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रविवार, 2 अप्रैल 2023

कत्अ, कता, भोजपुरी हाइकु, सॉनेट पवन, भजन, चित्रगुप्त, दुर्गा, कुण्डलिया,

सॉनेट

पवन
झोंका बन पुलके झकझोर
अंतर्मन में उठा हिलोर
रवि-ऊषा बिन उज्जवल भोर
बन आलिंगन दे चितचोर
गाए मिलन-विरह के गीत
लूटे लुटा हमेशा प्रीत
हँसे हार ज्यों पाई जीत
तोड़-बनाए पल-पल रीत
कोई सकता कभी न रोक
कोई सके न किंचित टोक
होता विकल न करता शोक
पैना बहुत न लेकिन नोक
संगी भू नभ सलिल अगन
चिरजीवी हो पवन मगन
२-४-२०२२
•••
भजन
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।
डगमग डगमग नैया डोले, झटपट आ उद्धार करो।।
*
तुमईं बिरंचि सृष्टि रच दी, हरि हो खें पालन करते हो।
हर हो हर को चरन सरन दे, सबकी झोली भरते हो।।
ध्यान धरम कछू आउत नइयां, तुमई हमाओ ध्यान धरो।
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।।
*
जैंसी करनी तैंसी भरनी, न्याओ तुमाओ है सच्चो।
कैसें महिमा जानौं तुमरी, ज्ञान हमाओ है कच्चो।।
मैया नंदिनी-इरावती सें, बिनती सिर पर हाथ धरो।
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।।
*
सादर मैया किरपा करके, मोरी मत निरमल कर दें।
काम क्रोध मद मोह लोभ हर, भगति भाव जी भर, भर दें।
कान खैंच लो भले पर पिता, बाँहों में भर प्यार करो।
तुमखों सुमिरूँ चित्रगुप्त प्रभु, भव सागर सें पार करो।।
२-४-२०२१
***
कार्यशाला : कुण्डलिया
जाने कितनी हो रही अपने मन में हूक।
क्यों होती ही जारही अजब चूक पर चूक। - रामदेव लाल 'विभोर'
अजब चूक पर चूक, विधाता की क्या मर्जी?
फाड़ रहा है वस्त्र, भूलकर सिलना दर्जी
हठधर्मी या जिद्द, पड़ेगी मँहगी कितनी?
ले जाएगी जान, न जाने जानें कितनी - संजीव
चिंतन
दुर्गा पूजा
*
एक प्रश्न
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी अादि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे महामीरी में रोजगार गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से उत्पादन का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
दुर्गा सप्तशती में महामारी को भी भगवती कहा गया है। रक्तबीज की तरह कोरोना भी अपने अंश से ही बढ़ता है। रक्तबीज तभी मारा जा सका जब रक्त बिंदु का संपर्क समाप्त हो गया। रक्त बिंदु और भूमि (सतह) के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़ा था मैया ने। आज बेटों की बारी है। कोरोना वायरस और हवा, मानवांग या स्थान के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़कर कोरोना को मार दें। यह न कर कोरोना के प्रसार में सहायक जन देशद्रोही ही नहीं मानव द्रोही भी हैं। उनके साथ कानून वही करे जो माँ ने शुंभ-निशुंभ के साथ किया। कोरोना को मानव बम बनाने की सोच को जड़-मूल से ही मिटाना होगा।
२-४-२०२०
*
मुक्तक
*
सिर्फ पानी नहीं आँसू, हर्ष भी हैं दर्द भी।
बहाती नारी न केवल, हैं बनाते मर्द भी।।
गर प्रवाहित हों नहीं तो हृदय ही फट जाएगा-
हों गुलाबी-लाल तो होते कभी ये जर्द भी।।
***
मुक्तिका
*
अभावों का सूर्य, मौसम लापता बरसात का।
प्रभातों पर लगा पहरा अंधकारी रात का।।
वास्तव में श्री लिए जो वे न रह पाए सुबोध
समय जाने कब कहेगा दर्द इस संत्रास का।।
जिक्र नोटा का हुआ तो नोटवाले डर गए
संकुचित मजबूत सीने विषय है परिहास का।।
लोकतंत्री निजामत का राजसी देखो मिजाज
हार से डर कर बदलता हाय डेरा खास का।।
सांत्वना है 'सलिल' इतनी लोग सच सुन सनझते
मुखौटा हर एक नेता है चुनावी मास का।।
२-४-२०१९
***
दोहा लेखन विधान
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
२. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम (समाप्त नहीं) हो जाती है।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज शब्द-रूपों का उपयोग न करें। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का शुद्ध रूप व्यवहार में लाएँ।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथा संभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य। 'न' सही, 'ना' गलत। 'इक' गलत।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१२. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
१०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें।
विमर्श,
'कत्अ'
*
'कत्अ' उर्दू काव्य का एक हिस्सा है। 'कत्अ' का शब्दकोशीय अर्थ 'टुकड़ा या भूखंड' है। 'उर्दू नज़्म की एक किस्म जिसमें गज़ल की तरह काफ़िए की पाबन्दी होती है और जिसमें कोई एक बात कही जाती है'१ कत्अ है। 'कत्अ' को सामान्यत: 'कता' कह या लिख लिया जाता है।
'प्राय: गज़लों में २-३ या इससे अधिक अशार ऐसे होते थे जो भाव की दृष्टि से एक सुगठित इकाई होते थे, इन्हीं को (गजल का) कता कहते थे।'... 'अब गजल से स्वतंत्र रूप से भी कते कहे जाते हैं। आजकल के कते चार मिसरों के होते हैं (वैसे यह अनिवार्य नहीं है) जिसमें दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफिया - हमरदीफ़ होते हैं।२
'कत्अ' के अर्थ 'काटा हुआ' है। यह रूप की दृष्टि से गजल और कसीदे से मिलता-जुलता है। यह गजल या कसीदे से काटा हुआ प्रतीत होता है। इसमें काफिये (तुक) का क्रम वही होता है जो गजल का होता है। कम से कम दो शे'र होते हैं, ज्यादा पर कोइ प्रतिबन्ध नहीं है। इसमें प्रत्येक शे'र का दूसरा मिस्रा हम काफिया (समान तुक) होता है। विषय की दृष्टि से सभी शे'रों का एक दूसरे से संबंध होना जरूरी होता है। इसमें हर प्रकार के विषय प्रस्तुत किये जा सकते हैं।३
ग़ालिब की मशहूर गजल 'दिले नादां तुझे हुआ क्या है' के निम्न चार शे'र 'कता' का उदाहरण है-
जबकि तुम बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है।
ये परि चेहरा लोग कैसे हैं
गम्ज़-ओ-इश्व-ओ-अदा क्या है।
शिकने-जुल्फ़े-अंबरी क्यों है
निग्हे-चश्मे-सुरमा सा क्या है।
सब्ज़-ओ-गुल कहाँ से आये है
अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है।
फैज़ का एक कता देखें-
हम खस्तातनों से मुहत्सिबो, क्या माल-मनाल की पूछते हो।
इक उम्र में जो कुछ भर पाया, सब सामने लाये देते हैं
दमन में है मुश्ते-खाके-जिगर, सागर एन है कहने-हसरते-मै
लो हमने दामन झाड़ दिया, लो जाम उलटाए देते हैं
यह बिलकुल स्पष्ट है कि कता और मुक्तक समानार्थी नहीं हैं।
***
सन्दर्भ- १. उर्दू हिंदी शब्दकोष, सं. मु. मुस्तफा खां 'मद्दाह', पृष्ठ ९५, २. उर्दू कविता और छन्दशास्त्र, नरेश नदीम पृष्ठ १६, ३.उर्दू काव्य शास्त्र में काव्य का स्वरुप, डॉ. रामदास 'नादार', पृष्ठ ८५-८६, ४.
***
मुक्तिका
*
कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
*
चोर कर रहे पहरेदारी
सच में सच रुसवाई बड़ी है..
*
बैठी कोष सम्हाले साली
खाली हाथों माई खड़ी है..
*
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पडी है..
*
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है..
२-४-२०१७

