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शनिवार, 3 दिसंबर 2022

मुक्तक, गीत, शुभगति, छवि, गंग, दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया, छंद, सुमनलता श्रीवास्तव, समीक्षा,

 ***

मुक्तक सलिला
*
प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।
शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।
विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।
नर्मदा का दर्श हो, विमल सलिल सबल मकर।।
*
मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।
नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।
अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।
सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।
*
जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।
शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।
मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-
जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।
*
विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।
एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।
सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ-
पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।
२-१२-२०१९

***

एक गीत
बातें हों अब खरी-खरी
*
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
२१-९-२०१६
***
छंद सप्तक १.
*
शुभगति
कुछ तो कहो
चुप मत रहो
करवट बदल-
दुःख मत सहो
*
छवि
बन मनु महान
कर नित्य दान
तू हो न हीन-
निज यश बखान
*
गंग
मत भूल जाना
वादा निभाना
सीकर बहाना
गंगा नहाना
*
दोहा:
उषा गाल पर मल रहा, सूर्य विहँस सिंदूर।
कहे न तुझसे अधिक है, सुंदर कोई हूर।।
*
सोरठा
सलिल-धार में खूब,नृत्य करें रवि-रश्मियाँ।
जा प्राची में डूब, रवि ईर्ष्या से जल मरा।।
*
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
*
कुण्डलिया
बरसाने में श्याम ने, खूब जमाया रंग।
मैया चुप मुस्का रही, गोप-गोपियाँ तंग।।
गोप-गोपियाँ तंग, नहीं नटखट जब आता।
माखन-मिसरी नहीं, किसी को किंचित भाता।।
राधा पूछे "मजा, मिले क्या तरसाने में?"
उत्तर "तूने मजा, लिया था बरसाने में??"
*
३.१२.२०१८
***
नवगीत
सड़क पर
.
फ़िर सड़क पर
भीड़ ने दंगे किए
.
गए पग
भटकते-थकते यहाँ
छा गए पग
अटकते-चलते यहाँ
जाति, मजहब,
दल, प्रदर्शन, सभाएँ,
सियासी नेता
ललच नंगे हुए
.
सो रहे कुछ
थके सपने मौन हो
पूछ्ते खुद
खुदी से, तुम कौन हो?
गएरौंदते जो,
कहो क्यों चंगे हुए?
.
ज़िन्दगी भागी
सड़क पर जा रही
आरियाँ ले
हाँफ़ती, पछ्ता रही
तरु न बाकी
खत्म हैं आशा कुंए
.
झूमती-गा
सड़क पर बारात जो
रोक ट्रेफ़िक
कर रही आघात वो
माँग कन्यादान
भिखमंगे हुए
.
नेकियों को
बदी नेइज्जत करे
भेडि.यों से
शेरनी काहे डरे?
सूर देखें
चक्षु ही अंधे हुए
३-१२-२०१७
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
.
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
.
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
२-१२-२०१७
***
मुक्तक
*
क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? मैं व्यस्त हूँ
कहूँ क्यों जग से नहीं सन्यस्त हूँ
ज़माने से भय नहीं मुझको तनिक
आपके ही विरह से संत्रस्त हूँ
३-१२-२०१६
***
कृति चर्चा:
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
*
हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती ।
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों - घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- 'इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।'
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
'पुनर्नवा' की कादम्बिनी और नव्या, 'स्वयंसिद्धा' की निरमला, 'ऊष्मा अपनत्व की' की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। 'कक्का जू' का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती 'खामियाज़ा' कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में सामने आता है। 'बीरबहूटी' जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। 'या अल्लाह' पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। 'प्रीती पुरातन लखइ न कोई' के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।
संग्रह की शीर्षक कथा 'जिजीविषा' कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।
२-१२-२०१५
***
सवाल-जवाब:
Radhey Shyam Bandhu 11:20 pm (11 घंटे पहले)
आचार्य संजीव वर्मा सलिल आप तो कुछ जरूरत से ज्यादा नाराज लग रहे हैं । आप के साथ तो मैंने एेसी गुस्ताखी नहीं की फिर आप अलोकतांत्रिक भाषा का प्रयोग करके अपनी मर्यादा क्यों भंग कर रहे हैं ? अनजाने में कोई बात लग गयी हो तो क्षमा करें आगे आप का ध्यान रखेंगे ।
