बानगी समेटे गीत-पंक्तियों से स्वस्थ्य जन-मन-रंजन करने की दिशा में कलम चलाता युवा रचनाकार अपनी भाषिक सामर्थ्य, शैल्पिक कौशल, छान्दस नैपुण्य तथा अभिव्यक्ति क्षमता से अपने उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। मुझे भरोसा है कि यह कृति वरिष्ठों से शुभाशीष, हमउम्रों से समर्थन और कनिष्ठों से सम्मान पाकर विजय की कलम से नयी नवगीत संकलनों के प्रागट्य की आधार शिला बनेगी।
१३-९-२०१८
***
दोहा लेखन विधान
१. दोहा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं कथ्य व लय। कथ्य को सर्वोत्तम रूप में प्रस्तुत करने के लिए ही विधा (गद्य-पद्य, छंद आदि) का चयन किया जाता है। कथ्य को 'लय' में प्रस्तुत किया जाने पर 'लय' के अनुसार छंद-निर्धारण होता है। छंद-लेखन हेतु विधान से सहायता मिलती है। रस, अलंकार, बिंब, प्रतीक, मिथक आदि लालित्यवर्धन हेतु है। कथ्य, लय व विधान से न्याय जरूरी है।
२. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
३. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। सामान्यत: प्रथम चरण में कथ्य का उद्भव, द्वितीय-तृतीय चरण में विस्तार तथा चतुर्थ चरण में उत्कर्ष या समाहार होता है।
४. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
५. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है। पदारंभ में 'इसीलिए' वर्जित, 'इसी लिए' मान्य।
६. विषम चरणांत में 'सरन' तथा सम चरणांत में 'जात' से लय साधना सरल होता है है किंतु अन्य गण-संयोग वर्जित नहीं हैं।
७. विषम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण मेंकल-बाँट ३ ३ २ ३ २ तथा सम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में में कल बाँट ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों की कल-बाँट ४ ४.३ या ३३ ३ २ ३ होने पर लय सहजता से सध सकती है। अन्य कल बाँट वर्जित नहीं है।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी के व्याकरण तथा मात्रा गणना नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
९. आधुनिक हिंदी / खड़ी बोली में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज / आंचलिक क्रिया-रूपों का उपयोग न करें किन्तु अन्य उपयुक्त आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का यथासंभव शुद्ध-सरल रूप व्यवहार में लाएँ।
१०. श्रेष्ठ दोहे में अर्थवत्ता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता, सरलता व सरसता हो।
११. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथासंभव न करें। औ', ना, इक वर्जित, अरु, न, एक सही।
१२. दोहे में यथासंभव अनावश्यक शब्द का प्रयोग न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१५. दोहा सम तुकांती छंद है। सम चरण के अंत में सामान्यत: वार्णिक समान तुक आवश्यक है। संगीत की बंदिशों, श्लोकों आदि में मात्रिक समान्त्तता भी राखी जाती रही है।
१६. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। लयभिन्नता स्वीकार्य है लयभंगता नहीं।
*
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें।
१३-९-२०१७
***
समस्या पूर्ति
किसी अधर पर नहीं
*
किसी अधर पर नहीं शिवा -शिव की महिमा है
हरिश्चन्द्र की शेष न किंचित भी गरिमा है
विश्वनाथ सुनते अजान नित मन को मारे
सीढ़ी , सांड़, रांड़ काशी में, नहीं क्षमा है
*
किसी अधर पर नहीं शेष है राम नाम अब
राजनीति हैं खूब, नहीं मन में प्रणाम अब
अवध सत्य का वध कर सीता को भेजे वन
जान न पाया नेताजी को, हैं अनाम अब
*
किसी अधर पर नहीं मिले मुस्कान सुहानी
किसी डगर पर नहीं किशन या राधा रानी
नन्द-यशोदा, विदुर-सुदामा कहीं न मिलते
कंस हर जगह मुश्किल उनसे जान बचानी
*
किसी अधर पर नहीं प्रशंसा शेष की
इसकी, उसकी निंदा ही हो रही न किसकी
दलदल मचा रहे हैं दल, संसद में जब-तब
हुआ उपेक्षित सुनता कोई न सिसकी
*
किसी अधर पर नहीं सोहती हिंदी भाषा
गलत बोलते अंग्रेजी, खुद बने तमाशा
माँ को भूले। पैर पत्नी के दबा रहे हैं
जिनके सर पर है उधार उनसे क्या आशा?
