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शनिवार, 13 मई 2023

मुक्तक, दिल, लघुकथा, नवगीत, सोनेट, हरिजन दोहा, जबलपुर

सॉनेट
हरिजन 
हरि! जन को हरिजन मत करना
आम आदमी कोई तो हो
जिसकी राह अलग थोड़ी हो
भाव-ताव देखो मत डरना
अंतर में अंतर रख हँसना
कथनी-करनी एक न भाए
ठकुरसुहाती खूब सुहाए
ले अवतार न नाहक फँसना
मीठा भोग मिले हँस चखना
खट्टा कड़वा तीखा तजना
अन्य न तो खुद निज जय करना
पापी तार पार भव करना
अपने मन की रास न कसना
हर सुंदर तन के मन बसना
१३-५-२०२२
•••
दोहा सलिला
जबलपुर में शुभ प्रभात
*
रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।
कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।
*
सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।
शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।
*
खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।
सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।
*
साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।
कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।
*
मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।
देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।
*
है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।
नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।
*
शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।
देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।
*
पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।
सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।
*
धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।
सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।
*
गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।
भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।
*
नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।
शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।
*
बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।
भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।
*
बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।
जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।
*
कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।
ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।
*
मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।
थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।
१३-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
*
ह्रदय एक का है उदार पर
दिल दूजे का बेहद तंग
*
यह जिसका हो रहा सहायक
वह इससे है बेहद तंग
*
चिथड़ों में भी लाज ढकी है
आधुनिका वस्त्रों में नंग
*
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह औरों से छेड़े जंग
*
बेढंगे में छिपा न दिखता
खोज सको तो खोजो ढंग
*
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ है
मलिन हो गयी सुरसरि गंग
***
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।' वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है? क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा? यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१३-५-२०१६
***
नवगीत:
.
खून-पसीने की कमाई
कर में देते जो
उससे छपते विज्ञापन में
चहरे क्यों हों?
.
जिन्हें रात-दिन
काटा करता
सत्ता और कमाई कीड़ा
आँखें रहते
जिन्हें न दिखती
आम जनों को होती पीड़ा
सेवा भाव बिना
मेवा जी भर लेते हैं
जन के मन में ऐसे
लोलुप-बहरे क्यों हों?
.
देश प्रेम का सलिल
न चुल्लू भर
जो पीते
मतदाता को
भूल स्वार्थ दुनिया
में जीते
जन-जीवन है
बहती 'सलिला'
धार रोकते बाधा-पत्थर
तोड़ी-फेंको, ठहरे क्यों हों?
१३-५-२०१५
*
मुक्तक:
दिल ही दिल
*
तुम्हें देखा, तुम्हें चाहा, दिया दिल हो गया बेदिल
कहो चाहूँगा अब कैसे, न होगा पास में जब दिल??
तुम्हें दिलवर कहूँ, तुम दिलरुबा, तुम दिलनशीं भी हो
सनम इंकार मत करना, मिले परचेज का जब बिल
*
न देना दिल, न लेना दिल, न दिलकी डील ही करना
न तोड़ोगे, न टूटेगा, नहीँ कुछ फ़ील ही करना
अभी फर्स्टहैंड है प्यारे, तुम सैकेंडहैंड मत करना
न दरवाज़ा खुल रख्नना, न कोई दे सके धऱना
*
न दिल बैठा, न दिल टूटा, न दहला दिल, कहूँ सच सुन
न पूछो कैसे दिल बहला?, न बोलूँ सच , न झूठा सुन,
रहे दिलमें अगर दिलकी, तो दर्दे-दिल नहीं होगा
कहो संगदिल भले ही तुम, ये दिल कातिल नहीँ होगा
*
लगाना दिल न चाहा, दिल लगा कब? कौन बतलाये??
सुनी दिल की, कही दिल से, न दिल तक बात जा पाये।
ये दिल भाया है जिसको, उसपे क्यों ये दिल नहीं आया?
ये दिल आया है जिस पे, हाय! उसको दिल नहीं भाया।
१३-५-२०१४
***

शुक्रवार, 12 मई 2023

सोनेट, विश्वास, कृपा, निश्चल छंद, दोहा, बाल गीत, मुक्तक, नवगीत

सॉनेट
विश्वास
मन में जब विश्वास जगा है
कलम कह रही उठो लिखो कुछ
तुम औरों से अलग दिखो कुछ
नाता लगता प्रेम पगा है
मन भाती है उषा-लालिमा
अँगना में गौरैया चहके
नीम तले गिलहरिया फुदके
संध्या सोहे लिए कालिमा
छंद कह रहा मुझे गुनगुना
भजन कह रहा भज, न भुनभुना
कथा कह रही कर न अनसुना
मंजुल मति कर सलिल आचमन
सजा रही हँस सृजन अंजुमन
हो संजीव नृत्य रत कन-कन
१२-५-२०२२
•••
सॉनेट
कृपा
किस पर नहीं प्रभु की कृपा
वह सभी को करता क्षमा,
मन ईश में किसका रमा
कितना कहीं कोई खपा।
जो बो रहे; वह पा रहे
जो सो रहे; वे खो रहे,
क्यों शीश धुनकर रो रहे
सब हाथ खाली जा रहे।
जो जा रहे फिर आ रहे
रच गीत अपने गा रहे
जो बाँटते वह पा रहे।
जोड़ा न आता काम है
दामी मिला बेदाम है
कर काम जो निष्काम है।
१२-५-२०२२
•••
सॉनेट
सरल
*
वही तरता जो सरल है
सदा रुचता जो विमल है
कंठ अटके जो गरल है
खिले खिलखिलकर कमल है।
कौन कहिए नित नवल है
सचल भी है; है अचल भी
मलिन भी है, धवल भी है
अजल भी है; है सजल भी।
ठोस भी है; तरल भी है
यही असली है, नकल भी
अमिय भी है; गर्ल भी है
बेशकल पर हर शकल भी।
नित्य ढलता पर अटल है
काट उगता, वह फसल है।
१२-५-२०२२
•••
दोहा सलिला
चाँद-चाँदनी भूलकर, देखें केवल दाग?
हलुआ तज शूकर करे, विद्या से अनुराग।।
खाल बाल की निकालें, नहीं आदतन मीत।
अच्छे की तारीफ कर, दिल हारें दिल जीत।।
ठकुरसुहाती मत कहें, तजिए कड़वा बोल।
सत्य मधुरता से कहें, नहीं पीटने ढोल।।
शो भा सके तभी सलिल, जब शोभा शालीन।
अतिशय सज्जा-सादगी, कर मनु लगता दीन।।
खूबी-खामी देखकर, निज मत करिए व्यक्त।
एकांगी बातें करे, जो हो वह परित्यक्त।।
१२-५-२०२२
○○○

