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शनिवार, 10 अप्रैल 2021

कही ईसुरी फाग, उपन्यास, मैत्रेयी पुष्पा

पुस्तक चर्चा 

कही ईसुरी फाग, उपन्यास, २०१८, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ ३३९, आवरण सजिल्द बहुरंगी, आईएसबीएन ९७८८१२६७०८८३३

कुछ अंश

ऋतु डॉक्टर नहीं बन पाई क्योंकि रिचर्ड गाइड प्राध्यापक प्रवर पी.के. पाण्डे की दृष्टि में ऋतु ने ईसुरी पर जो कुछ लिखा था, वह न शास्त्र-सम्मत था ,न शोध अनुसंधान की जरूरतें पूरी करता था। वह शुद्ध बकवास था क्योंकि ‘लोक’ था। 

‘लोक’ में भी कोई एक गाइड नहीं होता। लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं-जो जहाँ तक का रास्ता बता दे वही गाइड बन जाता है-कभी-कभी तो कोई विशेष पेड़, कुआँ या खंडहर ही गाइड का रूप ले लेते हैं। ऋतु भी ईसुरी-रजऊ की प्रेम कथा के ऐसे ही बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार है। बड़ा खतरनाक होता है जंगलों, पहाड़ों, और समुद्र का आदिम सम्मोहन...हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के ‘दर्शन’ के लिए ‘कहीं ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऐसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है।

शास्त्रीय भाषा में ईसुरी शुद्ध ‘लम्पट’ कवि है- उसकी अधिकांश फागें एक पुरुष द्वारा स्त्री को दिये शारीरिक आमंत्रणों का उत्वीकरण है। जिनमें श्रृंगार काव्य की कोई मर्यादा भी नहीं है। इस उपन्यास का नायक ईसुरी है, मगर कहानी रजऊ की है-प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ दोनों के रास्ते बिलकुल विपरीत दिशाओं को जाते हैं। प्यार बल देता है तो तोड़ता भी है...

सिद्ध संगीतकार कविता की किसी एक पंक्ति को सिर्फ अपना प्रस्थान बिन्दु बनाता है-बाकी ठाठ और विस्तार उसका अपना होता है। बाजूबंद खुल-खुल जाए में न बाजूबंद रात-भर खुल पाता है, न कविता आगे बढ़ पाती है क्योंकि कविता की पंक्ति के बाद सुर-साधक की यात्रा अपने संसार की ऊँचाइयों और गराइयों के अर्थ तलाश करने लगती है। मैत्रैयी पुष्पा की कहानी उसी आधार का कथा-विस्तार है-शास्त्रीय दृष्टि के खिलाफ़ अवैध लोक का जयगान।

अस्वीकृति पत्र

प्रमाणित किया जाता है कि कुमारी ऋतु ने हिन्दी विषयान्तर्गत ‘ईसुरी के काव्य में नारी संचेतना’ शीर्षक से शोधकर्ता पी.एच.डी की उपाधि हेतु मेरे मार्ग-निर्देशन में निष्पादित एवं पूर्ण किया है। शोधार्थी ने दो सौ दिवस से अधिक की उपस्थितियाँ दर्ज कराई हैं।

मेरी जानकारी एवं विश्वास में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध शोधार्थी का स्वयं का कार्य है। विषय चयन की दृष्टि से भी यह कार्य गम्भीर अध्ययन-विश्लेषण की माँग करता है, क्योंकि शोधकर्ता का लक्ष्य होता है अज्ञात को ज्ञात करना तथा ज्ञात को नई दृष्टि के आलोक में विश्लेषित करना।परंतु इस शोध को लेकर मेरी कुछ आपत्तियाँ हैं क्योंकि इस प्रबन्ध विश्वविद्यालय की शोध-उपाधि के लिए अध्यादेश की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करता।

1. शोधग्रन्थ के निष्कर्षों के लिए कुछ लिखित प्रमाण आवश्यक होते हैं, जैसे-विद्वानों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों से उद्धरण, इतिहास ग्रन्थों से लिए गए प्रमाण, पत्र-पत्रिकाओं में दिए गए मंतव्य। ऐसे ही साक्ष्यों से निष्कर्षों को पुष्ट किया जाता है। अन्य पांडित्यपूर्ण गवेषणाएँ, जो शोध का आधार हो सकती हैं, इस शोध-प्रबन्ध में नहीं है। तब फिर संदर्भ नोट और संदर्भ-सूची बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई।

अनावश्यक काल्पनिक बातों, सुनी-सुनाई किंवदन्तियों को शोध का आधार बनाया गया है। साहित्य में अभी तक ‘ईसुरी और रजऊ’ ये दो ही नाम मिलते हैं। लोक साहित्य, वह भी मौखिक माध्यम, इस दिशा में कोई मानक प्रमाण नहीं हो सकता। यह शोध तो एक तरह से ईसुरी जैसे महान कवि का चरित्र हनन है। यदि हमारे कीर्ति-पुरूषों पर इस तरह के शोध-प्रबन्ध लिखे जाएँगें तो हम उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा किस प्रकार कर पाएँगे ?

2.जहाँ तक इस शोध-प्रबन्ध की भाषा का प्रश्न है, वह भी तत्सम, प्रांजल और परिनिष्ठित रूप में नहीं है। चालू मुहावरे की बोलचाल वाली भाषा का प्रयोग किया गया है। माना कि यह रोचक और लोकप्रिय हो सकती है, मगर साहित्यिक नहीं। भाषा के इस व्यवहार से शोध की शास्त्रीय गरिमा को ठेस पहुँचती है। यह मान्य प्रविधि के प्रतिकूल है।
कुल मिलाकर मैं विश्वविद्यालयीन अकादमिक स्तरीयता को देखते हुए इस शोध-प्रबन्ध पर शोधकर्ता को पी.एच.डी की उपाधि देने की अनुशंशा करने के लिए विवश हूँ।
-डॉ.प्रमोद कुमार पाण्डेय
निर्देशक

नाटक

दिन के साढ़े दस बजे थे। गली में धूप फैल गई थी। तभी मैरून रंग की चमचमाती हुई कार सर्राटे से गली में घुस आई। उस चबूतरे के पास खड़ी हो गई, जिसके ऊपर नीम का पेड़ था और नीम के आगे बैठका बना था। बैठका के किवाड़ बन्द थे, क्योंकि फगवारे रात के लिए फाग-नाट्य का अभ्यास कर रहे थे। इसलिये उन्हें इस ‘आई कोन फोर्ड’ ब्रान्ड कार के आने का पता नहीं चला। हार्न की आवाज भी सुनाई नहीं दी। अन्दर झीका नगड़िया, मंजीरा, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य बज रहे थे। गली में बहुत सारे बच्चे इकठ्ठे हो गए। इनकी आँखों में भी कोई कौतूहल न था, अभ्यस्तता-सी थी, जैसे कार का आना-जाना अक्सर देखते हों अपने गांव में। बहरहाल छोटे से छोटा बच्चा कार में से उतरने वालों की उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। किसी-किसी बच्चे ने कार के शीशे पर आँखें सटा रखी थीं।

क्या इस कार में से कोई परी उतरने वाली है ? या कोई सांता क्लॉज, जो इन बच्चों के लिए तोहफे लाए ? मगर बहुत देर तक कोई नहीं उतरा।

