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मंगलवार, 22 नवंबर 2022

सॉनेट, दोहा, बाल, सरस्वती, बृज, कुंडलिनी, अनुप्रास, कुण्डलिया, छंद गीता, नवगीत, बेजार, शिशु गीत

सॉनेट
प्रार्थना
नर्मदेश्वर! नमन शत शत लो
बह सके रस-धार जीवन में
कर कृपा आशीष अक्षय दो
भज तुम्हें पल पल सुपावन हो

बह सके, जड़ हो न बुद्धि मलिन
कर सके किंचित् सलिल परमार्थ
जो मिला बाँटे, न जोड़े मन-
साध्य जीवन जी सके सर्वार्थ

हूँ तुम्हारा उपकरण मैं मात्र
जिस तरह चाहो, करो उपयोग
दिया तुमने, तुम्हारा है गोत्र
अहम् का देना न देवा रोग

रहूँ ज्यों का त्यों, न बदलूँ तात
दें सदा दिल खोल आशीष मात
२२-११-२०२२
●●●
अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस
दोहा का रंग बाल के संग 
बाल-बाल जब भी बचें, कहें देव! आभार 
बाल न बाँका हो कभी कृपा करें सरकार 
बाल खड़े हों जब कभी, प्रभु सुमिरें मनमीत 
साहस कर उठ हों खड़े, भय पर पाएँ जीत 
नहीं धूप में किए हैं, हमने बाल सफेद 
जी चाहा जी भर लिखा, किया न किंचित खेद 
सुलझा काढ़ो ऊँछ लो, पटियाँ पारो खूब 
गूँथो गजरा-वेणियाँ, प्रिय हेरे रस-डूब 
बाल न बढ़ते तनिक भी, बाल चिढ़ाते खूब 
तू न तरीका बताती, जाऊँ नदी में डूब 
बाल होलिका-ज्वाल में, बाल भूनते साथ 
दीप बाल, कर आरती, नवा रहे हैं माथ 
बाल मुँड़ाने से अगर, मिटता मोह-विकार 
हो जाती हर भेद तब, भवसागर के पार 
बाल और कपि एक से, बाल-वृद्ध हैं एक 
वृद्ध और कपि एक क्यों, माने नहीं विवेक? 
बाल बनाते जा रहे, काट-गिराकर बाल 
सर्प यज्ञ पश्चात ज्यों, पड़े अनगिनत व्याल 
बाल बढ़ें लट-केश हों, मिल चोटी हों झूम 
नागिन सम लहरा रहे, बेला-वेणी चूम 
अगर बाल हो तो 'सलिल', रहो नाक के बाल 
मूँछ-बाल बन तन रखो, हरदम उन्नत भाल 
भौंह-बाल तन चाप सम, नयन बाण दें मार 
पल में बिंध दिल सूरमा, करे हार स्वीकार 
बाल पूँछ का हो रहा, नित्य दुखी हैरान 
धूल हटा, मक्खी भगा, थका-चुका हैरान 
बाल बराबर भी अगर, नैतिकता हो संग 
कर न सकेगा तब सबल, किसी निबल को तंग 
बाल भीगकर भीगते, कुंकुम कंचन देह 
कंगन-पायल मुग्ध लख, बिन मौसम का मेह 
गिरें खुद-ब-खुद तो नहीं, देते किंचित पीर 
नोचें-तोड़ें बाल तो, हों अधीर पा पीर 
*
ग्वाल-बाल मिल खा गए, माखन रच इतिहास 
बाल सँवारें गोपिका, नोचें सुनकर हास 
बाल पवन में उड़ गए, हुआ अग्नि में क्षार 
भीग सलिल में हँस रहे, मानो मालामाल 
*
***
सरस्वती स्तवन
बृज
*
मातु! सुनौ तुम आइहौ आइहौ,
काव्य कला हमकौ समुझाइहौ
फेर कभी मुख दूर न जाइहौ
गीत सिखाइहौ, बीन बजाइहौ
श्वेत वदन है, श्वेत वसन है
श्वेत लै वाहन दरस दिखाइहौ
छंद सिखाइहौ, गीत सुनाइहौ,
ताल बजाइहौ, वाह दिलाइहौ


२२-११-२-२०१९

***
हिंदी के नए छंद
कुंडलिनी छंद
*
सत्य अनूठी बात, महाराष्ट्र है राष्ट्र में।
भारत में ही तात, युद्ध महाभारत हुआ।।
युद्ध महाभारत हुआ, कृष्ण न पाए रोक।
रक्तपात संहार से, दस दिश फैला शोक।।
स्वार्थ-लोभ कारण बने, वाहक बना असत्य।
काम करें निष्काम हो, सीख मिली चिर सत्य।।
२२-११-२०१८

*

बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफोर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के

अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
***
कार्यशाला-
विधा - कुण्डलिया छंद
कवि- भाऊ राव महंत
०१
सड़कों पर हो हादसे, जितने वाहन तेज
उन सबको तब शीघ्र ही, मिले मौत की सेज।
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता
जीवन का तब वेग, हमेशा थम ही जाता।
कह महंत कविराय, आजकल के लड़कों पर
चढ़ा हुआ है भूत, तेज चलते सड़कों पर।।
१. जितने वाहन तेज होते हैं सबके हादसे नहीं होते, यह तथ्य दोष है. 'हो' एक वचन, हादसे बहुवचन, वचन दोष. 'हों' का उपयोग कर वचन दोष दूर किया जा सकता है।
२. तब के साथ जब का प्रयोग उपयुक्त होता है, सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज।
३. सबको मौत की सेज नहीं मिलती, यह भी तथ्य दोष है। हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज
४. मौत की सेज मिलने के बाद यम का बुलावा या यम का बुलावा आने पर मौत की सेज?
५. जीवन का वेग थमता है या जीवन (साँसों) की गति थमती है?
६. आजकल के लड़कों पर अर्थात पहले के लड़कों पर नहीं था,
७. चढ़ा हुआ है भूत... किसका भूत चढ़ा है?
सुझाव
सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज
हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज।
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता
जीवन का रथचक्र, अचानक थम सा जाता।
कह महंत कविराय, चढ़ा करता लड़कों पर
जब भी गति का भूत, भागते तब सड़कों पर।।
०२
बन जाता है हादसा, थोड़ी-सी भी चूक
जीवन की गाड़ी सदा, हो जाती है मूक।
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको
सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको।
कह महंत कविराय, सुरक्षित रखिए जीवन
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत बन।।
१. हादसा होता है, बनता नहीं। चूक पहले होती है, हादसा बाद में क्रम दोष
२. सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको- अभिव्यक्ति दोष
३. रखिए, मत बन संबोधन में एकरूपता नहीं
हो जाता है हादसा, यदि हो थोड़ी चूक
जीवन की गाड़ी कभी, हो जाती है मूक।
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको
सड़कों पर देखा चलते इतराकर जिनको।
कह महंत कवि धीरे चल जीवन रक्षित हो
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत हो।
२२-११-२०१७
***
गीत
अनाम
*
कहाँ छिपे तुम?
कहो अनाम!
*
जग कहता तुम कण-कण में हो
सच यह है तुम क्षण-क्षण में हो
हे अनिवासी!, घट-घटवासी!!
पर्वत में तुम, तृण-तृण में हो
सम्मुख आओ
कभी हमारे
बिगड़े काम
बनाओ अकाम!
*
इसमें, उसमें, तुमको देखा
छिपे कहाँ हो, मिले न लेखा
तनिक बताओ कहाँ बनाई
तुमने कौन लक्ष्मण रेखा?
बिन मजदूरी
श्रम करते क्यों?
किंचित कर लो
कभी विराम.
*
कब तुम माँगा करते वोट?
बदला करते कैसे नोट?
खूब चढ़ोत्री चढ़ा रहे वे
जिनके धंधे-मन में खोट
मुझको निज
एजेंट बना लो
अधिक न लूँगा
तुमसे दाम.
२२-११-२०१६

***
रसानंद दे छंद नर्मदा ​ ​५६ :
​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन / सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता / शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ गीता छंद ​से
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है, कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित, निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा, हरि पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो, हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
२१-११-२०१६
***
जन्म दिन पर अनंत शुभ कामना
अप्रतिम तेवरीकार अभियंता दर्शन कुलश्रेष्ठ 'बेजार' को
*
दर्शन हों बेज़ार के, कब मन है बेजार
दो हजार के नोट पर, छापे यदि सरकार
छापे यदि सरकार, देखिएगा तब तेवर
कवि धारेगे नोट मानकर स्वर्णिम जेवर
सुने तेवरी जो उसको ही नोट मिलेगा
और कहे जो वह कतार से 'सलिल' बचेगा

***
नवगीत:
रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन
आस खिड़की
रूह कर आज़ाद देती
सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती
हाथ पर मत हाथ
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर
आस्मां को
परिंदा उपहार देती
***
नवगीत:
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?
सुबह उगने साँझ को
ढलता रहे
हरीतिमा की जयकथा
कहता रहे
दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं
सिखाती है यही भू माता मही
कलुष पंकिल से उगाना है कमल
धार तब ही बह सकेगी हो विमल
मलिन वर्षा जल
विकारों सा बहे
शांत हों, मन में न
दावानल दहे
ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले
कहानी कुदरत की सुन,
अपनी कहे
स्वप्न बनकर नयन में
पलता रहे

***
नवगीत:
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
कौन पकाए घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
२१-११-२०१४
***
शिशु गीत सलिला : १
*
१.श्री गणेश
श्री गणेश की बोलो जय,
पाठ पढ़ो होकर निर्भय।
अगर सफलता पाना है-
काम करो होकर तन्मय।।
*
२. सरस्वती
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान,
ललित कलाओं की हैं खान।
जो जमकर अभ्यास करे-
वही सफल हो, पा वरदान।।
*
३. भगवान
सुन्दर लगते हैं भगवान,
सब करते उनका गुणगान।
जो करता जी भर मेहनत-
उसको देते हैं वरदान।।
*
४. देवी
देवी माँ जैसी लगती,
काम न लेकिन कुछ करती।
भोग लगा हम खा जाते-
कभी नहीं गुस्सा करती।।
*
५. धरती माता
धरती सबकी माता है,
सबका इससे नाता है।
जगकर सुबह प्रणाम करो-
फिर उठ बाकी काम करो।।
*
६. भारत माता
सजा शीश पर मुकुट हिमालय,
नदियाँ जिसकी करधन।
सागर चरण पखारे निश-दिन-
भारत माता पावन।
*
७. हिंदी माता
हिंदी भाषा माता है,
इससे सबका नाता है।
सरल, सहज मन भाती है-
जो पढ़ता मुस्काता है।।
*
८. गौ माता
देती दूध हमें गौ माता,
घास-फूस खाती है।
बछड़े बैल बनें हल खीचें
खेती हो पाती है।
गोबर से कीड़े मरते हैं,
मूत्र रोग हरता है,
अंग-अंग उपयोगी
आता काम नहीं फिकता है।
गौ माता को कर प्रणाम
सुख पाता है इंसान।
बन गोपाल चराते थे गौ
धरती पर भगवान।।
*
९. माँ -१
माँ ममता की मूरत है,
देवी जैसी सूरत है।
थपकी देती, गाती है,
हँसकर गले लगाती है।
लोरी रोज सुनाती है,
सबसे ज्यादा भाती है।।
*
१०. माँ -२
माँ हम सबको प्यार करे,
सब पर जान निसार करे।
माँ बिन घर सूना लगता-
हर पल सबका ध्यान धरे।।
२१-११-२०१२

***

गीत:

मत ठुकराओ

*

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

मेवा-मिष्ठानों ने तुमको

जब देखो तब ललचाया है.

सुख-सुविधाओं का हर सौदा-

मन को हरदम ही भाया है.

ऐश, खुशी, आराम मिले तो

तन नाकारा हो मरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

मेहनत-फाके जिसके साथी,

उसके सर पर कफन लाल है.

कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-

श्रम आयुध है, लगन ढाल है.

स्वेद-नर्मदा में अवगाहन

जो करता है वह तरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

खाद उगाती है हरियाली.

फसलें देती माटी काली.

स्याह निशा से, तप्त दिवस से-

ऊषा-संध्या पातीं लाली.

दिनकर हो या हो रजनीचर

रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

***

***

नवगीत

पहले जी भर.....

*

पहले जी भर लूटा उसने,

फिर थोड़ा सा दान कर दिया.

जीवन भर अपमान किया पर

मरने पर सम्मान कर दिया.....

*

भूखे को संयम गाली है,

नंगे को ज्यों दीवाली है.

रानीजी ने फूँक झोपड़ी-

होली पर भूनी बाली है..

तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?

भूखों को नीलाम कर दिया??

*

कौन किसी का यहाँ सगा है?

नित नातों ने सदा ठगा है.

वादों की हो रही तिजारत-

हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..

जिसने यह कटु सच बिसराया

उसका काम तमाम कर दिया...

*

जो जब सत्तासीन हुआ तब

'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.

धनी अधिक धन जोड़ रहा है-

निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..

लोकतंत्र में लोभतंत्र ने

खोटा सिक्का खरा कर दिया...

२२-११-२०१०

***

रविवार, 20 नवंबर 2022

सवैया अठसल, सवैया र र य ग, सवैया र र ज ल ग, दोहा मुक्तक, नवगीत, पैरोडी

छंद कार्य शाला
नव छंद - अठसल सवैया
पद सूत्र - ८ स + ल
पच्चीस वर्णिक / तैंतीस मात्रिक
पदभार - ११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-१
*
उदाहरण
हम शक्ति वरें / तब ही कर भक्ति / हमें मिलता / प्रभु से वरदान
चुप युक्ति करें / श्रम भी तब मुक्ति / मिले करना / प्रभु का नित ध्यान
गरिमा तब ही / मत हाथ पसार / नहीं जग से / करवा अपमान
विधि ही यश या / धन दे न बिसार / न लालच या /करना अभिमान
***
कार्य शाला
छंद बहर दोउ एक हैं
*
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र य ग
पदभार - २१२ २१२ १२२ २
*
दे भुला वायदा वही नेता
दे भुला कायदा वही जेता
जूझता जो रहा नहीं हारा
है रहा जीतता सदा चेता
नाव पानी बिना नहीं डूबी
घाट नौका कभी नहीं खेता
भाव बाजार ने नहीं बोला
है चुकाता रहा खुदी क्रेता
कौन है जो नहीं रहा यारों?
क्या वही जो रहा सदा देता?
छोड़ता जो नहीं वही पंडा
जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता
कोकिला ने दिए भुला अंडे
काग ही तो रहा उन्हें सेता
***
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र ज ल ग
पदभार - २१२ २१२ १२१ १२
*
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते
प्यार के फूल भी हसीं खिलते
जो पुकारो जरा कभी दिल से
जान पे खेल के गले मिलते
जो न देखा वही दिखा जलवा
थामते तो न हौसले ढलते
प्यार की आँच में तपे-सुलगे
झूठ जो जानते; नहीं जलते
दावते-हुस्न जो नहीं मिलती
वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते
जीव 'संजीव' हो नहीं सकता
आँख से अश्क जो नहीं बहते
नेह की नर्मदा बही जब भी
मौन पाषाण भी कथा कहते
***
टीप - फ़ारसी छंद शास्त्र के आधार पर उर्दू में कुछ
बंदिशों के साथ गुरु को २ लघु या २ लघु को गुरु किया जाता है।
वज़्न - २१२२ १२१२ २२/११२
अर्कान - फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन / फ़अलुन
बह्र - बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया - ख़ूबसूरत (अत की बंदिश)
रदीफ़ - है
इस धुन पर गीत
१. फिर छिड़ी रात बात फूलों की
२. तेरे दर पे सनम चले आये
३. आप जिनके करीब होते हैं
४. बारहा दिल में इक सवाल आया
५. यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो,
६. तुमको देखा तो ये ख़याल आया,
७. मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद
८. आज फिर जीने की तमन्ना है
९. ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा
२०-११-२०१९
***
दोहा मुक्तक
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
***
कार्यशाला
दोहे
बीनू भटनागर
*
सुबह सवेरे से लगी, बैंक मे है कतार।
सारे कारज छोड़के,लाये चार हज़ार।
अब हज़ार के नोट का, रहा न कोई मोल
सौ रुपये का नोट भी,हुआ बड़ा अनमोल।
बैंक खुले तो क्या हुआ,ख़त्म हो गया कैश।
खड़े खड़े थकते रहे, आया तब फिर तैश।
दो हज़ार का नोट भी, आये बहुत न काम।
दूध, ब्रैड,सब्ज़ी,फल के,कैसे चुकायें दाम।
मोदी जी ने कौन सा,खेल दिया ये दाव।
निर्धन खड़ा कतार में,धनी डुबाई नाव।
काला धन मत जोड़िये,आये ना वो काम।
आयकर देते रहिये,चैन मिले आराम।
---------------
​१.
लगी​ सुबह से बैंक ​में, ​लंबी बहुत कतार।
सारे कारज छोड़​कर,​ ​लाये चार हज़ार।।
२.
अब हज़ार के नोट का, रहा न कोई मोल
सौ रुपये का नोट भी,​ आज ​हुआ अनमोल।।
३.
बैंक खुले तो क्या हुआ,​ ​ख़त्म हो गया कैश।
खड़े खड़े थक​ गए तो, ​आया ​बेहद तैश।।
४.
दो हज़ार का नोट भी, आये बहुत न काम।
​साग, ​दूध, ​फल, ​ब्रैड के,​ ​कैसे ​दें हम दाम​?
५.
मोदी जी ने कौन सा,​ ​खेल दिया ये ​दाँव।
निर्धन खड़ा कतार में,​ ​धनी ​थकाए पाँव।।
६.
काला धन मत जोड़िये,​ ​आये ​नहीं वह काम।
​चुका ​आयकर ​मस्त हों,​ मिले ​चैन​-आराम।।

२०-११-२०१६
***
नवगीत:
भाग-दौड़ आपा-धापी है
नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
अति-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है
इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो या सुयश सुना लो
बाधा बाजू में चाँपी है
कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है

१९-११-२०१४

***
पैरोडी
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
१९-११-२०१२
***

शनिवार, 19 नवंबर 2022

बाल ठाकरे, आर्द्रा छंद, आद्यक्षरी दोहा, योगराज प्रभाकर, सरस्वती, हाइकु, मुक्तिका, ताल



ताल और काव्य

जिसको ताल का ज्ञान नहीं वह कभी गेय काव्य नहीं लिख सकता है.....
संगीत में सिर्फ मात्रा से काम पूरा नहीं होता है, क्यों की मात्राएं केवल समय की गति बताती हैं। मात्राओं को नापने के लिए ताल बनाए गए हैं........
नोट......
संगीत के दो स्तंभ हैं, स्वर और लय........
संगीत में स्वर और लय का होना बहुत जरूरी है।
लय से मात्रा और मात्रा से ताल बने हैं।
हम ऐसे समझ सकते हैं की घड़ी का सेकंड एक नियमित गति से आगे बढ़ता है जिसे लय कहते हैं। लय को अगर किसी नियमित संख्या में बांट दिया जाए तो उसे मात्रा कहते हैं। अब इस नियमित मात्रा को अगर कोई नाम दे दिया जाए तो उसे ताल कहते हैं।
ताल कई प्रकार के हैं जैसे त्रिताल या तीन ताल, झपताल, एक ताल, रूपक, चार ताल, दादरा, कहरवा इत्यादि। गीत के प्रकारों के आधार पर ताल की रचना हुई है। जैसे; खयाल के लिए तीन ताल, एकताल, झप ताल, तिलवारा इत्यादि। ठुमरी के लिए दीपचंडी और जतताल, ध्रुपद के लिए चार ताल, शुल ताल, ब्रह्म ताल और धमार (होरी) के लिए धमार ताल बनाया गया है.............
जिस प्रकार दोस्तों समय गतिमान है. इसकी गति को हम टुकडो में बाँट देते है. जैसे वर्ष, महीने हफ्ते इत्यादि. कुछ गतियां तय टुकडो में बांटी गयी है. पृथ्वी का घूमना चौबीस घंटे में ही होता है. एक घंटे को ६० बराबर टुकडो में बांटा गया है. न कम न ज्यादा. ठीक इसी तरह संगीत में समय को बराबर मात्राओं ,में बांटने पर ताल बनती है. ताल बार बार दुहराई जाती है और हर बार अपने एंटी टुकड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुई थी उसी पर आकर मिलती है. हर भाग को मात्र कहते है. संगीत में समय को मात्र से मापा जाता है. तीन ताल में समय या लय के १६ भाग या मात्राए होती है. हर भाग को एक नाम देते है जिसे बोल कहते है. इन्ही बोलों को जब वाद्य यंत्र पर बजाया जाता है उन्हें ठेका कहते है. ताल की मात्राओ को विभिन्न भागों में बांटा जाता है जिससे गाने या बजाने वाले को यह मालूम रहे की वह कौन सी मात्रा है और कितनी मात्राओ के बाद वह सम पर पहुचेगा. तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किये गए है.
हिन्दुस्तानी संगीत में एक बहुत ही प्रचलित ताल तीन ताल का उदाहरण देखते है
धा धीं धिं धा | धा धीं धिं धा | धा तीं तिं ता | ता धिं धीं धा |
१६वीं मात्रा के बाद चक्र पूरा हो जाता है, लेकिन लय तभी बनती है जब १६वीं मात्रा के बाद फिर से पहली मात्रा से नयी शुरुवात हो. जहा से चक्र दुबारा शुरू होता है उसे सम कहा जाता है. इस तरह यह चक्र चलता रहता है. ताल में खाली और भरी दो शब्द महत्वपूर्ण है. ताल के उस भाग को भरी कहते है जिस पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है. भरी पर ताली दी जाती है. और जिसपे ताली नहीं दी जाती है उसे खाली कहते है. इससे गायक या वादक को सम के आने का आभास हो जाता है. ताल के अन्य विभागों को संख्या से बताया जाता है. जिसमे खाली के लिए शून्य लिखा जाता है. ताल लय को नियंत्रण में रखती है.
हिन्दुस्तानी संगीत में कई तालें प्रचलित है जैसे
1..
दादरा (६)-
धा धी न| धा ती ना |,
2..
रूपक(७)-
ती-ती-ना |धी-ना |धी ना|,
3...
तीन ताल(१६)-
धा धीं धिं धा | धा धीं धिं धा | धा तीं तिं ता | ता धिं धीं धा |
4...
झपताल (१०)-
धी-ना| धी-धी-ना |,ती-ना |धी-धी-ना|
5..
कहरवा (८)-
धा-गे-ना-ति|न-क-धी-न |,
6..
एक ताल(१२)-
धिं धिं धागे तिरकट |तू-ना-क-त्ता |धागे-तिरकट | धिं-ना |
7.
चौताल(१२).-
धा धा धिं ता| किट-धा-धिं-ता| तिट-कट | गदि-गन
१९-११-२०१९
***
तेरे शह्र में
*
खेत तो इसने जलाए साँस उसकी रुक रही
हो रहे हैं लोग सब बीमार तेरे शह्र में।।
लिख रहे हो इबारत तुम कह रहे हो प्रगति की
भटकती है जवानी बेकार तेरे शह्र में।।
आइने में आँख के आ देख ले तू चेहरा
करेंगे दीदार हम सरकार तेरे शह्र में
डर रहे साये से जो दुम दबाकर थे फिर रहे
ग़ज़ब वे ही आज हैं सरदार तेरे शह्र में।।
स्याह की है वाह; तो परवाह क्यों कर हो तुम्हें।
सफेदी भी स्याह बरखुरदार तेरे शह्र में।।
*
हाइकु
*
माँ सरस्वती!
अमल-विमल मति
दे वरदान।
*
हंसवाहिनी!
कर भव से पार
वीणावादिनी।
*
श्वेत वसना !
मन मराल कर
कालिमा हर।
*
ध्वनि विधात्री!
स्वर-सरगम दे
गम हर ले।
*
हे मनोरमा!
रह सदय सदा
अभयप्रदा।
*
मैया! अंकित
छवि मन पर हो
दैवी वंदित।
*
शब्द-साधना
सत-शिव-सुंदर
पा अर्चित हो।
*
नित्य विराजें
मन-मंदिर संग
रमा-उमा के।
*
चित्र गुप्त है
सुर-सरगम का
नाद सुना दे।
*
दो वरदानी
अक्षर शिल्प कला
मातु भवानी!
*
सत-चित रूपा!
विहँस दिखला दे
रम्य रूप छवि।
**
संजीव
१८-९-२०१९


***
काव्य वार्ता
नाम से, काम से प्यार कीजै सदा
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई? -संजीव
*
बन्दगी कब हुई प्यार बिन जिंदगी
दिल्लगी बन गई आज दिल की लगी
रंग तितली के जब रँग गयीं बेटियाँ
जा छुपी शर्म से आड़ में सादगी -मिथलेश
*
छोड़ घर मंडियों में गयी सादगी
भेड़िये मिल गए तो सिसकने लगी
याद कर शक्ति निज जब लगी जूझने
भीड़ तब दुम दबाकर खिसकने लगी -संजीव
***
दोहा दुनिया
ज्योति बिना चलता नहीं, कभी किसी का काम
प्राण-ज्योति बिन शिव हुए, शव फिर काम तमाम
*
बहिर्ज्योति जग दिखाती, ठोकर लगे न एक
अंतर्ज्योति जगे 'सलिल', मिलता बुद्धि-विवेक
*
आत्मज्योति जगती अगर, मिल जाते परमात्म
दीप-ज्योति तम-नाशकर, करे प्रकाशित आत्म
*
फूटे तेरे भाग यदि, हुई ज्योति नाराज
हो प्रसन्न तो समझ ले, 'सलिल' मिल गया राज
*
स्वर्णप्रभा सी ज्योति में, रहे रमा का वास
श्वेत-शारदा, श्याम में काली करें प्रवास
*
रक्त-नयन हों ज्योति के, तो हो क्रांति-विनाश
लपलप करती जिव्हा से, काटे भव के पाश
*
ज्योति कल्पना-प्रेरणा, कांता, सखी समान
भगिनी, जननी, सुता भी, आखिर मिले मसान
*
नमन ज्योति को कीजिए, ज्योतित हो दिन-रात
नमन ज्योति से लीजिए, संध्या और प्रभात
*
कहें किस समय था नहीं, दिव्य ज्योति का राज?
शामत उसकी ज्योति से, होता जो नाराज
***