***
हाइकु के रंग भोजपुरी के संग
संजीव 'सलिल'
*
आपन त्रुटि
दोसरा माथे मढ़
जीव ना छूटी..
*
बिना बात के
माथा गरमाइल
केतना फीका?.
*
फनफनात
मेहरारू, मरद
हिनहिनात..
*
बांझो स्त्री के
दिल में ममता के
अमृत-धार..
*
धूप-छाँव बा
नजर के असर
छाँव-धूप बा..
*
तन एहर
प्यार-तकरार में
मन ओहर..
*
झूठ न होला
कवनो अनुभव
बोल अबोला..
*
सबुर दाढे
मेवा फरेला पर
कउनो हद?.
*
घर फूँक के
तमाशा देखल
समझदार?.
२-४-२०१०
***

शनिवार, 1 अप्रैल 2023

रामावतार त्यागी

विरासत मेरे प्रिय कवि 

रामावतार त्यागी जी 

वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है
उदासी और आंसू का स्वयंवर याद आता है
कभी जब जगमगाते दीप गंगा पर टहलते हैं
किसी सुकुमार सपने का मुक़द्दर याद आता है
महल से जब सवालों के सही उत्तर नहीं मिलते
मुझे वह गांव का भीगा हुआ घर याद आता है
सुगंधित ये चरण, मेरा महक से भर गया आंगन
अकेले में मगर रूठा महावर याद आता है
समंदर के किनारे चांदनी में बैठ जाता हूं
उभरते शोर में डूबा हुआ स्वर याद आता है
झुका जो देवता के द्वार पर वह शीश पावन है
मुझे घायल मगर वह अनझुका सर याद आता है
कभी जब साफ़ नीयत आदमी की बात चलती है
वही 'त्यागी' बड़ा बदनाम अकसर याद आता है

अयोध्या में राम मंदिर के प्रमाण:

अयोध्या में राम मंदिर के प्रमाण:

एलेग्जेंडर कन्निंघम का सर्वे: १८६२–६३ में एलेग्जेंडर कन्निंघम जो की भारतीय पुरातत्व विभाग के निर्माता माने जाते हैं उन्होंने अयोध्या में एक सर्वे करवाया जिसका मूल उद्देश्य बौद्ध स्थलों को ढूँढना था। कनिगघम ने अयोध्या की पहचान फाह्यान के लेखन में वर्णित शांची के तौर पर, ह्वेनसांग के लेखन में विशाखा के रूप में और हिन्दू साहित्यों में वर्णित साकेत के रूप में किया। उनके अनुसार आज वहाँ जितने भी पौराणिक मंदिर हैं वे सब महाभारत में वर्णित बृहद्बला की मृत्यु के बाद में वीरान हो गए थे। इस घटना को उन्होंने १४२६ ईसा पूर्व का माना है। जब पहली शताब्दी के आसपास उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने रामायण में उल्लिखित स्थानों पर नए मंदिरों का निर्माण करवाया। कनिंघम का मानना ​​था कि जब ७ वीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने शहर का दौरा किया, तब तक विक्रमादित्य के मंदिर पहले ही गायब हो चुके थे; शहर एक बौद्ध केंद्र था, और इसमें कई बौद्ध स्मारक थे अर्थात तब सनातन धर्म का ह्रास हो चुका था। आदि शंकराचार्य जी ने शास्त्रार्थ कर के पुनर्स्थापना की थी सनातन की। 

अलोइस आंतों फुहरेर की खुदाई: ये एक पक्का बौद्ध पुरातत्ववेत्ता था जो बौद्ध धर्म को सच साबित करने के लिए कई फ़र्ज़ी ऐतिहासिक प्रमाण बनाते पकड़ा गया था।इसने ही सूअर के दाँत को बुद्ध का दाँत बताकर बुद्ध का अस्तित्व साबित करने की कोशिश की थी।

१८८९–९१ में फुहरेर ने अयोध्या में खुदाई की। फ्यूहरर को ऐसी कोई प्राचीन मूर्तियाँ, मूर्तियाँ या स्तंभ नहीं मिले जो अन्य प्राचीन शहरों के स्थलों को चिन्हित करते हों। बौद्धों के दावों पर पानी फिर गया। उन्होंने "कचरे के ढेर का एक कम अनियमित द्रव्यमान" पाया, जिसमें से सामग्री का उपयोग पड़ोसी मुस्लिम शहर फैजाबाद के निर्माण के लिए किया गया था। उसके द्वारा खोजी गई एकमात्र प्राचीन संरचना शहर के दक्षिण में तीन मिट्टी के टीले थे: मणिपर्वत, कुबेरपर्वत और सुग्रीबपर्वत। फुहरर ने बृहद्बाला की मृत्यु के बाद रामायण-युग के शहर के नष्ट होने और विक्रमादित्य द्वारा इसके पुनर्निर्माण की कथा का भी उल्लेख किया। उन्होंने लिखा है कि शहर में मौजूदा हिंदू और जैन मंदिर आधुनिक थे, हालांकि बाद में फिर उन्होंने उन प्राचीन मंदिरों के स्थलों मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया था जिन्हें बाद में मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था। फ्यूहरर ने लिखा है कि मुस्लिम विजय के समय अयोध्या में तीन हिंदू मंदिर थे: जन्मस्थानम (जहाँ राम का जन्म हुआ था), स्वर्गद्वारम (जहाँ राम का अंतिम संस्कार किया गया था) और त्रेता-के-ठाकुर (जहाँ राम ने बलिदान दिया था)। फुहरर के अनुसार, मीर खान ने १५२३ ई. पू. में जन्मस्थानम मंदिर के स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया । बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए मुसलमानों द्वारा पुराने मंदिर के कई स्तंभों का उपयोग किया गया था  ये स्तंभ काले पत्थर के थे, जिन्हें मूल निवासी कसौटी कहते थे। फ्यूहरर ने यह भी लिखा है कि औरंगजेब ने स्वर्गद्वारम और त्रेता-के-ठाकुर मंदिरों के स्थलों पर मस्जिदों का निर्माण किया था। कन्नौज के जयचंद्र का एक खंडित शिलालेख, दिनांक १२४१ संवत (११८५ CE), और विष्णु मंदिर के निर्माण का एक रिकॉर्ड औरंगजेब की त्रेता-के-ठाकुर मस्जिद से बरामद किया गया, और फैजाबाद संग्रहालय में रखा गया।