कार ड्राईवर बराबर हॉर्न दिए जा रहा था। गली कर्कश शोर से भर गई। बच्चे भी सहम कर पीछे हट गए। गली में खुलने वाले घरों से इक्का-दुक्का लोग निकले, जो कार को देखकर घरों में ही लौट गए।

तभी बैठका का दरवाजा खुला। किवाड़ों के बीच नगड़िया बजानेवाला कलाकार दिखा। और फिर कार के पिछले दरवाजे खुले। भीतर से जो निकले, वे दो लड़केनुमा आदमी थे। पोशाक के नाम पर जींस के साथ डेनम की जैकेट। छाती पर बटन खुले हुए। इनकी इकहरी छाती के बाल मर्दानगी की निशानी हैं, दिख रहा था। गले में फैशन के तहत रूद्राक्ष की मालाएँ और बाहों पर काले धागे के जरिए बँधे ताबीज। उनका पहनावा यूनीफार्म की तरह था, जो किसी संस्था की एकता के चिन्ह की तरह होता है। संस्था के क्या तेवर होंगे, यह लड़कों की सुर्ख आँखों से जाना जा सकता था। उनकी नजरें भी नेजों की तरह तेज थीं। जल्दबाजी अंगों में फड़क रही थी। चाल में खास किस्म की दमक, जो दहशत-सी पैदा करती थी। चेहरे के भावों में लोलुपता का रंग लार की तरह टपकता था। मुझे ऐसा ही लगा। हो सकता है अपने लड़कीपन के कारण लगा हो, जो संस्कारों में घुला है।

वे बैठका के भीतर समा गए। अभिनय के लिए ‘ग्रीन रूम’ रूपी कोठे में बहती वाद्यों की स्वर-तरंगें यकायक ऐसे रुक गई जैसे सामने कोई अलंघ्य पहाड़ आ गया हो। कहाँ मौके के हिसाब से वाद्यों के साथ फागें ऐसे क्रम में बिठाई जा रही थीं, जैसे माला को मोहक और मजबूत बनाने के लिए मनकों और धागे को जोड़ा जाता है ।

कथा के अनुसार लोककवि ईसुरी की उन फागों को विशेष महत्त्व दिया जा रहा था, जो उनकी प्रेमिका रजऊ की ओर से थीं।

लड़के अब फगवारों के आमने-सामने थे। मैं उन्हें बाहर से देख रही थी। मैं, अर्थात ऋतु नाम की युवती। मैंने माइकेल जैक्सन को टेलीविजन के पर्दे पर देखा है। कार से उतरकर यहाँ तक आने वाला एक लड़का माइकेल जैक्सन छाप लम्बे बाल रखे हुए था, लम्बे और सीधे। दूसरे के सिर पर खूँटानुमा छोटे बाल थे। मेरा साथी माधव ऐसे बालों को अमेरिकन स्टाइल में ‘क्रूकट’ कहता है। दोनों लड़कों का कद लम्बा माना जा सकता था, ऐसा जैसा की पुलिस और सेना के लिए काम करने वाले युवकों की भर्ती करते समय लम्बाई और सीने की चौड़ाई का खास माप रखा जाता है।

बेशक वे पतली कमर के मालिक थे और जरूरत से ज्यादा चौड़ी पेटियाँ कमर में बाँधे थे। मैंने यह भी गौर किया कि वे सीढ़ियों के जरिए चबूतरे पर नहीं चढ़े थे, खास तरीके से टाँगें उछालते हुए ऊपर आ गए थे। इस अदा ने उनके रूप को नई तरह का रूतवा दिया था, इसमें संदेह नहीं। साथ ही खुली किवाड़ों को बेमतलब धकियाते हुए बैठका में प्रविष्ट हुए, उनकी अपनी नई शैली थी। और फिर-

‘‘हल्लो’’ धीरे पंडा का अभिनय करने वाला फगवारा फुर्ती से आगे बढ़ता हुआ आया और हाथ बढ़ाकर माइकेल जैक्सन से हाथ मिलाया।

मगर इसके बरक्स मेरी निगाह वहाँ ठहर गई, जहाँ कार ड्राइवर अपनी जेब से टॉफी निकाल-निकालकर बच्चों को बाँट रहा था और बच्चे उत्फुल्ल होकर होंठों पर जीभ फेरते हुए छोटे-छोटे हाथों से सौगात ग्रहण कर रहे थे।
इधर क्रूकट पूछ रहा था- ‘‘कैसे हाल-चाल हैं ?’’
‘‘नाटक कर रहे हैं। फागें बढ़िया रंग लै रही हैं।’’ धीरे पंडा ने कहा।

इतने में दो मूढ़े बराबर-बराबर रख दिए गए। वे दोनों इत्मिनान से मूढ़ों पर विराजे और दो क्षण बाद ही माइकेल जैक्सन ने अपनी जैकेट की जेब से छोटी-सी थैली निकाली। थैली खैनी की थी। वह हथेली पर खैनी अँगूठे से मलने लगा, पट्ट-पट्ट की आवाज हुई। खैनी मुँह में डालने से पहले सवाल किया- ‘‘कितने दिनन को पिरोगराम है ?’’
मैं चौकी। अत्याधुनिक वेशभूषा और अति गँवार भाषा-बोली !
धीरे पंडा जवाब दे रहा था- ‘‘ सरस्वती देवी जानें कि हमें कितेक दिनन रोकेंगीं।’’
‘‘फिरऊँ।’’ क्रूटक ने मुँह मटकाया।
‘‘हफ्ता-दस दिना तो मामूली हैं। गाँव में भी जोश है।’’
‘‘कैसो गाँव है ! गाँवन में आजकल फागें को सुनत ? बैंचो सब पिक्चर के दिवाने हैं। सबै स्वाँग चइर।’’
‘‘चइर, तब ही तो हमने फागें नाटक में ढाली हैं। सरस्वती देवी नई-नई जुगत खोजने वाली जनी है। सो देख लो रात को लोग आसपास के गाँवों से चले आ रहे।’’ धीरे पंडा अपने काम पर मुग्ध था।
मैं कोठे के बाहर खड़ी थी। माइकेल जैक्सन बीच-बीच में बाहर देख लेता था। थोड़ी ही देर बाद पूछ बैठा- ‘‘मंडली में लड़कियाँ भर्ती करलईं का ?’’