राधेश्याम बन्धु
*
आदरणीय बंधु जी!
नमन.
साहित्य सृजन में व्यक्तिगत राग-द्वेष का कोई स्थान नहीं होता। मैंने एक विद्यार्थी और रचनाकार के नाते मर्यादाओं का आज तक पालन ही किया है । ऐसे रचनाकार जो खुद मानते हैं कि उन्होंने कभी नवगीत नहीं लिखा, उन्हें सशक्त नवगीतकार बताकर और जो कई वर्षों से सैंकड़ों नवगीत रच चुके हैं उन्हें छोड़कर मर्यादा भंग कौन कर रहा है? इस अनाचार का शिकार लगभग ५० नवगीतकार हुए हैं। गुण-दोष विवेचन समीक्षक का अधिकार है पर उन सबके संकलनों को शून्य नहीं माना जा सकता । राजधानी की चमक-दमक में जिन्हें महिमामंडित किया गया वे भी मेरे अच्छे मित्र हैं किन्तु सृजन का मूल्यांकन व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के आधार पर नहीं किया जा सकता।
अतीतजीवी मठाधीशों की मायानगरी में आपसे यह आशा की थी कि आप निष्पक्ष होंगे किन्तु निराशा ही हाथ लगी। लखनऊ में जब नवोदितों के रचनाकर्म पर आक्षेप किये जा रहे थे, उनके सृजन को बेमानी बताया जा रहा है तब भी आप उनके समर्थन में नहीं थे।
वह आयोजन नवगीत के लिये था, किसी कृति विशेष या व्यक्ति विशेष पर चर्चा के लिये नहीं। वहाँ प्रतिवर्षानुसार पूर्वघोषित सभी कार्यवाही यथासमय सुचारू रूप से सम्पादित की गयी। आपका अपनी पुस्तक पर चर्चा करने का विचार था तो आप कहते, आपने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। कहा होता तो एक अतिरिक्त सत्र की व्यवस्था कर दी जाती। मेरे कक्ष में दोनों रात देर तक अघोषित चर्चा सत्र चले रहे और नये नवगीतकार अपनी शंकाओं और जिज्ञासाओं के उत्तर मुझसे, डॉ. रणजीत पटेल और श्री रामकिशोर दाहिया से प्राप्त करते रहे। पुस्तकों के अवलोकन और अध्ययन का कार्य भी निरंतर चला। आपने चाहा होता तो आपकी कृतियों पर भी चर्चा हो सकती थी। लखनऊ के कई सशक्त और प्रतिष्ठित नवगीतकारों को आपकी पुस्तक पर बहुत कुछ कहना था किन्तु आपको असुविधा से बचाने के लिये उन्हें मना किया गया था और उनहोंने खुद पर संयम बनाये रखते हुए निर्धारित विषयों की मर्यादा का ध्यान रखा।
आपको आयोजन में सर्वाधिक सम्मान और बोलने के अवसर दिये गये। प्रथम सत्र में शेष वक्ताओं ने एक नये नवगीतकार को मार्दर्शन दिया आपको २ नवगीतकारों के सन्दर्भ में अवसर दिया गया। आपने उनके प्रस्तुत नवगीतों पर कम और अपनी पुस्तक पर अधिक बोला।
द्वितीय सत्र में आपको नवगीत वाचन का अवसर दिया गया जबकि पूर्णिमा जी, व्योम जी तथा मुझ समेत कई नवगीतकार जो आयोजन के अभिन्न अंग हैं, उन्होंने खुद नवगीत प्रस्तुत नहीं किये।
तृतीय सत्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा चतुर्थ सत्र शोधपत्र वाचन के लिये था। यहाँ भी पूर्वघोषित के अलावा किसी ने शोध पत्र प्रस्तुत नहीं किये जबकि मेरा शोधपत्र तैयार था। जो पहली बार शोधपत्र प्रस्तुत कर रहे थे उन्हें प्रोत्साहित किया गया ।
पंचम सत्र में नवगीत की कृतियों पर समीक्षाएं प्रस्तुत की गयीं।
षष्ठं सत्र में नवगीत के विविध पहलुओं पर सारगर्भित चर्चा हुई।
सप्तम सत्र में नवगीतकारों ने एक-एक नवगीत प्रस्तुत किया। किसी ने अधिक प्रस्तुति का मोह नहीं दिखाया। ऐसा आत्मानुशासन मैंने अन्यत्र नहीं देखा।
इन सभी सत्रों में आप किसी न किसी बहाने अपनी पुस्तक को केंद्र में रखकर बार-बार बोलते रहे। किसी भी आयोजन में आयोजन आवधि के पूर्व और पश्चात् प्रवास-भोजन व्यवस्था आयोजक नहीं करते, जबकि लखनऊ में यह आने से जाने के समय तक उपलब्ध कराई गयी। सबसे अधिक समय तक उस सुविधा को लेने वाले आप ही थे । इसके बाद भी अवसर न दिये जाने का आक्षेप लगाना आपको शोभा देता है क्या? श्री रामकिशोर दाहिया ने इसीलिये 'जिस पत्तल में खाया उसी में छेद किया' की बात कही।
रहा मेरा ध्यान रखने की बात तो आप कृपया, मुझ पर ऐसी अहैतुकी कृपा न करें। मैं अपने सृजन से संतुष्ट हूँ, मुझे माँ शारदा के अलावा अन्य किसी की कृपा नहीं चाहिए।
आप पुस्तक मेले में समय लेकर ''श्री राधेश्याम 'बन्धु' की समीक्षात्मक कृतियाँ - एक मूल्यांकन'' परिसंवाद का आयोजन करा लें। मैं पूर्णत: सहयोग करूँगा और आपकी पुस्तक पढ़ चुके साथियों से पहुँचकर विविध आयामों पर चर्चा करने अथवा आलेख भेजने हेतु अनुरोध करूंगा।
विश्वास रखें आप या अन्य किसी के प्रति मेरे मन में अनादर नहीं है। हम सब सरस्वतीपुत्र हैं। छिद्रान्वेषण और असहिष्णुता हमारे लिए त्याज्य है। मतभेदों को मनभेद न मानें तथापि इस कठिन काल में स्वसाधनों से ऐसा गरिमामय आयोजन करनेवाले और उन्हें सहयोग देनेवाले दोनों सराहना और अभिनन्दन के पात्र हैं, आक्षेप के नहीं।
१-१२-२०१५