बी. बी. लाल की समय की खुदाई (१९७५-१९८५): इन्होने अयोध्या, भारद्वाज आश्रम, नंदीग्राम, चित्रकूट और श्रृंगवेरपुरा के पाँच रामायण-संबंधी स्थलों की खुदाई की। इस अध्ययन के परिणाम उस अवधि में प्रकाशित नहीं हुए। १९७५ और १९८५ के बीच अयोध्या में रामायण में संदर्भित या इसकी परंपरा से संबंधित कुछ स्थलों की जाँच के लिए एक पुरातात्विक परियोजना की गई थी। १४ वीं शताब्दी ईस्वी की बताई गई, यह अयोध्या में पाई जाने वाली सबसे पुरानी प्रतिमा है। बाबरी मस्जिद स्थल इस परियोजना के दौरान जाँचे गए चौदह स्थलों में से एक था। बी. बी. लाल को अयोध्या की खुदाई में टेराकोटा की एक जैन तपस्वी की छवि मिली।

बी. बी. लाल ने  १९९० में, अपनी सेवानिवृत्ति के बाद, एक पत्रिका में लिखा कि उन्हें मस्जिद के नीचे एक स्तंभित मंदिर के अवशेष मिले। वे पूरे देश में इस बात का प्रचार करने के लिए व्याख्यान देने लगे। लाल की पुस्तक 'राम, हिज़ हिस्टोरिसिटी, मंदिर एंड सेतु: एविडेंस ऑफ़ लिटरेचर, आर्कियोलॉजी एंड अदर साइंसेस' २००८ में वे लिखते हैं: "बाबरी मस्जिद के चबूतरे से जुड़े, बारह पत्थर के खंभे थे, जिन पर न केवल विशिष्ट हिंदू रूपांकनों और साँचों को उकेरा गया था, बल्कि हिंदू देवताओं की आकृतियाँ भी थीं। यह स्वतः स्पष्ट था कि ये स्तंभ मस्जिद का अभिन्न अंग नहीं थे, बल्कि इसके लिए बाहरी थे।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में २००३  के एक बयान में, लाल ने कहा कि उन्होंने १९८९ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सात पन्नों की प्रारंभिक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें अयोध्या में बाबरी मस्जिद संरचना के ठीक दक्षिण में "स्तंभ आधार" की खोज का उल्लेख किया गया था। इसके बाद, उनके बार-बार अनुरोध के बावजूद, सभी तकनीकी सुविधाओं को वापस ले लिया गया और  को अगले १०-१२ वर्षों के लिए पुनर्जीवित नहीं किया गया। मतलब जहाँ हिन्दू अस्तित्व सच साबित हुआ वहाँ वामपंथ प्रभावित सरकार ने परियोजना बंद करवा दी। इस प्रकार अंतिम रिपोर्ट कभी प्रस्तुत नहीं की गई, प्रारंभिक रिपोर्ट केवल १९८९ में प्रकाशित हुई थी।

लाल के रुख ने राम मंदिर के उद्देश्य को भारी बढ़ावा दिया, लेकिन उनके निष्कर्षों को कई विद्वानों ने चुनौती दी है, दोनों स्तरों की जानकारी और लाल द्वारा परिकल्पित संरचना की तरह पर सवाल उठाया है। होल के अनुसार,
"बाद में खाई की तस्वीरों का स्वतंत्र विश्लेषण जिसमें लाल ने खंभे के आधार पाए जाने का दावा किया था, ने पाया कि वे वास्तव में विभिन्न, गैर-शताब्दी संरचनात्मक चरणों की विभिन्न दीवारों के अवशेष थे, और भारवाही (लोड बिअरिंग) संरचनाएँ नहीं हो सकती थीं (मंडल २००३) एक तस्वीर के अलावा, लाल ने कभी भी अपने उत्खनन की नोटबुक और रेखाचित्र अन्य विद्वानों को उपलब्ध नहीं कराए ताकि उनकी व्याख्या का परीक्षण किया जा सके।"

होल ने निष्कर्ष निकाला है कि "जिन संरचनात्मक तत्वों को उन्होंने पहले महत्वहीन समझा था, वे अचानक ही मंदिर की नींव बन गए।" इसका जवाब उनकी टीम में काम करने वाले एक विद्वान  के.के. मुहम्मद ने अपनी जीवनी में दिया- "खुदाई में हिंदू मंदिर मिला, और कहा गया कि वामपंथी इतिहासकार कट्टरपंथियों के साथ गठबंधन करके मुस्लिम समुदायों को गुमराह कर रहे हैं।"

लाल के दावों का परीक्षण (१९९२): जुलाई १९९२ में, आठ प्रतिष्ठित पुरातत्वविद (पूर्व ए.एस.आई.निदेशक, डॉ. वाई.डी. शर्मा और डॉ. के.एम. श्रीवास्तव सहित) निष्कर्षों का मूल्यांकन और जाँच करने के लिए रामकोट पहाड़ी पर गए। इन निष्कर्षों में धार्मिक मूर्तियाँ और विष्णु की एक मूर्ति शामिल थी। उन्होंने कहा कि विवादित ढाँचे की आंतरिक सीमा, कम से कम एक तरफ, पहले से मौजूद मौजूदा ढाँचे पर टिकी हुई है, जो "पहले के मंदिर की हो सकती है"। उनके द्वारा जाँच की गई वस्तुओं में कुषाण काल (१००- ३०० ईस्वी) की टेराकोटा हिंदू छवियाँ और नक्काशीदार बलुआ पत्थर की वस्तुएँ भी शामिल थीं, जिनमें वैष्णव देवताओं और शिव-पार्वती की छवियाँ दिखाई गई थीं। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि ये टुकड़े नागर शैली (९००-१२०० ईस्वी)  के एक मंदिर के थे।

