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बुधवार, 28 अप्रैल 2021

दोहा अठपदी

दोहा अठपदी 
संजीव 'सलिल'
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी 
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी 
***

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
*
जनमत मत सुन, अपने मन की बात करो
जन विश्वास भेज ठेंगे पर घात करो
*
बीमारी को हरगिज दूर न होने दो
रैली भाषण सभा नित्य दिन रात करो
*
अन्य दली सरकार न बन या बच पाए
डरा खरीदो, गिरा लोक' की मात करो
*
रोजी-रोटी छीन, भुखमरी फैला दो
मुट्ठी भर गेहूँ जन की औकात करो
*
जो न करे जयकार, उसे गद्दार कहो
जो खुद्दार उन्हीं पर अत्याचार करो
*
मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर को लड़वाओ
लिखा नया इतिहास, सत्य से रार करो
*
हों अपने दामाद यवन तो जायज है
लव जिहाद कहकर औरों पर वार करो
*
२७-४-२०२१ 

गीत

गीत 
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
जो हुआ बिदा उसको प्रणाम
*
था अपना, रहा न अपना जग
मग पर पग जमा न हो डगमग
चल फिसल गिरा उठ सका नहीं
चाहा सबने रुक सका नहीं
लो थामो कर ईश्वर ललाम
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
*
जब चाहा भेजा बिन पूछे
पाया-खोया, कर रख छूछे
पल-पल थे रहे नचाते तुम
लट्टू की तरह घुमाते तुम
नटवर! नट मत, तुझको प्रणाम
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
*
पहले जग से नाता जोड़ा
जुड़ते ही झट तुमने तोड़ा
कठपुतली बना नचाते तुम
छलिया! छल, मन भरमाते तुम
नटराज! आज ले बाँह थाम
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
*
२६-४-२०२१
*

