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बुधवार, 19 अप्रैल 2023

डॉ. धनञ्जय सिंह

नवगीत में आशावादी नवाचार के पहरुए डॉ. धनञ्जय सिंह
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

                            ''मेरी मान्यता है कि यदि कविता अपने पाठक से कुछ कहती है तो ठीक है अन्यथा कविता निरर्थक है, उसके विषय में व्याख्याएँ प्रस्तुत करना तो और भी निरर्थक। मेरी कविता पाठकों से सार्थक संवाद कर पाती है अथवा नहीं, इसका निर्णय प्रबुद्ध पाठक ही करेंगे।'' नवगीत में आशावादी नवाचार के पहरुए धनञ्जय सिंह के इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। 

                            'अपने रचनाकर्म को पाठकीय ग्राह्यता की कसौटी पर कसनेवाले सशक्त गीतकार-नवगीतकार धनञ्जय सिंह जी 'कादम्बिनी' जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका के संपादक रह चुके हैं। वे हिंदी साहित्य में समीक्षा के नाम पर गहराई तक पैठ चुके अतीतजीवी राजनैतिक चिंतन के प्रति प्रतिबद्ध पाखंड से सुपरिचित हों, यह स्वाभाविक है। हिंदी साहित्य की हर विधा इस दौर में संक्रमण की शिकार है। यह संक्रमण तीन स्तरों पर है। प्रथम राजनैतिक प्रतिबद्धता को रचनाकारिता का पाश बना देना, द्वितीय किसी विधा के अतीत और वर्तमान को समझे बिना अधकचरा रचना कर्म और तृतीय अतीत के मानकों और निजी मान्यता को कालजयी मानते हुई भविष्य पर लादने की हठधर्मिता। धनञ्जय सिंह जी न तो बंधनों की कैद स्वीकारते हैं, न लट्ठ भाँज कर गिरोह बंदी करते हैं। वे इन तीनों संक्रमणों से अप्रभावित रहते हुए केवल और केवल रचना कर्म करते हैं, जिसका निर्णायक वे अपने सुधी  पाठकों को मानते हैं। नवगीतीय आयोजनों में भी मंचासीन होकर अधिकाधिक समय अपनी रचना पढ़ने की ललक उनमें नहीं होती। वे श्रोता होना अधिक पसंद करते हैं और बहुत आग्रह किए जाने पर ससंकोच अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं और पाठक को तृप्ति का अनुभव हो इसके पहले ही 'एक और, एक और' के आग्रह को अनसुना कर करतल ध्वनि के मध्य मंच से उतर आते हैं। हिंदी कवियों में ऐसा आत्मसंयम कम ही देखने को मिलता है। धनंजय सिंह जी का ऐसा ही आत्म संयम कृति प्रकाशन के संबंध में भी है। 

                            धनञ्जय सिंह जी वाद-विवाद में रंचमात्र रुचि नहीं रखते। वे गीत-नवगीत संबंधी विवादों में सम्मिलित ही नहीं होते। उन्हीं के शब्दों में- ''मैं गीत-नवगीत के विभेद को निरर्थक मानता हूँ। 'नव' मेरी दृष्टि में विशेषण मात्र है, संज्ञा नहीं। किसी भी नवगीत को पहले 'गीत' होना ही होगा। गीत मूलत: श्रव्य विधा है। अत:, भाव प्रवणता के साथ-साथ गेय और श्रुति मधुर होना गीत-नवगीत के लिए अनिवार्य है।'' 

                            'दिन क्यों बीत गए' के सभी और प्रत्येक गीत इस सत्य के साक्षी हैं कि धनञ्जय सिंह जी ने उक्त दोनों कसौटियों पर गीतों को कसने में  कोताही कतई नहीं की है। १०८ पृष्ठीय इस संकलन में ५६ गीत संकलित हैं। २९ अक्टूबर १९४५ को ग्राम अरनिया, ज़िला बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश में जन्मे एम.ए. हिंदी तथा पी-एच. डी. करने के पश्चात् धनञ्जय  सिंह जी ने १९६० से कविता, कहानी, समीक्षा, लेख, भेंट वार्ताएँ, संस्मरण, अनुवाद आदि लिखना-प्रकाशित करना आरंभ किया। उनकी रचनाएँ डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ द्वारा संपादित ‘1978 की सर्वश्रेष्ठ कवितायें‘, डॉ. शंभूनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत अर्द्धशती‘, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत संकलन‘, डॉ. कन्हैया लाल नंदन द्वारा संपादित ‘श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन‘ डॉ. बलदेव वंशी द्वारा संपादित ‘काला इतिहास‘ तथा लगभग तीन दर्जन अन्य संकलनों में प्रकाशित  होना ही यह बताता है की धनञ्जय सिंह जी का शुमार शिखर रचनाकारों में हो रहा था। उनकी प्रतिभा केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं रही। दिनेश लखनपाल द्वारा निर्देशित चलचित्र 'अंतहीन' (प्रमुख भूमिकाओं में रोहिणी हटंगड़ी तथा ओमपुरी) के गीत धनंजय सिंह जी ने लिखे। डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘चलो गाँव की ओर‘ तथा ‘back to village’ का पटकथा लेखन कर एक नए क्षितिज पर धनञ्जय जी ने हस्ताक्षर किए। १९६७ में साप्ताहिक आर्योदय के उपसंपादक के रूप में  पत्रकार धनंजय सिंह प्रकाश में आए। मासिक पत्रिकाओं  ‘सिताभा‘, ‘निषंग‘, ‘अन्या‘, ‘परिवेश‘ (अनियतकालिक), ‘साहित्य आजकल‘ (त्रैमासिक) ‘सरस्वती सुमन‘ (त्रैमासिक) आदि पड़ावों पर अपने श्रेष्ठ कार्य की छाप छोड़ते हुए डॉ. धनञ्जय सिंह  तक कादम्बिनी के सम्पादकीय विभाग (१९८०-२००७) से संबद्ध रह कर मुख्य कॉपी सम्पादक के पद से सेवा निवृत्त हुए।

                            धनंजय सिंह जी कभी पुरस्कारों के पीछे नहीं भागे, अपितु पुरस्कार उनके कर कमलों में सुशोभित होकर गर्वान्वित हुए। उन्हें उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, श्रेष्ठ गीतकार साहित्य संगम पुरस्कार, भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार, गौरव साहित्य सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी सम्मान (शिलोंग,मेघालय ), सृजन श्री सम्मान ( अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन-ताशकंद,दुबई ), डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, काया कल्प साहित्य सम्मान, कला भारती सम्मान, सुमंगलम सम्मान, अभ्युदय साहित्य सम्मान, साहित्य कला भारती सम्मान, साहित्य श्री सम्मान, साहित्य भास्कर सम्मान, साहित्य ज्योत्सना सम्मान, सारस्वत सम्मान ( अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सांस्कृतिक विकास संस्थान ), पत्रकार श्री ( साहित्यलोक, अखिल भारतीय मानव कल्याण संघ ), प्रशस्ति-पत्र ( हरियाणा लघु समाचार पत्र एसोसिएशन ), नवोदित साहित्य मंच सम्मान, बालावंदना जुगरान स्मृति सम्मान ( श्री नगर गढ़वाल) तथा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान ( कादम्बिनी क्लब, डाल्टन गंज ), अदबी संगम, गाज़ियाबाद द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, मार्च २०१४ में ‘बंशी और मादल' तथा अन्य अनेक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। 

                            डॉ. अशोक विष्णु शुक्ला व डॉ. कविता अरोरा ने बताया कि सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. धनञ्जय सिंह की रचनाएँ  ठहरकर सुननी पड़ती हैं, क्योंकि उनमें जीवन के लिए एक 'संदेश' छिपा होता है। यह संदेश ही रचना का उत्स होता है जिसे देने के लिए रचनाकार रचना करता है। नवगीत, व्यंग्य लेख, नवकविता। कहानी और लघुकथा को केवल विसंगतियों, विडंबनाओं, नकारात्मक जीवन मूल्यों और टकरावों-बिखरावों तक सीमित रखनेवाले तिमिरजीवियों में न दीपशिखा की उजास को सराहने की दृष्टि होती है, न ही नव वजास के लिए आत्माहुति करने का साहस। धनञ्जय सिंह 'तो तुम्हीं कहो' शीर्षक गीत में कंधे पर झुकती उजली भीगी बदली के भीगेपन को जीने की अभिलाषा, तपन हरने को आतुर हिमखंड की शीतलता का पान करने की जिजीविषा शांत करने या न करने का प्रश्न पाठक के सम्मुख उपस्थित कर उसे अपनी विचार यात्रा में सहयात्री बना लेते हैं। गीतांत में भरमों का इंद्रजाल तोड़ने के लिए खुलते वातायन के साथ भ्रम और तम को मिटाने का संदेश लिए उनका यह गीत पाठक को तिमिराच्छादित निशा का अंत कर नवाशा का सवेरा उगने का संदेश बिना कहे दे जाता है। 

'अनकही हमारी सब बातें
ये दीवारें सुन लेती हैं
फिर अपनी सुविधाओं वाला
ताना-बाना बुन लेती हैं

यदि तोड़ भ्रमों का इन्द्रजाल
कोई वातायन खुल जाए
तो तुम्हीं कहो तम की परतें
मैं छीलूँ या भ्रम पलने दूँ ?'
  
                            तथाकथित प्रगतिवादी, वास्तव में यथास्थितिवादी या निराशावादी अपनी कुंठित आशाहीनता को गीत पर थोपकर उसे 'नवगीत' संज्ञा देते हैं किंतु सत्यान्वेषी जनगण और आशावादी गीतप्रेमी निराशा से लबालब गीतों और गीतकारों को नहीं स्वीकारते। टूटते टहनियों में घिरे मृग का रूपक इस और संकेत करता प्रतीत होता है। राजनेताओं द्वारा वायदों (जुमलों) से जनगण को भ्रमित कर सत्ता सुख भोगने की प्रवृत्ति लोकैषणा के सूर्य को भी विवश कर देता है-   

टूटती टहनियों ने ले लिया
जीवन के मृग को घेराव में,
रास्ते तटस्थ हो गए हैं सब
कौन भला मरहम दे घाव में।

कोलाहल हर दिशि भरपूर है।

नीले सियारों ने बाँट दीं
जंगल में कुछ मीठी गोलियाँ,
प्रश्नों की झाड़ियाँ उगीं
गूँजेंगी कब तक ये बोलियाँ,

सूरज भी कितना मजबूर है। - (जाने क्यों शहर बहुत दूर है) 

                            धनञ्जय जी के गीतों का वैशिष्ट्य वैयक्तिक चितन को सार्वजनीन बना पाना है। वे 'मैं-तुम' के द्वन्द को 'हम' बना पाने की कला में दक्ष हैं। वे नकारात्मकता का संकेत कर उस पर सकारात्मकता  की जयकार के गायक हैं। तथाकथित नवगीतकारों की तरह नकारात्मकता को पाठक के मन-मस्तिष्क पर थोपना उन्हें अस्वीकार्य है। 'जंगल  उग आए' शीर्षक गीत में भाव विहगों द्वारा दुःख दाने चुग आने पर भी घनी वनस्पतियों के जंगल उग आने का रूपक गीतकार धनंजय के मन में महकते नवाशा सुमनों का संकेत करती है- 