दोहा सलिला
*
मंगल है मंगल करें, विनती मंगलनाथ
जंगल में मंगल रहे, अब हर पल रघुनाथ
सभ्य मनुज ने कर दिया, सर्वनाश सब ओर
फिर हो थोड़ा जंगली, हो उज्जवल हर भोर
संपद की चिंता करें, पल-पल सब श्रीमंत
अवमूल्यित हैं मूल्य पर, बढ़ते मूल्य अनंत
नया एक पल पुराना, आजीवन दे साथ
साथ न दे पग तो रहे, कैसे उन्नत माथ?
रह मस्ती में मस्त मन, कभी न होगा पस्त
तज न दस्तकारी मनुज, दो-दो पाकर दस्त
१२-५-२०२०

एक दोहा

जब चाहा संवाद हो, तब हो गया विवाद
निर्विवाद में भी मिला, हमको छिपा विवाद.
***
मुक्तक:
.
कलकल बहते निर्झर गाते
पंछी कलरव गान सुनाते गान
मेरा भारत अनुपम अतुलित
लेने जन्म देवता आते
.
ऊषा-सूरज भोर उगाते
दिन सपने साकार कराते
सतरंगी संध्या मन मोहे
चंदा-तारे स्वप्न सजाते
.
एक साथ मिल बढ़ते जाते
गिरि-शिखरों पर चढ़ते जाते
सागर की गहराई नापें
आसमान पर उड़ मुस्काते
.
द्वार-द्वार अल्पना सजाते
रांगोली के रंग मन भाते
चौक पूरते करते पूजा
हर को हर दिन भजन सुनाते
.
शब्द-ब्रम्ह को शीश झुकाते
राष्ट्रदेव पर बलि-बलि जाते
धरती माँ की गोदी खेले
रेवा माँ में डूब नहाते
***
मुक्तिका:
*
चाह के चलन तो भ्रमर से हैं
श्वास औ' आस के समर से हैं
आपको समय की खबर ही नहीं
हमको पल भी हुए पहर से हैं
आपके रूप पे फ़िदा दुनिया
हम तो मन में बसे, नजर से हैं
मौन हैं आप, बोलते हैं नयन
मन्दिरों में बजे गजर से हैं
प्यार में हार हमें जीत हुई
आपके धार में लहर से हैं
भाते नाते नहीं हमें किंचित
प्यार के शत्रु हैं, कहर से हैं
गाँव सा दिल हमारा ले भी लो
क्या हुआ आप गर शहर से हैं.
***
***
बाल गीत
देश हित :
.
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
मातृ भू भाषा जननि को कर नमन
गौ नदी हैं मातृ सम बिसरा न मन
प्रकृति मैया को न मैला कर कभी
शारदा माँ के चरण पर धर सुमन
लक्ष्मी माँ उसे ही मनुहारती
शक्ति माँ की जो उतारे आरती
स्वर्ग इस भू पर बसाना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
प्यार माँ करती है हर संतान से
शीश उठता हर्ष सुख सम्मान से
अश्रु बरबस नयन में आते झलक
सुत शहीदों के अमर बलिदान से
शहादत है प्राण पूजा जो करें
वे अमरता का सनातन पथ वरें
शहीदों-प्रति सर झुकाना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
देश-रक्षा हर मनुज का धर्म है
देश सेवा से न बढ़कर कर्म है
कहा गीता, बाइबिल, कुरआन ने
देश सेवा जिन्दगी का मर्म है
जब जहाँ जितना बने उतना करें
देश-रक्षा हित मरण भी हँस वरें
जियें जब तक मुस्कुराना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
१२-५-२०१५

***
छंद सलिला:
निश्चल छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १६-७, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)
लक्षण छंद:
कर सोलह सिंगार, केकसी / पाने जीत
सात सुरों को साध, सुनाये / मोहक गीत
निश्चल ऋषि तप छोड़, ऱूप पर / रीझे आप
संत आसुरी मिलन, पुण्य कम / ज्यादा पाप
उदाहरण:
१. अक्षर-अक्षर जोड़ शब्द हो / लय मिल छंद
अलंकार रस बिम्ब भाव मिल / दें आनंद
काव्य सारगर्भित पाठक को / मोहे खूब
वक्ता-श्रोता कह-सुन पाते / सुख में डूब
२. माँ को करिए नमन, रही माँ / पूज्य सदैव
मरुथल में आँचल की छैंया / बगिया दैव
पाने माँ की गोद तरसते / खुद भगवान
एक दिवस क्या, कर जीवन भर / माँ का गान
३. मलिन हवा-पानी, धरती पर / नाचे मौत
शोर प्रदूषण अमन-चैन हर / जीवन-सौत
सर्वाधिक घातक चारित्रिक / पतन न भूल
स्वार्थ-द्वेष जीवन-बगिया में / चुभते शूल
१२-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

***

नवगीत

कब होंगे आज़ाद???...

*

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



गए विदेशी पर देशी

अंग्रेज कर रहे शासन

भाषण देतीं सरकारें पर दे

न सकीं हैं राशन

मंत्री से संतरी तक कुटिल

कुतंत्री बनकर गिद्ध-

नोच-खा रहे

भारत माँ को

ले चटखारे स्वाद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



नेता-अफसर दुर्योधन हैं,

जज-वकील धृतराष्ट्र

धमकी देता सकल राष्ट्र

को खुले आम महाराष्ट्र

आँख दिखाते सभी

पड़ोसी, देख हमारी फूट-

अपने ही हाथों

अपना घर

करते हम बर्बाद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होगे आजाद?