*
किसी अधर पर नहीं परिश्रम-प्रति लगाव है
आसमान पर मँहगाई सँग चढ़े भाव हैं
टैक्स बढ़ा सरकारें लूट रहीं जनता को
दुष्कर होता जाता अब करना निभाव है
*
किसी अधर पर नहीं शेष अब जन-गण-मन है
स्त्री हो या पुरुष रह गया केवल तन है
माध्यम जन को कठिन हुआ है जीना-मरना
नेता-अभिनेता-अफसर का हुआ वतन है
*
क्षणिका
*
इसने दी
ईद की बधाई।
भाग, जिबह कर देगा
बकरे की आवाज़ आई।
***
मैं
न खुद को जान पाया
आज तक।
अजाना भी हूँ नहीं
मैं
सत्य कहता।
***
मुक्तक
*
काश! कभी हम भी सुधीर हो पाते
संघर्षों में जीवन-जय गुंजाते
गगन नापते, बूझ दिशा अनबूझी
लौट नीड पर ग़ज़लें-नगमे गाते
*
माँ मरती ही नही, जिया करती है संतानों में
श्वास-आस अपने -सपने कब उसे भूल पाते हैं
हो विदेह वह साथ सदा, संकट में संबल देती-
धन्य वही सुत जो मैया के गुण आजीवन गाते
*
सुर जीत रहे तो अ-सुर हार कर खुद बाहर हो जायेंगे
गीत-गुहा में स-सुर साधना कर नवगीत सुनाएँगे
हर दिन होता जन्म दिवस है, नींद मरण जो मान रहे
वे सूरज सँग जाग, करें श्रम, अपनी मन्ज़िल पाएँगे
*
सुर जीत रहे तो अ-सुर हार कर खुद बाहर हो जायेंगे
गीत-गुहा में स-सुर साधना कर नवगीत सुनाएँगे
हर दिन होता जन्म दिवस है, नींद मरण जो मान रहे
वे सूरज सँग जाग, करें श्रम, अपनी मन्ज़िल पाएँगे
***
कुण्डलिया
निर्झर -
नदी न एक से, बिलकुल भिन्न स्वभाव
इसमें चंचलता अधिक, उसमें है ठहराव
उसमें है ठहराव, तभी पूजी जाती है
चंचलता जीवन में, नए रंग लाती है
कहे 'सलिल' बहते चल,हो न किसी पर निर्भर
रुके न कविता-क्रम, नदिया हो या हो निर्झर
*
परमपिता ने जो रचा, कहें नहीं बेकार
ज़र्रे-ज़र्रे में हुआ, ईश्वर ही साकार
ईश्वर ही साकार, मूलतः: निराकार है
व्यक्त हुआ अव्यक्त, दैव ही गुणागार है
आता है हर जीव, जगत में समय बिताने
जाता अपने आप, कहा जब परमपिता ने
१३-९-२०१६
***
भावांजलि-
मनोवेदना:
ओ ऊपरवाले! नीचे आ
क्या-क्यों करता है तनिक बता?
असमय ले जाता उम्मीदें
क्यों करता है अक्षम्य खता?
कितने ही सपने टूट गये
तुम माली बगिया लूट गये.
क्यों करूँ तुम्हारा आराधन
जब नव आशा घट फूट गये?
मुस्कान मृदुल, मीठी बोली
रससिक्त हृदय की थी खोली
कर ट्रस्ट बनाया ट्रस्ट मगर
संत्रस्त किया, खाली ओली.
मैं जाऊँ कहाँ? निष्ठुर! बोलो,
तज धरा न अंबर में डोलो.
क्या छिपा तुम्हारी करनी में
कुछ तो रहस्य हम पर खोलो.
उल्लास-आसमय युवा रक्त
हिंदी का सुत, नवगीत-भक्त
खो गया कहाँ?, कैसे पायें
वापिस?, क्यों इतने हम अशक्त?
ऐ निर्मम! ह्रदय नहीं काँपा?
क्यों शोक नहीं तुमने भाँपा.
हम सब रोयेंगे सिसक-सिसक
दस दिश में व्यापेगा स्यापा.
संपूर्ण क्रांति का सेनानी,
वह जनगणमन का अभिमानी.
माटी का बेटा पतझड़ बिन
झड़ गया मौन ही बलिदानी.
कितने निर्दय हो जगत्पिता?
क्या पाते हो तुम हमें सता?
असमय अवसान हुआ है क्यों?
क्यों सके नहीं तुम हमें जता?
क्यों कर्क रोग दे बुला लिया?
नव आशा दीपक बुझा दिया.
चीत्कार कर रहे मन लेकिन
गीतों ने बेबस अधर सिया.
बोले थे: 'आनेवाले हो',
कब जाना, जानेवाले हो?
मन कलप रहा तुमको खोकर
यादों में रहनेवाले हो.
श्रीकांत! हुआ श्रीहीन गीत
तुम बिन व्याकुल हम हुए मीत.
जीवन तो जीना ही होगा-
पर रह न सकेंगे हम अभीत।
***
(जे. पी. की संपूर्ण क्रांति के एक सिपाही, नवगीतकार भाई श्रीकांत का कर्क रोग से असमय निधन हो गया. लगभग एक वर्ष से उनकी चिकित्सा चल रही थी. हिन्द युग्म पर २००९ में हिंदी छंद लेखन सम्बन्धी कक्षाओं में उनसे परिचय हुआ था. गत वर्ष नवगीत उत्सव लखनऊ में उच्च ज्वर तथा कंठ पीड़ा के बावजूद में समर्पित भावना से अतिथियों को अपने वाहन से लाने-छोड़ने का कार्य करते रहे. न वरिष्ठता का भान, न कष्ट का बखान। मेरे बहुत जोर देने पर कुछ औषधि ली और फिर काम पर. तुरंत बाद वे स्थांनांतरित होकर बड़ोदरा गये , जहाँ जांच होने पर कर्क रोग की पुष्टि हुई. टाटा मेमोरियल अस्पताल मुम्बई में चिकित्सा पश्चात निर्धारित थिरैपी पूर्ण होने के पूर्व ही वे बीड़ा हो गये. इस स्थिति में भी उन्होंने अपनी जमीन और धन का दान कर हिंदी के उन्नयन हेतु एक न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना की. स्वस्थ होकर वे हिंदी के लिये समर्पित होकर कार्य करना चाहते थे किन्तु???)