भाव-विहग 
उड़ इधर-उधर 
दुःख-दाने चुग आये 
मन पर 
घनी वनस्पतियों के 
जंगल उग आए।   - (जंगल उग आये)

                            तथाकथित नवता के कफ़न में दम तोड़ते गीत और निराशावादी नवगीतों से विमुख होते पाठक-श्रोता के प्रति संवेदनशील मन लिए धनंजय जी का गीतकार व्यथित मन से सुधियों के वातायन में सुरक्षित गीतों के मधुमयी आलापों को न केवल सुमिरता है अपितु गीतांत में गाठ ७ दशकों से मानकों और विधानों के पाश में  नवगीत को कैद करने की निरर्थक कसरत करनेवालों के लिए कहते हैं की वे बिजली के खंबे की तरह जड़ होकर रह गए हैं जबकि गीत का प्राणतत्व उसकी चेतनता, गतिमयता, संवेदना और मंगलमयता ही है।  

गीतों के 
मधुमय आलाप 
यादों में जड़े रह गये 
बहुत दूर 
डूबी पदचाप 
चौराहे पड़े रह गये। ...
... बिजली के खंभे से आप 
एक जगह खड़े रह गये। - (बहुत दूर डूबी पदचाप)   

                            गीत-नवगीत के बीच दो देशों की सीमारेखा की तरह अनुल्लंघनीय अन्तर होने की हठधर्मिता को अमान्य करते धनञ्जय जी गीत के काल कवलित होने की थोथी और मिथ्या  घोषणा करनेवालों पर व्यंजनापूर्ण आक्षेप करते हुए कहते हैं कि आनुभूतिक प्रवणता से नवगीतों को प्राणवंत करने की  सामर्थ्य रखने वाले परदे के पीछे है तथा गीत के स्वर्ण काल को तथाकथित निराशवादी नवगीतों के पूर्व था वह फिर लौटेगा  - 

तुम कहते हो 
तो सच होगा 
अब गीतों के दिन चले गये।

उपमा-रूपक 
संयोजन से 
नव-गीतों की रचना करना 
गहरी 
अनुभूति प्रवणता से 
फिर उनको प्राणवंत करना 
जो इसको मंत्र समझते थे 
पर्दों के पीछे चले गये ..... 
.... पर बीते दिन फिर लौटेंगे   - (पर बीते  दिन फिर लौटेंगे) 

                            गीत कब लिखा जाता है? इस सनातन प्रश्न का उत्तर धनञ्जय जी गीत में ही देते हैं- 

बहुत दिनों के बाद 
रचा फिर 
कोई गीत गया 
गहन कुहासा चीर
सुबह का 
सूरज जीत गया। 

                            सुबह का सूरज नवाशा का राजदूत होता है, विसंगतियों का रुदाली-गायक नहीं। गीत रचना के प्रभाव  परिणाम का सूक्ष्म संकेतन देखिए- 

गया 
उदासी बुननेवाला 
स्याह अतीत गया।   

वातायन हँस उठे 
किरण आँगन में मुसकायी
धरती छूने 
हरसिंगार की 
डाली आयी 

वाष्पित जल से 
सागर का खारापन रीत गया।  - ( वातायन हँस उठे)

                             स्पष्ट है कि गीत-नवगीत शुभता, शिवता और सर्वमांगल्य का वाहक है, विषमता और विडंबना का उद्घोषक नहीं। नवगीत रचने की मानसिकता जिस पृष्ठभूमि पर अंकुरित होती है, उसका संकेत देखिए- 

मन पर घिरा 
आँधियोंवाला 
मौसम बीत गया 
इंद्रधनुष रचती 
किरणों का 
फूटा गीत नया। .... 

.... गया हहरति झंझाओं का 
दुखद अतीत गया।  ....

.... पतझर से 
कोंपल का सपना 
फिर-फिर गया।  - (फूटा गीत नया)  २५३ 
                           
                             धनञ्जय जी क्या लिखते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उनका एक गीत कहता है- 

जो अनुगूँज  
उठी मन में  
मैंने उसको गाया। ..... 

 ..... हमने 
साँस-साँस में केवल 
जीवन दुलराया।   ..... 

 ..... गाएँगे हर गीत 
रहा जो 
अब तक अनगाया।   - (गणित नहीं आया)

                            धनञ्जय जी के गीतों में शब्द वैभव अपने उत्कर्ष पर है। वे शब्दों को केवल शब्द कोशीय अर्थ में प्रयोग नहीं करते अपितु निहितार्थ और व्यंजनार्थ की असीम संभावना पाठक की समझने  के लिए अंतर्निहत कर देते हैं। 

था घिरा 
जीवन जहाँ 
बस वर्जनाओं से।  

साँप-बिच्छू 
अजगरों का 
वास था 
बस चतुर्दिक 
मरघटी अहसास था। 

प्राण-स्पंदन 
घिरे थे 
मूर्छाओं से।

                            धनंजय जी के गीतों में तत्सम (स्वर्णाभ, प्राणवंत, निष्ठुर, वातायन, वाष्पित, तपश्चर्या, झंकृत, मधुरिम, मृदुता, जिह्वा, निर्झर, धूमायित, पंक्तिबद्ध, अंत: प्रकोष्ठ, प्रत्यन्चाएँ, वल्गा, कोकिल, स्पंदन, चतुर्दिक, उद्भावना, वर्तिका, तिमिर, प्रहेलिका, संकेतक, ध्वन्यालोकी आदि), देशज (चौबोर, चीत, कँटिया, पोखर, मछरिया, बतियाएँ, निंदयारी, अहेरी, सुमिरनी, उजियार, कंकरीट, हरषता, जनम, अरथ आदि) तथा फारसी (बियाबान, कर्जे, तारीखें, स्याह, आवाज़, काफ़िले, ज़हर, दवा, इशारा, दरवेश, मंज़िल, राज, बस्ती, मशालें, रिश्ते-नाते, तख़्त, ताज, शर्त, सिर्फ, रौशनी, रोज, मरहम, नुमाइश, मुहता, परवाज़, गम आदि) शब्दों की त्रिवेणी प्रवाहित है जिस पर फूलों की तरह कुछ अंग्रेजी (नेमप्लेट, कलेंडर आदि) तैरते मिलते हैं। कमाल यह है यह शाब्दिक सम्मिश्रण कहीं भी अपमिश्रण नहीं प्रतीत होता। गीतों के कथ्य तथा लय में हर शब्द इस तरह विराजता है की उसका स्थानापन्न नहीं मिल सकता। पाँव जमाना,  काम-तमाम आदि मुहावरे कथ्य को सहज ग्राह्य बनाते हैं। 

                            धनंजय जी को शब्द युग्मों से विशेष स्नेह है। वे गीतों में शब्द युग्मों को पूरी स्वाभाविकता के साथ पिरोते हैं या कहें कि शब्द युग्म स्वत: उनके गीतों में आकर सार्थकता पाते हैं। देख-भाल, लाल-हरी, आँगन-चौबारे, जीवन-मूल्य, मधु-मकरन्द, आते-जाते, फूलती-घुट्टी, मास-वर्ष, ऋण-धन, गुणा-भाग, पाप-पुण्य, कुल-मर्यादा, ज्वार-भाटा, सावन भादों, रंगों-गंधों, टेढ़े-मेढ़े, मृग-मरीचिका, ओर-छोर, ठौर-ठाँव, ललित-ललाम, अथ-इति, ताल-लय, तारो-ताजा, आकर्षण-विकर्षण, कलरव-कूजित, मान-मनुहार। भय-संशय आदि दो पदों वाले ये शब्द-युगन जीवन के विविध क्रिया व्यापारों से संबद्ध हैं। इनमें कुछ बहु प्रचलित हैं, कुछ कम प्रचलित हैं, कुछ देशज पृष्भूमि से आते हैं, कुछ नागर संस्कृति की देन हैं, कुछ क्रिया पदों से जुड़े हैं, कुछ विशेषणों से। इन शब्द-युग्मों का वैविध्य उन्हें गीत पंक्तियों के लिए अपरिहार्य बना देता है। तीन पदों के शब्द युग्मों का प्रयोग सरक नहीं होता। धनञ्जय जी ने रक्त-मांस-मज्जा, प्रहर-दिवस-ऋतु, न्याय-समता-प्रेम आदि तीन पदीय युग्मों का प्रयोग सहजता से किया है।  यही नहीं वे चार पदीय शब्द-युग्म 'प्रेम-दया-करुणा- ममता' का प्रयोग कर अपनी शब्द-युग्म प्रयोग सामर्थ्य के पताका फहराते हैं।  

                            अनछुई उपमाएँ और नवता लिए रूपक गीतों की चारुता वृद्धि करते हैं।  बालू का कछुआ, घड़ियों का व्याकरण, भावों की चाबी, कुंठा का ताला, मन का बोझ, आशा के सुमन, देह का दीपक, मन का मृग छौना, पीड़ा के छान्दोग्य भाष्य जैसी अभिव्यक्तियाँ कथ्य को सहज ग्राह्य बनाकर पाठक के मन पर दस्तक देती हैं। भाव-विहग, दुख-दाने आदि रूपक स्वाभाविकता के साथ प्रयुक्त हुए हैं। प्रो. हरिमोहन ठीक ही लिखते हैं-  'धनञ्जय के गीतों में कोमल उपमानों की छटा निराली होती है. मन की सघनतम अनुभूतियाँ इस अनछुई कोमलता से अत्यंत सार्थक बन जाती हैं। यथा 'तितली के दो पंख मिले / फूटे सरगम के बोल', या 'ज्यों मरुथल में/कस्तूरी मृग घूम रहा हो/जिह्वा से/प्यासे अधरों को/चुम रहा हो' और 'नीड आँधियों के झोंकों से/उजड़ गया हो/पंखहीन बच्चा बुलबुल से/बिछुड़ गया हो।'

                            धनञ्जय जी के नवगीत नवता में पुरातनता और पुरातनता में नवता लिए हैं। इन नवगीतों को हर्ष से परहेज नहीं है। ये शोकगीत नहीं हैं। इनमें विसंगति का उल्लेख भी सुसंगति के आह्वान के लिए है। इन गीतों में यत्र-तत्र उद्दाम प्रेम की अमूर्त संवेदन है किन्तु मांसल-स्थूल अभिव्यक्ति नहीं है। ये प्रेम गीत न होते हुए भी प्रेम को जीते और पीते हैं। इस गीतों में विडंबनाओं के तम-तोम में टिमटिमाते दीपक की लौ की छटपटाहट और भोर के उगने की आहट है।  ये गीत निराश नहीं करते, हुलास जगाते हैं। धनञ्जय जी कवि प्रदीप की तरह सीधे-सीधे  'ये कहानी है दिए की और तूफान की' तो नहीं कहते पर उनके गीतों को जीवंत करते भाव विहग अमावसी निशांत मौन नहीं रहते, कलरव करते हैं, जीवन के सलिल प्रवाह के कलकल निनाद को आत्मार्पित और लोकार्पित करते हैं।  
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४ , ईमेल salil.sanjiv@gmail.com    

                                       

                           
                            



व्यक्तिगत मुद्दे


व्यक्तिगत विषय या भावनाओं को विकसित करने के लिए गेय विषय की कल्पना की जाती है। तीव्र भावनाओं या विशिष्ट मनोदशाओं को व्यक्त करने की यह दमित इच्छा है। अपने हस्तक्षेप के माध्यम से, वह कवि की आंतरिक दुनिया को खोल देता है और एक अति संवेदनशील लोड को प्रकट करता है.