कोविद का समाजवाद और स्वर्णावसर

कोविद विमर्श : ३
कोविद का समाजवाद और स्वर्णावसर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'कोविद' जोड़ें नाम संग, बढ़ता था सम्मान
अब कोविद के नाम से, निकल रही है जान
नयी पीढ़ी शायद ही जानती हो कि कोविद एक परीक्षा है जिसे उत्तीर्ण करना ही योग्यता का परिचायक है। इसलिए कई व्यक्ति अपने नाम के साथ कोविद उसी तरह लिखते थे जैसे स्व. लालबहादुर शास्त्री जी शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 'शास्त्री' लिखने लगे थे। इस काल में जब प्रश्न पत्र खरीदने, नकल करने, अपने स्थान पर अन्य से उत्तर लिखने, मूल्यांकन में हेर-फेर और अंत में व्यापम मध्य प्रदेश की तरह लाखों रुपयों में मेडिकल सीटों का सौदा खुले-आम हो ही नहीं रहा, किसी अपराधी का बाल भी बाँका नहीं हो रहा हो तब परीक्षा किसी महामारी से कम नहीं। इस काल में कौन हिम्मत करेगा किसी उपाधि को नाम के साथ जोड़ने की? अन्य उपाधियों की तरह कोविद भ्रष्टाचार महामारी की शिकार न हुई तो उसके नाम की महामारी ही आ गई। बात आने तक ही सीमित होती तो भी गनीमत होती, वह तो आने के साथ ही पूरी दुनिया पर छा भी गयी और छाई भी इस तरह कि अच्छे-अच्छों की नींद उड़ा गई। जिन तीसमार खानों ने कोविद को हल्के में लेने की भूल की उनके देशवासियों को तो भारी कीमत चुकानी ही पड़ी, सरकारों को भी पसीना आ गया, खुद सत्ताधारियों, धनपतियों और बाहुबलियों को अस्पतालों की शरण लेकर अपनी जान बचानी पड़ी। नाज़ो-अदा की नुमाइश कर काम और दाम कमानेवालियाँ भी बच नहीं सकीं, और तो और अपने मंत्र-तंत्र, कर्म-काण्ड और आडंबरों से पतितों को तारने और पापियों को मारने का दवा करनेवाले धर्माचार्य भी कोरोना के आगे नतमस्तक हुए बिना बच नहीं सके। सकल सृष्टि के नियामक, पाक परवरदिगार और आलमाइटी सबके उपासनास्थलों में ताले पड़ गए। ऐसा तो किसी काल में कोई राक्षसराज भी नहीं कर सका।
कोविद का समाजवाद
कोविद के प्रकोप से हो रही जनहानि और धनहानि ने प्रशासन तंत्र और धन कुबेरों की नींद उड़ा दी है। आप आदमी को रोजी के बिना रोटी के लाले पड़े हैं। सरकार असरकार सिद्ध नहीं हो पा रही। मुखौटों के पीछे छिपी सच्चाइयाँ सामने आ रही हैं। सर्वाधिक उन्नत देशों का घमंड चूर-चूर हो गया है। सबसे अच्छी चिकित्सा व्यवस्थाएँ ताश के महलों की तरह ध्वस्त हो गयी हैं। कहावत है "घूरे के दिन बदलते हैं"। कोरोना ने इस कहावत को सौ टका खरा सिद्ध कर दिया है।
अपनी तानाशाही से तिब्बत को मिटा चुके और अधिनायकवादी रवैये से सारी दुनिया को परेशान कर रहे चीन को कोरोना ने आरंभ में ही 'चारों खाने चित्त' कर दिया। तथाकथित सर्वशक्तिमान अमेरिका के दंभी राष्ट्र अध्यक्ष के उन्नत 'शीश को झुकाने' में कोरोना ने देर नहीं की। पेट्रोलियम के पैसों पर गगनचुम्बी मीनारें खड़ी कर इतराते देशों को कोरोना ने 'घुटनों के बल' ला दिया। इटली, जर्मनी, ईरान, इराक, रूस, जापान, ऑस्ट्रलिया कोई भी कोरोना के घातक वार से बच नहीं सका। यह सिद्ध हो गया कि 'चमकनेवाली हर वस्तु सोना नहीं होती', यह भी कि 'सब दिन जात न एक समान'। कोरोना को हल्के से लेने की कीमत इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री को चुकानी पड़ी, गनीमत यह कि 'समय पर चेतने' के कारण रेल पूरी तरह 'पटरी से उतरी' नहीं। हमारे नादान पडोसी पकिस्तान ने कोरोनाग्रस्त चीन से अपने नागरिकों को न बुलाकर अपना 'दम-खम दिखाना' चाहा पर यह दाँव काम नहीं आया। कोरोना ने सच्चे समाजवादी की तरह तमाम काम का काम तमाम कर दिया।
समरथ को ही दोष गुसाईं
कोविद ने सबके साथ समानता का व्यवहार भी नहीं किया अपितु एक कदम आगे बढ़कर कौन कितनी चोट सहन कर सकता है, उस पर उतनी ही चोट करने की नीति अपनाई। तुलसी बब्बा भले ही लिख गए हों 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' कोविद ने इसे उचित नहीं माना और 'समरथ को ही दोष गुसाईं' का नया सिद्धांत न केवल खोजा अपितु क्रियान्वित कर दिया। कोविद ने चुन-चुन कर पहलवानों को अखाड़े में नहीं बुलाया अपितु चुन-चुन कर पहलवानों के अखाड़े जाकर उन्हें चित्त कर दिया। हमने बचपन में एक कविता 'नागपंचमी'पढ़ी थी जिसमें पहलवानों के मल्ल युद्ध का सजीव चित्रण था। कुछ पंक्तियाँ देखें -
यह पहलवान अम्बाले का
वह पहलवान पटियाले का
ये दोनों दूर विदेशों से
लड़ आये हैं परदेशों में
उतरेंगे आज अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में....
कोरोना के काल में यह कविता कुछ इस तरह लिखी जायेगी-
यह पहलवान जो बीजिंग का
जोकर निकला गिरकर रिंग का
वह पहलवान डॉलरवाला
उसका निकला है दीवाला
यह इटलीवाला चित्त हुआ
जर्मनवाले को पित्त हुआ
जापानी खस्ताहाल गिरा
अरबी ईरानी आप गिरा
सुध-बुध भूला पाकिस्तानी
मैदां मारे हिंदुस्तानी
यहाँ नहीं है कोई किसी का
अब तक दुनिया के समर्थदेश सामान्य परिस्थिति और मुश्किल हालत दोनों में अपनी चौधराहट दिखाते हुए अपेक्षाकृत कमजोर देशों को इस या उस खेमे में जाने को मजबूर करते थे, और संकट के समय उनके साथ खड़े होने का दावा करते थे। कोविद ने ऐसे सब संगठनों को 'मिट्टी का माधो' सिद्ध कर दिया। सीटों, नाटो आदि का कोई अस्तित्व शेष नहीं बचा। संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान का सच्चा दोस्त करनेवाला चीन कोविद-काल में पाकिस्तानी नागरिकों की रक्षा नहीं कर सका, नहीं उन्हें सुरक्षित पाकिस्तान भेजने का प्रयास किया।