***
विमर्श:
मेरे विचार में दो पैमाने हैं... जिन पर रचनाकार को खुद को परखना चाहिए। पहला क्या वह खराब लिख रहा है और ईमानदार प्रयास करने पर भी सुधार नहीं हो रहा है? यदि ऐसा है तो कोई कितनी भी तारीफ करे, उसकी प्रतिभा किसी अन्य क्षेत्र के लिए है उसे वह क्षेत्र तलाशना चाहिए।
दूसरा यदि वह खराब नहीं लिख रहा है और लेखन में निखार आ रहा है तो कितनी भी आलोचना करे उसे लिखते रहना चाहिए।
१३-९-२०१५

मंगलवार, 12 सितंबर 2023

सॉनेट, तुम, अनंत चतुर्दशी, गणेश, हिंदी और विज्ञान

सॉनेट
तुम
तुमको शत-शत, साभार नमन
तुमको अर्पित निज अंतर्मन
तुम ही फागुन, तुम ही सावन
तुम ही श्वासों में पली लगन
तुम बिन मरुथल होता जीवन
तुम संग रहीं तो है मधुवन
तुम बनीं नयन, तुम बनीं वचन
तुमको पा जीवन है जीवन
तुम कहो, कौन है तुम सा धन
तुम साध्य, तुम्हीं तो हो साधन
तुम ही वादन, तुम ही गायन
तुम बिन हो पाता नहीं सृजन
तुम-मैं हम हैं कर विविध जतन
शत वर्ष हँसो, महकाओ चमन
१२-९-२०२२
●●●
मुक्तक
गीत पूर्णिमा जगमग तब हो जब राकेश प्रकाशित हो
शब्द भाव रस लय मय ध्वनि से त्रिभुवन सकल निनादित हो।
कलकल कलरव सुनकर श्रोता झूमे, करतल ध्वनि गूँजे
मन से मन मिल सके, प्राण संप्राणित मुदित
***
एक विमर्श
विसर्जन क्यों और कैसे?
*
अनंत चतुर्दशी गणेश विसर्जन और पुनरागमन प्रार्थना का पर्व।
चतुर्थी पर स्थापना, दस दिन पूजन और फिर विसर्जन के नाम पर प्रतिभाओं की दुर्दशा और अकल्पनीय प्रदूषण।
यह त्रासदी नव दुर्गा महोत्सव पर दोहराई जाएगी।
शोचनीय है कि जिन्हें विघ्नेश कहकर उनसे विघ्न निवारण हेतु प्रार्थना की, उन्हीं को विघ्नेश में डाल दिया। मूर्तियों की दुर्दशा करने से बेहतर है परंपरा का पालन करते हुए हल्दी और सुपारी में दैवीय शक्तियों का आव्हान-पूजन कर विसर्जन हो। इससे न तो प्रदूषण फैलेगा, न मूर्तियों की दुर्दशा होगी।
पुष्प तथा अन्य पूजन सामग्री महानगरों में नगर निगम वालों को दें तथा गाँवों में एक गड्ढा खोदकर उसमें दबा दें।
प्लास्टिक, रसायनों, एस्बेस्टस, प्लास्टर अॉफ पेरिस आदि का प्रयोग कतई न करें।
मूर्ति पूजन में श्रद्धा हो तो धातु (सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, अष्टधातु, पत्थर या एल्यूमीनियम) की मूर्ति का पूजन करें। इसे पूरे वर्ष भी पूज सकते हैं और विसर्जन के बाद अगले वर्ष के लिए सुरक्षित भी रखते सकते हैं। इससे घर वर्ष मूर्ति पर और उसे लाने-ले जाने में होने वाला खर्च भी बचेगी जो मँहगाई का मार कुछ कम करेगा।
अन्य उपाय मिट्टी की ६ इंच तक की मूर्ति को विसर्जन पश्चात घर में ही स्वच्छ जल में विसर्जित कर उसे पेड़-पौधों का जड़ में डाल देना है।
चित्र का पूजन भी समान फल देता है। इसे विसर्जित न करें।
सनातन धर्म की मूल परंपरा प्रतीक पूजन है। वैष्णव देवी जैसे पुरातन स्थलों पर अनगढ़ पाषाण पिंड ही पूजे जाते हैं। यह सर्वमान्य है कि ईश्वर निराकार हैं। 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' के अनुसार भक्त अपने इष्ट को रूपाकार देकर पूजते हैं। कई बार माताएँ पुत्र को पुत्री के रूप में अथवा पुत्री को पुत्री के रूप में सज्जित कर अपनी मनस्तुष्टि करती हैं । यही भाव भक्त से प्रतिमा बनाता है। इसीलिए कहा जाता है 'भगत के बस में हैं भगवान। भगवान सौजन्यता वश भक्त के 'बस' में होने पर भी 'बेबस' नहीं है। भक्त अपने इष्ट की प्रतिमा की दुर्दशा का निमित्त बनकर अपने ही कष्ट को आमंत्रित करता है।
आवश्यक है कि हम दैवीय शक्तियों का आह्वान अपने अंतर्मन में करें। प्रतिमा पूजन कम और लघ्वाकारी विग्रहों का हो। शिवलिंग पूजन प्रतीक पूजन का कालजयी उदाहरण है।
सनातन धर्म की परंपरानुसार बुद्ध ने भी मूर्ति का निषेध किया, भक्तों ने सबसे अधिक मूर्तियाँ बुद्ध की बनाकर समझा कि महान कार्य किया पर काल साक्षी है कि वे मूर्तियाँ तोड़ा गईं, बौद्ध धर्म का पराभव हुआ। पुरातात्त्विक अवशेषों में बड़ी संख्या में मूर्तियों के ध्वंसावशेषों को देखकर भी हम उनकी निस्सारता न समझें तो हमारी समझ का ही दोष है।
मूर्तियों के निर्माण में लगने वाला श्रम और सामग्री किसी जीवनोपयोगी निर्माण में लगे तो सबका भला होगा। 'मंदिर मंदिर मूरत तेरी, कहुँ न देखी सूरत तेरी' का अर्थ समझ मम मंदिर में देव स्थापना कर सकें तो विसर्जन करने का मन ही न होगा।
क्या हम प्रतिमा के स्थान पर देव और दिव्यता को पूजकर दैवीय गुणों से युक्त हो सकेंगे?