नगड़िया वाला तुरंत बोला - ‘‘अरे आँहा !’’ कहकर उसने कानों में हाथ लगाया। माइकेल जैक्सन सिर हिला-हिला कर मुस्काया और बोली में व्यंग्य मिलाकर बोला- ‘‘हओ, ऐसो पाप करम तुम्हारी सरसुती नहीं करेंगी, काए से कि बैंचो फगवारे मतवारे हो जाएँगे। फागुन में क्वार महीना।’’ कहकर वह ठाहाका लगाकर हँसा। क्रूकट ने हँसी में साथ निभाया। आगे क्रूकट बोला- ‘‘खुर्राट डुकरिया है, सिरकारी लोगन खों भरमा रही है।’’

धीरे पंडा बनने वाला कलाकार माइकेल जैक्सन और क्रूकट के गूढ़ दर्शन को नासमझ की तरह मुँह बाए सुन रहा था। बाकी फगवारे भोले बच्चों की तरह स्वीकृति में सिर हिला रहे थे।

हाँ मैं तनिक पीछे हट गई कि वे मुझे न देख सकें। मगर वे भी तो मुझे नहीं दिख पा रहे थे। बस उनमें से एक की आवाज सुनाई दी- ‘‘तुम लोग खुदई देखोगे एक दिना कि तुम्हारी बूढ़ी सरसुती चिरइया जहाज में बैठके उड़ गई। हम ऐसी तमाम औरतन खों जानते हैं, जौन अनुदान खा-खाकें मुटिया रही हैं। सो बस सरसुती जी होंगी मालामाल और तुम ससुर जू ठोकते रहो नगड़िया, नाचते रहो जिन्दगी भर-।’’

मैं आवेश में उस खिड़की पर आ गई, जिनके पाटों के बीच महीन-सी फाँक थी। मेरे भीतर गालियों की झड़ी लग गई- बदतमीज, बदमाश, गुंडे सरस्वती देवी का इस तरह अपमान कर रहे हैं ? आखिर वे इनका क्या खाती हैं ? मालामाल हो गईं होती तो छोटे से गाँव सटई में रह रही होतीं ? कच्ची गलियों में पैदल चल रही होतीं ?

अब क्रूकट की बारी थी- ‘‘हम कितेक समझाएँ तुम्हें कि हाथी के दाँत खावे के और, दिखावे के और। इन सरसुती जू के भरोसे न रहो, लछमीं जू का भी मान-आदर करो। कहो, हमारे संगै जब-जब गए हो, जेबें भरके रूपइया मिले हैं कि नहीं ?’’
धीरे पंडा ने हामी भरी, सिर ऊपर-नीचे हिलाया। नगड़िया वाले ने मुस्कराहट के साथ कहा- ‘‘सो ऐसान मानते हैं हम तुमारा।’’

माइकेल जैक्सन ने उँगली के बाद कलाई पकड़ने जैसा भाव दिखाया- ‘‘ऐसान काय का ? बैंचो आँधी के से आम हते। कोन-सी परमामेन्ट आमदनी हती ? ऐसान तो तब मानोगे, जब पाँच सितारे वाले होटिल में तुम्हें ठाड़े कर देंगे हम। पोंदन (चूतरों) के नीचे मखमल और पाँवन तले ईरानी कालीन’’ धीरे पंडा अकबकाया- सा देखने लगा।

क्रूकट बोला-‘‘उजबक की तरियाँ क्या देख रहे ? हमारी तरफन अच्छी तरह हेरो। देख लो, मोबाइल गरे में डारे हैं और तमंचा जेब में धरे हैं। बैंचो आईकोन ठाड़ी है अरदली में, और क्या चइए आज के जमाने में ? सेठन के मोंड़ा क्या सोने की लेंड़ी हग रहे सो हम नहीं हग रहे ?’’ वाक्य समाप्त करने तक क्रूकट के हाथ में पिस्तौल दिखाई दी। उसने अपने हथियार को धूर्तता से मुस्कराते हुए उस खिड़की की ओर तान दिया, जिधर मैं खड़ी थी।
‘‘यार धीरे पंडा, हुनर खों पहचानो। तुम्हारे जैसी अदाकारी इलाका भर में नहीं है किसी के भीतर। बास्टर सारूफ खाँ की माँ..

तब तक माधव लौट आया, जो नहाने गया था। बाँह पर भींगे अण्डरवियर और बनियान लटकाए हुए साँवले और इकहरे बदन वाला माधव धुली साफ बनियान और पायजामा पहने हुए पूछ रहा था- ‘‘ऋतु, पड़ौस वाले घर से कोई खाने के लिए लिवाने नहीं आया ? सरस्वती देवी तो कह रही थी कि इनकी साथिन सरोज हमारे लिए खाना बना रही है।’’
मैं माधव की बात सुनकर झुँझला गई, क्योंकि पहले से खीझी हुई थी।

‘‘तुम्हें तो खाने की पड़ी है बस। यह क्या खाने ही आए थे ? और अब इतनी देर में आए हो, क्या नदी नहाने गए थे ?’’ कहना चाहती थी कि देखो हमारी तुम्हारी उम्र के लड़के क्या तूफान उठाने वाले हैं !

मगर तब तक क्रूकट मंडली के बीच लाठी की तरह खड़ा हो गया था। कहने के लिए मैंने उधर से मुँह फेर लिया, क्योंकि माइकेल जैक्सन ने खिड़की खोल दी थी और वह..पंडा से कह रहा था- ‘‘यार सरसुती बाई की चेली से इंटोडैक्सन तो करा दो । इनें तौ एक दिन रजऊ को पाट खेलनें ही हैं और हमारे संगै जानें ही है। सरसुती खों इन मेनका जू के दम पर अनुदान नहीं खाने देंगे हम। जो कि वे खाएँगी कि इस्तरी ससक्तीकरन कर रही हैं। और ससुर जू तुम्हें लोहे के लंगोटों में कस देगी कि बधिया हो जाओ।’’

माइकेल जैक्सन हँस पड़ा- ‘‘तब भागोगे मंडली छोड़कर। मौकापरस्त औरत के दाँव अभी से समझ लो ससुरी खों उल्टी मात दै दो।’’
धीरे पंडा बनने वाला अभिनेता मंडली का मुख्य आदमी है। वह कभी इन लड़कों को ललचाई निगाह से देखता तो कभी आँखें अजिज-सी हो जातीं।
‘‘अच्छा ठीक है। जो जब होगा सो तब देखा जाएगा। तुम तो अपनी सुनाओ।’’

माइकेल जैक्सन के चेहरे पर आत्मविश्वास बोल रहा था- ‘‘क्या बता दें, बैंचो देख नहीं रहे कि ‘आइकोन’ झुपड़िया के आगे काए ठाड़ी ? हम भइया जौहरी हैं, हीरा तलासते फिर रहे हैं। तुम्हें चमकनें है तो चलो संगै, नातर ससुर जू इतै परे-परे घूरा चाटो।’’ धीरे पंडा ने हाथ जोड़कर उन लड़कों की औकात बढ़ा दी। वह गर्व से बोला-‘‘ तुम कह रहे थे यह वारी-फुलवारी सरसुती देवी के कारण फूली-फली है तो हम कह रहे हैं नास भी उन्हीं के कारन होगी नास-विनास में तुम न घिरो। फिरांस की पार्टी आई है, राग-रंग की सौखीन है। ओरक्षा में रजऊ और ईसुरी की प्रेम कहानी सुनी होगी। सालिगराम कराटे गुनी गाइड है, सो समझा दई कि बुन्देलखण्ड में पग-पग पर मनमोहिनी लुगाई हैं।’’

मानकेल जैक्सन ने जेब में से छोटा सा पर्स निकाला। धीरे पंडा बननेवाले कलाकार के आगे हजार-हजार के दो नोट लहरा दिए।
‘‘देख रहे हो ऐसे तो कितने ही पैदा हो जाएँगे। फ्रेंक, पोंड और डॉलर की माया देखोगे तो गस आ जाएगा। इतै तुम ससुर जू पूरी पपरिया खाकर समझ रहे हो, राजा हो गए। चना-चबैना रोज की खुराक मान रहे हो। क्या कहते हैं कि लाई के लडुआ सुईट डिस। अब तक गाँवों के कलाकार ऐसे लुटते रहे हैं। ईसुरी की लीला कर रहे हो ईसुरी की असलियत जानते हो ? कैसी दिसा भई। तुम्हारे लानें तो कोई आवादी बेगम भी पैदा नहीं होने वाली। आज की औरतें सरसुती बनकर तुम्हें तबाह कर देंगी।’’