खाप और फतवे हैं अपने

मेल-जोल में रोड़ा

भष्टाचारी चौराहे पर खाए

न जब तक कोड़ा

तब तक वीर शहीदों के

हम बन न सकेंगे वारिस-

श्रम की पूजा हो

समाज में

ध्वस्त न हो मर्याद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



पनघट फिर आबाद हो

सकें, चौपालें जीवंत

अमराई में कोयल कूके,

काग न हो श्रीमंत

बौरा-गौरा साथ कर सकें

नवभारत निर्माण-

जन न्यायालय पहुँच

गाँव में

विनत सुनें फ़रियाद-

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



रीति-नीति, आचार-विचारों

भाषा का हो ज्ञान

समझ बढ़े तो सीखें

रुचिकर धर्म प्रीति

विज्ञान

सुर न असुर, हम आदम

यदि बन पायेंगे इंसान-

स्वर्ग तभी तो

हो पायेगा

धरती पर आबाद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?

१२-५-२०११

***

आयुर्वेद, गन्ना, ईख, ममता सैनी

गन्ना घर-घर में पुजे

'गन्ना' घर-घर में पुजे , 'ईख' प्रकृति उपहार।
'अंस, ऊंस' महाराष्ट्र में, लोग कहें कर प्यार।१।
*
'चेरुकु' कहता आंध्र है, 'इक्षुआक' बंगाल।
गुजराती में 'शेरडी', 'भूरस' नाम कमाल।२।
*
मलयालम में 'करिंबू' , तमिल 'करंपु' भुआल।
'मधुतृण, दीर्घच्छद' मिले, संस्कृत नाम रसाल।३।

'सैकेरम ऑफिसिनेरम', कहे पौध विज्ञान। 
'पोआसिआ' कुलनाम है, हम कहते रस-खान।४।  
*
लोक कहे 'गुड़मूल' है, कुछ कहते 'असिपत्र'। 
'कसबुस्सुकर' अरब में,  है रस-राज विचित्र।५।  
*
नाम 'नैशकर' फारसी, 'पौंड्रक' एक प्रजाति।  
'शुगर केन' इंग्लिश कहे, जगव्यापी है ख्याति।6।  
*
छह से बारह फुटी कद, मिलता यह सर्वत्र। 
चौड़े इंची तीन हों, चौ फुट हरियल पत्र।7।  
*
पुष्प गुच्छ होता बड़ा, बहुशाखी लख रीझ। 
फूले वर्षा काल में, शीत फले लघु बीज।८। 
*
लाल श्वेत हो श्याम भी, ले बेलन आकार।  
बाँस सदृश दे सहारा, सह लेता है भार।९। 
*
रक्तपित्त नाशक कफद, बढ़ा वीर्य-बल मीत। 
मधुर स्निग्ध शीतल सरस, मूत्र बढ़ाए रीत।१०।
*
गरम प्रदेशों में करें, खेती हों संपन्न। 
गन्ना ग्यारस को न जो, पूजे रहे विपन्न।११। 
*  
रस गुड़ शक्कर प्रदाता, बना गड़ेरी चूस।  
आनंदित हों पान कर, शुगर केन का जूस।१२।
*
 गन्ना खेती लाभप्रद, शक़्कर बिके विदेश। 
 मुद्रा कमा विदेश की, विकसे भारत देश।१३।  
*
कच्चे गन्ने से बढ़े, कफ प्रमेह अरु मेद।  
पित्त मिटाए अधपका, हरे वात बिन खेद।१४।  
*
रक्त पित्त देता मिटा, पक्का गन्ना मीत। 
वीर्य शक्ति बल बढ़ाएँ, खा गन्ना शुभ रीत।१५।  
*
क्षुधा-वृद्धि कर पचाएँ, भोजन गुड़ खा आप।
श्रम-त्रिदोष नाशक मधुर, साफ़ करे खूं आप।१६।  
*
मृदा पात्र में रस भरें, रखें ढाँक दिन सात।      
माह बाद दस ग्राम ले, करें कुनकुना तात। १७ अ।  

तीन ग्राम सेंधा नमक, मिला कराएँ पान। 
पेट-दर्द झट दूर हो, पड़े जान में जान।१७ आ। 
*
तपा उफाना रस रखें, शीशी में सप्ताह। 
कंठरोध कुल्ला करें, अरुचि न भरिए आह।१८ अ। 

भोजन कर रस पीजिए, बीस ग्राम यदि आप। 
पाचक खाया पचा दे, अपच न पाए व्याप।१८ आ। 
*
टुकड़े करिए ईख के, छत पर रखिए रात। 
ओस-सिक्त लें चूस तो, मिटे कामला तात।१९। 
*
ताजा रस जड़ क्वाथ से, मिटते मूत्र-विकार। 
मूत्र-दाह भी शांत हो, आप न मानें हार।२०। 
*
गौ-घी चौगुन रस पका, सुबह-शाम दस ग्राम। 
कास अगर  पी लीजिए, तुरत मिले आराम।२१।
*
जब रस पक आधा रहे, मधु चौथाई घोल।  
मृदा-पात्र में माह दो, रख सिरका अनमोल।२२ अ। 

