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गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

चित्रगुप्त रहस्य

लेख
:चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:

''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
Photo: Ashutosh Shrivastava || चित्रगुप्त चालिसा || ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी || अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर || हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता || हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के || चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर || हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के || हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित || हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम || हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन || हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु हृद्‌य के रोमकुसुमघन || हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता || ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से || लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के || चक्राकृत गोला मुखमंडल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल || अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल स्रष्टा || तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो || चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन || कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में || कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो || तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित || गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन || पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के || सेवा करूँ अनेको बरसो, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों || बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल || ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई || जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर || जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे || तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है || श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता || तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश्य खिल जाए || निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये || हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्‌भुत योगी || मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे || चित्रगुप्त कर्मठता दिजे, मुझको वचन बध्दता दीजे || कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे || आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है || मैं बैठा किस्मत पे रोऊ, जो पाया उसको भी खोऊ || शब्द-शब्द का अर्थ मांगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते || आशीर्वाद आपका चाहू, मैं चरणो की सेवा चाहू || सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन || ~Kayastha~सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारन उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेववाद की परंपरा
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें।
प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साल बाबा, माचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.
२२-४-२०१४
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मुक्तक

मुक्तक:
संजीव
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें
*
२२-४-२०१५
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
***

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
२२-४-२०१५

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो.
*
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर.
*
मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
*'
संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से,मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोडे साथ,गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है.
*
दिल चुराकर आप दिलवर बन गए. 
दिल गँवाकर हम दीवाने हो गए. 
दिल कुचलनेवाले दिल की क्यों सुनें? 
थामकर दिल वे सयाने बन गए..
*
२२-४-२०१०
***

जापानी छंद रेंगा

जापानी छंद रेंगा और कस्तूरी की तलाश

रेंगा ऐसा श्रृंखलाबद्ध छंद है जिसे दो छंदकार मिलकर रचते हैं।  रेंगा दो  दो या दो से अधिक सहयोगी कवि लिखते हिन्उ। इसमें दो या दो से अधिक छंद भी होते हैः। प्रत्येक छंद का स्वरूप एक ‘वाका’ या तांका छंद की तरह होता है। रेंगा एकाधिक कवियों द्वारा रचित वाका कविताओं के ढीले-ढाले समायोजन से बनी एक श्रृंखला-बद्ध कविता है। 

रेंगा कविता की आतंरिक मन:स्थिति और विषयगत भूमिका, कविता का प्रथम छंद (वह तांका जिससे कविता आरम्भ हुई है) तय करता है। हर ताँका के दो खंड होते हैं। पहला खंड ५-७-५ वर्ण-क्रम में लिखा एक ‘होक्कु’ होता है। (यही होक्कु अब स्वतन्त्र होकर ‘हाइकु’ कहलाने लगा है)। होक्कु ही रेंगा की मन:स्थिति और विषयगत भूमिका तैयार करता है। पहला कवि एक होक्कु लिखता है। उस होक्कु को आधार बनाकर कोई दूसरा कवि ताँका पूरा करने के लिए ७-७ वर्ण की उसमें दो पंक्तियाँ जोड़ता है। उन दो पंक्तियों को आधार बनाकर कोई अन्य दो कवि रेंगा का दूसरा छंद (तांका) तैयार करते हैं। कविता के अंत तक यह क्रम चलता रहता है। रेंगा को समाप्त करने के लिए प्राय: अंत में ७-७ वर्ण क्रम की दो अतिरिक्त पंक्तियाँ और जोड़ दी जाती हैं। रेंगा एकाधिक कवियों द्वारा रचित एक से अधिक तांकाओं की समवेत कविता है।

रेंगा कविता का आरंभ एक होक्कु से होता है। ‘कस्तूरी की तलाश’ रेंगा कविताओं का हिन्दी में पहला संकलन है। संकलन में संपादित सभी रेंगा कविताओं के ‘होक्कु’ स्वयं प्रदीप जी के हैं। कविता के शेष चरण अन्यान्य कविगण जोड़ते चले गई हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर रेंगा कवितायेँ ६ तांकाओं से जुड़कर बनी हैं। कुछ रेंगा छंदों का आनंद लें -

जीवनरेखा / रेत रेत हो गई / नदी की व्यथा // नारी सम थी कथा / सदियों की अव्यवस्था (रेंगा १)

नाजों में पली / अधखिली कली / खुशी से चली // खिलने से पहले / गुलदान में सजी (रेंगा ११)

बरसा पानी / नाचे मन मयूर / मस्ती में चूर // प्यासी धरा अघाई / छाया नव उल्लास (रेंगा २१)

गृह पालिका / स्नेह मयी जननी / कष्ट विमोचनी // जीवन की सुरभि / शांत व् तेजस्वनी (रेंगा ३०)

रंग बिरंगे / जीवन के सपने / आशा दौडाते // स्वप्न छलते रहे / सदा ही अनकहे (रेन्गा ४०)

हरित धरा / रंगीन पेड़ पौधे / मन मोहते // मानिए उपकार / उपहार संसार (रेंगा ५१)

पानी की बूंद / स्वाति नक्षत्र योग / बनते मोती // सीपी गर्भ में मोती / सिन्धु मन हर्षित (रेंगा ६१)

पीत वसन / वृक्ष हो गए ठूँठ / हवा बैरन // जीवन की तलाश / पुन: होगा विकास (रेन्गा ७१)

देहरी दीप / रोशन कर देता / घर बाहर // दीया लिखे कहानी / कलम रूपी बाती (रेंगा ८१)

गाता सावन / हो रही बरसात / झूलों की याद // महकती मेंहदी / नैन बसा मायका (रेंगा ९०)

पौधे उगते / ऊंचाइयों का अब / स्वप्न देखते // इतिहास रचते / पौधे आकाश छूते (रेंगा ९८)

इनके रेंगाकार  हैं -प्रदीप कुमार डाश, चंचला इंचुलकर, डा. अखिलेश शर्मा, रमा प्रवीर वर्मा, नीतू उमरे, गंगा पाण्डेय, किरण मिश्रा, रामेश्वर बंग, देवेन्द्र नारायण दास, मधु सिन्धी और सुधा राठौर।

प्रदीप कुमार डास ‘दीपक’ ने परिश्रम और सूझ-बूझ के साथ यह संकलन संपादित किया है। एक पूरी कविता संपादित करने के लिए वह जिन सहयोगी कवियों को एक के बाद एक प्रत्येक चरण के लिए प्रेरित कर सके, वह अद्भुत है। कवियों को पता ही नहीं चला कि वे रेंगा कविताओं के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने इस रचनात्मक कार्य के लिए स्वयं को मिलाकर ६५ कवियों को जोड़ा। उनके एक सहयोगी कवि का कथन है कि “एकला चलो” सिद्धांत के साथ गुपचुप अपने लक्ष्य को प्रदीप जी ने जिस खूबसूरती से अंजाम दिया, काबिले तारीफ़ है।

***

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

नवगीत

नवगीत 
शेष है
*
दुनिया की
उत्तम किताब हम
खुद को पढ़ना
मगर शेष है
*
पोथी पढ़-पढ़ थक हारे हैं
बिना मौत खुद को मारे हैं
ठाकुर हैं पर सत्य न बूझें
पूज रहे ठाकुरद्वारे हैं
विधना की
उत्तम रचना हम
खुद कुछ रचना
मगर शेष है
*
अक्षर होकर क्षर ही जोड़ा
राह बना, अपना पग मोड़ा
तिनका-तिनका चले जोड़ने
जोड़-जोड़कर हर दिल तोडा
छंदों का
उत्तम निभाव हम
खुद का निभना
मगर शेष है
*
डर मत, उछल-कूद मस्ता ले
थक जाए तो रुक सुस्ता ले
क्यों यंत्रों सा जीवन जीता?
चल पंछी बन, कलरव गा ले
कर्मों की
उत्तम कविता हम
खुद को कहना
मगर शेष है
***
२१-४-२०१७ 