मैं बुरा मानू मुझे होश नहीं था। मेरी वह दुनिया उजड़ी जा रही थी, जिसे बसाने की शुरूआत मैंने कर दी थी। और बड़ी कोशिशों, बड़ी ठोकरों के बाद पाया था, यह ठिया।

मन में आया क्रूकट के हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँ। अपने काम की दुहाई दूँ। सारा का सारा ब्योरा बताऊँ यहाँ फागों का होना हमारी पहुँच के भीतर है। पाँच सितारा होटल में इस फाग-लोक को कैद मत करो। बसंतोत्सव में मेरा साहित्य-शोध छिपा है, इस पर पहरे मत लगाओ। लोक संस्कृति पर हमारा भी हक है, हिस्सा हमसे मत छीनो। मगर क्रूकट अपनी रौ में था।

‘‘विदेशी लोग मौंमागा पइसा देते हैं। समझे धीरे पंडा रूपी रतीराम जी ? देर करोगे तो गढ़ी म्हलैरावाली मंडली मोर्चा मार लेगी। तुम पछताते रह जाओगे। हम तो महुसानिया के मंडली डीलर खों भी अडवांस दे आए हैं। सीजन की बात है। फिर तो हम भी वैष्णों देवी के जागरन की डीलिंग में लग जाएँगे, ससुर बखत ही कहाँ है ?’’

लगातार क्रूकट का मोबाइल फोन भी चल रहा था- हल्लो, बातचीत चल रही थी। सौदा पट रहा है। कम-बढ़ की गुंजाइस राखियो ।
माइकेल जैक्सन ने यह कहकर धीरे पंडा को पटा लिया कि वह फगवारों का शीश मुकुट है। रघु नगड़ियावाला माना हुआ उस्ताद है और सोनुआ झींका बजाने में प्रदेश प्रसिद्ध वादक। तीनों राई नाच में घूँघट ओढ़कर नर्तकियों के ‘अपरूप मौडिल’ बन जाते हैं। किरनबाई बेड़िनी से भी सौदा चल रहा है।

चटपटे प्रोग्राम के लिए गर्मागर्म नोट थमाए माइकेल जैक्सन ने और मंडली को खरीद लिया। लाभ-लोभ की बातें-वीडियो फिल्म बनेगी, सी डी बिकेंगी, हिस्सा बराबर रहेगा। आमदनी लगातार होगी। जी टी. वी., सोनी टी. वी पर देख लेना अपनी फोटू। हल्के होकर चलो। झींका-मींका, नगड़िया-फगड़िया मत लादो, गिटार बजेगी जमकर। क्या कहते हैं कि सिंथैसाइसर तैयार रखा है। अँग्ररेजी धुन में सजकें फागें अँगरेजिन हो जाएँगी। एक दिना तीजनबाई की तरह तुम विदेस के लानें उड़ जाओगे। हित की बातें सुन लो, नातर इन गाँवन में पड़े-पड़े सड़ जाओ। सरसुती देवी भी तुम्हें सड़े अचार की तरह नुकसानदायक मानकें फेंक देंगी।

सौदा होते ही क्रूकट कार में से यूनीफार्म निकाल लाया।
‘‘बसंती कमीज !’’ धीरे पंडा ने कहा तो माइकेल बोला- ‘‘कमीज नहीं यल्लो टी साट। बिलेक पेंट। टीसाट पर क्या लिखा है ? पढ़े हो तो पढ़ो-
‘मेरा भारत महान !’

पेंच के घुटनों पर जय हिन्द की चिप्ची ! देखते ही देखते फगवारों की टोली ‘आइकोन फोर्ड’ कार में भर गई। जो बाकी बचे थे, उनके लिए डिक्की खोल दी गई। वे सामान की तरह ठँस गए।
कच्ची गली थी। कार चली गई, पीछे धूल का गुबार था बड़ा-सा।
मैं और माधव खड़े थे, लुटी-लुटी गली में, उजड़े से गाँव में खून-खच्चर सपनों की छाँव में... स्तब्ध और हतप्रभ !
हताशा ने चेतना सोख ली।

माधव ने मेरी ओर देखा, जैसे पूछ रहा हो-अब ? अब अगला पड़ाव कहाँ होगा ? हम दोनों ऐसे ही चुपचाप कितनी देर तक खड़े रहे ? मैं पीछे कब लौटी ? सत्रह गाँव की खाक छानकर आई मैं, ऋतु, जहाँ रजऊ की खोज में जाती, वहाँ ईसुरी के निशान तो मिलते, प्रेमिका का पता कोई नहीं देता था, जैसे उसके बारे में बताना किसी वेश्या का पता देना हो। ईसुरी के साथ जोड़कर लोग उसके नाम पर मजा लेते, मगर उसको अपने आसपास की स्त्री मानने से मुकर जाते। बुरा मानते कि एक लड़की उस बदचलन औरत के बारे में बात कर रही है और गाँव की लड़कियों को उस बदनाम स्त्री से परिचित कराने की कोशिश में है।
एक आदमी ने विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहा था-आजकल पढ़ाई में लुच्चियायी फागें सोई पढ़ाई जाती ?
एक गाँव में एक मनचले ने मुझे घेरकर कहा था-सुनोगी, तुम्हारे लानें हम ईसुरी की फागें लाए हैं-

जुवना कौन यार खों दइए, अपने मन की कइए
हैं बड़बोल गोल गुरदा से, कॉ लौ देखें रइए
जब सर्रति  सेज के ऊपर, पकर मुठी में रइए
हात धरत दुख होत ईसुरी, पीरा कैसें सइए

( तुम किस यार को जुबना दोगी ? इनकी बड़ी कीमत है। ये गुरदे की तरह गोल हैं। सेज पर सर्राते हैं मुठ्ठी में कस लेने को मन करता है। हाथ रखने से दुखते हैं, तुम दर्द कैसे सहोगी ?)

वह गाँव मेरी बुआ का गाँव था, मेरी बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया है ? मैं अपने ऊपर झुँझलाकर रह गई क्योंकि कोई शिकायत करती तो रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार न करता, उसके रूप में मेरी देह के अक्स लोगों के सामने फैल जाते।

तब क्या मैं अपने लक्ष्य को वापस ले लूँ ? ऊहापोह में उस गाँव से सवेरे ही सवेरे अपना बैग उठाकर भागी थी, बुआ अचम्भा करती रह गई। अरे लड़की महीने भर के लिए आई थी, मगर...
‘क्या मैं विषय बदल दूँ ?’ सोचा यह भी था।
मगर अपना मन कैसे बदलूँगी ? मन जो माधव को ईसुरी के रूप में देखकर जुड़ा गया था। माधव का ध्यान करते ही चिन्ता तिरोहित-सी होने लगी। वह कॉलिज के झंझावातों में मुझ से ऐसे ही आ जुड़ा था। जुड़ाव ऐसा हुआ कि उसने भी ‘ईसुरी का बुन्देली को योगदान’ को अपने शोध का विषय बना लिया।