बना पिएँ जल संग हो, ज्वर-तृष्णा  झट ठीक। 
मूत्र-कृच्छ भी दूर हो, मेद मिटे शुभ लीक।२२ आ। 
*
चेचक मंथर ज्वर अगर, आसव तिगुना नीर। 
मिला बदन पर लगा लें, शीघ्र न्यून हो पीर।२३। 
*
दुःख दे शुष्क जुकाम यदि, मुँह से आए बास।  
मिर्च चूर्ण गुड़ दही लें, सुबह ठीक हो श्वास।२४। 
*
बूँद सौंठ-गुड़ घोल की, नाक-छिद्र में डाल।
हिक्का मस्तक शूल से, मुक्ति मिले हर हाल।२५। 
*
गुड़-तिल पीसें दूध सँग, घी संग करिए गर्म। 
सिरोवेदना मिटाने, खा लें करें न शर्म।२६। 
*
पीड़ित यदि गलगण्ड से, हरड़ चूर्ण लें फाँक। 
गन्ना रस पी लें तुरत, रोग न पाए झाँक।२७। 
*
भूभल में सेंका हुआ, गन्ना चूसें तात। 
लाभ मिले स्वरभंग में, करिए जी भर बात।२८। 
*
गुड़ सरसों के तेल का, समभागी कर योग।  
सेवन करिए दूर हो, शीघ्र श्वास का रोग।२९। 
*
पाँच ग्राम जड़ ईख की, कांजी सँग लें पीस।  
तिय खाए पय-वृद्धि हो, कृपा करें जगदीस।३०। 
*
रस अनार अरु ईख का, मिला पिएँ समभाग। 
खूनी डायरिया घटे, होन निरोग बड़भाग।३१।
*
गुड में जीरा मिलाकर, खाएँ  विहँस हुजूर। 
अग्निमांद्य से मुक्त हों, शीत-वात हो दूर।३२।
*
रक्त अर्श के मासे या, गर्भाशय खूं  स्राव। 
रस भीगी पट्टी रखें, होता शीघ्र प्रभाव।३३।
*
मूत्रकृच्छ मधुमेह या, वात करें हैरान।   
गुड़ जल जौ का खार लें, बात वैद्य की मान।३४।
*
बैठें पानी गर्म में, पथरी को कर दूर। 
गर्म दूध-गुड़ जब पिए, हो पेशाब जरूर।३५। 
*
ढाई ग्राम चुना बुझा, गुड़ लें ग्यारह ग्राम। 
वृक्क शूल में लें वटी, बना आप श्रीमान।३६।
*
प्रदर रोग में छान-लें, गुड़ बोरी की भस्म। 
लगातार कुछ दिनों तक, है उपचार न रस्म।।३७। 
*
चूर्ण आँवला-गुड़ करे, वीर्यवृद्धि लें मान। 
मूत्रकृच्छ खूं-पित्त की, उत्तम औषधि जान।३८।      
*
गुड़-अजवायन चूर्ण से, मिटते रक्त-विकार। 
रोग उदर्द मिटाइए, झट औषधि स्वीकार।३९।
*
कनखजूर जाए चिपक, फिक्र न करिए आप। 
गुड़ को जला लगाइए, कष्ट न पाए व्याप।४०।      
*
अदरक पीपल हरड़ या, सौंठ चूर्ण पँच ग्राम। 
गर्म दूध गुड़ में मिला, खाएँ सुबहो-शाम।४१ अ।

शोथ कास पीनस अरुचि, बवासीर गलरोग। 
संग्रहणी ज्वर वात कफ, श्याय मिटा दे योग।४१ आ।
*
शीतल जल में घोल गुड़, कई बार लें छान। 
पिएँ शांत ज्वार-दाह हो, पड़े जान में जान।४२।
*
काँच शूल काँटा चुभे, चिपकाएँ गुड़ गर्म।
मिलता है आराम झट, करें न नाहक शर्म।४३।  
*
धार-ऊष्ण गौ दुग्ध को, मीठा कर गुड़ घोल।  
यदि नलवात तुरत पिएँ, बैठे नहीं अबोल।४४।
*
गन्ना-रस की नसी दें, यदि फूटे नकसीर। 
दे आराम तुरत फुरत, औषधि यह अक्सीर।४५।
*
हिक्का हो तो पीजिए, गन्ना रस दस ग्राम। 
फिक्र न करिए तनिक भी, तुरत मिले आराम।४६।
*
अदरक में गुड़ पुराना, मिला खाइए मीत।      
मिटे प्रसूति-विकार अरु, कफ उपयोगी रीत।४७।
*
जौ के सत्तू साथ कर, ताजे रस का पान। 
पांडु रोग या पीलिया, का शर्तिया निदान।४८।
*
पीसें जौ की बाल फिर, पी लें रस के साथ। 
कोष्ठबद्धता दूर हो, लगे सफलता हाथ।४९।
*
गन्ना रस को लें पका, ठंडा कर पी आप। 
दूर अफ़ारा कीजिए, शांति सके मन व्याप।५०। 
*
गन्ना रस अरु शहद पी, पित्त-दाह हो दूर। 
खाना खाकर रस पिएँ, हो परिपाक जरूर।५१। 
 *
शहद आँवला-ईख रस, मूत्रकृच्छ कर नष्ट। 
देता है आराम झट, मेटे सकल अनिष्ट।५२।
*
   
   