***

नव गीत -
*
आपन मूं
आपन तारीफें
करते सीताराम
*
जो औरों ने लिखा न भाया
जिसमें-तिसमें खोट बताया
खुद के खुदी प्रशंसक भारी
जब भी मौका मिला भुनाया
फोड़-फाड़
फिर जोड़-तोड़ कर
जपते हरि का नाम
*
खुद की खुद ही करें प्रशंसा
कहे और ने की अनुशंसा
गलत करें पर सही बतायें
निज किताब का तान तमंचा
नट-करतब
दिखलाते जब-तब
कहें सुबह को शाम
*
जिन्दा को स्वर्गीय बता दें
जिसका चाहें नाम हटा दें
काम न देखें किसका-कितना
सच को सचमुच धूल चटा दें
दूर रहो
मत बाँह गहो
दूरी से करो प्रणाम
*
आपन मूं
आपन तारीफें
करते सीताराम
२-१२-२०१५
***

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

सॉनेट, महाकाल, बृज मुक्तिका, छंद बारहमासा, द्विपदी, शे'र, पद, सरस्वती

पद 
*
रे मन! शारद के गुन  गाओ।  
सोकर समय गँवाया नाहक, जगकर कदम बढ़ाओ।। 
ठोकर खाकर रो मत; उठ बढ़, साहस कर मुस्काओ।। 
मानव तन पा सबका हित कर, सबसे आशीष पाओ।।
अँगुली पकड़ किसी निर्बल की, मंज़िल तक पहुँचाओ।।
स्वार्थ तजो; परमार्थ राह चल, सबको सुख दे जाओ।।
अन्धकार दस दिश व्यापा है, श्रम कर सूर्य  उगाओ।।
अक्षर-अक्षर शब्द बनाकर, पद रच मधुर सुनाओ।।
संजीव, ९४२५१८३२४४
१-१२-२०२२, जबलपुर
***
सॉनेट 
महाकाल
देव देवों के पतितपावन
स्वयंभू दक्षिणमुखी जगनाथ
दिव्य दर्शन रम्य भूतभावन
सलिल कर अभिषेक है नत माथ

महाकालीपति न महिमा अंत
सृष्टि तुमसे जन्मती हो लय
भजूँ पल पल तुम्हें निश-दिन कंत
हृदय में धर हो सकूँ निर्भय

तीर क्षिप्रा के विराजे मौन
नर्मदा जल कर रहा अभिषेक 
महत्तम तुमसे अधिक है कौन
नमन दें नटराज भक्ति विवेक

ध्यान कर नित जीव हो संजीव
हो तुम्हीं में लीन करुणासींव 

संजीव, ९४२५१८३२४४
१-१२-२०२२, जबलपुर 
•••
बृज मुक्तिका
*
जी भरिकै जुमलेबाजी कर
नेता बनि कै लफ्फाजी कर
*
दूध-मलाई गटक; सटक लै
मुट्ठी में मुल्ला-काजी कर
*
जनता कूँ आपस में लड़वा
टी. वी. पै भाषणबाजी कर
*
अंडा शाकाहारी बतला
मुर्ग-मुसल्लम को भाजी कर
*
सौ चूहे खा हज करने जा
जो शरीफ उसको पाजी कर
*
२-१२-२०२०
***
त्रिपदिक मुक्तिका
(मात्रिक छंद - बारहमासा १२-१२-१२)
*
निर्झर कलकल बहता
किलकिल न करो मानव
कहता, न तनिक सुनता।
*
नाहक ही सिर धुनता
सच बात न कह मानव
मिथ्या सपने बुनता।
*
जो सुना नहीं माना
सच कल ने बतलाया
जो आज नहीं गुनता।
*
जिसकी जैसी क्षमता
वह लूट खा रहा है
कह कैसे हो समता?
*
बढ़ता न कभी कमता
बिन मिले मिल रहा है
माँ का दुलार-ममता।
***
संजीव, ७९९९५५९६१८
२-१२-२०१८
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
२-१२-२०१८
*
जुगुनू जगमग कर रहे, सूर्य-चंद्र हैं अस्त.
मच्छर जी हैं जगजयी, पहलवान हैं पस्त.
*
अपनी अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग.
कोयल-कंठी मौन है, सुरमणि होते काग.
२-१२-२०१७
***
स्मरण : डॉ. राजेंद्र प्रसाद 
पूत के पाँव
भारतीय संविधान के निर्माता, देश के अग्रणी स्वतन्त्रता संग्राम सैनानी, भारतीय प्रजातन्त्र के प्रथम राष्ट्रपति, कायस्थ कुल दिवाकर, अजातशत्रु डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी तब बी.ए. के विद्यार्थी थे। प्रातःकाल दैनिक कार्यों से निपट ही रहे थे कि अचानक ध्यान आया कि आज तो उनकी परीक्षा का अंग्रेजी का दूसरा पर्चा है। तत्काल भागते-दौड़ते कॉलेज पहुँचे लेकिन उस समय परीक्षा समाप्त होने में मात्र एक घंटे का समय शेष था। निरीक्षक ने प्रवेश देने से मना के दिया। प्राचार्य से निवेदन किया तो उन्होंने यह सोचकर कि राजेंद्र सर्वाधिक मेधावी छात्र है, सशर्त अनुमतिदी कि प्रश्नपत्र हल करने के लिये कोई अतिरिक्त समय नहीं दिया जाएगा। राजेन्द्र प्रसाद जी ने ग्रामर तथा ट्रान्सलेशन आदि तो तुरन्त हल कर दिया किन्तु एस्से (निबंध) के लिये बहुत कम समय बचा। विषय था ताजमहल। बी.ए. के स्तर का निबंध कम से कम़ ५-६ पृष्ठ का होना ही होना चाहिये था पर इतना समय तो अब शेष था ही नहीं। परीक्षार्थी राजेंद्र प्रसाद ने मात्र एक वाक्य लिखा....
"Taj is the frozen mosque of royal tears".
परीक्षक ने उनके इस निबंध की बहुत सराहना की और उसे सर्वश्रेष्ठ निरूपित किया। पटना के संग्रहालय में यह उत्तर पुस्तिका आज भी सुरक्षित है।
***
कार्यशाला-
शे'र से मुक्तक
*
तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं वोटर भला भीत सा हूँ . - सलिल
१-१२-२०१६
***
स्मरण : ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(२६ दिसंबर १८२० - २९ जुलाई १८९१)
*
ईश्वरचंद्र विद्यासागर बांग्ला साहित्य के समर्पित रचनाकार तथा श्रेष्ठ शिक्षाविद रहे हैं। आपका जन्म २६ दिसंबर १८२० को अति निर्धन परिवार में हुआ था। पिताश्री ठाकुरदास तथा माता श्रीमती भगवती देवी से संस्कृति, समाज तथा साहित्य के प्रति लगाव ही विरासत में मिला। गाँव में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर आप १८२८ में पिता के साथ पैदल को कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे तथा संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन आरम्भ किया। अत्यधिक आर्थिक अभाव, निरंतर शारीरिक व्याधियाँ, पुस्तकें न खरीद पाना तथा सकल गृह कार्य हाथ से करना जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने हर परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
सन १८४१ में आपको फोर्ट विलियम कोलेज में ५०/- मासिक पर मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। आपके पांडित्य को देखते हुए आपको 'विद्यासागर' की उपाधि से विभूषित किया गया। १८५५ में आपने कोलेज में उपसचिव की आसंदी को सुशोभित कर उसकी गरिमा वृद्धि की। १८५५ में ५००/- मासिक वेतन पर आप विशेष निरीक्षक (स्पेशल इंस्पेक्टर) नियुक्त किये गये।
अपने विद्यार्थी काल से अंत समय तक आपने निरंतर सैंकड़ों विद्यार्थिओं, निर्धनों तथा विधवाओं को अर्थ संकट से बिना किसी स्वार्थ के बचाया। आपके व्यक्तित्व की अद्वितीय उदारता तथा लोकोपकारक वृत्ति के कारण आपको दयानिधि, दानवीर सागर जैसे संबोधन मिले।
आपने ५३ पुस्तकों की रचना की जिनमें से १७ संकृत में,५ अंग्रेजी में तथा शेष मातृभाषा बांगला में हैं। बेताल पंचविंशति कथा संग्रह, शकुन्तला उपाख्यान, विधवा विवाह (निबन्ध संग्रह), सीता वनवास (कहानी संग्रह), आख्यान मंजरी (बांगला कोष), भ्रान्ति विलास (हास्य कथा संग्रह) तथा भूगोल-खगोल वर्णनं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
दृढ़ प्रतिज्ञ, असाधारण मेधा के धनी, दानवीर, परोपकारी, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर ७० वर्ष की आयु में २९ जुलाई १८९१ को इहलोक छोड़कर परलोक सिधारे। आपका उदात्त व्यक्तित्व मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है।
१-१२-२०१५
***
ई मित्रता पर पैरोडी:
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
३०-११-२०१२
***