माधव मुग्ध भाव से बोला था- ‘‘तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है ऋतु ? ईसुरी अपनी रजऊ के पास आया है।’’
‘‘धत् ! वैसे भी लोग अजीब निगाहों से देखने लगे हैं। प्रतियोगिता में ईसुरी और रजऊ का रोल निभाने वाले कहीं वास्तविक प्रेम की पींगे तो नहीं बढ़ाने लगे।’’
‘‘ठीक ही सोचते हैं लोग। मैंने भी तो यही सुनकर अपने शोध का विषय बदल दिया था कि प्रतियोगितावाली ऋतु खुद को रजऊ समझने लगी है। मुझे भी ईसुरी होना है।’’
‘‘आज देख लो माधव मैं खाक छान रही हूँ।’’

माधव ने हँस कर कहा- ‘‘दोनों मिलकर खाक छानेंगे, जल्दी छन जाएगी।’’ माधव की बातें ! मुझे अनचाहे ही हँसी आ जाया करती है। वह दुख को खुशी में बदलने की कोशिश करता रहता है। अन्तरविश्वविद्यालय प्रतियोगिता में जब वह ईसुरी की ओर से फागें कहता था और मैं रजऊ की ओर से गाया करती थी, वह झूमने लगता था। कौन हारा कौन जीता कभी नहीं देखता था। हारकर भी जीत की बातें, यही अदा तो मुझे नहीं लुभा गई ? मैं चिढ़ाती हूँ-माधव निहत्थे होकर शेरों के सपने देखते हो। एक दिन शेर ही तुम्हें खा जाएगा।

‘‘तुम शेर को भी वश में कर लोगी, मैं जानता हूँ। अब मेरे शोध ग्रन्थ को ही ले लो, तुम साथ रहती हो तो उसमें स्त्री -भाषा का चमत्कार घटित होने लगता है। सच में तुम स्त्री के लिए पुरूषों द्वारा गढ़ी गई भाषा को अपदस्थ कर रही हो।’’
‘‘हाय मंडली चली गई !’’ कहकर मैं बार-बार ठंडे श्वास भर रही थी। माधव मौन उदासी के हवाले था। एक वाक्य कहकर रह गया- ‘‘कैसी खरीद-फरोक्त हुई !’’ माधव आज अपने घर जाने के लिए बैग पैक कर चुका था, क्योंकि मैं अब सरस्वती देवी के साथ यहाँ थी। मंडली की फागे सुन ही नहीं रही थी, देख रही थी। कल क्या नजारा था।

यों तो गाँव था, नाट्यमंच की सभी सुविधाएँ भी नहीं थीं। पर्दा उठने-गिरने का हीला भी नहीं, मगर कुशल संयोजन की करामात कि हर दृश्य सजीव हो उठा। बिजली गुल थी, पैट्रोमैक्स जगमगा रहा था। बाहर आकाश में तैरते चाँद ने चाँदनी धरती पर उतार कर सहयोग किया था। जलती हुई मशाल भी तो फगवारों ने एक कोने में गाड़ रखी थी।

सूत्रधार के रूप में धीरे पंडा उदित हुए। वे दर्शकों का अभिवादन करने के बाद अपने साथियों को सर्वश्रेष्ठ अभिनय करने का इशारा दे रहे थे। तभी किसी दर्शक ने कहा- ‘‘सटई गाँव की सरस्वती देवी से हमें ऐसी ही मंडली की उम्मीद थी। फगवारों में अच्छा जोश है।’’ सरस्वती देवी आगे की लाइन में मेरे और माधव के पास जाजिम पर बैठी थीं। लम्बी कद-काठी की पचाससाला औरत। तीखे नैन नक्श वाला लम्बोतरा गेहुँआ चेहरा। उनका मुख जुड़ी हुई भवों के कारण विशेष लगता। वैसे वे मुझे और माधव को शोधार्थी के रूप में पाकर गौरव और उत्साह से भरी हुई थीं।

मंच के बीचों बीच नगड़िया, झींका, बाँसुरी, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य रखे थे, जिन्हें घेरकर फगवारे गोल बाँधकर बैठे थे। फगवारे लाल, नीले पीले, हरे कुर्ते और छींटदार पगड़ियों में सजे थे। सबने सफेद धोतियाँ पहन रखी थीं। गिनती में वे दस थे।
साभार -राजकमल प्रकाशन 
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 ''कही ईसुरी फाग'' में स्त्री विमर्श
अर्पणा दीप्ति
प्रेम के लिए देह नहीं, देह के लिए प्रेम ज़रूरी! - मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा का 2004 में प्रकाशित उपन्यास ''कही ईसुरी फाग'' स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से ध्यान आकर्षित करने वाला महत्वपूर्ण उपन्यास है । कथावस्तु को ऋतु नामक शोधार्थी द्वारा लोक कवि ईसुरी तथा रजऊ की प्रेम कथा पर आधारित शोध के बहाने नई तकनीक से विकसित किया गया है । इस शोध को इसलिए अस्वीकृत कर दिया जाता है क्योंकि रिसर्च गाइड प्रवर पी. के. पांडेय की दृष्टि में ऋतु ने जो कुछ ईसुरी पर लिखा था , वह न शास्त्र सम्मत था , न अनुसंधान की ज़रूरतें पूरी करता था । उसे वे शुद्ध बकवास बताते हैं क्योंकि वह लोक था । लोक में कोई एक गाइड नहीं होता । लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं , जो जहाँ तक रास्ता बता दे , वही गाइड का रूप ले लेता है। ऋतु भी ईसुरी - रजऊ की प्रेम गाथा के ऎसॆ ‍बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार होती है - 

"बड़ा खतरनाक होता है, जंगलों , पहाड़ों और समुद्र का आदिम सम्मोहन .....हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के दर्शन के लिए ।''

’कही ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऎसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है । इस उपन्यास का नायक ईसुरी है,लेकिन कहानी रजऊ की है - प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ के रास्ते बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हैं। प्यार जहाँ उनको बल देता है,तो तोड़ता भी है। शास्त्रीय भाषा में कहा जाए तो ईसुरी शुद्ध लंपट कवि है, उसकी अधिकांश फागें शृंगार काव्य की मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए शारीरिक आमंत्रणों का उत्सवीकरण है।

ऋतु की शोध यात्रा माधव के साथ ओरछा गाँव से शुरू होती है । लेकिन यह क्या, कि सत्तरह गाँवों की खाक छानकर रजऊ की खोज में पहुँची ऋतु को लोग ईसुरी का पता तो देते हैं मगर रजऊ के बारे में जानकारी देना इसलिए बुरा मानते हैं चूँकि उनकी नजर में रजऊ बदचलन है । लोग विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहते हैं , आजकल पढ़ाई में लुचियायी फागें पढ़ाई जाती हैं! यह गाँव ऋतु की बुआ का गाँव था । ऋतु की बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी । ऋतु को अपने ऊपर झुँझलाहट होती है कि मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया?
"क्योंकि रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार नहीं करता, उसके रूप में मेरी देह का अक्स लोगों के सामने फैल जाता है ।"(पृ.सं-14)