प्रो. एस.पी. गुप्ता ने खोजों पर टिप्पणी की: "टीम ने पाया कि वस्तुएँ १० वीं से१२ वीं शताब्दी ईस्वी तक की अवधि के लिए डेटा योग्य थीं, यानी, प्रतिहारों की अवधि और प्रारंभिक गढ़वाल की अवधि। इन वस्तुओं में कई अमाकल शामिल थे, यानी, कोग्ड-व्हील प्रकार आर्किटेक्चरल तत्व जो भूमि शिखर या सहायक मंदिरों के स्पीयर, साथ ही शिखर या मुख्य शिखर के शीर्ष का ताज पहनाते हैं ... यह प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के सभी उत्तर भारतीय मंदिरों की एक विशिष्ट विशेषता है। अन्य साक्ष्य थे - कॉर्निस, स्तंभ, मोल्डिंग, पुष्प पैटर्न वाले दरवाजे के जाम और अन्य।"

१९९२ - विष्णु-हरि शिलालेख (सबसे बड़ा खेल परिवर्तक): दिसंबर १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दौरान पत्थर पर तीन शिलालेख पाए गए थे। सबसे महत्वपूर्ण एक विष्णु-हरि शिलालेख है जो १.१० x ०.५६ मीटर स्लैब पर २० पंक्तियों के साथ खुदा हुआ है जो ११४० ई. पू. का माना गया था। शिलालेख में उल्लेख किया गया है कि मंदिर "विष्णु, बाली के वध करने वाले और दस सिरों वाले" को समर्पित था। शिलालेख नागरी लिपि में लिखा गया है, जो कि एक संस्कृत लिपि (या लिपि) है। ११ वीं और १२ वीं सदी विश्व स्तर के पुरालेखविदों और संस्कृत के विद्वानों सहित अजय मित्र शास्त्री, एपिग्राफिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और पुरालेख और मुद्राशास्त्र के विशेषज्ञ, ने विष्णु-हरि शिलालेख की जाँचकर कहा: शिलालेख गद्य में एक छोटे से हिस्से को छोड़कर उच्च प्रवाह वाले संस्कृत पद्य में बना है, और ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी ईस्वी की पवित्र और शास्त्रीय नागरी लिपि में उत्कीर्ण है। यह स्पष्ट रूप से मंदिर की दीवार पर लगाया गया था, जिसका निर्माण उस पर अंकित पाठ में दर्ज है। उदाहरण के लिए, इस शिलालेख की पंक्ति 15, हमें स्पष्ट रूप से बताती है कि विष्णु-हरि का एक सुंदर मंदिर, जो पत्थरों के ढेर (सिल-सम्हाति-ग्राहिस) से बना है और एक सुनहरे शिखर (हिरण्य-कलसा-श्रीसुंदरम) से सुशोभित है, जो किसी अन्य से अद्वितीय है। पहले के राजाओं द्वारा निर्मित मंदिर (पूर्ववैर-अप्य-अकृतं कृतं नृपतिभिर) का निर्माण किया गया था। यह अद्भुत मंदिर (अत्य-अद्भुतम्) साकेतमंडल (जिला, रेखा १७) में स्थित अयोध्या के मंदिर-शहर (विबुध-अलायनी) में बनाया गया था। पंक्ति १९ में भगवान विष्णु को राजा बलि (जाहिरा तौर पर वामन अभिव्यक्ति में) और दस सिर वाले व्यक्ति (दसानन, यानी रावण) को नष्ट करने के रूप में वर्णित किया गया है।

२००३ की खुदाई: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) ने २००३ में उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के निर्देश पर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल की खुदाई की। पुरातत्वविदों ने बाबरी मस्जिद से पहले की एक बड़ी संरचना के संकेतों की भी सूचना दी। खुदाई में ५२ मुसलमानों सहित १३१ मजदूरों की एक टीम लगी हुई थी। ११ जून २००३ को ए.एस.आई. ने एक अंतरिम रिपोर्ट जारी की जिसमें केवल २२ मई और ६  जून २००३ के बीच की अवधि के निष्कर्षों को सूचीबद्ध किया गया। अगस्त २००३ में ए.एस.आई. ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ को सौंपी ५७४ पन्नों की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि उन्हें अन्य युगों के अवशेष भी मिले हैं। ये खंडहर जैन मंदिरों के खंडहर हो सकते हैं।

१००० BCE से ३०० BCE: निष्कर्ष बताते हैं कि १००  BCE और ३०० BCE के बीच मस्जिद स्थल पर एक उत्तरी काले पॉलिश वाले बर्तन (NBPW) संस्कृति मौजूद थी। अशोकन ब्राह्मी में एक किंवदंती के साथ एक गोल चिन्ह, पुरातन विशेषताओं वाली महिला देवताओं की टेराकोटा मूर्तियाँ, टेराकोटा के मोती और काँच, पहिए और मन्नत टैंक के टुकड़े पाए गए हैं।

शुंग काल २०० ईसा पूर्व: विशिष्ट टेराकोटा मातृ देवी, मानव और पशु मूर्तियाँ, मोती, हेयरपिन, मिट्टी के बर्तन (ब्लैक स्लिप्ड, रेड और ग्रे वेयर शामिल हैं), और शुंग काल के पत्थर और ईंट की संरचनाएँ मिली हैं। कुषाण काल  १००-३०० सी ई: टेराकोटा मानव और पशु मूर्तियाँ, मन्नत टैंकों के टुकड़े, मोतियों, चूड़ियों के टुकड़े, लाल बर्तन के साथ चीनी मिट्टी की चीज़ें और बाईस पाठ्यक्रमों में चलने वाली बड़े आकार की संरचनाएँ इस स्तर से पाई गई हैं।
गुप्त युग (३२०-६०० सी ई) और गुप्त काल के बाद का युग: विशिष्ट टेराकोटा मूर्तियाँ, किंवदंती श्री चंद्र (गुप्त) के साथ एक तांबे का सिक्का, और गुप्त काल के उदाहरणात्मक बर्तन पाए गए हैं। पूर्व की ओर से एक प्रवेश द्वार के साथ एक गोलाकार ईंट का मंदिर और उत्तरी दीवार पर एक पानी की ढलान का प्रावधान भी पाया गया है।
११ वीं से १२ वीं शताब्दी ई.: इस स्तर पर उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग पचास मीटर की विशाल संरचना मिली है। पचास स्तंभ आधारों में से केवल चार इस स्तर के हैं। इसके ऊपर कम से कम तीन संरचनात्मक चरणों वाली एक संरचना थी जिसमें एक विशाल स्तंभों वाला हॉल था।
***

शुक्रवार, 31 मार्च 2023

अरिहंत, सॉनेट, भवानी, बुंदेली, हास्य, उल्लू, पड़ोसन, दोहा सतपदी, लघुकथा, भक्त, राजेंद्र वर्मा, काल है संक्रांति का,