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

अक्षर गीत, बाल गीत

अक्षर गीत

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'  

*

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गाएँ अक्षर गीत।

माँ शारद को नमस्कार कर

शुभाशीष पा हँसिए मीत।

स्वर :

'अ' से अनुपम; अवनि; अमर; अब,

'आ' से आ; आई; आबाद।

'इ' से इरा; इला; इमली; इस,

'ई' ईश्वरी; ईख; ईजाद।

'उ' से उषा; उजाला; उगना,

'ऊ' से ऊर्जा; ऊष्मा; ऊन।

'ए' से एड़ी; एक; एकता,

'ऐ' ऐश्वर्या; ऐनक; ऐन।

'ओ' से ओम; ओढ़नी; ओला,

'औ' औरत; औषधि; औलाद।

'अं' से अंक; अंग, अंगारा,

'अ': खेल-हँस हो फौलाद।

*

व्यंजन

'क' से कमल; कलम; कर; करवट,

'ख' खजूर; खटिया; खरगोश।

'ग' से गणपति; गज; गिरि; गठरी,

'घ' से घट; घर; घाटी; घोष।

'ङ' शामिल है वाङ्मय में

पंचम ध्वनि है सार्थक रीत।

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

*

'च' से चका; चटकनी; चमचम,

'छ' छप्पर; छतरी; छकड़ा।

'ज' जनेऊ; जसुमति; जग; जड़; जल,

'झ' झबला; झमझम, झरना।

'ञ' हँस व्यञ्जन में आ बैठा,

व्यर्थ न लड़ना; करना प्रीत।

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

*

'ट' टमटम; टब; टका; टमाटर,

'ठ' ठग; ठसक; ठहाका; ठुमरी।

'ड' डमरू; डग; डगर; डाल; डफ,

'ढ' ढक्कन; ढोलक; ढल; ढिबरी।

'ण' कण; प्राण; घ्राण; तृण में है

मन लो जीत; तभी है जीत।

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

*

'त' तकिया; तबला; तसला; तट,

'थ' से थपकी; थप्पड़; थान।

'द' दरवाजा; दवा, दशहरा,

'ध' धन; धरा; धनुष; धनवान।

'न' नटवर; नटराज; नगाड़ा,

गिर न हार; उठ जय पा मीत।

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

*

'प' पथ; पग; पगड़ी; पहाड़; पट,

'फ' फल; फसल; फलित; फलवान।

'ब' बकरी; बरतन, बबूल; बस,

'भ' से भवन; भक्त; भगवान।

'म' मइया; मछली; मणि; मसनद,

आगे बढ़; मत भुला अतीत।

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

*

'य' से यज्ञ; यमी-यम; यंत्री,

'र' से रथ; रस्सी; रस, रास।

'ल' लकीर; लब; लड़का-लड़की;