ऋतु के शोध का अगले पड़ाव का संबंध सरस्वती देवी की नाटक मडंली में फाग गाने वाले ईसुरी तथा धीर पंडा से है। रामलीला में तड़का लगाने के लिए ईसुरी के फागों की छौंक ! यह क्या, तभी एक बूढ़ी औरत मटमैली सफेद धोती पहने माथे तक घूँघट ओढ़े भीड़ को चीरती हुई मंच पर आ जाती है । उसकी कौड़ी सी दो आँखो में विक्षोभ का तूफ़ान उठ रहा था- " मानो फूलनदेवी की बूढ़ी अवतार हो । काकी उद्धत स्वर में चिल्लाई -’ओ नासपरे ईसुरी लुच्चा तोय महामाई ले जावे ।’ काकी भूखी शेरनी की तरह ईसुरी की तरफ बढ़ने लगी । मुँह से शब्द नहीं आग के गोले निकल रहे थे । टूटे दाँतों के फाँक से हवा नहीं तपती आँधी टूट रही थी । काकी ने चिल्लाकर कहा, हमारी बहू की जिन्दगानी बर्बाद करके तुम इधर फगनौटा गा रहे हो। अब तो तुम्हारे जीभ पर जरत लुघरा धरे बिना नहीं जाएंगे।"(पृ.सं.-21)

दर्शक उठकर खड़े हो जाते हैं | रघु नगड़िया वाला आकर कहता है - " भाइयों अब तक आपने फागें सुनी और अब फागें नाटक में प्रवेश कर गईं -’लीला देखे रजऊ लीला’ काकी रघु से कहती है-’अपनी मतारी की लीला दिखा’ काकी कहती है -’आज तो हम ईसुरी राच्छस के छाती का रक्त पीके रहेंगे । धीर का करेजा चबा जाएँगे।" (पृ.सं.-22)
काकी के कोप का आधार ? बात उन दिनों की है जब काकी का बेटा प्रताप छतरपुर रहता था और उसकी नवयुवा बहू रज्जो की उम्र बीस वर्ष से कम थी । सुंदर इतनी कि जहाँ खड़ी हो जाए, वही जगह खिल उठे । वह अपूर्व सुंदरी थी या नहीं , मगर ईसुरी के अनुराग में उसकी न जाने कितनी छवियाँ छिपी थीं ।

काकी के घर उन दिनों पंडितों के हिसाब से शनि ग्रह की साढ़े साती लगी थी; नहीं तो मेडकी के ईसुरी और धीर पंडा माधोपुरा की ओर न आते और रज्जो फगवारे को अनमोल निधि के रूप में न मिलती । घूंघटवाली रज्जो से अब तक ईसुरी का जितना भी परिचय हुआ वह लुकते छिपते चंद्र्मा से या राह चलते-निकलते आँखों की बिजलियों से । ऎसे ही बेध्यानी में ईसुरी एक दिन ठोकर खा गए और गिरे भी तो कहाँ; रजऊ की गली में ! ईसुरी ने अपनी ओर से रज्जो को नाम दिया - रजऊ ।

रज्जो को घूंघट से देखने की दिलकश अदा अब ईसुरी को सजा लगने लगी । वे सोचते - यह सब मुसलमानों के आने से हुआ । वे अपनी औरत को बुर्का पहनाने लगे । हिंदुओं ने सोचा, हमारी औरत उघड़ी काहे रहे ? मुसलमानों के परदे को अपना लिया पर अंग्रेजों का खुलापन उन्हें काटने दौड़ा ।

इधर प्रताप छतरपुर में मिडिल की पढ़ाई पूरी न कर पाने के कारण अपने गाँव वापस नहीं आ पाता है | इस खबर से उसकी बूढ़ी माँ एवं पत्नी उदास हो जाती हैं । सास बहू को समझाती - ऎसे उदास होने से काम नहीं चलेगा । स्थिति को पलटने के लिए सास ने दूसरा नुस्खा अपनाया । फाग के पकवानों की तैयारी पूरी है,फगवारे को खिलाकर कुछ पुन्न-धरम कर लेते हैं। रज्जो के चेहरे पर हुलास छा जाता है। सास मन-ही-मन जल-भुनकर गाली भरा श्राप ईसुरी को देना शुरू करती है।

सास रज्जो को समझाती है। पूरा मोहल्ला होली में आग नहीं लगा रहा बल्कि हमारे घर में आग लग रही है। प्रताप का चचेरा भाई रामदास भी रज्जो और फगवारे के प्रसंग को लेकर आगबबूला होता है। सास बदनामी से बचने के लिए रज्जो को मायके जाने की सलाह देती है। लेकिन रज्जो मायके जाने से साफ मना कर देती है। अपनापन उडेलते हुए सास से कहती है - "हमारे सिवा तुम्हारा यहाँ है कौन ? तुम्हारी देखभाल कौन करेगा । गाँव के लुच्चे लोगों की बात छोड़ दो ।" (पृ.सं.-45)

सास रज्जो का विश्वास कर लेती है और कहती है- "मोरी पुतरिया,भगवान राम भी कान के कच्चे थे, मेरा बेटा तो मनुष्य है।" (पृ.सं.-46)
सास रज्जो को अपनी आपबीती सुनाती है कि किस प्रकार फगवारा उसके लिए फाग गा रहा था और उसी दिन प्रताप के दददा उसे लिवाने आए थे । उन्होंने सुन लिया था ।

''मर्द की चाल और मर्द की नजर का मरम मर्द से ज्यादा कौन समझे ! अपना झोला उठाया और चुपचाप वापस चले गए । फिर खबर आई -अपनी बदचलन बेटी को अपने पास रखो, ऎसी सत्तरह जोरू मुझे मिल जाएगी ! फिर क्या था माँ ने डंडों से मेरी पिटाई कर डाली तथा जबरदस्ती नाऊ (हजाम) के संग सासरे भेज दिया । कहा कि नदी या ताल में ढकेल देना, अकेले हमारे देहरी न चढ़ाना । नहीं तो इसके सासरे वालों से कहना- खुद ही कुँआ बाबरी में धक्का दे दें । हम तो कन्यादान कर चुकें हैं । ससुराल वालों ने तो अपना लिया लेकिन पिरताप के दद्दा का कोप बढ़ता तो हथेली पर खटिया का पाया धर देते , अपने पाया के उपर बैठ जाते । डर और दर्द के मारे मैं सफेद तो हो जाती मगर रोती नहीं । यह सोचकर जिन्दा रही अपना ही आदमी है जिसका बोझ हम हथेली पर सह रहें हैं। जनी बच्चे का बोझ तो गरभ में सहती है जिंदगानी तो बोझ वजन के हवाले रहनी है ; सो आदत डाल लिया ।"(पृ.सं.48) रज्जो सास के हाथों पर घाव के भयानक निशान देखकर काँप उठती है।

सास ईसुरी तथा पंडा को खाना खिलाते हुए वचन लेना चाहती है कि रज्जो के नाम पर अब वे फाग नहीं गाएँगे । एकाएक फगवारे खाना छोड़कर उठ जाते हैं। ईसुरी इंकार करते हुए कहता है - "काकी हम जिस रजऊ का नाम फाग के संग लगाते हैं वह न तो प्रताप की दुल्हन है न तुम्हारी बहू?"(पृ.सं.53)

ऋतु के श्रीवास्तव अंकल ऋतु को सरस्वती देवी का पता देते हुए चिरगाँव जाने को कहते हैं और बताते हैं कि हिम्मती औरत है, समाज सेवा का काम करती है, लोकनाट्य में रुचि है और हर साल मंडली जोड़ती है।