सॉनेट
भवानी
भोर भई आईं किरनें
मूँद न नैना जाग उठो।
टेर चिरैया मौन भई
धो मुँह मैया रे सपरो।।
आ पटियाँ दूँ पार जरा
लो गुड़ रोटी भोग लगा
छाछ पिओ जीरा बघरा
गौ बछड़े को रोट खिला।।
झाँक चिरैया टेर रही
जा कुछ दाने तो बिखरा
दे हमको छैंया अपनी
मातु भवानी आ अँगना।।
माँ न बिसारो, हो बिटिया
वास करो मोरे मन मां।।
३१-३-२०२२
•••
सॉनेट
(लय सूत्र : जभभ गल)
जगा दिया तुमने झकझोर।
कहाँ चले सजना मुँह मोड़।
चुरा लिया चित ही चितचोर।।
फिरा रहे अँखियाँ दिल तोड़।।
सुनो हुआ मन भाव विभोर।
गले मिलो, कर दो मत छोड़।
छिपा रखी छवि श्याम अँजोर।।
नहीं किसी सँग है कुछ होड़।।
लुको-छिपो मत, छोड़ न डोर।
छलो नहीं, छलिया रणछोड़।
हरो सभी तम, दो कर भोर।।
सदा रहे तुमसे गठजोड़।।
रहें बसी मन साथ किशोर।
लली न भूल, न हीं मुँह मोड़।।
३१-३-२०२२२
•••
बुंदेली हास्य रचना:
उल्लू उवाच
*
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***
हास्य रचना
भोर भई शुभ, पड़ोसन हिला रही थी हाथ
देख मुदित मन हो गया, तना गर्व से माथ
तना गर्व से माथ, हिलाते हाथ रहे हम
घरवाली ने होली पर, था फोड़ दिया बम
निर्ममता से तोड़ दिल, बोल रही थी साँच
'तुम्हें नहीं वह हेरती, पोंछे खिड़की- काँच'
*
दोहा सलिला
(अभिनव प्रयोग - सतचरणी दोहा)
छाया की काया नहीं, पर माया बेजोड़
हटे शीश से तब लगे, पाने खातिर होड़
किसी के हाथ न आती
उजाला सखा सँगाती
तिमिर को धता बताती
*
गुझिया खा मीना कहें, मी ना कोई और
सीख यही इतिहास की, तन्नक करिए गौर
परीक्षार्थी हों गुरु जब
परीक्षाफल नकली तब
देखते भौंचक हो सब
*
करता शोक अशोक नित, तमचर है आलोक
लछमीपति दर दर फिरे, जनपथ पर है रोक
विपक्षी मुक्त देश हो
तर्क कुछ नहीं शेष हो
प्रैस चारण विशेष हो
*
रंग उड़ गया देखकर, बीबी का मुख लाल
रंग जम गया जब मिली, साली लिए गुलाल
रँगे सरहज मूँ कारा
भई बिनकी पौ बारा
कि बोलो सा रा रा रा
*
उषा दुपहरी साँझ सँग, सूरज करता डेट
थक वसुधा को सुमिरता, रजनी शैया लेट
नमन फिर भी जग करता
३१-३-२०२१
***
लघुकथा
सन्नाटा
*
घन् घन्, टन् टन्, ठक् ठक्, पों पों... सुबह से शाम तक आवाजें ही आवाजें।
चौराहे के केंद्र में खड़ी वह पूरी ताकत के साथ सीटी बजाती पर शोरगुल में सीटी की आवाज दबकर रह जाती।
बचपन से बाँसुरी की धुन उसे बहुत पसंद थी। श्रीकृष्ण जी के बाँसुरीवादन के प्रभाव के बारे में पढ़ा था। हरिप्रसाद चौरसिया जी का बाँसुरी वादन सुनती तो मन शांति अनुभव करता।
यातायात पुलिस में शहर के व्यस्ततम चौराहे पर घंटों रुकने-बढ़ने का संकेत देने से हुई थकान वह सहज ही सह लेती पर असहनीय हो जाता था सैंकड़ों वाहनों के रुकने-चलने, हॉर्न देने का शोर सहन कर पाना। बहुधा कानों में रुई लगा लेती पर वह भी बेमानी हो जाती।
अकस्मात कोरोना महामारी का प्रकोप हुआ। माननीय प्रधानमंत्री जी के चाहे अनुसार शहरवासी घरों में बंद हो गए। वह चौराहे के आसपास के इलाके में कानून-व्यवस्था का पालन करा रही है कि कोई अकारण बाहर न घूमे। अब तक शोर से परेशान उसे याद आ रहे हैं पिछले दिन और असहनीय प्रतीत हो रहा है सन्नाटा।
३१-३-२०२०
***
सामयिक रचना
भक्तों से सावधान
*
जो दुश्मन देश के, निश्चय ही हारेंगे
दिख रहे विरोधी जो वे भी ना मारेंगे
जो तटस्थ-गुरुजन हैं, वे ही तो तारेंगे
मुट्ठी में कब किसके, बँधता है आसमान
भक्तों से सावधान
*
देशभक्ति नारा है, आडंबर प्यारा है
सेना का शौर्य भी स्वार्थों पर वारा है
मनमानी व्याख्या कर सत्य को बुहारा है
जो सहमत केवल वे, हैं इनको मानदान
भक्तों से सावधान
*
अनुशासन तुम चाहो, ये पल-पल तोड़ेंगे
शासन की वल्गाएँ स्वार्थ हेतु मोड़ेंगे
गाली गुस्सा नफरत, हिंसा नहिं छोड़ेंगे
कंधे पर विक्रम के लदे लगें भासमान
भक्तों से सावधान
३१.३.२०१९

***

एक रचना
*
अरिहंत
करते अंत
किसका?
अरि कौन?
अपना अहं?
संचय वृत्ति?
मोह-माया?
स्वार्थ?
इन्द्रियाँ?
जिन्होंने नहीं जीता
एक भी अरि,
वह कैसे अनुयायी हुआ
महावीर का?
सिर्फ इसलिए
कि उसने
जैन नामधारी
परिवार में जन्म लिया.
इन्द्रियों को
जीतकर भी,
अरिओं का
अंत करने के बाद भी
दूसरा नहीं हो सका जैन
क्योंकि उसके जनक
नहीं थे जैन.
कितना उचित
कौन करे परिभाषित?
३१-३-२०१८
*
समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)
एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!
गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)
शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)
विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)
उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)
इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)
गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)
छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)
सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)
देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)
आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)
इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)
गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)
प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)
इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)
रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
४-६-२०१६
***