'व' से वन; वसंत; वनवास।

'श' से शतक; शरीफा; शरबत,

मीठा बोलो; अच्छी नीत।

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

*

'ष' से षट; षटकोण; षट्भुजी,

'स' से सबक; सदन; सरगम।

'ह' से हल; हलधर; हलवाई,

'क्ष' क्षमता; क्षत्रिय; क्षय; क्षम।

'त्र' से त्रय, त्रिभुवन; त्रिलोचनी,

'ज्ञ' से ज्ञानी; ज्ञाता; ज्ञान।

'ऋ' से ऋषि, ऋतु, ऋण, ऋतंभरा,

जानो पढ़ो; नहीं हो भीत

अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख

आओ! गायें अक्षर गीत।

९४२५१८३२४४ 

नवगीत, लघु कथा, मुक्तक, कुण्डलिया, दोहा, बहरे-मनसिरह, शारद छंद

कार्यशाला-
छंद बहर का मूल है- १.
*
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
क. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतबी मौक़ूफ़-
इस बहर में बहुत कम लिखा गया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ायलात मुफ़तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार ११११२ २१२१ ११११२ २१२१) हैं।
यह १८ वर्णीय अथधृति जातीय शारद छंद है जिसमें ९-९ पर यति तथा पदांत में जगण (१२१) का विधान है।
यह २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद है जिसमें १२-१२ मात्राओं पर यति तथा पदांत में १२१ है।
उदाहरण-
१.
थक मत, बोझा न मान, कदम उठा बार-बार
उपवन में शूल फूल, भ्रमर कली पे निसार
पगतल है भू-बिछान, सर पर है आसमान
'सलिल' नहीं भूल भूल, दिन-दिन होगा सुधार
२.
जब-जब तूने कहा- 'सच', तब झूठा बयान
सच बन आया समक्ष, विफल हुआ न्याय-दान
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते।
३.
अरकान 'मुफ्तइलुन फ़ायलात मुफ्तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार २११२ २१२१ २११२ २१२१)
क्यों करते हो प्रहार?, झेल सकोगे न वार
जोड़ नहीं, छीन भी न, बाँट कभी दे पुकार
कायम हो शांति-सौख्य, भूल सकें भेद-भाव
शांत सभी हों मनुष्य, किस्मत लेंगे सुधार
४.
दिल में हम अप/ने नियाज़/रखते हैं सो/तरह राज़
सूझे है इस/को ये भेद/जिसकी न हो/चश्मे-कोर
प्रथम पंक्ति में ए, ओ, अ की मात्रा-पतन दृष्टव्य।
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
***
कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
१.१२.२०१८
***
दोहा सलिला
*
दोहा सलिला निर्मला, सारस्वत सौगात।
नेह नर्मदा सनातन, अवगाहें नित भ्रात
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द-शब्द सौगात।
चरण-चरण में सार है, पद-पद है अवदात।।
*
कथ्य भाव लय छंद रस, पंच तत्व आधार.
मुरली-धुन सा कवित रच, पा पाठक से प्यार
*
दोहा दिव्य दिनेश दे, तम हर नवल प्रभात।
भाषा-भूषा सुरुचिमय, ज्यों पंकज जलजात।।
*
भाव, कहन, रस, बिंब, लय, अलंकार सज गात।
दोहा वनिता कथ्य है, अजर- अम्र अहिवात।।
*
दोहा कम में अधिक कह, दे संदेशा तात।
गागर में सागर भरे, व्यर्थ न करता बात।।
१.१२.२०१८
***
मुक्तक
उषा-स्वागत कर रही है चहक गौरैया
सूर्य-वंदन पवन करता नाच ता-थैया
बैठका मुंडेर कागा दे रहा संदेश-
तानकर रजाई मनुज सो रहा भैया
*
नमन तुमको कर रहा सोया हुआ ही मैं
राह दिखाता रहा, खोया हुआ ही मैं
आँख बंद की तो हुआ सच से सामना
जाना कि नहीं दूध का धोया हुआ हूं मैं
*
मत जगाओ, जागकर अन्याय करेगा
आदमी से आदमी भी जाग डरेगा
बाँटकर जुमले ठगेगा आदमी खुद को
छीन-झपट, आग लगा आप मरेगा
***
लघु कथा
बदलाव
*
एक था चिड़ा।
एक थी चिड़ी।
आपस में मिले-जुले,
प्रेम हुआ, शादी हो गई ।
अब दोनों चिड़चिड़े हैं।
***
अलंकार सलिला ३७
वीप्सा अलंकार


*
कविता है सार्थक वही, जिसका भाव स्वभाव।
वीप्सा घृणा-विरक्ति है, जिससे कठिन निभाव।।
अलंकार वीप्सा वहाँ, जहाँ घृणा-वैराग।
घृणा हरे सुख-चैन भी, भर जीवन में आग।।
जहाँ शब्द की पुनरुक्ति द्वारा घृणा या विरक्ति के भाव की अभिव्यक्ति की जाती है वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
२. राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
३. चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन।
नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन।।
४ उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया,
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?'
५. मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला...
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे,
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे।
६. नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सँवरिया!
पिया-पिया रटते मैं तो हो गयी रे बँवरिया!!
७. मारो-मारो मार भगाओ आतंकी यमदूतों को।
घाट मौत के तुरत उतारो दया न कर अरिपूतों को।।
वीप्सा में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता दृष्टव्य है.
३०-११-२०१५
***
नवगीत
*
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी
३०-११-२०१४

बुधवार, 30 नवंबर 2022

मुक्तिका, अक्षर गीत, स्वर, व्यंजन, साधना, राजलक्ष्मी शिवहरे, श्यामलाल उपाध्याय, शब्द सामर्थ्य, घनाक्षरी, नवगीत,

कार्य शाला 
मुक्तिका १  
वज़्न--212 212 212 212 
*
गालिबों के नहीं कद्रदां अब रहे 
शायरी लोग सोते हुए कर रहे 