सरस्वती देवी ने ऋतु तथा माधव को अपने जीवन का किस्सा बताया । "विधवा हुई , मेरे संसार में अंधेरा छा गया । मगर जिंदगी ने बता दिया कि पति न रहने के बाद औरतों को अपने बारे में सोचना पड़ता है। अपने लिए फैसले लेने पड़ते हैं और फैसला ले लिया । फाग मंडली एक कुलीन विधवा बनाए , परिवार वाले यह बात कैसे सहन करते। कभी जलते पेट्रोमेक्स तोड़े गए तो कभी फगवारे को भाँग पिला दी गई । सरस्वती देवी कहती हैं -पर मैं हार नहीं मानने वाली थी , दूसरे फगवारे को खोजती फिरती क्योंकि मेरे भीतर का हिस्सा रजऊ ने खोजकर कब्जा कर लिया था । फागों में उसका वर्णन सुनकर सोचती थी कि औरत में इतना साहस होता है कि उसके पसीने की बूँद गिरे तो रेगिस्तान में हरियाली छा जाए, आँखों से आँसू गिरे तो बेलों पर फूल खिल जाएँ । रजऊ जैसा नगीना फागों में न टँका होता तो ईसुरी को कौन पूछता ।’ " (पृ.सं.-57)

इधर मामा के छतरपुर वाले घर को आधुनिक नरक कहने वाला माधव उधर ही जा रहा था । लेकिन वहाँ के भ्रष्ट माहौल को देखकर वह वापस ऋतु के पास लौट आता है । जहाँ ऋतु के मन में माधव के प्रति प्रेम का अंकुर फूटता है वहीं मामा के घर जाने पर क्रोध भी आता है ।


सरस्वती देवी ऋतु को मीरा की कहानी सुनाती है - किस प्रकार आँगनवाड़ी के क्षेत्र में मीरा महिला सशक्तीकरण की मशाल अपने हाथ में लेती है । गाँव की सीधी-सादी तथा ससुरालवालों द्वारा पागल समझी जाने वाली मीरा को पढ़ने की बीमारी लग चुकी थी । गाँव की सभ्यता को दरकिनार करते हुए मीरा मोटरसाइकिल चलाने का निर्णय लेती है।


मीरा सिंह की मोटरसाइकिल पर ऋतु बसारी पहुँचती है, 90 वर्ष की बऊ से मिलने । गौना करके आई रज्जो के अपूर्व रूप का वर्णन बऊ करती है। कहती है - "प्रताप की बहू रूप की नगीना, नगीने के नशे में मदहोश प्रताप।"(पृ.सं.-69)

इधर प्रताप छुट्टी बिताकर छतरपुर वापस चला जाता है, उधर ईसुरी के चातक नयन रज्जो की बाट न जाने कब से देख रहे थे । एक ओर पराई औरत की आशिकी और फागों में फिर-फिर रजऊ का नाम लगाने वाले ईसुरी के यश की गाथा राजा रजवाड़ों तक पहुँची । दूसरी ओर सुंदर बहू की बदकारी गाँववालों से होते हुए प्रताप के कानों तक पहुँची । प्रताप पहले फगवारे को समझाता है, पैर पड़ता है, लेकिन सब बेकार। अंत में उसने फगवारे की पिटाई कर दी । प्रताप एक कठोर निर्णय लेता है वह रज्जो का मुँह कभी नहीं देखेगा । वह वापस छतरपुर जाकर अंग्रेजों की पलटन में भर्ती हो जाता है । मर्द चले जाते हैं , घर की रौनक बाँध ले जाते हैं । प्रताप का विमुख होना घर की तबाही बन गया ।

यह बात तो दीगर थी कि रज्जो ने ईसुरी को दिल से चाहा था , लेकिन यह क्या कि फगवारे तमोलिन की बहू के नाम पर फाग गा रहे हैं । जोगन बनी रज्जो आहत होती है । सास रज्जो की पहरेदारी करती है, रज्जो फगवारे से न मिल पाए । तभी पिरभू आकर खबर देता है -"ईसुरी जा रहे हैं आपसे आखिरी बार मिलना चाहते हैं ।" सास की परवाह किए बगैर रज्जो रात के आखिरी पहर हाथ में दिवला जलाए प्रेमानंद सूरे की कोठरी की ओर चल देती है । यह कैसा अदभुत प्रेम ! नहीं देखा कि उजाला हो आया, दीये की रोशनी से ज्यादा उजला उजाला । गाँव के लोगों ने कहा , यह तो प्रताप की दुल्हन है, बिचारी अपने आदमी की बाट हेर रही है , बिछोह में तन-मन की खबर भूल गई है। इतना भी होश नहीं रहा कि दिन उग आया है। नाइन की बहू फूँक मारकर दिवला बुझा देती है । रज्जो उस छोटे बच्चे की भाँति नाइन बहू की अंगुली थामे लौट आती है जिसे यह नहीं पता कि अंगुली थामने वाला उसे कहाँ ले जा रहा है ? रज्जो की सास कहती है- "मोरी पुतरिया कितै भरमी हो ? पिरताप की बाट देख-देखकर तुम्हारी आँखे पथरा गई !" (पृ.सं.-91)

"रज्जो उस बुझे हुए दीए की तरह खुद भी नीचे बैठ गयी मानो प्रकाश विहीन दीये की सारी अगन रज्जो ने सोख ली , जलन कलेजे में उमड़ रही थी ।"(पृ.सं.-91) सास और रज्जो दोनों जोर-जोर से रो पड़ीं । शोकगीत ने आँगन को ढँक लिया । किसके वियोग में गीत बज रहा था ? प्रताप के या ईसुरी के ? दोनों जानती थीं, दोनों के दुःख का कारण दो पुरुष हैं ।

प्रताप का चचेरा भाई रामदास रज्जो का जीना दूभर कर देता है। तीन बेटियों का बाप रामदास कुल की मर्यादा बचाने तथा कुलदीपक पैदा करने के लिए एवं प्रताप के हिस्से की जमीन हथियाने की चाह में रज्जो से शादी करना चाहता है। उसके अत्याचार से तंग आकर रज्जो घर छोड़ गंगिया बेड़िन के साथ भागकर देशपत के साथ जा मिलती है , जो देश की आजादी के लिए अपनी छोटी सी सेना के साथ अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार है। यहीं रज्जो को खबर मिलती है कि प्रताप गोरे सिपाहियों से बगावत कर अपने देश के खातिर शहीद हो चुका है। रज्जो दो बूँद आँसू अपने वीर पति की याद में श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पण करती है। शरीर का साथ वर्षों से नहीं रहा वहीं मन इस कदर बँधा था । तभी तो कहती है - "गंगिया जिज्जी,प्रेम के लिए देह ज़रूरी नहीं है पर देह के लिए प्रेम ज़रूरी है । उनके तन की खाक मिल जाती, हम देह में लगा के साँची जोगिन हो जाते ।"(पृ.सं.-278)

देशपत की फौज में जासूसी का काम करने वाली रज्जो पर कुंझलशाह की बुरी नजर पड़ती है । देशपत की फौज का बाँका सिपाही राजकुमार आदित्य रज्जो को कुंझलशाह के कहर से मुक्ति दिलाता है। रज्जो आदित्य से घुड़सवारी तथा तलवारबाजी सीखती है।

1857 में अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को मान्यता देने से इंकार करते हुए रानी के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया । रानी को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेती हुई रज्जो रानी का बाना धारण करती है और अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए रानी से पहले शहीद हो जाती है ।

