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गुरुवार, 13 जुलाई 2023

नशा: कारण और निवारण

विशेष लेख
नशा: कारण और निवारण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नशा क्या है-
किसी सामान्य मनुष्य की मानसिक स्थिति को बदलकर नींद या मदहोशी की हालत में ला देने वाले पदार्थ नारकॉटिक्स, ड्रग्स या नशा कहलाते है। मॉर्फिन, कोडेन, मेथाडोन, फेंटाइनाइल आदि नारकॉटिक्स चूर्ण (पाउडर), गोली (टैब्लेट) और सुई (इंजेक्शन) के रूप में मिलते हैं। ये मस्तिष्क और आसपास के ऊतकों (टिशू) को उत्तेजित करते हैं। किसी मरीज को दर्द से राहत दिलाने के लिए कभी-कभी चिकित्सक अल्प मात्रा में इनका उपयोग करते हैं। केवल मौज-मजे के लिए पारंपरिक नशे (ज़र्दा, बीड़ी, सिगरेट, चिलम, गाँजा, भाँग, चरस, गांजा, अफीम, छिपकली की पूँछ, शराब आदि), सिंथेटिक ड्रग्स (स्मैक, हीरोइन, आईस आदि), ब्राउन शुगर, सल्फ़ी, मेडिकल नशा (मोमोटिल, कैरीसोमा, आयोडेक्स, कफ सिरप आदि), स्निफर्स (लिक्विड व्हाइट फ्लूड, पेट्रोल सूँघना, पंक्चर सेल्यूशन को सूँघना आदि) आदि का बार-बार उपयोग करना लत बनकर बेचैनी, पागलपन या मौत का कारण हो सकता है।
। जो पदार्थ मदहोश कर, हर लेते हैं शक्ति।
।। उनका सेवन मत करें, रखिए सदा विरक्ति।।
*
। बुद्धि-विवेक हरे नशा, ताकत लेता छीन।
।। पात्र हँसी का बनाता, मानव होता दीन।।
*
नशा करने का दुष्प्रभाव-
नशा करने के बाद आँखें लाल होना, जबान तुतलाना, पसीना आना, अकारण गुस्सा आना या ख़ुशी होना, पैर लड़खड़ाना, शरीर टूटना, नींद-भूख कम होना, बेमतलब की बातें करना, घबराहट होना, उबासी आना, दस्त लगना, दौरे पड़ना आदि दुष्प्रभाव दिखते हैं।
। लाल आँख टूटे बदन, आता गुस्सा खूब।
।। बेमतलब बातें करें, मनुज नशे में डूब।।
नशा करनेवाले की पहचान-
पैसों की बढ़ती माँग, पुराने दोस्त छोड़ कर नये दोस्त बनाना, अकेला रहने की कोशिश करना, घर में नई किस्म की दवाएं या खाली इंजेक्शन मिलना आदि से नशे की आदत का अनुमान लगाया जा सकता है।
। धन चाहे, क्रोधित रहे, घबराए धन चाह।
।। काली ऊँगली बताते, करता नशा तबाह।।
नशा करने का कारण-
नशीला पदार्थ खून में जाते ही आदमी को खुशी और स्फूर्ति की अनुभूति कराता है। प्राय: लोग अन्य नशैलची की संगत में आकर दबाव या शौकवश नशा करने लगते हैं। मानसिक तनाव, अपमान, अभाव, प्रताड़ना, सजा, उपहास, द्वेष, बदला आदि स्थितियाँ नशा करने का कारण बन जाती हैं। नशे की प्रवृत्ति बढ़ने का मुख्य कारण नशीले पदार्थ का सुलभता से मिल जाना है।
। द्वेष, हानि, अपमान, दुःख, शौक नशे के मूल।
।।गन्दी संगत लत लगा, कर दे सोना धूल।।
नशा करने में महिलायें पीछे नहीं-
पहले सामान्यत: पुरुष ही नशा करते थे किन्तु अब लड़कियाँ और महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। पढ़ाई, नौकरी और उससे उपजे तनाव, खुद को आधुनिक दिखाने या बुरी संगत के कारण नशा करती महिला आसानी से दैहिक शोषण का शिकार बन जाती है। महिला का शरीर पुरुष के शरीर की तुलना में कोमल होता है। इसलिए नशा उसे अधिक हानि पहुँचाता है। महिला के नशा गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क तथा शरीर के विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारत में महिलाएँ परिवार की मान-प्रतिष्ठा की प्रतीक मानी जाती हैं। महिला के नशा करने से परिवार की प्रतिष्ठा पर आघात पहुँचता है तथा बच्चे आसानी से नशे के आदी हो जाते हैं। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसन में छपे शोध के अनुसार धूम्रपान के कारण पुरुषों की ही तरह महिलाएं भी बड़ी संख्या में मर रही हैं। सिगरेट का अधिक सेवन करने से वर्ष २००० से २०१० के बीच धूम्रपान करने वाली महिलाओं में फेफड़े के कैंसर से मौत की आशंका सामान्य लोगों की तुलना २५ गुना अधिक हो गई। शोध २० लाख से अधिक अमरीकी महिलाओं से एकत्र जानकारी पर आधारित है।
। नशा शत्रु है नारियाँ, रहें हमेशा दूर।
।। काया घर परिवार की, रक्षा तभी हुजूर।।
नशा नाश का दूत-
नशा किसी भी प्रकार का हो, एक सामाजिक अभिशाप है। नशा करना और कराना अपराध है। कभी भी किसी भी कारण से धूम्रपान, सुरापान अथवा अन्य नशा न करें। नशा आरम्भ करने के बाद उसकी लत बढ़ती ही जाती है जिसे छोड़ना असम्भव न भी हो किन्तु बहुत कथन तो होता ही है। इसलिए बेहतर यही है कि नशा किया ही न जाए। नशा एक ऐसी बुराई है, जिससे इंसान समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है । जहरीले नशीले पदार्थों के सेवन से व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक हानि पहुँचने के साथ ही सामाजिक वातावरण प्रदूषित होता है। अपनी और परिवार की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति को भारी नुकसान होता है । नशैलची व्यक्ति समाज में हेय की दृष्टि से देखा जाता है। वह परिवार के लिए बोझ हो जाता है। समाज एवं राष्ट्र के लिये उसकी उपादेयता शून्य हो जाती है । वह नशे से अपराध की ओर अग्रसर होकर शांतिपूर्ण समाज के लिए अभिशाप बन जाता है ।
