दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 10 जनवरी 2023
सोरठा, सॉनेट हिंदी, नवगीत
कृष्ण और बसंत - सुनीता सिंह
सोमवार, 9 जनवरी 2023
उषादेवी मित्रा
लेख:
स्वजनों द्वारा उपेक्षित कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा
गीतिका श्री
*
द्विवेदीयुगीन कहानीकार उषादेवी मित्रा का जन्म सन् १८९७ में जबलपुर में हुआ था। वे रवींद्र नाथ टैगोर की पोती और प्रसिद्ध बांगला लेखक सत्येंद्र नाथ दत्त की भांजी थीं। उनके पिता हरिश्चंद्र दत्त प्रसिद्ध वकील तथा माता सरोजिनी दत्त गृहणी थीं। लगभग १४ वर्ष की किशोरावस्था में आपका विवाह क्षितिज चंद्र मित्रा से हुआ। क्षितिज चंद्र जी ने विदेश से इलक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा प्राप्त की। दुर्भाग्यवश कुछ वर्षों के अंतराल में अल्पायु पुत्र, बहिन, भाई तथा पति की मृत्यु ने ऊषा जी के जीवन को शोकाकुल कर दिया। उन्होंने अत्यंत धैर्य के साथ विधि के विधान का सामना कर पति के निधन के समय गर्भ में पल रही पुत्री को १९१९ में जन्म दिया। कलकत्ता और शांति निकेतन में कुछ वर्ष बिताकर उन्होंने संस्कृत सीखी। एक के बाद एक दुखद घटनाओं को सहते सहते वे रुग्ण रहने लगीं पर साहस के साथ पुत्री बुलबुल को डॉक्टरी की उच्च शिक्षा दिलाई।
बांगला भाषा-भाषी होते हुए भी आपने हिंदी-लेखन को अपना साहित्य-कर्म का क्षेत्र चुना। लेखन आपके लिए वैयक्तिक दुखों पर जिजीविषा की जय जयकार करने का माध्यम बन गया। आपने जिंदगी के मायने लेखन में ही खोजे। आपकी प्रमुख कृतियाँ ‘वचन का मोल’, ‘प्रिया', ‘नष्ट नीड़', ‘जीवन की मुस्कान", और 'सोहनी' नामक उपन्यासों के अतिरिक्त 'आँधी के छंद', 'महावर’, 'नीम चमेली’, 'मेघ मल्लार’, ‘रागिनी’, 'सांध्य पूर्वी' और ‘रात की रानी' आदि हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने साहसपूर्वक धार्मिक रूढ़ियों का विरोध और नारी शोषण का चित्रण और विरोध किया। वे सम सामायिक राजनीति और स्वतंत्रता आंदोलनों से भी प्रभावित रहीं। उन्ही रचनाओं में अशिक्षित, शिक्षित, विवाहिता विधवा, शोषित तथा संघर्षशील स्त्रियों का जीवंत चित्रण है। 'प्रथम छाया' तथा 'वह कौन था' कहानियों में संगीत की पृष्ठभूमि उनके अपनी अभिरुचि से जुड़ी है। 'देवदासी' में धार्मिक कुरीति पर प्रहार है। 'खिन्न पिपासा', 'चातक', 'मन का यौवन' तथा 'समझौता' जैसी कहानियों में नारी अस्मिता का संघर्ष दृष्टव्य है। उपन्यास 'जीवन की मुस्कान' में वैश्या समस्या को उठाया गया है। उपन्यास 'पिया' में स्त्री-पुरुष समानता को समाज हेतु आवश्यक बताया गया है।
उषादेवी मित्रा हिंदी कथा साहित्य के आरंभिक दौर की एक महत्वपूर्ण लेखिका हैं, मात्र इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने समकालीनों से परिमाण मे अधिक लिखा है बल्कि इसलिये कि वह् कहानी लेखन की युगीन मुख्यधारा से अलग और आज के विमर्श में रेखांकित किये जाने हेतु आवश्यक हैं। उनकी कहानियाँ भावुकता के द्वन्द्व से विलग नहीं है, न तो कथ्य के स्तर पर और न ही भाषा के स्तर पर पर फिर भी वे इस दृष्टि से अलग हैं कि उनमें स्त्री की नई सोच की आहट स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है।
