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रविवार, 18 दिसंबर 2022

नित्य कल्पा तुलसी, समीक्षा, चंद्रा चतुर्वेदी

पुस्तक चर्चा
नित्य कल्पा तुलसी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण - नित्य कल्पा तुलसी, उपन्यास, डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण २०२२, आकर डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ २०१, मूल्य ५९५/-, प्रकाशक ज्ञानभारती पब्लिकेशन दिल्ली ]


                    साहित्य वह है जिसमें सबका हित समाहित हो। सबका हित किसी वैचारिक प्रबद्धता के होते हुए संभव नहीं हो सकता। कोई विचारधारा कितनी अधिक उदात्त और उदार होने का दावा क्यों न करे, वह पूर्ववर्ती अन्य विचारधाराओं को हटा-मिटा कर उनका ही स्थान लेती है। मानव सभ्यता ने बोलने की कला का विकास करने के साथ ही गुनगुनाना और कहना आरंभ किया जो कालांतर में गद्य और पद्य के रूप में विकसित हुए। बड़ों के समीप जाकर बैठना, पूछना और सुनना उपनिषद साहित्य का जनक बना जहाँ शिष्यों की जिज्ञासाओं का समाधान गुरुओं द्वारा किया गया। कहने की कला 'कहानी; कहलाई जिसका विस्तृत रूप उपन्यास है। उपन्यास शब्द में 'अस' धातु 'नि' उपसर्ग से मिलकर न्यास बनती है। उप' अधिक समीप वाची उपसर्ग है।  'न्यास' अर्थात धरोहर, भावार्थ धरोहर के निकट स्थापित करना। संस्कृत में विशेष प्रकार की टीका पद्धति को न्यास कहते हैं चूँकि टीका भी पाठक के मन को मूल के निकट स्थापित करती है। हिन्दी में उपन्यास शब्द परस्पर गुँथे हुए लंबे कथा समूह का पर्याय है जिसे बांगला में 'उपन्यास', गुजराती में 'नवल कथा', मराठी में 'कादंबरी' तथा अंग्रेजी में में 'नावल' कहा गया है। डा. श्यामसुंदर दास ने उपन्यास को 'मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा', मुंशी प्रेमचंद्र ने 'मानव चरित्र का चित्र मात्र' आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने 'गद्यात्मक कृति' तथा डा0 भगीरथ मिश्र ने 'युगीन स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी' कहा है।अर्नेस्ट ए. बेकर ने उपन्यास को 'गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन' बताया है। अंग्रेजी के महान्‌ उपन्यासकार हेनरी फ़ील्डिंग ने अपनी रचनाओं को 'गद्य में लिखे गए व्यंग्यात्मक महाकाव्य' की संज्ञा दी। उन्होंने उपन्यास की इतिहास से तुलना करते हुए उसे 'अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण' कहा। 

                    उपन्यास में उपन्यासकार घटनाओं का संयोजन इस प्रकार करता है कि उसे पढ़कर पाठक वास्तविक घटनाक्रम के इतना समीप मानसिक रूप से पहुँच सके जैसे वह स्वयं भी सहभागी है। साहित्य दर्पण मे उपन्यास 'भणिका' का एक भेद माना गया जो दृश्य काव्य के अन्तर्गत है। पं. अंबिका दत्त व्यास ने गद्य काव्य मीमांसा और डा. श्यामसुंदर दास ने साहित्यालोचन में उपन्यास को 'गद्य काव्य' की कोटि में रखा है किंतु उपन्यास गद्य काव्य से भिन्न एक स्वतंत्र प्रकार की रचना है। अमर कोष में दिया गया अर्थ उस पर पूर्णत:लागू नहीं होता। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे 'आख्यायिका' नाम मिला था। अभिनव की अलौकिक कल्पना, प्रबंध कल्पना, आश्चर्य वृत्तांत कथा, प्रबंध कल्पित कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नोबेल, नवन्यास आदि विशेषणों से इसे अभिहित किया गया।

                    उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना समीचीन होगा। साहित्य में गद्य का प्रयोग जीवन के यथार्थ चित्रण का द्योतक है। साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा लेखक के लिए अपने पात्रों, उनकी समस्याओं तथा उनके जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करना आसान हो गया है। महाकाव्यों में कृत्रिमता तथा आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति की झलक मिलती है। आधुनिक उपन्यासकार जीवन की विशृंखलताओं का नग्न चित्रण प्रस्तुत करने में ही अपनी कला की सार्थकता देखता है। बाबू गुलाबराय के शब्दो में ‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओ द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’ 


                    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार १८८२ ई. में लाला श्रीनिवास दास लिखित 'परीक्षा गुरु' हिंदी का प्रथम उपन्यास है। 'देवरानी जेठानी की कहानी' (लेखक - पंडित गौरीदत्त, सन् १८७०) तथा श्रद्धाराम फिल्लौरी की 'भाग्यवती' को भी हिंदी के प्रथम उपन्यास होने का श्रेय दिया जाता है। हिंदी के आरंभिक उपन्यास अधिकतर ऐयारी और तिलस्मी किस्म के थे। अनूदित उपन्यासों में पहला सामाजिक उपन्यास भारतेंदु हरिश्चंद्र का "पूर्णप्रकाश' और चंद्रप्रभा नामक मराठी उपन्यास का अनुवाद था। सामाजिक उपन्यासों का आधुनिक अर्थ में सूत्रपात प्रेमचंद (१८८०-१९३६) से हुआ। देवकीनंदन खत्री जी की "चंद्रकांता' हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास है। जासूसी उपन्यास लेखकों में बाबू गोपालराम गहमरी का नाम महत्वपूर्ण है।

                    उपन्यास के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, प्रयागेात्मक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, धार्मिक, लोक कथात्मक, आंचलिक, रोमानी, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी उपन्यास, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान तथा प्राकृतिक उपन्यास आदि हैं। 

                    उपन्यासकार के दो प्रधान कार्य उपदेश देना और कहानी सुनाना रहे हैं। आदि उपन्यासकार भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी थे। उनके लिए उपन्यास केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन सुधार का अस्त्र भी था। उन्होंने संस्थाओं की आलोचना द्वारा समाज की बुराइयों का पर्दाफाश कर विनाश पर आँसू बहाने के बदले निर्माण का संदेश दिया। वे प्रगतिशील व दूरदर्शी थे, उनके विचार समय के अनुकूल होते हुए भी समयानुसार आगे के थे।

                    इस पृष्ठ भूमि में सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर निवासी विदुषी डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी का सद्य प्रकाशित उपन्यास 'नीतिकल्पा तुलसी' भारतीय जन मानस में प्रतिष्ठित अपौरुषेय तथा अलौकिक महासती 'तुलसी' तथा वानस्पतिक वरदान 'तुलसी' पौधे को उपन्यास की नायिका तुलसी के चरित से संश्लिष्ट कर सम सामायिक सामाजिक परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए विभिन्न चरित्रों के माध्यम से युग कथा कहता है। चंद्रा जी सनातन वैष्णवी विचारधारा की पोषक हैं। स्त्री नव जागरण के वर्तमान युग में विष्णु-जरासंध-तुलसी का पौराणिक आख्यान एक जागरूक धर्म परायण नारी को उद्वेलित कर नव चिंतन हेतु प्रेरित करे, यह स्वाभाविक है।

                    उपन्यास की नायिका 'तुलसी डॉ. चंद्रा की ही तरह सुसंस्कारित, सुशिक्षित, धर्म परायण गृहणी है जो अपने पति और संतानों के स्वार्थ साधन तक सीमित न रहकर स्वजनों और परिजनों को भी उपकृत कर उनके जीवन को दिशा देती है। इस परिधि में उपन्यासकार की कल्पना सीमाबद्ध हो गई है। यथार्थ की परिधि के बाहर जाकर ध्वंस , विप्लव और प्रतिशोध के मनचाही उड़ान लेना उसके लिए संभव न रहा। इस कारण तथाकथित प्रगतिवादियों तथा संकुचित अंध शृद्धावलंबियों को भले ही यह कृति मनोनुकूल प्रतीत न हो, शांतिप्रिय, सहिष्णु, सर्वधर्म समभावी स्वस्थ्य चिंतनवाले पाठकों को यह उपन्यास और उसका घटनाक्रम आदर्श, विचारणीय और अनुकरणीय प्रतीत होगा। स्वस्थ्य चिंतनपरक युवा पीढ़ी को इस औपन्यासिक कृति में सामाजिक और निजी जीवन की कुछ समस्याओं का समाधान मिल सकता है।