गुरुवार, 30 मार्च 2023

सोरठा, राम, सॉनेट, लघुकथा, नवगीत, पैरोडी, हाइकु, नोटा, कुमार गौरव अजितेंदु

सोरठा सलिला
 • 
जी भरकर आराम, भक्त करें 'आ राम' कह। 
राम न कर विश्राम, काम करें निष्काम रह।। 
• 
गहें राम पतवार, वाल्मीकि जपकर "मरा'। 
राम नाम पतवार, जिसने थामी वह तरा।। 
• 
राम-नाम बन बाण, काल दशानन का बना। 
राम आप संप्राण, पूजन शिवा-शिव को हुए।। 
• 
आप बने लंकेश, राम-नाम जप विभीषण। 
नोच मरा निज केश, रावण लड़कर राम से।। 
३०-३-२०२३
***
सॉनेट
श्वेत-श्याम
(१६-१५ मात्रा)
जन्म श्वेत का हुआ श्याम से,
श्याम श्वेत का दे उपहार।
हैं अभिन्न पर भिन्न नाम से,
पल पल करते मिल उपकार।।
श्याम विष्णु शिव पूजे जाते,
श्वेत ब्रह्म को भूला लोक।
गोरेपन की क्रीम बने क्यों?
क्यों न लग रही इस पर रोक??
जो जैसा है उसको वैसा
क्यों न सके हैं हम स्वीकार?
बेहतर-कमतर कहें व्यर्थ ही
आमंत्रित करते खुद हार।।
शांति छोड़ करते क्यों युद्ध?
क्यों न शांति वर बनें प्रबुद्ध??
३०-३-२०२२
•••
सॉनेट
(मात्रा १६-१४)
नमन सभी को, सबका वंदन,
विश्व समूचा एक बने।
सब के माथे रोली-चंदन।।
प्रभु! न कहीं भी समर ठने।।
ममता समता सम्मुख सब नत।
प्रभुता हेतु हो न प्रयास।
मानव हो उजास हित नित रत।।
हर नयन में रहे उजास।।
सीमा भूल असीम हो सकें।
तजे मन निज-पर का भाव।
युद्ध त्याग कर शांति बो सकें।।
रवि-धरा सम करें निभाव।।
सबका मन से कर अभिनंदन।
यह वसुधा हो नंदन वन।।
३०-३-२०२२
•••
नवगीत
*
पीर ने पूछें
दोस दै रये
काय निकल रय?
कै तो दई 'घर बैठो भइया'
दवा गरीबी की कछु नइया
ढो लाये कछु कौन बिदेस सें
हम भोगें कोरोना दइया
रोजी-रोटी गई
राम रे! हांत सें
तोते उड़ रय
दो बचो-बचाओ खाओ
फिर उधार सें काम चलाओ
दो दिन भूखे बैठ बिता लए
जान बचाने, गाँव बुला रओ
रेल-बसें भईं बंद
राम रे! लट्ठ
फुकट में घल रय
खोदत-खाउत जिनगी बीती
बिकी कसेंड़ी, गुल्लक रीती
तकवारों की मौज भई रे
जनता हारी, रिस्वत जीती
कग्गज पै बँट रओ
धन-रासन, आसें
गिद्ध निगल रय
***
नवगीत:
*
गरियाए बिन
हजम न होता
खाना, किसको कोसें?
.
वैचारिक प्रतिबद्ध भौत हम
जो न साथ हो, करें फौत हम
झूठ - हकीकत क्या?
क्यों सोचें?
स्वार्थ जियें, सर्वार्थ-मौत हम
जुतियाए बिन
नींद न आती
बैर हमेसा पोसें
.
संसद हो या टी. व्ही. चरचा
जन-धन का लाखों हो खरचा
नकल मार या
धमकी देकर, रउआ
देते आये परचा
पास हुए जो
चाकर, उनको
फेल हुए हम धौंसें
.
हाय बिधाता! जे का कर दओ?
बुरो जमानो, ऐब इतै सौ
जिन्हें लड़ाओ, हांत मिलाए
राम दुहाई - जे कैसें भओ?
गोड़ तोड़ रये
टैक्स भरें पे
कुटें-पिटें मूँ झौंसे
३०-३-२०२०
***
एक दोहा
*
सुन पढ़ सीख समझ जिसे, लिखा साल-दर साल।
एक निमिष में पढ़ लिया?, सचमुच किया कमाल।।
***

ई मित्रता पर पैरोडी:
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
***
मतदाता विवेकाधिकार मंच
*
त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
*
लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
*
मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
*
योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
*
दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
***
मतदाता विवेकाधिकार मंच
*
अपराधी हो यदि खड़ा, मत करिए स्वीकार।
नोटा बटन दबाइए, खुद करिए उपचार।।
*
जन भूखा प्रतिनिधि करे, जन के धन पर मौज।
मतदाता की शक्ति है, नोटा मत की फौज।।
*
नेता बात न सुन रहा, शासन देता कष्ट।
नोटा ले संघर्ष कर, बाधा करिए नष्ट।
*
३०-३-२०१९
***
सामयिक गीत -
परिवर्तन
*
करें भिखारी भीड़ बढ़ाकर
आरक्षण की माँग
अगर न दे सरकार तोड़ दें
कानूनों की टाँग
*
पढ़े-लिखे हम, सुख समृद्धि भी
पाई है भरपूर
अकल-अजीर्ण हो गया, सारी
समझ गयी है दूर
स्वार्थ-साधने खापों में
फैसले किये अंधे
रहें न रहने देंगे सुख से
कर गोरखधंधे
अगड़े होकर भी करते हैं
पिछड़ों का सा स्वाँग
*
भूमि, भवन, उद्योग हमारे
किन्तु नहीं है चैन
लूटेंगे बाज़ार, निबल को
मारेंगे दिन-रैन
वाहन जला, उखाड़ पटरियाँ
लज्जा लूटेंगे
आर्तनाद का भोग लगाकर
आहें घूंटेंगे
बात होश की हमें न करना
घुली कुएँ में भाँग
*
मार रहे मरतों को मिलकर
बहुत वीर हैं हम
मातृभूमि की पीड़ा से भी
आँख न होती नम
कोस रहे जन-सरकारों को
पी-पीकर पानी
लाल करेंगे माँ की चूनर
चीर यही ठानी
सोने का अभिनय करते हम
जगा न सकती बाँग
*
नहीं शत्रु की तनिक जरूरत
काफी हैं हम ही
जीवनदात्री राष्ट्र एकता
खातिर हम यम ही
धृतराष्ट्री हम राष्ट्रप्रमुख को
देंगे केवल दोष
किन्तु न अपने कर्तव्यों का
हमें तनिक है होश
हँसें ठठा हम रावण, बहिना
की सुनी कर माँग
३०-३-२०१६
***
कृति चर्चा:
मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु और सम्भावनाओं की आहट
*
[पुस्तक विवरण: मुक्त उड़ान, हाइकु संग्रह, कुमार गौरव अजितेंदु, आईएसबीएन ९७८-८१-९२५९४६-८-२ प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १०८, मूल्य १००रु., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, शुक्तिका प्रकाशन ५०८ मार्किट कॉम्प्लेक्स, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३, हाइकुकार संपर्क शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़, दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ चलभाष ९६३१६५५१२९]
*
विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, मराठी से लावणी, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, कपलेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।
द्विपदिक (द्विपदी, दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है। एकाधिक भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यू आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।
हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।
कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और अंत में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन, प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।
शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७-५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनके आकारों में अंतर है।
छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५ वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिंदीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बँधी-कसी प्रस्तुति हैं।
अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने १९ व २२ तथा उनके शिष्यों किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने
अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमकश, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / माँगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।
अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं, भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
३०.३.२०१४