गीतात्मक विषय द्वारा वर्णित भावनाएं चरम पर हैं। उनमें से प्रेम, मृत्यु या लेखक को प्रभावित करने वाले किसी भी नुकसान का उल्लेख किया जा सकता है। कभी-कभी, अन्य भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व किया जाता है, जब तक कि वे तीव्र हैं (उदासीनता, आशा, उदासी, आशावाद और घृणा, दूसरों के बीच).
आत्मीयता

कविता में गेय विषय व्यक्तिपरक होता है। एक कहानी के विपरीत, कविता कवि के आंतरिक आवेग को चित्रित करती है, जिसके कारण काव्य स्वयं एक प्रवक्ता बन जाता है.

यह विषय अमूर्त संज्ञा के उपयोग द्वारा व्यक्त किया गया है। उनमें से हम दूसरों के बीच लालसा, उदासी, खुशी और आनंद को उजागर कर सकते हैं.
वास्तविकता से दूर रहना

हालांकि यह सच है कि गीतात्मक कविता लेखक के भावनात्मक बोझ की वास्तविकता से संबंधित है, यह सांसारिक घटनाओं से दूर रहता है.

यह इस कारण से है कि गीत का विषय पर्यावरण के विवरणों को संबोधित नहीं करता है। ऐसे मामलों में जहां उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है, वह ऐसा केवल उन भावनाओं के संदर्भ में एक फ्रेम देने के लिए करता है जो वह प्रसारित करता है.
समय

गेय विषय हमेशा अपने आप को पहले व्यक्ति में व्यक्त करता है। यह काल्पनिक विषय एक दूसरे में उसके विवेक का ध्यान केंद्रित करता है जिस पर वह लेखक से आने वाले अपने भावनात्मक आरोपों को हटाता है। बाहरी उसे केवल अपने गीतों को आत्मसात करने के लिए प्रभावित करता है.

तो, यह एक "मोनो-केंद्रितता" में तब्दील हो जाता है। इसका मतलब यह है कि सभी अर्थ सामग्री एक ही व्यक्ति, उत्सर्जक (गीतात्मक विषय) के आसपास केंद्रित है। काम की सारी शक्ति, संक्षेप में, उस अद्वितीय बोलने वाले स्वयं के इशारे पर है.
गेय विषय का विश्लेषण

इस कविता में, वह गेय विषय या काव्यात्मक स्व जिसे कवि अल्बर्टी संदर्भित करता है, वह उस व्यक्ति का है जो 50 वर्ष की आयु में अपने जीवन का जायजा लेता है। यह संतुलन उन लोगों के खिलाफ तुलना के संदर्भ में ऐसा करता है, जो उसी उम्र में हैं, अन्य हैं.

कविता में कविता और अहंकार के बीच अंतर विकसित करके तुलना शुरू होती है। तुलना की वस्तु हरकत के साधन से संबंधित है.

गीतात्मक विषय इन तीन वस्तुओं का संदर्भ देता है क्योंकि शब्दार्थ वे किसी भी तरह से यात्रा की संभावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि, विनम्र साइकिल द्वारा सीमित है, आप इसे केवल भूमि और महान सीमाओं के साथ कर सकते हैं। हालांकि, "पंखों के साथ" वाक्यांश को जोड़ने से अन्य तरीकों से उड़ान की रूपक संभावना मिलती है.

दूसरी ओर, कविता में एक निश्चित समय पर, काव्य स्वयं ही आत्मकथात्मक हो जाता है, जो कवि की काव्य कृति का संदर्भ देता है.
गेय विषय का विश्लेषण


कभी-कभी, गीतात्मक विषय कवि के व्यक्ति में आत्मकथात्मक स्थितियों में प्रवेश करने के लिए पुनर्जन्म लेता है। यह चिली कवि निनोरक पारा (1914-2018) की कविता का प्रसंग है।.

अर्क में, यह देखा गया है कि गीतात्मक विषय लेखक को आत्म-चित्र प्रस्तुत करने के लिए मानता है। हमेशा एक विडंबनापूर्ण स्वर में, यह एक हास्य पक्ष प्रदान करता है जो परिचितता की, निकटता का माहौल बनाने में योगदान देता है। कविता के गंभीर होने और अंतिम छंदों में गहरा होने के कारण यह स्वर गायब होने लगता है.





कविता में छंद

लेख 
कविता में छंद
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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ध्वनि

                       सृष्टि की उत्पत्ति ध्वनि से हुई है यह अध्यात्म और विज्ञान दोनों का निष्कर्ष है। सृष्टि के रचनाकार से संपर्क का माध्यम अनहद नाद भी ध्वनि ही है। नाद-ताल और थाप की युति नृत्य का प्राण है। मनुष्य एक चेतना-संपन्न प्राणी है। वह अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान का विकास कर शेष समस्त प्राणियों से अधिक उन्नत, समझदार और शक्ति संपन्न हो गया है। मनुष्य प्रकृति का पुत्र है। प्रकृत्ति के क्रिया-कलापों को देखते-परखते हुए मनुष्य ने उन्हें अपनी स्मृतियों में सुरक्षित रख, उस समय हुई ध्वनियों को याद कर दुहराया ताकि अन्य मानव समूह सचेत हो सकें। आज भी शेर को आते देख वानर हूप-हूप की ध्वनि कर शेष वानरों को सजग करते हैं। सलिल प्रवाह की कलकल, वायु संचरण की सनसन, मेघ की गर्जन, सर्प की फुफकार, शेर की दहाड़, अश्व की हिन हिन आदि ध्वनियों का मनुष्य ने सूचना, रक्षा और हर्ष के लिए उपयोग किया। ध्वनि के आरोह-अवरोह की आवृत्ति करना सीखकर मनुष्य ने अनुभूतियों को व्यक्त करते हुए पहले निरर्थक फिर सार्थक शब्द बनाए। तब वार्तालाप और काव्य का जन्म हुआ। इस काल में श्रुति और स्मृति ही ज्ञान भंडार को सुरक्षित रखने का आधार थीं। ज्ञान भंडार की वृद्धि होने पर विस्मृतिजनित चूकों तथा वाचिक पाठांतर से बचने के लिए विविध धावनियान  को विशिष्ट संकेत देकर रेट पर उकेरा जाना लगा। कालांतर में स्याही (मिट्टी घोलकर, कोयला घिसकर या पत्तियों को पीसकर बनाए गए रंग आदि), कलम (अंगुली, टहनी आदि) का प्रयोग कर ध्वनियों के लिए निश्चित संकेत पटल (धरती, चट्टान, पत्तियों, पेड़ की छाल आदि) पर अंकित कार मनुष्य ने लिखना आरंभ किया। इस तरह लिपि, अक्षर, शब्द आदि का जन्म हुआ। ध्वनि के अंकन और उसे पढ़ने की यह कला किसी अन्य प्राणी में विकसित नहीं हुई। आनंददाई ध्वनियों का नाद, उन्हें सुनकर आनंद होना, ध्वनियों का सब दिशाओं में छा जाना आदि लक्षणों से संयत के आधार पर आरंभ में वाचिक कालांतर में लिखित लयात्मक अभिव्यक्तियों को बार-बार कहा जाकर 'काव्य' संज्ञा दी गई। अनुभूतियों की सार्थक लयबद्ध   प्रस्तुति ही काव्य है। काव्य अनुभूति संप्रेषण की वाचिक परंपरा है जिसका मूल रूप माँ द्वारा गर्भस्थ भ्रूण को अथवा जन्म के बाद शिशु को लॉरी आदि सुनने से हुई। कालांतर में इस विधा का विकास कार मानुष ने वह सब कहा जो कहना चाहा। 

कविता 

                       काव्य, कविता या पद्य वह विधा है जिसमें मनोभावों को लयात्मक-कलात्मक रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छंद-विधान के अनुशासन में कही जाती है, कविता कहलाती हैं। हमारी संवेदना के निकट होती है कविता। वह हमारे मन को छू लेती है। कभी-कभी झकझोर देती है। कविता के मूल में संवेदना है, राग है। कविता का कलेवर (कथ्य) शब्दों से बनता है। सार्थक शब्दावली कविता की जान होती है। शब्द-शक्ति  का उचित प्रयोग किया जाये तो शब्दावली काव्य में चमत्कार उत्पन्न कर देती है। अंग्रेजी कवि डब्ल्यू. एच. ऑर्डेन के अनुसार कवि का काम शब्दों के साथ खिलवाड़ (Play with the words) है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार 'कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है जहाँ जगत् की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का सञ्चार होता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किए रहता है। उसकी अनुभूति सब की अनुभूति होती है।' 

                       कविता की  संरचना में  कवि की अनुभूति, कल्पना, वैयक्तिक सोच, परिवेश, परिस्थितियाँ, भाषा, छंद,अलंकार, मिथक, बिंब, रस आदि कई तत्वों का योगदान होता है। कवि की प्रतिभा इन सब तत्वों के आधार पर ऐसी सबल अभिव्यक्ति करती है कि वह रचना अमर हो जाती है। कवि के मन की गंभीर अनुभूति कविता का रूप धारण कर लेती है।

छंद 

                       छंदशास्त्र के आदि आविष्कर्ता भगवान् आदि शेष हैं। एक बार पक्षिराज गरुड़ ने नागराज शेष को पकड़ लिया। शेष ने गरुड़ से कहा कि उनके पास एक दुर्लभ विद्या है। इसे सीखने के पश्चात गरुण उनका भक्षण करें तो विद्या नष्ट होने से बच जाएगी। गरुड़ के सहमत होने पर शेष ने विविध छंदों के रचना नियम बताते हुए अंत में 'भुजंगप्रयाति छंद' का नियम बताया। गरुड़ द्वारा छंद ग्रहण करते ही शेष अतिशीघ्रता से समुद्र में प्रवेश कर गए । गरुड़ ने शेष पर छल करने का आरोप लगाया तो शेष ने उत्तर दिया कि आपने मुझसे छंद शास्त्र की विद्या ग्रहण की है, गुरु अभक्ष्य और पूज्य होता है। अत:, आप मुझे भोजन नहीं बना सकते। मैंने आपको भुजङ्ग प्रयात छंद का सूत्र 'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात चार गणों से भुजंग प्रयात छंद बनता है, दे दिया है। स्पष्ट है कि छंदशास्त्र दैवीय दिव्य विद्या है। छंद को वेदों का 'पैर' कहा गया है। जिस तरह किसी विद्वान की कृपा-दृष्टि, आशीष पाने के लिये उसके चरण-स्पर्श करना होते हैं वैसे ही वेदों को पढ़ने-समझने के लिये छंदों को जानना आवश्यक है। यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।