बुंदेली कहानी समझदारी

बुंदेली कहानी
समझदारी
*
आज-काल की नईं, बात भौर दिनन की है।
अपने जा बुंदेलखंड में चन्देलन की तूती बोलत हती।
सकल परजा भाई-चारे कें संगै सुख-चैन सें रैत ती।
सेर और बुकरियाँ एकई घाट पै पानी पियत ते।
राजा की मरजी के बगैर नें तो पत्ता फरकत तो, नें चिरइया पर फड़फड़ाउत ती।
सो ऊ राजा कें एक बिटिया हती।
बिटिया का?, कौनऊ हूर की परी घाईं, भौतऊ खूबसूरत।
बा की खूबसूरती को कह सकत आय?
जैसे पूरनमासी में चाँद, दीवारी में दिया जोत की सी, जैंसे दूद में झाग।
ऐंसी खिलंदड जैसे नर्मदा और ऊजरी जैंसे गंगा।
जब कभूं राजकुँवरि दरबार में जात तीं तौ दरबार जगमगान लगत तो।
राजकुँवरि के रूप और गुनन कें बखान सें सकल परजा को सर उठ जात तो।
एक सें बढ़के एक राजा, जागीरदार अउर जमींदार उनसें रिश्ते काजे ललचात रैत ते।
मनो राजकुँवरि कौनऊ के ढिंगे आँख उठा के भी नें हेरत ती।
जब कभऊं राजदरबार में कछू बोलत ती तो मनो बीना कें तार झनझना जाउत ते।
राजा के मूं लगे दरबारन नें एक दिना हिम्मत जुटा कहें राजा साब सें कई।
"महाराज जू! बिटिया रानी सयानी भई जात हैं।
उनके ब्याह-काज कें लाने बात करो चाही।
समय जात देर नईं लगत, बात-चीत भओ चहिए।''
दरबारन की बातें कान में परतई राजकुँवरि के गालन पे टमाटर घाईं लाली छा गई।
राजकुँवरि के नैन नीचे झुक गए हते।
राजा साहब ने जा देख कें अनुमान कर लओ कि दरबारी ठीकई कै रए।
राजकुँवरि ने परदे की ओट सें कई -''दद्दा जू! हुसियार राजा कहें अपनेँ वफादार दरबारन की बात सुनों चाही।''
राजा साब नें अचरज के साथ राजकुँवरि की तरफ हेर खें कई ''हम सोई ऐंसई सोचत रए। ''
''दद्दा जू! मनो ब्याह काजे हमरी एक शर्त है।
हम बा शर्त पूरी करबे बारे सें ब्याह करो चाहत हैं।"
अब तो महाराज जू और दरबारां सबईं खों जैसे साँप सूंघ गओ।
बेटी जू के मूं सें सरत को नाम सुनतई राजा साब और दरबारी सब भौंचक्के रए गए।
कोई ने सोची नईं हती के राजकुँवरि ऐसो कछू बोल सकत ती।
सबरे जाने सोच में पर गए कि राजकुँवरि कछू ऐसो-वैसो नें कै दें।
कहूँ उनकी कई पूरी नें कर पाए तो का हुईहै?
राजकुँवरि नें सबखों चुप्पी लगाए देख खें आपई कई।
"आप औरन खों परेसान होबे की कौनऊ जरूरत नईआ।''
अब राजा साब ने बेटी जू सें कई- "बेटी जू! अपुन अपुनी सरत बताओ तें हम सब अपुन की सरत पूरी करबे में कछू कोर-कसार नें उठा रखबी।"
अब बेटी जु ने संकुचाते-संकुचाते अपनी सरत बताबे खातिर हिम्मत जुटाई और बोलीं-
"दद्दा जू! हम ऐसें वर सें ब्याह करो चाहत हैं जो चाहे गरीब हो या अमीर, गोरो होय चाए कारो, पढ़ो-लिखो होय चाए अनपढ़, लंगड़ो होय चाए लूलो पै बो बैठ खें उठ्बो नें जानत होय।"
बेटी जू सें ऐंसी अनोखी सरत सुन खें दरबारन खों दिमाग चकरा गओ।
आप राजा साब सोई कछू नें समझ पा रए थे।
मनो राजा साब राजकुँवरि की समझदारी के कायल हते।
सबई दारबारन खों सोच-बिचार में डूबो देख राजा जू नें तुरतई राज घराने कें पुरोहित खें बुला लाबे काजे एक चिठिया ले कें खबास खें भेज दओ।
पंडज्जी और खबास खों आओ देख कें महाराज जू नें एक चिट्ठी दे कें आदेस दओ-
"तुम दोउ जनें देस-बिदेस घूम-घूम खें जा मुनादी कराओ और कौनऊ ऐसे खों पता लगैयों जो बैठ खें उठाबो नें जानत होए।"
तुमें जिते ऐसो कौनऊ जोग बार मिले जो बैठ खें उठ्बो नेब जानत होय, उतई बेटी जू का ब्याह तय कर अइयो।
उतई बेटू जु के ब्याओ काजे फलदान को नारियल धर अइयो।
राजा साब की आज्ञा सुनकें पंडज्जी और खबास दोई जनें देसन-देसन कें राजन लौ गए।
बे हर जगू बिन्तवारी करत गए मनो निरासा हाथ लगत गई।
बे जगूं-जगूं कैत गए "जून राजकुंवर बैठ खें उठ्बो नें जानत होय ओई के संगे अपनी राजकुंवरि का फलदान करबे काजे आये हैं।"
बे जिते-जिते गए, उतई नाहीं को जवाब मिलत गओ।
कहूँ-कहूँ राजा लोग कयें 'जे कैसी अजब सर्त सुनात हो?
राजकुंवरि खें ब्याओ करने हैं कि नई?
पंडज्जी और खबास घूमत-घूमत थक गए।
महीनों पे महीने निकारत गए मनो बात नई बनीं।
सर्त पूरी करबे बारो कौनौ राजकुमार नें मिलो।
आखिरकार बिननें थक-हार कर बापिस होबे को फैसला करो।
आखिरी कोसिस करबे बार बे आखिरी रजा के ढींगे गए।
इतै बी सर्त सुन कें राजदर्बाराब और राजा ने हथियार दार दै।
दोऊ झनें लौटन लगे तबई राजकुमार बाहर सें दरबार में पधारे।
उनने पूरी बात जानबे के बाद रजा साब सें अरज करी-
" महाराज जू! आज लॉन अपने दरबार सें कौनऊ मान्गाबे बारो खली हात नई गओ है।
पुरखों को जस माटी में मिलाए से का फायदा?
अपने देस जाके और रस्ते में जे दोनों जगू-जगू अपन अपजस कहत जैहें।
ऐसें बचबे को एकई तरीको है।
आप जू इन औरन की बात रख लेओ।
आपकी अनुमत होय तो मैं इन राजकुमारी की सर्त पूरी करे के बाद ब्याओ कर सकत।"
जा सुन खें महाराज जू और दरबारी पैले तो संकुचाये कि बे ओरन कछू राह नई निकार पाए।
कम अनुभवी राजकुमार नें रास्ता खोज लओ।
अपनें राजकुमार की होसियारी पे भरोसा करखें महाराज जू नें कई-
" कुंवर जू! अपनी बात पे भरोसा कर खें हम फलदान रख लेंत हैं, मनो हमाओ सर नें झुकइयो।
काये कि सर्त पूरी नें भई तो राजकुमारी मुस्किल में पड़ जैहें।
राज कुमार ने कई "आप हमाओ भरोसा करकें फलदान ले लेओ मगर हमरी सोई एक सर्त है।
अब सबरे दरबारी, रजा, पंडज्जी और खबास चकराए।
अब लौ एकई सर्त पूरीनें हो रई हती, अब एक और सर्त का चक्कर कैसे सुलझेगो?
महाराज नें पूछी तो राजकुमार नें सर्त बताई।
महाराज आप जेई कागज़ पे एक संदेस लिख कें पठा दें।
हमाई सरत है कि राजकुमारी की सरत पूरी करबे के काजे हमाओ राजकुमार तैयार है।
मनो अकेले बे ऊ राजकुमारी सें ब्याओ कर्हें जो परके टरबो नें जानत होय।'
जो राजकुमारी खों जे सर्त स्वीकार होय तो बो अपनी हामी के संगे अपने पिताजू सें फलदान पठा देवें।
राजकुँवर सें हामी भरवाखें पंडज्जी और खवास दोउ जनों ने जान की खैर मनाई।
बे दोनों सारदा मैया की जय कर अपने राज खों लौट चले।
राजा के लिंगा लौट खें पुरोहित नें पूरो हालचाल बताओ।
पुरोहित नें कई "महाराज! हम दोउ जनें कहूँ रुकें बिना दिन-रात दौरतई रए।
पैले एक तरफ सें आगे बढ़े हते।
हौले-हौले देस-बिदेस कें सबई राजा जनों के दरबार में जात गए।
मनो अकेलीं बेटी जू की सर्त पूरी करे काजे कौनऊ राजकुमार नें हामी नई भरी।
हर जगूं सुरु-सुरु में भौत उत्साह सें न्योटा लऔ जात।
मनो सर्त की बात सामने आतेई बिनकों सांप सूंघ जात तो।
आखर में हम दोऊ निरास हो खें अपने परोसी राजा कने गए।
बिनने हुलास सें स्वागत-सत्कार करो।
जैसेई सर्त की बात भई सबकें मूं उतर गए।
राजा और दरबारी तो चुप्पै रए गए।
हम औरन नें सोचीं के खाली हात वापिस होबे के सिवाय कौनौ चारो नईयाँ।
मनो बुजुर्ग ठीकई कै गए हैं मन सोची कबहूँ नई, प्रभु सोची तत्काल।
हमाई बिदाई होते नें होते राजकुंवर जू दरबार में पधार गए।
कुँवर जू ने सारी बात ध्यान सें सुनी, कछू देर सोचो और सर्त के लाने हामी भर दई।
मनों अपनी तरफ सें एक सर्त और धर दई।
एं कौन सी सर्त? कैसी सर्त? महाराज जू नें हडबडा खें पूछी।
बतात हैं महाराज! बा सर्त बी बड़ी बिचित्र है।
कुँवर नें कई के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करहें जोन पर खें टरबो नईं जानत होय।
नें मानो तो अपुन जू जा कागज़ खों बांच लेओ।
जा कागज में सब कछू लिखा दओ है कुँवर नें।