आजकल बच्चे, किशोर, युवा, प्रौढ़, वयस्क वृद्ध सभी नशे की चपेट में हैं । इस अभिशाप से समय रहते मुक्ति पा लेने में ही मानव समाज की भलाई है । मादक प्रदार्थों के सेवन का प्रचलन किसी भी स्थिति में किसी भी सभ्य समाज के लिए वर्जनीय होना चाहिए। धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का कारण है। यह चेतावनी सभी तम्बाकू उत्पादों पर अनिवार्य रूप से लिखी होने और सभी को पता होने पर भी लोग इसका सेवन बहुत चाव से करते हैं । समाज में पनप रहे अपराधों का एक कारण नशा भी है। नशाखोरी में वृध्दि के साथ-साथ अपराधियों की संख्या में भी वृध्दि होती है। ध्रूमपान से निकट के व्यक्ति को फेफड़ों में कैंसर और अन्य रोग हो सकते हैं। इसलिए न खुद धूम्रपान करें, न ही किसी को करने दें । कोकीन, चरस, अफीम जैसे उत्तेजक पदार्थों के प्रभाव में व्यक्ति अपराध कर बैठता है । इनके अधिक सेवन से व्यक्ति पागल या विक्षिप्त हो जाता है। तंबाखू के सेवन से तपेदिक, निमोनिया और सांस की बीमारियों सहित मुख, फेफड़े और गुर्दे में कैंसर, हृदय रोग और उच्च रक्तचाप हो जाता है।
शराब के सेवन से किडनी और लीवर खराब होते हैं, मुख में छाले पड़ सकते हैं या पेट का कैंसर हो सकता है । इससे अल्सर होता है, गले और पेट को जोड़ने वाली नली में सूजन आ जाती है और बाद में कैंसर भी हो सकता है । गांजा -भांग आदि पदार्थ मनुष्य के मस्तिष्क पर बुरा असर डालते हैं । देश का विकास उसके नागरिकों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है, लेकिन नशे की बुराई के कारण यदि मानव स्वास्थ्य खराब होगा तो देश का भी विकास नहीं हो सकता । नशा व्यक्ति को तन-मन-धन से खोखला कर देता है। इस बुराई को समाप्त करने के लिए शासन के साथ ही समाज के हर तबके को आगे आना होगा।
। नशा नाश का दूत है, असमय लाता मौत।
।। हँसी-ख़ुशी-सुख छीन ले, लत श्वासों की सौत।।
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। धूम्रपान से फेफड़े, होते हैं कमजोर।
।। कैंसर अतिशय कष्ट दे, काटे जीवन-डोर।।
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। किडनी-लीवर का करे, सुरा-पान नुकसान।
।। तंबाकू-ज़र्दा नहीं, खाते हैं मतिमान।।
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। स्मैक, चरस, कोकीन हैं, यम जैसे विकराल।
।। सेवन कर मत जाइये, आप काल के गाल।।
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नशा रोकने के उपाय-
शासन - प्रशासन मादक पदार्थों पर रोक लगाकर नशे से हो रही हानि को घटा सकता है। आजकल सरकारें दोमुँही नीति अपना रही हैं। एक ओर मद्यपान को समाप्त करना चाहती हैं, दूसरी ओर शराब की दुकानें नीलाम करती हैं। िासि तरह बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू के उत्पादों का उत्पादन बंद नहीं कर उन पर चेतावनी चाप कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती हैं। यह ठीक है कि मादक पदार्थों का उत्पादन और प्रयोग पूरी तरह से बंद कर देने से राजस्व का घाटा होगा किन्तु कोेे भी धनराशि मानव जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं हो सकती। राजस्व का यह घाटा बीमारियों के कम होने से चिकित्सा, औषधि, शल्यक्रिया आदि पर संभावित व्यय में कमी तथा अन्य उपायों से पूरी की जा सकती है।
नशे की आदत लगने पर दृढ़ संकल्प, प्यार और अपने पण से छुड़ाई जा सकती है। नशैलची से घृणा कर दूर भागने के स्थान पर उसने अपनापन रखकर मित्र की तरह व्यवहार करें। उसे नशे से हानि के बारे में जानकारी दें। पढ़ाई या अन्य गृह कार्य का अत्यधिक बोझ न डालें। उसकी संगत का ध्यान रखें कि नशा करनेवाला अन्य साथी न मिल सके। उसे हल्के-फुल्के मन बहलाव के कार्य में व्यस्त रखें। नशा न करने के कारण हो रहे कष्ट को सहन करने और भूलने में उसकी सहायता करें। कई संस्थाएं भी इस दिशा में कार्य कर रही हैं। बहुधा व्यक्ति कुछ समय के लिए नशा छोड़ने के बाद फिर नशा करने लगता है। इसका एकमात्र उपाय दृढ़ संकल्प है।
प्रबंधों के बावजूद चोरी-छिपे मादक पदार्थों का क्रय-विक्रय करने वालों के विरुद्ध कड़े कदम उठाकर उनकी गिरफ्तारियाँ कर दण्ड दिया जा सके तो जा सके तो नशे की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा।
नशे की लत घटाने और मिटाने का एक प्रभावी उपाय ग्राम्यांचलों में स्वस्थ्य मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराना है। गाँव-गाँव में योग कक्षाएँ, व्यायाम शालाएँ, अखाड़े, वाचनालय, पुस्तकालय, कला तथा साहित्य की कार्यशालाएँ निरन्तर चलें तो आम जन निरंतर व्यस्त रहेंगे और नशे की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकेगा। ग्राम्य अंचलों की कलाओं को प्रोत्साहन देकर रामलीला, नौटंकी, आल्हा गायन, कजरी गायन, फाग गायन आदि की प्रतियोगिताएँ कर प्रशासन द्वारा पुरस्कृत किया जाए तो इनकी तैयारी में व्यस्त रहने से आम लोगों में नशे की और उन्मुख होने का चाव घटेगा।
। अपनापन संयम ख़ुशी, सरल - सुगम उपचार।
।। व्यस्त रखें खुद को सदा, पायें - बाँटें प्यार।।
*
। मादक तत्वों का नहीं, उत्पादन हो और।
।।शासन चेते नीतियाँ, बदले ला नव दौर।।
*
। अब न दुकानें मद्य की, खुलें, खुली हों बंद।
।।नीति आबकारी बदल, विहँस मिटायें गंद।।
*
।गाँजा भाँग अफीम का, जो करते व्यापार।
।। कड़ा दण्ड उनको मिले, जनगण करे पुकार।।
*
।पहले बीमारी बढ़ा, फिर करना उपचार।
।।जनहितकारी राज्य में, क्यों शासन लाचार।।
*
।आय घटे राजस्व की, खोजें अन्य उपाय।
।।सुरा बेच मत कीजिए, जनता को लाचार।।
*
।ग्राम्य कला-साहित्य की, कक्षाएँ हों रोज।
।।योग और व्यायाम की, प्रतिभाएँ लें खोज।।
*
।कजरी आल्हा फाग का, गायन हो हर शाम।
।।नौटंकी मंचन करें, कोेेई न हो बेकाम।।
*****
नशा मुक्ति संदेश
*
नशा दूत है मौत का
नाम साँस की सौत का।
छोड़, मिले जीवन नया
जो न तजे मरघट गया।
*
सुरा तमाखू स्मैक हैं, घातक तज दें आप
सेवन करना-कराना, है सर्वाधिक पाप
*
बीड़ी-सिगरेट मौत को, लाते असमय पास
भूले कभी न पीजिए, दूर रहे संत्रास
*
नशा नाश-पैगाम है, रहें नशे से दूर
जो नादां करता नशा, आँखे रहते सूर
*****