बोल जुमले; भुला दे सभी वायदे
जो हकीकत कही; आप भी डर रहे  
  
जिंदगी के रहे मायने जो कभी 
हैं नहीं; लोग जीते हुए मर रहे 

ये निजामत झुकेगी तुम्हारे लिए 
नौजवां गर न भागे; डटे मिल रहे 
 
मछलियों ने मगर पर भरोसा किया 
आसुओं की खता; व्यर्थ ही बह रहे 

वेदना यातना याचना सत्य है 
हुक्मरां बोलते स्वर्ग में रह रहे 

ये सियासत न जिसमें सिया-सत रहा 
खेलते राम जी किसलिए हैं रहे 
***
मुक्तिका २ 
वज़्न--२१२ x ४ 
बह्रे - मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम.
अर्कान-- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
क़ाफ़िया— "ए" (स्वर)
रदीफ़ --- हुए
*
मुक्तिका 
कायदे जो कभी थे; किनारे हुए 
फायदे जो मिले हैं; हमारे हुए 

चाँद सोया रहा बाँह में रात भर 
लाख गर्दिश मगर हम सितारे हुए 

नफरतों से रही है मुहब्बत हमें 
आप मानें न मानें सहारे हुए 

हुस्न वादे करे जो निभाए नहीं 
इश्किया लोग सारे बिचारे हुए 

सर्दियाँ सर्दियों में बिगाड़ें गले 
फायदेमंद यारां गरारे हुए 

सर कटा तो कटा, तुम न मातम करो 
जान लो; मान लो हम तुम्हारे हुए   

धार में तो सदा लोग बहते रहे 
हम बहे थे जहाँ वां किनारे हुए  
***
उदाहरण 
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में खुद को देखे हुए  -  शारिक़ कैफ़ी
गीत
1. कर चले हम फिदा जानो तन साथियों
2. खुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी
3. आपकी याद आती रही रात भर
4. गीत गाता हूँ मैं गुनगुनाता हूँ मैं
5. बेख़ुदी में सनम उठ गये जो क़दम
6. एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
7. हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम
8. आजकल याद कुछ और रहता नहीं
9. तुम अगर साथ देने का वादा करो
10. ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम
11. छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
■■■
अक्षर गीत
संजीव
*
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गाएँ अक्षर गीत।
माँ शारद को नमस्कार कर
शुभाशीष पा हँसिए मीत।
स्वर :
'अ' से अनुपम; अवनि; अमर; अब,
'आ' से आ; आई; आबाद।
'इ' से इरा; इला; इमली; इस,
'ई' ईश्वरी; ईख; ईजाद।
'उ' से उषा; उजाला; उगना,
'ऊ' से ऊर्जा; ऊष्मा; ऊन।
'ए' से एड़ी; एक; एकता,
'ऐ' ऐश्वर्या; ऐनक; ऐन।
'ओ' से ओम; ओढ़नी; ओला,
'औ' औरत; औषधि; औलाद।
'अं' से अंक; अंग, अंगारा,
'अ': खेल-हँस हो फौलाद।
*
व्यंजन
'क' से कमल; कलम; कर; करवट,
'ख' खजूर; खटिया; खरगोश।
'ग' से गणपति; गज; गिरि; गठरी,
'घ' से घट; घर; घाटी; घोष।
'ङ' शामिल है वाङ्मय में
पंचम ध्वनि है सार्थक रीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'च' से चका; चटकनी; चमचम,
'छ' छप्पर; छतरी; छकड़ा।
'ज' जनेऊ; जसुमति; जग; जड़; जल,
'झ' झबला; झमझम, झरना।
'ञ' हँस व्यञ्जन में आ बैठा,
व्यर्थ न लड़ना; करना प्रीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'ट' टमटम; टब; टका; टमाटर,
'ठ' ठग; ठसक; ठहाका; ठुमरी।
'ड' डमरू; डग; डगर; डाल; डफ,
'ढ' ढक्कन; ढोलक; ढल; ढिबरी।
'ण' कण; प्राण; घ्राण; तृण में है
मन लो जीत; तभी है जीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'त' तकिया; तबला; तसला; तट,
'थ' से थपकी; थप्पड़; थान।
'द' दरवाजा; दवा, दशहरा,
'ध' धन; धरा; धनुष; धनवान।
'न' नटवर; नटराज; नगाड़ा,
गिर न हार; उठ जय पा मीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'प' पथ; पग; पगड़ी; पहाड़; पट,
'फ' फल; फसल; फलित; फलवान।
'ब' बकरी; बरतन, बबूल; बस,
'भ' से भवन; भक्त; भगवान।
'म' मइया; मछली; मणि; मसनद,
आगे बढ़; मत भुला अतीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'य' से यज्ञ; यमी-यम; यंत्री,
'र' से रथ; रस्सी; रस, रास।
'ल' लकीर; लब; लड़का-लड़की;
'व' से वन; वसंत; वनवास।
'श' से शतक; शरीफा; शरबत,
मीठा बोलो; अच्छी नीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'ष' से षट; षटकोण; षट्भुजी,
'स' से सबक; सदन; सरगम।
'ह' से हल; हलधर; हलवाई,
'क्ष' क्षमता; क्षत्रिय; क्षय; क्षम।
'त्र' से त्रय, त्रिभुवन; त्रिलोचनी,
'ज्ञ' से ज्ञानी; ज्ञाता; ज्ञान।
'ऋ' से ऋषि, ऋतु, ऋण, ऋतंभरा,
जानो पढ़ो; नहीं हो भीत
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
२९-३० नवंबर २०२०
***
पुस्तक चर्चा-
सृजन समीक्षा : डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे अंक, पृष्ठ १६, मूल्य ४०रु.।
डॉ. साधना वर्मा
*