जा सर्त जान खें महाराज और दरबानी परेसान हते।
कौनौ खें समझ मीन कौनऊ रास्ता नें सूझो।
महाराज ने राजकुँवरी खें बुला भेजो।
बे अपनी सखियाँ खें संगे अमराई में हतीं।
महाराज जू को संदेसा मिलो तो तुरतई दरबार कें लाने चल परीं।
राजकुँवरी ने जुहार कर अपनी जगह पे पधार गईं।
महाराज नें कौनौ भूमिका बनाए बिना पंडज्जी सें कई के बा कागज़ बांच देओ।
पंडत नें राजा कें हुकुम का पालन कर्खें बा कागज़ झट सें बांच दओ।
बामें लिखी सर्त सुन खें राजकुँवरी हौले सें मुसक्या दईं और सरम सें सर झुका लओ।
जा देख खें सबई की जान में जान आई।
महाराज नें पूछी तो राजकुँवरी नें धीरे सें कै दई के बे जा सर्त पूरी कर सकत हैं।
फिर का हती, बिटिया रानी की हामी सुनतई पंडत नें तुरतई रजा जी सें कई 'अब बिलम्ब केहि कारज कीजे ?'
रजा जू पंडत खों मतलब समझ गए और बोले- श्री गनेस जू का ध्यान कर खें मुहूर्त बताओ।
पंडज्जी तो ए ई औसर की तलास में हते।
बिनने झट से पोथा-पत्तर निकारो और मुहूरत बता दओ।
राजा नें महारानी खें बुलाबा भेजो और उन रजामंदी सें संदेश निमंत्रण पत्रिका लिखा दई।
पत्रिका में लिखो हतो के आप जू अपने राजकुंवर की बारात लें खें अमुक तिथि खों पधारें।
कवास खें आदेस दओ के जा पत्रिका राजा साब जू खें धिंगे पौन्चाओ।
खवास तो ऐई मौके की टाक माँ हतो।
जानत तो दोऊ जगू मोटी बखसीस मिलहै।
पत्रिका पहुँचतई दोऊ राजन के महलन में ब्याओ की तैयारियां सुरु हो गईं।
लिपाई-पुताई, चौक पुराई, गाने-बजाने, आबे-जाबे औए मेहमानन के सोर-सराबे से चहल-पहल हो गई।
दसों दिसा में भोर सें साँझ लौ मंगाल गान गूंजन लगे।
जैसेंई ब्याओ की तिथि आई बैसेई राजा जू अपने कुँवर साब खों दुल्हा बना खें पूरे फ़ौज-फांटे के संगे चल परे। समधी की राज में बिनकी खूबई आवभगत भई।
जनवासे में बरात की अगवानी की गई।
बेंड़नी खों नाच देखबे के खातिर लोग उमड़ परे।
बरातियों खों पेट भर जलपान और भोजन कराओ गओ।
जहाँ-तहाँ सहनाई और ढोल-बतासे बजट हते।
बरात की अगवानी भई, पलक पांवड़े बिछा दए गए।
सजी-धजी नारियाँ स्वागत गीत गुंजात तीं।
नाऊ और खवास बरातियन की मालिस करत हते।
ज्योनार कें समै कोकिलकंठों से ज्योनार गीत और गारी सुन-सुन खें बराती खूबई मजा लेत ते।
बरात उठी तो बाकी सोभा कही नें जात ती।
हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सब अपनी मस्ती में मस्त हते।
ढोल, मंजीरा, ताशा, बिगुल, शहनाई के सँग नाच-गाना की धूम हती।
मंडवा तरे भांवरन की तैयारी होन लगी।
मंडवा तरे राजकुमारी, राजकुमार दूल्हा-दुलहन के काजे रखे पटा पे बिराजे।
दोउ राजा जू, रानीजू, नजीकी रिस्तेदार दास-दासियाँ, पंडज्जी और खवास सबै आस-पास बैठे हते।
बन्ना-बन्नी गीत गूंजत हते।
चारों तरफी हल्ला-गुल्ला, चहल-पहल, उत्साह हतो।
अब जैसेईं तीं भांवरें पड़ चुकीं, बैसेई कन्या पक्ष को पुरोहित खड़ो हो गओ।
वर पक्ष के पंडज्जी सें बोलो 'नेंक रुक जाओ पंडज्जी!
अपुन दोऊ जनन खों मालुम है कै ब्याओ होबे के काजे कछू शर्तें हतीं।
पैले उनका खुलासा हो जावे, तब आगे की भाँवरें पारी जैहें।
फिर बानें कुँवर जू सें कई "कुँवर जू! पैले अपुन बतावें के बेटी जू नें कौन सी सर्त रखी हती?
अपुन जा सोई बताएँ के बा सर्त कब-कैंसें पूरी कर सकत?"
जा बात सुनतेई दुल्हा बने राजकुमार झट सें खड़े हो गए।
बे बोले स्यानन कें बीच में जादा बोलबो ठीक नईयाँ।
अपनी अकल के माफिक मैं जा समझो के राजकुमारी जी ने सर्त रखी हती के बै ऐसो बर चाउत हैं जो बैठ कें उठबो नें जानत होय।
जा सर्त में राजकुमारी जू की जा इच्छा छिपी हती के उनको बर जानकार, अकलमंद, कुल-सीलवान, सुन्दर, औए बलसाली भओ चाही।
ई इच्छा का कारन जे है के कौनऊ सभा में, कौनऊ मुकाबले में ओ खों कौउ हरा नें सकें।
बिद्वान सें बिद्वान जन हों चाए ताकतवर लोग कौनऊ बाखों हरा खें उठा नें पावे।
सबै जगा बाकी जीत को डंका पिटो चाही।
ओके जीतबे से राजकुमारी जू को सर हमेसा ऊँचो रहेगो।
राजकुमारी अपने वर के कारन नीचो नई देखो चाहें।
बे जब चाहे, जैसे चाहें आजमा सकत आंय। "
दूल्हा राजा के चुप होतई पंडज्जी ने राजकुमारी से पूछो- 'काय बिटिया जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?"
जा सुन कें राजकुमारी नें हामी में सर हिला दओ।
मंडवा कें नीचे बैठे सबई जनें राजकुमार की अकाल की तारीफ कर कें वाह, वाह कै उठे।
जा के बाद राजकुमार को पुरोहित खडो हो गओ।
पुरोहित नें खड़े हो खें कही 'हमाए राजकुमार ने भी एक सर्त रखी हती।
अब राजकुमारी जू बताबें के बा सर्त का हती और बे कैसे पूरी कर सकत हैं?'
ई पै राजकुमारी लाज और संकोच सें गड़ सी गईं, मनो धीरे से सिमट-संकुच कें खड़ी भईं।
कौनऊ और चारा नें रहबे से बिन्ने जमीन को ताकत भए मंडवा के नीचे बैठे बड़ों-बुजुर्गों से अपने बात रखे के काजे आज्ञा माँगी।
आज्ञा मिलबे पर धीमी लेकिन साफ़ आवाज़ में कई 'राजकुँवर की सर्त जा हती के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करो चाहत हैं जौन पर खें टरबो नईं जानत होय।'
हम सर्त से जा समझें के राजकुमार नम्र और चतुर पत्नी चाहत हैं।
ऐंसी पत्नी जो घरब के सब काम-काज जानत होय।
ऐंसी पत्नी जो कामचोर और आलसी नें होय।
जो घर के सब बड़ों को अपने रूप, गुण, सील और काम-काज सें प्रसन्न रख सके।
ऐसो नें होय के जब दोउ जनें परबे खों जांय तो कछू छूटो काम याद आने से उठनें परे।
ऐसो भी ने होय कि बड़ो-बूढ़ों परबे या उठबे के बाद कौनौ बात की सिकायत करे और घर में कलह हो।
राजकुमार ऐंसी सुघड़ घरबारी चाहत हैं जो कमरा में आ कें परे तो कौनऊ कारन सें उठबो नें जानें।
राजकुमार जब - जैसे चाहें परीक्छा ले लें।
दुल्हन के चुप होतई पुरोहित ने राजकुमार से पूछो- 'काय कुँवर जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?"
जा सुन कें राजकुमार नें अपनी रजामंदी जता दई।
मंडवा कें नीचे बैठे सबई लोग-लुगाई और सगे-संबंधी ताली बजाओं लगै।
राजकुंवरी और राजकुमार की समझदारी नें सबई खों मन मोह लओ हतो।
पंडज्जी और पुरोहित नें दोऊ पक्षों के सर्त पूरी होबे की मुनादी कर दई।
राजकुँवर मंद-मंद मुसक्या रए हते।
राजकुमारी अपने गोर नाज़ुक पैर के अंगूठे सें गोबर लिपा अँगना कुरेदत हतीं।
उनकें गोरे गालन पे लाली सोभायमान हती।
पंडज्जी और पुरोहित जी ने अगली भांवर परानी सुरु कर दई।
सब जनें भौत खुस भये कि दुल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के मनमाफिक आंय।
सबसे ज्यादा खुसी जे बात की हती के दोऊ के मन में धन-संपत्ति और दहेज को लोभ ना हतो।
दोऊ जनें गुन और सील को अधिक महत्व देखें संतोस और एक-दूसरे की पसंद को ख्याल रख कें जीवन गुजारन चाहत ते।
सब जनों ने भांवर पूरी होबे पर दूल्हा-दुल्हिन और उनके बऊ-दद्दा खों खूब मुबारकबाद दई।
इस ब्याव के पैले सबई जन घबरात हते कि "बैठ कें उठबो नें जानन बारो" वर और "पर खें टरबो नईं जानन बारी बहू" कहाँ सें आहें?
असल में कौनऊ इन शर्तों का मतलबई नें समझ पाओ हतो।
आखिर में जब सब राज खुल गओ तो सबनें चैन की सांस लई।
इनसे समझदार मोंड़ा-मोंडी हर घर में होंय जो धन की जगू गुन खों चाहें।
तबई देस और समाज को उद्धार हुइहै।
राजकुमारी और राजकुमार को भए सदियाँ गुजर गईं मनों आज तक होत हैं चर्चे उनकी समझदारी के।
***
२१-४-२०१७ 