बुधवार, 12 जुलाई 2023

बरसात, दोहा, आभूषण, दाँत, कुण्डलिया

कुण्डलिया

दाँत दिखाते देखकर, डेनटिस्ट लें फीस
दाँत निपोरो बेधड़क, चमक उठें बत्तीस
चमक उठें बत्तीस, दाँत बज देते ताली
दाँत पीसना नहीं, छटा हो तभी निराली
दाँत पेट में अगर, नहीं तब दाँत दिखाते
दाँत किटकिटा रहे, दाँत को दाँत डराते
*
रहो दाँत में जीभ बन, खट्टे कर दो दाँत।
तिनका पकड़ो दाँत से, व्यर्थ न तोड़ो दाँत।।
व्यर्थ न तोड़ो दाँत, दाँत काटी रोटी हो।
अगर हुए बेदाँत, बड़ी मुश्किल छोटी हो।।
दाँत दूध के टूट सकें हँस राह वह गहो।
दाँत पेट में अगर, बेहतर दूर ही रहो।।
१२-७-२०२१
***
समस्या पूर्ति चरण-तब लगती है चोट
*
तब लगती है चोट जब, दुनिया करे सवाल.
अपनी करनी जाँच लें, तो क्यों मचे बवाल.
*
खुले आम बेपर्द जब, तब लगती है चोट.
हैं हमाम में नग्न सब, फिर भी रखते ओट.
*
लाख गिला-शिकवा करें, सह लेते हम देर.
तब लगती है चोट, जब होता है अंधेर.
*
होती जब निज आचरण, में न तनिक भी खोट.
दोषी करें सवाल जब, तब लगती है चोट.

***

दोहा आभूषण 

आभूषण से बढ़ सकी, शोभा किसकी मीत?
आभूषण की बढ़ा दे, शोभा सच्ची प्रीत.
*
'आ भूषण दूँ' टेर सुन, आई वह तत्काल.
भूषण की कृति भेंट कर, बिगड़ा मेरा हाल.
*
गहना गह ना सकी तो, गहना करती रंज.
सास-ननदिया करेंगी, मौका पाकर तंज.
*
अलंकार के लिए थी, अब तक वह बेचैन.
'अलंकार संग्रह' दिया, देख तरेरे नैन.
*
रश्मि किरण मुख पर पड़ी, अलंकार से घूम.
कितनी मनहर छवि हुई, उसको क्या मालूम?
*
अलंकारमय रमा को, पूज रहे सब लोग.
गहने रहित रमेश जी, मन रहे हैं सोग.
*
मिली सुंदरी ज्वेल सी, ज्वेलर हो हूँ धन्य.
माँगे मिली न ज्वेलरी, हुई उसी क्षण वन्य.
*
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दोहा सलिला
दोहा मन की बात
*
बात-बात में कर रहा, दोहा मन की बात।
पर न बात बेबात कर, करे कभी आघात।।
*
बात निकलती बात से, बात-बात में जोड़।
दोहा गप्प न मारता, लेकर नाहक होड़।।
*
बिना बात की बात कर, संसद में हुड़दंग।
भत्ते लेकर मचाते, सांसद जनता तंग।।
*
बात काटते बात से, नेता पंडित यार।
पत्रकार पीछे नहीं, अधिवक्ता दमदार।।
*
मार न मारें मारकर, दें बातों से मार।
मीठी मार कभी करे, असर कभी फटकार।।
*
समय बिताने के लिए, लोग करें बतखाव।
निर्बल का बल बात है, सदा करें ले चाव।।
*
वार्ता विद्वज्जन करें, पंडितगण शास्त्रार्थ।
बात 'वाक्' हो जाए तो, विहँस करें वागार्थ।।
*
श्रुति-स्मृति है बात से, लोक-काव्य भी बात।
समझदार हो आमजन, गह पाए गुण तात।।
*
बातें ही वाचिक प्रथा, बातें वार्तालाप।
बात अनर्गल हो अगर, तब हो व्यर्थ प्रलाप।।
*
प्रवचन संबोधन कथा, बातचीत उपदेश।
मन को मन से जोड़ दे, दे परोक्ष निर्देश।।
*
बंधन है आदेश पर, स्वैच्छिक रहे सलाह।
कानाफूसी गुप्त रख, पूरी कर लें चाह।।
*
मन से मन की बात को, कहें मंत्रणा लोग।
बने यंत्रणा वह अगर, तज मत करिए सोग।।
*
बातें ही गपशप बनें, दें मन को आनंद।
जैसे कोई सुनाता, मद्धिम-मधुरिम छंद।।
*
बातें भाषण प्रबोधन, सबक पाठ वक्तव्य।
विगत-आज़ होता विषय, कभी विषय भवितव्य।।
*
केवल बात न काम ही, आता हरदम काम।
बात भले अनमोल हो, कह-सुन लो बेदाम।।
*
बिना बात का बतंगड़, पैदा करे विवाद।
बना सके जो समन्वय, वह करता संवाद।।
*
बात गुफ्तगू हो करे, मन-रंजन बिन मोल।
बात महाभारत बने, हो यदि उसमें झोल।।
*
सबक सिखाती बात या, देती है संदेश।
साखी सीख सबद सभी, एक भिन्न परिवेश।।
*
टाक लैक्चर स्पीच दे, बात करे एड्रैस।
कमुनिकेट कर घटा दें, बातें सारा स्ट्रैस।।
*
बात बात को मात दे, लेती है दिल जीत।
दिल की दूरी दूरकर, बात बढ़ाती प्रीत।।
12.7.2018
***
गीत
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
12-7-2016
*
मुक्तिका:
मन में यही...
संजीव 'सलिल'
*
मन में यही मलाल है.
आदम हुआ दलाल है..
लेन-देन ही सभ्यता
ऊँच-नीच जंजाल है
फतवा औ' उपदेश भी
निहित स्वार्थ की चाल है..
फर्ज़ भुला हक माँगता
पढ़ा-लिखा कंगाल है..
राजनीति के वाद्य पर
गाना बिन सुर-ताल है.
बहा पसीना जो मिले
रोटी वही हलाल है..
दिल से दिल क्यों मिल रहे?
सोच मूढ़ बेहाल है..
'सलिल' न भय से मौन है.
सिर्फ तुम्हारा ख्याल है..
१२-७-२०१०
*