पश्चिमी देशों की सरकारें और उनकी तथाकथित श्रेष्ठ चिकित्सा व्यवस्था नाकाफी और नाकाबिल साबित हुई। नेता सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा सके। यहाँ तक कि वे अपने नागरिकों को समय पूर्व चेतावनी देने, सुरक्षात्मक उपाय अपनाने और उपलब्ध संसाधनों का योजनापूर्वक सीमित प्रयोग करने के लिए सहमत तक नहीं करा सके। जनवरी में जब कोविद प्रारंभिक चरण में था अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों के नागरिक अपनी सरकारों के प्रतिबंधात्मक आदेशों की खुलेआम धज्जिया उड़ाते और मजाक बनाते देखे गए। जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी किन्तु यह जग जाहिर हो गया कि सुशिक्षित नागरिक समझदार नहीं हैं और समृद्ध सरकारें असरदार नहीं है। व्यक्तिवादी भोग प्रधान पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े लोग सीमित संसाधनों को जुटाने के जुगाड़ में लग गए। फलत: जिन्हें अधिक जरूरत उन तक संसाधन पहुँच ही नहीं सके।
सबसे अधिक बुरी हालत इटली की हुई। सामान्यत: आपातकाल में कमजोरों की रक्षा पहले की जाती है। बच्चों, वृद्धों और महिलाओं को संसाधन उपलब्ध कराकर उन्हें पहले बचाया जाता है; उसके बाद युवाओं को किन्तु इसके सर्वथा विपरीत इटली में कमजोरों को लावारिस बिना समुचित चिकित्सा या देख-रेख के मरने दिया गया। हद तो यह हुई कि मृत्यु पश्चात् सम्मानजनक अंत्येष्टि संस्कार भी नहीं हो सका। एक-एक कब्र में एक साथ कई-कई लाशें दबाई गईं। पश्चिमी जीवन मूल्यों और सभ्यता का खोखलापन पूरी तरह उजागर हुई कि वासतव में 'यहाँ नहीं कोई किसी का। '
सभी सुखी हों, सभी निरापद
भारत दुनिया के तमाम देशों से अपने नागरिकों को सुरक्षित लाने तक सीमित नहीं रहा, उसने अन्य देशों के नागरिकों को भी बचाया, उनकी चिकित्सा की और उन्हें उनके देशों को भेजा। भारत को अविकसित कहकर उसका मजाक उड़ानेवाले राष्ट्रपति ट्रंप को जल्दी ही भारतीय नेतृत्व की प्रशंसा करने को बाध्य होना पड़ा किंतु विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्र अध्यक्ष होने के बाद भी वे यह नहीं समझ सके कि लोकतंत्र में 'लोक' से बड़ा कोई नहीं होता। लोक से नाता मजबूत न हो तो, नेता की कोई अहमियत नहीं रह जाती। यदि अमेरिका की जनता आरंभ में ही सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की पालन करती तो स्थिति इतनी अधिक जटिल नहीं होती। संभवत: अमेरिका में वर्तमान पीढ़ी ने पहली बार यह देखा कि उसे अपने हित में न केवल प्रतिबंध मानने चाहिए, विश्व हित के साथ भी खड़ा होना चाहिए।
भारत में सर्वार्थ के लिए स्वार्थ का त्याग विरासत और परंपरा दोनों है। प्राचीन भारत में वनवासी राम की पत्नी का हरण होने पर पूरा भारत राम के साथ खड़ा था और रावण को मरकर सीता के वापिस आने तक ही उनके साथ नहीं रहा अपितु राम को इष्ट देव बनाकर अमर कर दिया। असहाय पांडवों के साथ अन्याय होने पर कुरुक्षेत्र में उनकी विजय और बाद तक लोक पांडवों के साथ था। कंस और जरासंध जैसे सबल सत्तधीशों के साथ न अर्हकार लोक समय ग्वाले कृष्ण के साथ था। आधुनिक भारत की बात करें तो धोतीधारी गाँधी और धोतीधारी सुभाष दोनों को लोक ने न केवल सहयोग दिया उनके हर आदेश को शिरोधार्य किया। भारत चीन युद्ध १९६२ के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू के आह्वान पर हर नागरिक यहाँ तक की शालेय छात्रों ने भी सुरक्षा कोष में धन दिया। मैं तब प्राथमिक शाला का विद्यार्थी था, हर माह २ पैसे (तब इसका मूल्य आज को ५ रु. से अधिक था) दिया करता था। भारत पाकिस्तान युद्ध के समय शास्त्री जी के आह्वान पर पूरा भारत सोमवार को एक समय उपवास करता था, इतने ही नहीं होटल आदि तक स्वेच्छा से बंद रहते थे। बांगला देश के उदय के समय सुरक्षा कोष के अलावा भारत की जनता ने शरणार्थी डाक टिकिट के माध्यम से अरबों रुपये सरकार को दिए। यह नैतिक बल भारतीय नेताओं की पूंजी रहा है। दुर्भाग्य से इस काल में विविध दलों के नेताओं में कटुता चरम पर होने के नाते जनता जो अधिकांश किसी न किसी दल से जुडी होती है, में सरकार की नीतियों और आदेशों का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है तथापि श्री मोदी के आह्वान पर सभी लोगों और दलों ने नोटबंदी और कोविद बंदी के समय शासनादेशों का पालन कर उनके मस्तक ऊंचा रखा है। राजनीति शास्त्र में उपयोगितावाद (यूटेलिटेरियनिस्म) में जेरेमी बेंथम प्रणीत एक सिद्धांत है 'अधिकतम का अधिकतम सुख' (मक्सिमम गुड़ ऑफ़ मैक्सिमम नंबर)। भारत में इससे आगे 'सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:' (सभी सुखी हों, सभी निरापद) की नीति मान्य है। इसी का पालन करते हुए भारत को विदेश नागरिकों को बचाने में खतरा उठाने या सीमित संसाधन खर्च करने में संकोच नहीं होता।
स्वर्णावसर
यह स्पष्ट है कि कोविद ने भारतीय दर्शन, भारतीय परंपराओं और भारतीय लोक की श्रेष्ठता पूरे विश्व में स्थापित की है। यह एक स्वर्णावसर है, विश्व नेतृत्व पाने का। यह अवसर है भारतीय कर्मठता, कार्यकुशलता और उत्पादन सामर्थ्य को प्रमाणित करने का किन्तु यह न तो अपने आप होगा, न सरलता से होगा। क्या हम एक देश के नाते, एक समाज के नाते इस स्वर्णावसर का लाभ उठा सकेंगे? यह यक्ष प्रश्न है जो हमें बूझना है।
क्रमश:
२७-४-२०२० 
सम्पर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