                    इस उपन्यास का आविर्भाव और विकास सात्विक सामाजिक जीवनशैली और स्वस्थ्य पारिवारिक जीवन मूल्यों के साथ हुआ है। आरंभ में तुलसी के चरित्र और पौधे की महिमा नायिका तुलसी के माध्यम से इंगित कर लेखिका उसकी प्रवासी पुत्री महिमा द्वारा तुलसी पौधे भारत से लॉस एंजेल्स (अमेरिका) ले जाकर लगाने और स्वजनों को वितरित करने के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधरोपण का महत्वपूर्ण संदेश देती है। आधुनिकाओं द्वारा अमेरिका में तुलसी जी के पौधे लगाना, पूजा करना तथा उस पर विमर्श करना सुखद है। यहाँ विष्णु-जलंधर-वृंदा के पौराणिक आख्यान तथा सत्यभाभा द्वारा कृष्ण का तुलादान करते समय समस्त स्वर्ण, रजत, धन-संपदा आदि होने पर एक तुलसीदल चढ़ाते ही पल्ला झुकने के प्रसंग के माध्यम से तुलसी की महत्ता प्रतिपादित की गई है। 

                    आधुनिक विज्ञान ने व्यक्ति तथा समाज को सामान्य धरातल से देखने तथा चित्रित करने की प्रेरणा देने के समानांतर जीवन की समस्याओं के प्रति एक नए स्वास्थ्य दृष्टिकोण का भी संकेत किया है। यह दृष्टिकोण मुख्यत: बौद्धिक है। वर्तमान में उपन्यासकार के ऊपर कुछ नए उत्तरदायित्व आ गए हैं। अब उपन्यासकार की लेखन साधना चिंतन की अमूर्त समस्याओं तक ही सीमित न रहकर व्यापक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षा रखती है। ''नित्य कल्पा तुलसी'' उपन्यास आधुनिक सामाजिक चेतना के क्रमिक विकास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। जीवन का जितना व्यापक, सकारात्मक एवं सर्वांगीण चित्र इस उपन्यास में मिलता है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता।

                    वैयक्तिक जीवन संघर्षों, सामाजिक जीवन में बढ़ती स्वार्थपरकता प्रस्तुत करने के साथ ही साथ इस उपन्यास का घटनाक्रम वैयक्तिक मानवीय चरित्रों के टकराव-भटकाव-सुलझाव की झाँकियाँ प्रस्तुत करता है। मानव को, परिवार, जाति, व्यवसाय आदि से संलग्न इकाई के रूप में देखने के स्थान पर पारिवारिक परंपरा की श्रृंखला के रूप में देखने और वैयक्तिक प्रतिष्ठा हेतु सतत प्रयासरत रहनेवाले जीवंत-सजग जीव के रूप में आत्मोन्नति हेतु सक्रिय रूप को उपन्यास प्रतिष्ठित करता है। स्वार्थपरक सामाजिक बंधन, राजनैतिक प्रदूषण और व्यक्तिगत हित साधन को विविध घटनाओं के माध्यम से हेय, तुच्छ और त्याज्य बताया गया है। मानव चरित्र के अध्ययन के लिए यथार्थोन्मुख प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए लेखिका ने नायिका के माध्यम से नया दृष्टिकोण दिया है। मानव चरित्र के सरल वर्गीकरण की परंपरा करते हुए उपन्यास के पात्र पूर्णतया भले, भले-बुरे और पूरी तरह बुरे के मध्य राह खोजते हुए तथा तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अच्छाइयों और त्रुटियों का सम्मिश्रण, जैसा वास्तविक जीवन में सर्वत्र देखने को मिलता है, चंद्रा जी स्वाभाविकता के साथ इस उपन्यास में प्रस्तुत कर सकी हैं। इस उपन्यास में लंबे समय बाद पहली बार मानव चरित्र के यथार्थ, विशद एवं गहन अध्ययन की संभावना देखने को मिली है।

                    वर्तमान संक्रमण काल में लघुकथा, क्षणिका, दोहा, माहिया, हाइकु जैसी लघ्वाकारी सृजन विधाओं का बोलबाला है, महाकाव्य और उपन्यास जैसी विधाओं में सृजन, पठन और पाठन दिन-ब-दिन कम से कम होता जा रहा है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि ये दोनों विधाएँ अपेक्षाकृत अधिक शोध, मनन, मौलिकता, सकारात्मकता तथा श्रम की माँग करती हैं, दूसरा तथाकथित समयाभाव। इन दोनों विधाओं में नायक के चयन हेतु जिन मानकों का उल्लेख साहित्य शास्त्र में हैं, वैसे व्यक्तित्व अब किसी और लोक के वासी जान पड़ते हैं। अपने चारों और देखने पर इन महापुरुषों के पैर की धूल की कण कहलाने योग्य व्यक्तित्व भी नहीं दिखते। महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने गाँधी जी के बारे में लिखा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” यही बात विवेच्य उपन्यास 'नित्यकल्पा तुलसी ' की नायिका के बारे में भी सत्य है। यह औपन्यासिक कृति प्रामाणिकता की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी है तथापि यह केवल तथ्य संकलन या समस्याओं का लेख-जोखा नहीं है। उपन्यास के कथा-क्रम में कथ्य के विश्लेषण, मूल्याङ्कन और विवेचन में उपन्यासकार की स्वतंत्र चिंतन दृष्टि का परिचय यत्र-तत्र मिलता है।

                    सामाजिक चरित्रों को उपन्यास में ढालते समय कई चुनौतियों का सामना करना होता है। सबसे पहली चुनौती नायक/नायिका के चयन की है। सामान्यत:, अतिरेकी पत्रों का चयन किया जाता है जबकि मनुष्य पूरी तरह बुरा या भला कम अपवादस्वरूप ही होता है। बुरे से बुरे मनुष्य के जीवन में अच्छाई के पल और अच्छे से अच्छे मनुष्य के जीवन में कमजोरियों के क्षण सहज ही देखे जा सकते हैं। चरित्र-चित्रण करते समय अधिकांश उपन्यासकार चरित्रों को अतिरेकी उत्कर्ष या पतन के साथ विकसित करते हैं। ऐसा करने से वह पात्र विशेष भले ही उभरता है किंतु अन्य पात्र प्रभावी नहीं हो पाते और कथा का विकास स्वाभाविक नहीं हो पाता। नित्यकल्पा तुलसी की लेखिका सामान्य से इतर सभी पात्रों को विकास का यथायोग्य अवसर देती है। किसी पात्र का चरित्र न तो अत्यधिक विस्तार पाता है, न ही अवसर के अभाव में दम तोड़ता है। 

कथावस्तु

                    कथा वस्तु उपन्यास की जीवन शक्ति होती है। 'नित्यकल्पा तुलसी' सामान्य जनों के दैनंदिन जीवन से संबंधित होते हुए भी मौलिक कल्पना से व्युत्पन्न वर्णनों से सुसज्जित है। काल्पनिक प्रसंग इतने स्वाभाविक एवं यथार्थ हैं कि पाठक को उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने में किंचितमात्र भी कठिनाई नहीं होती। उपन्यासकार ने ऐसी विश्वसनीय घटनाओं को ही स्थान दिया है जो मुख्य कथा को यथास्थान यथावश्यक गति देती हैं। तुलसी की मुख्य कथा के साथ महिमा, वृन्दा, अक्षय, मालती, गिरिराज आदि के प्रसंग उपकथाओं के रूप में पिरोए गए हैं। ये गौण कथाएँ मुख्य कथा को दिशा, गति तथा विकास देने में सहायक हैं। इन उपकथाओं को मुख्य कथा के साथ इस तरह संगुफित किया गया है कि वे नीर-क्षीर की तरह एक हो सकी हैं। उपन्यासकार मुख्य और प्रासंगिक उपकथाओं को गूँथते समय कौतूहल और रोचकता बनाए रख सका है।  

पात्र व चरित्र चित्रण

                    इस उपन्यास का मुख्य उद्देश्य समाज को सदाचरण की प्रेरणा देना है। उपन्यासकार इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल है। उपन्यास में प्रधान पात्र तुलसी है जिसके जन्म से अवसान तक विवेकपूर्ण आचरण का पूरी प्रामाणिकता के साथ वर्णन कर उपन्यासकार न केवल अतीत में घटे प्रेरक प्रसंगों को पुनर्जीवित करता है अपितु उन्हें सम-सामयिक परिदृश्य में प्रासंगिक निरूपित करते हुए, उनका अनुकरण किये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करती है। नायिका के जीवन में निरंतर कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, उसे लगातार जूझना पड़ता है, कड़े संघर्ष के बाद मिली सफलता क्षणिक सिद्ध होती है और बार-बार वह स्वजनों ही नहीं परिजनों की भी परेशानियों सको अपनी मानकर परेशां होती  है तथापि एक बार भी हताश नहीं होती, नियति को दोष नहीं देती, खुद कष्ट सहकर भी अपने परिवारजनों और परिचितों-अपरिचितों के कल्याण हेतु हित पल-पल प्राण से समर्पित रहती है। इससे सीख लेकर पाठकों को अपने आचरण के नियमन की प्रेरणा बिन कहे ही मिलती है। उपन्यास में अनेक गौड़ पात्र हैं जो नायिका के चतुर्दिक घटती घटनाओं के पूर्ण होने में सहायक होते हैं तथा नायिका के आदर्श व्यक्तित्व को स्थापित करने में सहायक हैं। वे कथानक को गति देकर, वातावरण की गंभीरता कम कर, उपयुक्त वातावरण की सृष्टि करने के साथ-साथ अन्य पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं।