गन्ने का इतिहास बहुत अलबेला है। कहते हैं भारत में गन्ना जंगली पौधे के रुप में उगता था। और वनस्पति वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पौधा मूल रुप से भारत में ही होता था। यहां से शर्करा शब्द ग्रीक, रोमन, फारसी और अरबी भाषाओं में गया। पहली शताब्दी के ग्रीक और लैटिन ग्रन्थों में उल्लेख है कि 'साखारोन' एक प्रकार का मधु है, जो बांस में मधुमखियों के बिना पाया जाता है, जो भारत में है, और दॉतों से चबाया जाता है। चीन में शर्करा को शि-मि (पाषण मधु) कहते थे। पाषण का अर्थ कंकड अथवा कणात्मक है। सन् 285 में कम्बुज देश ने चीन को गन्ने उपहार स्वरुप भेजे थे। सन् 647 में चीन के सम्राट थाइ-त्सुड् ने मगध में भारतीय शर्करा निर्माण की पद्धति सीखने के लिए शिष्टमण्डल भेजा था। जब अरब सेनाओं ने इरान को सन् 640 में पराजित करके धर्मान्तरित किया, तब सर्वप्रथम इरान से शर्करा निर्माण के लिए ले गए। इरान में शर्करा का उत्पादन बहुत प्राचीन काल में भारत से गया था। लोग कहते हैं कि एक बार गन्ने की फसल आने पर लोग खूब जश्न मना रहे थे तभी सिकंदर भारत देश को लूटने के इरादे से अपनी विशाल सेना के साथ आया। उसने खेतों में कई हरे-लाल रंग की लंबी-लंबी लकडियों को उगा देखा। जब वह थोडा आगे बढ़ा तो कई लोग इन लकडियों को चूस-चूसकर खूब आनन्दित हो रहे थे। उसे यह सब देखकर बडा आश्चर्य हुआ कि इन लकडियों में ऐसी क्या खूबी है?, उसने एक गन्ने चूस रहे आदमी से पूछा, तुम लोग इन लकडियों को क्यों चूसते हो? उस आदमी ने उत्तर देने के बजाय एक गन्ना सिकन्दर को देते हुए कहा-'तुम भी इसे चूसो।' सिकन्दर को गन्ने का रस इतना स्वादिष्ट लगा कि उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया। 'यहां से कुछ गन्ने ले जाओ और जमीन में रोपकर खेती करना शुरु कर दो।' कहते हैं कि गन्ने के पौधे की खोज आज से दो हजार वर्ष पूर्व एक आदिवासी के द्वारा अचानक हो गई थी। उस आदिवासी का घोडा खो गया था। वह आदिवासी यूनान के टेलस्मि में रहता था। वह घोडे क़ी खोज में जंगल में भटक रहा था। बहुत खोजने पर भी जब घोडा नहीं मिला तो वह हाथ में जलती मशाल लेकर बीहड ज़ंगल में उसे खोजने चल पडा। जब उसे जोर की प्यास लगी और आस पास पानी नहीं मिला तो उसकी नजर मधुमखियों के छत्ते पर पडी ज़ो एक दुबले पतले पौधे पर लगा था। उसने शहद पीने की इच्छा से मशाल की मदद से छत्ते से मधुमक्खियों को उडाया, और छत्ते को तोडना चाहा। छत्ता तो टूटा नहीं, वह दुबला-पतला पौधा मशाल की मार से बीच में से टूट गया और उसमें से रस टपकने लगा।
आदिवासी ने प्यास बुझाने के लिए टपकते रस के आगे अपनी जीभ बढा दी। उसे वह रस बहुत मीठा लगा। उसकी प्यास भी बुझ गई। आदिवासी को बडा अचरज लगा। क्योंकि उसने ऐसा स्वाद पहले न चखा था। वह इतना खुश हुआ कि घोडे क़ो ढूंढने की बात ही भूल गया और उस टूटे हुए पौधे को अपने साथ घर ले आया। उसने अपनी झोपडी क़े बाहर खाली पडे ज़मीन में वह पौधा रख दिया। रात में बारिश से पौधे का टुकडा जमीन में दब गया और कुछ दिनों के पश्चात वहां तीन-चार पौधे निकल आए। तभी से आदिवासियों में गन्ने का पौधा चर्चा का विषय बन गया। आदिवासी इसे अपने झोपडी क़े बाहर लगाने लगे। फिर धीरे-धीरे इसकी खेती भी शुरु हो गई। गन्ने के जन्म के बारे में एक लोककथा भी है। यह कहा जाता है कि यूनान के पुराणों में कहा गया है कि गन्ने का जन्म मरियन नामक एक संत ने आग की राख से किया था। जापान में भी गन्ने के बारे में एक लोककथा है। वहां जिक्र मिलता है कि प्राचीन काल में थामसा नाम के एक भिखारी ने एक विशाल वृक्ष को शाप देकर दुबला-पतला बना दिया था। जो बाद में गन्ने के नाम पर प्रसिद्ध हुआ।


वैसे गन्ने का लैटिन नाम सैकेरम ऑफिसिनेरम है। इसका नाम गन्ना क्यों पडा इस बारे में बेबिलोन के इतिहास में यह जिक्र मिलता है कि ईसा से आठ सौ वर्ष पूर्व गायना नामक आदिवासी ही इसकी खेती किया करते थे और उन्हीं के नाम पर इसका नाम गन्ना पडा। इसका भारतीय नाम ईख है। जहां पानी की पर्याप्त मात्रा रहती है, वहां यह बहुत पैदा होता है। भारत में इसकी खेती की शुरुआत ईसा से 338 वर्ष पूर्व हुई थी। उस समय लोग जब गन्ने की फसल आती तो खुश होकर नाचते- गाते जश्न मनाया करते थे। उत्तरी कनाडा, ब्राजील, मलेशिया में भी गन्ने बहुतायत मात्रा में होते हैं। वहां गन्ने की ऊंचाई बीस फुट तक होती है। वहां एक गन्ने से औसतन पांच लीटर रस निकाला जाता है।

गुरुवार, 11 मई 2023

सुजान छंद, विरहणी छंद, गीत, गीता, मुक्तिका, दोहा, बाल गीत, कौआ, लँगड़ी

श्रीमद्भग्वद्गीता
*
छोटा मन रखकर कभी, बड़े न होते आप।
औरों के पैरों कभी, खड़े न होते आप।।
*
भीष्म भरम जड़ यथावत, ठुकराएँ बदलाव।
अहंकार से ग्रस्त हो, खाते-देते घाव।।
*
अर्जुन संशय पूछता प्रश्न, न करता कर्म।
मोह और आसक्ति को समझ रहा निज धर्म।।
*
पल-पल परिवर्तन सतत, है जीवन का मूल।
कंकर हो शंकर कभी, और कभी हो धूल।।
*
उहापोह में भटकता, भूल रहा निज कर्म।
चिंतन कर परिणाम का, करता भटक विकर्म।।
*
नहीं करूँगा युद्ध मैं, कहता धरकर शस्त्र।
सम्मुख योद्धा हैं अगिन, लिए हाथ में अस्त्र।।
*
जो जन्मा वह मरेगा, उगा सूर्य हो अस्त।
कब होते विद्वानजन, सोच-सोचकर त्रस्त।।
*
मिलीं इन्द्रियाँ इसलिए, कर उनसे तू कर्म।
फल क्या होगा इन्द्रियाँ, सोच न करतीं धर्म।।
*
चम्मच में हो भात या, हलवा परसें आप।
शोक-हर्ष सकता नहीं, है चम्मच में व्याप।।
*
मीठे या कटु बोल हों, माने कान समान।
शोक-हर्ष करता नहीं, मन मत बन नादान।।
*
जीवन की निधि कर्म है, करते रहना धर्म।
फल का चिन्तन व्यर्थ है, तज दो मान विकर्म।।
*
सांख्य शास्त्र सिद्धांत का, ज्ञान-कर्म का मेल।
योगी दोनों साधते, जग-जीवन हो खेल।।
*
सम्यक समझ नहीं अगर, तब ग्रस लेता मोह
बुद्धि भ्रमित होती तभी, तन करता विद्रोह।।
*
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
संशय कर देता भ्रमित, फल चिंता तज मीत।।
*
केवल देह न सत्य है, तन में मन भी साथ।
तन-मन भूषण आत्म के, मूल एक परमात्म।।
*
आत्मा लेती जन्म जब, तब तन हो आधार।
वस्त्र सरीखी बदलती, तन खुद बिन आकार।।
*
सांख्य ज्ञान सँग कर्म का, सम्मिश्रण है मीत।
मन प्रवृत्ति कर विवेचन, सहज निभाए रीत।।
*
तर्क कुतर्क न बन सके, रखिए इसका ध्यान।
सांख्य कहे भ्रम दूर कर, कर्म करे इंसान।।
*
देखें अपने दोष खुद, कहें न करिए शर्म।
दोष दूर कर कर्म कर, वरिए अपना धर्म।।
*
कर सकते; करते नहीं, जो होते बदनाम।
कर सकते जो कीजिए, तभी मिले यश-मान।।
*
होनी होती है अटल, होगी मत कर सोच।
क्या कब कैसे सोचकर, रखो न किंचित लोच।।
*
दो पक्षों के बीच में, जा संशय मत पाल।
बढ़ता रह निज राह पर, कर्म योग मत टाल।।
*
हानि-लाभ हैं एक से, यश-अपयश सम मान।
सोच न फल कर कर्म निज, पाप न इसको जान।।
*
ज्ञान योग के साथ कर, कर्म योग का मेल।
अपना धर्म न भूल तू, घटनाक्रम है खेल।।
*
हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।
करता चल निज कर्म तू, उठा-झुका कर माथ।।
*
तज कर फल आसक्ति तू, करते जा निज कर्म।
बंधन बने न कर्म तब, कर्म योग ही धर्म।।
*
१०-५-२०२१
***
मुक्तिका
*
कोरोना की टाँग अड़ी है
सबकी खटिया हुई खड़ी है
मुश्किल में है आज जिंदगी
सतत मौत की लगी झड़ी है
शासनतंत्र-प्रशासन असफल
भीत मीडिया विषम घड़ी है
जनगण मरता है, मरने दो
सत्ता की लालसा बड़ी है
रोजी-रोटी के लाले हैं
व्यापारी की नियत सड़ी है
अस्पताल औषधि अति मँहगे
केर-बेर की जुड़ी कड़ी है
मेहनतकश का जीना दूभर
भक्तों का दल लिए छड़ी है
११-५-२०२१
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
***
***
बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
११-५-२०२०