दोहा

एक दोहा
*
हम तो हिंदी के हामी हैं, फूल मिले या धूल
अंग्रेजी को 'सलिल' चुभेंगे, बनकर शूल बबूल
नवगीत:
संजीव
.
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
कृष्णार्जुन
रणनीति बदल नित
करते हक्का-बक्का.
दुर्योधन-राधेय
मचलकर
लगा रहे हैं छक्का.
शकुनी की
घातक गुगली पर
उड़े तीन स्टंप.
अम्पायर धृतराष्ट्र
कहे 'नो बाल'
लगाकर जंप.
गांधारी ने
स्लिप पर लपका
अपनों का ही कैच.
कर्ण
सूर्य से आँख फेरकर
खोज रहा है छाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
द्रोणाचार्य
पितामह के सँग
कृष्ण कर रहे फिक्सिंग.
अर्जुन -एकलव्य
आरक्षण
माँग रहे कर मिक्सिंग.
कुंती
द्रुपदसुता लगवातीं
निज घर में ही आग.
राधा-रुक्मिणी
को मन भाये
खूब कालिया नाग.
हलधर को
आरक्षण देकर
कंस सराहे भाग.
गूँज रही है
यमुना तट पर
अब कौओं की काँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
मठ, मस्जिद,
गिरिजा में होता
श्रृद्धा-शोषण खूब.
लंगड़ा चढ़े
हिमालय कैसे
रूप-रंग में डूब.
बोतल नयी
पुरानी मदिरा
गंगाजल का नाम.
करो आचमन
अम्पायर को
मिला गुप्त पैगाम.
घुली कूप में
भाँग रहे फिर
कैसे किसको होश.
शहर
छिप रहा आकर
खुद से हार-हार कर गाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
२१-४-२०१७

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
अटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
***
२१.४.२०१५

हेमंत छंद

छंद सलिला:
हेमंत छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति बंधन नहीं।
लक्षण छंद:
बीस-बीस दिनों सूर्य दिख नहीं रहा
बदन कँपे गुरु लघु गुरु दिख नहीं रहा
यति भाये गति मन को लग रही सजा
ओढ़ ली रजाई तो आ गया मजा
उदाहरण:
१. रंग से रँग रही झूमकर होलिका
छिप रही गुटककर भांग की गोलिका
आयी ऐसी हँसी रुकती ही नहीं
कौन कैसे कहे क्या गलत, क्या सही?
२. देख ऋतुराज को आम बौरा गया
रूठ गौरा गयीं काल बौरा गया
काम निष्काम का काम कैसे करे?
प्रीत को यादकर भीत दौरा गया
३.नाद अनहद हुआ, घोर रव था भरा
ध्वनि तरंगों से बना कण था खरा
कण से कण मिल नये कण बन छा गये
भार-द्रव्यमान पा नव कथा गा गये
सृष्टि रचना हुई, काल-दिशाएँ बनीं
एक डमरू बजा, एक बाँसुरी बजी
नभ-धरा मध्य थी वायु सनसनाती
सूर्य-चंदा सजे, चाँदनी लुभाती
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
२१-४-२०१४

द्विपदी

द्विपदी
*
तितलियाँ खुद-ब-खुद चूमेंगी हमें
चल महकते फूल बनें, खिल जाएँ
२१-४-२०१७

बाला छंद / रामवत छंद


छंद बहर का मूल है: ८
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SIS SIS S / SIS SIS SISS
सूत्र: रररग।
दस वार्णिक पंक्ति जातीय बाला छंद।
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय रामवत छंद।
बहर: फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़े / फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़ाइलातुं ।
*
आप हैं जो, वही तो नहीं हैं
दीखते है वही जो नहीं हैं
*
खोजते हैं खुदी को जहाँ पे
जानते हैं वहाँ तो नहीं हैं
*
जो न बोला वही बोलते हैं
बोलते, बोलते जो नहीं हैं
*
माल को तौलते ही रहे जो
आत्म को तौलते वो नहीं
*
देश शेष क्या? पूछते हैं
देश में शेष क्या जो नहीं हैं
*
आद्म्मी देवता क्या बनेगा?
आदमी आदमी ही नहीं है
*
जोश में होश को खो न देना
देश में जोश हो, क्यों नहीं है?
***
SIS SIS SISS
आपका नूर है आसमानी
गायकी आपकी शादमानी
*
आपका ही रहा बोलबाला
लोच है, सोज़ है रातरानी
*
आसमां छू रहीं भावनाएँ
भ्रांत हों ही नहीं वासनाएँ
*
खूब हालात ने आजमाया
आज हालात को आजमाएँ
*
कोशिशों को मिली कामयाबी
कोशिशें ही सदा काम आएँ
*
आदमी के नहीं पास आएँ
हैं विषैले न वे काट खाएँ
***
२१.४.२०१७
***

दोहे अंगिका के

दोहे का रंग, अंगिका के संग:
संजीव 'सलिल'
(अंगिका बिहार के अंग जनपद की भाषा)
*
काल बुलैले केकरs, होतै कौन हलाल?
मौन अराधे दैव कै, ऐतै प्रातः काल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, होलै की कंगाल.
साथ न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?.
*
एक-एक के खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नीन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
२१-४-२०१० 

चौपदे

चौपदे 

दर्पण में जिसको देखा वह बिम्ब मात्र था
और उजाले में केवल साया पाया.
जब-जब बाहर देखा तो पाया मैं हूँ.
जब-कब भीतर झाँका तो उसको पाया..
*

रसानंद है छंद नर्मदा : २ उद्भव, प्रकार , अंग

रसानंद है छंद नर्मदा : २ [लेखमाला]- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’


साहित्य शिल्पी के पाठकों के लिये आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" ले कर प्रस्तुत हुए हैं "छंद और उसके विधानों" पर केन्द्रित आलेख माला। आचार्य संजीव वर्मा सलिल को अंतर्जाल जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम. आई. जी. एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।

साहित्य सेवा आपको अपनी बुआ महीयसी महादेवी वर्मा तथा माँ स्व. शांति देवी से विरासत में मिली है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी 2008 आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपने हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में सृजन के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। आपकी प्रतिनिधि कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद 'Contemporary Hindi Poetry" नामक ग्रन्थ में संकलित है। आपके द्वारा संपादित समालोचनात्मक कृति 'समयजयी साहित्यशिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बहुचर्चित है।