मंगलवार, 11 जुलाई 2023

भोजपुरी हाइकु, मुक्तक, दोहा यमक, षट्पदिक कृष्ण-कथा, लघुकथा, सोनेट

सोनेट
सुन
*
नदी नहाते हुए किसी के मंत्र तो सुनो,
डुबकी मारो, पैर न फिसले, सम्हल हो खड़े,
लहरों की कलकल सुन मन में नाद तो गुनो,
निकलो औरों को अवसर दो, व्यर्थ हो अड़े।

मंदिर बजते शंख-घंटियाँ क्या कहती हैं?
बाँग दे रहा मुर्गा, मस्जिद से अजान सुन,
भजन-सबद, साखी न कभी भी चुप रहती हैं,
तू गा सबके साथ; समस्या का हल भी बुन।

उस पलाश को देख वीतरागी चुप दहता,
बरगद पत्ते झरने देता नहीं रोकता,
तू क्यों अप्रिय याद को नाहक ही है तहता,
क्यों न भाड़ में नकारात्मक याद झोंकता?

रिधि-सिधि निधि-विधि बिसरा दे; मत नाहक सिर धुन।
बैठ पालथी मार; धुकधुकी चुप रहकर सुन।।
११-७-२०२३
***
दोहा सलिला
चित्र गुप्त जिसका रहा, भाव वही साकार
भाषा करती लोक में, रस लय का व्यापार
*
अक्षर अजर अमर रहे, लघुतम ध्वनि लें जान
मिलकर सार्थक रूप धर, बनें शब्द प्रतिमान
*
शब्द-भेद बन व्याकरण, करता भाषा शुद्ध
पिंगल छांदस काव्य रच, कहता पढ़ें प्रबुद्घ
*
भाषा जन्मे लोक में, गहता प्रकृति स्वतंत्र
सधुक्कड़ी मनमौज है, सरल-कठिनतम तंत्र
*
लोक गढ़े नव शब्द खुद, तत्सम-तद्भव आप
मिल समृद्ध भाषा करें, जन जन जाते व्याप
*
कर्ता करता कार्य कर, क्रिया कर्म कर मौन
कहे खासियत विशेषण, कारक रहे न मौन
*
सर्वनाम संग्या हटा, हो जाता आसीन
वंशबेल दे ज्यों पिता, सुत को किंतु न दीन
*
कह विशेषता विशेषण, गुण चर्चा कर संत
क्रिया विशेषण क्रिया के, गुण कह रहा अनंत
*
ताना-बाना बुन रहा, अव्यय निकले अर्थ
अर्थ बिना अभिव्यक्ति ही, हो जाती है व्यर्थ
*
चित्र भावमुद्रा करें, बिना कहे पर बात
मौन लकीरें भी करें, बात समझिए तात
*
भाषा जुड़ विग्यान से, हो जाती है गूढ़
शब्द-अर्थ की श्लिष्टता, समझ न पाते मूढ़
*
व्यापकता दे शब्द को, लोक गहे साहित्य
संस्कार जो समझ ले, लेखक हो आदित्य
*
तारो! तारोगे किसे, तर न सके खुद आप.
शिव जपते हैं उमा को, उमा करेन शिव जाप.
११-७-२०२०
***
लघुकथा
मोहनभोग
*
'क्षमा करना प्रभु! आज भोग नहीं लगा सका.' साथ में बाँके बिहारी के दर्शन कर रहे सज्जन ने प्रणाम करते हुए कहा.
'अरे! आपने तो मेरे साथ ही मिष्ठान्न भण्डार से नैवेद्य हेतु पेड़े लिए था, कहाँ गए?' मैंने उन्हें प्रसाद देते हुए पूछा.
पेड़े लेकर मंदिर आ रहा था कि देखा कुछ लोग एक बच्चे की पिटाई कर रहे हैं और वह बिलख रहा है. मुझसे रहा नहीं गया, बच्चे को छुडाकर कारण पूछ तो हलवाई ने बताया कि वह होटल से डबल रोटी-बिस्कुट चुराकर ले जा रहा था. बच्चे ने बताया कि उसका पिता नहीं है, माँ बुखार से पीड़ित होने के कारण काम पर नहीं जा रही, घर में खाने को कुछ नहीं है, छोटी बहिन का रोना नहीं देखा गया तो वह होटल में चार घंटे से काम कर रहा है. सेठ से कुछ खाने का सामान लेकर घर दे आने को पूछा तो वह गाली देने लगा कि रात को होटल बंद होने के बाद ही देगा. बार-बार भूखी बहिन और माँ के चेहरे याद आ रहे थे, रात तक कैसे रहेंगी? यह सोचकर साथ काम करनेवाले को बताकर डबलरोटी और बिस्किट ले जा रहा था कि घर दे आऊँ फिर रात तक काम करूंगा और जो पैसे मिलेंगे उससे दाम चुका दूंगा.
दुसरे लड़के ने उसकी बात की तस्दीक की लेकिन हलवाई उसे चोर ठहराता रहा. जब मैंने पुलिस बुलाने की बात की तब वह ठंडा पड़ा.
बच्चे को डबलरोटी, दूध, बिस्किट और प्रसाद की मिठाई देकर उसके घर भेजा. आरती का समय हो गया इसलिए खाली हाथ आना पड़ा और प्रभु को नहीं लगा सका भोग' उनके स्वर में पछतावा था.
'ऐसा क्यों सोचते हैं? हम तो मूर्ति ही पूजते रह गए और आपने तो साक्षात बाल कृष्ण को लगाया है मोहन भोग. आप धन्य है.' मैंने उन्हें नमन करते हुए कहा.
***
***
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ आ-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
11.7.2018,
***
नवगीत
समारोह है
*
समारोह है
सभागार में।
*
ख़ास-ख़ास आसंदी पर हैं,
खासुलखास मंच पर बैठे।
आयोजक-संचालक गर्वित-
ज्यों कौओं में बगुले ऐंठे।
करतल ध्वनि,
चित्रों-खबरों में
रूचि सबकी है
निज प्रचार में।
*
कुशल-निपुण अभियंता आए,
छाती ताने, शीश उठाए।
गुणवत्ता बिन कार्य हो रहे,
इन्हें न मतलब, आँख चुराए।