चित्र पर कविता

चित्र पर कविता 
















ज्योति ज्योति ले हाथ में, देख रही है मौन
तोड़ लॉकडाउन खड़ा, दरवाजे पर कौन?
कोरोना के कैरियर, दूँगी नहीं प्रवेश
रख सोशल डिस्टेंसिंग, मान शासनादेश
जाँच करा अपनी प्रथम, कर एकाकीवास
लक्षण हों यदि रोग के, कर रोगालय वास
नाता केवल तभी जब, तन-मन रहे निरोग
नादां से नाता नहीं, जो करनी वह भोग
*
बेबस बाती जल मरी, किन्तु न पाया नाम
लालटेन को यश मिला, तेल जला बेदाम
*
संजीव
९४२५१८३२४४

गीत

गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
संजीव 'सलिल
**
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
२७-४-२०१९

********************** 

मुक्तिका नारी और रंग

मुक्तिका 
नारी और रंग
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है
लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है
नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है
गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।
झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है
लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है
दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है
स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है
ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
***
संवस
२७-४-२०१९
७९९९५५९६१८

तेवरी

तेवरी :
हुए प्यास से सब बेहाल
-'सलिल'.
*
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
डँसते नित नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
मौन न सुन पाए जो लोग.
वही बजाते देखे गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
२७-४-२०१०
*

मुक्तिका

मुक्तिका
*
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
२७-४-२०१० 
*

मुक्तिका

मुक्तिका
*
जनमत मत सुन, अपने मन की बात करो
जन विश्वास भेज ठेंगे पर घात करो
*
बीमारी को हरगिज दूर न होने दो 
रैली भाषण सभा नित्य दिन रात करो
*
अन्य दली सरकार न बन या बच पाए
डरा खरीदो, गिरा लोक' की मात करो
*
रोजी-रोटी छीन, भुखमरी फैला दो
मुट्ठी भर गेहूँ जन की औकात करो
*
जो न करे जयकार, उसे गद्दार कहो
जो खुद्दार उन्हीं पर अत्याचार करो
*
मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर को लड़वाओ
लिखा नया इतिहास, सत्य से रार करो
*
हों अपने दामाद यवन तो जायज है
लव जिहाद कहकर औरों पर वार करो
***