***
संजीव
अनंत चौदस
१२-९-२०१९
७९९९५५९६१८
जो अच्छा उसको दिखे, अच्छा सब संसार
धन्य भाग्य जो पा रहा, 'सलिल' स्नेह उपहार
*
शरण मिली कमलेश की, 'सलिल' हुआ है धन्य
दिव्या कविता सा नहीं, दूज मीत अनन्य
*
शब्दों के संसार में, मिल जाते हैं मीत
पता न चलता समय का, कब जाता दिन बीत
*
आलेख:
तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में
*
राष्ट्र गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा:
किसी राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतीक संविधान, ध्वज, राष्ट्रगान, राज भाषा, तथा राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह (पशु, पक्षी आदि) होते हैं. संविधान के अनुसार भारत लोक कल्याणकारी गणराज्य है, तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज है, 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान है, हिंदी राज भाषा है, सिंह राष्ट्रीय पशु तथा मयूर राष्ट्रीय पक्षी है. राज भाषा में सकल रज-काज किया जाना राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है. दुर्भाग्य से भारत से अंग्रेजी राज्य समाप्त होने के बाद भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व समाप्त न हो सका. दलीय चुनावों पर आधारित राजनीति ने भाषाई विवादों को बढ़ावा दिया और अंग्रेजी को सीमित समय के लिये शिक्षा माध्यम के रूप में स्वीकारा गया. यह अवधि कभी समाप्त न हो सकी.
हिंदी का महत्त्व:
आज भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा एकाधिक अवसरों पर अमरीकियों को हिंदी सीखने के लिये सचेत करते हुए कह चुके हैं कि हिंदी सीखे बिना भविष्य में काम नहीं चलेगा. यह सलाह अकारण नहीं है. भारत को उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में सकल विश्व में जाना जा रहा है. संस्कृत तथा उस पर आधारित हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को सन्देश भेजे जाने की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है.
भारत में हिंदी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा:
भारत में भले ही अंग्रेजी बोलना सम्मान की बात हो पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेजी का इतना महत्त्व नहीं है. हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेजी माध्यम का चयन किया जाना है. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मात्र-भाषा को ग्रहण करता है. अंग्रेजी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है. अतः भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है.
प्रत्येक भाषा के विकास के कई सोपान होते हैं. कोई भाषा शैशवावस्था से शनैः- शनैः विकसित होती हुई, हर पल प्रौढता और परिपक्वता की ओर अग्रसर होती है. पूर्ण विकसित और परिपक्व भाषा की जीवन्तता और प्राणवत्ता उसके दैनंदिन व्यवहार या प्रयोग पर निर्भर होती है. भाषा की व्यवहारिकता का मानदण्ड जनता होती है क्योंकि आम जन ही किसी भाषा का प्रयोग करते हैं. जो भाषा लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में समा जाती है, वह चिरायु हो जाती है. जिस भाषा में समयानुसार अपने को ढालने, विचारों व भावों को सरलता और सहजता से अभिव्यक्त करने, आम लोगों की भावनाओं तथा ज्ञान-विज्ञानं की समस्त शाखाओं व विभागों की विषय वस्तु को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है, वह जन-व्यवहार का अभिन्न अंग बन जाती है. इस दृष्टि से हिन्दी सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में सदा से छाई रही है.
आज से ६४ वर्ष पूर्व, १४ सितम्बर, सन् १९४७ को जब हमारे तत्कालीन नेताओं, बुध्दिजीवियों ने जब बहुत सोच-विचार के बाद सबकी सहमति से हिन्दी को आज़ाद हिन्दुस्तान की राजकाज और राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया तो उस निर्णय के ठोस आधार थे –
१) हिंदी भारत के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है, जो विन्ध्याचल के उत्तर में बसे सात राज्यों में बोली जाती है
२) अन्य प्रान्तों की भाषाओं और हिन्दी के शब्द भण्डार में इतनी अधिक समानता है कि वह सरलता से सीखी जा सकती है,
३) वह विज्ञान और तकनीकी जगत की भी एक सशक्त और समर्थ भाषा बनने की क्षमता रखती है, (आज तकनीकि सूचना व संचार तंत्र की समर्थ भाषा है)
४) यह अन्य भाषाओं की अपेक्षा सर्वाधिक व्यवहार में प्रयुक्त होने के कारण जीवंत भाषा है,
५) व्याकरण भी जटिल नहीं है,
६) लिपि भी सुगम व वैज्ञानिक है,
७) लिपि मुद्रण सुलभ है,
८) सबसे महत्वपूर्ण बात - भारतीय संस्कृति, विचारों और भावनाओं की संवाहक है.
हिंदी भाषा उपेक्षित होने का कारण:
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. अतः बच्चों को समझने के स्थान पर रटना होता है जो अवैज्ञानिक है. ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं तथा भाषिक कमजोरी के कारण खुद को समुचित तरीके अभिव्यक्त नहीं कर पाते और पिछड़ जाते हैं. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
हिंदी की सामर्थ्य:
हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं, नियमों तथा घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में करना कठिन माना जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. हिंदी की शब्द सम्पदा अपार है. हिंदी सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी है. उसमें से लगातार कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं. हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है, जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है.