                       छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है। छंद शब्द के दो अर्थ आल्हादित (प्रसन्न) करना तथा 'आच्छादित करना' (ढाँक लेना) हैं। यह आल्हाद वर्णों, मात्राओं अथवा ध्वनियों की नियमित आवृत्तियों (दुहराव) से उत्पन्न होता है तथा रचयिता, पाठक या श्रोता को हर्ष और सुख में निमग्न कर आच्छादित कर लेता है। छन्द का अन्य नाम वृत्त भी है। वृत्त का अर्थ है घेरना । विशिष्ट वर्ण या मात्रा कर्म की अनेक आवृत्तियाँ ध्वनियों का एक घेरा सा बनाकर पाठक / श्रोता के मस्तिष्क को घेर कर अपने रंग में रंग लेती है। मानव सभ्यता का विकास होने पर शेष ने आचार्य पिंगल के रूप में अवतार लेकर सूत्रशैली में 'छंदसूत्र' ग्रन्थ की रचना की। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को पिङ्गलशास्त्र/छन्दशास्त्र कहते हैं। गद्य का नियामक व्याकरण है तो पद्य का नियंता पिंगल है।

                       महर्षि वाल्मीकि के मुख से मैथुनरत क्रौंच पक्षी युग्म के  नर पक्षी को बहेलिये द्वारा तीर मार दिये जाने पर मादा  के आर्तनाद को सुनकर यह पंक्ति निकल पड़ी- 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गम: शाश्वती समा: यत्क्रौंच मिथुनादेकम अवधि: काममोहितं'। यह प्रथम काव्य पंक्ति करुण रस व्युत्पन्न है जिसे कालांतर में अनुष्टुप छंद संज्ञा प्राप्त हुई। छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है। छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं। छंद में स्थायित्व होता है। छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं। छंद लयबद्धता के कारण सुगमता से कण्ठस्थ हो जाते हैं।

                       छंदशास्त्र के विद्वानों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम आचार्य जो छंदशास्त्र का शास्त्रीय निरूपण तथा नव छंदों का अन्वेषण करते हैं और द्वितीय कवि श्रेणी जो छंदशास्त्र में वर्णित विधानानुसार छंद-रचना करते हैं। कालांतर में छंद समीक्षकों की तीसरी श्रेणी विकसित हुई जो रचे गये छंद-काव्यों का पिंगलीय विधानों के आधार पर परीक्षण करते हैं। छंदशास्त्र में मुख्य विवेच्य विषय दो हैं- छंदों की रचनाविधि तथा छंद संबंधी गणना (प्रस्तार, पताका, उद्दिष्ट, नेष्ट) आदि। इनकी सहायता से किसी निश्चित संख्यात्मक वर्गों और मात्राओं के छंदों की पूर्ण संख्यादि का बोध सरलता से हो जाता है। मात्रा, वर्ण की रचना, विराम गति का नियम और चरणान्त में समता युक्त कविता को छन्द कहते हैं।

छंद के २ प्रकार वैदिक (७- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप व जगती) तथा लौकिक (सोरठा, घनाक्षरी आदि) हैं। वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं। लौकिक छंदों का का प्रयोग लोक तथा साहित्य में किया जाता हैं। ये छंद ताल और लय पर आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अशिक्षित जन भी अभ्यास से कर लेते हैं। लौकिक छंदों की रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है। छंद सार्थक ध्वनियों  (उच्चारों) में लयात्मकता के साथ अभिव्यक्त काव्य-अनुभूति है। छंद के तत्व उच्चार, वर्ण, शब्द, पद, रस, छंद, अलंकार, मिथक, बिंब आदि हैं। 

उच्चार

लघुतम सार्थक स्वतंत्र ध्वनि को उच्चार कहते हैं। उच्चार काल के आधार पर उच्चारों को लघु और दीर्घ कहा जाता है। दो लघु उच्चार मिलकर एक दीर्घ उच्चार के बराबर होते हैं। अर्ध उच्चार स्वतंत्र नहीं होता। उच्चार वह सबसे छोटी मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 
उच्चार के दो प्रकार स्वर और व्यंजन हैं। 

वर्ण या अक्षर: 

एक उच्चार वाली ध्वनि के लिखित रूप को वर्ण कहते हैं। ह्रस्व उच्चार वाला वर्ण लघु और दीर्घ उच्चार वाला वर्ण गुरु कहलाता है।  वर्णों का क्रमबद्ध समूह वर्णमाला है। हिंदी में कुल ४९ वर्ण हैं जिनमें ११ स्वर, ३३ व्यंजन, ३ अयोगवाह वर्ण तथा ३ संयुक्ताक्षर हैं।  वर्ण लिपि की लघुतम इकाई है। वर्ण २ प्रकार के होते हैं- १. स्वर तथा २. व्यञ्जन। हिंदी में उच्चारण के आधार पर ११+२ = १३ वर्ण तथा ३३ +३ = ३६ व्यञ्जन हैं। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता । वर्ण के ३  प्रकार-  ह्रस्व  (अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ आदि) तथा दीर्घ   (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ, कं, क: आदि) तथा संयुक्त (क्ष, त्र, ज्ञ आदि) हैं।

स्वर: स्वतंत्र रूप से उच्चारित की जा सकने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है। इन्हें बोलने में किसी अन्य ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। स्वर की मात्राओं का प्रयोग व्यञ्जनों को बोलने में होता है। स्वर की मात्रा को जोड़े बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं किया जा सकता। यथा: क् + अ = क, क् का स्वतंत्र उच्चारण सम्भव नहीं है। स्वर के ३ वर्ग हैं।

व्यञ्जन: व्यंजन स्वतंत्र ध्वनियाँ नहीं हैं। व्यञ्जन का उच्चारण स्वर के सहयोग से किया जाता है। क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व्, श, ष , स, ह व्यंजन हैं। अनुनासिक (अर्धचंद्र बिंदु), अनुस्वार (बिंदु)तथा विसर्ग (:) की गणना व्यञ्जनों में की जाती है। व्यञ्जन के २ भेद स्वतंत्र व्यञ्जन तथा संयुक्त व्यञ्जन हैं। स्वतंत्र व्यञ्जन स्वरों की सहायता  से बोले जाने वाले व्यञ्जन स्वतंत्र या सामान्य व्यञ्जन कहलाते हैं। जैसे: क्, ख्, ग् , घ्, ज्, त् आदि। संयुक्त व्यञ्जन: स्वर की सहायता से बोली जा सकने वाली एक से अधिक ध्वनियों या वर्णों को व्यञ्जन कहते हैं। जैसे: क् + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ ।

मात्रा: ह्रस्व या लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। उदाहरणार्थ अ, क, चि, तु, ऋ में से किसी एक को बोलने में लगा समय एक मात्रा है।

अनुस्वार: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली बिंदी को अनुस्वार कहते हैं। इसका उच्चारण पश्चात्वर्ती वर्ण के वर्ग के पञ्चमाक्षर के अनुसार होता है। जैसे: अंब में ब प वर्ग का सदस्य है जिसका पञ्चमाक्षर 'म' है. अत:, अंब = अम्ब, संत = सन्त, अंग = अङ्ग, पंच = पञ्च आदि।

अनुनासिक: अनुनासिक युक्त वर्ण का उच्चारण कोमल (आधा) होता है। जैसे: हँसी, अँगूठी, बाँस, काँच, साँस आदि। अर्धचंद्र-बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं। जैसे: हँस = १ + १ = २, कँप = १ + १ =२ आदि।

विसर्ग:  विसर्ग का उच्चारण आधे ह 'ह्' जैसा होता है । जैसे दुःख, पुनः, प्रातः, मनःकामना, पयःपान आदि। विसर्ग युक्त स्वर-व्यंजन दीर्घ होते है। जैसे: अंब = अम्ब = २ + १ =३, हंस = हन्स = २ + १ = ३, प्रायः = २ + २ = ४ आदि।

हलंत: उच्चारण के लिये स्वररहित वर्ण की स्थिति इंगित करने के लिए हलन्त् (हल की फाल) चिन्ह का प्रयोग किया जाता है जैसा हलन्त् के त, वाक् के क, मान्य के न साथ संयुक्त है ।

मात्रा गणना :

किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं। ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है। इस प्रकार मात्रा दो प्रकार की होती हैं-

एक मात्रो भवेद ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो, व्यंजनंचार्द्ध मात्रकम्

लघु (एक मात्रिक): हृस्व (लघु अक्षर) के उच्चारण में लगनेवाले समय को इकाई माना जाता है। अ, इ, उ, ऋ, सभी स्वतंत्र व्यंजन तथा अर्धचन्द्र बिन्दुवाले वर्ण जैसे जैसे हँ (हँसी) आदि। इन्हें खड़ी डंडी रेखा (।) से दर्शाया जाता है। इनका मात्रा भार १ गिना जाता है। पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पड़ने पर गुरु गिन सकते है। स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती। मात्रा को कला भी कहा जाता है।

अ, इ, उ, ऋ, क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष , स, ह एकमात्रिक हैं। व्यंजन में इ, उ स्वर जुड़ने पर भी अक्षर एकमात्रिक ही रहते हैं। जैसे: कि, कु आदि। एकमातृकमात्रिक वर्ण के साथ वर्तुल रेखा (s) इन्हें दीर्घ बना देती है। 

गुरु या दीर्घ (दो मात्रिक): दीर्घ मात्रा युक्त वर्ण आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्रा युक्त व्यंजन का, ची, टू, ते, पै, यो, सौ, हं आदि गुरु हैं। क से ह तक किसी व्यंजन में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं। इन्हें वर्तुल रेखा या सर्पाकार चिन्ह (s) से इंगित किया जाता है। इनका मात्रा भार २ गिना जाता है। जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ या गुरु वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रा गिनते हैं। जैसे - आ, पी, रू, से, को, जौ, वं, यः आदि।

प्लुत: अ, उ तथा म की त्रिध्वनियों के संयुक्त उच्चारण वाला वर्ण ॐ, ग्वं आदि इसके उदाहरण हैं। इसका मात्रा भार ३ होता है।यह हिंदी में मान्य नहीं है। 
संयुक्ताक्षर: सामान्यत:संयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, ज्ञ की मात्राओं का निर्णय उच्चारण के आधार पर होता है। संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर गुरु हो तो अर्धाक्षर से कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे: आराध्य = २+२+ १ = ५। शब्दारंभ में संयुक्ताक्षर हो तो उसका मात्रा भार पर कोई प्रभाव नहीं होता। जैसे: क्षमा = १ + २ =३, प्रभा = ३।

शब्द: अक्षरों (वर्णों) के मेल से बनने वाले अर्थ पूर्ण समुच्चय (समूह) को शब्द कहते हैं। शब्द-निर्माण हेतु अक्षरों का योग ४ प्रकार से हो सकता ।