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

लघुकथा सुख-दुःख

लघुकथा
सुख-दुःख
संजीव
*
गुरु जी को उनके शिष्य घेरे हुए थे। हर एक की कोई न कोई शिकायत, कुछ न कुछ चिंता। सब गुरु जी से अपनी समस्याओं का समाधान चाह रहे थे। गुरु जी बहुत देर तक उनकी बातें सुनते रहे। फिर शांत होने का संकेत कर पूछा - 'कितने लोग चिंतित हैं? कितनों को कोई दुःख है? हाथ उठाइये।
सभागार में एक भी ऐसा न था जिसने हाथ न उठाया हो।
'रात में घना अँधेरा न हो तो सूरज ऊग सकेगा क्या?'
''नहीं'' समवेत स्वर गूँजा।
'धूप न हो तो छाया अच्छी लगेगी क्या?'
"नहीं।"
'क्या ऐसा दिया देखा है जिसके नीचे अँधेरा न हो"'
"नहीं।"
'चिंता हुई इसका मतलब उसके पहले तक निश्चिन्त थे, दुःख हुआ इसका मतलब अब तक दुःख नहीं था। जब दुःख नहीं था तब सुख था? नहीं था। इसका मतलब दुःख हो या न हो यह तुम्हारे हाथ में नहीं है पर सुख हो या हो यह तुम्हारे हाथ में है।'
'बेटी की बिदा करते हो तो दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख नहीं चाहिए तो बेटी मत ब्याहो। कौन-कौन तैयार है?' एक भी हाथ नहीं उठा।
'बहू को लाते हो तो सुखी होते हो। कुछ साल बाद उसी बहु से दुखी होते हो। दुःख नहीं चाहिए तो बहू मत लाओ। कौन-कौन सहमत है?' फिर कोई हाथ नहीं उठा।
'एक गीत है - रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा? अब बताओ अँधेरा, दुःख, चिंता ये मेहमान न हो तो उजाला, सुख और बेफिक्री भी न होगी। उजाला, सुख और बेफिक्री चाहिए तो अँधेरा, दुःख और चिंता का स्वागत करो, उसके साथ सहजता से रहो।'
अब शिष्य संतुष्ट दिख रहे थे, उन्हें पराये नहीं अपनों जैसे ही लग रहे थे सुख-दुःख।
*
संपर्क : ९४२५१८३२४४

मुक्तक और मुक्तिका

मुक्तक और मुक्तिका
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
हिंदी काव्य में वे समान पदभार के वे छंद जो अपने आप में पूर्ण हों अर्थात जिनका अर्थ उनके पहले या बाद की पंक्तियों से संबद्ध न हो उन्हें मुक्तक छंद कहा गया है। इस अर्थ में दोहा, रोला, सोरठा, उल्लाला, कुण्डलिया, घनाक्षरी, सवैये आदि मुक्तक छंद हैं।
कालांतर में चौपदी या चतुष्पदी (चार पंक्ति की काव्य रचना) को मुक्तक कहने का चलन हो गया। इनके पदान्तता के आधार पर विविध प्रकार हैं। १. चारों पंक्तियों का समान पदांत -
हर संकट को जीत
विहँस गाइए गीत
कभी न कम हो प्रीत
बनिए सच्चे मीत (ग्यारह मात्रिक पद)
२. पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें (तेरह मात्रिक पद)
३. पहली-दूसरी पंक्ति का एक तुकांत, तीसरी-चौथी पंक्ति का भिन्न तुकांत -
चूं-चूं करती है गौरैया
सबको भाती है गौरैया
चुन-चुनकर दाना खाती है
निकट गए तो उड़ जाती है (सोलह मात्रिक)
४. पहली-तीसरी-चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत की जयकार करें
दुश्मन की छाती दहले
देश एक स्वीकार करें
ऐक्य भाव साकार करें (चौदह मात्रिक)
५. पहली-दूसरी-तीसरी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत माँ के बच्चे
झूठ न बोलें सच्चे
नहीं अकल के कच्चे
बैरी को मारेंगे (बारह मात्रिक)
६. दूसरी, तीसरी, चौथी पंक्ति की समान तुक -
नेता जी आश्वासन फेंक
हर चुनाव में जाते जीत
धोखा देना इनकी रीत
नहीं किसी के हैं ये मीत (पंद्रह मात्रिक)
७. पहली-चौथी पंक्ति की एक तुक दूसरी-तीसरी पंक्ति की दूसरी तुक -
रात रानी खिली
मोगरा हँस दिया
बाग़ में ले दिया
आ चमेली मिली (दस मात्रिक)
८. पहली-तीसरी पंक्ति की एक तुक, दुसरी-चौथी पंक्ति की अन्य तुक -
होली के रंग
कान्हा पे डाल
राधा के संग
गोपियाँ निहाल (नौ मात्रिक)
*
इनमें से दूसरे प्रकार के मुक्तक अधिक लोकप्रिय हुए हैं ।
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
यह तेरह मात्रिक मुक्तक है।
इसमें तीसरी-चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ जोड़ें -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
प्रगति देखकर अन्य की
द्वेष अग्नि में मत दहें
पीर पराई बाँट लें
अपनी चुप होकर सहें
याद प्रीत की ह्रदय में
अपने हरदम ही तहें
यह मुक्तिका हो गयी। इस शिल्प की कुछ रचनाओं को ग़ज़ल, गीतिका, सजल, तेवरी आदि भी कहा जाता है।
*
संपर्क ९४२५१८३२४४