आपको देश-विदेश में 12 राज्यों की 50 सस्थाओं ने 75 सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं- आचार्य, वाग्विदाम्बर, 20वीं शताब्दी रत्न, कायस्थ रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, कायस्थ कीर्तिध्वज, कायस्थ कुलभूषण, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, साहित्य वारिधि, साहित्य दीप, साहित्य भारती, साहित्य श्री (3), काव्य श्री, मानसरोवर, साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, हरी ठाकुर स्मृति सम्मान, बैरिस्टर छेदीलाल सम्मान, शायर वाकिफ सम्मान, रोहित कुमार सम्मान, वर्ष का व्यक्तित्व(4), शताब्दी का व्यक्तित्व आदि।

आपने अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में बडी भूमिका निभाई है। साहित्य शिल्पी पर "काव्य का रचना शास्त्र (अलंकार परिचय)" स्तंभ से पाठक पूर्व में भी परिचित रहे हैं। प्रस्तुत है छंद पर इस महत्वपूर्ण लेख माला की दूसरी कड़ी:

रसानंद है छंद नर्मदा : २

छंद : उद्भव, अंग तथा प्रकार

- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

छंद का उद्भव आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। कथा है कि मैथुनरत क्रौंच पक्षी युग्म के एक पक्षी को बहेलिये द्वारा तीर मार दिये जाने पर उसके साथी के आर्तनाद को सुनकर महर्षि के मुख से यह पंक्ति निकल पड़ी: 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गम: शाश्वती समा: यत्क्रौंच मिथुनादेकम अवधि: काममोहितं'। यह प्रथम काव्य पंक्ति करुण व्युत्पन्न है जिसे कालांतर में अनुष्टुप छंद संज्ञा प्राप्त हुई। वाल्मीकि रामायण में इस छंद का प्रचुर प्रयोग हुआ है।

एक अन्य कथानुसार छंदशास्त्र के आदि आविष्कर्ता भगवान् आदि शेष हैं। एक बार पक्षिराज गरुड़ ने नागराज शेष को पकड़ लिया। शेष ने गरुड़ से कहा कि उनके पास एक दुर्लभ विद्या है।इसे सीखने के पश्चात गरुण उनका भक्षण करें तो विद्या नष्ट होने से बच जाएगी। गरुड़ के सहमत होने पर शेष ने विविध छंदों के रचनानियम बताते हुए अंत में 'भुजंगप्रयाति छंद का नियम बताया और गरुड़ द्वारा ग्रहण करते ही अतिशीघ्रता से समुद्र में प्रवेश कर गये। गरुड़ ने शेष पर छल करने का आरोप लगाया तो शेष ने उत्तर दिया कि आपने मुझसे छंद शास्त्र की वदया ग्रहण की है, गुरु अभक्ष्य और पूज्य होता है। अत:, आप मुझे भोजन नहीं बना सकते। मैंने आपको भुजङ्ग प्रयात छंद का सूत्र 'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात चार गणों से भुजंग प्रयात छंद बनता है, दे दिया है। स्पष्ट है कि छंदशास्त्र दैवीय दिव्य विद्या है।

किंवदंती है कि मानव सभ्यता का विकास होने पर शेष ने आचार्य पिंगल के रूप में अवतार लेकर सूत्रशैली में 'छंदसूत्र' ग्रन्थ की रचना की। इसकी अनेक टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो चुकी हैं।छंदशास्त्र के विद्वानों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है: प्रथम आचार्य जो छंदशास्त्र का शास्त्रीय निरूपण तथा नव छंदों का अन्वेषण करते हैं और द्वितीय कवि श्रेणी जो छंदशास्त्र में वर्णित विधानानुसार छंद-रचना करते हैं। कालांतर में छंद समीक्षकों की तीसरी श्रेणी विकसित हुई जो रचे गये छंद-काव्यों का पिंगलीय विधानों के आधार पर परीक्षण करते हैं। छंदशास्त्र में मुख्य विवेच्य विषय दो हैं

छंदों की रचनाविधि तथा
छंद संबंधी गणना (प्रस्तार, पताका, उद्दिष्ट, नेष्ट) आदि। इनकी सहायता से किसी निश्चित संख्यात्मक वर्गों और मात्राओं के छंदों की पूर्ण संख्यादि का बोध सरलता से हो जाता है।

छंद को वेदों का 'पैर' कहा गया है। जिस तरह किसी विद्वान की कृपा-दृष्टि, आशीष पाने के लिये उसके चरण-स्पर्श करना होते हैं वैसे ही वेदों को पढ़ने-समझने के लिये छंदों को जानना आवश्यक है। यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।
छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है। छंद शब्द के दो अर्थ आल्हादित (प्रसन्न) करना तथा 'आच्छादित करना' (ढाँक लेना) हैं। यह आल्हाद वर्णों, मात्राओं अथवा ध्वनियों की नियमित आवृत्तियों (दुहराव) से उत्पन्न होता है तथा रचयिता, पाठक या श्रोता को हर्ष और सुख में निमग्न कर आच्छादित कर लेता है। छन्द का अन्य नाम वृत्त भी है। वृत्त का अर्थ है घेरना । विशिष्ट वर्ण या मात्रा कर्म की अनेक आवृत्तियाँ ध्वनियों का एक घेरा सा बनाकर पाठक / श्रोता के मस्तिष्क को घेर कर अपने रंग में रंग लेती है। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छंद: सूत्रम्' प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उन्हीं के नाम पर इस शास्त्र को पिङ्गलशास्त्र भी कहा जाता है। गद्य का नियामक व्याकरण है तो पद्य का नियंता पिंगल है।
कविता या गीत में वर्णों की संख्या, विराम के स्थान, पंक्ति परिवर्तन, लघु-गुरु मात्रा बाँट आदि से सम्बंधित नियमों को छंद-शास्त्र या पिंगल तथा इनके अनुरूप रचित लयबद्ध सरस तथा जन-मन-रंजक पद्य को छंद कहा जाता है। किन्हीं विशिष्ट मात्रा बाँट, गण नियम आदि के अनुरूप रचित पद्य को विशिष्ट नाम से पहचाना जाता है जैसे दोहा, चौपाई, आदि।विश्व की अन्य भाषाओँ में भी पद्य रचनाओं के लिए विशिष्ट नियम हैं तथा छंदमुक्त पद्य रचना भी की जाती है। संस्कृत में भरत - नाट्यशास्त्र अध्याय १४-१५, ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर, अग्निपुराण अध्याय १, वराह मिहिर - वृहत्संहिता, कालिदास - श्रुतबोध, जयकीर्ति - छ्न्दानुशासन, आचार्य क्षेमेन्द्र - सुवृत्ततिलक, केदारभट्ट - वृत्त रत्नाकर, हेमचन्द्र - छन्दाsनुशासन, केदार भट्ट - वृत्त रत्नाकर, विरहांक - वृत्तजात समुच्चय, गंगादास - छन्दोमञ्जरी, भट्ट हलायुध - छंदशास्त्र, दामोदर मित्र - वाणीभूषण आदि ने छंदशास्त्र के विकास में महती भूमिका निभायी है।छंदोरत्न मंजूषा, कविदर्पण, वृत्तदीपका, छंदसार, छांदोग्योपनिषद आदि छंदशास्त्र के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। हिंदी में भूषण कवि - भूषणचन्द्रिका, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' - छंद प्रभाकर, डॉ. रत्नाकर - घनाक्षरी नियम रत्नाकर , पुत्तूलाल शुक्ल - आधुनिक हिंदी काव्य में छंद योजना, रघुनंदन शास्त्री - हिंदी छंद प्रकाश, नारायण दास - हिंदी छंदोलक्षण, रामदेवलाल विभोर - छंद विधान, बृजेश सिंह - छंद रत्नाकर, सौरभ पाण्डे छंद मंजरी - ने छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है।

प्रयोग के अनुसार छंद के २ प्रकार वैदिक (७- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप व जगती) तथा लौकिक (सोरठा, घनाक्षरी आदि) हैं। वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं। लौकिक छंदों का का प्रयोग लोक तथा साहित्य में किया जाता हैं। ये छंद ताल और लय पर आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अशिक्षित जन भी अभ्यास से कर लेते हैं। लौकिक छंदों की रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है। लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गये हैं उसे 'छंदशास्त्र' 'या पिंगल' कहते हैं।
छंद शब्द बहुअर्थी है। "छंदस" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यत: वर्णों, मात्राओं तथा विरामस्थलों के पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार रची गयी पद्य रचना को छंद कहा जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। छंदशास्त्र अत्यंत पुष्ट शास्त्र है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया।