अर्धाक्षर: अर्धाक्षर का उच्चारण उसके पहले आये वर्ण के साथ होता है, ऐसी स्थिति में पूर्व का लघु अक्षर गुरु माना जाता है। जैसे: शिक्षा = शिक् + शा = २ + २ = ४, विज्ञ = विग् + य = २ + १ = ३।

अर्ध व्यंजन: अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक हो जाते हैं।
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ या सत्य = २१, कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१।
यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है - आत्मा - आत् / मा २२, महात्मा - म / हात् / मा १२२।
जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं | उदाहरण - स्नान - २१ । एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें - धर्मात्मा - धर् / मात् / मा २२२।

अपवाद - जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता।
उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को बोल कर देखे क + न्है + या = १ + २ + २ = ५, धन्यता = धन् + य + ता = २ + १ + २ = ५।
संयुक्ताक्षर (क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि) दो व्यंजन के योग से बने हैं, अत: दीर्घ मात्रिक हैं किंतु मात्रा गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं।

उदाहरण: पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१, गोत्र = २१, मूत्र = २१।
शब्द संयुक्ताक्षर से प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं। जैसे: त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२।
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं।

उदाहरण = प्रज्ञा = २२ राजाज्ञा = २२२ आदि।

ये नियम न तो मनमाने हैं, न किताबी। आदि मानव ने पशु-पक्षियों की बोली सुनकर उसकी नकल कर बोलना सीखा। मधुर वाणी से सुख, प्रसन्नता और कर्कश ध्वनि से दुःख, पीड़ा व्यक्त करना सीखा। मात्रा गणना नियमों के मूल में भी यही पृष्ठभूमि है।

चाषश्चैकांवदेन्मात्रां द्विमात्रं वायसो वदेत
त्रिमात्रंतु शिखी ब्रूते नकुलश्चार्द्धमात्रकम्

अर्थात नीलकंठ की बोली जैसी ध्वनि हेतु एक मात्रा, कौए की बोली सदृश्य ध्वनि के लिये २ मात्रा, मोर के समान आवाज़ के लिये ३ मात्रा तथा नेवले सदृश्य ध्वनि के लिये अर्ध मात्रा निर्धारित की गयी है।

पद : छंद की पंक्ति को पद कहते हैं । जैसे: दोहा द्विपदिक अर्थात दो पंक्तियों का छंद है। सामान्य भाषा में पद से आशय पूरी रचना से होता है। जैसे: सूर का पद अर्थात सूरदास द्वारा लिखी गयी एक रचना। पंक्ति के आधे भाग को अर्धाली कहते हैं।

चरण अथवा पाद: पाद या चरण का अर्थ है चतुर्थांश। सामान्यत: छन्द के चार चरण या पाद होते हैं । कुछ छंदों में चार चरण दो पंक्तियों में ही लिखे जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा,चौपाई आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या दल कहते हैं। कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।

सम और विषमपाद: पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।

गण: तीन वर्णों के पूर्व निश्चित समूह को गण कहा जाता है। ८ गण यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण तथा सगण हैं। गणों को स्मरण रखने सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है। अंतिम २ वर्णों को छोड़कर सूत्र के हर वर्ण अपने पश्चातवर्ती २ वर्णों के साथ मिलकर गण में लघु-गुरु मात्राओं को इंगित करता है। अंतिम २ वर्ण लघु गुरु का संकेत करते हैं।

य = यगण = यमाता = । s s = सितारा = ५ मात्रा
मा = मगण = मातारा = s s s = श्रीदेवी = ६ मात्रा
ता = तगण = ताराज = s s । = संजीव = ५ मात्रा
रा = रगण = राजभा = s । s = साधना = ५ मात्रा
ज = जगण = जभान = । s । = महान = ४ मात्रा
भा = भगण = भानस = s । । = आनन = ४ मात्रा
न = नगण = नसल = । । । = किरण = ३ मात्रा

स = सगण = सलगा = । । s = तुहिना = ४ मात्रा
कुछ क्रृतियों में यगण, मगण, भगण, नगण को शुभ तथा तगण, रगण, जगण, सगण को अशुभ कहा गया है किन्तु इस वर्गीकरण का औचित्य संदिग्ध है।

गति: छंद पठन के प्रवाह या लय को गति कहते हैं। गति का महत्व वर्णिक छंदों की तुलना में मात्रिक छंदों में अधिक होता है। वर्णिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित होता है जबकि मात्रिक छंदों में अनिश्चित, इस कारण चरण अथवा पद (पंक्ति) में समान मात्राएँ होने पर भी क्रम भिन्नता से लय भिन्नता हो जाती है। अनिल अनल भू नभ सलिल में 'भू' का स्थान बदल कर भू अनिल अनल नभ सलिल, अनिल भू अनल नभ सलिल, अनिल अनल नभ भू सलिल, अनिल अनल नभ सलिल भू पढ़ें भिन्न तो हर बार भिन्न लय मिलेगी।
दोहा, सोरठा तथा रोल में २४-२४ मात्रा की पंक्तियाँ होते हुए भी उनकी लय अलग-अलग होती है। अत:, मात्रिक छंदों के निर्दोष लयबद्ध प्रयोग हेतु गति माँ समुचित ज्ञान व् अभ्यास आवश्यक है।

यति: छंद पढ़ते या गाते समय नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिये रूकना पड़ता है, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त तथा बीच-बीच में भी यति का स्थान निश्चित होता है। हर छन्द के यति-नियम भिन्न किन्तु निश्चित होते हैं। छटे छंदों में विराम पंक्ति के अंत में होता है। बड़े छंदों में पंक्ति के बीच में भी एक (दोहा रोला सोरठा आदि) या अधिक (हरिगीतिका, मालिनी, घनाक्षरी, सवैया आदि) विराम स्थल होते हैं।

मात्रा बाँट: मात्रिक छंदों में समुचित लय के लिये लघु-गुरु मंत्रों की निर्धारित संख्या के विविध समुच्चयों को मात्रा बाँट कहते हैं। किसी छंद की पूर्व परीक्षित मात्रा बाँट का अनुसरण कर की गयी छंद रचना निर्दोष होती है।

तुक: तुक का अर्थ अंतिम वर्णों की आवृत्ति है। छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। चरण के अंत में तुकबन्दी के लिये समानोच्चारित शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे: राम, श्याम, दाम, काम, वाम, नाम, घाम, चाम आदि। यदि छंद में वर्णों एवं मात्राओं का सही ढंग से प्रयोग प्रत्येक चरण में हो तो उसकी ' गति ' स्वयमेव सही हो जाती है।

तुकांत / अतुकांत: जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। अतुकान्त छंद को अंग्रेज़ी में ब्लैंक वर्स कहते हैं।

घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।


पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है।

मात्रिक छंद: जिन छन्दों की रचना मात्रा-गणना के अनुसार की जाती है, उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं। मात्रा-गणना पर आधारित मात्रिक छंद गणबद्ध नहीं होते। मात्रिक छंद में लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है। मात्रिक छन्द के ३ प्रकार सम मात्रिक छन्द, अर्ध सम मात्रिक छन्द तथा विषम मात्रिक छन्द हैं। सम, विषम, अर्धसम छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। मात्रिक छन्द के अन्तर्गत प्रत्येक चरण अथवा प्रत्येक पद में मात्रा ३२ तक होती है।

सम मात्रिक छन्द: जिस द्विपदी के चारों चरणों की वर्ण-स्वर संख्या या मात्राएँ समान हों, उन्हें सम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख सम मात्रिक छंद अहीर (११मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार , हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा) हैं।

अर्ध सम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद बरवै (विषम चरण १२ मात्रा, सम चरण ७ मात्रा), दोहा (विषम १३, सम ११), सोरठा (दोहा का उल्टा विषम ११, सम १३), उल्लाला (विषम - १५, सम - १३) हैं ।

विषम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में चारों चरणों अथवा चतुष्पदी में चारों पदों की मात्रा असमान (अलग-अलग) होती है उसे विषम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख विषम मात्रिक छंद कुण्डलिनी (दोहा १३-११ + रोला ११-१३), छप्पय (रोला ११-१३ + उल्लाला १५ -१३ ) हैं

दण्डक छंद: वर्णों और मात्राओं की संख्या ३२ से अधिक हो तो बहुसंख्यक वर्णों और स्वरों से युक्त छंद दण्डक कहे जाते है। इनकी संख्या बहुत अधिक है।

वर्णिक छंद: वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है। प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी१२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी १६ वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी १७ वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (१९ वर्ण), स्त्रग्धरा (२१ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण) रूपघनाक्षरी (३२ वर्ण), देवघनाक्षरी (३३वर्ण), कवित्त / मनहरण (३१-३३ वर्ण) हैं। वर्णिक छन्द वृत्तों के दो प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।
वर्ण वृत्त: सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी आदि।

गणात्मक वर्णिक छंद: इन्हें वर्ण वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु-दीर्घ वर्णों से बने ८ गणों के आधार पर होती है। इनमें भ, न, म, य शुभ और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद में देवतावाची या मंगलवाची शब्द से आरंभ करने पर गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है।

दण्डकछंद: जिस वार्णिक छंद में २६ से अधिक वर्णों वाले चरण होते हैं उसे दण्डक कहा जाता है। दण्डक छंद के लम्बे चरण की रचना और याद रखना दण्डक वन की पगडण्डी पर चलने की तरह कठिन और सस्वर वाचन करना दण्ड की तरह प्रतीत होने के कारण इसे दण्डक नाम दिया गया है। उदाहरण: घनाक्षरी ३१ वर्ण।

अगणात्मक वर्णिक वृत्त: वे छंद हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।
स्वतंत्र छंद और मिश्रित छंद: यह छंद के वर्गीकरण का एक अन्य आधार है।

स्वतंत्र छंद: जो छंद किन्हीं विशेष नियमों के आधार पर रचे जाते हैं उन्हें स्वतंत्र छंद कहा जाता है।

मिश्रित छंद: मिश्रित छंद दो प्रकार के होते है:

(१) जिनमें दो छंदों के चरण एक दूसरे से मिला दिये जाते हैं। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते हैं किंतु कभी-कभी नहीं भी जान पड़ते।

(२) जिनमें दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभी उनके मिलाने का प्रयत्न किया जाता है, जैसे कुंडलिया छंद एक दोहा और चार पद रोला के मिलाने से बनता है।

दोहा और रोला के मिलाने से दोहे के चतुर्थ चरण की आवृत्ति रोला के प्रथम चरण के आदि में की जाती है और दोहे के प्रारंभिक कुछ शब्द रोला के अंत में रखे जाते हैं। दूसरे प्रकार का मिश्रित छंद है "छप्पय" जिसमें चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के दिए जाते हैं। इसीलिये इसे षट्पदी अथवा छप्पय (छप्पद) कहा जाता है।