***
एक कुण्डलिनी
मन मनमानी करे यदि, कस संकल्प नकेल
मन को वश में कीजिए, खेल-खिलाएँ खेल
खेल-खिलाएँ खेल, मेल बेमेल न करिए
व्यर्थ न भरिए तेल, वर्तिका पहले धरिए
तभी जलेगा दीप, भरेगा तम भी पानी
कसी नकेल न अगर, करेगा मन मनमानी
***
एक दोहा
शब्द-सुमन शत गूंथिए, ले भावों की डोर
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर
***
एक पद-
अभी न दिन उठने के आये
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये
***
अनुजवत योगराज प्रभाकर को जन्मदिवस पर शुभकामनाएँ
प्रिय बन्धु!
वन्दे मातरम
योगी सी दृढ़ता रहे, जीवन का पाथेय
गत्यात्मकता छू क्षितिज, लाये निकट विधेय
राग-विराग द्विनेत्र हों, कर्म-धर्म दो हाथ
जगवाणी हिंदी रखे, जग में उन्नत माथ
प्रगति-पन्थ पर धर चरण, पायें कीर्ति अनंत
भास्कर सम ज्योतित रहें सौ वर्षों श्रीमंत
काया-माया सदा हों, छाया बनकर संग
रग-रग में उत्सव रहे, नूतन 'सलिल' उमंग
(आद्यक्षरी दोहा छंद)
१८-११-२०१६
***
चित्रगुप्त पूजन
*
अच्छे अच्छों का दीवाला निकालकर निकल गई दीपावली और आ गयी दूज...
सकल सृष्टि के कर्म देवता, पाप-पुण्य नियामक निराकार परात्पर परमब्रम्ह चित्रगुप्त जी और कलम का पूजन कर ध्यान लगा तो मनस-चक्षुओं ने देखा अद्भुत दृश्य.
निराकार अनहद नाद... ध्वनि के वर्तुल... अनादि-अनंत-असंख्य. वर्तुलों का आकर्षण-विकर्षण... घोर नाद से कण का निर्माण... निराकार का क्रमशः सृष्टि के प्रागट्य, पालन और नाश हेतु अपनी शक्तियों को तीन अदृश्य कायाओं में स्थित करना...
महाकाल के कराल पाश में जाते-आते जीवों की अनंत असंख्य संख्या ने त्रिदेवों और त्रिदेवियों की नाम में दम कर दिया. सब निराकार के ध्यान में लीन हुए तो हर चित्त में गुप्त प्रभु की वाणी आकाश से गुंजित हुई:
__ "इस समस्या के कारण और निवारण तुम तीनों ही हो. अपनी पूजा, अर्चना, वंदना, प्रार्थना से रीझकर तुम ही वरदान देते हो औरउनका दुरूपयोग होने पर परेशान होते हो. करुणासागर बनने के चक्कर में तुम निष्पक्ष, निर्मम तथा तटस्थ होना बिसर गये हो."
-- तीनों ने सोच:' बुरे फँसे, क्या करें कि परमपिता से डांट पड़ना बंद हो?'.
एक ने प्रारंभ कर दिया परमपिता का पूजन, दूसरे ने उच्च स्वर में स्तुति गायन तथा तीसरे ने प्रसाद अर्पण करना.
विवश होकर परमपिता को धारण करना पड़ा मौन.
तीनों ने विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर कब्जा किया और भक्तों पर करुणा करने का दस्तूर और अधिक बढ़ा दिया.
***
भाव ही भगवान
*
एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया कि नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद दिखी उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मताई औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो.''
'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है.
१८-११-२०१५
***
नवगीत:
जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?
ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने
सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने
चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने
***
११-११-२०१४
कानपुर रेलवे प्लेटफॉर्म
सवेरे ४ बजे
***
स्वागत गीत:
शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!
शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो
कालिंदी-गोमती मिलाओ
नेह नर्मदा नवल बहाओ
'मावस को पूर्णिमा बनाओ
शब्दचित्र-अंकन-गायन हो
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ
पंकज रमण विवेक जगाओ
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ
भाषा में कुछ टटकापन हो
रंगों में कुछ चटकापन हो
सीमा अमित सुवर्णा शोभित
सिंह धनंजय वीनस रोहित
हो प्रवीण मन-राम रमाओ
लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा
लखनऊ में गूँजे जयकारा
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ
रसादित्य जगदीश बसाओ
नऊ = नौ = नव
१०-११-२०१४
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया
***
***
नवगीत:
बीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
हरसिँगारी छवि तुम्हारी
प्रात किरणों ने सँवारी
भुवन भास्कर का दरस कर
उषा पर छाई खुमारी
मुँडेरे से झाँकते, छवि आँकते
रीतते ही नहीं है
ये प्रतीक्षा के पल
अमलतासी मुस्कराहट
प्रभाती सी चहचहाहट
बजे कुण्डी घटियों सी
करे पछुआ सनसनाहट
नत नयन कुछ माँगते, अनुरागते
जीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
शंखध्वनिमय प्रार्थनाएँ
शुभ मनाती वन्दनाएँ
ऋचा सी मनुहार गुंजित
सफल होती साधनाएँ
पलाशों से दहकते, चुप-चहकते
सीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
१८-११-२०१४
***
छंद सलिला
आर्द्रा छंद
*
द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
१८-११-२०१३
***
अहिंदुओं द्वारा हिन्दू धर्म अपनाने पर कायस्थ समाज में प्रवेश:
कायस्थ समाज एसे सभी गैर सनातनियों को पुनः सनातन धर्म में लायेगा और यदी उनके मूल वर्ण (भ्रह्मण, क्षत्रीय,वैष्य या शूद्र) में उन्हें स्थान नहीं मिलता है - उन्हें कायस्थ समाज में स्थान दिया जायेगा..
आरक्षण हमारे देश को दीमक की तरह खोखला करता जा रहा है. पिछले 500 सालों से सनातन धर्मियों को बलात मुसलमान और ईसाई बनाए जाने का षड्यंत्र चल रहा है। कूप मंडूक सनातन धर्मी अपने आँख और कान बंद कर अपनी ही बहू-बेटियों को विधर्मी होता देख रहे हैं। जयपुर में राष्ट्रीय कायस्थ महा परिषद् की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की आसंदी से मैंने इस कुचक्र को रोकने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसे सर्व सम्मति से स्वीकार किया गया। इस प्रस्ताव के अनुसार कोई भी मनुष्य जो अन्य कोई भी धर्म से आकर सनातन धर्म अपनाना चाहता है उसे कायस्थ समाज अपनाएगा तथा एक धार्मिक क्रिया संपन्न कराकर समस्त मानव मात्र को एक समान ईश्वरीय संतान मानने और धर्म, जाति, भाषा, भूषा, लिंग, क्षेत्र, देश आदि किसी भी अधर पर भेद-भाव न करने और हर एक को अपनी योग्यता वृद्धि का समान अवसर और योग्यता के अनुसार जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराने के सिद्धांत से लिखित सहमति के पश्चात् कायस्थ बनाया जाएगा।
वर्तमान में चाहने पर भी विधर्मी हिन्दू नहीं बन पाता क्योंकि हिन्दू समाज का कोई वर्ग उन्हें नहीं अपनाता। अब बुद्धिजीवी कायस्थ समाज ने यह क्रांतिकारी कदम उठाकर सबके लिए सनातन धर्म का दरवाज़ा खोल दिया है।
१८-११-२०१२
***
श्रृद्धांजलि: बाल ठाकरे
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
*
कर जोड़ो शीश झुकाओ रे!
महाराष्ट्र-केसरी नहीं रहा...
***
वह वह नेता जन-मन को प्रिय था,
वह मजदूरों में सक्रिय था।
उसके रहते कुछ कदम थमे-
आतंकवाद कुछ निष्क्रिय था।।
अब सम्हलो, चेतो, जागो रे!
महाराष्ट्र-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
***
वह शिव सेना का नायक था,
वह व्यंग्यचित्र-शर धारक था।
हर शब्द तीक्ष्ण शर मारक था-
चिर-कुंठित का उद्धारक था।।
था प्रखर-मुखर, सर्वोच्च शिखर-
कार्टून-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
***
सरकारों का निर्माता था,
मुम्बई का भाग्य-विधाता था।
धर्मांध सियासत का अरि था-
मजहबी रोग का त्राता था।।
निज गौरव के प्रति जागरूक
इंसान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
***
उसके इंगित पर शिव सैनिक ,
तूफानों से टकराते थे।
उसकी दहाड़ सुन दिल्लीपति-
संकुचाते थे, शर्माते थे।।
मुंबई का बेटा! भूमि-पुत्र!!
बलिदान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
***
उसने सत्ता को ठुकराया,
पद-मोह न बाँध उसे पाया।
उन चुरुट दबाये अधरों का-
चीता सा दिल था सरमाया।।
दुर्बल काया, दृढ़ अंतर्मन-
अरमान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
१७-११-२०१२
***

शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

देवकीनंदन 'शांत',मुक्तिका,मुक्तक,लघुकथाकार,नवगीत,

कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com]
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-
कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।
छूने की कोशिश
करने पर दूर लहार जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।
शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-
जिसे तुम कविता कहते हो
क्या
वही बस कविता है?
जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी।
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई
दिन में ही रात
धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।
सदियों से
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -
देख ले तू
करके चिंतन
सत्य चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।
१७-११-२०१९
***
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
***
मुक्तक
मन पर वश किसका चला ?
किसका मन है मौन?
परवश होकर भी नहीं
परवश कही कौन?
*
संयम मन को वश करे,
जड़ का मन है मौन
परवश होकर भी नहीं
वश में पर के भौन
*
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
***
लघुकथा संबंधी जानकारी -
कृपया, अपने नगर के लघुकथाकारों के नाम और चलभाष/दूरभाष नीचे टिप्पणी में प्रस्तुत करें। आपके पास जो लघुकथा संकलन हों उनकी जानकारी निम्न क्रम में दें- पुस्तक का नाम,लघुकथाकार का नाम, ISBN क्रमांक, आवरण सजिल्द / पेपरबैक, बहुरंगी / एकरंगी / दोरंगी, आकार, पृष्ठ संख्या, मूल्य, प्रकाशक का नाम पता, लघुकथाकार का नाम- पता, चलभाष, ई मेल। यह जानकारी शोध छात्रों के लिए उपयोगी होगी।
जिलेवार लघुकथाकार-
जबलपुर
०१. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com, २. अशोक श्रीवास्तव 'सिफर' ९४२५१६४८९६, ३. कुँवर प्रेमिल ९३०१८२२७८२, ३. प्रदीप शशांक ९४२५८६०५४०, ४. धीरेन्द्र बाबू खरे ९४२५८६७६८४, ५. सुरेश तन्मय ९८९३२६६०१४, १५. रमेश सैनी, ६. रमाकांत ताम्रकार, ७. ओमप्रकाश बजाज, ८. सनातन कुमार बाजपेयी ९०७४३ ६४५१५, ९. १०. गीता गीत,
विजय किसलय, १०. दिनेश नंदन तिवारी, ११. १२. गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, १३ सुरेंद्र सिंह सेंगर, १४. विजय बजाज, १६. प्रभात दुबे, १७. पवन जैन, १८. नीता कसार, १९. मधु जैन, २० शशि कला सेन, २१. प्रकाश चंद्र जैन, २२. अनुराधा गर्ग, २३. सुनीता मिश्र, २४. आशा भाटी, २५. राकेश भ्रमर, २६. २८ छाया त्रिवेदी, २९.रामप्रसाद अटल, ३०.अविनाश दत्तात्रेय कस्तूरे, ३१. अर्चना मलैया, ३२ बिल्लोरे, ३३. अरुण यादव, ३४. आशा वर्मा, ३५, मिथलेश बड़गैयां, ३६. सुरेंद्र सिंह पवार, ३७. मनोज शुक्ल, ३८ आचार्य भगवत दुबे, ३९. गार्गीशरण मिश्र ४०. विनीता श्रीवास्तव, ४१. डॉ. वीरेंद्र कुमार दुबे, ४२. राजेश पाठक प्रवीण,
***
लघुकथा साहित्य -
१९८६-
१. नेताजी की वापसी, बलराम, जयश्री प्रकाशन दिल्ली, क्राउन आकार, सजिल्द, पृष्ठ १०३, ६ व्यंग्य, ११ लघुकथाएँ, १४ छोटी कहानियाँ।
२.
२००४
१. गद्य सप्तक २, उमाशंकर मिश्र (सं), सजिल्द, बहुरंगी, २१.७ से. मी. x १३.७ से. मी., पृष्ठ १४३, मूल्य १५०/-, उद्योग नगर प्रकाशन ११ बी १३६ नेहरू नगर गाज़ियाबाद।
२.
२०१२-
१. पहचान, राधेश्याम पाठक, आवरण पेपरबैक , बहुरंगी, २१.५ से.मी. x १४.० से.मी., पृष्ठ १०८, मूलतः १५०/-, शब्दप्रवाह साहित्य मंच ए ९९ व्ही. डी. मार्केट उज्जैन ४५६००६ प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क औदुम्बर भवन एल आई जी ११-१४ सांदीपनि नगर उज्जैन ४५६००६, ९८२६८१६६१९।
२. निर्वाचित लघुकथाएं, अशोक भैया (सं), तृतीय संस्करण (प्रथम २००५, द्वितीय २००६), ISBN ८१-८२३५-०३१-x, पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ २५५, १०५/-, साहित्य उपक्रम प्रकाशन, ९६५४७३२१७४, संपादक संपर्क १८८२ सेक्टर ३ अर्बन एस्टेट करनाल १३२००१। ३. आधुनिक हिंदी लघुकथाएं, त्रिलोक सिंह ठकुरेला (सं),सजिल्द बहुरंगी, २२.५ से. मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ १०४, १५०/-, अरिहंत प्रकाशन राजू साड़ी के ऊपर, सोजती गेट जोधपुर, ०२९१२६५७५३०, संपादक संपर्क ९९ रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबूरोड ३०७०२६, ९४६०७१४२६७, ०२९७४२२१४२२ ।
२०१३-
मुखौटों के पार, मो. मोईनुद्दीन अतहर, अयन प्रकाशन दिल्ली, isbn ९७८-७४०८-६५२-५, पृष्ठ ९६, मूल्य २००/- सजिल्द
- पत्रिका लघुकथा अभिव्यक्ति, संपादक मोहम्मद मोईनुद्दीन अतहर (अब स्वर्गीय), प्रकाशन बन्द,२००४ से २०१६ तक छपी।
२०१६-
१. हरियाणा से लघुकथाएँ : अशोक भाटिया (सं.), २. मधुदीप की ६६ लघुकथाएँ: उमेश महादोषी, ३. भगीरथ की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप, ४. बलराम अग्रवाल की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ISBN ९७८-९३-८४७१३-१६-४, सजिल्द, आकार २२.५X१५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पृष्ठ २०८, मूल्य ५००/-, दिशा प्रकाशन १३८/१६ त्रिनगर दिल्ली ११००३५, ५. सतीश दुबे की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ६. कमल चोपड़ा की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ISBN ९७८-९३-८४७१३-२०-१, सजिल्द, आकार २२.५X१५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पृष्ठ २७२, मूल्य ५००/-, दिशा प्रकाशन १३८/१६ त्रिनगर दिल्ली ११००३५, ७. अशोक भाटिया की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ८. सतीशराज पुष्करणा की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), ९. मधुकान्त की ६६ लघुकथाएँ: मधुदीप (सं.), १०. चलें नीड़ की ओर: कान्ता राय (सं.), ११. बूँद बूँद सागर: जितेन्द्र जीतू, नीरज सुधांशु (सं.), १२. समसामयिक लघुकथाएँ, सं. त्रिलोकसिंह ठकुरेला, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN ९७८-९३-८५५९३-८९-५, प्रकाशन राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृष्ठ १४४, मूल्य २००/- ११ लघुकथाकारों की ११ रचनाएँ, चित्र, संक्षिप्त परिचय, १३. आँखों देखी लघुकथा: विकास मिश्र (सं.), १४. लघुकथा अनवरत: सुकेश साहनी-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (सं.), १५. आदिम पुराकथाएँ (पुराकथा संकलन) वसन्त निरगुणे (सं.), १६. ज़ख्म,१५ संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६, १७. अंदर एक समंदर, लघु कथा संग्रह, डॉ. सुरेश तन्मय, सजिल्द १०४ पृष्ठ, २२०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नयी दिल्ली, १८. एक पेग जिंदगी, पूनम डोगरा, लघुकथा संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-८६८१०-५१-X, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १३८, मूल्य२८०/-, समय साक्ष्य प्रकाशन १५, फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, दूरभाष ०१३५ २६५८८९४, १९. बड़ा भिखारी, रमेश मनोहरा, ISBN ९७८-८१-७४०८-८८८-८ आवरण,सजिल्द, बहुरंगी, २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क शीतला गली, जावरा रतलाम ४५७२२६, ९७५२९३१४८१, २०. अनसुलझा प्रश्न, किशन लाल शर्मा, आवरण सजिल्द रंगीन, २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ १०४, मूल्य २२०, अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क १०३ रामस्वरूप कॉलोनी आगरा २८२०१०, ९७६०६१७००१। २१. आँखों देखी, विकास मिश्र (सं), पेपरबैक, ISBN १३-९७८-९३-८५१४६-३७-४ बहुरंगी, २०.५ से. मी. x १३.५ से.मी., पृष्ठ ८८, मूल्य १२०/-, उद्योग नगर प्रकाशन ६९५ न्यू कोटगांव, जी.टी.रोड गाज़ियाबाद २०१००८, ९८१८२४९९०२, २२. पथ का चुनाव, कांता रॉय, १३८ कहानियाँ, पृष्ठ १६५, ३९५/-,आकार २२.५ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली,
१७-११-२०१६
***
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
***
लघुकथा:
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
१७-११-२०१५
लघुकथा:
उत्सव
*
सड़क दुर्घटना, दम्पति की मौत, नन्ही बच्ची अनाथ पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टी अपने नन्हीं बिटिया पर पड़ी.… मन में कोई विचार कौंधा और सिहर उठा वह, बिटिया को बांहों में भरकर चूम लिया…… पत्नी ने देखा तो कारण पूछा।
थोड़ी देर बाद तीनों पहुँचे कलेक्टर के कमरे में, कुछ लिखा-पढ़ी के बाद घर लौटे, दुर्घटना में माँ-बाप खो चुकी बिटिया के साथ.…
धीरे-धीरे चारों का जीवन बन गया एक उत्सव।
६-११-२०१५

***
नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
१८-११-२०१४
***
दोहा सलिला
सुमन सदृश जो महकते, उन पर सलिल निसार
दोहा-दोहा दमकता, दीपित दिया उदार
१७-११-२०१३
***