नीति-दिशा क्या सरकारों की?
क्या हो?, बात न
है विचार में।
*
मस्ती-मौज इष्ट है यारों,
चुनौतियों से भागो प्यारों।
पाया-भोगो, हँसो-हँसाओ-
वंचित को बिसराओ, हारो।
जो होता है, वह होने दो।
तनिक न रूचि
रखना सुधार में।
११-७-२०१७
***
लघुकथा
अकेले
*
'बिचारी को अकेले ही सारी जिंदगी गुजारनी पड़ी।'
'हाँ री! बेचारी का दुर्भाग्य कि उसके पति ने भी साथ नहीं दिया।'
'ईश्वर ऐसा पति किसी को न दे।'
दिवंगता के अन्तिम दर्शन कर उनके सहयोगी अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे।
'क्यों क्या आप उनके साथ नहीं थीं? हर दिन आप सब सामाजिक गतिविधियाँ करती थीं। जबसे उनहोंने बिस्तर पकड़ा, आप लोगों ने मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन पर सामाजिक कार्यक्रमों को वरीयता दी। पिता जी असहमत होते हुए भी कभी बाधक नहीं हुए, उनकी जिम्मेदारी पिताजी ने निभायी। हम बच्चों को पिता के अनुशासन के साथ-साथ माँ की ममता भी दी। तभी माँ हमारी ओर से निश्चिन्त थीं। पिताजी बिना बताये माँ की हर गतिविधि में सहयोग करते रहेऔर आप लोग बिना सत्य जानें उनकी निंदा कर रही हैं।' बेटे ने उग्र स्वर में कहा।
'शांत रहो भैया! ये महिला विमर्श के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले प्यार, समर्पण और बलिदान क्या जानें? रोज कसमें खाते थे अंतिम दम तक साथ रहेंगे, संघर्ष करेंगे लेकिन जैसे ही माँ से आर्थिक मदद मिलना बंद हुई, उन्हें भुला दिया। '
'इन्हें क्या पता कि अलग होने के बाद भी पापा के पर्स में हमेश माँ का चित्र रहा और माँ के बटुए में पापा का। अपनी गलतियों के लिए माँ लज्जित न हों इसलिए पिता जी खुद नहीं आये पर माँ की बीमारी की खबर मिलते ही हमें भेजा कि दवा-इलाज में कोइ कसर ना रहे।' बेटी ने सहयोगियों को बाहर ले जाते हुए कहा 'माँ-पिताजी पल-पल एक दूसरे के साथ थे और रहेंगे। अब गलती से भी मत कहियेगा कि माँ ने जिंदगी गुजारी अकेले।
२-५-२०१७
***
गीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
***
दोहा सलिला
*
पाठक मैं आनंद का, गले मिले आनंद
बाहों में आनंद हो, श्वास-श्वास मकरंद
*
आनंदित आनंद हो, बाँटे नित आनंद
हाथ पसारे है 'सलिल', सुख दो आनंदकंद!
*
जब गुड्डो दादी बने, अनुशासन भरपूर
जब दादी गुड्डो बने, हो मस्ती में चूर
*
जिया लगा जीवन जिया, रजिया है हर श्वास
भजिया-कोफी ने दिया, बारिश में उल्लास
*
पता लापता जब हुआ, उड़ी पताका खूब
पता न पाया तो पता, पता कर रहा डूब
११-७-२०१७
***
षट्पदिक कृष्ण-कथा
देवकी-वसुदेव सुत कारा-प्रगट, गोकुल गया
नंद-जसुदा लाल, माखन चोर, गिरिधर बन गया
रास-लीला, वेणु-वादन, कंस-वध, जा द्वारिका
रुक्मिणी हर, द्रौपदी का बन्धु-रक्षक बन गया
बिन लड़े, रण जीतने हित ज्ञान गीता का दिया
व्याध-शर का वार सह, प्रस्थान धरती से किया
(महाभागवतजातीय गीतिका छंद, यति ३-१०-१७-२४, पदांत लघु गुरु)
११-७-२०१६
***
गीत
*
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
क्या लिखना है?
क्यों लिखना है?
कैसे लिखना है
यह सोचें
नाहक केश न
सर के नोचें
नवसंवेदन
जब गह पायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
लिखना कविता
होना सविता
बहती सरिता
मिटा पिपासा
आगे बढ़ना
बढ़े हुलासा
दीप
सम श्वासें जलायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
बहा पसीना
सीखें जीना
निज दुःख पीकर
खुशियाँ बाँटें
मनमानी को
रोकें-डाँटें
स्वार्थ
प्रथम अपना तज गायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
११-७-२०१५
***
गले मिले दोहा यमक
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
***
मुक्तक:
आसमान पर भा/व आम जनता/ का जीवन कठिन हो रहा
त्राहिमाम सब ओ/र सँभल शासन, / जनता का धैर्य खो रहा
पूंजीपतियों! धन / लिप्सा तज भा/व् घटा जन को राहत दो
पेट भर सके मे/हनतकश भी, र/हे न भूखा, स्वप्न बो रहा
११-७-२०१४
***
भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरणा-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
साँच साबित/ गुलामी के जंजीर / अंगरेजी के.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
११-७-२०१०
***
एक दोहा
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
७-७-२०१०