सृजन समीक्षा अंतरा शब्द शक्ति प्रकाशन बालाघाट द्वारा संस्कारधानी जबलपुर की सुपरिचित उपन्यासकार डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे की सात कविताओं को लेकर प्रकाशित इस अंक में कविताओं के बाद कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी संलग्न की गई हैं। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे मूलतः उपन्यासकार कथाकार हैं, काव्य लेखन में उनकी रुचि और गति अपेक्षाकृत कम है। प्रस्तुत रचनाओं में कथ्य भावनाओं से भरपूर हैं किंतु शिल्प और भाषिक प्रवाह की दृष्टि से रचनाओं में संपादन की आवश्यकता प्रतीत होती है। चन्द रचनाओं को लेकर छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकालने से पुस्तकों की संख्या भले ही बढ़ जाए लेकिन रचनाकार विशेषकर वह जिसके ९ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, का गौरव नहीं बढ़ता। बेहतर हो इस तरह के छोटे कलेवर में शिशु गीत, बाल गीत, बाल कथाएँ पर्यावरण गीत आदि प्रकाशित कर निशुल्क वितरण अथवा अल्प मोली संस्करण प्रकाशित किए जाएँ तभी पाठकों के लिए इस तरह के सारस्वत अनुष्ठान उपयोगी हो सकते हैं। इस १६ पृष्ठीय लघ्वाकारी संकलन का मूल्य ४०रु. रखा जाना उचित नहीं है।
***
पुस्तक चर्चा-
हिंदी और गाँधी दर्शन, डॉक्टर श्रीमती राजलक्ष्मी शिवहरे, अंतरा शब्द शक्ति प्रकाशन बालाघाट, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ बत्तीस, मूल्य ५५ रु.।
*
हिंदी और गाँधी दर्शन एक बहुत महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाशित कृति है जिसमें हिंदी पर गाँधीजी ही नहीं, संत कबीर, राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, महर्षि अरविंद, सुभाष चंद्र बोस आदि महापुरुषों के प्रेरक विचार प्रकाशित किए गए हैं। राजलक्ष्मी जी गद्य लेखन में निपुण हैं और प्रस्तुत पुस्तिका में उन्होंने हिंदी के विविध आयामों की चर्चा की है। भारत में बोली जा रही १७९ भाषाएँ एवं ५४४ बोलियों को भारत के राष्ट्रीय भाषाएँ मानने का विचार राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करता है। गाँधी जी ने दैनंदिन व्यवहार में हिंदी के प्रयोग के लिए कई सुझाव दिए थे। उन्होंने हिंदी के संस्कृतनिष्ठ स्वरूप की जगह जन सामान्य द्वारा दैनंदिन जीवन में बोले जा रहे शब्दों के प्रयोग को अधिक महत्वपूर्ण माना था। गाँधी का एक सुझाव थी कि भारत की समस्त भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाएँ तो उन्हें सारे भारतवासी पढ़ और क्रमश: समझ सकेंगे।
अधिकांश भाषाएँ संस्कृत से जुड़ी रही हैं इसीलिए उनकी शब्दावली भी एक दूसरे के द्वारा आसानी से समझी जा सकेगी। गाँधी जी के निधन के बाद भाषा का प्रश्न राजनीतिक स्वार्थ साधन का उपकरण बनकर रह गया। राजनेताओं ने भाषा को जनगण को बाँटने के औजार के रूप में उपयोग किया और सत्ता प्राप्ति का स्वार्थ साधा। राजलक्ष्मी जी की यह प्रस्तुति युवाओं को सही रास्ता दिखाने के लिए एक कदम ह। कृति का मूल्य ₹ ५५ रखा जाना उसे उन सामान्य पाठकों की क्रय सीमा से बाहर ले जाता है जिनके लिए राजभाषा संबंधी तथ्यों को व्यवस्थित और समृद्ध बनाया है।
***
सरस्वती स्तवन
स्मृतिशेष प्रो. श्यामलाल उपाध्याय
जन्म - १ मार्च १९३१।
शिक्षा - एम.ए., टी.टी.सी., बी.एड.।
संप्रति - पूर्व हिंदी प्राध्यापक-विभागाध्यक्ष, मंत्री भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
प्रकाशन - नियति न्यास, नियति निक्षेप, नियति निसर्ग, संक्षिप्त काव्यमय हिंदी बालकोश, शोभा, सौरभ, सौरभ रे स्वर।
उपलब्धि - अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान।
*
जननी है तू वेद की, वीणा पुस्तक साथ।
सुविशाल तेरे नयन, जनमानस की माथ।।
*
सर्वव्याप्त निरवधि रही, शुभ वस्त्रा संपृक्त।
सदा निनादित नेह से, स्रोत पयस्विनी सिक्त।।
*
विश्वपटल पर है इला, अंतरिक्ष में वाणि।
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रह्मलोक ब्रह्माणि।।
*
जहाँ स्वर्ग में सूर्य है, वहीं मर्त्य सुविवेक।
अंतर्मन चेतन करे, यह तेरी गति नेक।।
*
ऋद्धि-सिद्धि है जगत में, ग्यान यग्य जप-जाप।
अभयदान दे जगत को, गर वो सब परिताप।।
*
तब देवी अभिव्यक्ति की, जग है तेरा दास।
सुख संपति से पूर्ण कर, हर ले सब संत्रास।।
***
***
दोहा सलिला
*
भौजी सरसों खिल रही, छेड़े नंद बयार।
भैया गेंदा रीझता, नाम पुकार पुकार।।
समय नहीं; हर किसी पर, करें भरोसा आप।
अपना बनकर जब छले, दुख हो मन में व्याप।।
उसकी आए याद जब, मन जा यमुना-तीर।
बिन देखे देखे उसे, होकर विकल अधीर।।
दाँत दिए तब थे नहीं, चने हमारे पास।
चने मिले तो दाँत खो, हँसते हम सायास।।
पावन रेवा घाट पर, निर्मल सलिल प्रवाह।
मन को शीतलता मिले, सलिला भले अथाह।।
हर काया में बसा है, चित्रगुप्त बन जान।
सबसे मिलिए स्नेह से, हम सब एक समान।।
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मुझमें बैठा लिख रहा, दोहे कौन सुजान?
लिखता कोई और है, पाता कोई मान।।
३०-११-२०१९
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कार्यशाला-
शब्द सामर्थ्य बढ़ाइए,
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अंतरंग = अतिप्रिय
अंबर = आकाश
अंभोज = कमल
अंशुमाली = सूर्य
अक्षत = अखंड, पूर्ण
अक्षय = शिव
अक्षर = आत्मा,
अच्युत = ईश्वर
अतीन्द्रिय = आत्मा
अतिस्वान = सुपर सोनिक
अद्वितीय = अनुपम
अनंत = ईश्वर
अनुभव = प्रत्यक्ष ज्ञान
अन्वेषक = आविष्कारक
अपराजित = जिसे हराया नहीं जा सका, ईश्वर
अपरिमित = बहुत अधिक
अभिजीत = विजय दिलानेवाला,
अभिधान = नाम, उपाधि