सामान्य तथा तकनीकी भाषा:
जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है. आज तकनीकि विकास के युग में, कुछ भी दायरों में नहीं बंधा हुआ है. जो भी जानदार है, शानदार है, अनूठापन लिये है, जिसमें जनसमाज को अपनी ओर खींचने का दम है वह सहज ही और शीघ्र ही भूमंडलीकृत और वैश्विक हो जाता है. इस प्रक्रिया के तहत आज हिन्दी वैश्विक भाषा है. कोई भी सक्रिय भाषा, रचनात्मक प्रक्रिया – चाहे वह लेखन हो, चित्रकला हो,संगीत हो, नृत्यकला हो या चित्रपट हो – सभी युग-परिवेश से प्रभावित होते हैं. भूमंडलीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें दुनिया तेज़ी से सिमटती जा रही है. विश्व के देश परस्पर निकट आते जा रहे हैं. इसलिए ही आज दुनिया को ‘विश्वग्राम’ कहा जा रहा है. इस सबके पीछे ‘सूचना और संचार’ क्रान्ति की शक्ति है, जिसमें ‘इंटरनेट’ की भूमिका बड़ी अहम है. इसमे कोई दो राय नहीं कि इस जगत में हिन्दी अपना सिक्का जमा चुकी है.
हिंदी संबंधी मूल अवधारणाएं:
इस विमर्श का श्री गणेश करते हुए हम कुछ मूल बातों भाषा, लिपि, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, लिपि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन, शब्द-भेद, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे जैसी मूल अवधारणाओं को जानें.
भाषा(लैंग्वेज) :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ. आदि मानव को प्राकृतिक घटनाओं (वर्षा, तूफ़ान, जल या वायु का प्रवाह), पशु-पक्षियों की बोली आदि को सुनकर हर्ष, भय, शांति आदि की अनुभूति हुई. इन ध्वनियों की नकलकर उसने बोलना, एक-दूसरे को पुकारना, भगाना, स्नेह-क्रोध आदि की अभिव्यक्ति करना सदियों में सीखा.
लिपि (स्क्रिप्ट):
कहे हुए को अंकित कर स्मरण रखने अथवा अनुपस्थित साथी को बताने के लिये हर ध्वनि हेतु अलग-अलग संकेत निश्चित कर अंकित करने की कला सीखकर मनुष्य शेष सभी जीवों से अधिक उन्नत हो सका. इन संकेतों की संख्या बढ़ने व व्यवस्थित रूप ग्रहण करने ने लिपि को जन्म दिया. एक ही अनुभूति के लिये अलग- अलग मानव समूहों में अलग-अलग ध्वनि तथा संकेत बनने तथा आपस में संपर्क न होने से विविध भाषाओँ और लिपियों का जन्म हुआ.
चित्रगुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित तथा आजकल टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित होता है. हिंदी लेखन हेतु प्रयुक्त देवनागरी लिपि में संयुक्त अक्षरों व मात्राओं का संतुलित प्रयोग कर कम से कम स्थान में अंकित किया जा सकता है जबकि मात्रा न होने पर रोमन लिपि में वही शब्द लिखते समय मात्रा के स्थान पर वर्ण का प्रयोग करने पर अधिक स्थान, समय व श्रम लगता है. अरबी मूल की लिपियों में अनेक ध्वनियों के लेकहं हेतु अक्षर नहीं हैं.
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.
व्याकरण (ग्रामर ):
व्याकरण (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर(वर्ड) :
हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं. स्वरों तथा व्यंजनों का निर्धारण ध्वनि विज्ञान के अनुकूल उनके उच्चारण के स्थान से किया जाना हिंदी का वैशिष्ट्य है जो अन्य भाषाओँ में नहीं है.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ.
स्वर के दो प्रकार:
१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.
१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं.
अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समर्थ होती है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.
१. मूल शब्द:
भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.
२. विकसित शब्द:
आवश्यकता आविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नये-नये शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नये शब्द सामने आये.संगणक के अविष्कार के बाद संबंधित तकनालाजी को अभिव्यक्त करने के नये शब्द बनाये गये.
३. आयातित शब्द:
किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलना पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भाषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किये हैं. भारत पर यवनों के हमलों के समय फारस तथा अरब से आये सिपाहियों तथा भारतीय जन समुदायों के बीच शब्दों के आदान-प्रदान से उर्दू का जन्म हुआ. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.
हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.
१.यथावत:
मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन (station) लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.
२.परिवर्तित:
मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .
३. पर्यायवाची:
जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नये शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.
४. नये शब्द:
ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव आदि के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नये शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
अंग्रेजी के नये शब्दकोशों में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्द कोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दी प्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जा सके.
शब्दों के विशिष्ट अर्थ:
तकनीकी विषयों व गतिविधियों को हिंदी भाषा के माध्यम से संचालित करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनकी पहुँच असंख्य लोगों तक हो सकेगी. हिंदी में तकनीकी क्षेत्र में शब्दों के विशिष अर्थ सुनिश्चित किये जने की महती आवश्यकता है. उदाहरण के लिये अंग्रेजी के दो शब्दों 'शेप' और 'साइज़' का अर्थ हिंदी में सामन्यतः 'आकार' किया जाता है किन्तु विज्ञान में दोनों मूल शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होते हैं. 'शेप' से आकृति और साइज़ से बड़े-छोटे होने का बोध होता है. हिंदी शब्दकोष में आकार और आकृति समानार्थी हैं. अतः साइज़ के लिये एक विशेष शब्द 'परिमाप' निर्धारित किया गया.