कार्यशाला : कुंडलिया

कार्यशाला : कुंडलिया
दोहा - बसंत, रोला - संजीव
*
सिर के ऊपर बाज है, नीचे तीर कमान |
खतरा है, फिर भी भरे, चिड़िया रोज उड़ान ||
चिड़िया रोज उड़ान, भरे अंडे भी सेती
कभी ना सोचे पाऊँगी, क्या-क्यों मैं देती
काम करे निष्काम, रहे नभ में या भू पर
तनिक न चिंता करे, ताज या आफत सिर पर
***

गीत

जीवन ज्वाल वरो
*
धरती माता विपदाओं से डरी नहीं
मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं
आसमान ने नीली छत सिर पर तानी
तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं
अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी
बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं
पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो
प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं
सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा
नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं
पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?
अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?
हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?
भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो
जान हथेली पर लेकर चलनेवाले
आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले
हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे
स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे
धीरज-धर्म परखने का है समय यही
प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही
सच मानो मावस में दीवाली होगी
श्वास आस की रास बिरजवाली होगी
बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं
हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं
जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय
गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय
प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो
पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो
मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो
महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।
***
संजीव
९४२५१८३२४४

मुक्तक

 मुक्तक

कलियाँ पल पल अनुभव करतीं मकरंदित आभास को
नासापुट तक पहुँचाती हैं किसलय के अहसास को
पवन प्रवह रह आत्मानंदित दिग्दिगंत तक व्याप रहा
नीलगगन दे छाँव सभी को, नहीं चीह्नकर खास को
*

प्लवंगम् छंद

हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल
छंद सलिला:
प्लवंगम् छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति ८-१३।
लक्षण छंद:
प्लवंगम् में / रगण हो सदा अन्त में
आठ - तेरह न / भूलें यति हो अन्त में
आरम्भ करे / गुरु- लय न कभी छोड़िये
जीत लें सभी / मुश्किलें मुँह न मोड़िए
उदाहरण:
१. मुग्ध उषा का / सूरज करे सिंगार है
भाल सिंदूरी / हुआ लाल अंगार है
माँ वसुधा नभ / पिता-ह्रदय बलिहार है
बंधु नाचता / पवन लुटाता प्यार है
२. राधा-राधा / जपते प्रति पल श्याम ज़ू
सीता को उर / धरते प्रति पल राम ज़ू
शंकरजी के / उर में उमा विराजतीं
ब्रम्ह - शारदा / भव सागर से तारतीं
३. दादी -नानी / कथा-कहानी गुमे कहाँ?
नाती-पोतों / बिन बूढ़ा मन रमें कहाँ?
चंदा मामा / गुमा- शेष अब मून है
चैट-ऐप में फँसा बाल-मन सून है
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
२६-४-२०१४

हाइकु सलिला

नेपाल में भूकंपजनित महाविनाश के पश्चात रचित
हाइकु सलिला:
संजीव
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
.
२६.४.२०१५

नवगीत

नेपाल में भूकंपीय महाविनाश के पश्चात् रचित
नवगीत:
संजीव
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
२६-४-२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कबि नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
*
२६-४-२०१५

नवगीत

नवगीत 
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
२४-४-२०१७