अभिनंदन = स्वागत, सम्मान
अभिनव = नया
अमर = अविनाशी
अमिताभ = सूर्य
अमृत = मृत्यु से बचानेवाला
अमोघ = अचूक
अरुण = सूर्य
अर्चित = पूजित
अलौकिक - अद्भुत
अवतंस = श्रेष्ठ व्यक्ति
अवतार = ईश्वर का जन्म
अवनींद्र = राजा
अवसर = मौका
अविनाश = अमर
अव्यक्त = ब्रह्म
अशोक = शोक रहित
अशेष = संपूर्ण
अश्वत्थ = पीपल, जिसमें
अश्विनी = प्रथम नक्षत्र
असीम = सीमाहीन
अभियान = विष्णु
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ॐ = ईश्वर
ओंकार = गणेश
ओंकारनाथ = शिव
ओजस्वी = तेजस्वी, प्रभावकारी
ओषधीष = चन्द्रमा,
ओजस = कांतिवाला, चमकनेवाला
ओदन = बादल
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एक दोहा
राम दीप बाती सिया, तेल भक्ति हनुमान।
भरत ज्योति तीली लखन, शत्रुघ्न उजाला जान।।
२९-११-२०१९
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घनाक्षरी
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चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,
उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।
रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,
बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।
गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,
थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।
न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,
न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।
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विजया घनाक्षरी
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राम कहे राम-राम, सिया कैसे कहें राम?,
होंठ रहे मौन थाम, नैना बात कर रहे।
मौन बोलता है आज, न अधूरा रहे काज,
लाल गाल लिए लाज, नैना घात कर रहे।।
हेर उर्मिला-लखन, देख द्वंद है सघन,
राम-सिया सिया-राम, बोल प्रात कर रहे।
श्रुतिकीर्ति-शत्रुघन, मांडवी भरत हँस,
जय-जय सिया-राम मात-तात कर रहे।।
३०.११.२०१८
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क्षणिकाएँ
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उस्ताद अखाड़ा नहीं,
दंगल हुआ?, हुआ.
बाकी ने वृक्ष एक भी,
जंगल हुआ? हुआ.
दस्तूरी जमाने का अजब,
गजब ढा रहा-
हाय-हाय कर कहे
मंगल हुआ? हुआ.
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घर-घर में गान्धारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
करती न रफ़ू आरियाँ हैं,
कोई क्या करे?
कुन्ती, विदुर न धर्मराज
शेष रहे हैं-
शकुनी-अशेष पारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
२९-११-२०१७
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नवगीत:
नयन झुकाये बैठे हैं तो
मत सोचो पथ हेर रहे हैं
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चहचह करते पंछी गाते झूम तराना
पौ फटते ही, नहीं ठण्ड का करें बहाना
सलिल-लहरियों में ऊषा का बिम्ब निराला
देख तृप्त मन डूबा खुद में बन बेगाना
सुन पाती हूँ चूजे जगकर
कहाँ चिरैया? टेर रहे हैं
*
मोरपंख को थाम हाथ में आँखें देखें
दृश्य अदेखे या अतीत को फिर-फिर लेखें
रीती गगरी, सूना पनघट,सखी-सहेली
पगडंडी पर कदम तुम्हारे जा अवरेखें
श्याम लटों में पवन देव बन
श्याम उँगलियाँ फेर रहे हैं
*
नील-गुलाबी वसन या कि है झाँइ तुम्हारी
जाकर भी तुम गए न मन से क्यों बनवारी?
नेताओं जैसा आश्वासन दिया न झूठा-
दोषी कैसे कहें तुम्हें रणछोड़ मुरारी?
ज्ञानी ऊधौ कैसे समझें
याद-मेघ मिल घेर रहे हैं?
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नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
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गीत:
हर सड़क के किनारे
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हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,
नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।
कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-
दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।
बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,
गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।
कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
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चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।
दृष्टि थी लक्ष्य पर पंथ-पग भूलकर,
स्वप्न सत्ता के, सुख के ठगें झूलकर।
साध्य-साधन मलिन, मंजु मुखड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
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ज़िन्दगी बन्दगी बन न पायी कभी,
प्यास की रास हाथों न आयी कभी।
श्वास ने आस से नेह जोड़ा नहीं-
हास-परिहास कुलिया न भायी कभी।।
जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का ।
साध्य-साधन मलिन, मंजु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
३०-११-२०१२
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