इनके देखने से यह ज्ञात होता है कि छंदों का विकास न केवल प्रस्तार के आधार पर ही हुआ है वरन् कवियों के द्वारा छंद-मिश्रण-विधि के आधार पर भी हुआ है। इसी प्रकार कुछ छंद किसी एक छंद के विलोम रूप के भाव से आए हैं जैसे दोहे का विलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने बहुधा इसी एक छंद में दो एक वर्ण अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भी छंद में रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह छंद प्रस्तार के अंतर्गत आ सकता है।
यति के विचार से छन्द- वर्गीकरण
बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, तब यति (रुकने का स्थान) निर्धारित किया जाता है। यति के विचार से छंद दो प्रकार के होते हैं-
(१) यत्यात्मक: जिनमें कुछ निश्चित वर्णों या मात्राओं पर यति रखी जाती है। यह छंद प्राय: दीर्घाकारी होते हैं जैसे दोहा, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि।
(२) अयत्यात्मक: इन छंदों में चौपाई, द्रुत, विलंबित जैसे छंद आते हैं। यति का विचार करते हुए गणात्मक वृत्तों में गणों के बीच में भी यति रखी गई है जैसे मालिनी
छंद में संगीत तत्व द्वारा लालित्य का पूरा विचार रखा गया है। प्राय: सभी छंद किसी न किसी रूप में गेय हो जाते हैं। राग और रागिनी वाले सभी पद छंदों में नहीं कहे जा सकते। इसी लिये "गीति" नाम से कतिपय पद रचे जाते हैं। प्राय: संगीतात्मक पदों में स्वर के आरोह तथा अवरोह में बहुधा लघु वर्ण को दीर्घ, दीर्घ को लघु और अल्प लघु भी कर लिया जाता है। कभी-कभी हिंदी के छंदों में दीर्घ ए और ओ जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग किया जाता है।

पदाधार पर छंद-वर्गीकरण:

छंदों को पद (पंक्ति) बद्ध कर रचा जाता है। पंक्ति संख्या के आधार पर भी छंदों को वर्गीकृत किया जाता है।

द्विपदिक छंद: ऐसे छंद दो पंक्तियों में पूर्ण हो जाते हैं। अपने आप में पूर्ण तथा अन्य से मुक्त (असम्बद्ध) होने के कारण इन्हें मुक्तक छंद भी कहा जाता है। दोहा, सोरठा, चौपाई, आदि द्विपदिक छंद हैं जिनमें मात्रा बंधन तथा यति स्थान निर्धारित हैं जबकि उर्दू का शे'र तथा अंग्रेजी का कप्लेट ऐसे द्विपदिक छंद हैं जिसमें मात्रा या यति का बंधन नहीं है।

त्रिपदिक छंद: ३ पंक्तियों में पूर्ण होने वाले छंदों की संस्कृत काव्य में चिरकालिक परंपरा है। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से भी ऐसे छंद ग्रहण किये हैं। जैसे: संस्कृत छंद ककुप्, गायत्री, पंजाबी छंद माहिया, उर्दू छंद तसलीस, जापानी छंद हाइकु आदि। इनमें से हाइकु वर्णिक छंद है जबकि शेष मात्रिक हैं।

चतुष्पदिक छंद: ४ पंक्तियों के छंदों को हिंदी में मुक्तक, चौपदे आदि कहा जाता है। इनमें मात्रा भार तथा यति का बंधन नहीं होता किन्तु सभी पदों में समान मात्रा होना आवश्यक होता है। उर्दू छंद रुबाई भी चतुष्पदिक छंद है जिसे निर्धारित २४ औज़ान (मानक लयखण्ड) में से किसी एक में लिखा जाता है।

पंचपदिक छंद: जापानी छंद ताँका हिंदी में प्रचार पा रहा है। ताँका संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। ताँका मूलत: जापानी छंद है जिसमें ५ पंक्तियाँ होती है।

षटपदिक छंद: ६ पंक्तियों के पदों में कुण्डलिनी सर्वाधिक लोकप्रिय है। कुण्डलिनी की प्रथम २ पंक्तियाँ शेष ४ पंक्तियाँ रोला छंद में होती हैं।

चौदह पदिक छंद: अंग्रेजी छंद सोनेट की हिंदी में व्यापक पृष्ठभूमि अथवा गहराई नहीं है किन्तु नागार्जुन, भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' आदि कई कवियों ने सॉनेट लिखे हैं। कुछ सॉनेट मैंने भी लिखे हैं।

अनिश्चित पदिक छंद: अनेक छंद ऐसे हैं जिनका पदभार तथा यति निर्धारित है किन्तु पंक्ति संख्या अनिश्चित है। कवि अपनी सुविधानुसार पद के २ चरणों में, अथवा हर २ पंक्तियों में या कथ्य अपनी सुविधानुसार पदांत में टूक बदलता रहता है। चौपाई, आल्हा, मराठी छंद लावणी आदि में कवियों ने छूट बहुधा ली है। उर्दू की ग़ज़ल में भी ३ शे'रों से लेकर सहस्त्रधिक शे'रों का प्रयोग किया गया है। गीतों कजरी, राई, बम्बुलिया आदि में भी पद या पंक्ति बंधन नहीं होता है।

मुक्त छंद: जिस छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो, न मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है । मुक्त छंद तुकांत भी हो सकते हैं और अतुकांत भी। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं।
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लेखक परिचय -
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जन्म जन्म :- २० अगस्त २०२१। आत्मज- स्मृतिशेष शांति देवी स्मृतिशेष राजबहादुर वर्मा। जीवनसंगिनी- डॉ. साधना वर्मा। शिक्षा :- डी.सी.ई., बी.ई., विशारद, एम्. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शन शास्त्र), विधि स्नातक, प्रमाणपत्र कंप्यूटर एप्लिकेशन, एम्. आई. ई., एम्. आई. जी. एस.।
संप्रति- पूर्व कार्यपालन अभियंता लो. नि. वि., अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश, पूर्व महामंत्री-वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राष्ट्रीय कायस्थ महासभा, पूरक राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अ.भा.का.म., राष्ट्रीय अध्यक्ष इंजीनियर्स फोरम, चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर। 
लेखन विधा - गद्य (कहानी, लघुकथा, व्यंग्य लेख, तकनीकी लेख, एकाँकी, निबंध, समीक्षा, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि ), पद्य (कविता, गीत-नवगीत, हिंदी ग़ज़ल/मुक्तिका, मुक्तक, घनाक्षरी, सवैया, हाइकु, माहिया, सॉनेट, कहमुकरी तथा ५०० से अधिक प्रकार के नए छंद आदि)।
प्रकाशन :- १. कलम के देव (भक्ति गीत), २. लोकतंत्र का मकबरा (काव्य संग्रह), ३. मीत मेरे (काव्य संग्रह), ४. भूकंप के साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी), ५. सौरभ: (संस्कृत-हिंदी दोहानुवाद), ६. काल है संक्रांति का (गीत-नवगीत संग्रह), ७. सड़क पर (गीत-नवगीत संग्रह), ८. जंगल में जनतंत्र (लघुकथाएँ), ९.आदमी जिन्दा है (लघुकथाएँ), १०. कुरुक्षेत्र गाथा खंडकाव्य (सहहलेखन), ११. मध्य प्रदेश की बुंदेली लोककथाएँ, १२. मध्य प्रदेश की आदिवासी लोककथाएँ ।
पुस्तक समीक्षा ३०० से अधिक, भूमिका लेखन ८५ पुस्तकें, साप्ताहिक कॉलम कई वर्षों तक।
संपादन- १३ पुस्तकें, १७ स्मारिकाएँ, ६ पत्रिकाएँ। 
विशेष उपलब्धि- 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब विमल मति दे' सरस्वती वंदना का  सरस्वती शिशु मंदिरों में लाखों बच्चों द्वारा दैनिक गायन, जबलपुर में भारतरत्न सर विश्वेश्वरैया की ९ प्रतिमाओं की स्थापना, ५००० से अधिक प्लास्टिक पन्नियों का पुस्तक आवरण।
सम्मान - ३०० से अधिक, प्रमुख हैं -कायस्थ भूषण, चित्रांश गौरव, कायस्थ कीर्तिध्वज, उत्कृष्टता प्रमाण पत्र ५ व सर्टिफिकेट ऑफ़ एक्सीलेंस ३ इंजीनियर्स फोरम (इंडिया), सर्टिफिकेट ऑफ़ ऑनर ए.के.एस. यूनिवर्सिटी सतना, अभियंता रत्न, विज्ञान रत्न, वस्तु गौरव, साहित्य श्री ३, आचार्य, संपादक रत्न, साहित्य भारती, साहित्य दीप, बीसवीं शताब्दी रत्न, शारदासुत, सरस्वती रत्न, साहित्यवारिधि, शायर वाक़िफ़ सम्मान, काव्य श्री, रासिख सम्मान, रोहित कुमार सम्मान, भाषा भूषण, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, साहित्य शिरोमणि २, नोबल इंसान, सतसंग शिरोमणि, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, बैरिस्टर छेदीलाल सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान २, कविगुरु रविंद्र नाथ ठाकुर सम्मान, बृजबिहारी लाल श्रीवास्तव सम्मान, युगपुरुष विवेकानंद सम्मान, कामता प्रसाद गुरु सम्मान, भारतीय भाषा सेवा सम्मान, डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव लोक साहित्य अलंकरण, साहित्य रत्न, साहित्य संवर्धक, भारत गौरव २, वातायन सौरभ सम्मान, रंकबंधु साहित्य शिरोमणि सम्मान, पर्यावरण मित्र, वृक्ष बंधु सम्मान, हरिशंकर श्रीवास्तव सम्मान, तरु मीडिया गौरव सम्मान, जिओ हेरिटेज सम्मान, गुरु द्रोणाचार्य अलंकरण, श्रेष्ठता सम्मान, गायत्री सृजन सम्मान, सारस्वत सम्मान, छंद श्री सम्राट, सृजन सम्मान, साहित्य गौरव, भवानी प्रसाद तिवारी सम्मान,
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी hindi संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१,
चलभाष ९४२५१८३२४४, ई मेल salil.sanjiv@gmail.com

मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

सॉनेट, भाषा, विज्ञान, लघुकथा, मुक्तक, नवगीत, मुक्तिका,

संतोष 'प्रज्ञा' जी को मिला 
आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी का 
शुभाशीष 
*
छन्द सोरठा खास , 
      बुध जन वन्दित है सदा।
प्रतिभा करत विलास,
    अभिनन्दित कवि कुल मुदा।।
प्रज्ञा कवि संतोष
     विद्यावाचस्पति लही।
सब कँह अति परितोष,
     काव्य-सम्पदा गुण निरख।।
गुरु पद भक्ति अमान
        हरि जू  कौं हारौ हृदय।
बने छन्द सोपान
        भई साध सम्यक् सफल।।
काव्यकला संधान
        उत्तम गति मति पाय कै।
रागोन्मुखी विहान
        अरुणाभा सों सजि गयो।।
    
  
    प्रज्ञासन्तोषकवनं
            रम्यमधुरपदादिसिद्धौ।
    रसादिगुणागमनम्
            कीर्तिं प्रीतिं दधात्येव।।
   