संवाद :

                    संवादों का प्रयोग कथानक को गति देने, नाटकीयता लाने, पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करने, वातावरण की सृष्टि करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया गया है। संवाद पात्रों के विचारों, मनोभावों तथा चिंतन की अभिव्यक्ति कर अन्य पात्रों तथा पाठकों को घटनाक्रम से जोड़ते हैं। कथोपकथन पात्रों के अनुकूल हैं। संवादों के माध्यम से उपन्यासकार अनुपस्थित होते हुए भी अपने चिन्तन को पाठकों के मानस में आरोपित कर सकी है।  संवाद न तो नाटकीय हैं, न उनमें अतिशयोक्ति है, गुरु गंभीर चिंतन को सरस, सहज, सरल शब्दों और लोक में परिचित भाषा शैली में व्यक्त किया गया है। इससे पाठक के मस्तिष्क में बोझ नहीं होता और वह कथ्य को ह्रदयंगम कर पाता है।

वातावरण

                    वर्तमान संक्रमण काल में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में मूल्यहीनता, स्वार्थलिप्सा, संकीर्णता तथा भोग-विलास का वातावरण है। इस काल में ऐसे जनसामान्य जिन्होंने 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देकर संयम त्याग के उदाहरण बनकर मानवीय मूल्यों की ज्योति को जलाए रखा हो ताकि अन्य जन प्रेरित होकर आदर्श पथ पर चल सके, मिलाना दुर्लभ नहीं तो दुष्कर अवश्य हो गया है। तुलसी ऐसा ही चरित्र है जो बचपन से परिवर्तित होती परिस्थितियों में मिलते गुरुतर दायित्व को ग्रहण कर न केवल स्वयं को उसके उपयुक्त प्रमाणित करटी हैं बल्कि शिव की तरह उपेक्षा या आलोचना का गरल पीकर भी नीलकंठ की भाँति उन्हीं संबंधियों की रक्षा भी करती है। उपन्यासकार ने समसामयिक सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन पूरी स्वाभाविकता के साथ किया है।  

भाषा शैली :

                    भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और शैली भावों की का अभिव्यक्ति का ढंग। भाषा के द्वारा उपन्यासकार अपनी मन की बात पाठक तक संप्रेषित करता है। अतः, भाषा का सरल-सहज-सुबोधहोना, शब्दों का सटीक होना तथा शैली का सरस होना आवश्यक है। डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी स्वयं संस्कृत की पंडिता हैं तथापि वे भाषिक शुद्धता रखते हुए भी क्लिष्टता से बच सकी हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा लेखक पांडित्य प्रदर्शन करने के फेर में पाठकों और कथा के पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाते किन्तु डॉ. चंद्रा ने कथावस्तु के अनुरूप बुंदेली ग्रामीण परिवेश और पत्रों का शहरी उच्च शिक्षित पात्रों का यथास्थान भली प्रकार समायोजन कर भाषा को पात्रों, घटनाओं तथा परिवेश के अनुरूप बनाने के साथ सहज बोधगम्य भी रखा है। पात्रों के संवाद उनकी शिक्षा तथा वातावरण के साथ सुसंगत हैं। प्रसंगानुकूल भाषिक वैशिष्ट्य का उदाहरण पद्यांशों के रूप में है। 


जीवन दर्शन व उद्देश्य :


                    किसी भी रचना को रचते समय रचनाकार के मन में कोई न कोई मान्यता, विचार या उद्देश्य होता है। उपन्यास जैसी गुरु गंभीर रचना निरुद्देश्य नहीं की जा सकती। 'नित्यकल्पा तुलसी' की रचना के मूल में निहित उद्देश्य का उल्लेख करते हुए डॉ. चतुर्वेदी  'अभिव्यक्ति' के अंतर्गत लिखती हैं  सभी पुराना त्याज्य नहीं है और सभी पुराना ग्राह्य ही हो ऐसा भी नहीं है। अच्छे-बुरे की सम्यक परीक्षा कर ही नर्णय होना चाहिए।' इस उपन्यास में यह संदेश अन्तर्निहित है कि पहले मनुष्य को ठीक किया जाए ,यदि मनुष्य विकृत रहा तो वह सबको विकृत कर देगा...मनुष्य को सत्य, न्याय, प्रेम करुणा, अहिंसा, समता, क्षमा, पवित्रता, निस्स्वार्थता, परोपकारिता, विनम्रता, जैसे गुणों को अपने व्यक्तित्व में अंगभूत करना चाहिए। फिर समाज से अन्धविश्वास, कुरीति, वर्णभेद, जातिभेद, असमानता आदि का उन्मूलन किया जाए। समाज और व्यक्ति में सहिष्णुता, स्वतंत्रता, सरलता और मृदुलता के भावों को विकसित करने की जरूरत है।  

प्रासंगिकता

                     'नित्यकल्पा तुलसी' उपन्यास की प्रासंगिकता विविध प्रसंगों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहज ही देखी जा सकती है। भारत का जन मानस संविधान द्वारा समानता की गारंटी दिए जाने के बाद भी,जाति, धर्म पंथ, संप्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग आदि के भेद-भाव से आज भी ग्रस्त है। तुलसी द्वारा अपने से जुड़े पात्रों के साथ पक्षपात न कर निष्पक्ष और सर्वोत्तम मार्गदर्शन करना, बचपन में बिछुड़ गई सहेली के मिलने पर उसे सहजता से स्वीकारना, धन-संपत्ति के लोभ में पिता की संपत्ति हड़पनेवाले भाई-भाभी के प्रति भी अनादर या द्वेष भाव न रखना आदि अनुकरणीय है। आज देश नेताओं, नौकरशाहों, धनपतियों ही नहीं आम आदमी के भी भ्रष्टाचार से संत्रस्त है। तुलसी ने अपनों की स्वार्थपरता को अस्वीकारते हुए भी सौजन्यता और शालीनता नहीं खोई। वे लिखती हैं- 

तुलसी की व्यथा का अनुमान करिए
छलिया कितना भी सबल हो, मत डरिए।
निज आत्मबल एकत्र कर प्रतिकार करिए
शापित कर, मारने के बाद मरिए।।


                    २०१ पृष्ठीय यह उपन्यास न तो अति विशाल है, न अति संक्षिप्त। हिंदी साहित्य में तपस्विनी और कृष्णावतार (क.मा. मुंशी), खरीदी कौड़ियों के मोल (बिमल मित्र), अनुत्तर योगी (वीरेंद्र कुमार जैन) जैसे दीर्घाकारी और कई भागों में लिखे उपन्यासों की समृद्ध विरासत को देखते हुए यह उपन्यास विस्तृत नहीं है तथापि लघुता की ओर बढ़ते आकर्षण को देखते हुए गंभीर लेखन, पठनीयता की दृष्टि से जोखिम उठाने की तरह है, वह भी उस समय में जबकि उपन्यास लेखन व्यक्तिगत न होकर चित्रपटीय पटकथाओं की तरह समूह द्वारा किया जा रहा हो।

                    'नित्यकल्पा तुलसी' में चंद्रा जी समसामयिक समस्याओं के समाधान के प्रति भी सजग हैं। अंतर्जातीय, अंतर्नस्लीय तथा अंतर्राष्ट्रीय विवाहों में संस्कार, भाषा, जीवनशैली आदि की भिन्नता से उपजती समस्याओं तथा उनके सम्यक समाधान की ओर उपन्यास लेखिका सजग है। युवाओं में संबंध में बँधने की उतावली और विषम परिस्थितियों में निर्वहन के स्थान पर संबंध भंग के पथ को चुनने से उपजती निराशा की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा वे अपने पात्रों के माध्यम से करती हैं। उनके अपने शब्दों में - 'इस कृति के कथा प्रसंग में कुछ मुद्दे उठाए गए हैं जहाँ आज धर्म-अध्यात्म की संस्कृति के माध्यम से शिक्षण संस्थाएँ चलती हैं पर इसके मूल उद्देश्य की उपेक्षा कर संपत्ति और जमीन के अधिग्रहण की कशमकश पर ध्यान केंद्रित रहता है.....आधुनिकता के बढ़ते चरण के शुरुआती दिनों तक ..... विदेशों में खूब विवाह संबंध हुए हैं, अभी भी हैं पर क्या वे अधिकांश सफल-सार्थक हो पाए, विशेषकर विदेश में ही पले-बढ़े युवकों के विवाह नितांत भारतीय परिवेश में हुए हों। इस उपन्यास में तुलसी पुत्री महिमा इस विडंबना के दंश को झेलती है क्योंकि हमारे आचार-विचार, रहन-सहन में परिवेश का अंतर आड़े तो आता ही है। अत:, इस संबंध में परंपरागत और आधुनिकता का ताल-मेल देखकर ही विचार होना चाहिए।'