भाषिक शुद्धता

विमर्श : भाषिक शुद्धता
संजीव
*
भाषा वाहक भाव की, करे कथ्य अभिव्यक्त
शब्द यथोचित यदि नहीं, तो मानें है त्यक्त
अनुभूत को अभिव्यक्त करने का माध्यम है भाषा। बच्चा भाषा सीखता है माँ और स्वजनों से। माता-पिता दोनों की भाषिक पृष्ठ भूमि प्राय: भिन्न होती है। भाषा कोई भी हो लोक दैनंदिन कार्य व्यापार में विविध भाषाओं-बोलिओं के शब्दों का प्रयोग करता है। ग्रामीण बोली और बाजारू भाषा इसी तरह बनती है। अध्ययन की भाषा शिक्षा के स्तर और विषयानुसार रूप ग्रहण करती है। प्राथमिक स्तर का भाषा शोधकार्य के उपयुक्त नहीं हो सकती। इसी तरह प्राणीशास्त्र में प्रयुक्त भाषा वाणिज्य अथवा यांत्रिकी को लिए अनुपयुक्त होगी।
भाषिक शुद्धता का शब्दों से संबंध नहीं
सामान्यतः भाषिक शुद्धता के शब्द-प्रयोग से जोड़ दिया जाता है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। शब्द साझा होते हैं। मनुष्य जहाँ जाता है, जिनसे मिलता है, जो पढ़ता है, उससे शब्द ग्रहण करता है। वर्तमान में दूरदर्शन व अंतर्जाल ने 'छोटी सी ये दुनिया' की सोच को साकार कर दिया है। इसे शब्दों की यात्रा और सहज हो गयी है। जिस देश के पात्र, स्थान और लोकाचार की चर्चा की जाएगी, उस देश के शब्द प्रयोग में आएंगे ही। रूसी परिवेश की कहानी में रूस के पात्र, स्थान और लोकाचार स्वाभाविक है। वहाँ भारतीय वनस्पतियों, नामों, शहरों का उल्लेख अनुपयुक्त होगा। कहते हैं "पाँच कोस पे पानी बदले, बीस कोस पे बानी" अगर भाषा के स्वाभाविकता ही न होगी तो कृत्रिम भाषा से रसानंद कैसे मिलेगा?
भाषिक शुद्धता का आधार व्याकरण और पिंगल
भाषिक शुद्धता या अशुद्धता को देखने का आधार भाषा का व्याकरण और पिंगल होता है। हर भाषा की भिन्न प्रकृति और संस्कार होता है। हिंदी में २ लिंग हैं, संस्कृत में ३, अंग्रेजी में ४। भाषिक शुद्धता को महत्वहीन समझनेवाले यह बताएं की अंग्रेजी में हिंदी की तरह दो लिंग मानकर लिखा जाए तो उन्हें हजम होगा? यदि अंग्रेजी के पर्चे में परीक्षार्थी हिंदी की क्रिया, विशेषण आदि का प्रयोग करे तो उसे सही मानेंगे? अंग्रेजी में उचित शब्द होते हुए भी तमिल, मराठी या हिंदी के शब्द उपयोग करने पर अंक देंगे?
भाषिक संस्कार
इसी तरह हिंदी में जो सम्यक शब्द हैं उनका प्रयोग किया ही जाना चाहिए। गाँव के किसान 'गेहूं' की जगह 'व्हीट' कहे तो असहनीय होगा। लोक अन्य भाषिक शब्दों को अपने संस्कार में ढालता है। तभी 'मास्टर साहेब' को 'मास्साब', 'डॉक्टर साहेब' को 'डाक्साब' बनाकर ग्रहण कर लेता है। 'स्टेशन' को 'टेशन' कहे तो भी स्वाभाविकता बनी रहती है। किन्तु पौधरोपण की जगह 'प्लांटेशन' का प्रयोग भाषिक प्रदूषण ही है।
साहित्य में भाषा
लोक साहित्य के माध्यम से भाषा को संस्कारित करता है। साहित्य की भाषा लक्ष्य पाठक के अनुरूप होती है। हिंदी साहित्य के स्नातक को जिस भाषा में पढ़ाया जायेगा वह चिकित्सा के स्नातक विद्यार्थी के लिए प्रयोग नहीं की जा सकती। साहित्य में भाषिक शुद्धता का आग्रह बिलकुल उचित है। हिंदी में अंग्रेजी, अरबी-फ़ारसी शब्दों के आग्रही क्या अंग्रेजी रचना कर्म में हिंदी शब्दों का प्रयोग करेंगे? प्रो. अनिल जी ने 'ऑफ़ एन्ड ऑन' या 'द सेकेण्ड थॉट' में शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिखी क्या? इन किताबों कितने हिंदी शब्द हैं? अंग्रेजी में लिखें तो भाषा शुद्ध हो, हिंदी में लिखें तो भाषिक शुद्धता का प्रश्न गलत कैसे ?
रचना का कथ्य और भाषा
बाल साहित्य की भाषा तकनीकी लेख या व्यंग्य लेख की तरह नहीं होगी। कबीर और तुलसी की भाषा में भिन्नता स्वाभाविक है और दोनों में से किसी को अशुद्ध नहीं कहा जाता। क्या रामचरित मानस ग़ालिब की भाषा में लिखा जा सकता है? सपना जी! बहुत विनम्रता से महान है कि उर्दू का तो कोई शब्द ही नहीं है। उर्दू शब्द कोष में सम्मिलित सब और हर शब्द किसी अन्य भाषा से लिया गया है। उर्दू हिंदी की एक शैली है जिसमें कुछ विदेशी (अरबी, फ़ारसी) और कुछ भारतीय भाषाओँ के शब्दों का संकलन है। इसी तरह जबलपुर के निकट पचेली बोली जाती है जिसमें ५ भारतीय भाषाओँ के शब्द सम्मिलित हैं।
भाषिक सहजता जरूरी
अनिल जी! यह सही है कि अनावश्यक क्लिष्टता नहीं होना चाहिए, पर यह लेखक की शैली से जुड़ा बिंदु है। मैथिलीशरण गुप्त और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनों की भाषा और शब्द चयन भिन्न हों तो दोनों में से किसी को निरस्त नहीं किया जा सकता जबकि एक की भाषा सरल दूसरे की क्लिष्ट है।
देवकांत जी से सहमत हूँ कि जहाँ भाषा में उपयुक्त शब्द हों वहाँ अनावश्यक अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग नहीं चाहिए।
सारांश जी की बात सही है। मिलमा दाल, सब्जी तो खाई जा सकती है पर खीर और कढ़ी को मिलाकर नहीं खाया जा सकता।
भाषा की नदी में सहायक नदियों क पानी मिले तो आपत्ति नहीं है किन्तु रासायनिक कारखाने का दूषित जल मिले तो आपत्ति करनी ही होगी।
पाखी जी हिंदी में शोध निरंतर हो रहा है। हमें अंग्रेजी से स्नेह रखते हुए अंग्रेजियत से दूरी बनानी होगी। अंग्रेजी के प्राध्यापक को भी पूरी तरह भारतीय संस्कार, हिंदी भाषा और स्थानीय बोली से जुड़ा होना चाहिए।
भाषी प्रदूषण गलत शब्द प्रयोग से भी होता है। रेल लेट है। इसे हिंदी कैसे स्वीकार करे? रेल का अर्थ पटरी होता है। ट्रेन का समानार्थी रेलगाड़ी है। जबलपुर आ रहा है। जबलपुर नहीं आता-जाता, आती-जाती रेलगाड़ी है। हमें भाषिक शुद्धता के प्रति सजग होना ही होगा। मेरी एक द्विपदी का आनंद लें-
क्या पूछते हो, राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां रास्ते जाते नहीं हैं।
पौधरोपण का प्रयोग न कर वृक्षारोपण का प्रत्योग करने के पक्षधर क्या प्लांटेशन की जगह ट्री टेशन कहेंगे? हम हिंदी के प्रति स्वस्थ्य दृष्टिकोण अपनाएं और भाषिक शुद्धता, सरलता तथा सहजता को अपनाएँ यह आवश्यक है।
अभी कल ही मिजोरम विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी में अनुवाद कार्य पर अन्तर्राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी थी। उसमें बुगरिया और अन्य देशों के विदेशी प्राध्यापक शुद्ध हिंदी पूरी तरह भारतीय लहजे में बोल रहे थे किन्तु कुलपति महोदय पूरे समय अंग्रेजी बोलते रहे। विदेशी प्राध्यापक द्वारा अंग्रेजी समझने में कठिनाई व्यक्त करने पर भी उन्हें अंग्रेजी बोलने में शर्म नहीं आई। अंत में भारतेन्दु के दोहे के साथ अपने बात समाप्त करता हूँ -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिठे न हिय को सूल
*