चार पृष्ठों की एक छोटी-सी कहानी 'भूल' में 'हरप्रसाद पांडेय की मँझली पुत्रवधू सुप्रभा जैसी सहनशील कर्मिष्ठ नारी' के वैधव्य की करुण कथा है जो एकादशी के व्रत में मारे ज्वर के गला तर करने के लिये महरी के हाथ का पानी पीकर अपना धरम बिगाड़ लेती है। महरी से पूछे जाने पर कि 'तूने जान-बूझकर क्यों बहू का धरम बिगाड़ा?, उसका उत्तर है-'वह मर जो रही थी। पानी-पानी करके तो उसकी दम निकली जा रही थी। तुम्हारे धरम से मेरा धरम लाख गुना अच्छा।' अब प्रायश्चित की बारी है। सुप्रभा का प्रश्न है- 'क्यों, मेरा अपराध क्या है? मैं प्रायश्चित न करूँगी।' सुप्रभा स्वयं को अपराधी नहीं मानती। इसके बाद वह 'वह पूजा-पाठ छोड़ देती है, श्रंगार करती है, एक कहो तो हजार सुनाती है। जो एक दिन बिल्ली जैसी दबी रहती थी, वह शेर हो जाती है। कहानी के आखिरी हिस्से में सुप्रभा और दिवाली छुट्टी में अपने पति किशोर के साथ आई उसकी देवरानी दयारानी का संवाद है जिसमें एक प्रश्न उभरता है- 'क्या भूल को भूल कभी जीत सकती है? कहानी यहीं खत्म होती है, इस युगीन प्रश्न के साथ जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इसे उहापोह या दुचित्तापन का प्रश्न भी कह सकते हैं। यह संयोग नहीं है कि हिंदी कहानी में यह प्रश्न बार-बार दोहराया जाता रहा है। नई कहानी और उसके बाद की कहानी में भी यह प्रश्न अनुपस्थित नहीं है।इस लिहाज से उषा देवी मित्रा की यह छोटी-सी कहानी को वास्तव में एक बड़ी और विशिष्ट कहानी है जो लिखे जाने के सौ वर्षों बाद भी प्रासंगिक है।
उषा जी की कहानी कला की उनके समकालिक महिला कहानीकारों से तुलना की जाए तो सबकी अलग-अलग विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं। शिवरानी देवी और सुभद्रा कुमारी चौहान में दृष्टिगत उदारता और वैचारिक अस्मिता के साथ निर्भीकता और दृढ़ता उनके लेखकीय व्यक्तित्व में जुझारूपन का आयाम ही नहीं जोड़ती, बल्कि उन्हें समकालीन रचनाकारों से भिन्न और विशेष भी बनाती है। ऊषादेवी मित्रा में 'टुकड़ा-टुकड़ा' ये सभी विशेषताएँ हैं, लेकिन एकान्विति न होने के कारण स्त्री मुद्दों पर क्षणिक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के अतिरिक्त वे कोई ठोस वैचारिक आधार नहीं देतीं। ऊषादेवी मित्रा द्विविधाग्रस्त प्रतीत होती हैं। गाँधीवादी विचारधारा को व्यावहारिक रूप देने की बाध्यता में स्त्रीत्व की पारंपरिक छवि की प्रतिष्ठा या स्त्री के साथ होने वाले न्याय को उद्घाटित करने की लेखकीय प्रतिबद्धता दोनों ध्रुवों को, वे साथ-साथ लेकर चलना चाहती हैं। कहीं-कहीं बेहद प्रखरता एवं दृढ़ता के साथ परंपरा का विरोध करते हुए स्त्री को नए आलोक में देखने का आग्रह करती हैं और सदियों से चली आ रही व्यवस्थाओं/रूढ़ियों को अमान्य भी कर देती हैं, किंतु ऄपनी विद्रोही मुद्रा की पैनी धार बनाए नहीं रख पातीं। बीच राह में भरभरा कर सती की प्रतिष्ठा करते हुए ऄपनी ही वैचारिकता का विलोम रचने लगती हैं। ऊषादेवी मित्रा भावना की तरलता और बौद्धिकता की तीक्ष्णता को अंत तक सम्मिलित नहीं रखतीं, तेल और पानी की तरह दोनों का ऄलग-ऄलग स्वतन्त्र वजूद बनाए रखती हैं। उनकी रचनात्मकता या तोबौद्धिक कसरत बन कर रह जाती है या भावुकता का सैलाब। इसका कारण संभवत:, तात्कालिक बंग समाज में विधवा स्त्री की सामाजिक शोचनीय स्थिति है, जिसमें वे न केवल स्वयं साहसपूर्वज जी रही थीं अपितु अपनी एक मात्र संतान, पुत्री बुलबुल का भविष्य भी गढ़ रही थीं।
अपनी कृति 'सांध्य पूर्वी' पर आपको अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 'सेकसरिया पुरस्कार' प्रदान किया गया था। मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के जबलपुर अधिवेशन में आपकी साहित्य-सेवाओं के लिए मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा आपका अभिनंदन किया गया था। आप नागपुर रेडियो की परामर्शदात्री समिति की सदस्या होने के साथ-साथ नगर की अनेक सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ी थीं। ''ऊषा देवी मित्रा के कथा साहित्य में नर जीवन के बदलते स्वरूप'' पर संत थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में शोध कार्य किया है किन्तु उनके गृह नगर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ने उनके साहित्य की पूरी तरह उपेक्षा की।