  अभावितं हि यच्चित्तं
           तं वे नप्पसहति कव्वं।
सुभानुपस्सिं यव्वित्तं
           तं वे संकप्पगोचरा।।
 
अमिअं पग्गा कव्वं
      पढिअं  पि जाणंति तत्तम्।  
 गहचरिअं देअ सव्वं
        ण जाणंति भाआ कव्वं।।
 
 छन्द सोरठा खास 
        कछु नोंनौ कछु चिरपरो।  
सबरे मगन हुलास 
        रस लैबो देबो चलत।।
***
जागे भाग्य मिला आशीष 
पूज्यपाद आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी 
सादर प्रणाम स्वीकारिए। 
सॉनेट विमर्श १
*
१ सॉनेट अंग्रेजी से हिंदी में आयातित छंद है।

२ सॉनेट का वैशिष्ट्य १४ (न कम, न ज्यादा) पंक्तियाँ होना है।

३ सॉनेट की मुख्य दो शैलियां हैं जिनका प्रयोग क्रमशः शेक्सपियर व मिल्टन ने किया है।

४ शेक्सपियरी सॉनेट में ४ पंक्ति के तीन अंतरे तथा अंत में २ पंक्तियाँ होती हैं।

५ अंतरों में पहली-तीसरी पंक्ति की समान तुक होती है।

६ अंतरों की दूसरी-चौथी पंक्ति में भिन्न समान तुक होती है।

७ अंतिम दो पंक्तियों की तुक समान होती है।

८ साॅनेट की सब पंक्तियाँ समान पदभार की होती हैं।

तीनों अंतरों में समान याभिन्न-भिन्न, दोनों तरह के तुकांत लिए जा सकते हैं।

९ साॅनेट उच्चार पर आधारित वाचिक छंद है।

१० साॅनेट में सामान्यतः १५ उच्चार (१४-१६ मान्य) होते हैं।

११ सुविधा के लिए आरंभ में वर्ण या मात्रा के आधार पर साॅनेट लिखे जिसके हैं।

•••

सॉनेट विमर्श २

- सॉनेट का शाब्दिक अर्थ संक्षिप्त लयात्मक अभिव्यक्ति है। इसे 'कोयल की कूक' कह सकते हैं।

- सॉनेट सम शब्दांत अर्थात ऐसे शब्द जिनके अंतिम उच्चार समान हों।

- उच्चार गणना के लिए शब्द को बोलिए, आप अनुभव करेंगे कि पूरा शब्द हमेशा एक साथ नहीं बोला जाता। शब्द के कुछ उच्चार पहले, शेष बाद में बोले जाते हैं।

वतन, जतन जैसे शब्दों में 'तन' एक साथ 'तन्' की तरह बोला जाता है। उसके पूर्व का शब्द पहले बोल लिया जाता है।

वतन = व तन, उच्चार १ २, वर्ण १११, मात्रा १११।

आचमन = आच मन २१ ११,

आ चमन ×, आचम न ×

पुनरागमन = पुन रा गमन २ २१ २

पुनरा गमन २ २ १२

वर्ण ६, मात्रा ७

अघटनघटनापचीयसी

उच्चार अघ टन घट ना पची यसी

२ २ २ २ १ २ १ २ = १४

वर्ण ११

मात्रा १४

- उच्चार के नियम बोलने से बने हैं। ये व्यावहारिक हैं।

विद्या विद् या २ २ = ४

उक्त उक्त त २ १ = ३

रक्षा रक् शा २ २ = ४

निरक्षर कवि मात्रा, वर्ण न गिनकर भी उच्चार के आधार पर कविता कर लेते हैं।

- नियम यह कि किसी लघु उच्चार के बाद अर्ध उच्चार हो तो वह पूर्ववर्ती लघु उच्चार के साथ संयुक्त होकर उसे गुरु बनाता है।

- आद्य = आद् + य

वाक्य = वाक् + य

शाक्त = शाक् + त

मौर्य, फाख्ता, वांग्मय, दीक्षा

नियम - गुरु उच्चार के साथ अर्ध उच्चार पहले की तरह संयुक्त है किंतु गुरु यथावत है।

- तीक्ष्ण ती क् श् + ण = २ १ = ३

नियम - पूर्ववर्ती गुरु उच्चार में एक से अधिक अर्ध उच्चार जुड़ें तो गिने नहीं जाते।

- स्फूर्त, स्कूल, स्फीत, स्नेह, स्वार्थ, स्वागत, स्वयं, स्वगत, स्वयंभू आदि के उच्चारण में सजगता आवश्यक है। स्कूल का उच्चारण 'इस्कूल' न करें।  