माहिया छंद

माहिया सलिला:
पंजाबी त्रिपदिक छंद माहिया
संजीव
*
माहिया पंजाब की साहित्यिक विधा है। माहिया का शाब्दिक अर्थ प्रेमिका (beloved)] है। ग़ज़ल की तरह माहिया की विषयवस्तु (theme) हिज्र या वियोग ही है परन्तु अन्य विषयों पर माहिया कहना मना नहीं है । पंजाबी का एक लोकप्रिय माहिया देखें जिसे स्व. जगजीत सिंह ने गाया है:
"कोठे ते आ माहिया
मिलणा ता मिल आ के
नहीं ता ख़स्मा नूँ खा माहिया"
उर्दू माहिया-लेखन का श्री गणेश उर्दू शायर हिम्मतराय शर्मा ने फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के लिये १९३६ में माहिया लिखकर किया।
इक बार तो मिल साजन
आ कर देख ज़रा
टूटा हुआ दिल साजन।
१९५३ में क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तानी फ़िल्म ’हसरत’ के लिये माहिए लिखे।
भारत में क़मर जलालाबादी ने १९५८ में फ़िल्म ’फ़ागुन’ के लिये माहिए लिखे जिन्हें मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले की आवाज़ों में ओ. पी. नय्यर के संगीत के साथ रिकॉर्डकर भारत भूषण और मधुबाला पर युगल गीत के रूप में फिल्माया गया।
तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दिवाना है दीवाना
यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना
कुछ और चलचित्रों में माहियों पर आधारित गीत आए और लोकप्रिय हुए किन्तु क्रमशः यह विधा लुप्तप्राय हो गयी। लम्बे अंतराल के बाद हिंदी और उर्दू में लगभग एक साथ माहिये को फिर अपनाया गया। जर्मनी प्रवासी पाकिस्तानी शायर हैदर क़ुरेशी ने न केवल खुद माहिये लिखे अपितु अन्यों को भी प्रेरित किया।
फूलों को पिरोने में
सूई तो चुभनी थी
इस हार के होने में
मुरादाबाद, उ0प्र0 निवासी प्रसिद्ध उर्दू शायर डा0 आरिफ़ हसन खां ने अपने माहिया संग्रह ’ख़्वाबों की किरचें’ में ११७ माहिया प्रकाशित किये हैं।
हरगानवी का एक माहिया खून देकर फूल खिलाने का संदेश देता हैे -
रंगीन कहानी दो
अपने लहू से तुम
गुलशन को जवानी दो
माहिये कहने में महिला शायर भी पीछे नहीं हैं-
आँगन में खिले बूटे
ऐसे मौसम में
वो हम से रहे रूठे
-सुरैया शहाब
खिड़की में चन्दा है
इश्क़ नहीं आसां
ये रुह का फ़न्दा है
--बशरा रहमान
माहिये का रचना विधान:
सामान्यतः माहिये की पहली और तीसरी पंक्ति १२-१३ मात्राओं व समान तुकांत की तथा दूसरी पंक्ति २ कम मात्राओं व भिन्न तुकांत की होती है।
कुछ महियाकारों ने तीनों पंक्तियों का समान पदभार रखते हुए माहिया रचे हैं।
डॉ. आरिफ हसन खां के अनुसार 'माहिया का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिये फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलान् (मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल) और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् (मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्) है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल-बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किये जा सकते हैं. [तफ़सील के लिये मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर (इन पंक्तियों के लेखक) की किताब ’मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब (अध्याय) माहिए के औज़ान]।'
उर्दू में माहिया के बुनियादी औज़ान 'फ़एलुन् फ़एलुन् फ़एलुन् २२ २२ २२, फ़एलुन् फ़एलुन् फ़ा २२ २२ २ हैं।
डा0 आरिफ़ हसन खां ने अपनी उर्दू किताब ’मेराज़-उल-अरूज़;[ में माहिया की पदभार व्यवस्था पर विस्तार से लिखा है। मूल पदभार पर पहली और तीसरी पंक्ति हेतु १६ औज़ान तथा दूसरी पंक्ति हेतु ८ औज़ान उसी प्रकार हो सकते हैं जैसे रुबाई के लिए २४ औज़ान मुक़र्रर किये गये हैं।
शायर आरिफ खां के कुछ और माहिया देखें:
ऎ काश न ये टूटें
दिल में चुभती हैं
इन ख़्वाबों की किरचें
मिट्टी के खिलौने थे
पल में टूट गए
क्या ख़्वाब सलोने थे
आकाश को छू लेता
साथ जो तू देती
क़िस्मत भी बदल देता
पिघलेंगे ये पत्थर
इन पे अगर गुज़रे
जो गुज़री है मुझ पर
वो दिलबर कैसा है
मुझ से बिछुड़ कर भी
मेरे दिल में रहता है
हिंदी माहिए में ग़ज़ल और गीत कहने का प्रयोग मैंने लगभग दो दशक पूर्व किया है जो अंतर्जाल पत्रिका दिव्य नर्मदा में प्रकाशित हुए। बुंदेली में सबसे पहले माहिए कहे हैं।कुछ नव लिखित माहिए प्रस्तुत हैं-
उच्चार माहिया में
बारह दस बारह
तेरह ग्यारह तेरह।
मैंने न लिखा कुछ भी
सच बतलाता हूँ
माता लिखवाती है।
कविता करना यारों
मीनाकारी है
चुन शब्द नगीने रख।
खिलती कलियाँ खुद ही
देती हैं आमंत्रण
बेबस भँवरे चूमें।
बरबस हो जाता है
प्रेम करे कब तू
नाहक पछताता है।
ले जान हथेली पर
फौजी ने जाना
मरते दम मुस्काना।
***