निर्माण सामग्री के छन्नी परीक्षण में अंग्रेजी में 'रिटेंड ऑन सीव' तथा 'पास्ड फ्रॉम सीव' का प्रयोग होता है. हिंदी में इस क्रिया से जुड़ा शब्द 'छानन' उपयोगी पदार्थ के लिये है. अतः उक्त दोनों शब्दों के लिये उपयुक्त शब्द खोजे जाने चाहिए. रसायन शास्त्र में प्रयुक्त 'कंसंट्रेटेड' के लिये हिंदी में गाढ़ा, सान्द्र, तेज, तीव्र आदि तथा 'डाईल्यूट' के लिये तनु, पतला, मंद, हल्का, मृदु आदि शब्दों का प्रयोग विविध लेखकों द्वारा किया जाना भ्रमित करता है.
'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' का दायित्व:
तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्र भाषा में सम्पादित करने के साथ-साथ अर्थ विशेष में प्रयोग किये जानेवाले शब्दों के लिये विशेष पर्याय निर्धारित करने का कार्य उस तकनीक की प्रतिनिधि संस्था को करना चाहिए. अभियांत्रिकी के क्षेत्र में निस्संदेह 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' अग्रणी संस्था है. इसलिए अभियांत्रकी शब्द कोष तैयार करने का दायित्व इसी का है. सरकार द्वारा शब्द कोष बनाये जाने की प्रक्रिया का हश्र किताबी तथा अव्यवहारिक शब्दों की भरमार के रूप में होता है. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये साहित्यिक समझ, रूचि, ज्ञान और समर्पण के धनी अभियंताओं को विविध शाखाओं / क्षेत्रों से चुना जाये तथा पत्रिका के हर अंक में तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली और शब्द कोष प्रकाशित किया जाना अनिवार्य है. पत्रिका के हर अंक में तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन की प्रतियोगिता भी होना चाहिए. विविध अभियांत्रिकी शाखाओं के शब्दकोशों तथा हिंदी पुस्तकों का प्रकाशन करने की दिशा में भी 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' को आगे आना होगा.
अभियंताओं का दायित्व:
हम अभियंताओं को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु हिंदी भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
भारतीय अंतरजाल उपभोक्ताओं के हाल ही में हुए गए एक सर्वे के अनुसार ४५% लोग हिन्दी वेबसाईट देखते हैं, २५% अन्य भारतीय भाषाओं में वैब सामग्री पढना पसंद करते हैं और मात्र ३०% अंगरेजी की वेबसाईट देखते हैं. यह तथ्य उन लोगों की आँख खोलने के लिए पर्याप्त है जो वर्ल्ड वाइड वेब / डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू को राजसी अंगरेजी का पर्यायवाची माने बैठे हैं. गूगल के प्रमुख कार्यकारी एरिक श्मिडट के अनुसार अब से ५-६ वर्ष के अंदर भारत विश्व का सबसे बड़ा आई. टी. बाज़ार होगा, न कि चीन. यही कारण है कि हिन्दी आज विश्व की तीन प्रथम भाषाओं में से- तीसरे से दूसरे स्थान पर आ गयी है. गूगल ने सर्च इंजिन के लिए हिंदी इंटरफेस जारी किया है. माइक्रो सोफ्ट ने भी हिन्दी और अन्य प्रांतीय भाषाओं की महत्ता को स्वीकारा है. विकीपीडिया के अनुसार चीनी विकीपीडिया यदि २.५० करोड परिणाम देता है तो हिन्दी विकिपीडिया ६ करोड परिणाम देता है.
अतः हिंदी की सामर्थ्य उसे विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करा रही है. प्रश्न यह है की हम एक भारतीय, एक हिंदीभाषी और एक अभियंता के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन कितना, कैसे और कब करते हैं.
***
हिंदी दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
***
दोहा सलिला:
हिंदी वंदना
*
हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
*
हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..
हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
*
कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
*
सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
*
सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
*
मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
***
नवगीत:
हिंदी की जय हो...
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
***
नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.
घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.
ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
१२-९-२०१६
***
नवगीत:
*
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
शानदार सम्मेलन होता
किन्तु न इसमें जान है.
बुंदेली को जगह नहीं है
न ही मालवी-मान है.
रुद्ध प्रवेश निमाड़ी का है
छत्तीसगढ़ी न श्लाघ्य है
बृज, अवधी, मैथिली न पूछो
हल्बी का न निशान है.
भोजपुरी को भूल
नहीं क्या
घिरते हैं हम भूल में?
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
महीयसी को बिठलाया है
प्रेस गैलरी द्वार पर.
भारतेंदु क्या छोड़ गये हैं
सम्मेलन ही हारकर?
मातृशक्ति की अनदेखी
क्यों संतानें ही करती हैं?
घाघ-भड्डरी को बिसराया
देशजता से रार कर?
बिंधी हुई है
हिंदी कलिका
अंग्रेजी के शूल में
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
रास, राई, बंबुलिया रोये
जगनिक-आल्हा यहाँ नहीं.
भगतें, जस, कजरी गायब हैं
गीत बटोही मिला नहीं.
सुआ गीत, पंथी या फागें
बिन हिंदी है कहाँ कहो?