***
मुक्तिका
*
कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
चोर कर रहे चौकीदारी
सचमच ही रुसवाई बड़ी है..
बीबी बैठी कोष सम्हाले
खाली हाथों माई खड़ी है..
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पड़ी है..
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है..
३०-३-२०१०
***


लघुकथा, संजीव, सलिल

 लघुकथा : एक दृष्टि

संजीव
*
लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
*
१७-३-२०२०
***
लघु कथा
आँख मिचौली
*
कल तक अपने मुखर और परोपकारी स्वभाव के लिए चर्चित रहनेवाली 'वह' आज कुछ और अधिक मुखर थी। उसने कब सोचा था कि समाचारों में सुनी या चलचित्रों में देखी घटनाओं की तरह यह घटना उसके जीवन में घट जायेगी और उसे चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने लोगों के अप्रिय प्रश्नों के व्यूह में अभिमन्यु की तरह अकेले जूझना पड़ेगा।
कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता मानो पुलिस अधिकारी, पत्रकार और वकील ही नहीं तथाकथित शुभ चिन्तक भी उसके कहे पर विश्वास न कर कुछ और सुनना चाहते हैं। कुछ ऐसा जो उनकी दबी हुई मनोवृत्ति को संतुष्ट कर सके, कुछ मजेदार जिस पर प्रगट में थू-थू करते हुए भी वे मन ही मन चटखारे लेता हुआ अनुभव कर सकें, कुछ ऐसा जो वे चाहकर भी देख या कर नहीं सके। उसका मन होता ऐसी गलीज मानसिकता के मुँह पर थप्पड़ जड़ दे किन्तु उसे खुद को संयत रखते हुए उनके अभद्रता की सीमा को स्पर्श करते प्रश्नों के उत्तर शालीनतापूर्वक देना था।
जिन लुच्चों ने उसे परेशान करने का प्रयास किया वे तो अपने पिता के राजनैतिक-आर्थिक असर के कारण कहीं छिपे हुए मौज कर रहे थे और वह निरपराध तथा प्रताड़ित किये जाने के बाद भी नाना प्रकार के अभियोग झेल रही थी।
वह समझ चुकी थी कि उसे परिस्थितियों से पार पाना है तो न केवल दुस्साहसी हो कर व्यवस्था से जूझते हुए छद्म हितैषी पुरुषों को मुँह तोड़ जवाब देना होगा बल्कि उसे कठिनाई में देखकर मन ही मन आनंदित होती महिलाओं के साथ भी लगातार खेलने होगी आँख मिचौली।
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लघु कथा
मीरा
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'ऐसा क्यों करें माँ? रिश्ता न जोड़ने का फैसला करने कोई कारण भी तो हो। दुर्घटना तो किसी के भी साथ हो सकती है। याद करो बड़की का रिश्ता तय हो जाने की बाद उसके पैर की हड्डी टूट गयी थी लेकिन उसके ससुरालवालों ने हमारे बिना कुछ कहे कितनी समझदारी से शादी की तारीख आगे बढ़ा दी थी, तभी तो वह ससुरालवालों पर जान छिड़कती है।.... वह बात और कैसे हो गई? वहाँ भी दुर्घटना हुई थी, यहाँ भी दुर्घटना हुई है। दुर्घटना पर किसका बस? आधी रात को क्यों गयी? यह नहीं मालुम, तुमने पूछा-जाना भी नहीं और उसे गलत मान लिया?
तुम्हीं ने हम दोनों का रिश्ता तय किया, जिद करके मुझे मनाया और अब तुम्हीं?.... बदनामी उसकी नहीं, गुनहगारों की हो रही है। इस समय हमें उसके साथ मजबूती से खड़ा होकर न्याय-प्राप्ति की राह में उसकी हिम्मत बढ़ानी है। हम सबंध तोड़ेंगे नहीं, जल्दी से जल्दी जोड़ेंगे ताकि उसे तंग करनेवाला कितने भी असरदार बापका बेटा हो, कितनी भी धमकियाँ दे, हम देखें कि सियासत न उड़ा सके उस सिया के सत का मजाक, प्रेस न ले सके चटखारे। कानून अपराधी को सजा दे और अब हमारी व्यवस्था की अपंगता का विष पीने को मजबूर न हो वह मीरा।
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लघु कथा
काल्पनिक सुख
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'दीदी! चलो बाँधो राखी' भाई की आवाज़ सुनते ही उछल पडी वह। बचपन से ही दोनों राखी के दिन खूब मस्ती करते, लड़ते का कोई न कोई कारण खोज लेते और फिर रूठने-मनाने का दौर।
'तू इतनी देर से आ रहा है? शर्म नहीं आती, जानता है मैं राखी बाँधे बिना कुछ खाती-पीती नहीं। फिर भी जल्दी नहीं आ सकता।'
"क्यों आऊँ जल्दी? किसने कहा है तुझे न खाने को? मोटी हो रही है तो डाइटिंग कर रही है, मुझ पर अहसान क्यों थोपती है?"
'मैं और मोटी? मुझे मिस स्लिम का खिताब मिला और तू मोटी कहता है.... रुक जरा बताती हूँ.'... वह मारने दौड़ती और भाई यह जा, वह जा, दोनों की धाम-चौकड़ी से परेशान होने का अभिनय करती माँ डांटती भी और मुस्कुराती भी।
उसे थकता-रुकता-हारता देख भाई खुद ही पकड़ में आ जाता और कान पकड़ते हुई माफ़ी माँगने लगता। वह भी शाहाना अंदाज़ में कहती- 'जाओ माफ़ किया, तुम भी क्या याद रखोगे?'
'अरे! हम भूले ही कहाँ हैं जो याद रखें और माफी किस बात की दे दी?' पति ने उसे जगाकर बाँहों में भरते हुए शरारत से कहा 'बताओ तो ताकि फिर से करूँ वह गलती'...
"हटो भी तुम्हें कुछ और सूझता ही नहीं'' कहती, पति को ठेलती उठ पडी वह। कैसे कहती कि अनजाने ही छीन गया है उसका काल्पनिक सुख।
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लघु कथा
साधक की आत्मनिष्ठा
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'बेटी! जल्दी आ, देख ये क्या खबर आ रही है?' सास की आवाज़ सुनते ही उसने दुधमुँहे बच्चे को उठाया और कमरे से बाहर निकलते हुए पूछा- 'क्या हुआ माँ जी?'