वर्ण या अक्षर: एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ। ह्रस्व स्वर वाला वर्ण लघु और दीर्घ स्वर वाला वर्ण गुरु कहलाता है। वह सूक्ष्म अविभाज्य ध्वनि जिससे मिलकर शब्द बनते हैं वर्ण तथा वर्णों का क्रमबद्ध समूह वर्णमाला कहलाता है। हिंदी में कुल ४९ वर्ण हैं जिनमें ११ स्वर, ३३ व्यंजन, ३ अयोगवाह वर्ण तथा ३ संयुक्ताक्षर हैं। वर्ण वह सबसे छोटी मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। वर्ण भाषा की लघुतम इकाई है।वर्ण २ प्रकार के होते हैं- १. स्वर तथा २. व्यञ्जन। हिंदी में उच्चारण के आधार पर ११+२ = १३ वर्ण तथा ३३ +३ = ३६ व्यञ्जन हैं। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता । वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-

ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ आदि ।
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण): आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ, कं, क: आदि ।

स्वर: स्वतंत्र रूप से उच्चारित की जा सकने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है। इन्हें बोलने में किसी अन्य ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। स्वर अपने आप बोले जाते हैं और उनकी मात्राएँ होती हैं। स्वरों की मात्राओं का प्रयोग व्यञ्जनों को बोलने में होता है। स्वर की मात्र को जोड़े बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं किया जा सकता। उदहारण: क् + अ = क, क् का स्वतंत्र उच्चारण सम्भव नहीं है।
स्वर के ३ वर्ग हैं।

१. हृस्व: अ, इ, उ, ऋ।
२. दीर्घ: आ, ई, ऊ।
३. संयुक्त: ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:।

व्यञ्जन: व्यंजन स्वतंत्र ध्वनियाँ नहीं हैं। व्यञ्जन का उच्चारण स्वर के सहयोग से किया जाता है। क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व्, श, ष , स, ह व्यंजन हैं।अनुनासिक अर्धचंद्र बिंदु, अनुस्वार बिंदु तथा विसर्ग : की गणना व्यञ्जनों में की जाती है। व्यञ्जन के २ भेद स्वतंत्र व्यञ्जन तथा संयुक्त व्यञ्जन हैं।

१. स्वतंत्र व्यञ्जन स्वरों की सहायत से बोले जाने वाले व्यञ्जन स्वतंत्र या सामान्य व्यञ्जन कहलाते हैं। जैसे: क्, ख्, ग् , घ्, ज्, त् आदि।
२.संयुक्त व्यञ्जन: स्वर की सहायता से बोली जा सकने वाली एक से अधिक ध्वनियों या वर्णों को व्यञ्जन कहते हैं। जैसे: क् + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ ।

मात्रा: ह्रस्व या लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। उदाहरणार्थ अ, क, चि, तु, ऋ में से किसी एक को बोलने में लगा समय एक मात्रा है।

अनुस्वार: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली बिंदी को अनुस्वार कहते हैं। इसका उच्चारण पश्चात्वर्ती वर्ण के वर्ग के पञ्चमाक्षर के अनुसार होता है। जैसे: अंब में ब प वर्ग का सदस्य है जिसका पञ्चमाक्षर 'म' है. अत:, अंब = अम्ब, संत = सन्त, अंग = अङ्ग, पंच = पञ्च आदि।

अनुनासिक: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली अर्धचन्द्र बिंदी को अनुनासिक कहते हैं। अनुनासिक युक्त वर्ण का उच्चारण कोमल (आधा) होता है। जैसे: हँसी, अँगूठी, बाँस, काँच, साँस आदि। अर्धचंद्र-बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं। जैसे: हँस = १ + १ = २, कँप = १ + १ =२ आदि।

विसर्ग: वर्ण के बाद लगाई जाने वाली दो बिंदियाँ : विसर्ग कहलाती हैं, इसका उच्चारण आधे ह 'ह्' जैसा होता है । जैसे दुःख, पुनः, प्रातः, मनःकामना, पयःपान आदि। विसर्ग युक्त स्वर-व्यंजन दीर्घ होते है। जैसे: अंब = अम्ब = २ + १ =३, हंस = हन्स = २ + १ = ३, प्रायः = २ + २ = ४ आदि।
हलंत: उच्चारण के लिये स्वररहित वर्ण की स्थिति इंगित करने के लिए हलन्त् (हल की फाल) चिन्ह का प्रयोग किया जाता है जैसा हलन्त् के त, वाक् के क, मान्य के न साथ संयुक्त है ।

वर्ण-प्रकार और मात्रा गणना :
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं। ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है। इस प्रकार मात्रा दो प्रकार की होती हैं-

एक मात्रो भवेद ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो, व्यंजनंचार्द्ध मात्रकम्

लघु (एक मात्रिक): हृस्व (लघु अक्षर) के उच्चारण में लगनेवाले समय को इकाई माना जाता है। अ, इ, उ, ऋ, सभी स्वतंत्र व्यंजन तथा अर्धचन्द्र बिन्दुवाले वर्ण जैसे जैसे हँ (हँसी) आदि। इन्हें खड़ी डंडी रेखा (।) से दर्शाया जाता है। इनका मात्रा भार १ गिना जाता है। पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पड़ने पर गुरु गिन सकते है। स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती। मात्रा को कला भी कहा जाता है।

अ, इ, उ, ऋ, क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष , स, ह मात्रिक हैं। व्यंजन में इ, उ स्वर जुड़ने पर भी अक्षर १ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: कि, कु आदि।

गुरु या दीर्घ (दो मात्रिक): दीर्घ मात्रा युक्त वर्ण आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्रा युक्त व्यंजन का, ची, टू, ते, पै, यो, सौ, हं आदि गुरु हैं। क से ह तक किसी व्यंजन में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं। इन्हें वर्तुल रेखा या सर्पाकार चिन्ह (s) से इंगित किया जाता है। इनका मात्रा भार २ गिना जाता है। जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ या गुरु वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रा गिनते हैं। जैसे - आ, पी, रू, से, को, जौ, वं, यः आदि।

प्लुत: यह हिंदी में मान्य नहीं है। अ, उ तथा म की त्रिध्वनियों के संयुक्त उच्चारण वाला वर्ण ॐ, ग्वं आदि इसके उदाहरण हैं। इसका मात्रा भार ३ होता है।

संयुक्ताक्षर: सामान्यत:संयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, ज्ञ की मात्राओं का निर्णय उच्चारण के आधार पर होता है। संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर गुरु हो तो अर्धाक्षर से कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे: आराध्य = २+२+ १ = ५।

शब्दारंभ में संयुक्ताक्षर हो तो उसका मात्रा भार पर कोई प्रभाव नहीं होता। जैसे: क्षमा = १ + २ =३, प्रभा = ३।

शब्द: अक्षरों (वर्णों) के मेल से बनने वाले अर्थ पूर्ण समुच्चय (समूह) को शब्द कहते हैं। शब्द-निर्माण हेतु अक्षरों का योग ४ प्रकार से हो सकता ।

१. स्वर + स्वर जैसे: आई।
२. स्वर + व्यंजन जैसे: आम।
३. व्यञ्जन + स्वर जैसे: बुआ।
४. व्यञ्जन + व्यञ्जन जैसे: कम।

यदि हम स्वर तथा व्यंजन की मात्रा को जानें तो -

अर्धाक्षर: अर्धाक्षर का उच्चारण उसके पहले आये वर्ण के साथ होता है, ऐसी स्थिति में पूर्व का लघु अक्षर गुरु माना जाता है। जैसे: शिक्षा = शिक् + शा = २ + २ = ४, विज्ञ = विग् + य = २ + १ = ३।

अर्ध व्यंजन: अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक हो जाते हैं।
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ या सत्य = २१, कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१।
यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है
आत्मा - आत् / मा २२, महात्मा - म / हात् / मा १२२।
जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं | उदाहरण - स्नान - २१ । एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें - धर्मात्मा - धर् / मात् / मा २२२।

अपवाद - जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता।

उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को बोल कर देखे क + न्है + या = १ + २ + २ = ५, धन्यता = धन् + य + ता = २ + १ + २ = ५।
संयुक्ताक्षर (क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि) दो व्यंजन के योग से बने हैं, अत: दीर्घ मात्रिक हैं किंतु मात्रा गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं।

उदाहरण: पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१, गोत्र = २१, मूत्र = २१।
शब्द संयुक्ताक्षर से प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं। जैसे: त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२।
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं।

उदाहरण = प्रज्ञा = २२ राजाज्ञा = २२२ आदि।

ये नियम न तो मनमाने हैं, न किताबी। आदि मानव ने पशु-पक्षियों की बोली सुनकर उसकी नकल कर बोलना सीखा। मधुर वाणी से सुख, प्रसन्नता और कर्कश ध्वनि से दुःख, पीड़ा व्यक्त करना सीखा। मात्रा गणना नियमों के मूल में भी यही पृष्ठभूमि है।
चाषश्चैकांवदेन्मात्रां द्विमात्रं वायसो वदेत
त्रिमात्रंतु शिखी ब्रूते नकुलश्चार्द्धमात्रकम्