जड़ बिसराकर पत्ते गिनते
माटी का संग मिला नहीं।
ताल-मेल बिन
सपने सारे
मिल जाएंगे धूल में.
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
(१०-९-१५ को विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में उद्घाटन के पूर्व लिखा गया)
***
दोहा सलिला:
करना है साहित्य बिन, भाषा का व्यापार
भाषा का करती 'सलिल', सत्ता बंटाधार
*
मनमानी करते सदा, सत्ताधारी लोग
अब भाषा के भोग का, इन्हें लगा है रोग
*
करता है मन-प्राण जब, अर्पित रचनाकार
तब भाषा की मृदा से, रचना ले आकार
*
भाषा तन साहित्य की, आत्मा बिन निष्प्राण
शिवा रहित शिव शव सदृश, धनुष बिना ज्यों बाण
*
भाषा रथ को हाँकता, सत्ता सूत अजान
दिशा-दशा साहित्य दे, कैसे? दूर सुजान
*
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
*
तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
*
जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
*
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
*
तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
*
जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
१२-९-२०१५
*

सोमवार, 11 सितंबर 2023

कुण्डलिया, मुक्तक, बुन्देली दोहा, बघेली हाइकु, आग्नेय पुराण,

***
बघेली हाइकु
*
जिनखें हाथें
किस्मत के चाभी
बड़े दलाल
*
आम के आम
नेता करै कमाल
गोई के दाम
*
सुशांत-रिया
खबरचियन के
बाप औ' माई
*
लागत हय
लिपा पुता चिकन
बाहेर घर
*
बाँचै किताब
आँसू के अनुबाद
आम जनता
११.९.२०२०
***
विमर्श: पुराणों में क्या है???
*
सामान्य धारणा है कि वेद-पुराण-उपनिषद आदि धार्मिक ग्रंथ हैं किंतु वास्तविकता सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: इनमें जीवन से जुड़े हर पक्ष विज्ञान, कला, याँत्रिकी, चिकित्सा, सामाजिक, आर्थिक आदि विषयों का विधिवत वर्णन है। अग्नि पुराण में साहित्य से संबंधित कुछ जानकारी निम्नानुसार है।
आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सार का कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।
*
अध्याय ३२९- गायत्री छंद, अध्याय ३३०- जगती छंद, अध्याय ३३१- वैदिक छंद, अध्याय ३३२- विषम छंद, अध्याय ३३३अर्द्धसमवृत्त छंद, अध्याय ३३४- समवृत्त छंद। अध्याय ३३५- प्रस्तार निरूपण, अध्याय ३३६ शिक्षा निरूपण, अध्याय ३३७ काव्य, अध्याय ३३८ नाटक, अध्याय ३३९ रस, भाव, नायक, अध्याय ३४० रीति, अध्याय ३४१ नृत्य, अध्याय ३४२अभिनय-अलंकार, अध्याय ३४३ शब्दालंकार, अध्याय ३४४ अर्थालंकार, अध्याय ३४५ शब्दार्थोभयालंकार, अध्याय ३४६ काव्य गुण, ३४७ काव्य दोष, अध्याय ३४८ एकाक्षर कोष, अध्याय ३४९ व्याकरण सार, अध्याय ३३८ नाटक, संधि, अध्याय ३५१-३५३ लिंग, अध्याय ३५४ कारक, अध्याय ३५५ समास, अध्याय ३५६ प्रत्यय, अध्याय ३५७ शब्द रूप, अध्याय ३५८ विभक्ति, अध्याय ३५९ कृदंत, अध्याय ३६० स्वर्ग-पाताल, अध्याय ३६१ अव्यय।
अध्याय ३२९- गायत्री आदि छंद।
अध्याय ३३०- जगती, त्रिष्टुप, उष्णिक, ककुप उष्णिक, त्रिपाद अनुष्टुप, बृहती, उरो बृहती, न्यंगुसरणी बृहती, पुरस्ताद बृहती, पंक्ति, सतपंक्ति, आस्तार पंक्ति, संस्तार पंक्ति, अक्षर पंक्ति, पद पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती-ज्योतिष्मती, पुरस्ताज्ज्योति, उपरिष्टाज्ज्योसि, शंकुमती, ककुदमती, यवमध्य छंद।
अध्याय ३३१- वैदिक छंद: उत्कृति, अभिकृति, विकृति, प्रकृति, अधिकृति, धृति, अत्यष्टि, आश्ती, अतिशक्वरि, शक्वरि, अतिजगती। लौकिक छंद: त्रिष्टुप, बृहती, अनुष्टुप, उष्णिक, गायत्री, सुप्रतिष्ठा, प्रतिष्ठा, मध्या, अत्युक्तात्युक्त, आदि छंद। छंद के ३ प्रकार गण छंद, मात्र छंद, अक्षर छंद। छंद का चौथाई भाग पाद या चरण। गण, आर्य, गीति, उपगीति, उद्गीति, आर्यागीति। मात्रा छंद- वैतालीय, औपच्छंदसक, प्राच्य वृत्ति, उदीच्य वृत्ति, प्रवृत्तिक, चारुहासिनी, अपरांतिका, मात्रासमक, वानवसिका, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, पादाकुवक, गीतयार्या, ज्योति, सौम्या, चूलिका।
अध्याय ३३२- विषम वृत्त: समानी, प्रमाणी, वितान, वक्त्र, अनुश्तुब्वक्त्र, विपुला, पदचतुरुर्ध्व, आपीड़, प्रत्यापीड़, मंजरी, लवली, अमृतधारा, उद्गता, सौरभ, ललित, प्रचुपित, वर्धमान, विराषभ छंद।
अध्याय ३३३अर्द्धसम वृत्त: उपचित्रक, द्रुतमध्या, वेगवती, भद्रविराट, केतुमती, आख्यानिकी, विपरीताख्यानिकी, हरिणप्लुता, अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा, यवमती, शिखा छंद।
अध्याय ३३४- समवृत्त:।
[आभार: कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]
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छंद चर्चा:
आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सारका कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।
[आभार: कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]
११.९.२०१८
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मुक्तक
*
जन्म दिवस पर बहुत बधाई
पग-तल तुमने मन्ज़िल पाई
शतजीवी हो, गगन छू सको
खुशियों की नित कर पहुनाई
*
अपनी ख्वाहिश नहीं मरने देना
मन को दुनिया से न डरने देना
हौसलों को बुलंद ही रखना
जी जो चाहे उसे करने देना
११-९-२०१६
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बुंदेली दोहांजलि
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जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर
अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
*
खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
*
बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
*
ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय
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मुक्तक:
*
मरघट में है भीड़ पनघट है वीरान
मोल नगद का न्यून है उधार की शान
चमक-दमक की चाह हुई सादगी मौन
सब अपने में लीन किसको पूछे कौन
११-९-२०१४
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कुण्डलिया  :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
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दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.