                    लेखिका कथा को वर्तमान देशज और वैश्विक परिवेश के मध्य ताने-बाने बुनते हुए विविध पात्रों के सामान्य जनों की तरह स्वाभाविकतापूर्ण रचे गए चरित चित्रण के माध्यम से ग्रहण कर पाते हैं। पात्रों में उदारता, स्वार्थपरकता, धूर्तता, त्याग, संघर्ष, जिजीविषा, लगन, पश्चाताप आदि विविध मानवीय प्रवृत्तियाँ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में खुद-ब-खुद सामने आ सकी हैं, वे थोपी हुए नहीं हैं। तुलसी पौधे के आयुर्वेदीय औषधीय उपयोग आदि प्रसंग सामाजिक उपादेयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उपन्यास पढ़ते समय यह प्रतीत नहीं होता कि आप काल्पनिक कथा पढ़ रहे हैं अपितु ऐसा लगता है मानो हमारे आस-पास घट रही घटनाओं और उनमें सहभागी व्यक्तियों की चर्चा हो रही है। घटनाक्रम की स्वाभाविकता तथा भाषा की सहजता-सरलता, शब्दों का सटीक चयन, अभिव्यक्ति में संयम और आलोचना में निंदा का न होना लेखिका के सृजन कौशल का प्रमाण है। 

                    इस सोद्देश्य, प्रेरणास्पद, चिंतनपरक तथा दैनंदिन जीवन में अनुकरणीय औपन्यासिक गल्प के माध्यम से डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी जी जीवन सत्यों, शाश्वत मूल्यों और वैयक्तिक प्रयासों के सर्वदेशीय महत्व को भली-भाँति प्रतिपादित कर सकी हैं।। साहित्य में आज उपन्यास का वस्तुत: वही स्थान है जो प्राचीन युग में महाकाव्यों का था। व्यापक सामाजिक चित्रण की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त साम्य है। लेकिन जहाँ महाकाव्यों में जीवन तथा व्यक्तियों का आदर्शवादी चित्र मिलता है, उपन्यास, जैसा फ़ील्डिंग की परिभाषा से स्पष्ट है, समाज की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार के लिए कहानी साधन मात्र है, साध्य नहीं। उसका ध्येय पाठकों का मनोरंजन मात्र भी नहीं। वह सच्चे अर्थ में अपने युग का इतिहासकार है जो सत्य और कल्पना दोनों का सहारा लेकर व्यापक सामाजिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है। डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी ''युग परिधि'' के पश्चात्अ पनी दूसरी औपन्यासिक कृति 'नित्यकल्पा तुलसी'' के माध्यम से अपनी सृजन सामर्थ्य के प्रति पाठकों की अपेक्षाओं को बढ़ा सकी हैं। उनकी आगामी औपन्यासिक कृति की प्रतीक्षा करनेवाला पाठक वर्ग निश्चय ही बढ़ेगा। सारत: 

तुलसी बनी नवजीवन का अध्याय
आत्मोन्नति और परोपकार का पर्याय।
तुल सी गई लेकिन तौली-बेची न जा सके तुलसी
जिसके पास गई, उसकी तबीयत रही हुलसी।
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com



तुलसी
तुलसी पौधा ही नहीं है
तुलसी कालजयी कथा है।
पालनकर्ता विष्णु द्वारा
छले जाने की व्यथा है।।

तुलसीपति हंता को बनना पड़ा जड़ पत्थर
भोगना पड़ी पत्नि विरह की पीर, भटककर दर दर।
तुलसी बिना अपूजित रहे जगपालक
जग कल्याण हेतु देव-देवियों को होना पड़ा याचक।

तुलसी है अमृता कठिंजर कायस्था कुठरेका
गंधहारिणी ग्राम्या जंबीर तीव्रा तरुपका।
त्रिदशमंजरी देवमंजरी पत्रपुष्पा पावनी
पर्णास प्रस्थपुष्पा प्रेतरक्षिणी फणिझका।

बहुमंजरी बहुपत्री भूतघ्नी भूतपत्री माधवी
रामा विष्णुवल्लभा विराज वृंदा अरु श्यामा।
सुखवल्ली सुगंधा सुवहा सुभगा सुरदुंदुभी
सुरभि सुरेज्या सुलभा हरिप्रिया हरिवल्लभा।

तुलसी है विष्णुप्रिया सुपूज्या लोकमाता
मोक्षदायिनी भवतारिणी जलंधरा दुखत्राता।
नित्यकल्पा असंख्यपर्णा साँझपूज्या संकल्पा

तुलसा जनपूज्या गृहशोभा निर्विकल्पा।
कंठाभूषणा जपमाला


संदर्भ- अमरकोश, भावप्रकाश, मधुमित्र, रत्नमाला, राजनिर्घंटु, शब्द रत्नावलि तथा नित्यकल्पा तुलसी।