***
छंद सलिला:
सुजान / विरहणी छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १४-९, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)
लक्षण छंद:
बनिए सुजान नित्य तान / छंद का वितान
रखिए भुवन-निधि अंत में / गुरु-लघु पहचान
तजिए न आन रीति जान / कर्म कर महान
करिए निदान मीत ठान / हो नया विहान
उदाहरण:
१. प्रभु चित्रगुप्त निराकार / होते साकार
कण-कण में आत्म रूप हैं, देव निराकार
अक्षर अनादि शब्द ब्रम्ह / सृजें काव्य धार
कथ्य लय ऱस बिम्ब सोहें / सजे अलंकार
२. राम नाम ही जगाधार / शेष सब असार
श्याम नाम ही जप पुकार / बाँट 'सलिल' प्यार
पुरुषार्थ-भाग्य नीति सुमति / भवसागर पार
करे-तरे ध्यान धरें हँस / बाँके करतार
३. समय गँवा मत, काम बिना / सार सिर्फ काम
बिना काम सुख-चैन छिना / लक्ष्य एक काम
काम कर निष्काम तब ही / मिल पाये नाम
ज्यों की त्यों चादर धर जा / ईश्वर के धाम
११-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा गाथा ५
दोहा भास्कर काव्य नभ
*
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाठक दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का समावेश कर सकें। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- सलिल
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
११-५-२०१३
***
गीत:
ओ मेरे मन...
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बचकार , शुभ का कर ले चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जग से कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मेरे मन...
११-५-२०१२
***
मुक्तक
भारत का धन जो विदेश में उसको भारत लायेंगे.
रामदेव बाबा के संग हम सच की अलख जगायेंगे..
'सलिल'-साधना पूरी हो संकल्प सभी जन-गण ले अब-
राजनीति हो लोकनीति, हम नया सवेरा लायेंगे..
११-५-२०११

बुधवार, 10 मई 2023

श्री श्री, विष्णु, माँ, लघुकथा, दोहा गजल, बाल गीत, चौपाड़े, नवगीत, श्याम लाल, नंदिनी-इरावती