११.९.२०११
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रविवार, 10 सितंबर 2023

सॉनेट, बिटिया, बाल गीत, दोहा, गीत, कौन?,


सॉनेट कर-कलम • कर कलम थामे समय का सच कहें, ढहें मत, थिर रहे कोशिश की कशिश, तपिश हर बदलाव की हँसकर सहें, हो न जब तक पूर्ण मन में पली विश। कर कलम को लें बना तलवार झट, नट न पाएँ रास्ते पग मंजिलें, काफिले पीछे चलें तू बढ़ सतत, विगत से ले सीख, आगत से मिलें। कर कलम कर दें कलम बाधा सभी, अभी को टालें कभी पर आप मत, मत-विमत सम्मत व्यवस्था हो सभी, तभी करतल ध्वनि करें सब रख सुमत। कर कलम करवाल हो, करताल हो। कर कलम हड़ताल हो, पड़ताल हो। १०.९.२०२३ •••
बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
१०-९-२०१७
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दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
*
मिले नकार नकार को, स्वीकृत हो स्वीकार।
स्नेह स्नेह को दीजिए, सके प्रहार प्रहार।।
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एक रचना
कौन हैं हम?
*
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
स्नेह सलिला नर्मदा हैं।
सत्य-रक्षक वर्मदा हैं।
कोई माने या न माने
श्वास सारी धर्मदा हैं।
जान या
मत जान लेकिन
मित्र है साहस-प्रभंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
सभ्यता के सिंधु हैं हम,
भले लघुतम बिंदु हैं हम।
गरल धारे कण्ठ में पर
शीश अमृत-बिंदु हैं हम।
अमरकंटक-
सतपुड़ा हम,
विंध्य हैं सह हर विखण्डन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
ब्रम्हपुत्रा की लहर हैं,
गंग-यमुना की भँवर हैं।
गोमती-सरयू-सरस्वति
अवध-ब्रज की रज-डगर हैं।
बेतवा, शिव-
नाथ, ताप्ती,
हमीं क्षिप्रा, शिव निरंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
तुंगभद्रा पतित पावन,
कृष्णा-कावेरी सुहावन।
सुनो साबरमती हैं हम,
सोन-कोसी-हिरन भावन।
व्यास-झेलम,
लूनी-सतलज
हमीं हैं गण्डक सुपावन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
मेघ बरसे भरी गागर,
करी खाली पहुँच सागर।
शारदा, चितवन किनारे-
नागरी लिखते सुनागर।
हमीं पेनर
चारु चंबल
घाटियाँ हम, शिखर- गिरिवन
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
१०-९-२०१६

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गीत

कौन?
*
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
खुशियों की खेती अनसिंचित,
सिंचित खरपतवार व्यथाएँ।
*
खेत
कारखाने-कॉलोनी
बनकर, बिना मौत मरते हैं।
असुर हुए इंसान,
न दाना-पानी खा,
दौलत चरते हैं।
वन भेजी जाती सीताएँ,
मन्दिर पुजतीं शूर्पणखाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
गौरैयों की देखभाल कर
मिली बाज को जिम्मेदारी।
अय्यारी का पाठ रटाती,
पैठ मदरसों में बटमारी।
एसिड की शिकार राधाएँ
कंस जाँच आयोग बिठाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि करें न शिक़वा,
लछमी पूजती है गणेश सँग।
'ऑनर किलिंग' कर रहे दद्दू
मूँछ ऐंठकर, जमा रहे रंग।
ठगते मोह-मान-मायाएँ
घर-घर कुरुक्षेत्र-गाथाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
हर कर्तव्य तुझे करना है,
हर अधिकार मुझे वरना है।
माँग भरो, हर माँग पूर्ण कर
वरना रपट मुझे करना है।
देह मात्र होतीं वनिताएँ
घर को होटल मात्र बनाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
दोष न देखें दल के अंदर,
और न गुण दिखते दल-बाहर।
तोड़ रहे कानून बना, सांसद,
संसद मंडी-जलसा घर।
बस में हो तो साँसों पर भी
सरकारें अब टैक्स लगाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
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९-८-२०१६
गोरखपुर दंत चिकित्सालय
जबलपुर
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