अर्थात नीलकंठ की बोली जैसी ध्वनि हेतु एक मात्रा, कौए की बोली सदृश्य ध्वनि के लिये २ मात्रा, मोर के समान आवाज़ के लिये ३ मात्रा तथा नेवले सदृश्य ध्वनि के लिये अर्ध मात्रा निर्धारित की गयी है।

छंद: मात्रा, वर्ण की रचना, विराम गति का नियम और चरणान्त में समता युक्त कविता को छन्द कहते हैं।

छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
छंद में स्थायित्व होता है।
छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
छंद लय बद्धता के कारण सुगमता से कण्ठस्थ हो जाते हैं।
पद : छंद की पंक्ति को पद कहते हैं । जैसे: दोहा द्विपदिक अर्थात दो पंक्तियों का छंद है। सामान्य भाषा में पद से आशय पूरी रचना से होता है। जैसे: सूर का पद अर्थात सूरदास द्वारा लिखी गयी एक रचना।

अर्धाली : पंक्ति के आधे भाग को अर्धाली कहते हैं।

चरण अथवा पाद: पाद या चरण का अर्थ है चतुर्थांश। सामान्यत: छन्द के चार चरण या पाद होते हैं । कुछ छंदों में चार चरण दो पंक्तियों में ही लिखे जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा,चौपाई आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या दल कहते हैं। कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।

सम और विषमपाद: पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।

गण: तीन वर्णों के पूर्व निश्चित समूह को गण कहा जाता है। ८ गण यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण तथा सगण हैं। गणों को स्मरण रखने सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है। अंतिम २ वर्णों को छोड़कर सूत्र के हर वर्ण अपने पश्चातवर्ती २ वर्णों के साथ मिलकर गण में लघु-गुरु मात्राओं को इंगित करता है। अंतिम २ वर्ण लघु गुरु का संकेत करते हैं।

य = यगण = यमाता = । s s = सितारा = ५ मात्रा
मा = मगण = मातारा = s s s = श्रीदेवी = ६ मात्रा
ता = तगण = ताराज = s s । = संजीव = ५ मात्रा
रा = रगण = राजभा = s । s = साधना = ५ मात्रा
ज = जगण = जभान = । s । = महान = ४ मात्रा
भा = भगण = भानस = s । । = आनन = ४ मात्रा
न = नगण = नसल = । । । = किरण = ३ मात्रा

स = सगण = सलगा = । । s = तुहिना = ४ मात्रा
कुछ क्रृतियों में यगण, मगण, भगण, नगण को शुभ तथा तगण, रगण, जगण, सगण को अशुभ कहा गया है किन्तु इस वर्गीकरण का औचित्य संदिग्ध है।

गति: छंद पठन के प्रवाह या लय को गति कहते हैं। गति का महत्व वर्णिक छंदों की तुलना में मात्रिक छंदों में अधिक होता है। वर्णिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित होता है जबकि मात्रिक छंदों में अनिश्चित, इस कारण चरण अथवा पद (पंक्ति) में समान मात्राएँ होने पर भी क्रम भिन्नता से लय भिन्नता हो जाती है। अनिल अनल भू नभ सलिल में 'भू' का स्थान बदल कर भू अनिल अनल नभ सलिल, अनिल भू अनल नभ सलिल, अनिल अनल नभ भू सलिल, अनिल अनल नभ सलिल भू पढ़ें भिन्न तो हर बार भिन्न लय मिलेगी।
दोहा, सोरठा तथा रोल में २४-२४ मात्रा की पंक्तियाँ होते हुए भी उनकी लय अलग-अलग होती है। अत:, मात्रिक छंदों के निर्दोष लयबद्ध प्रयोग हेतु गति माँ समुचित ज्ञान व् अभ्यास आवश्यक है।

यति: छंद पढ़ते या गाते समय नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिये रूकना पड़ता है, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त तथा बीच-बीच में भी यति का स्थान निश्चित होता है। हर छन्द के यति-नियम भिन्न किन्तु निश्चित होते हैं। छटे छंदों में विराम पंक्ति के अंत में होता है। बड़े छंदों में पंक्ति के बीच में भी एक (दोहा रोला सोरठा आदि) या अधिक (हरिगीतिका, मालिनी, घनाक्षरी, सवैया आदि) विराम स्थल होते हैं।

मात्रा बाँट: मात्रिक छंदों में समुचित लय के लिये लघु-गुरु मंत्रों की निर्धारित संख्या के विविध समुच्चयों को मात्रा बाँट कहते हैं। किसी छंद की पूर्व परीक्षित मात्रा बाँट का अनुसरण कर की गयी छंद रचना निर्दोष होती है।

तुक: तुक का अर्थ अंतिम वर्णों की आवृत्ति है। छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। चरण के अंत में तुकबन्दी के लिये समानोच्चारित शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे: राम, श्याम, दाम, काम, वाम, नाम, घाम, चाम आदि। यदि छंद में वर्णों एवं मात्राओं का सही ढंग से प्रयोग प्रत्येक चरण में हो तो उसकी ' गति ' स्वयमेव सही हो जाती है।

तुकांत / अतुकांत: जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। अतुकान्त छंद को अंग्रेज़ी में ब्लैंक वर्स कहते हैं।

घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।


पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है।

मात्रिक छंद: जिन छन्दों की रचना मात्रा-गणना के अनुसार की जाती है, उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं। मात्रा-गणना पर आधारित मात्रिक छंद गणबद्ध नहीं होते। मात्रिक छंद में लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है। मात्रिक छन्द के ३ प्रकार सम मात्रिक छन्द, अर्ध सम मात्रिक छन्द तथा विषम मात्रिक छन्द हैं। सम, विषम, अर्धसम छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। मात्रिक छन्द के अन्तर्गत प्रत्येक चरण अथवा प्रत्येक पद में मात्रा ३२ तक होती है।

सम मात्रिक छन्द: जिस द्विपदी के चारों चरणों की वर्ण-स्वर संख्या या मात्राएँ समान हों, उन्हें सम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख सम मात्रिक छंद अहीर (११मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार , हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा) हैं।

अर्ध सम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद बरवै (विषम चरण १२ मात्रा, सम चरण ७ मात्रा), दोहा (विषम १३, सम ११), सोरठा (दोहा का उल्टा विषम ११, सम १३), उल्लाला (विषम - १५, सम - १३) हैं ।

विषम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में चारों चरणों अथवा चतुष्पदी में चारों पदों की मात्रा असमान (अलग-अलग) होती है उसे विषम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख विषम मात्रिक छंद कुण्डलिनी (दोहा १३-११ + रोला ११-१३), छप्पय (रोला ११-१३ + उल्लाला १५ -१३ ) हैं

दण्डक छंद: वर्णों और मात्राओं की संख्या ३२ से अधिक हो तो बहुसंख्यक वर्णों और स्वरों से युक्त छंद दण्डक कहे जाते है। इनकी संख्या बहुत अधिक है।

वर्णिक छंद: वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है। प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी१२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी १६ वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी १७ वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (१९ वर्ण), स्त्रग्धरा (२१ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण) रूपघनाक्षरी (३२ वर्ण), देवघनाक्षरी (३३वर्ण), कवित्त / मनहरण (३१-३३ वर्ण) हैं। वर्णिक छन्द वृत्तों के दो प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।
वर्ण वृत्त: सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी आदि।

गणात्मक वर्णिक छंद: इन्हें वर्ण वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु-दीर्घ वर्णों से बने ८ गणों के आधार पर होती है। इनमें भ, न, म, य शुभ और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद में देवतावाची या मंगलवाची शब्द से आरंभ करने पर गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है।

दण्डकछंद: जिस वार्णिक छंद में २६ से अधिक वर्णों वाले चरण होते हैं उसे दण्डक कहा जाता है। दण्डक छंद के लम्बे चरण की रचना और याद रखना दण्डक वन की पगडण्डी पर चलने की तरह कठिन और सस्वर वाचन करना दण्ड की तरह प्रतीत होने के कारण इसे दण्डक नाम दिया गया है। उदाहरण: घनाक्षरी ३१ वर्ण।

अगणात्मक वर्णिक वृत्त: वे छंद हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।
स्वतंत्र छंद और मिश्रित छंद: यह छंद के वर्गीकरण का एक अन्य आधार है।

स्वतंत्र छंद: जो छंद किन्हीं विशेष नियमों के आधार पर रचे जाते हैं उन्हें स्वतंत्र छंद कहा जाता है।

मिश्रित छंद: मिश्रित छंद दो प्रकार के होते है:

(१) जिनमें दो छंदों के चरण एक दूसरे से मिला दिये जाते हैं। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते हैं किंतु कभी-कभी नहीं भी जान पड़ते।

(२) जिनमें दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभी उनके मिलाने का प्रयत्न किया जाता है, जैसे कुंडलिया छंद एक दोहा और चार पद रोला के मिलाने से बनता है।

दोहा और रोला के मिलाने से दोहे के चतुर्थ चरण की आवृत्ति रोला के प्रथम चरण के आदि में की जाती है और दोहे के प्रारंभिक कुछ शब्द रोला के अंत में रखे जाते हैं। दूसरे प्रकार का मिश्रित छंद है "छप्पय" जिसमें चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के दिए जाते हैं। इसीलिये इसे षट्पदी अथवा छप्पय (छप्पद) कहा जाता है।

इनके देखने से यह ज्ञात होता है कि छंदों का विकास न केवल प्रस्तार के आधार पर ही हुआ है वरन् कवियों के द्वारा छंद-मिश्रण-विधि के आधार पर भी हुआ है। इसी प्रकार कुछ छंद किसी एक छंद के विलोम रूप के भाव से आए हैं जैसे दोहे का विलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने बहुधा इसी एक छंद में दो एक वर्ण अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भी छंद में रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह छंद प्रस्तार के अंतर्गत आ सकता है।
यति के विचार से छन्द- वर्गीकरण
बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, तब यति (रुकने का स्थान) निर्धारित किया जाता है। यति के विचार से छंद दो प्रकार के होते हैं-
(१) यत्यात्मक: जिनमें कुछ निश्चित वर्णों या मात्राओं पर यति रखी जाती है। यह छंद प्राय: दीर्घाकारी होते हैं जैसे दोहा, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि।
(२) अयत्यात्मक: इन छंदों में चौपाई, द्रुत, विलंबित जैसे छंद आते हैं। यति का विचार करते हुए गणात्मक वृत्तों में गणों के बीच में भी यति रखी गई है जैसे मालिनी
छंद में संगीत तत्व द्वारा लालित्य का पूरा विचार रखा गया है। प्राय: सभी छंद किसी न किसी रूप में गेय हो जाते हैं। राग और रागिनी वाले सभी पद छंदों में नहीं कहे जा सकते। इसी लिये "गीति" नाम से कतिपय पद रचे जाते हैं। प्राय: संगीतात्मक पदों में स्वर के आरोह तथा अवरोह में बहुधा लघु वर्ण को दीर्घ, दीर्घ को लघु और अल्प लघु भी कर लिया जाता है। कभी-कभी हिंदी के छंदों में दीर्घ ए और ओ जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग किया जाता है।

पदाधार पर छंद-वर्गीकरण:

छंदों को पद (पंक्ति) बद्ध कर रचा जाता है। पंक्ति संख्या के आधार पर भी छंदों को वर्गीकृत किया जाता है।

द्विपदिक छंद: ऐसे छंद दो पंक्तियों में पूर्ण हो जाते हैं। अपने आप में पूर्ण तथा अन्य से मुक्त (असम्बद्ध) होने के कारण इन्हें मुक्तक छंद भी कहा जाता है। दोहा, सोरठा, चौपाई, आदि द्विपदिक छंद हैं जिनमें मात्रा बंधन तथा यति स्थान निर्धारित हैं जबकि उर्दू का शे'र तथा अंग्रेजी का कप्लेट ऐसे द्विपदिक छंद हैं जिसमें मात्रा या यति का बंधन नहीं है।

त्रिपदिक छंद: ३ पंक्तियों में पूर्ण होने वाले छंदों की संस्कृत काव्य में चिरकालिक परंपरा है। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से भी ऐसे छंद ग्रहण किये हैं। जैसे: संस्कृत छंद ककुप्, गायत्री, पंजाबी छंद माहिया, उर्दू छंद तसलीस, जापानी छंद हाइकु आदि। इनमें से हाइकु वर्णिक छंद है जबकि शेष मात्रिक हैं।

चतुष्पदिक छंद: ४ पंक्तियों के छंदों को हिंदी में मुक्तक, चौपदे आदि कहा जाता है। इनमें मात्रा भार तथा यति का बंधन नहीं होता किन्तु सभी पदों में समान मात्रा होना आवश्यक होता है। उर्दू छंद रुबाई भी चतुष्पदिक छंद है जिसे निर्धारित २४ औज़ान (मानक लयखण्ड) में से किसी एक में लिखा जाता है।

पंचपदिक छंद: जापानी छंद ताँका हिंदी में प्रचार पा रहा है। ताँका संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। ताँका मूलत: जापानी छंद है जिसमें ५ पंक्तियाँ होती है।

षटपदिक छंद: ६ पंक्तियों के पदों में कुण्डलिनी सर्वाधिक लोकप्रिय है। कुण्डलिनी की प्रथम २ पंक्तियाँ शेष ४ पंक्तियाँ रोला छंद में होती हैं।

चौदह पदिक छंद: अंग्रेजी छंद सोनेट की हिंदी में व्यापक पृष्ठभूमि अथवा गहराई नहीं है किन्तु नागार्जुन, भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' आदि कई कवियों ने सॉनेट लिखे हैं। कुछ सॉनेट मैंने भी लिखे हैं।

अनिश्चित पदिक छंद: अनेक छंद ऐसे हैं जिनका पदभार तथा यति निर्धारित है किन्तु पंक्ति संख्या अनिश्चित है। कवि अपनी सुविधानुसार पद के २ चरणों में, अथवा हर २ पंक्तियों में या कथ्य अपनी सुविधानुसार पदांत में टूक बदलता रहता है। चौपाई, आल्हा, मराठी छंद लावणी आदि में कवियों ने छूट बहुधा ली है। उर्दू की ग़ज़ल में भी ३ शे'रों से लेकर सहस्त्रधिक शे'रों का प्रयोग किया गया है। गीतों कजरी, राई, बम्बुलिया आदि में भी पद या पंक्ति बंधन नहीं होता है।

मुक्त छंद: जिस छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो, न मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है । मुक्त छंद तुकांत भी हो सकते हैं और अतुकांत भी। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं।
अगले लेख से छंद रचना की ओर बढ़ेंगे और द्विपदिक छंद दोहा की रचना प्रक्रिया की चर्चा करेंगे।
१९-१०-२०१५ 
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घरेलू नुस्खे

घरेलू नुस्खे

१. टाइल्स या संगमरमर पर गंदगी या दाग हो एक शीशी में ३/४ भाग पानी भर लें , थोड़ा सिरका मिलाकर स्प्रे बोतल में भर लें। इसे छिड़ककर रगड़ें तो दाग दूर हो जाएँगे।

२. गिलास लंबी पतली शीशी आदि की तली में दाग गंदगी हो तो एक बेकाम टूथ ब्रश लें , मोमबत्ती जलाकर इसी गर्दन को गर्म करें। कपड़ा ले कर इसे ९० अंश पर मोड़कर ठंडा कर लें। अब शीशी में साबुन या वाशिंग पाउडर डालकर ब्रश से रगड़ दें। दाग निकल जाएँगे।

३. कढ़ाई की तली में दाग हों तो कुछ दें और निचोड़े हुए नीबू के छिलके से रगड़ें दाग छूट जाएँगे।

४. छिपकली भगाने के लिए एक शीशी में गरम पानी लेकर उसमे काली मिर्च चूर्ण मिला दें। इसे उन स्थानों पर छिड़कें जहाँ छिपकली आती है। छिपकली कली मिर्च की गंध से भाग जाएगी।

५. गुड़ या शक्कर में कीड़े लगते हों तो ३-४ लौंग डालकर बर्तन बंद कर दें। कीड़े भाग जाएँगी।

६. सब्जी सूख रही हो तो कुछ देर पानी में आधा नीबू निचोड़कर डुबादें। आधा घंटे बाद निकालकर पोछ लें, ताजा हो जाएँगी।

७. प्लास्टिक के एयर टाइट डब्बे के ढक्कन ढीले हों तो उन्हें आधा घंटे फ्रीजर में रख दें, फिर निकल कर डब्बे पर लगाकर रखें।

८. लहसन अदरक आदि को लंबे समय तक सूखने से बचाहे के लिए किसी एयर टाइट डब्बे या शीशी में रखें।

९. गर्मी में छोटे पौधों की पत्तियोन को मुरझाने से बचाने के लिए धुप तेज होने के पहले और धूप ढलने के बाद उन पर पानी छिड़कें। स्प्रे बोतल न हो प्लास्टिक बोतल के ढक्कन में ४-५ छेद कर लें, उसमें पानी भरकर पत्तों पर डाल सकते हैं। 
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