श्री श्री चिंतन दोहा गुंजन: ७
विषय: विष्णु के अवतार
*
श्री-श्री का प्रवचन सुना, अंतरजाल कमाल।
प्रगटे दोहे समर्पित, स्वीकारें मन-पाल।।
*
दानी में हो अहं तो, वामन बनें विराट।
गुरु होता मोहांध; खो, नैन खड़ी हो खाट।।
*
पितृ कहे से मातृ-वध, कर चाहा वरदान।
फिर जीवित हो माँ, न हो सपने में अपमान।।
*
क्षत्रिय में विप्रत्व के, भार्गव बोते बीज।
अहं-नाश क्षत्रियों का, हुआ गर्व-घट छीज।।
*
राम-श्याम दो छोर हैं, रख दोनों को थाम।
तजा एक को भी अगर, लगे विधाता वाम।।
*
ये जन्मे दोपहर में, वे जन्मे अध रात।
सखा-सखी प्रिय उन्हें हैं, इनको प्रिय पितु -मात।।
*
कल्कि न कल अब में जिए, रखें ज्ञान तलवार।
काटेंगे अज्ञान सर, कर मानव उद्धार।।
*
'श्व' कल बीता-आ रहा, अ-श्व अ-कल 'अब' जान।
कल्कि करें 'अब' नियंत्रित, 'कल' का काट वितान।।
*
सार तत्व गुरु मुख-वचन, त्रुटियाँ मेरा दोष।
लोभ बाँट लूँ सगों से, गुरु वचनामृत-कोष।।
*
१०.५.२०१८, ८.२५,
***
लघुकथा
आग
अफसर पिता की लाडली बिटिया को किसी प्रकार की कमी नहीं थी. जब जो चाह तुरंत मिला गया. बढ़ती उम्र के साथ उसकी जिद भी बढ़ती गयी. माँ टोंकती तो पिता उन्हें चुप करा देते 'बाप के राज में मौज-मस्ती नहीं करेगी तो कब करेगी?
माँ ससुराल और शादी की फ़िक्र करतीं तो पिता कह देते जिसकी सौ बार गरज होगी, नाक रगड़ता हुआ आएगा देहलीज पर और मैं अपनी शर्तों पर बिटिया को रानी बनाकर भेजूँगा.
समय पर किसका वश? अनियमित खान-पान ने पिता को काल का ग्रास बना दिया. अफसरी का रौब-दाब समाप्त होते दो दिन न लगे. जो दिन-रात सलाम बजाते नहीं थकते थे, वही उपहास की दृष्टि से देखने लगे. शोक की अवधि समाप्त होते ही माँ-बेटी अपने पैतृक घर में आ गयीं. सगे-संबंधी जमीन-जायदाद में हिस्सा देने में आनाकानी करने लगे. साहब ने अपने रहते कभी ध्यान ही नहीं दिया, न कोई जानकारी दी पत्नि या बेटी को.
बाबूराज की महिमा अपरम्पार... पेंशन की नस्ती जिस मेज पर जाती उस बाबू को याद आता की कब-कब उसे डपटा गया था और वह नस्ती को दबा कर बैठ जाता. साल-दर-साल बीतने लगे... किसी प्रकार ले-देकर पेंशन आरम्भ हो सकी.
बिटिया जिद्दी और फिजूलखर्च और पार्टी करने की शौक़ीन थी. माँ के समझाने का असर कुछ दिन रहता फिर वही ढाक के तीन पात.
मुसीबत अकेले नहीं आती. माँ को सदमे और चिंताओं ने तो घेर ही लिया था. कोढ़ में खाज यह कि डोक्टर ने असाध्य बीमारी का रोगी बता दिया. अत्यंत मँहगी चिकित्सा. मरता क्या न करता ? जमा -पूँजी खर्च कर माँ को बचाने में जुट गयी वह. मौज-मस्ती के साथी उससे जो चाहते थे वह करने से बेहतर उसे मर जाना लगता. बस चलता तो ऐसे मतलबपरस्तों को ठिकाने लगा देती वह पर समय की नजाकत को देखते हुए उसे हर कदम फूँक-फूँक कर रखना था.
देर रात अस्पताल से घर आयी और आग जलाकर ठण्ड भगाने बैठी तो उसे लगा वह खुद भी सुलग रही है. समय ने भले ही उससे पिता का साया और माँ की गोद से वंचित कर दिया है पर वह हार नहीं मानेगी. अपने दोनों पैरों में पिता और हाथों में माँ का सम्बल है उसके पास. अपने पैरों को जमीन पर टिका कर वह न केवल मुसीबतों से जूझेगी बल्कि सफलता के आसमान को भी छुएगी. आत्मविश्वास ने उसमें ऊर्जा का संचार किया और वह आग के सामने जा बैठी पिता-माँ के आशीष की अनुभूति करने घुटनों पर हाथ और सर रखकर. कल के संघर्ष के लिए उसके तन को करना था विश्राम और मन को जलाए रखनी आग.
***
दोहा मुक्तिका
*
असत जीत गौतम हुए ब्रम्ह जीत जिस प्रात
पैर जमाने की हुई भर उड़ान शुरुआत
*
मोह-माधुरी लुटाकर गिरिधारी थे मस्त
चैन गँवाकर कंस ने तत्क्षण पाई मात
*
सुन बृजेंद्र की वंदना, था सुरेंद्र बेचैन
पार न लेकिन पा सका, जी भर कर ली घात
*
वास्तव में श्री मनोरमा, चेतन सदा प्रकाश
मीठी वाणी बोल तू, सूरज करे प्रभात
*
चंद्र किरण लख कुमुद को, उतर धरा पर मौन
पूनम बैठी शैल पर, करे रात में प्रात
१०-५-२०१७
***
बाल गीत
*
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
सुबह उठाती गले लगाकर,
नहलाती है फिर बहलाकर,
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती ,
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर. ,
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आँचल में छिप जाता मैं ज्यों
रहे गाय सँग बछड़ा.
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा.
बारिश में छतरी आँचल की ,
ठंडी में गर्मी दामन की.,
गर्मी में साड़ी का पंखा-,
पल्लू में छाया बादल की !
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
***
माँ को अर्पित चौपदे:
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ..
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल सीढ़ी है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ
***
एक कविता
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
***
गीत:
माँ
*
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
सत्य है यह
खा-कमाती,
सदा से सबला रही.
*
खुरदरे हाथों से टिक्कड़
नोन के संग जब दिए.
लिए चटखारे सभी ने,
साथ मिलकर खा लिए.
तूने खाया या न खाया
कौन कब था पूछता?
तुझमें भी इंसान है
यह कौन-कैसे बूझता?
यंत्र सी चुपचाप थी क्यों
आँख क्यों सजला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
काँच की चूड़ी न खनकी,
साँस की सरगम रुकी.
भाल पर बेंदी लगाई,
हुलस कर किस्मत झुकी.
बाँट सपने हमें अपने
नित नया आकाश दे.
परों में ताकत भरी
श्रम-कोशिशें अहिवात दे.
शिव पिता की है शिवा तू
शारदा-कमला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
इंद्र सी हर दृष्टि को
अब हम झुकाएँ साथ मिल.
ब्रम्ह को शुचिता सिखायें
पुरुष-स्त्री हाथ मिल.
राम को वनवास दे दें
दु:शासन का सर झुके.
दीप्ति कुल की बने बेटी
संग हित दीपक रुके.
सचल संग सचला रही तू
अचल संग अचला रही.
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
***
मातृदिवस पर गीत :
माँ जी हैं बीमार...
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
प्रभुजी! सुनिए नम्र प्रार्थना
तन-मन से सेवा करती हूँ
सफल कीजिए सकल साधना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
***
बाल कविता :
भय को जीतो
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक।
सुबह देर से उठना
मन को भाता था।
ग्वाला लाया दूध
मिला पानी तो
माँ ने बंद कर दिया
लेना उससे।
निकट खुली थी डेरी
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे
निकला घर से
डेरी को मैं
लेकर आया दूध
मिली माँ से शाबाशी।
कुछ दिन बाद
अचानक
काला कुत्ता आया
मुझे देख भौंका
डर कर
मैं पीछे भागा।
सज्जन एक दिखे तो
उनके पीछे-पीछे गया,
देखता रहा
न कुत्ता तब गुर्राया।
घर आ माँ को
देरी का कारण बतलाया
माँ बोली:
'जो डरता है
उसे डराती सारी दुनिया।
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर
मारो एक पत्थर।
तब न करेगा
कुत्ता पीछा।
अगले दिन
हिम्मत कर मैंने
एक छड़ी ली और
जेब में पत्थर भी कुछ।
ज्यों ही कुत्ता दिखा
तुरत मारे दो पत्थर।
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर।
घर आ माँ को
हाल बताया
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
***
प्रो. श्यामलाल उपाध्याय कोलकाता के प्रति भावांजलि:
*
हिंदी माँ के पूत लाडले श्यामलाल जी
जगभाषा के दूत बावले श्यामलाल जी
.
है बुलंद आवाज़ पहुँचती सीधे दिल तक
सतत सृअजं करते है हर दिन दिन ढलने तक
पिंगल और व्याकरण पर अधिकार एक सा
स्वप्न करें साकार नया सपना पलने तक
.
अपनेपन का मानी दुनिया इनसे पूछे
इतनी ऊर्जा पाई कहाँ से, कैसे बूझे?
कतिहं कार्य भी बहुत सहजता से करते हैं
हे मुश्किल का हल क्या जाने कैसे सूझे?
.
नहीं श्याम मन नहीं लाल पर श्याम लाल हैं
बसे कोलकाता में ये सचमुच कमाल हैं
वार्धक्य को बने चुनौती शब्द-सिपाही
निर्मल-निश्छल-सहज, शांत करते धमाल हैं
.
अट्टहास जो सुने बिसारे चिंता सारी
शरद अनुष्ठान नित करते, धुनी पुजारी
बने विश्ववाणी हिंदी यह शुभ इच्छा ले-
श्वास-श्वास से हिंदी की आरती उतारी
.
'सलिल' धन्य वन्दन कर, पा आशीष आपसे
खोजे मिलते नहीं शब्द-ऋषि अन्य आपसे
सम्मानित सम्मान हुए कर कमलों जाकर
करें अनुकरण, सीख सकें कुछ सबक आपसे
.
हम बडभागी वन्दन कर श्री श्यामलाल जी
अर्पित चन्दन-कुंकुम-अक्षत श्यामलाल जी
१०-५-२०१५
***
दोहा
श्वास-श्वास माँ से मिली, ममता है उपहार
शब्द ब्रम्ह की साधना, हिंदी माँ का प्यार.
१०-५-२०१५
***
गीत
कनक पात्र का सत्य अनावृत्त हो न जाए ढाँका करता हूँ
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
***
गीत
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
***
चित्रगुप्त जयंती पर विशेष रचना:
मातृ वंदना
*
ममतामयी माँ नंदिनी, करुणामयी माँ इरावती.
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
*
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी.
सत्पथ दिखाओ माँ, बनें सन्तान सब तेरी सुखी..
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहें आचार, पायें अंत में हम सद्गति...
*
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें.
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें..
निष्काम रह, निस्वार्थ रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निर्मल रहें मन-प्राण, रखना माँ! सदा निश्छल मति...
*
चित्रेश प्रभु की कृपा मैया!, आप ही दिलवाइए.
जैसी भी है सन्तान तेरी है, न अब ठुकराइए..
आशीष दो माता! 'सलिल', कंकर से शंकर बन सकें-
कर सफल मम साधना माँ!, पद-पद्म में होवे रति...
***
मुक्तिका:
तुम क्या जानो
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..

उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..

चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..

सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..

'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
१०-५-२०११
***
मुक्तिका
कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ.
*
खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ.
*
प्यार की, मनुहार की,इकरार की,अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत,कहीं फिर बुझ न जाएँ.
*
ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना सलिल फिर बुझ न जाएँ.
*
सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ
***
माँ की सुधियाँ
पुरवाई सी....
*
तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
दूर रहा जो उसे खलिश है तुमको देख नहीं वह पाया.
निकट रहा मैं लेकिन बेबस रस्ता छेक नहीं मैं पाया..
तुम जाकर भी गयी नहीं हो, बस यह है इस बेटे का सच.
साँस-साँस में बसी तुम्हीं हो, आस-आस में तुमको पाया..
चिंतन में लेखन में तुम हो, शब्द-शब्द सुन हर्षाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
तुम्हें देख तुतलाकर बोला, 'माँ' तुमने हँस गले लगाया.
दौड़ा गिरा बिसूरा मुँह तो, उठा गुदगुदा विहँस हँसाया..
खुशी न तुमने खुद तक रक्खी, मुझसे कहलाया 'पापा' भी-
खुशी लुटाने का अनजाने, सबक तभी माँ मुझे सिखाया..
लोरी भजन आरती कीर्तन, सुन-गुन धुन में छवि पाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
भोर-साँझ, त्यौहार-पर्व पर, हुलस-पुलकना तुमसे पाया.
दुःख चुप सह, सुख सब संग जीना, पंथ तुम्हारा ही अपनाया..
आँसू देख न पाए दुनिया, पीर चीर में छिपा हास दे-
संकट-कंटक को जय करना, मन्त्र-मार्ग माँ का सरमाया.
बन्ना-बन्नी, होरी-गारी, कजरी, चैती, चौपाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
गुदड़ी, कथरी, दोहर खो, अपनों-सपनों का साथ गँवाया..
चूल्हा-चक्की, कंडा-लकड़ी, फुंकनी सिल-लोढ़ा बिसराया.
नथ, बेन्दा, लंहगा, पायल, कंगन-सज करवाचौथ मनातीं-
निर्जल व्रत, पूजन-अर्चन कर, तुमने सबका क्षेम मनाया..
खुद के लिए न माँगा कुछ भी, विपदा सहने बौराई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...

*
घूँघट में घुँट रहें न बिटियाँ, बेटा कहकर खूब पढाया.
सिर-आँखों पर जामाता, बहुओं को बिटियों सा दुलराया.
नाती-पोते थे आँखों के तारे, उनमें बसी जान थी-
'उनका संकट मुझको दे', विधना से तुमने सदा मनाया.
तुम्हें गँवा जी सके न पापा, तुम थीं उनकी परछाईं सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
१०-५-२०१०
*