हाइकु

विशेष लेख:
हाइकु एक जापानी छंद
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हाइकु सामान्यतः ३ पंक्तियों की वह लघु काव्य रचना है जिसमें सामान्यतः क्रमश: ५-७-५ ध्वनियों का प्रयोग कर एक अनुभूति या छवि की अभिव्यक्ति की जाती है। हिंदी को त्रिपदिक छंदों की विरासत संस्कृत से मिली है। वर्त्तमान में जापानी का हाइकु हिंदी साहित्य में हिंदी के संस्कार और भारतीयता का कलेवर लेकर लोकप्रिय हो रहा है।
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी।
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है।
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर, १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है। ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढ़ाए जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
२. वैचारिक सन्निकटता:
हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' अर्थात 'काटना' का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool the feeling of a wall against the feet — siesta
कितनी शीतल दीवार की अनुभूति पैर के विरुद्ध
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- ताज़ा सुगंध
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन
deepar into snow गहरे बर्फ में.
सारतः दोनों स्थितियों में, विचार- हाइकू का दो भागों में विषयांतर कर अन्तर्निहित तुलना द्वारा रचना के आशय को ऊँचाई देता है। इस द्विभागी संरचना की प्रभावी निर्मिति से दो भागों के अंतर्संबंध तथा उनके मध्य की दूरी का परिहार हाइकु लेखन का कठिनतम भाग है।
३. विषय चयन और मार्मिकता:
पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जब आप कुछ ऐसा देखें या अनुभव करे जो आपको अन्यों को बताने के लिए प्रेरित करे तो उसे 'ध्यान से देखें', यह अनुभूति हाइकु हेतु उपयुक्त हो सकती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं आधुनिक हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।
४. मौसमी संदर्भ:
जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा
५. विषयांतर:
हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय के परिदृश्य को इस प्रकार बदलें कि रचना में २ भाग हो सकें। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:
A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें
६. संवेदी भाषा-सूक्ष्म विवरण:
हाइकु गहन निरीक्षणजनित सूक्ष्म विवरणों से निर्मित और संपन्न होता है। हाइकुकार किसी घटना को साक्षीभाव (तटस्थता) से देखता है और अपनी आत्मानुभूति शब्दों में ढालकर अन्यों तक पहुँचाता है। हाइकु का विषय चयन करने के पश्चात उन विवरणों का विचार करें जिन्हें आप हाइकु में देना चाहते हैं। मस्तिष्क को विषयवस्तु पर केंद्रित कर विशिष्टताओं से जुड़े प्रश्नों का अन्वेषण करें। जैसे: अपने विषय के सम्बन्ध क्या देखा? कौन से रंग, संरचना, अंतर्विरोध, गति, दिशा, प्रवाह, मात्रा, परिमाण, गंध आदि तथा अपनी अनुभूति को आप कैसे सही-सही अभिव्यक्त कर सकते हैं?
७. वर्णनात्मक नहीं दृश्यात्मक
हाइकु-लेखन वस्तुनिष्ठ अनुभव के पलों का अभिव्यक्तिकरण है, न कि उन घटनाओं का आत्मपरक या व्यक्तिपरक विश्लेषण या व्याख्या। हाइकू लेखन के माध्यम से पाठक/श्रोता को घटित का वास्तविक साक्षात कराना अभिप्रेत है न कि यह बताना कि घटना से आपके मन में क्या भावनाएं उत्पन्न हुईं। घटना की छवि से पाठक / श्रोता को उसकी अपनी भावनाएँ अनुभव करने दें। अतिसूक्ष्म, न्यूनोक्ति (घटित को कम कर कहना) छवि का प्रयोग करें। यथा: ग्रीष्म पर केंद्रित होने के स्थान पर सूर्य के झुकाव या वायु के भारीपन पर प्रकाश डालें। घिसे-पिटे शब्दों या पंक्तियों जैसे अँधेरी तूफानी रात आदि का उपयोग न कर पाठक / श्रोता को उसकी अपनी पर्यवेक्षण उपयोग करने दें। वर्ण्य छवि के माध्यम से मौलिक, अन्वेषणात्मक भाषा / शंब्दों की तलाश कर अपना आशय सम्प्रेषित करें। इसका आशय यह नहीं है कि शब्दकोष लेकर अप्रचलित शब्द खोजकर प्रयोग करें अपितु अपने जो देखा और जो आप दिखाना चाहते हैं उसे अपनी वास्तविक भाषा में स्वाभाविकता से व्यक्त करें।
८. प्रेरित हों:
महान हाइकुकारों की परंपरा प्रेरणा हेतु भ्रमण करना है। अपने चतुर्दिक पदयात्रा करें और परिवेश से समन्वय स्थापित करें ताकि परिवेश अपनी सीमा से बाहर आकर आपसे बात करता प्रतीत हो । आज करे सो अब: कागज़-कलम अपने साथ हमेशा रखें ताकि पंक्तियाँ जैसे ही उतरें, लिख सकें। आप कभी पूर्वानुमान नहीं कर सकते कि कब जलधारा में पाषाण का कोई दृश्य, सुरंग पथ पर फुदकता चूहा या सुदूर पहाड़ी पर बादलों की टोपी आपको हाइकू लिखने के लिये प्रेरित कर देगी।
पढ़िए-बढ़िए: अन्य हाइकुकारों के हाइकू पढ़िए। हाइकु के रूप विधान की स्वाभाविकता, सरलता, सहजता तथा सौंदर्य ने विश्व की अनेक भाषाओँ में सहस्त्रोंको लिखने की प्रेरणा दी है।अन्यों के हाइकू पढ़ने से आपके अंदर छिपी प्रतिभा स्फुरित तथा गतिशील हो सकती है।
९. अभ्यास:
किसी भी अन्य कला की तरह ही हाइकू लेखन कला भी आते-आते ही आती है। सर्वकालिक महानतम हाइकुकार बाशो के अनुसार हर हाइकु को हजारों बार जीभ पर दोहराएं, हर हाइकू को कागज लिखें, लिखें, फिर-फिर लिखें जब तक कि उसका निहितार्थ स्पष्ट न हो जाए। स्मरण रहे कि आपको ५-७-५ सिलेबल के बंधन में कैद नहीं होना है। वास्तविक साहित्यिक हाइकु में 'किगो' द्विभागी सन्निकट संरचना और प्राथमिक तौर पर संवादी छवि होती ही है।
१०. संवाद:
हाइकू के गंभीर और सच्चे अध्येता हेतु विश्व की विविध भाषाओँ के हाइकुकारों के विविध मंचों, समूहों, संस्थाओं और पत्रिकाओं से जुड़ना आवश्यक है ताकि वे अधुनातन हाइकु शिल्प और शैली के विषय में अद्यतन जानकारी पा सकें। हाइकु शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है "किरेजि"। "किरेजि" का स्पष्ट अर्थ देना कठिन है, शाब्दिक अर्थ है "काटने (अलग करने) वाला अक्षर"। इसे हिंदी में ''वाचक शब्द'' कहा जा सकता है। "किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्त्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।
यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि]
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा
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सहायक पुस्तक: जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ ५५-५६
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ई मेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ ।