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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

अफ्रीका डायरी, कोमलचंद जैन, पुरोवाक्, पर्यटन, संस्मरण,अभियंता

पृष्ठ १७३ 
हीरक खान फिंच की शोभित, ज्वालामुखी मुहाना। 
किमबर्ले की शान भव्य यह, वातावरण सुहाना।।
२०६ 
सेंट्रल रेन्ड रिफायनरी में स्वर्ण पिघलता। 
ढलता छड़ में; चकाचौंध कर दिव्य दमकता।।
२१२
भूगर्भीय खदान स्वर्ण की; करे अचंभित। 
ड्राइव शैफ्ट रीफ पाइल चैंबर लख विस्मित।।
प्लांट मिलिंग फ़िल्टर के आप न जानें-
माटी से सोना निकाल लड़ते दीवाने।।
२२६ 
तितलियाँ

यादों की बारात तितलियाँ.
क़ुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख़-जवां जज़्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ 
२८३ 
इम्पाला में विश्व की सबसे बड़ी खदान। 
जहाँ निकलता प्लेटिनम बसबसे ज्यादा जान।।
आभूषण बन बढ़ाता रूपसियों का रूप। 
कोमलांगिनी दमकतीं ब्यूटी लगे अनूप।।
३०६-३०७ 
चट्टानें मन मिहातीं, हैं नाना आकार। 
कैल्डन सरिता तीर पर, विस्मित रहे निहार।।
खीस निपोरे है शिखर, दंत शिखर है नाम। 
देख कुदरती करिश्मे, करिये पुलक प्रणाम।।
३४६ 
हिन्दू मंदिर शिखर हैं भक्ति भाव साकार। 
मंगल चिह्न प्रतीक हैं, ईश्वर करुणागार।।
शांत चित्त प्रभु पूजिए, तजकर द्वेष विकार। 
कंकर में शंकर बसे, हो नत शिर स्वीकार।।
४१९ 
त्सोडिलो पर्वत शिखर पर, बुशमैनों ने खूब। 
शैलचित्र हैं बनाये, आदिम रंग में डूब।।
४२३ 
शैल चित्र हैं धरोहर, खुद जीवित इतिहास। 
पशु-पक्षी खंचित यहाँ, जो हैं खासुलखास।।
आदि मनुष्यों की कला, देख हुआ जग दंग।
समय शिला पर अमित हैं, बुशमैनों के रंग।।
४२४ 
नदी नदी से मिल गले, गाए कलकल गीत। 
मीत प्रीत से मिल गले, नित लिखिए नव प्रीत।।
४६१
प्रभु की अंगुली की तरह, पर्वत का आकार।
कुदरत करती करिश्मा, हम जाते दिल हार।।
४७७ 
वनकन्याएँ मोह लें, मादक महके रूप। 
सदियों से लड़ते रहे, इनकी खातिर भूप।।
४८८ 
एक दूजे के कांध चढ़, छू लेंगे आकाश। 
शिलाखंड यह सोचते, बँधे स्नेह के पाश।।
*    
 

    
    
 
   


पुरोवाक्
''अफ्रीका डायरी'' : अभियंता की कहानी, अभियंता की जुबानी 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                          विश्ववाणी हिंदी वांग्मय की प्रमुख सृजन विधाओं में से एक है संस्मरणात्मक यात्रा वृत्तांत लेखन। यह विधा अत्यंत महत्वपूर्ण किन्तु अपेक्षाकृत अधिक श्रम साध्य है। इसलिए इस विधा में सृजन अपेक्षाकृत कम किया जा रहा है। संस्मरणात्मक यात्रा वृत्तांत पर प्राप्त पुस्तकों में अधिकांशत: तीर्थ स्थलों, प्राकृतिक रमणीय स्थलों, ऐतिहासिक स्थलों आदि से संबंधित होती हैं जिनमें अधिकांशत: जानकारियों की पुनरावृत्ति होती है। ''अफ्रीका डायरी'' संबंधी चर्चा के पूर्व प्रासंगिक और उपयोगी होगा यदि हिंदी में पर्यटन साहित्य की स्थिति पर विमर्श हो। 

पर्यटन और पर्यटक 

                          पर्यटन से आशय ऐसी यात्रा से है जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवृद्धि भी हो। पर्यटक यात्रा के अपने सामान्य वातावरण से भिन्न स्थानों पर एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए जाते हैं। उनका उद्देश्य मनोरंजन, ज्ञान वृद्धि, व्यापार, मित्र बनाना आदि होता है।  भारत आदिकाल से अपनी समृद्धि, प्राकृतिक सौंदर्य, मिलनसारिता, सद्भाववृत्ति तथा सहनशीलता के लिए जाना जाता रहा है। इसलिए पूर्व वैदिक काल से ही भारत के किसी स्थान में अन्यत्र से साधु-संत (अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम आदि), इतिहासविद, विद्यार्थी और व्यापारी आते-जाते रहे हैं। ' वसुधैव कुटुंबकम्', 'विश्वैक नीड़म्' जैसी उक्तियाँ प्रमाणित करती हैं कि भारत के जीवन मूल्यों में विश्व को एक परिवार कहा गया है। भारत में पर्यटकों को अजनबी और अवांछित नहीं 'अतिथि' माना जाता है और 'अतिथि देवो भव' के अनुसार उनका यथेष्ट सत्कार किया जाता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में मानव के विकास हुए विश्व में शांति के लिए पर्यटन को ऋषि-मुनियों ने आवश्यक कहा तथा वे संत स्वयं भी निरंतर भ्रमणरत रहते थे। सत्यनारायण की कथा तथा अन्य धार्मिक कथा-कहानियों में पर्यटन पर आई विपदाओं और उनसे मुक्त होने के वर्णन उपलब्ध है। ३०० ईसा पूर्व के पर्यटक मेगस्थनीज, सातवीं सदी के विख्यात पर्यटक व्हेनसांग, ८ जुलाई १९९७ को भारत आया वास्कोडिगामा आदि अपनी यायावर वृत्ति के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। पंचतंत्र के अनुसार -"विद्याक्तिम शिल्पं तावन्नाप्यनोती मानवः सम्यक यावद ब्रजति न भुमो देशा - देशांतर:।" पाश्चात्य विद्वान संत ऑगस्टीन के अनुसार ''विश्व दर्शन के बिना ज्ञान अधूरा है।'' पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल कथा, सिंहासन बत्तीसी, सिंदबाद की कहानियाँ   आदि के सृजन का आधार पर्यटन ही है।  १९४१ में हुन्जिकर और क्राइफ ने पर्यटन को 'गैर निवासियों की यात्रा और उनके ठहरने से संबंधित प्रक्रियाओं' के रूप में परिभाषित किया। वस्तुत: पर्यटन अपने मूल स्थान से किसी अन्य स्थान तक किया गया अल्पकालिक गमन और प्रवास है। पर्यटन और प्रवास को उद्देश्य के अनुसार शैक्षिक, स्वास्थ्य, मनोरंजन, पर्वतारोहण, वन्य, सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्यिक, भ्रमण, विकास, निर्माण, सामूहिक-वैयक्तिक आदि वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। अपेक्षाकृत नवीन 'निर्माणात्मक पर्यटन' को यूनेस्को ने क्रिएटिव सिटी नेटवर्क के माध्यम से प्रामाणिक अनुभव माना है। हिंदी में लिखित समसामयिक यात्रा-वृत्तांतों में  यात्रा का आनंदः दत्तात्रेय बालकृष्ण 'काका' कालेलकर, किन्नर देश में: राहुल सांकृत्यायन, अरे यायावर रहेगा यादः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', ऋणजल धनजलः फ़णीश्वरनाथ रेणु, आख़िरी चट्टान तकः मोहन राकेश, चीड़ों पर चाँदनीः निर्मल वर्मा, स्पीति में बारिशः कृष्णनाथ, यूरोप के स्केच: रामकुमार आदि प्रमुख हैं। जबलपुर में रचित यात्रा वृत्तांतों में स्मृतिशेष अमृतलाल वेगड़ ने  सौंदर्य की नदी नर्मदा १९९२, तीरे-तीरे नर्मदा २०११, नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो २०१५ व अमृतस्य नर्मदा तथा शिवकुमार तिवारी तथा गोविन्द प्रसाद मिश्र ने नर्मदा की धारा से २००७ उल्लेखनीय हैं।

संस्मरण 

                          अतीत में की गयी गतिविधियों को पश्चात्वर्ती काल में स्मरण कर लिपिबद्ध करना संस्मरण लेखन कहा जाता है। संस्मरण अतीत पर आधारित होता है इसमें लेखक अपने यात्रा, जीवन की घटना, रोचक पल, आदि को सहेज कर लिखता है जिसे पढ़कर दर्शक को ऐसा महसूस होता कि वह उस अतीत की घटना से रूबरू हो रहा है उसको आत्मसात कर रहा है। संस्मरण शब्द 'स्मृ' धातु से 'सम' उपसर्ग और प्रत्यय 'अन' लगाकर संस्मरण शब्द बनता है। 'संस्मरण' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, सम+स्मरण | इसका अर्थ सम्यक् स्मरण अर्थात किसी घटना, किसी व्यक्ति अथवा वस्तु का स्मृति के आधार पर कलात्मक वर्णन करता है जो स्मरण कहलाता है। इसमें स्वयं की अपेक्षा उस घटना का अधिक महत्व होता है जिसके विषय में लेखक स्मरण लिख रहा होता है । संस्मरण की सभी घटनाएँ सत्यता पर आधारित होती हैं, कल्पना का अधिक प्रयोग नहीं किया जाता। संस्मरण लेखक जो कुछ स्वयं देखता और अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियाँ तथा संवेदनाएँ संस्मरण में अंतर्निहित होती हैं। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है। इतिहासकार के समान वह केवल यथा-तथ्य विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। संस्मरण व्यक्ति, स्थान, घटना, यात्रा, युद्ध, पर्व, उत्सव, प्रतियोगिता, मेले आदि से संबंधित होते हैं। हिंदी के प्रमुख संस्मरण लेखकों में सर्वश्री महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्री नारायण चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, पद्मसिंह, हरीभाऊ उपाध्याय, महादेवी वर्मा, वृंदावनलाल वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, इलाचंद्र जोशी, मन्मथनाथ गुप्त, श्रीराम शर्मा, शिवपूजन सहाय, जैनेन्द्र कुमार, राहुल संकृत्यायन आदि हैं जबलपुर में संस्मरण लेखन की परंपरा बहुत लंबी नहीं है। समसामयिक संस्मरणात्मक कृतियों में साहित्यकारों के संस्मरण - डॉ. आत्मानंद मिश्र १९८४, वार्ता प्रसंग - हरिकृष्ण त्रिपाठी १९९१, चरित चर्चा - हरिकृष्ण त्रिपाठी २००४ डॉ.सुधियों में राजहंस - जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' २००६, आदि महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त यात्रावृत्तात्मक संस्मरणों में अमृतलाल वेगड़ लिखित सौंदर्य की नदी नर्मदा १९९२, तीरे-तीरे नर्मदा २०११, नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो २०१५, अमृतस्य नर्मदा तथा नर्मदा की धारा से - शिवकुमार तिवारी तथा गोविन्द प्रसाद मिश्र २००७ उल्लेखनीय हैं।

मेरा सफर-मेरी डगर

                          संस्कारधानी जबलपुर निवासी अभियंता कोमलचंद जैन की सद्य लिखित यात्रावृत्तात्मक संस्मरणात्मक कृति 'अफ्रीका डायरी' उनके वैयक्तिक जीवनानुभवों का जीवंत-रोचक-प्रामाणिक दस्तावेज है। इस कृति को किसी एक वर्ग में वर्गीकृत करना कृति के साथ न्याय न होगा। इस कृति में विविध वर्गों में वर्गीकृत किये जाने के तत्व सुसमन्वित हैं। इसमें आत्मकथात्मकता के साथ-साथ प्राकृतिक, देशज, शैक्षिक, सामाजिक, भौगोलिक, भूगर्भीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रशासकीय तथा निर्माण अभियांत्रिकी संबंधी अनुभवों और विवरणों ने इसे 'बहुआयामी' या 'बहुरंगीय' और 'बहुस्तरीय' बना दिया है। मुझे यह कहने में किंचित्मात्र भी संकोच नहीं है कि यह कृति हिंदी में यात्रावृत्तात्मक-संस्मरणात्मक साहित्य के सागर में अपनी मिसाल आप है। इस कृति का कृतिकार पेशेवर या आदतन लेखक नहीं है, यही उसकी विशेषता और न्यूनता है। विशेषता इसलिए कि उसने जब जहाँ जाओ जैसा पाया, देखा उसे पूरी ईमानदारी से पाठकों के सामने रख दिया, न्यूनता इसलिए कि साहित्यिक मानकों, धारणाओं या अन्य कृतियों से परिचित न होने के कारण लेखक पर किसी का प्रभाव नहीं है, वह किसी या किन्हीं के द्वारा निर्दिष्ट राह का राही न होकर अपनी राह खुद बना सकने के लिए प्रयासरत है।

योग: कर्मसु कौशलम्

                              सनातन सांस्कृतिक मूल्यों, समानताओं, विविधताओं तथा सहिष्णुता के लिए युग-युग से जाने गए भारत के हृद प्रदेश के सांस्कृतिक चेतना संपन्न शहर के मध्यमवर्गीय, पंथिक आचार-विचार-आहार के प्रति प्रतिबद्ध जैन परिवार का युवा अभियंता जो देश के एक भाग में मिले प्रशासकीय कटु अनुभवों तथा सामाजिक संकीर्णता से खिन्न है, सुदूर विदेश में मिले कार्य-अवसर की कसौटी पर अपने ज्ञान-कौशल-लगन की कड़ी परीक्षा होने की संभावना को जानते हुए भी चुनौती को न केवल स्वीकारता है अपितु प्रथम यात्रा में ही 'नेकी कर दरिया में डाल' की नीति अनुसार एक अपरिचित महिला की सहायता करने से भी नहीं हिचकता। लोकोक्ति है 'कर भला, होगा भला' आतिथेय के न आने, उस देश की भाषा न जानने, कोई परिचित न होने, जैसी विषमताओं के चक्रव्यूह से निकालने में उस भद्र महिला के पति श्री सप्रे 'डूबते को तिनके का सहारा ही नहीं होते', 'तारणहार' बन जाते हैं। 'अपने मुँह मिया मिट्ठू' बनने के आदी हमारे देश के नौकरशाह अहंकार में लीन होकर जिस ऊँच-नीच को प्राण-प्रण से पालते-पोसते हैं, विदेश में उसके लिए कोई स्थान ही नहीं है, अधीनस्थों के अभिवादन से आरंभ कर सबको समान समझने का भाव भारतीय लालफीताशाही को ग्रहण करना ही चाहिए। बहरहाल नित नए कड़वे-मीठे अनुभवों से दो-चार होता हुआ, 'अफ्रीका डायरी' का नायक देश-काल-परिस्थितियों से आँखें चार करते हुए, अपने बुद्धि-विवेक के बल पर एक और जातीय संस्था में व्याप्त संकीर्ण मानसिकता को अस्वीकारता है तो दूसरी ओर श्रीमद्भगवद्गीता में दिए गए अमर उपदेश 'योग: कर्मसु कौशलम्' के अनुसार अपने कर्म-कुशलता का प्रमाण देते हुए प्रथम निर्माणस्थली (सफारी) पर पहुँच जाता है। 

                              दैनंदिन कार्यों की जटिलताओं, विषमताओं और साधनहीनता के बीच निराश न होकर, सूझ-बूझ के साथ राह निकालकर आगे बढ़ने की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता सकल प्रस्तुति को पठनीय हुए सहज ग्रहणीय बनाती है। श्री जैन दो अतियों से खुद को दूर रख सके हैं- पहली आत्ममुग्धता और आत्मप्रशंसा तथा दूसरी आत्मगोपनता और अदृश्यता। वे घटनाओं का विवरण और वर्णन लगभग निरपेक्ष भाव से कर सके हैं। उन्होंने न तो पूरा श्रेय खुद लेने का प्रयास किया है, न ही अपने प्रयासों का श्रेय लेने से भागने  प्रवृत्ति दिखाई है। यह स्वाभाविक है कि सफलता और असफलता हर कार्य के साथ वैसे ही संलग्न होती है जैसे दिये के साथ ऊपर प्रकाश और नीचे अँधेरा। दोनों को स्वीकारने का साहस कम ही देखा जाता है। श्री जैन ने 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' की विरासत का समसामयिक सत्य से ताल-मेल स्थापित करते हुए सत्य को इस तरह बयान किया है कि कड़वाहट न्यूनतम हो।

जंबो, हुजंबो, सुजंबो 

                              भारत के ईमानदार राजनेताओं में से एक मोरारजी देसाई के कार्यकाल में अपनायी गयी सही नीति के प्रभाव में मिले अवसर का लाभ उठाते हुए लेखक २५ मार्च १९७९ को सेशेल्स, तंज़ानिआ और २६ मार्च २९७९ को इदारा या युजेन्ज़ी (लोक निर्माण विभाग मंत्रालय) पहुँचा। स्थानीय रीति-नीति, कर्मचारियों, भारतीय समाज आदि से परिचयोपरांत इरिंगा में कार्यस्थली का निरीक्षण करने के साथ स्वाहिली भाषा सीखने का श्रीगणेश किया। मई में सोंगेया-मकमबाको सड़क निर्माण कार्य (१३५ कि.मी.) के परियोजना यंत्री के पद पर कार्यारंभ करने के साथ, संगणक सीखने का श्रीगणेश किया। मई में ज़ंज़ीबार में नयी परियोजना, सितंबर में किबटी-लिंडी मार्ग आदि का कार्यारंभ करने के साथ-साथ स्थानीय वनों, मूल निवासियों, व्यवस्थाओं आदि के साथ ताल-मेल बैठते हुए भारतीय समाज को एकजुट कर पर्व-त्यौहार मनाने का लेखक ने रोचक वर्णन किया है। सोंगेया माम्बा से लेक मलाबी (१८० कि.मी.) सड़क विस्तार का आकलन करते हुए सपरिवार शुद्ध शाकाहारी होने के कारण हो रही असुविधाओं और हर स्थान पर इस कारण आकर्षण का केंद्र बनने के साथ-साथ 'असहमति के लिए सहमति' बनाने का भगीरथ प्रयास पाठकों के लिए रोचक है। १६ अप्रैल १९८० को भारतीय प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी जी से दारेस्सलाम यात्रा में भेंट, मात्र ३ माह की अल्पावधि में सड़क निर्माण विभाग के डायरेक्टर पद तक पहुँचने तक के अनुभव पाठक को बाँधे रखते हैं। 

                              जनवरी १९८१ में केन्या (नैरोबी) तथा तंज़ानियामें माउंट मेरु तथा माउंट किलमंजारो का भ्रमण, मई १९८१ में नए अनुबंध के तहत उपांगा के अनुभव पाठक की जानकारियों में वृद्धि करने के साथ उसे मानसिक रूप से समृद्ध भी करते हैं। लेखक का दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद से भी दो-चार होना पड़ा जब उसे ''नॉन व्हाइट्स आर नॉट अलाउड' के सूचनापटल देखने मिले। यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि किसी समय लेखक के गृह नगर जबलपुर में कैंट स्थित किंग्स गार्डन अब टैगोर उद्यान) में संकेत पटल पर लिखा था 'इंडियंस एन्ड डॉग्स आर नॉट अलाउड', ऐसे पटल सत्तर के दशक में हटा दिए गए। ज़ाम्बिया तथा मिस्र के जीवंत यात्रानुभवों के साथ संलग्न मानचित्रों से कृति की प्रामाणिकता में वृद्धि हुई है। इन संस्मरणों में विदेशों में जा बसे भारतीयों और भारत से जा रहे भारतीयों की मानसिकता में साम्य और अंतर भी वर्णित है। भारतीय भारत में विविध मतों, पंथों, संप्रदायों, वैचारिक प्रतिबद्धताओं में विभक्त प्रतीत होते हैं किन्तु विदेशों में वे एकता के सूत्र में बँध जाते हैं। पर्व-त्यौहार भारतीयों की एकता को सुदृढ़ करते हैं। भारत में भले ही भारतीय एक-दूसरे के उपासना स्थल पर न जाएँ, एक-दूसरे के पर्व न मनाएँ पर विदेशों में वे सहभागी हो जाते हैं। भारतीयों में हिंदी बोलने को लेकर हीनग्रंथि है, अवसर मिलते ही वे अंग्रेजी में बोलने या लिखने लगते हैं। विदेशों में जा बसे भारतीय खुद को स्वदेश में रह रहे भारतीयों से श्रेष्ठ समझते हैं। अफ़्रीकी देशों में भारत, भारतीय नेताओं और भारतीयों के प्रति सम्मान भाव होने की प्रतीति इन संस्मरणों से होती है। ज़िम्बावे के विविध कबीलों के संबंध में भी लेखक जानकारी देता है। यह भी कि भारत की ही तरह ज़िम्बाव्वे में भी बहुत सी भाषाएँ और भाषा समस्या है। ज़िम्बाव्वे में १-६ सितंबर १९८६ के बीच हरारे में नॉन अलाइंड समिट हेतु भारत के प्रधान मंत्री के रूप में श्री राजीव गाँधी की यात्रा और उनसे लेखक की भेंट का वर्णन रुचिकर है। 

हमना ताबू 

                              लेखक के कार्यानुभव, अवदान तथा उपयोगिता का आकलन कर उसे जिम्बाव्वे के प्रधानमंत्री श्री रॉबर्ट मुगाबे की अनुशंसा पर मुख्य अभियंता  के पद पर नियुक्ति मिलना यह दर्शाता है कि विदेशों में कार्य कुशलता की कदर होती है जबकि भारत में लालफीताशाही के कारण लेखक के लिए कार्य अवसर ही शेष नहीं रह गए थे। शोचनीय है कि प्रतिभा पलायन से देश ने कितना नुकसान उठाया है। कार क्रय करने के लिए आयकर विभाग द्वारा लेखक को मासिक कटौती की राशि ऋण की क़िस्त के रूप में चुकाने की अनुमति और कर की गणना व समायोजन अनुबंध समापन के समय कर लिए जाने का उदाहरण भी यह इंगित करता है कि भारत में कार्य प्रणाली संबंधी विसंगतियाँ हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। एक अभियंता के नाते श्री जैन ने अंतर्राष्ट्रीय निर्माण कंपनियों द्वारा छोड़े गए कार्यों को विभाजित संसाधनों से पूर्ण करने की योजना बनाकर जीवन का सबसे कठिन फैसला किया। उन्हें 'ट्रबल शूटर' का विशेषण इसलिए दिया गया कि वे समस्या सामने आते ही 'हमना ताबू' (स्वाहिली शब्द अर्थात कोई समस्या नहीं) कहकर उसका स्वागत करते हुए समाधान करने लगते हैं। श्री जैन का मूल मंत्र है - 

'अपने सहायक आप हो, होगा सहायक प्रभु तभी।

बस चाहने ही से किसी को, सुख नहीं मिलता कभी।।

                              श्री जैन ने ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'' का पथ चुना, बिना फल की कामना किये, अपना श्रेष्ठ कर्म किया और प्रभु ने उनके मार्ग में आनेवाली हर बढ़ा को दूर करने के लिए किसी न किसी को अप्रत्याशित रूप से भेजा। उनके कार्य की गुणवत्ता, समयबद्धता, मितव्ययिता, लोकप्रियता तथा विवाद मुक्तता के पंचतत्वों को देखते हुए उनसे ज़िम्बाव्वे की नागरिकता ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया गया। चिन्होई में मंत्रालय की इमारत, नगरीय एवं ग्रामीण आवास योजनाएँ, राष्ट्रपति के लिए स्टेट गेस्ट हाउस की व्यवस्था आदि लगभग असंभव प्रतीत होते कार्यों को निर्धारित आर्थिक संसाधनों और समयावधि में गुणवत्ता सहित पूर्ण करने पर स्वयं राष्ट्रपति द्वारा श्री जैन को आभार दिया जाना उनकी श्रेष्ठता के साथ-साथ उस देश की व्यवस्था और राष्ट्रपति के उदार व्यक्तित्व के कारण संभव हुआ। क्या भारत में ऐसा संभव है? कोरोना महामारी के पूरे दौर में भारत में अभियंताओं ने अद्वितीय समर्पण, लगन और परिश्रम के साथ कार्य किया। पूरे देश में एक भी अस्पताल की इमारत नहीं गिरी। अत्यल्प संसाधनों और समय में आपातकालीन चिकित्सा भवन तैयार किये गए। कहीं भी यातायात संसाधनों (पुल-पुलिया, सड़क आदि), जल प्रदाय, मल निकासी, विद्युत् प्रदाय, विद्युत्-इलेक्ट्रॉनिक-या थर्मल उपकरणों के काम न करने के कारण रोगियों, जनता या प्रशासन को समस्या नहीं हुई। अभियंताओं तथा उनके अधीनस्थ कर्मचारियों ने जान जोखिम में डालकर रात-दिन कार्य किया किन्तु राष्ट्रपति जी, प्रधानमंत्री जी, यहाँ तक की अभियांत्रिकी विभागों के मंत्रियों-सचिवों या विभागाध्यक्षों और इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स (इण्डिया) जैसे संस्थाओं के पदाधिकारियों तक ने आभार का एक शब्द भी कहने की आवश्यकता अनुभव नहीं की। विश्व तमिल सम्मेलन मारीशस से संबंधित संस्मरण सुखद है। श्री जैन जहाँ-जहाँ भी गये हैं, वहाँ के लोकाचार, सामाजिक परिस्थितियों, दर्शनीय-पर्यटन स्थलों, जन-जीवन, शासन-प्रशासन आदि से संबंधित तथ्यों का समावेश करते गए हैं। इस कारण यह कृति केवल संस्मरण पुस्तक न रहकर संदर्भ ग्रंथ की तरह बहुउपयोगी हो गयी है।

                              बोत्सवाना में श्री जैन का कार्यकाल अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्ण, व्यवस्थित और सुविधाजनक होने का कारण उनका उच्च पद पर होना तथा उनके पूर्व उनकी ख्याति का पहुँच जाना था। इस भाग में विभागीय अधीनस्थों के आपसी टकराव, उच्च शिक्षा व पदोन्नति अवसरों के अभाव से उपजी कुंठा आदि प्रसंगों में श्री जैन की प्रबंधकीय और प्रशासनिक दक्षता के साथ-साथ अधीनस्थों के प्रति उनकी संवेदनशीलता का भी परिचय मिलता है। सिविल इंजीनियर होते हुए भी विद्युत्-यांत्रिकी संबंधी व्यवस्थाओं को बेहतर बनाने के प्रयास उनकी सामर्थ्य और रुचि के परिचायक हैं। कार्य छोड़ चुके ठेकेदारों के साथ बैठक कर उनकी समस्या जानना, उन्हें दुबारा कार्य करने के लिए तैयार करना, उनकी कठिनाइयाँ दूर करना सामान्यत: अभियंता अपना काम नहीं मानते किन्तु श्री जैन ने 'खोटे' कहे गए सिक्कों को काम में लाते हुए ;खरा' बनाने में सफलता प्राप्त कर सिद्ध किया कि दोष सिक्कों का ही नहीं, परखनेवालों का भी होता है। अभियांत्रिकी दृष्टि से अनुपयुक्त स्थानों और परिस्थितियों में सामान्य लीक से हटकर प्रयोग करते हुए सुरक्षापूर्वज स्तरीय कार्य पूर्ण करना, असाधारण पूर्वानुमान, कार्य कुशलता तथा समायोजन से ही संभव होता है। रेतीले नदी डेल्टा में कार्य कराना, दीमकों की बाम्बियों की मृदा का सड़क निर्माण में उपयोग करना, पानी की ढुलाई के लिए टैंकर न होने पर गधों से काम लेना, पुराने बंगले को स्टेट गेस्ट हाउस में तब्दील करना, पुराने फर्नीचर का नवीनीकरण, जनजातीय मुखियों से सद्भावनापूर्ण संबंध बनाना, अधीनस्थों को प्रशिक्षण अवसर उपलब्ध कराना, हर स्थान पर प्रवासी भारतीयों के साथ घुलना-मिलना, परिवार को पूरी तवज्जो देना, राजनैतिक जानकारियाँ रखना पर राजनीति में न उलझना, अन्यों को मदद देना और आवश्यक होने पर अन्यों से मदद लेने में अपने अहंकार को बाधक न होने देना श्री जैन की असाधारण विशेषता है। अपरिहार्य बुराइयों या कर्तव्यभाव रहित व्यक्तियों से टकराने में न घबरानेवाले प्रसंग यह बताते हैं कि भाई कोमलचंद कोमल ही नहीं हैं, अनिवार्य होने पर वे कठोर भी हो सकते हैं। 

                              तथाकथित उन्नत देशों द्वारा आउटडेटेड टेक्नोलॉजी देकर अपेक्षाकृत कम उन्नत देशों को पीछे धकेलने और शोषण करने की निंदनीय प्रवृत्ति की लेखक ने ठीक ही भर्त्सना की है। मोबाइल टेक्नोलॉजी आ जाने के बाद आउटडेटेड पेजर भारत में भेजकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कमीशन बाज प्रशासनिक अधिकारीयों ने भारतीय जनता की अकूत धन हानि इसी प्रवृत्ति के चलते की थी। चीनी कंपनियों द्वारा धोखाधड़ी और दबंगई को लेखक ने साहसपूर्वक झेला और किताब में लिखा है। आज लंका, नेपाल, मारीशस, पाकिस्तान आदि अनेक देश चीन की इस मानसिकता के शिकार हैं। 

असाते सना

                              सारत:, 'अफ्रीका डायरी' हिंदी साहित्य ही नहीं, भारत के अभियांत्रिकी और प्रशासनिक जगत के लिए भी संदेश देती कृति है। श्री कोमलचंद जैन, श्रो अमरेंद्र नारायण जैसे कुशल अभियंताओं की असाधारण निपुणता, कुशलता और अनुभवों का लाभ भारत की योजनाएँ बनाने में, स्मार्ट सिटी की कार्य योजनाएँ बनाने में लिया जा सके तो राजनैतिक और प्रशासनिक घुसपैठ की वजह से अभियांत्रिकी और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में हो रही छोटी-बड़ी गड़बड़ियों से निजात पाकर स्तरीय, कम खर्चीले, गुणवत्तामय, निर्माणकार्य द्रुत गति से पूर्णकर देश को उन्नति के नए शिखरों की ओर ले जाया जा सकेगा। यह कृति अभियांत्रिकी विभागों के हर उच्चाधिकारी की मेज पर, हर अभियाँत्रिकी महाविद्यालय के पुस्तकालय में,  इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजीनियर्स के हर केंद्र में होना चाहिए। मैं श्री जैन को इस सर्वोपयोगी कृति के प्रणयन हेतु ह्रदय से बधाई देता हूँ। श्री कोमलचंद जैन वास्तव में 'असाते सना' (स्वाहिली, बहुत धन्यवाद) के पात्र हैं। 

संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com

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विशिष्ट अभिव्यक्तियां

उन स्थानों या क्षेत्रों में जहां साहित्यिक इतिहास के संचय में महत्वपूर्ण साइटें हैं, पर्यटन संगठन अक्सर “साहित्यिक चलने”, “कवि-चलने” या “साहित्यिक मार्ग” (“लिटरेटोरन”) काम करते हैं, जो इच्छुक पार्टियों को इन साइटों (जैसे बी) गोएथे (पैदल) दूर, शिलर मार्ग)। मार्ग सुझावों में रुचि रखने वाले लोगों को क्षेत्र की साहित्यिक विरासत के करीब लाने और उन्हें (संभावित रूप से नवीनीकृत) यात्रा या क्षेत्र में लंबे समय तक रहने की व्यवस्था करने का कार्य है।
पर्यटक अनेक प्रकार की भौगोलिक मानचित्रों, उपकरणों व पुस्तकों का प्रयोग करते हैं। एक सही भौगोलिक मानचित्रावली, किसी भी पर्यटक के लिए सर्वप्रथम और मुख्य साधन है। बहुत पहले से ही मानव ज्ञात पृथ्वी का लघु नमूना बनाता रहा है। इस समय मापनी एवं प्रक्षेपों का विकास नहीं हुआ था। विद्वान अपने अनुमान से ही मानचित्र बनाते थे। अल-इदरीसी का बनाया मानचित्र इनमें प्रमुख है। आज के वर्तमान मानचित्रों में अक्षांश रेखाएँ एवं देशान्तर रेखाएँ दी हुई होती हैं जिनकी सहायता से किसी भी स्थल के लघु रूप का कागज पर सतही निरीक्षण किया जा सकता है। ये प्राय मापनी पर आधारित होते हैं। आधुनिक मानचित्र उपग्रहों की सहायता से बनाए जाते हैं जो बड़ी मापनी पर अत्यधिक उपयोगी होते है। मानचित्रावली में पर्यटन पुस्तिका, पर्यटन केंद्रों या विभिन्न स्थानों के पर्यटन विभागों के विवरण जहाँ से आसपास के पर्यटन स्थलों के विवरण और अतिथिगृहों के विवरण आसानी से मालूम हो सकें, दिशासूचक या कुतुबनुमा, विभिन्न प्रकार के आँकड़े इत्यादि होते हैं।

पर्यटन पुस्तिका, किसी भी पर्यटक के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। मुख्यतः इसमें पर्यटक के लिए दर्शनीय-स्थल के चित्रों की सहायता से स्थल की ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारी को बताया जाता है। पर्यटन पुस्तिका, पर्यटक को घूमने की योजना बनाने में सहायता प्रदान करती है। पुस्तिका में स्थानीय स्तर पर घूमने योग्य स्थानों का विवरण दिया होता है। इसमें उस स्थान की वर्तमान जानकारी पर्यटक को दी जाती है। इसमें यह भी बताया जाता है कि वहाँ किस प्रकार जाया जा सकता है और कौन सा मौसम वहाँ जाने के लिये अनुकूल होगा। पर्यटन पुस्तिका में स्थानीय ट्रेवल एजेंटो का पता दिया जाता है। सभी होटलों, क्लबों, सिनेमा घरों, बाजारों, मन्दिरों, सड़कों, टैक्सी स्टेंण्डों, सरकारी कार्यालयों, आदि का संक्षिप्त ब्योरा पर्यटन पुस्तिका में दिया होता है। पर्यटन पुस्तिका का प्रकाशन स्थानीय पर्यटन मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इसमें प्रामाणिक तथ्यों का समावेश किया जाता है।

स्थान निदेशक[संपादित करें]

विभिन्न स्थानों को बताता हुआ स्थान निदेशक सूचक

किसी भी पर्यटक के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण है कि वह अपने पूर्व निर्धारित स्थान पर आसानी से पहुँच सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए स्थानीय प्रशासन महत्त्वपूर्ण मार्गों एवं स्थानों पर स्थान निदेशक सूचकों का निर्माण करता है। इस प्रकार के सूचक पर्यटकों के साथ-साथ बाहरी प्रदेशों से आ रहे वाहन चालकों के लिए भी लाभदायक होते हैं। इन सूचकों में स्थानों के नाम के अलावा बाहरी आगन्तुकों के विश्राम लिए सराय, आरामगाह, डाक बंगले, अस्पताल, दूतावास, प्रमुख इमारतें, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, पुलिस स्टेशन, पूजा स्थल, आदि के संकेत दिए होते हैं ताकि पर्यटक आसानी से इन महत्त्वपूर्ण स्थानों पर जा सके।

मापनी[संपादित करें]

पर्यटन पुस्तिका में छ्पे मानचित्र मापनी पर आधारित होते हैं। इन मानचित्रों पर दूरियाँ निरूपक भिन्न द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं। निरूपक भिन्न, मानचित्र पर दो स्थानों के मध्य की दूरी तथा पृथ्वी पर उन्ही दो स्थानो की वास्तविक दूरी का अनुपात, जो एक भिन्न के रूप में व्यक्त किया जाता हैं। इसमें जो अंक होते हैं वे मानचित्र के दो बिन्दुओं की दूरी तथा पृथ्वी की सतह पर उनकी वास्तविक दूरी के प्रदर्शक होते हैं। यह मापने का कोई विशेष पैमाना नहीं हैं वरन मात्र इकाई हैं, उदाहरण के लिए १/१००,०००। मापनी पर आधारित मानचित्र पर्यटक को दर्शन किए जा रहे स्थल का लघु रूप दर्शाते हैं। पर्यटक इसकी सहायता से बिना गाईड के भी अकेला अवलोकन कर सकता है। बड़े माप पर छोटे-छोटे भागों को दिखाया जाता है, उदाहरण के लिए अगर हम दिल्ली के चाँदनी चौक को देखना चाहते हैं तो हमें बड़े माप पर बने मानचित्र की आवश्यकता होगी। इसी प्रकार बड़े भागों को छोटे माप पर दिखाया जाता है, उदाहरण के लिए हमें अगर संयुक्त राज्य अमेरिका का मानचित्र देखना हो तो हमें छोटे माप पर बने मानचित्र की आवश्यकता होगी।

दिक्सूचक[संपादित करें]

नौसंचालन दिक्सूचक का दृश्य

यह पर्यटक को दिशा सम्बन्धी सूचना प्रदान करता है। जागरूक और सजग पर्यटकों के लिए दिक्सूचक बहुत आवश्यक यंत्र माना जाता है। गाईड भी किसी स्थान का अवलोकन कराते समय पर्यटकों को दिशा सम्बन्धी जानकारी देना नहीं भूलते हैं। दिक्सूचक मुख्यतः दो प्रकार के पर्यटकों के लिए अधिक उपयुक्त है -

  1. जो पर्यटक वैज्ञानिक पहलुओं का अधिक ध्यान रखते हैं। इस प्रकार के पर्यटक शोध एवं अनुसंधान करने वाले व्यक्ति होते हैं।
  2. जो पर्यटक मनमौजी होते हैं। इस प्रकार के पर्यटक बिना किसी पूर्व योजना के घूमने निकल पड़ते हैं। इस प्रकार के पर्यटकों को प्रायः खोजकर्ता या रोमांच को पसन्द करने वालों की श्रेणी में रखा जाता है।

मानचित्रण प्रस्तुतिकरण[संपादित करें]

प्राचीन समय की तुलना में वर्तमान में मानचित्रण प्रस्तुतिकरण में क्रान्तिकारी बदलाव हुए हैं। आज के मानचित्र उन्नत भौगोलिक तकनीकों पर आधारित हैं। उपग्रहों के माध्यम से पृथ्वी के त्रिविम आयामी मानचित्रों का निर्माण किया जाता है। तकनीकों के द्वारा ही आकाश से तस्वीरें लेकर संसार के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे भाग का सटीक मानचित्र तैयार कर दिया जाता है। तैयार मानचित्र पर सांख्यिकीय आँकड़ों का प्रदर्शन भी उन्नत भौगोलिक तकनीकों द्वारा कर दिया जाता है।

चित्र:2005xtoursim receipts.PNG
अंतराष्ट्रीय पर्यटन का २००५ में सकेन्द्रण

ये मानचित्र पर्यटक आसानी से अपनी जेब में रख सकता है। इन मानचित्रों में रुढ़ चिह्न दिये होते है जिस कारण इन्हें समझना आसान होता है। प्रमुख प्रकार के मानचित्र जो पर्यटन उद्योग में योगदान देते हैं इस प्रकार हैं- १.भूवैज्ञानिक मानचित्र, २.स्थलाकृतिक मानचित्र, ३.मौसम मानचित्र, ४.ऐतिहासिक मानचित्र, ५.धार्मिक मानचित्र

सांख्यिकीय आँकड़ों का निरूपण[संपादित करें]

भूगोल में सांख्यिकीय आँकड़ों की सहायता से विभिन्न आरेख बनाए जाते हैं। [ इसके अन्तर्गत अनेक आरेखों द्वारा पर्यटन के भिन्न-भिन्न पहलुओं का अवलोकन किया जाता है। ये प्रस्तुत आरेख पर्यटन के अनेक पहलुओं का अध्ययन करने में सहायक सिद्घ होते हैं। इनके प्रमुख प्रकार हैं -

चित्र:Touristic countries.jpg
२००१ में पर्यटकों द्वारा संसार के सर्वाधिक घूमे गए देश
  • एकविम आरेख
  1. रेखा आरेख
  2. दण्ड आरेख
  3. पिरैमिड आरेख
  4. जल बजट आरेख
  5. वर्षा परिक्षेपण आरेख
    विश्व में अंग्रेज़ी बोलने वाले प्रमुख देशों को दर्शाता चक्र आरेख
  • द्विविम आरेख
  1. ईकाई वर्ग आरेख
  2. वर्गाकार ब्लॉक आरेख
  3. आयताकार आरेख
  4. चक्र आरेख
  5. वलय आरेख
  • त्रिविम आरेख
  1. गोलीय आरेख
  2. घनारेख
  3. ब्लॉक पुंज आरेख
 


लोककथाएँ मध्य प्रदेश, आदिवासी कथाएँ, तुहिना वर्मा,समीक्षा

  

कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश : जड़ों से जुड़ाव अशेष
तुहिना वर्मा
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[कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', आई.एस.बी.एन. ९७८-९३-५४८६-७६३-७, प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.X१४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी लेमिनेटेड, पृष्ठ ४७, मूल्य १५०/-, डायमंड बुक्स नई दिल्ली, संपादक संपर्क ९४२५१८३२४४।]
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लोककथाएँ लोक अर्थात जनसामान्य के सामुदायिक, सामाजिक, सार्वजनिक जीवन के अनुभवों को कहनेवाली वे कहानियाँ हैं जो आकार में छोटी होती हुए भी, गूढ़ सत्यों को सामने लाकर पाठकों / श्रोताओं के जीवन को पूर्ण और सुंदर बनाती हैं। आम आदमी के दैनंदिन जीवन से जुड़ी ये कहानियाँ प्रकृति पुत्र मानव के निष्कपट और अनुग्रहीत मन की अनगढ़ अभिव्यक्ति की तरह होती हैं। प्राय:, वाचक या लेखक इनमें अपनी भाषा शैली और कहन का रंग घोलकर इन्हें पठनीय और आकर्षक बनाकर प्रस्तुत करता है ताकि श्रोता या पाठक इनमें रूचि लेने के साथ कथ्य को अपने परिवेश से जुड़कर इनके माध्यम से दिए गए संदेश को ग्रहण कर सके। इसलिए इनका कथ्य या इनमें छिपा मूल विचार समान होते हुए भी इनकी कहन, शैली, भाषा आदि में भिन्नता मिलती है। 

भारत के प्रसिद्ध प्रकाशन डायमंड बुक्स ने भारत कथा माला के अंतर्गत लोक कथा माला प्रकाशित कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। देश में दिनों-दिन बढ़ती जा रही शहरी अपसंस्कृति और दूरदर्शन तथा चलभाष के आकर्षण से दिग्भ्रमित युवजन आपकी पारंपरिक विरासत से दूर होते जा रहे हैं। पारम्परिक रूप से कही जाती रही लोककथाओं का मूल मनुष्य के प्रकृति और परिवार से जुड़ाव, उससे उपजी समस्याओं और समस्याओं के निदान में रहा है। तेजी से बदलती जीवन स्थितियों (शिक्षा, आर्थिक बेहतर, यान्त्रिक नीरसता, नगरीकरण, परिवारों का विघटन, व्यक्ति का आत्मकेंद्रित होते जाना) में लोककथाएँ अपना आकर्षण खोकर मृतप्राय हो रही हैं। हिंदी के स्थापित और नवोदित साहित्यकारों का ध्यान लोक साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की ओर न होना भी लोक साहित्य के नाश में सहायक है। इस विषम स्थिति में प्रसिद्ध छन्दशास्त्री और समालोचक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा संपादित ''२१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ' मध्यप्रदेश'' का डायमंड बुक्स द्वारा प्रस्तुत किया जाना लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने का सार्थक प्रयास है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। 

यह संकलन वस्तुत: मध्यप्रदेश के वनवासी आदिवासियों में कही-सुनी जाती वन्य लोककथाओं का संकलन है। पुस्तक का शीर्षक ''२१ श्रेष्ठ आदिवासी लोककथाएँ मध्य प्रदेश'' अधिक उपयुक्त होगा। पुस्तक के आरंभ में लेखक ने लोककथा के उद्भव, प्रकार, उपयोगिता, सामयिकता आदि को लेकर सारगर्भित पुरोवाक देकर पुस्तक को समृद्ध बनाने के साथ पाठकों की जानकारी बढ़ाई है। इस एक संकलन में  में १९ वनवासी जनजातियों माड़िया, बैगा, हल्बा, कमार, भतरा, कोरकू, कुरुख, परधान, घड़वा, भील, देवार, मुरिया, मावची, निषाद, बिंझवार, वेनकार, भारिया, सौंर तथा बरोदिया की एक-एक लोककथाएँ सम्मिलित हैं जबकि सहरिया जनजाति की २ लोककथाएँ होना विस्मित करता है। वन्य जनजातियाँ जिन्हें अब तक सामान्यत: पिछड़ा और अविकसित समझा जाता है, उनमें इतनी सदियों पहले से उन्नत सोच और प्रकृति-पर्यावरण के प्रति सचेत-सजग करती सोच की उपस्थिति बताती है कि उनका सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। सलिल जी का यह कार्य नागर और वन्य समाज के बीच की दूरी को कम करने का महत्वपूर्ण प्रयास है।  

माड़िया लोककथा 'भीमदेव' में प्रलय पश्चात् सृष्टि के विकास-क्रम की कथा कही गयी है। बैगा लोककथा 'बाघा वशिष्ठ' में बैगा जनजाति किस तरह बनी यह बताया गया है। 'कौआ हाँकनी' में हल्बा जनजाति के विकास तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कमार लोककथा 'अमरबेल' में उपयोग के बाद वृक्षों पर टाँग दिए जनेऊ अमरबेल में बदल जाने की रोचक कल्पना है। बेवफा पत्नी और धोखेबाज मित्र को रंगरेली मानते हुए रंगेहाथ पकड़ने के बाद दोनों का कत्ल कर पति ने वन में दबा दिया। बरसात बाद उसी स्थान पर लाल-काले रंग के फूलवाला वृक्ष ऊगा जिसे परसा (पलाश) का फूल कहा गया। यह कहानी भतरा जनजातीय लोक कथा 'परसा का फूल' की है। कोरकू लोककथा 'झूठ की सजा' में शिववाहन नंदी को झूठा बोलने पर मैया पार्वती द्वारा शाप दिए जाने तथा लोक पर्व पोला मनाये जाने का वर्णन है। कुरुख जनजातीय लोक कथा 'कुलदेवता बाघ' में मनुष्य और वन्य पशुओं के बीच मधुर संबंध उल्लेखनीय है। 'बड़ादेव' परधान जनजाति में कही जानेवाली लोककथा है। इसमें आदिवासियों के कुल देव बड़ादेव (शिव जी) से आशीषित होने के बाद भी नायक द्वारा श्रम की महत्ता और समानता की बात की  गयी है। अकाल के बाद अतिवृष्टि से तालाब और गाँव को बचाने के लिए नायक झिटकू द्वारा आत्मबलिदान देने के फलस्वरूप घड़वा वनवासी झिटकू और उसकी पत्नी मिटको को लोक देव के रूप में पूजने की लोककथा 'गप्पा गोसाइन' है। भीली लोककथा 'नया जीवन' प्रलय तथा उसके पश्चात्  जीवनारंभ की कहानी है। 

देवार जनजाति की लोककथा 'गोपाल राय गाथा' में राजभक्त महामल्ल गोपालराय द्वारा मुगलसम्राट द्वारा छल से बंदी बनाये गए राजा कल्याण राय को छुड़ाने की पराक्रम कथा है। कहानी के उत्तरार्ध में गोपालराय के प्रति राजा के मन में संदेह उपजाकर उसकी हत्या किए जाने और देवार लोकगायकों द्वारा गोपालराय के पराक्रम को याद  को उसने वंशज मानने का आख्यान है। मुरिया जनजातीय लोककथा 'मौत' में सृष्टि में जीव के आवागमन की व्यवस्था स्थापित करने के लिए भगवन द्वारा अपने ही पुत्र  मृत्यु का विधान रचने की कल्पना को जामुन के वृक्ष से जोड़ा गया है। 'राज-प्रजा' मावची लोककथा है। इसमें शर्म की महत्ता बताई गए है। 'वेणज हुए निषाद' इस जनजाति की उत्पत्ति कथा है। मामा-भांजे द्वारा अँधेरी रात में पशु के धोखे में राजा को बाण से बींध देने के कारण उनके वंशज 'बिंझवार' होने की कथा 'बाण बींध भए' है। 'धरती मिलती वीर को' वेनकार लोककथा है जिसमें पराक्रम की प्रतिष्ठा की गयी है। भरिया जनजाति में प्रचलिटी लोककथा 'बुरे काम का बुरा नतीजा' में शिव-भस्मासुर प्रसंग वर्णित है। सहरिया जनजाति के एकाकी स्वभाव और वन्य औषधियों की जानकारी संबंधी विशेषता बताई गयी है 'अपने में मस्त'  में। 'शंकर का शाप' लोककथा आदिवासियों में गरीबी और अभाव को शिव जी की नाराजगी बताती है। सौंर लोककथा 'संतोष से सिद्धि' में भक्ति और धीरज को नारायण और लक्ष्मी का वरदान बताया गया है। संग्रह की अंतिम लोककथा 'पीपर पात मुकुट बना' बरोदिया जनजाति से संबंधित है। इस कथा में दूल्हे के मुकुट में पीपल का पत्ता लगाए जाने का कारन बताया गया है। 

वास्तव में ये कहानियाँ केवल भारत के वनवासियों की नहीं हैं, विश्व के अन्य भागों में भी आदिवासियों के बीच प्रलय, सृष्टि निर्माण, दैवी शक्तियों से संबंध, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को कुलदेव मानने, मानव संस्कृति के विस्तार, नई जातियाँ  बनने,पराक्रमी-उदार पुरुषों की प्रशंसा आदि से जुड़ी कथाएँ कही-सुनी जाती  रही हैं।

संभवत: पहली बार भारत के मूल निवासी आदिवासी की लोककथाओं का संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन की विशेषता है की इसमें जनजातियों के आवास क्षेत्र आदि जानकारियाँ भी समाहित हैं। लेखक व्यवसाय से अभियंता रहा है। अपने कार्यकाल में आदिवासी क्षेत्रों में निर्माण कार्य करते समय श्रमिकों और ग्रामवासियों में कही-सुनी जाती लोक कथाओं से जुड़े रहना और उन्हें खड़ी हिंदी में इस तरह प्रस्तुत करना की उनमें प्रकृति-पर्यावरण के साथ जुड़ाव, लोक और समाज के लिए संदेश, वनावासियों की सोच और  जीवन पद्धति की झलक समाहित हो, समय और साहित्य की आवश्यकता है। इन कहानियों के लेखक का यह प्रयास पाठकों और समाजसेवियों द्वारा सराहा जाएगा। प्रकाशक को  और पुस्तकें सामने लाना चाहिए। 
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संपर्क : ०२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। 
         


द्विपदियाँ,दोहा मुक्तिका,भोजपुरी दोहा,२१ बुंदेली लोक कथाएँ,रामायण एक मुक्तकी, दुर्गा, साधना

देवी गीत -
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अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
नीले गगनवा से उतरो हे मैया! २१
धरती पे आओ तनक छू लौं पैंया। २१
माँगत हौं अँचरा की छैंया। १६
न मो खों मैया बिसारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
खेतन मा आओ, खलिहानन बिराजो २१
पनघट मा आओ, अमराई बिराजो २१
पूजन खौं घर में बिराजो १५
दुआरे 'माता!' गुहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
साजों में, बाजों में, छंदों में आओ २२
भजनों में, गीतों में मैया! समाओ २१
रूठों नें, दरसन दे जाओ १६
छटा संतानें निहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
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एक मुक्तकी रामायण
राम जन्मे, वन गए, तारी अहल्या, सिय वरी।
स्वर्णमृग-बाली वधा, सुग्रीव की पीड़ा हरी ।।
तार शबरी, मार रावण, सिंधु बाँधा, पूज शिव।
सिय छुड़ा, आ अवध, जन आकांक्षा पूरी करी।।
यह विश्व की सबसे छोटी रामायण है।
'रामायण' = 'राम का अयन' = 'राम का यात्रा पथ', अयन यात्रापथवाची है।
दोहा सलिला
ऊग पके चक्की पिसे, गेहूँ कहे न पीर।
गूँथा-माढ़ा गया पर, आँटा हो न अधीर।।
कनक मुँदरिया से लिपट, कनक सराहे भाग।
कनकांगिनि कर कमल ले, पल में देती त्याग।।
लोई कागज पर रचे, बेलन गति-यति साध।
छंदवृत्त; लय अग्नि में, तप निखरे निर्बाध।।
दरस-परस कर; मत तरस, पाणिग्रहण कर धन्य।
दंत जिह्वा सँग उदर मन, पाते तृप्ति अनन्य।।
ग्रहण करें रुचि-रस सहित, हँस पाएँ रस-खान।
रस-निधि में रस-लीन हों, संजीवित श्रीमान।।
९-४-२०२२
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कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश : लोक में नैतिकता अब भी हैं शेष
समीक्षक ; प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, सेवानिवृत्त प्राध्यापक,
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कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी लेमिनेटेड पेपरबैक, पृष्ठ संख्या ७०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स नई दिल्ली।
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लोक कथाएँ ग्राम्यांचलों में पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रहीं ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें लोक जीवन, लोक मूल्यों और लोक संस्कृति की झलक अंतर्निहित होती है। ये कहानियाँ श्रुतियों की तरह मौखिक रूप से कही जाते समय हर बार अपना रूप बदल लेती हैं। कहानी कहते समय हर वक्ता अपने लिए सहज शब्द व स्वाभाविक भाषा शैली का प्रयोग करता है। इस कारण इनका कोई एक स्थिर रूप नहीं होता। इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्य साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने देश के केंद्र में स्थित प्रांत मध्य प्रदेश की एक प्रमुख लोकभाषा बुंदेली में कही-सुनी जाती २१ लोक कथाएँ प्रस्तुत की हैं। पुस्तकारंभ में प्रकाशक नरेंद्र कुमार वर्मा द्वारा भारत की स्वतंत्रता के ७५ वे वर्ष में देश के सभी २८ राज्यों और ९ केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित नारी मन, बाल मन, युवा मन और लोक मन की कहानियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना की जानकारी दी है।

पुरोवाक के अन्तर्गत सलिल जी ने पाठकों की जानकारी के लिये लोक कथा के उद्गम, प्रकार, बुंदेली भाषा के उद्भव तथा प्रसार क्षेत्र की लोकोपयोगी जानकारी दी है। लोक कथाओं को चिरजीवी बनाने के लिए सार्थक सुझावों ने संग्रह को समृद्ध किया है। लोक कथा ''जैसी करनी वैसी भरनी'' में कर्म और कर्म फल की व्याख्या है। लोक में जो 'बोओगे वो काटोगे' जैसे लोकोक्तियाँ चिरकाल से प्रचलित रही हैं। 'भोग नहीं भाव' में राजा सौदास तथा चित्रगुप्त जी की प्रसिद्ध कथा वर्णित है जिसका मूल पदम् पुराण में है। यहाँ कर्म में अन्तर्निहित भावना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। लोक कथा 'अतिथि देव' में गणेश जन्म की कथा वर्णित है. साथ ही एक उपकथा भी है जिसमें अतिथि सत्कार का महत्व बताया गया है। 'अतिथि देवो भव' लोक व्यवहार में प्रचलित है ही। सच्चे योगी की पहचान संबंधी उत्सुकता को शांत करने के लिए एक राज द्वारा किए गए प्रयास और मिली सीख पर केंद्रित है लोक कथा 'कौन श्रेष्ठ'। 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' का आशीर्वाद नव वधुओं के घर के बड़े देते रहे हैं। छठ मैया का पूजन बुंदेलखंड में बहुत लोक मान्यता रखता है। यह लोक कथा छठ मैया पर ही केंद्रित है।

लोक कथा 'जंगल में मंगल' में श्रम की प्रतिष्ठा और राज्य भक्ति (देश भक्ति) के साथ-साथ वृक्षों की रक्षा का संदेश समाहित है। राजा हिमालय की राजकुमारी पार्वती द्वारा वनवासी तपस्वी शिव से विवाह करने के संकल्प और तप पर केंद्रित है लोक कथा 'सच्ची लगन'। यह लोक कथा हरतालिका लोक पर्व से जुडी हुई है। मंगला गौरी व्रत कथा में प्रत्युन्नमतित्व तथा प्रयास का महत्व अंतर्निहित है। यह संदेश 'कोशिश से दुःख दूर' शीर्षक लोक कथा से मिलता है। आम जनों को अपने अभावों का सामना कर, अपने उज्जवल भविष्य के लिए मिल-जुलकर प्रयास करने होते हैं। यह प्रेरक संदेश लिए है लोककथा 'संतोषी हरदम सुखी'। 'पजन के लड्डू' शीर्षक लघुकथा में सौतिया डाह तथा सच की जीत वर्णित है। किसी को परखे बिना उस पर शंका या विश्वास न करने की सीख लोक कथा 'सयाने की सीख' में निहित है।

भगवान अपने सच्चे भक्त की चिंता स्वयं ही करते हैं, दुनिया को दिखने के लिए की जाती पिजा से प्रसन्न नाहने होते। इस सनातन लोक मान्यता को प्रतिपादित करती है लोक कथा 'भगत के बस में हैं भगवान'। लोक मान्यता है की पुण्य सलिला नर्मदा शिव पुत्री हैं। 'सुहाग रस' नामित लोक कथा में भक्ति-भाव का महत्व बताते हुए इस लोक मान्यता के साथ लोक पर्व गणगौर का महत्व है। मध्य प्रदेश के मालवांचल के प्रतापी नरेश विक्रमादित्य से जुडी कहानी है 'मान न जाए' जबकि 'यहाँ न कोई किसी का' कहानी मालवा के ही अन्य प्रतापी नरेश राजा भोज से संबंधित है। महाभारत के अन्य पर्व में वर्णित किन्तु लोक में बहु प्रचलित सावित्री-सत्यवान प्रसंग को लेकर लिखी गयी है 'काह न अबला करि सकै'। मनुष्य को किसी की हानि नहीं करनी चाहिए और समय पर छोटे से छोटा प्राणी भी काम आ सकता है। यह कथ्य है 'कर भला होगा भला' लोक कथा का। गोंडवाना के पराक्रमी गोंड राजा संग्रामशाह द्वारा षडयंत्रकारी पाखंडी साधु को दंडित करने पर केंद्रित है लोक कथा 'जैसी करनी वैसी भरनी'। 'जो बोया सो काटो' …
९-४-२०२२
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मुक्तिका
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मेहनत अधरों की मुस्कान
मेहनत ही मेरा सम्मान
बहा पसीना, महल बना
पाया आप न एक मकान
वो जुमलेबाजी करते
जिनको कुर्सी बनी मचान
कंगन-करधन मिले नहीं
कमा बनाए सच लो जान
भारत माता की बेटी
यही सही मेरी पहचान
दल झंडे पंडे डंडे
मुझ बिन हैं बेदम-बेजान
उबटन से गणपति गढ़ दूँ
अगर पार्वती मैं लूँ ठान
सृजन 'सलिल' का है सार्थक
मेहनतकश का कर गुणगान
२०-४-२१
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दोहा मुक्तिका
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झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
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कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
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आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
***
भोजपुरी दोहा:
*
खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
*
खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
दोहा मुक्तिका
*
सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
द्विपदियाँ
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
९-४-२०१०

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

राम की शक्ति पूजा : निराला, राम समग्र

सिंधु धूप में जब तपे
दोहा-दोहा राम
*
भीतर-बाहर राम हैं, सोच न तू परिणाम
भला करे तू और का, भला करेंगे राम
*
विश्व मित्र के मित्र भी, होते परम विशिष्ट
युगों-युगों तक मनुज कुल, सीख मूल्य हो शिष्ट
*
राम-नाम है मरा में, जिया राम का नाम
सिया राम का नाम है, राम सिया का नाम
*
उलटा-सीधा कम-अधिक, नीचा-ऊँच विकार
कम न अधिक हैं राम-सिय, पूर्णकाम अविकार
*
मन मारुतसुत हो सके, सुमिर-सुमिर सिय-राम
तन हनुमत जैसा बने, हो न सके विधि वाम
*
मुनि सुतीक्ष्ण मति सुमति हो, तन हो जनक विदेह
धन सेवक हनुमंत सा, सिया-राम का गेह
*
शबरी श्रम निष्ठा लगन, सत्प्रयास अविराम
पग पखर कर कवि सलिल, चल पथ पर पा राम
*
हो मतंग तेरी कलम, स्याही बन प्रभु राम
श्वास शब्द में समाहित, गुंजित हो निष्काम
*
अत्रि व्यक्ति की उच्चता, अनुसुइया तारल्य
ज्ञान किताबी भंग शर, कर्मठ राम प्रणम्य  
*
निबल सरलता अहल्या, सिया सबल निष्पाप
गौतम संयम-नियम हैं, इंद्र शक्तिमय पाप
*
नियम समर्थन लोक का, पा बन जाते शक्ति
सत्ता दण्डित हो झुके, हो सत-प्रति अनुरक्ति
*
जनगण से मिल जूझते, अगर नहीं मतिमान.
आत्मदाह करते मनुज, दनुज करें अभिमान.
*
भंग करें धनु शर-रहित, संकुच-विहँस रघुनाथ.
भंग न धनु-शर-संग हो, सलिल उठे तब माथ.
*
नर से वानर जब मिले, रावण का हो अंत
'सलिल' न दानव मारते, किन्नर सुर मुनि संत 
*
देह देन रघुवीर की, इसको रखें सम्हाल
काया राखे धर्म है, पाकर जीव निहाल
*
देह धनुष पर अहर्निश, धरें श्वास का तीर
आस किला रक्षित रखे, संयम की प्राचीर
*
जहाँ देह तहँ राम हैं, हैं विदेह मिथलेश
दश रथ हैं दश इंद्रियाँ, रथी राम अवधेश
*
को विद? वह जो देह को, जान न पाले मोह
पंचतत्व का समन्वय, कोरो ना विद्रोह
*
रह एकाकी भरत सम, करें राम से प्रीत
लखन रखें अंतर बना, सिय धीरज की जीत
*
स्वास्थ्य अवध भेदे न नर, वानर भरत सतर्क
तीर नियम का साधते, करें न कोई फर्क
*
आशा सीता; राम है, कोशिश लखन अकाम।
हनुमत सेवा-समर्पण, भरत त्याग अविराम।।
*
आशा कैकेयी बने, कोशिश पा वनवास।
अहं दशानन मारती, जीवन गहे उजास।।
*
आशा कौशल्या जने, मर्यादा पर्याय।
शांति सुमित्रा कैकयी, सुत धीरज पर्याय।
*
आशा की संजीवनी, शैली सलिल समान
मुँह कर पग हँस धो रहे, सियाराम सुख मान
*
***
दोहा सलिला
आओ यदि रघुवीर
*
गले न मिलना भरत से, आओ यदि रघुवीर
धर लेगी योगी पुलिस, मिले जेल में पीर
*
कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास
*
शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ
*
भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम
*
कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख
*
कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ
*
देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ
*
श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक
*
तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह
*
मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद
*
निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट
*
रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज
*
भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान
* कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह
*
वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकली जान
***
राम हाइकु
गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
***
श्रीराम पर हाइकु
*
मूँद नयन
अंतर में दिखते
हँसते राम।
*
खोल नयन
कंकर कंकर में
दिखते राम।
*
बसते राम
ह्रदय में सिय के
हनुमत के।
*
सिया रहित
श्रीराम न रहते
मुदित कभी।
*
राम नाम ही 
भवसागर पार 
उतार देता। 
*
***
राम की शक्ति पूजा : निराला 
*
रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह
राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,
लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,
राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,
उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,
अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,
विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,
रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,
मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,
वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,
गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,
उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,
जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।

लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,
हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,
जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,
चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"

कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।
कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?

सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।

क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
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