विशेष विमर्श
भाषा और तकनीक
*
'भा' अर्थात् प्रकाशित करना। भाना, भामिनी, भाव, भावुक, भाषित, भास्कर आदि में 'भा' की विविध छवियाँ दृष्टव्य हैं।
विज्ञान, तकनीक और यांत्रिकी में लोक और साहित्य में प्रचलित भावार्थ की लीक से हटकर शब्दों को विशिष्ट अर्थ में प्रयोग कर अर्थ विशेष की अभिव्यक्ति अपरिहार्य है।
'आँसू न बहा फरियाद न कर /दिल जलता है तो जलने दे' जैसी अभिव्यक्ति साहित्य में मूल्यवान होते हुए भी तथ्य दोष से युक्त है। विज्ञान जानता है कि दिल (हार्ट) के दुखने का कारण 'विरह' नहीं दिल की बीमारी है।
सामान्य बोलचाल में 'रेल आ रही है' कहा जाता है जबकि 'रेल' का अर्थ 'पटरी' होता है जिस पर रेलगाड़ी (ट्रेन) चलती है।
इसी तरह जबलपुर आ गया कहना भी गलत है। जबलपुर एक स्थान है जो अपनी जगह स्थिर है, आना-जाना वाहन या सवारी का कार्य है।
'तस्वीर तेरी दिल में बसा रखी है' कहकर प्रेमी और सुनकर प्रेमिका भले खुश हो लें, विज्ञान जानता है कि प्राणी बसता-उजड़ता है, निष्प्राण तस्वीर बस-उजड़ नहीं सकती। दिल तस्वीर बसाने का मकान नहीं शरीर को रक्त प्रदाय करने का पंप है।
आशय यह नहीं है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति निरर्थक या त्याज्य हैं। कहना यह है कि शिक्षा पाने के साथ शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करना भी आवश्यक है विशेष कर तकनीकी विषयों पर लिखने के लिए भाषा और शब्द-प्रयोग के प्रति सजगता आवश्यक है।
'साइज' और 'शेप' दोनों के लिए आकार या आकृति का प्रयोग करना गलत है। साइज के लिए सही शब्द 'परिमाप' है।
सामान्य बोलचाल में 'गेंद' और 'रोटी' दोनों को 'गोल' कह दिया जाता है जबकि गेंद गोल (स्फेरिकल) तथा रोटी वृत्ताकार (सर्कुलर) है। विज्ञान में वृत्तीय परिपथ को गोल या गोल पिंड को वृत्तीय कदापि नहीं कहा जा सकता।
'कला' के अंतर्गत अर्थशास्त्र या समाज शास्त्र आदि को रखा जाना भी भाषिक चूक है। ये सभी विषय सामाजिक विज्ञान (सोशल साइंस) के यंग हैं।
शब्दकोशीय समानार्थी शब्द विज्ञान में भिन्नार्थों में प्रयुक्त हो सकते हैं। भाप (वाटर वेपर) और वाष्प (स्टीम) सामान्यत: समानार्थी होते हुए भी यांत्रिकी की दृष्टि से भिन्न हैं।
अणु एटम है, परमाणु मॉलिक्यूल पर हम परमाणु बम को एटम बम कह देते हैं।
हम सब यह जानते हैं कि पौधा लगाया जाता है वृक्ष नहीं, फिर भी 'पौधारोपण' की जगह 'वृक्षारोपण' कहते हैं।
बल (फोर्स) और शक्ति (स्ट्रैंग्थ) को सामान्य जन समानार्थी मानकर प्रयोग करता है पर भौतिकी का विद्यार्थी इनका अंतर जानता है।
कोई भाषा रातों-रात नहीं बनती। ध्वनि विज्ञान और भाषा शास्त्र की दृष्टि से हिंदी सर्वाधिक समर्थ है। हमारे सामने यह चुनौती है कि श्रेष्ठ साहित्यिक विरासत संपन्न हिंदी को विज्ञान और तकनीक के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा बनाएँ।
नव रचनाकार उच्च शिक्षित होने के बाद भी भाषा की शुद्धता के प्रति प्रायः सजग नहीं हैं। यह शोचनीय है। कोई भी साहित्य या साहित्यकार शब्दों का गलत प्रयोग कर यश नहीं पा सकता। अत:, रचना प्रकाशित करने के पूर्व एक-एक शब्द की उपयुक्तता परखना आवश्यक है।
***
विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकव्य लिखा जाए तो गोखले, टिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजरंदर प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
१८-४-२०२०
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बांग्ला लघुकथा सुअर की कहानी
चंदन चक्रवर्ती
*
प्रकाशक सिर पर खड़ा था। उसकी एक लघुकथा-संकलन निकालने की योजना थी। डेढ़ सौ शब्दों की एक लघुकथा लिखने के लिए मुझसे कहा। मैंने कहा, ‘‘लेखकों को आप दर्जी समझते हैं क्या? माप कर कथा लिखूँ ?’’
--अरे जनाब, समझते क्यों नहीं आप? यह माइक्रोस्कोपिक युग है। इसके अलावा अणु-परमाणु से ही तो मारक बमों को निर्माण होता है।
--इसका मतलब है कि कथा परमाणु बम की तरह फटेगी। भाई मेरे, अणु-परमाणु से थोड़ा हटकर नहीं सोचा जा सकता?
--वह कैसे?
--यानी कि पटाखा-कथा। थोड़ी आकार में बड़ी होगी। पटाखे की तरह फूटेगी।
प्रकाशक चला गया। मेरे मस्तिष्क में लघुकथा नहीं आती है। बीज डालकर सींचना पड़ेगा। अंकुर फूटेंगे, पेड़ बनेंगे। उसके बाद फूल-फल और फिर से बीज। इससे बाहर कैसे जा सकता हूँ? अंततः कुछ सोच-समझकर लिख ही डाला -----
‘‘दो सुअर थे। बच्चे जने दस-बारह। सुअर के बच्चों ने निर्णय लिया कि सारी दुनिया को सुअरों से भर देंगे। पहले उन्होंने निश्चित किया कि सिर्फ भादों में कुत्तों की तरह बच्चे जनेंगे। ....हजार-हजार सुअर। कीड़ों की तरह किलबिला रहे हैं। अब पशुशाला बनाएंगे। वह भी बनाया। पशुशाला के नियम-कानून बने। देश सुअरमय हुआ। उनकी आयु पाँच-दस वर्षों की है, पर ये रबर की तरह हैं। उम्र खिंचती चली जा रही है। बीस-पच्चीस-सत्ताइस-तीस और उससे भी अधिक। मजे से उनका घर-संसार चल रहा है।’’
प्रकाशक ने सुनकर कहा, ‘‘एक इन्सान की कहानी नहीं लिख सके?’’
मैं चौंक उठा, ‘‘तो फिर मैंने यह कहानी किसकी लिखी?’’
अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’
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अरबी लघुकथा
वार्तालाप
समीरा मइने
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'पूर्व का आदमी एक, दो, तीन या चार औरतों से शादी कर सकता है।'
'तुम एक, दो, तीन या चार मर्दों से शारीरिक संबंध रख सकती हो?'
'मैंने उनसे शादी तो नहीं की न?'
'तुम हेनरी से मुहब्बत करती हो?'
'थोड़ी-थोड़ी....'
और पॉप से?'
'ओह.... उसकी तो बात ही कुछ और है। '
तो फिर तुम दोनों से मुहब्बत करती हो?'
'क्या बात करती हो.... एक तीसरा शख्स भी मेरा दोस्त है, जिसके बारे में मैंने तुमको बताया ही नहीं कि वह 'टॉम' है जो मुझे घूमता है और उसके साथ जाने में मेरा खर्च कुछ भी नहीं होता।'
'ओह! समझी पूर्व का मर्द शारीरिक भूख के पीछे और पश्चिम की औरत धन और सुरक्षा के पीछे कई-कई संबंध बनाती है।
अनुवाद : नासिरा शर्मा
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मुक्तक सलिला
*
मुक्त विचारों को छंदों में ढालो रे!
नित मुक्तक कहने की आदत पालो रे!!
कोकिलकंठी होना शर्त न कविता की-
छंदों को सीखो निज स्वर में गा लो रे!!
*
मुक्तक-मुक्तक मणि-मुक्ता है माला का।
स्नेह-सिंधु है, बिंदु नहीं यह हाला का।।
प्यार करोगे तो पाओगे प्यार 'सलिल'
घृणा करे जो वह शिकार हो ज्वाला का।।
*
जीवन कहता है: 'मुझको जीकर देखो'।
अमृत-विष कहते: 'मुझको पीकर देखो'।।
आँसू कहते: 'मन को हल्का होने दो-
व्यर्थ न बोलो, अधरों को सीकर देखो"।।
*
अफसर करे न चाकरी, नेता करे न काम।
सेठ करोड़ों लूटकर, करें योग-व्यायाम।।
कृषक-श्रमिक भूखे मरें, हुआ विधाता वाम-
सरहद पर सर कट रहे, कुछ करिए श्री राम।।
*
छप्पन भोग लगाकर नेता मिल करते उपवास।
नैतिकता नीलाम करी, जग करता है उपहास।।
चोर-चोर मौसेरे भाई, रोज करें नौटंकी-
मत लेने आएँ, मत देना, ठेंगा दिखा सहास।।
१८-४-२०१८
***
छंद बहर का मूल है: ६
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS ISI SSI SIS IS
सूत्र: रजतरलग।
चौदह वार्णिक शर्करी जातीय छंद।
बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं।
*
देश-गीत गाइए, भेद भूल जाइए
सभ्यता महान है, एक्य-भाव लाइए
*
कौन था कहाँ रहा?, कौन है कहाँ बसा?
सम्प्रदाय-लिंग क्या?, भूल साथ आइए
*
प्यार-प्रेम से रहें, स्नेह-भाव ही गहें
भारती समृद्ध हो, नर्मदा नहाइए
*
दीन-हीन कौन है?, कार्य छोड़ मौन जो
देह देश में बनी, देश में मिलाइए
*
वासना न साध्य है, कामना न लक्ष्य है
भोग-रोग-मुक्त हो, त्याग-राग गाइए
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रियाँ, पाँच तत्व देह है
गह आत्म-आप का, आप में खपाइए
*
भारतीय-भारती की उतार आरती
भव्य भाव भव्यता, भूमि पे उतरिये
***
रोचक चर्चा:
गुड्डो दादी
ताल मिले नदी के जल से
नदी और सागर का मेल ताल क्यों ?
*
सलिल-वृष्टि हो ताल में, भरे बहे जब आप
नदी ग्रहण कर समुद तक, पहुँचे हो थिर-व्याप
लघु समुद्र तालाब है, महाताल है सिंधु
बिंदु कहें तालाब को, सागर को कह इंदु
१८-४-२०१७
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आंकिक उपमान पूर्ण करें
(१) एक, भूमि, इंदु, रुप इ०
(२) द्वौ, अश्वि, पक्ष, अक्षि, दो, यम इ०
(३) त्रयः क्रम, ग्राम, राम, पुर, लोक, गुण, अग्नि इ०
(४) चत्वारः, अब्धिः, श्रुति, युग, कृत इ०
(५) पंच, इषु, वायु, भूत, अक्ष, बाण, इंद्रिय इ०
(६) षट्, रस, अंग, ऋतु, तर्क इ०
(७) सप्त, ऋषि, स्वर, तुरंग, पर्वत, मुनि, अश्र्व इ०
(८) अष्ट, वसु, सर्प, मतंगज, नाग इ०
(९) नव, संख्या, नंद, रंध्र, निधि, गो, अंक, नभश्वर, ग्रह, खग इ०
(१०) दश, आशा, दिशा इ० ( ० )शून्य, अभ्र, आकाश, ख, अंबर इ०
(११) एकादश, महेश्र्वर, रुद्र, शिव इ०
(१२) द्वादश, अर्क, आदित्य, सूर्य इ०
(१३) त्रयोदश, विश्र्वे इ०
(१४) चतुर्दश, मनु, इंद्र, भुवन इ०
(१५) पंचद्श, तिथि इ०
(१६) षोडश, कला, अष्टि, राज इ०
(१७) सप्तदश, घन, अत्यष्टि इ०
(१८) अष्टादश, धृति इ०
(१९) अतिधृति, एकोनविंशति इ०
(२०) विंशति, कृति, नख, अंगुलि इ०
(२१) एकविंशति, प्रकृति, मूर्च्छना, स्वः इ०
(२२) द्वाविंशति, जाति, आकृति इ०
(२३) त्रयोविंशति, विकृति, संकृति, अर्हत् इ०
(२४) चतुर्विशति, जिन, सिद्ध इ०
(२५) पंचविशति, तत्व, अतिकृति इ०
(२६) षडिंशति, उत्कृति इ०
(२७) सप्तविशति, भ, नक्षत्र इ०
(३२) द्वात्रिंशत्, दशन, द्विज इ०
(३३) त्रयस्त्रिंशत्, सुर इ०
(४९) ऊनपंचाशत्, तान इ०
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दोहा सलिला:
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फाँसी, गोली, फौज से, देश हुआ आजाद
लाठी लूटे श्रेय हम, कहाँ करें फरियाद?
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देश बाँट कुर्सी गही, खादी ने रह मौन
बेबस लाठी सिसकती, दूर गयी रह मौन
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सरहद पर है गडबडी, जमकर हो प्रतिकार
लालबहादुर बनें हम, घुसकर आयें मार
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पाकी ध्वज फहरा रहे, नापाकी खुदगर्ज़
कुर्सी का लालच बना, लाइलाज सा मर्ज
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दया न कर सर कुचल दो, देशद्रोह है साँप
कफन दफन को तरसता, देख जाय जग काँप
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पुलक फलक पर जब टिकी, पलक दिखा आकाश
टिकी जमीं पर कस गये, सुधियों के नव पाश
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देश बाँट कुर्सी गही, खादी ने रह मौन
बेबस लाठी सिसकती, दूर गयी रह मौन
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सवा लाख से एक लड़, विजयी होता सत्य
मिथ्या होता पराजित, लज्जित सदा असत्य
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झूठ-अनृत से दूर रह, जो करता सहयोग
उसका देश-समाज में, हो सार्थक उपयोग
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सबका सबसे ही सधे, सत्साहित्य सुकाम
चिंता करिए काम की, किन्तु रहें निष्काम
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संख्या की हो फ़िक्र कम, गुणवत्ता हो ध्येय
सबसे सब सीखें सृजन, जान सकें अज्ञेय
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नवगीत:
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राजा को गद्दी से काम
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लोकतंत्र का अनुष्ठान हर
प्रजातंत्र का चिर विधान हर
जय-जय-जय जनतंत्र सुहावन
दल खातिर है प्रावधान हर
दाल दले जन की छाती पर
भोर, दुपहरी या हो शाम
.
मिली पटकनी मगर न चेते
केर-बेर मिल नौका खेते
फहर रहा ध्वज देशद्रोह का
देशभक्त की गर्दन रेते
हाथ मिलाया बाँट सिंहासन
नाम मुफ्त में है बदनाम
.
हों शहीद सैनिक तो क्या गम?
बनी रहे सरकार, आँख नम
गीदड़ भभकी सुना पडोसी
सीमा में घुस, करें नाक-दम
रंग बदलता देखें पल-पल
गिरगिट हो नत करे प्रणाम
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हर दिन नारा नया गुंजायें
हर अवसर को तुरत भुनायें
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
दल से देश न ऊपर पायें
सकल देश के नेता हैं पर
दल हित साधें नित्य तमाम
.
दल का नहीं, देश का नेता
जो है, क्यों वह ताना देता?
सब हों उसके लिये समान
हँस सम्मान सभी से लेता
हो उदार समभावी सबके
बना न क्यों दे बिगड़े काम?
***
मुक्तिका:
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बोलना था जब तभी लब कुछ नहीं बोले
बोलना था जब नहीं बेबात भी बोले
.
काग जैसे बोलते हरदम रहे नेता
गम यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
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परदेश की ध्वजा रहे फहरा अगर नादां
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
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रिश्ते अबोले रिसते रहे बूँद-बूँदकर
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकत झूठ क्या बोले?
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बोलते बाहर रहे घर की सभी बातें
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले.
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सरहद पे कटे शीश या छाती हुई छलनी
माँ की बचायी लाज, लाल चुप नहीं बोले.
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नवगीत:
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मन की तराजू पर तोलो
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'जीवन मुश्किल है'
यह सच है
ढो मत,
तनिक मजा लो.
भूलों को भूलो
खुद या औरों को
नहीं सजा दो.
अमराई में हो
बहार या पतझड़
कोयल कूके-
ऐ इंसानों!
बनो न छोटे
बात में कुछ मिसरी घोलो
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'होता है वह
जो होना है''
लेकिन
कोशिश करना.
सोते सिंह के मुँह में
मृग को
कभी न पड़ता मरना.
'बोया-काटो'
मत पछताओ
गिर-उठ कदम बढ़ाओ.
ऐ मतिमानों!
करो न खोटे
काम, न काँटे बो लो.
.***
मुक्तिका:
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हवा लगे ठहरी-ठहरी
उथले मन बातें गहरी
.
ऊँचे पद हैं नीचे लोग
सरकारें अंधी-बहरी
.
सुख-दुःख आते-जाते हैं
धूप-छाँव जैसे तह री
.
प्रेयसी बैठी है सर पर
मैया लगती है महरी
.
नहीं सुहाते गाँव तनिक
भरमाती नगरी शहरी
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सबकी ख़ुशी बना अपनी
द्वेष जलन से मत दह री
१८-४-२०१५
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