ऊषा देवी मित्रा का निधन ७० वर्ष की आयु में ९ सितम्बर सन् १९६६ को हुआ। विडंबना है कि मृत्यु से पूर्व अपनी सुपुत्री डॉ• बुलबुल चौधरी से अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करते हुए आपने कहा था, “मेरी सारी पुस्तकें मेरी चिता पर मेरे साथ जला दी जाएँ। मेरी शवयात्रा में शास्त्रीय संगीत निनादित हो।” जिस लेखिका ने ५० वर्ष वैधव्य में गुजारकर निरंतर साहित्य-सृजन करके हिंदी की सेवा की, जिसकी लेखन-कला की सराहना प्रेमचंद ने की तथा जिससे मिलने के लिए प्रेमचंद खुद जबलपुर आए, वह अपनी चिता के साथ अपनी रचनाओं को जलाने की इच्छा व्यक्त करे, इसकी पृष्ठभूमि में स्वजनों और परिजनों से मिला घनीभूत अवसाद और उपेक्षा ही था।
*
संपर्क - द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, महाजनी वार्ड, नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश।
नाचा, नाथ संप्रदाय, साबर मंत्र, नवगीत, तसलीस, सूरज
रविवार, 8 जनवरी 2023
सॉनेट, भारत, गीत, यमक अलंकार
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।
लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।
निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।
भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
भारत की माटी
*
जड़ को पोषण देकर
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि
नए अंकुर उपजाति।
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती।
पुरुषार्थी को उठा धरा से
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती।
नील गगन तक हँस पहुँचाती।
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने
या बटोरने की इच्छा से
मुक्त वीतरागी-त्यागी है।
*
सुख-दुःख,
धूप-छाँव हँस सहती।
पीड़ा मन की
कभी न कहती।
सत्कर्मों पर हर्षित होती।
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।
सबकी खातिर
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती।
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग
जमा न पाए।
आसमान से गर गिर जाए।
तो उसको
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती।
निज संतति की अक्षमता पर
ग़मगीं होती, राह दिखाती।
मरा-मरा से राम सिखाती।
इंसानों क्या भगवानो की भी
मैया है भारत की माटी।
***
गीत
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता सो बीता
अब न हास-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम
मिल काटेंगे तम की कारा
उजियारे के हों पाव बारा
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का
कोशिश कर नव हास , लिखें हम
आज नया इतिहास लिखें हम।
८-१-२०२२
***
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
*
०१. टके के तीन
०२. कौड़ी के मोल
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू
०५. गृहलक्ष्मी
०६. नौ नगद न तरह उधार
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की
गीत
०१. आमदनी अठन्नी अउ; खर्चा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पांच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
८-१-२०२१
***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण-आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या व् अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग पद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद, सार्थक-सार्थक यमक
अधरान = अधरों पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
***
एक दोहा
लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
***