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

राम, शिव, सॉनेट, गीत, ब्रजेश श्रीवास्तव, निर्मल शुक्ल, सरदार पटेल,

दोहा सलिला 
शंभु नाथ सब सृष्टि के, उमानाथ जगदीश।
रहें सलिल पर सदय प्रभु, सह पार्वती गिरीश।।
*
रेखा खींचे भक्ति की, हो जिज्ञासु विवेक।
पुष्पा सरला मुकुल मन, वसुधा हर्षित नेक।।
*
दें संतोष सुरेश आ, राम नाम अविनाश।
सुख-दुःख में तजिए नहीं, धीरज रहें सुभाष।।
*
रहे सुनीता ज़िंदगी, हँस मर्यादापूर्ण। 
सुधा राम का नाम ले, अहंकार हो चूर्ण।।
*
विषपायी प्रिय राम को, शंकर को प्रिय राम। 
सलिल न भरमा नित्य जप, दोनों का ही नाम।।
*
रत रहते हैं राम में, जो वे भरत महान। 
धर्म नहीं है भरत बिन, भरत राम का मान।।
*
पीताम्बर मर्याद है, नीलाम्बर है अंत। 
रक्ताम्बर से नाश हो, श्वेताम्बर  है संत।। 
*
धर्म-प्रेम का पथ चुनें, प्रेम-धर्म रख साथ। 
जब तब ही साकार हों, भरत और रघुनाथ।।
धर्म-प्रेम की राह में, हो न हार; नहिं जीत। 
प्रेम-धर्म के पंथ पर, कर जो चाहे मीत।।
*
प्रेम-धर्म संयोग का, भक्ति भाव है नाम। 
भक्ति और अनुरक्ति में, नहीं भेद का काम।।   
***
सॉनेट
नमन
*
तूलिका को, रंग को, आकार को नमन ।
कल्पना की सृष्टि, दृष्टि ईश का वरदान।
शब्द करें कला-ओ-कलाकार को नमन।।
एक एक चित्र है रस-भावना की खान।।
रेखाओं की लय सरस सूर-पद सुगेय।
वर्तुलों में साखियाँ चित्रित कबीर की।
निराला संसार है प्रसाद शारदेय।।
भुज भेंटती नीराजना, दीपशिखा भी।।
ध्यान लगा, खोल नयन, निरख छवि बाँकी।
ऊँचाई-गहराई-विस्तार है अगम।
झरोखे से झाँक, है बाँकी नवल झाँकी।।
अधर पर मृदु हास ले, हैं कमल नयन नम।।
निशा-उषा-साँझ, घाट-बाट साथ-साथ।
सहेली शैली हरेक, सलिल नवा माथ।।
१७-१२-२०२१
***
सॉनेट
गुरुआनी
*
गुरुआनी गुरु के हृदय, अब भी रहीं विराज।
देख रहीं परलोक से, धीरज धरकर आप।
विधि-विधान से कर रहे, सारे अंतिम काज।।
गुरु जी उनको याद कर, पल-पल सुधियाँ व्याप।।
कवि-कविता-कविताइ का, कभी न छूटे साथ।
हुई नर्मदा की सुता, गंगा-तनया मीत।
सात जन्म बंधन रहे, लिए हाथ में हाथ।।
देही थी अब विदेही, हुई सनातन प्रीत।।
गुरुआनी जी थीं सरल, पति गौरव पर मुग्ध।
संस्कार संतान को, दिए सनातन शुद्ध।
व्रत-तप से हर अशुभ को, किया निरंतर दग्ध।।
संगत पाकर साँड़ भी, गुरु हो पूज्य प्रबुद्ध।।
दिव्यात्मा आशीष दे, रहे सुखी कुल वंश।
कविता पुष्पित-पल्लवित, हो बन सुधि का अंश।।
१६-१२-२०२१
***
छंद सलिला
रूपमाला
२४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद
*
पदभार २४, यति १४-१०, पदांत गुरु लघु।
विविध गणों का प्रयोग कर कई मापनियाँ बनाई जा सकती हैं।
उदाहरण
रूपमाला फेरता ले, भूप जैसा भाग।
राग से अनुराग करता, भोग दाहक आग।।
त्यागता वैराग हँसकर, जगत पूजे किंतु-
त्याग देता त्याग को ही, जला ईर्ष्या आग।।
कलकल कलकल अमल विमल, जल प्रवह-प्रवहकर।
धरणि-तपिश हर मुकुलित मन, सुखकर दुख हरकर।।
लहर-लहर लहरित मुखरित, छवि मनहर लखकर-
कलरव कर खगगण प्रमुदित, खुश चहक-चहककर।
जो बोया सो काटेगा, काहे को रोना।
जो पाया सो खोएगा, क्यों जोड़े सोना?
आएगा सो जाएगा, छोड़ेगा यादें-
बागों के फूलों जैसे, तू खुश्बू बोना
१७-१२-२०२०
***
पुस्तक चर्चा:
नई उम्र की नई फसल: दोहा सलिला निर्मला
डॉ. अरुण मिश्र
*
प्रतिभा कवित्व का बीज है जिसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है। 'कवित्तं दुर्लभं लोके' काव्य रचना सृष्टि में सर्वाधिक दुर्लभ कार्य है। आचार्यों के अनुसार काव्य के ३ हेतु हैं।
' नैसर्गिकी च प्रतिभा, श्रुतञ्च बहु निर्मलं।
अमंदश्चाभियोगश्च, कारणं काव्य संपद:।।' दंडी काव्यादर्श १ / १०३
निसर्गजात प्रतिभा, निर्भ्रांत लोक-शास्त्र ज्ञान और अमंद अभियोग यही काव्य के लक्षण हैं। कावय की रचना शक्ति, निपुणता और अभ्यास द्वारा ही संभव है। काव्य छंद-विधान से युक्त सरस वाणी है जिसका सीधा संबंध लोक मंगल से होता है। आचार्य शुक्ल भी यही स्वीकार करते हैं कि जिस काव्य में लोक के प्रति अधिक भावना होगी, वही उत्तम है। छंद-शास्त्र का ज्ञान सभी को प्राप्त नहीं है, वाग्देवी की कृपा ही छंद-युक्त काव्य के लिए प्रेरित करती है।
आचार्य श्री संजीव वर्मा 'सलिल' एवं डॉ. साधना वर्मा के संपादन में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा शांतिराज पुस्तक माला के अंतर्गत प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा २ 'दोहा सलिला निर्मला' कृति का प्रकाशन हुआ है। आज के दौर में साहित्य-लेखन में छंदों का प्रयोग नगण्य होता जा रहा है तथापि कुछ रचनाकार ऐसे हैं जिन्होंने छंदों के प्रति असीम निष्ठा का भाव अपनाकर छंद-रचना से खुद को अलग नहीं किया है। वे छंद-विधान में निष्णात हैं। संपादक द्वय ने इनकी प्रतिभा का आकलन कर पंद्रह-पंद्रह दोहाकारों द्वारा रचित सौ-सौ दोहों को इस कृति में संग्रहित किया है। यह संग्रह उपयुक्त व सटीक है। इस संग्रह की विशेष बात यह है कि हर दोहाकार के दोहों पर पहले संपादक द्वारा समीक्षकीय टिप्पणी करने के साथ-साथ पाद टिप्पणी में दोहा में ही दोहा विषयक जानकारी दी गई है।
संग्रह के पहले रचनाकार अखिलेश खरे 'अखिल' के दोहों में ग्राम्य जीवन की सुवास महकती है-
खेतों से डोली चली, खलिहानों में शोर।
पिता-गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।।
निम्न दोहे में ग्राम्य व नगर जीवन की सटीक तुलना की गई है-
शहर-शहर सा सुघर है, उससे सुंदर गाँव।
सुदिन बांचता भोर से, कागा कर-कर काँव।।
श्रृंगार रस से भरपूर दोहे भी अखिल जी द्वारा लिखे गए हैं-
नैना खुली किताब से, छुपा राज कह मौन।
महक छिपे कब इत्र की, कहो लगाए कौन।।
प्रेम की भाषा मौन रहती है पर प्रेम छिपाये नहीं छिपता। यह प्रेम स्वर्गीय ज्योति से प्रकाशित रहता है।
दोहाकार अरुण शर्मा की चिंता गंगा-शुद्धि को लेकर है। निर्मल पतित पावनी, राम की गंगा को मैली होते देख कवि ने अनायास यह दोहा कहा होगा-
गंगा नद सा नद नहीं, ना गंगे सा नीर।
दर्जा पाया मातु का, फिर भी गंदे तीर।।
करते गंगा आरती, लेकर मन-संताप।
मन-मैला धोया नहीं, कहाँ मिटेंगे पाप।।
बरही कटनी निवासी श्री उदयभानु तिवारी के दोहों में भक्ति और प्रेम की रसधारा प्रवाहित है। महारास लीला शीर्षक उनके दोहों में मधुरा भक्ति का प्राकट्य हुआ है। मन को आल्हादित करने वाले एक-एक दोहे में पाठक का मन रमता जाता है और वह ब्रम्हानंद सहोदर का आनंद उठाता है-
गोपी जीवन प्रेम है, कान्हा परमानंद।
मोहे खग नर नाग सब, फैला सर्वानंद।।
श्री कृष्ण योगिराज हैं। 'वासुदेव पुरोज्ञानं वासुदेव पराङ्गति।' इन दोहों को हृदयंगम कर बरबस ही स्मरण हो आते हैं ये दोहे-
कित मुरली कित चंद्रिका, कित गोपियन के साथ।
अपने जन के कारने, कृष्ण भये यदुनाथ।।
महारास में 'मैं-'तुम' का विभेद नहीं रहता, सब प्रेम-पयोधि में डूब जाते हैं। बिहारी कहते हैं-
गिरि वे ऊँचै रसिक मन, बूड़ै जहाँ हजार।
वहै सदा पशु नरन को, प्रेम पयोधि पगार।।
बरौंसा, सुल्तानपुर के ओमप्रकाश शुक्ल गाँधीवादी विचारधारा के पोषक हैं। समसामयिक परिवेश में जो घटित है, उसके प्रति उनकी चिंता स्वाभाविक है-
भरे खज़ाना देश का, पर अद्भुत दुर्योग।
निर्धन हित त्यागें; करें, चोर-लुटेरे भोग।।
समानता, न्याय का सभी को अधिकार प्राप्त हो कवि की यही कामना है-
सबको सबका हक मिले, बिंदु-बिंदु हो न्याय।
ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म-पर्याय।।
जीवन में सहजता और सारल्य ही शक्ति देता है, इसलिए दोहाकार ने संतोष व्यक्त किया है। उसकी इच्छा है कि सब प्रेम से रहें, सन्मार्ग पर चलें-
सत का पथ मत छोड़ना, हे भारत के लाल।
राजभोग क्यों लालसा, जब है रोटी दाल।।
नरसिंहपुर निवासी जयप्रकाश श्रीवास्तव गीत-नवगीत के रचनाकार हैं। वे निसर्ग से संवाद करते नज़र आते हैं-
यूँ तो सूरज नापता, धरती का भूगोल।
पर कोइ सुनता नहीं गौरैया के बोल।।
पेड़ हुए फिर से नए, पहन धुले परिधान।
फूलों ने हँसकर किया, मौसम का सम्मान।।
हिंदी में प्रारंभ से ही नीतिपरक दोहों का चलन रहा है। इसी परंपरा में नीता सैनी के दोहों का सृजन हुआ है-
नैतिकता कायम रहे, करिए चरित-विकास।
कोरे भाषण नीति के, तनिक न आते रास।।
उनके इस दोहे में गंगा के प्रति असीम निष्ठा का भाव अभिव्यक्त हुआ है-
युगों-युगों से धो रहीं, गंगा मैया पाप।
निर्मल मन करतीं सदा, हरतीं पीड़ा-पाप।।
सोहागपुर, शहडोल निवासी डॉ. नीलमणि दुबे का व्यक्तित्व ही काव्यमय है। छंदविधान उनकी बाल्य जीवन की कविताओं में दृष्टव्य है। वे हिंदी प्रध्यापाल होने के पहले काव्य-रचयिता हैं। कविता उनके आस-पास विचरती है। संस्कृतनिष्ठ पदावली में उनकी गीत-रचना पाठकों को सहज ही लुभाती है। वर्तमान समय में बेमानी होते संबंधों को वे दोहे के माध्यम से उजागर करते हैं-
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
प्रकृति के प्रति असीम लगाव है उन्हें। खेतों की हरियाली, वासंतिक प्रभा उन्हें विमोहित करती है। प्रकृति के पल-पल बदलते परिवेश का वे स्वागत करती हैं-
आम्र-मंजरी मिस मधुर, देते अमृत घोल।
हिय में गहरे उतरते, पिक के मीठे बोल।।
सरसों सँकुचाई खड़ी, खिला-खिला कचनार।
कर सिंगार सँकुचा गई, हरसिंगार की डार।।
धौलपुर, राजस्थान के कवि बसंत कुमार शर्मा राजस्थान की वीरभूमि व् टैग-बलिदान की माटी की सुवास लेकर दोहे रचते हैं। उन्हें छंदों के प्रति विशेष लगाव है। शोष्हित वर्ग के प्रति उनके मन में विशेष करुणा है। हमारे कृषि प्रधान देश में किसान प्रकृति के रूठ जाने से लचर हो जाता है-
रामू हरिया खेत में, बैठा मौन उदास।
सूखा गया असाढ़ तो, अब सावन से आस।.