बैठक में पहुँची तो सभी को टकटकी लगाये समाचार सुनते-देखते पाया। दूरदर्शन पर दृष्टि पड़ी तो ठिठक कर रह गयी वह.... परदे पर भाई कह रहा था- "उस दिन दोस्तों की दबाव में कुछ ज्यादा ही पी गया था। घर लौट रहा था, रास्ते में एक लड़की दिखी अकेली। नशा सिर चढ़ा तो भले-बुरे का भेद ही मिट गया। मैं अपना दोष स्वीकारता हूँ। कानून जो भी सजा दगा, मुझे स्वीकार है। मुझे मालूम है कि मेरे माफी माँगने या सजा भोगने से उस निर्दोष लडकी तथा उसके परिवार के मन के घाव नहीं भरेंगे पर मेरी आत्म स्वीकृति से उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा मिल सकेगी। मैं शर्मिन्दा और कृतज्ञ हूँ अपनी उस बहन के प्रति जो मुझे राखी बाँधने आयी थी लेकिन तभी यह दुर्घटना घटने के कारण बिना राखी बाँधे अपने घर लौट गयी। उसने मुझे अपने मन में झाँकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं उससे वादा करता हूँ कि अब ज़िंदगी में कभी कुछ ऐसा नहीं करूँगा कि उसे शर्मिन्दा होना पड़े। मुझे आत्मबोध कराने के लिए नमन करता हूँ उसे।" भाई ने हाथ जोड़े मानो वह सामने खड़ी हो।
दीवार पर लगे भगवान् के चित्र को निहारते हुए अनायास ही उसके हाथ जुड़ गए और वह बोल पडी 'प्रभु! कृपा करना, उसे सद्बुद्धि देना ताकि अडिग और जयी रहे उस साधक की आत्मनिष्ठा।
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लघुकथा:
नीरव व्यथा
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बहुत उत्साह से मायके गयी थी वह की वर्षों बाद भाई की कलाई पर राखी बाँधेगी, बचपन की यादें ताजा होंगी जब वे बच्चे थे और एक-दूसरे से बिना बात ही बात-बात पर उलझ पड़ते थे और माँ परेशान हो जाती थी।
उसे क्या पता था कि समय ऐसी करवट लेगा कि उसे जी से प्यारे भाई को न केवल राखी बिना बाँधे उलटे पैरों लौटना पडेगा अपितु उस माँ से भी जमकर बहस हो जायेगी जिसे बचपन से उसने दादी-बुआ आदि की बातें सुनते ही देखा है और अब यह सोचकर गयी थी कि सब कुछ माँ की मर्जी से ही करेगी।
बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक, अकेले और असमय उसे घर के दरवाजे पर देखकर पति, सास-ससुर चौंके तो जरूर पर किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया। ससुर जी ने लपककर उसके हाथ से बच्चे को लिया, पति ने रिक्शे से सामान उतारकर कमरे में रख दिया सासू जी उसे गले लगाकर अंदर ले आईं बोली 'तुम एकदम थक गयी हो, मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय लाती हूँ, कुछ खा-पीकर आराम कर लो।'
'बेटी! दुनिया की बिल्कुल चिंता मत करना। हम सब एक थे, हैं और रहेंगे। तुम जब जैसा चाहो बताना, हम वैसा ही करेंगे।' ससुर जी का स्नेहिल स्वर सुनकर और पति की दृष्टि में अपने प्रति सदाशयता का भाव अनुभव कर उसे सांत्वना मिली।
सारे रास्ते वह आशंकित थी कि किन-किन सवालों का सामना करना पड़ेगा?, कैसे उत्तर दे सकेगी और कितना अपमानित अनुभव करेगी? अपनेपन के व्यवहार ने उसे मनोबल दिया, स्नान-ध्यान, जलपान के बाद अपने कमरे में खुद को स्थिर करती हुई वह सामना कर पा रही थी अपनी नीरव व्यथा का।
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लघु कथा
अंतर्विरोध
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कल तक पुलिस की वह वही हो रही थी कि उसने दो लड़कों द्वारा सताई जा रही लड़की को सुचना मिलते ही तत्काल जाकर न केवल बचाया अपितु दोनों अपराधियों को गिरफ्तार कर अगली सुबह अदालत में पेश करने की तैयारी भी कर ली। खबरची पत्रकार पुलिस अधिकारियों की प्रशंसा कर रहे थे।
खबर लेने गए किसी पत्रकार ने अपराधी लड़कों को पहचान लिया कि एक सता पक्ष के असरदार नेता का सपूत और दूसरा एक धनकुबेर का कुलदीपक है।
यह सुनते ही पुलिस अधिकारीयों के हाथ-पैर फूल गए। फ़ौरन से पेश्तर चलभाष खटखटाए जाने लगे। कचहरी भेजे जाने वाले कगाज़ फिर देखे जाने लगे, धाराओं में किया जाने लगा बदलाव, दोनों लुच्चों को बैरक से निकालकर ससम्मान कुर्सी पर बैठा कर चाय-पानी पेश किया जाने लगा, लापता बता दी गयी सी.सी.टी.वी. की फुटेज।
दिल्ली से प्रधान मंत्री गरीब से गरीब आदमी को बिना देर किया सस्ता और निष्पक्ष न्याय दिलाने की घोषणा आकार रहे ठे और उन्हीं के दल के लोग लोकतंत्र के कमल को दलदल में दफना की जुगत में लगे उद्घाटित कर रहे थे कथनी और करनी का अन्तर्विरोध।
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लघुकथा
समाधि
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विश्व पुस्तक दिवस पर विश्व विद्यालय के ग्रंथागार में पधारे छात्र नेताओं, प्राध्यापकों, अधिकारियों, कुलपति तथा जनप्रतिनिधियों ने क्रमश: पुस्तकों की महत्ता पर लंबे-लंबे व्याख्यान दिए।
द्वार पर खड़े एक चपरासी ने दूसरे से पूछा- 'क्या इनमें से किसी को कभी पुस्तकें लेते, पढ़ते या लौटाते देखा है?'
'चुप रह, सच उगलवा कर नौकरी से निकलवायेगा क्या? अब तो विद्यार्थी भी पुस्तकें लेने नहीं आते तो ये लोग क्यों आएंगे?'
'फिर ये किताबें खरीदी ही क्यों जाती हैं?
'सरकार से प्राप्त हुए धन का उपयोग होने की रपट भेजना जरूरी होता है तभी तो अगले साल के बजट में राशि मिलती है, दूसरे किताबों की खरीदी से कुलपति, विभागाध्यक्ष, पुस्तकालयाध्यक्ष आदि को कमीशन भी मिलता है।'
'अच्छा, इसीलिये हर साल सैंकड़ों किताबों को दे दी जाती है समाधि।'
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लघुकथा
काँच का प्याला
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हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।'
वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। '
'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया।
'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा।
वह बोतल-प्याले समेत कर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न।'
उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फूट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करों' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला।
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