कुल पेज दृश्य

रविवार, 9 अक्टूबर 2022

व्यंग्य गीत, सॉनेट, वीणा, शरत्चंद्र, नवगीत, हरिगीतिका, लोकगीत, बाल गीत,

व्यंग्य गीत ● हिंदी लिखते डर लगता है शब्द-अर्थ बेघर लगता है खाल बाल की एक निकाले दूजा डाल अक्ल पर ताले खींचेगा बेमतलब टाँग 'शब्द बदल' कर देगा माँग वह गर्दभ का स्वर लगता है हिंदी लिखते डर लिखता है होती आस्था पल में घायल करें सियासत पल पल पागल अच्छा अपना, बुरा और का चिंतन स्वार्थी हुआ दौर का बिखरा उजड़ा घर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है पैसे दे किताब छपवाओ हाथ जोड़ घर घर दे आओ पढ़े न कोई, बेचे रद्दी फिर दूजी दो बनकर जिद्दी दस्यु प्रकाशक हर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है कथ्य भाव रस से नहिं नाता गति-यति-लय द्रोह रहा मन भाता मठाधीश बन चेले पाले दे-ले अभिनंदन घोटाले लघु रवि बड़ा तिमिर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है इसको हैडेक हुआ पेट में फ्रीडमता लेडियाँ भेंट लें 'लिव इन' नया मंच नित भाए सुना चुटकुले कवि कहलाए सूना पूजा-घर लगता है हिंदी लिखते डर लगता है ९-१०-२०२२ ●●●
सॉनेट वीणा ● वीणा की झंकार, मौन सुन आँख मूँद ले पहले पगले! छेड़े मन के तार कौन सुन। सँभल न दुनिया तुझको ठग ले। तू है कौन?, कहाँ से आया? जाना कहाँ न तुझको मालुम करे सफर, सामान जुटाया। मेला-ठेला देख गया गुम। रो-पछता मत, मन बहला ले गिर, रो चुप हो, धीरज धरना लूट न लुटना, खो दे, पा ले। जैसे भी हो बढ़ना-तरना। वीणा-तार कहें क्या सुन ले टूटे तार न सपने बुन ले। ९-१०-२०२२ ●●●
सॉनेट शरत्चंद्र * शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से मन नीलाभ गगन हो हँसता रश्मिरथी दे अमृत, झट से कंकर हो शंकर भुज कसता सलज उमा, गणपति आहट पा मग्न साधना में हो जाती ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ शीश नवा, माँ के जस गाती हो संजीव सलिल लहरें उठ गौरी पग छू सकुँच ठिठकती अंजुरी भर कर पान उमा झुक शिव को भिगा रिझाकर हँसती शुक्ल स्मृति पायस सब जग को दे अमृत कण शरत्चंद्र का ९-१०-२०२२, १५-४३ ●●●
नवगीत:  
उत्सव का मौसम
*
उत्सव का मौसम
बिन आये ही सटका है...
*
मुर्गे की टेर सुन
आँख मूँद सो रहे.
उषा की रूप छवि
बिन देखे खो रहे.
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है.....
*
नाक बहा, टाई बाँध
अंगरेजी बोलेंगे.
अब कान्हा गोकुल में
नाहक ना डोलेंगे..
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है...
*
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है.
पद-मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है..
मलिन बिम्ब देख-देख
मन-दर्पण चटका है...
*
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है.
राजनीति कहे साध्य
केवल खलनायक है.
पगडंडी भूल
राजमार्ग राह भटका है...
*
मँहगाई आयी
दीवाली दीवाला है.
नेता है, अफसर है
पग-पग घोटाला है. 
अँगने  को खिड़की
दरवाजे से खटका है...
***
हरिगीतिका:
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
९-१०-२०११
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
लोकगीत:
हाँको न हमरी कार.....
*
पोंछो न हमरी कार
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
हाँको न हमरी कार,
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग -
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे 'बलम अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, न करियो रार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
***
नव गीत:
कैसी नादानी??...
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
****
बाल गीत / नव गीत:
खोल झरोखा....
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
बाल गीत:
माँ-बेटी की बात
*
रानी जी को नचाती हैं महारानी नाच.
झूठ न इसको मानिये, बात कहूँ मैं साँच..
बात कहूँ मैं साँच, रूठ पल में जाती है.
पल में जाती बहल, बहारें ले आती है..
गुड़िया हाथों में गुड़िया ले सजा रही है.
लोरी गाकर थपक-थपक कर सुला रही है.
मारे सिर पर हाथ कहे: ''क्यों तंग कर रही?
क्यों न रही सो?, क्यों निंदिया से जंग कर रही?''
खीज रही है, रीझ रही है, हो बलिहारी.
अपनी गुड़िया पर मैया की गुड़िया प्यारी..
रानी माँ हैरां कहें: ''महारानी सो जाओ.
आँख बंद कर अनुष्का! सपनों में मुस्काओ.
तेरे पापा आ गए, खाना खिला, सुलाऊँ.
जल्दी उठना है सुबह, बिटिया अब मैं जाऊँ?''
बिटिया बोली ठुमक कर: ''क्या वे डरते हैं?'
क्यों तुमसे थे कह रहे: 'तुम पर मरते हैं?
जीते जी कोई कभी कैसे मर सकता?
बड़े झूठ कहते तो क्यों कुछ फर्क नहीं पड़ता?''
मुझे डाँटती: ''झूठ न बोलो तुम समझाती हो.
पापा बोलें झूठ, न उनको डाँट लगाती हो.
मेरी गुड़िया नहीं सो रही, लोरी गाओ, सुलाओ.
नाम न पापा का लेकर, तुम मुझसे जान बचाओ''..
हुई निरुत्तर माँ गोदी में ले बिटिया को भींच.
लोरी गाकर सुलाया, ममता-सलिल उलीच..
९-१०-२०१० 
***

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

दुर्गा, दोहा गीत, नर्मदा, शन्नो अग्रवाल, नवगीत, हिंदी, मुक्तिका, शब्द सलिला, मुक्तक

दोहा दुनिया 
*
कोरी पाती पर विनय, लिख विक्रम के गीत
सिंह गर्जन कर छुड़ा दे, अरि के छक्के रीत 
*
लैला की शॉपिंग हुई, मजनू है बेरंग 
खत्म बैंक बेलेंस लख, भागी- मजनू दंग 
*
लल्ला-लल्ली पर चढ़ा, झट से प्रेम-बुखार 
मिले-जुले; लड़-झगड़ कर, खोजें नूतन प्यार 
*
'लिव इन' में बरसों रही, अब 'मी टू' में मस्त 
रोजगार यह भी हुआ, टैक्सलगे हों पस्त
*
सरल सुबोध न साध्य है, साध्य सरस है बंधु 
निर्झर सरवर साथ है, सार्थक होता सिंधु 
*
अंग्रेजी शब्दों बिना, हिंदी रुचे न आज 
अंग्रेजी में घोलते, हिंदी लगे न लाज 
*
डगर-डगर कवियित्रियाँ, गली-गली कवि खूब 
पाठक-श्रोता है नहीं, कविता मरती डूब 
वर्ण-मात्रा गिन हुए, छंदों के सम्राट 
निज मुख कर निज प्रशंसा, बनते साहब लाट 
८-१०-२०२२ 
***  
मुक्तक
अधर मौन पर नयन बोलते, अनकहनी भी कहते हैं।
हँसी-ठहाकों के मन में भी, आँसू-झरने बहते हैं।
फूल-शूल जन्मों के साथी, धूप-छाँव, पग-डग सहचर-
'सलिल' निरुपमा चाह-राह पा, संजीवित मन रहते हैं।
८-१०-२०२०
***
हिंदी शब्द सलिला : १
संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा, यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, रामा.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: १

अ - उप. (सं.) हिंदी वर्ण माला का प्रथम हृस्व स्वर, यह व्यंजन आदि संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगकर सादृश्य (अब्राम्हण), भेद (अपट), अल्पता (अकर्ण,अनुदार), अभाव (अरूप, अकास), विरोध (अनीति) और अप्राशस्तस्य (अकाल, अकार्य) के अर्थ प्रगट करता है. स्वर से आरम्भ होनेवाले शब्दों के पहले आने पर इसका रूप 'अन' हो जाता है (अनादर, अनिच्छा, अनुत्साह, अनेक), पु. ब्रम्हा, विष्णु, शिव, वायु, वैश्वानर, विश्व, अमृत.
अइल - दे., पु., मुँह, छेद.
अई -
अउ / अउर - दे., अ., और, एवं, तथा.
अउठा - दे. पु. कपड़ा नापने के काम आनेवाली जुलाहों की लकड़ी.
अजब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अजहब - उ.अनोखा, अद्वितीय (वीसल.) -अजब दे. विचित्र, असामान्य.
अजीब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अऊत - दे. निपूता, निस्संतान.
अऊलना - अक्रि., तप्त होना, जलना, गर्मी पड़ना, चुभना, छिलना.
अऋण/अऋणी/अणिन - वि., सं, जो ऋणी/कर्ज़दार न हो, ऋण-मुक्त.
अएरना - दे., सं, क्रि., अंगीकार करना, गृहण करना, स्वीकार करना, 'दियो सो सीस चढ़ाई ले आछी भांति अएरि'- वि.
अक - पु., सं., कष्ट, दुःख, पाप.
अकच - वि., सं., केश रहित, गंजा, टकला दे. पु., केतु गृह.
अकचकाना - दे., अक्रि., चकित रह जाना, भौंचक हो जाना.
अकच्छ - वि., सं., नंगा, लंपट.
अकटु - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो.
अकटुक - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो, अक्लांत.
अकठोर - वि., सं., जो कड़ा न हो, मृदु, नर्म.
अकड़ - स्त्री., अकड़ने का भाव, ढिठाई, कड़ापन, तनाव, ऐंठ, घमंड, हाथ, स्वाभिमान, अहम्. - तकड़ - स्त्री., ताव, ऐंठ, आन-बान, बाँकपन. -फों - स्त्री., गर्व सूचक चाल, चेष्टा. - वाई - स्त्री., रोग जिसमें नसें तन जाती हैं. -बाज़ - वि., अकड़कर चलनेवाला, घमंडी, गर्वीला. - बाज़ी - स्त्री., ऐंठ, घमंड, गर्व, अहम्.
अकड़ना - अक्रि., सूखकर कड़ा होना, ठिठुरना, तनना, ऐंठना, घमंड करना, स्तब्ध होना, तनकर चलना, जिद करना, धृष्टता करना, रुष्ट होना. मुहा. अकड़कर चलना - सीना उभारकर / छाती तानकर चलना.
अकड़म - अकथह, पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकड़ा - पु., चौपायों-जानवरों का एक रोग.
अकड़ाव - पु., अकड़ने की क्रिया, तनाव, ऐंठन.
अकड़ू - वि., दे., अकड़बाज.
अकडैल / अकडैत - वि., दे., अकड़बाज.
अकत - वि., कुल, संपूर्ण, अ. पूर्णतया, सरासर.
अकती - एक त्यौहार, अखती, वैशाख शुक्ल तृतीया, अक्षय तृतीया, बुन्देलखण्ड में सखियाँ नववधु को छेड़कर उसके पति का नाम बोलने या लिखने का आग्रह करती हैं., -''तुम नाम लिखावति हो हम पै, हम नाम कहा कहो लीजिये जू... कवि 'किंचित' औसर जो अकती, सकती नहीं हाँ पर कीजिए जू.'' -कविता कौमुदी, रामनरेश त्रिपाठी.
अकथह - अकड़म,पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकत्थ - वि., दे., अकथ्य, न कहनेयोग्य, न कहा गया.
अकत्थन - वि. सं., दर्फीन, जो घमंड न करे.
....... निरंतर
संस्कारधानी जबलपुर ८.१०.२०१०
***
मुक्तिका...

क्यों है?

संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??

थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??

गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??

नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??

उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?

***
लेख :
हिंदी की प्रासंगिकता और हम.

हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं. दैनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं लाई जा सकती पर वह समीक्षा, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है. हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा. तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है. हिन्दी में अहिन्दी शब्दों का मिश्रण दल में नमक की तरह हो किन्तु खीर में कंकर की तरह नहीं.

हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा. इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं. वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति असमर्पित हैं. उनमें से हर एक का शब्द भण्डार अलग-अलग है. उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है. कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं. यदि वे न मिलनेवाले शब्द को अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे. जो न मिलें उनके लिये शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है. इससे हिंदी का सतत विकास होगा.

सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी क्या कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते. सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रोक , स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें? मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, बोल्डर, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ . बोल्डर के लिये कोई शब्द नहीं है?

रेत के परीक्षण में 'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्द कोष में नहीं मिला. छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा. काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय. कार्य विभागों में प्राक्कलन बनाने, माप लिखने तथा मूल्यांकन करने का काम अंगरेजी में ही किया जाता है जबकि अधिकतर अभियंता, ठेकेदार और सभी मजदूर अंगरेजी से अपरिचित हैं. सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं. लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है. निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है. किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है. न्यायलय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है. हर विषय और विधा में यह उलझन है. मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत हा एक मंच ऐसा है जहाँ ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सके तो...? सोचें...

भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर पाँच सितारेवाले होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा. राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है जिसका आशय यह है कि वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है. भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए. लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है. कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे. भाषा का जितना विस्तार इन दिनों ने किया अन्यों ने नहीं. शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं.

चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे. क्या उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रामाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हाँ' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है. शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इन दोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ धरती से संपर्क कर सकें. अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है. यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है.

भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है. विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है.
***
नवगीत:

आँचल मैला
मत होने दो...
*
ममता का
सागर पाया है.
प्रायः भीगे
दामन में.
संकल्पों का
धन पाया है,
रीते-रिसते
आँचल में.
श्रृद्धा-निष्ठां को
सहेज लो,
बिखरा-फैला
मत होने दो.
आँचल मैला
मत होने दो...

*

माटी से जब
सलिल मिले तो,
पंक मचेगा
दूर न करना.
खिले पंक में
जब भी पंकज,
पुलक-ललककर
पल में वरना.
श्वास-चदरिया
निर्मल रखना.
जीवन थैला
मत होने दो.
आँचल मैला
मत होने दो...
***
नमन नर्मदा:
भव्य नर्मदा
शन्नो अग्रवाल
(रचनाकार भारत की बेटी किन्तु वर्तमान में इंग्लैंड निवासिनी हैं. परदेश में भी उनके मन-प्राण में भारत की माटी की खुशबू समाई रहती है. इस रचना में वे सनातन सौन्दर्यमयी नर्मदा के प्रति अपनी भावांजलि निवेदित कर रही हैं- सं.)

*
दिव्य नर्मदा को मैंने जाना जबसे
लिपट गयी हूँ इसके आलिंगन में
कल-कल में इसकी नवगीत भरे
शीतल,निर्मल धारा के स्पंदन में.

भव्य,शान्तिमय नवरूप धारिणी
सरस,सुगम वेग जल की धारा
छवि सुखद अवलोकन मन में कर
ह्रदय का दुख भी बह जाता सारा.

निश्छल,चपल लहरें भिगो के आयें
छूकर स्वप्निल से अटल किनारों को
बार-बार नहलाती हैं वापस आकर
जल बीच में कितनी ही चट्टानों को.

पंछी आते जल पी उड़ते मंडराते ऊपर
अठखेली करके जल से करते गुंजन
कलरव से भर जातीं सभी दिशायें तब
फेनिल जल का लगता चांदी सा तन.

आता पथ में कोई अवरोह तनिक भी
नहीं जरा सा तब गति में अंतर आता
तन-मन सबके धोकर उज्ज्वल करती
मिल प्रवाह में पाप-मैल सब बह जाता.
८-१०-२००९
***
दोहा गीत
*
ब्रम्ह देव बरगद बसें, देवी नीम निवास
अतिप्रिय शिव को धतूरा, बेलपत्र भी ख़ास
*
देवी को जासौन प्रिय,
श्री गणेश को दूब
नवमी पूजें आँवला
सुख बढ़ता है खूब
हरसिंगार हरि को चढ़े,
हो मनहर श्रृंगार
अधर रचाए पान से
राधा-कृष्ण निहार
पुष्प कदंबी कह रहा, कृष्ण कहीं हैं पास
*
कौआ कोसे ढोर कब,
मरते छोड़ो फ़िक्र
नाशुकरों का क्यों करें
कहो जरा भी जिक्र
खिलता लाल पलाश हो,
महके महुआ फूल
पीपल कहता डाल पर
डालो झूला, झूल
भुनती बाली देख हो, होली का आभास
*
धान झुका सरसों तना,
पर नियमित संवाद
सीताफल से रामफल,
करता नहीं विवाद
श्री फल कदली फल नहीं,
तनिक पलते बैर
पुंगी फल हँस मनाता सदा
सभी की खैर
पीपल ऊँचा तो नहीं, हो जामुन को त्रास
***
दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
८-१०-२०१८
***

आदि शक्ति वंदना
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..

परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..

दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..

मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.

ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
८-१०-२०१०
***

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2022

मुक्तिका, मुक्तिका, पैर, दुर्गा पूजा में सरस्वती, हिंदी ग़ज़ल, मुक्तक, दोहा, नवगीत

***
मुक्तिका
हुआ है आप बेघर घर, घिरा जब से मकानों से।
घराने माँगते हैं रहम अब तो बेघरानों से।।

कसम खाई कहेगा सच, सरासर झूठ बोलेगा।
अदालत की अदा लत जैसी, बू आती बयानों से।।

कहीं कोई, कहीं कोई, कहीं कोई करे धंधा
खुदा रब ईश्वर हमको बचाना इन दुकानों से।।

कहीं एसिड, कहीं है रेप-मर्डर, आशिकों पे थू।
फरेबों में न आना, दूर रहना निगहबानों से।।

ज़माना आ गया लिव इन का, है मरने से भी बदतर।
खुदाया छुड़ाना ये लत हमारे नौजवानों से।।

कहीं ये टैक्स लेकर बादलों को मार न डालें।
खुदा महफूज़ रक्खे आसमां को हाकिमानों से।।

चलाती हैं कुल्हाड़ी आप अपने पैर पर रस्में।
बचे इंसान खुद मजहबपरस्ती से, 'मशानों से।।
७-१०-२०२२
***
माँ सरस्वती के द्वादश नाम
माँ सरस्वती के स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक याद न हो तो श्रद्धा सहित इन १२ नामों का जप करें -
हंसवाहिनी बुद्धिदायिनी भारती।
गायत्री शारदा सरस्वती तारती।।
ब्रह्मचारिणी वागीश्वरी! भुवनेश्वरी!
चंद्रकांति जगती कुमुदी लो आरती।।
***
हिंदी की शब्द सामर्थ्य
*
प्रभु के हों तो "चरण"
आगे बढ़े तो "क़दम"
चिन्ह छोड़े तो "पद"
प्रहार करे तो 'पाद'
बाप की हो तो "लात"
अड़ा दो तो "टाँग"
फूलने लगें तो "पाँव"
भारी हो तो "पैर"
पिराने लगे तो ''गोड़''
गधे की पड़े तो "दुलत्ती"
घुँघरू बाँध दो तो "पग"
भरना पड़े तो ''डग''
खाने के लिए "टंगड़ी"
खेलने के लिए "लंगड़ी"
***
विमर्श
दुर्गा पूजा में सरस्वती की पूजा का विधान ?
*
बंगला भाषी समाज में दुर्गा पूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव,गणेशजी,लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी और कार्तिक जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है। मध्य तथा उत्तर भारत यह प्रथा नहीं है।
श्रीदुर्गासप्तशती पाठ (गीताप्रेस, गोरखपुर) के पंचम अध्याय, श्लोक १ के अनुसार -
ॐ घण्टाशूलहलानि शंखमूसले चक्रं धनुसायकं हस्ताब्जैर्धतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्य प्रभां।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीं।।
अर्थात महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल, हल,शंख,मूसल,चक्र,धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कांति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में ही निम्नलिखित एक श्लोक के द्वारा इस बात का ध्यान किया गया है।
पंचम अध्याय के ऋषि रूद्र, देवता महासरस्वती, छंद अनुष्टुप, शक्ति भीमा, बीज भ्रामरी, तत्व सूर्य है। यह अध्याय सामवेद स्वरूप कहा गया है। दुर्गा स्पृशति के उत्तर चरित्र के पथ में इसका विनियोग माता सरस्वती की प्रसन्नता के लिए ही किया जाता है।
ईश्वर की स्त्री प्रकृति के तीन आयाम दुर्गा(तमस-निष्क्रियता), लक्ष्मी(रजस-जुनून,क्रिया) तथा सरस्वती (सत्व-सीमाओं को तोड़ना,विलीन हो जाना) है।जो ज्ञान की वृद्धि के परे जाने की इच्छा रखते हैं, नश्वर शरीर से परे जाना चाहते हैं, वे सरस्वती की पूजा करते हैं। जीवन के हर पहलू को उत्सव के रूप में मनाना महत्वपूर्ण है। हर अच्छे भावों से जुड़े रहना अच्छी बात है।
विभिन्न मतों में कहीं न कहीं कुछ समानताएँ भी हैं। दुर्गापूजा में माँ के साथ उनकी सभी सन्तानों और पति की भी पूजा होती है। इसका कारण यह है कि दैत्यों के विनाश में इनका तथा अन्य देवी-देवताओं का भी साथ था। सभी देवताओं की एक साथ पूजा होने के कारण ही इस पूजा को 'महापूजा' कहा गया है। साधारणतः इसे महाषष्ठी, महासप्तमी, महाष्टमी, महानवमी, महादशमी के नाम से जाना जाता है।
वस्तुत: लंका युद्ध के समय भगवान राम ने सिर्फ माँ दुर्गा की पूजा की थी। कालांतर में ऐसा माना गया कि माँ दुर्गा अपने मायके आती हैं तो साथ में अपने संतान और पति को भी लातीं हैं या संतान उनसे मिलने आतीहैं, इसलिए सबकी पूजा एक साथ की जाने लगी। यह पूजा बहुत बड़ी पूजा है और इतनी बड़ी पूजा में देवी-देवताओं के आवाहन के लिए बुद्धि, ज्ञान, वाकशक्ति, गायन, नर्तन आदि की आवश्यकता होती है। इनकी अधिष्ठात्री शक्ति होने के नाते भी माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
स्पष्ट है कि माँ दुर्गा की पूजा में अन्य देवी-देवताओं के साथ सरस्वती जी की पूजा बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्थक है। इस स्वस्थ्य परंपरा को अन्यत्र भी अपनाया जाना चाहिए।
यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ सरस्वती मंदिरों को शक्ति पीठ की मान्यता प्राप्त है। वहाँ सरस्वती पूजन दुर्गा पूजन की ही तरह किया जाता है और बलि भी दी जाती है। ऐसे मंदिरों में मैहर का शारदा मंदिर प्रमुख है जिन्हें एक ओर आल्हा-ऊदल ने शक्ति की रूप में आराधा तो दूसरी ओर उस्ताद अलाउद्दीन खान ने सारस्वत रूप में उपासा।
७-१०-२०२१
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
मुक्तक
चुप्पियाँ बहुधा बहुत आवाज़ करती हैं
बिन बताये ही दिलों पर राज करती हैं
बनीं-बिगड़ी अगिन सरकारें कभी कोई
आम लोगों का कहो क्या काज करती हैं?
***
दोहा सलिला
*
माँ जमीन में जमी जड़, पिता स्वप्न आकाश
पिता हौसला-कोशिशें, माँ ममतामय पाश
*
वे दीपक ये स्नेह थीं, वे बाती ये ज्योत
वे नदिया ये घाट थे, मोती-धागा पोत
*
गोदी-आंचल में रखा, पाल-पोस दे प्राण
काँध बिठा, अँगुली गही, किया पुलक संप्राण
*
ये गुझिया वे रंग थे, मिल होली त्यौहार
ये घर रहे मकान वे,बाँधे बंदनवार
*
शब्द-भाव रस-लय सदृश, दोनों मिलकर छंद
पढ़-सुन-समझ मिले हमें, जीवन का आनंद
*
नेत्र-दृष्टि, कर-शक्ति सम, पैर-कदम मिल पूर्ण
श्वास-आस, शिव-शिवा बिन, हम रह गये अपूर्ण
*
भूमिपुत्र क्यों सियासत, कर बनते हथियार।
राजनीति शोषण करे, तनिक न करती प्यार।।
*
फेंक-जलाएँ फसल मत, दें गरीब को दान।
कुछ मरते जी सकें तो, होगा पुण्य महान।।
*
कम लागत हो अधिक यदि, फसल करें कम दाम।
सीधे घर-घर बेच दें, मंडी का क्या काम?
*
मरने से हल हो नहीं, कभी समस्या मान।
जी-लड़कर ले न्याय तू, बन सच्चा इंसान।।
*
मत शहरों से मोह कर, स्वर्ग सदृश कर गाँव।
पौधों को तरु ले बना, खूब मिलेगी छाँव।।
*
७.१०.२०१८
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
७-१०-२०१०
***

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

सॉनेट, दशहरा, नव गीत, नदी, गणपति, मंदिरों में स्वर्ण

सॉनेट
दशहरा
दश हरा, मन जीत जाता
पंच ज्ञानेंद्रिय न रीतें
पंच कर्मेंद्रिय न बीतें
ईश पद सिर सिर नवाता।

नाद प्रभु का गान करता
ताल हँस संगति निभाता
थाप अविचल संग आता
वाक् लहरित तान भरता।

शब्द आप निशब्द होते
अर्थ अपने अर्थ खोते
जागते नहिं, नहीं सोते।

भाव हो बेभाव जाता
रसिक रस में डूब जाता
खुद खुदी को, खुदा पाता।
संवस
६-१०-२०२२
•••
नव गीत
*
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
छायद तरु
नर बना कुल्हाड़ी
खोद रहा अरमान-पहाड़ी
हुआ बस्तियों में जल-प्लावन
मनु! तूने ही बात बिगाड़ी।
अनगिन काटे जंगल तूने
अब तो पौधा नया लगा
*
टेर; नहीं
गौरैया आती
पवन न गाती पुलक प्रभाती
धुआँ; धूल; कोलाहल बेहद
सौंप रहे जहरीली थाती
अय्याशी कचरे की जननी
नाता एक न नेह पगा
*
रिश्तों की
रजाई थी दादी
बब्बा मोटी धूसर खादी
नाना-नानी खेत-तलैया
लगन-परिश्रम से की शादी
सुविधा; भोग-विलास मिले जब
संयम से तब किया दगा
*
रखा काम से
काम काम ने
छोड़ दिया तब सिया-राम ने
रिश्ते रिसती झोपड़िया से
बेच-खरीदी करी दाम ने
नाम हुआ पद; नाम न कोई
संग रहा न हुआ सगा
*
दोष तर्जनी
सबको देती
करती मोह-द्रोह की खेती
संयम; त्याग; योग अंगुलियाँ
कहें; न भूलो चिंतन खेती
भौंरा बना नचाती दुनिया
मन ने तन को 'सलिल' ठगा
***
गीत:
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने, नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
*
नदी भावना की, बहे हर-हराकर
नदी कामना की, सुखद हो दुआ कर
नदी वासना की, बदल राह, गुम हो
नदी कोशिशों की, हँसें हम बहाकर
नदी देश की, विश्व बन फल रही है
नदी मर रही है
६-१०-२०१९
***
गणपति वंदन
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
६-१०-२०१९
***
विमर्श :
मंदिरों का स्वर्ण मंडन
*
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी आदि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड' अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे बाढ़ में सर्वस्व गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से रोजगार का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
*

बुधवार, 5 अक्टूबर 2022

रेफ, नव गीत, पज्झटिका, सिंह, छंद

छंदशाला ३५
पज्झटिका छंद 
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल व डिल्ला छंद)
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, पदांत बंधन नहीं, ८+गुरु+४+गुरु, चौकल वर्जित।
   
लक्षण छंद-
पज्झटिका मात्रा सोलह है।
अठ पे फिर चौ पे गुरु शुभ है।।
जगण न चौकल में आ पाए।
काव्य कसौटी जीत दिलाए।।

उदाहरण-
जन गण का मन हो न अब दुखी।
काम करे सरकार बहुमुखी।।

भ्रष्टाचार न हो अब हावी।
वैमनस्य हो भाग्य न भावी।।

सद्भावों को मौका देंगे।
किस्मत अपनी आप लिखेंगे।।

नहीं सियासत के गुलाम हो।
नव आशा के बीज नए बो।।

स्वेद-परिश्रम की जय बोलें। 
उन्नति का ताला झट खोलें।।
४-१०-२०२२
•••
छंदशाला ३६
सिंह छंद 
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला व पज्झटिका छंद)
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, आदि II अंत IIS ।
   
लक्षण छंद-
लघु पदादि दो, अंत सगण हो।
समधुर छंद सरस शुभ प्रण हो।।
सिंह शुभ नाम छंद का रखिए।
रचिए कहिए सुनिए गुनिए।।

उदाहरण 
हिलमिलकर रह साथ विहँसिए।
सुमन सदृश खिल, खूब महकिए।।

तितली निर्भय उड़कर रस ले।
जग-जीवन का मौन निरखिए।।

शंकर रहता है कंकर में
ठुकरा कभी न नाहक तजिए।।

विजयादशमी जीतें खुद को
बिन कुछ माँगे प्रभु को भजिए।।

जिसके मन में चाहें रखना
उसके मन में खुद भी बसिए।।

वह न कहाँ है? सभी जगह है।
नयन मूँद मन मंदिर लखिए।।

अपना कौन?, कौन नहिं अपना?
सबमें वह, सबके बन रहिए।।
विजयादशमी ५-१०-२०२२
•••

विमर्श : छंद - संकुचन और विस्तार १
*
- छंद क्या?
= जो छा जाए वह छंद।
- क्या सर्वत्र छा सकता है 
= प्रकाश?
- प्रकाश सर्वत्र छा सकता तो छाया तथा ग्रहण न होते। सर्वत्र छा सकती है ध्वनि या नाद।
= क्या ध्वनि या नाद छंद है?
- नहीं, ध्वनि छंद का मूल है। जब नाद की बार-बार आवृत्ति हो तो निनाद जन्मता है। 
निनाद में लयखंड समाहित होता है। 
लयखंड की आवृत्ति कर छंद रचना की जाती है।
निनाद के उच्चार को उच्चार काल की दृष्टि से लघु उच्चार तथा गुरु उच्चार में वर्गीकृत किया गया है।
सर्वमान्य है कि वाक् का व्यवस्थित रूप भाषा है। 
प्रकृति में सन् सन्, कलकल, गर्जन आदि ध्वनियाँ अंतर्निहित हैं। 
सृष्टि का जन्म ही नाद से हुआ है।
जीव जन्मते ही ध्वनि का उच्चार कर अपने पदार्पण का जयघोष करता है।
कलरव, कूक, दहाड़ आदि में रस, लय तथा भाव की अनुभूति की जा सकती है। 
क्रौंच-क्रंदन की पीर ही प्रथम काव्य  रचना का मूल है। 
वाक् के उच्चार काल के आवृत्तिजनित समुच्चय विविध लयखंडों को जन्म देते हैं।
सार्थक लयखंड एक की अनुभूति को अन्यों तक संप्रेषित करते हैं। 
लोक इन लय खंडों को प्रकृति तथा परिवेश (जीव-जंतु) से ग्रहण कर उनका दोहराव कर बेतार के तार की तरह स्वानुभूति को अभिव्यक्त और प्रेषित करता है।
                                क्रमशः

विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल 
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '

१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य

२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा

३. राष्ट्र, ड्रा

जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्‍स में ड्‍ स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता। 

ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,

जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास। 

संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है।  इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं। 

''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है। 

- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त  अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि।  यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की। 
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि। 

राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।

बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।

हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।

बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।

रेफ का अर्थ:

-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.

-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।

रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में

हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?

यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।

हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।

रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***
नव गीत
*
हम सब
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.


फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.

खाई ठोकर
आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.

मिले सफलता
मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
१-१०-२००९
***