सिवनी मध्य प्रदेश के रहनेवाले डॉ. रामकुमार चतुर्वेदी वर्तमान व्यवस्था से आक्रोशित हैं। वे अपने परिवेश को व्यंग्य-धार से समझाते हैं-
पाँव पकड़ विनती करैं, सिद्ध करो सब काम।
अपना हिस्सा तुम रखो, कुछ अपने भी नाम।।
विषय चयन के क्षेत्र में, गाए अपना राग।
कौआ छीने कान को, कहते भागमभाग।।
सिवान, बिहार की रीता सिवानी युवा कवयित्री हैं। वे समतामूलक समाज में पूर्ण आस्था रखती हैं-
धरा जगत के एक है, अंबर सबका एक।
मनुज एक मिट्टी बने, रंगत रूप अनेक।।
रिश्ते में जब प्रीत हो, तभी बने वह खास।
प्रीत बिना रिश्ते लगें, बोझिल मूक उदास।।
प्रेम जहाँ है, वहाँ तर्क नहीं है क्योंकि तर्क से विद्वेष बढ़ता है। जहाँ प्रेम हो, निष्ठां हो, वहां कुतर्कों का स्थान नहीं है, प्रेम के बिना जीवन सूना है। अहंकार को त्यगना ही सच्चा प्रेम है। कबीर की वाणी में- 'जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नाहिँ'। ईश्वर को पाना है, अच्छा इंसान बनना है तो अहंकार का त्याग आवश्यक है-
गर्व नहीं करना कभी, धन पर ऐ इंसान!
कर जाता पल में प्रलय, छोटा सा तूफ़ान।।
शुचि भवि भिलाई (छत्तीसगढ़)निवासी हैं। विरोधाभास की जिंदगी उनहोंने देखी है। परिवार-समाज से वे कुछ चाहती हैं। समाज में विश्वास नहीं रहा है। सहज-सरल लोगों का आज जीना दुश्वार हो गया है। भवि को समाज से सिर्फ निराशा ही नहीं है अपितु कहीं न कहीं वह आशान्वित भी हैं।भवि जीवन में सरलता के साथ ही विनम्रता को प्रश्रय देते हुए कहती हैं-
कटु वचनों से क्या कहीं, बनती है कुछ बात?
बोलो मीठे वचन तो, सुधरेंगे हालात।।
तुलसीदास जी भी यही कहते हैं-
लसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन इक मंत्र है, परिहरु बचन कठोर।।
'भवानी शंकरौ वजनदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' की अनुगूँज भवि के इस दोहे में व्यंजित है-
बूँद-बूँद विश्वास से, बनती है पहचान।
पल भर में कोई कभी, होता नहीं महान।।
दिल्ली में जन्में शोभित वर्मा में एक अभियांत्रिकी महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष होने के बाद भी पारिवारिक संस्कार के कारण हिंदी के प्रति रूचि है। सलिल जी से जुड़ाव ने उनमें और छंद के प्रति लगाव उत्पन्न कर दिया। उनका कवि पर्यावरण के प्रति जागरूक है-
काट रहे नित पेड़ हम, करते नहीं विचार।
आपने पाँव कुल्हाड़ पर, आप रहे हैं मार।।
अभियंता होने के नाते वे जानते हैं की किसी निर्णय का समय पर होना कितना आवश्यक है-
यदि न समय पर लिया तो निर्णय हो बेअर्थ।
समय बीतने पर लिया निर्णय करे अनर्थ।।
सुदूर ईटानगर अरुणांचल में पेशे से शिक्षिका सरस्वती कुमारी ने अपने दोहों में सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित किया है। वे नारी शक्ति की समर्थक और राधा-कृष्ण के प्रेम की उपासिका हैं-
रंग-रँगीली राधिका, छैल छबीला श्याम।
रास रचाते जमुन-तट, दोनों आठों याम।।
गीता का कर्म योग भी उनके दोहों में व्याप्त है-
ढूँढ जरा ऐ ज़िंदगी!, तू अपनी पहचान।
भाग्य बदल दे कर्म कर, लिख अपना उन्वान।।
हिंदी प्राध्यापक फैज़ाबाद निवासी हरी फ़ैज़ाबादी अवधि के कवि हैं। वे कविता की पारम्परिकता को बरकरार रखे हुआ माँ को श्रेष्ठ मानते हैं-
कर देती नौ रात में, जीवन का उद्धार।
माँ की महिमा यूँ नहीं, गाता है संसार।।
स्वच्छता अभियान के लिए वे जागरूक हैं। उनकी पीड़ा यह कि स्वच्छ रहने के लिए भी अभियान चलना पड़ रहा है-
आखिर चमके किस तरह मेरा हिंदुस्तान।
यहाँ सफाई भी नहीं, होती बिन अभियान।।
सारण बिहार में जन्मे, रांची में कार्यरत हिमकर श्याम इस दोहा संग्रह के अंतिम रचनाकार हैं। पत्रकारिता में स्नातक होने के साथ ही वे दोहा, ग़ज़ल, रिपोर्ताज लिखने में सिद्धहस्त हैं। सहज व्यक्तित्व होने के कारण ही वे पर्यावरणीय विक्षोभ से चिंतित हैं। प्रकृति के प्रति असीम अनुराग उनके लेखन में व्याप्त है-
झूमे सरसों खेत में, बौराए हैं आम।
दहके फूल पलाश के, है सिंदूरी शाम।।
वृक्षों की अंधाधुंध कटाई उन्हें चिंतित करती है। आँगन में लगे तुलसी के पौधे के नीचे रखे दीपक अब ध्यान में नहीं है-
आँगन की तुलसी कहाँ, दिखे नहीं अब नीम।
जामुन-पीपल कट गए, ढूँढे कहाँ हकीम।।
आचार्य संजीव सलिल तथा प्रो। साधना वर्मा द्वारा 'शान्तिराज पुस्तक मालांतर्गत संपादित 'दोहा शतक मञ्जूषा २ "दोहा सलिला निर्मला" छंद विधान की परंपरा को सुदृढ़ बना सकी है। स्वतंत्रता के बाद विशेषकर नवें-दसवें दशक से छंद यत्र-तत्र ही दिखते हैं। छंद लेखन कठिन कार्य है। आचार्य संजीव सलिल जी ने अथक श्रम कर दोहाकारों को तैयार कर उनके प्रतिनिधि दोहों का चयन कर यह दोहा शतक मंजूषा श्रृंखला बनाई है जो वर्तमान परिवेश और सामयिक समस्याओं के अनुकूल है। ये रचनाकार अपने परिवेश से सुपरिचित हैं। अत; उसे अभिव्यक्त करने में वे संकोच नहीं करते हैं। कुल मिलाकर सभी दृष्टियों से संग्रहीत कवियों के दोहे छंद-विधान के उपयुक्त व् सटीक हैं। संपादक द्वय को ढेर सी
बधाई
और शुभकानाएँ। विश्वास है कि भविष्य में ये दोहे पाठकों को दिशा-सोची बना सकेंगे।
*
संपर्क: से.नि. विभागाध्यक्ष हिंदी, शासकीय मानकुँवर बाई स्नातकोत्तर स्वशासी महिला महाविद्यालय, जबलपुर ४८२००१
१७-१२-२०१८
***
एक नवगीत
आओ! तनिक बदलें
*
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
सिर्फ स्यापा ही नहीं,
मुस्कान भी सच है।
दर्द-पीड़ा है अगर, मृदु
हास भी सच है।।
है विसंगति अगर तो
संगति छिपी उसमें-
सम्हल कर चलते चलें,
लड़कर नहीं फसलें।।
समय है बदलाव का,
आओ! तनिक बदलें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
बैठ ए. सी. में अगर
लू लिख रहे झूठी।
समझ लें हिम्मत किसी की
पढ़ इसे टूटी।
कौन दोषी कवि कहो
पूछे कलम तुझसे?
रोकते क्यों हौसले
नव गीत में मचलें?
पार कर सरहद न ग़ज़लें
गीत में धँस लें।।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
व्यंग्य में, लघुकथा में,
क्यों सच न भाता है?
हो रुदाली मात्र कविता,
क्यों सुहाता है?
मनुज के उत्थान का सुख
भोगते हो तुम-
चाहते दुःख मात्र लिखकर
देश को ठग लें।
हैं न काबिल जो वही
हर बात का यश लें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
१६-१२-२०१८
***
राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल
जन्म- ३१.१०.१८७५, नाडियाद, बंबई रेसीड़ेंसी (अब गुजरात), आत्मज- लाड बाई-झबेर भाई पटेल, पत्नी- झबेर बा, भाई- विट्ठल भाई पटेल, शिक्षा- विधि स्नातक १९१३, पुत्री- मणि बेन पटेल, पुत्र- दया भाई पटेल, निधन- १५ दिसंबर १९५०। १९१७- सेक्रेटरी गुजरात सभा, १९१८- कैरा बाढ़ के बाद 'कर नहीं' किसान आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन हेतु ३ लाख सदस्य बनाये, १.५० लाख रूपए एकत्र किए, १९२८ कर वृद्धि विरोध बारडोली सत्याग्रह, १९३० नमक सत्याग्रह कारावास, १९३१ गाँधी-इरविन समझौता मुक्ति, कोंग्रेस अध्यक्ष कराची अधिवेशन, १९३४ विधायिका चुनाव, नहीं लदे, दल को जयी बनाया, १९४२ भारत छोडो, गिरफ्तार, १९४५ रिहा, १९४७ गृह मंत्री भारत सरकार, ५६२ रियासतों का एकीकरण, १९९१ भारत रत्न।
गीत-
राजनीति के
रंगमंच पर
अपनी आप मिसाल थे.
.
गोरी सत्ता
रौंद अस्मिता भारत की मदमाती थी.
लौह पुरुष की
राष्ट्र भक्ति से डर जाती, झुक जाती थी.
भारत माँ के
कंठ सुशोभित
माणिक-मुक्त माल थे.
.
पैर जमीं पर जमा
हाथ से छू पाए आकाश को.
भारत माँ की
पराधीनता के, तोड़ा हर पाश को.
तिमित गुलामी
दूर हटाया
जलती हुई मशाल थे.
.
आम आदमी की
पीड़ा को सके मिटा सरदार बन.
आततायियों से
जूझे निर्भीक सबक किरदार बन.
भारतवासी
तुम सा नेता
पाकर हुए निहाल थे.
१५-१२-२०१७
***
नवगीत:
अपनी ढपली
*
अपनी ढपली
अपना राग
*
ये दो दूनी तीन बतायें
पाँच कहें वे बाँह चढ़ायें
चार न मानें ये, वे कोई
पार किसी से कैसे पायें?
कोयल प्रबंधित हारी है
कागा गाये
बेसुर फाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
अचल न पर्वत, सचल हुआ है
तजे न पिंजरा, अचल सुआ है
समता रही विषमता बोती
खेलें कहकर व्यर्थ जुंआ है
पाल रहे
बाँहों में नाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
चाहें खा लें बिना उगाये
सत्य न मानें हैं बौराये
पाल रहे तम कर उजियारा
बनते दाता, कर फैलाये
खुद सो जग से
कहते जाग
अपनी ढपली
अपना राग
***
नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
***
नवगीत-
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
अपनी-अपनी
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
***
एक गीत-
भूमि मन में बसी
*
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
पाँच माताएँ हैं
एक पैदा करे
दूसरी भूमि पर
पैर मैंने धरे
दूध गौ का पिया
पुष्ट तन तब वरे
बोल भाषा बढ़े
मूल्य गहकर खरे
वंदना भारती माँ
न ओझल करे
धन्य सन्तान
शीश पर कर वरद यदि रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
माँ नदी है न भूलें
बुझा प्यास दे
माँ बने बुद्धि तो
नित नयी आस दे
माँ जो सपना बने
होंठ को हास दे
भाभी-बहिना बने
स्नेह-परिहास दे
हो सखी-संगिनी
साथ तब खास दे
मान उपकार
मन !क्यों करद तू रहे?
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
भूमि भावों की
रस घोलती है सदा
भूमि चाहों की
बनती नयी ही अदा
धन्य वह भूमि पर
जो हुआ हो फ़िदा
भूमि कुरुक्षेत्र में
हो धनुष औ' गदा
भूमि कहती
झुके वृक्ष फल से लदा
रह सहज-स्वच्छ
सबको सहायक रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
१७-१२-२०१५
***
कृति चर्चा:
बाँसों के झुरमुट से : मर्मस्पर्शी नवगीत संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: बाँसों के झुरमुट से, नवगीत संग्रह, ब्रजेश श्रीवास्तव, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ११२, २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
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हिंदी साहित्य का वैशिष्ट्य आम और खास के मध्य सेतु बनकर भाव सरिता की रस लहरियों में अवगाहन का सुख सुलभ कराना है. पाषाण नगरी ग्वालियर के नवनीत हृदयी वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव का यह नवगीत संग्रह एक घाट की तरह है जहाँ बैठकर पाठक-श्रोता न केवल अपने बोझिल मन को शांति दे पाता है अपितु व्यथा बिसराकर आनंद भी पाता है. ब्रजेश जी की वाणी का मखमली स्पर्श उनके नवगीतों में भी है.
बाँसों के झुरमुट से आती चिरैया के कलरव से मन को जैसी शांति मिलती है, वैसी ही प्रतीति ये नवगीत कराते हैं. राग-विराग के दो तटों के मध्य प्रवहित गीतोर्मियाँ बिम्बों की ताज़गी से मन मोह लेती हैं:
नीड़ है पर स्वत्व से हम / बेदखल से हैं
मूल होकर दिख रहे / बरबस नकल से हैं
रास्ता है साफ़ फ्रूटी, कोक / कॉफी का
भीगकर फूटे बताशे / खूब देखे हैं
पारिस्थितिक विसंगतियों को इंगित करते हुए गीतकार की सौम्यता छीजती नहीं। सामान्य जन ही नहीं नेताओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और पाषाण हृदयता पर एक व्यंग्य देखें:
सियाचिन की ठंड में / पग गल गये
पाक -भारत वार्ता पर / मिल गये
एक का सिंदूर / सीमा पर पुछा
चाय पीते पढ़ लिया / अखबार में
ब्रजेश जी पर्यावरण और नदियों के प्रदूषण से विशेष चिंतित और आहत हैं. यह अजूबा है शीर्षक नवगीत में उनकी चिंता प्रदूषणजनित रोगों को लेकर व्यक्त हुई है:
कौन कहता बह रही गंगो-यमुन
बह रहा उनमें रसायन गंदगी भी
उग रही हैं सब्जियाँ भी इसी जल से
पोषते हम आ रहे बीमारियाँ भी
नारी उत्पीड़न को लेकर ब्रजेश जी तथाकथित सुधारवादियों की तरह सतही नारेबाजी नहीं करते, वे संग्रह के प्रथम दो नवगीतों 'आज अभी बिटिया आई है' और 'देखते ही देखते बिटिया' में एक पिता के ममत्व, चिंता और पीड़ा के मनोभावों को अभिव्यक्त कर सन्देश देते हैं. इस नवगीत के मुखड़े और अंतरांत की चार पंक्तियों से ही व्यथा-कथा स्पष्ट हो जाती है:
बिटिया सयानी हो गई
बिटिया भवानी हो गई
बिटिया कहानी हो गई
बिटिया निशानी हो गई
ये चार पंक्तियाँ सीधे मर्म को स्पर्श करती हैं, शेष गीत पंक्तियाँ तो इनके मध्य सोपान की तरह हैं. किसी नवगीत में एक बिम्ब अन्तरा दर अन्तरा किस तरह विकसित होकर पूर्णता पाता है, यह नवगीत उसका उदहारण है. 'सरल सरिता सी समंदर / से गले मिलने चली' जैसा रूपक मन में बस जाता है. कतिपय आलोचक अलंकार को नवगीत हेतु अनावश्यक मानते हैं कि इससे कथ्य कमजोर होता है किन्तु ब्रजेश जी अलंकारों से कथ्य को स्पष्टा और ग्राह्यता प्रदान कर इस मत को निरर्थक सिद्ध कर देते हैं.
ब्रजेश जी के पास सिक्त कंठ से इस नवगीत को सुनते हुए भद्र और सुशिक्षित श्रोताओं की आँखों से अश्रुपात होते मैंने देखा है. यह प्रमाण है कि गीतिकाव्य का जादू समाप्त नहीं हुआ है.
ब्रजेश जी के नवगीतों का शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है. वे मुखड़े में सामान्यतः दो, अधिकतम सात पंक्तियों का तथा अँतरे में छ: से अठारह पंक्तियों का प्रयोग करते हैं. वस्तुतः वे अपनी बात कहते जाते हैं और अंतरे अपने आप आकारित होते हैं. उनकी भाषिक सामर्थ्य और शब्द भण्डार स्वतः अंतरों की पंक्ति संख्या और पदभार को संतुलित कर लेते हैं.कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सायास संतुलन स्थापित किया गया है. 'आज लिखी है घर को चिट्ठी' नवगीत में अभिव्यक्ति की सहजता देखें:
माँ अब भी रोटी-पानी में / ही खटती होगी
साँझ समय बापू के संग / मुझको रटती होगी
उनका मौन बुलावा आया / बहुत दिनों के बाद
यहाँ 'रटती' शब्द का प्रयोग सामान्य से हटकर किन्तु पूरी तरह स्वभाविक है. नव रचनाकारों को किसी शब्द का सामान्य अर्थ से हटकर प्रयोग कैसे किया जाए और बात में अपना रंग भरा जाए- ऐसे प्रयोगों से सीखा जा सकता है. 'मौन बुलावा' भी ऐसा ही प्रयोग है जो सतही दृष्टि से अंतर्विरोधी प्रतीत होते हुए भी गहन अभिव्यंजना में समर्थ है.
ब्रजेश जी की भाषा आम पाठक-श्रोता के आस-पास की है. वे क्लिष्ट संस्कृत या अरबी-फ़ारसी या अप्रचलित देशज शब्द नहीं लेते, इसके सर्वथा विपरीत जनसामान्य के दैनंदिन जीवन में प्रचलित शब्दों के विशिष्ट उपयोग से अपनी बात कहते हैं. उनके इन नवगीतों में आंग्ल शब्द: फ्रॉक, सर्कस, ड्राइंग रूम, वाटर बॉटल, ऑटो, टा टा, पेरेंट्स, होमवर्क, कार्टून, चैनल, वाशिंग मशीन, ट्रैक्टर, ट्रॉली, रैंप, फ्रूटी, कोक, कॉफी, बाइक, मोबाइल, कॉलों, सिंथेटिक, फीस, डिस्कवरी, जियोग्राफिक, पैनल, सुपरवाइजर, वेंटिलेटर, हॉकर आदि, देशज शब्द: रनिया, ददिया, दँतुली, दिपती, तलक, जेवना, गरबीला, हिरना, बतकन, पतिया, पुरवाई, बतियाहट, दुपहरी, चिरइया, बिरचन, खटती, बतियाना, तुहुकन, कहन, मड़िया, बाँचा, पहड़ौत, पहुँनोर, हड़काते, अरजौ, पुरबिया, छवना, बतरस, बुड़की, तिरे, भरका, आखर, तुमख, लोरा, लड़याते आदि तथा संस्कृत निष्ठ शब्द भदृट, पादप, अंबर, वाक्जाल, अधुना-युग, अंतस, संवेदन, वणिक, सूचकांक, स्वेदित, अनुनाद, मातृ, उत्ताल, नवाचार आदि नित्य प्रचलित शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं.
इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता से हुआ है जो सरसता में वृद्धि करता है. कमल-नाल, मकड़-जाल, जेठ-दुपहरी, बात-बेबात, सरिता-धार, झूठ-साँच, जंतर-मंतर, लीप-पोत, घर-आँगन, राजा-राव, घर-आँगन-दीवाल, रोटी-पानी, कपड़े-लत्ते, सावन-कजरी, भादों-आल्हा, ताने-बाने, लाग-ठेल, धमा-चौकड़ी, पोथी-पत्रा, उट्टी-कुट्टी, सीरा-पाटी, चूल्हा-चकिया, बासन-भाड़े जैसे शब्द युग्म एक ओर नवगीतकार के परिवेश और जन-जीवन से जुड़ाव इंगित करते हैं तो दूसरी ओर भिन्न परिवेश या हिंदीतर पाठकों के लिये कुछ कठिनाई उपस्थित करते हैं. शब्द-युग्मों और देशज शब्दों के भावार्थ सामान्य शब्द कोषों में नहीं मिलते किन्तु यह नवगीत और नवगीतकार का वैशिष्ट्य स्थापित करते हैं तथा पाठक-श्रोता को ज्ञात से कुछ अधिक जानने का अवसर देकर सांस्कृतिक जुड़ाव में सहायक अस्तु श्लाघ्य हैं.
ब्रजेश जी ने कुछ विशिष्ट शब्द-प्रयोगों से नवबिम्ब स्थापित किये हैं. बर्फीला ताला, जलहीना मिट्टी, अभिसारी नयन, वासंतिक कोयल, नयन-झरोखा, मौन बुलावा, फूटे-बताशे, शब्द-निवेश, बर्फीला बर्ताव, आकाशी भटकाव आदि उल्लेख्य हैं.
'बांसों के झुरमुट से' को पढ़ना किसी नवगीतकार के लिए एक सुखद यात्रा है जिसमें नयनाभिराम शब्द दृश्य तथा भाव तरंगें हैं किन्तु जेठ की धूप या शीत की जकड़न नहीं है. नवगीतकारों के लिए स्वाभाविकता को शैल्पिक जटिलता पर वरीयता देता यह संग्रह अपने गीतों को प्रवाहमयी बनाने का सन्देश अनकहे ही दे देता है. ब्रजेश जी के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा करने का पाठकीय मन ही इस संग्रह की सफलता है.
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कृति चर्चा:
एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश
[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
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हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.
स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं:
शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना
परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना
.
शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में
नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में
संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.
जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता।
ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.
शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.
लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं:
'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही
उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस
'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.
'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं:
'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं
अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी
काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं'
क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है:
'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार
सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार
मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'
विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है:
बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम
निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम
'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है:
'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके
मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके
शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत
.
लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे
सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'
सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-चयन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'

वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है.
१७-१२-२०१४
***




शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

सॉनेट, जागरण, दोहा, मीना श्रीवास्तव, दोहा मुक्तिका, गीत, हाइकु, बिटिया, बालगीत, नवगीत


सॉनेट 
जागरण
जागरण का समय; मत सो।
ले नवाशा करो कलरव।
कोशिशें हों सतत अभिनव।।
कीमती है समय मत खो।।

नाम सुमिरो परम प्रभु का।
काम कर निष्काम होकर।
क्या करोगे दाम लेकर?
साथ कुछ भी जाएगा क्या?

है अनर्थ; न अर्थ कद में
क्या मिलेगी शांति पद में?
मुक्ति होगी कभी जद में?

नर्मदा तट पर टहल रे!
छोड़ किलकिल; मत बहल रे!
सलिल कलकल सुन असल रे!
संजीव 
१६•१२•२०२२
जबलपुर, ७•१३
●●●
***
मीनाकारी शब्द की, मीना करतीं नित्य
श्री वास्तव में पा रहीं, रचनाकर्म अनित्य

गत में आगत की झलक, दिखा सके इतिहास।
देखें रह निष्पक्ष हम, रख अधरों पर हास।।

मिल मिलिंद जी से मिला, देश प्रेम का पाठ।
कालजयी कृतियाँ रचीं, सदा रहेगा ठाठ।।

जो नायक इतिहास के, वे हैं ज्योतिस्तंभ।
लें प्रकाश उनसे सदा, तजकर मन का दंभ।।

गीत-ग़ज़ल में भी मिले, हमें सत्य इतिहास।
सीखें भावी पीढ़ियाँ, कहाँ घटा क्या ख़ास।। 

कर वंदना शहीद की, निशि को मिले उजास।   
'मावस भी पूनम बने, दमक उठे आकाश।। 

उम्मीदों का है 'सलिल', ऊँचा नीलाकाश। 
कोशिश कर तोड़ें विहँस, बाधाओं का पाश।।
 ***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
***
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
.
***
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४
बाल रचना 
बिटिया छोटी 
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी 
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
करे न कोई हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***