इधर अपने प्रायश्चित के ताप में तप रहे ईसुरी को आबादी बेगम के द्वारा वीरांगना रज्जो के शहीद होने की खबर मिलती है । अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहे ईसुरी आँखें मूँदे आखिरी निरगुण फाग गाते हुए सदा के लिए खामोश हो जाते हैं ।
"कलिकाल के वसंत में न गोमुख से धाराएँ फूटी न तरुणियों ने रंगोलियाँ सजाईं, न दीये का उजियारा , न ही उल्लास की टोकरी भरता अबीर गुलाल ईसुरी ने अखंड संन्यास की ओर कदम रख दिया ।"(पृ.सं.-340)

ऋतु ने अपने शोध का ऎसा अंत कब चाहा था ! आंकाक्षा थी कि ईसुरी और रजऊ का मिलन होता ,वे अपनी चाहत को आकार देते हुए जीवन यात्रा तय करते और फागों का संसार सजाते । मगर चाहने से क्या होता है जानने की पीड़ा और दूर होते जाने की दर्दनाक मुक्ति तन और मन मिलने पर भी भावनाओं का ऎसा बँटवारा! ऋतु और माधव दोनों के रास्ते अलग-अलग । ऋतु को माधव का संबंध विच्छेद पत्र मिलता है - "ऋतु मुझे गलत नहीं समझना । साहित्य से आदमी की आजीविका नहीं चलती । भूख आदमी को कहाँ से गुजार देती है, यह मैंने गोधरा और अहमदाबाद के दंगों के दौरान देखा है। ऋतु मुझे क्षमा करना रिसर्च रास नहीं आई । अभावों भरी जिंदगी तो बस तरस कर मर जाने वाली हालत है, संतोष कर लेना भी गतिशीलता की मृत्यु है और इस बात से तुम ना नहीं कर सकतीं, जानेवाला टूटा हुआ होता है, उसके तन मन में टूटन के सिवा कुछ नहीं होता। तुम्हें टूटकर चाहने के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है ।"(पृ.सं.-306-307)

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ईसुरी रजऊ को अहिरिया कहकर राधा के विराट व्यक्तित्व से जोड़ना चाहते थे? या राधा जैसी मान्यता दिलवाकर कुछ छूटों का हीला बना रहे थे, जो साधारण औरत को नहीं मिलती है। नहीं तो रजऊ को मीरा से क्यों नहीं जोड़ा गया ? ईसुरी कृष्ण भगवान नहीं थे जो विष को अमृत में बदल देते। वे हाड़ माँस की पुतली अपनी रजऊ से पूजा नहीं, प्रीति की चाहना करते थे । भगवान की तरह दूरी बनाकर जिंदा नहीं रहना चाहते थे।

मैत्रेयी पुष्पा ने वर्तमान और अतीत में एक साथ गति करने वाली इस सर्पिल कथा के माध्यम से कल और आज के समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी को आमने-सामने रखने में बखूबी सफलता पाई है। रजऊ की संघर्ष गाथा तब और अधिक प्रबल हो उठती है जब वह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सक्रिय रुप से जुड़ती है। ईसुरी का प्रेम जहाँ उसे कभी राधा बनाता है और कभी मीरा | वहीं वह प्रताप की मृत्यु पर जोगन की तरह विलाप करती है और अंततः देश के लिए एक साधारण सैनिक बनकर शहीद होते हुए लोकनायिका बन जाती है । ईसुरी पर शोध कर रही ऋतु एंव उसके प्रेमी माधव के बहाने मैत्रेयी पुष्पा ने शिक्षा और शोध तंत्र में व्याप्त जड़ता पर भी प्रहार किया है। ऋतु और माधव के जरिए लेखिका ने एक बार फिर रजऊ और ईसुरी की प्रेमकथा को जीवंत किया है।

"वहीं ’प्रेम’और ’अर्थ’ में एक विकल्प के चुनाव पर माधव अर्थ के पक्ष में हथियार डाल देता है।" (प्रो.ऋषभदेव शर्मा , स्वतंत्रवार्ता, 06 फरवरी ,2005)

और रजऊ की भाँति ऋतु भी अकेली रह जाती है। इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा रजऊ से लेकर ऋतु तक अपने सभी स्त्री पात्रों को संपूर्ण मानवी का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। ’कही ईसुरी फाग’ की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह है कि रजऊ और ऋतु दोनों ही अबला नहीं हैं, वे भावनात्मक स्तर पर क्रमशः परिपक्वता प्राप्त करती हैं और उनके निकट प्रेम का अर्थ पुरुष पर निर्भरता नहीं है।
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ईसुरी ,नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

अलौकिक लोककवि ईसुरी
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय 
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सच्ची कविता वह गंगा है, जो लोक के गोमुख से फूटती है। लोककंठ से निःसृत होनेवाली सहज कविता ही काव्य के अनुशासन को परिभाषित करती है। इस कविता को किसी बोझिल अभिव्यक्ति, गूढ़ चिंतन तथा गहन अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती। यह कविता पोथी से परे और आत्मप्रकाशन से कोसों दूर होती है। इस कविता को प्रायोजित सम्मान भले न मिलें, लेकिन इसे लोक सम्मानित करता है। बुंदेलखंड के लोककवि ईसुरी वे कवि हैं, जिनकी कविता को लोक ने सम्मानित किया। वे निकट अतीत के लोक कवि हैं, लेकिन उनकी हस्तलिपि में लिखा हुआ कोई ग्रंथ आज तक नहीं मिला। उनकी कविताओं का संग्रह बुंदेलखंड के लोककंठों में है, जिसके नित्य संस्करण निकलते हैं।

इस लोककवि को जानना वास्तव में हमारे लोकजीवन की आत्मा को जानना है। इसलिए कि उनकी बुंदेली कविता में हमारे जीवन का प्रत्येक व्यवहार झाँकता है और इस लोक की सुंदरता उनके शब्द-शब्द में मानो रूप बन जाती है। शब्द सुनाई नहीं देते बल्कि वे दिखाई देते हैं। यद्यपि बुंदेलखंड में सूरश्याम तिवारी, मंगलदीन उपाध्याय, महिपत, महारानी रूपकुँवर, हीरालाल तिवारी, मीर खाँ, पं. बैजनाथ व्यास, पं. रामनारायण व्यास तथा शिवदयाल जैसे अन्य फाग लिखनेवाले कवि भी हुए, लेकिन जो प्रसिद्धि ईसुरी को मिली, वह इनमें से किसी को नहीं मिल पाई।

बुंदेलखंड के इस अद्वितीय लोककवि का पूरा नाम ईश्वरी प्रसाद तिवारी था, जिनका जन्म चैत्र शुक्ल १० संवत् १८९८ (ईस्वी सन् १८४१) में उत्तर प्रदेश के मऊरानीपुर के निकट मेंडकी नामक स्थान में हुआ था। उनके बचपन का नाम हरलाल था। उनके पिता का नाम श्री भोलानाथ अड़जड़िया तथा माता का नाम गंगादेवी था। वे तीन भाई थे। ईसुरी का निधन अगहन शुक्ल ६ संवत् १९६६ (ईस्वी सन् १९०९) में हुआ। उनके यौवन काल में ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। उनकी एक लड़की थी, कोई पुत्र नहीं था किंतु वह भी विधवा हो गई, जिसके कारण वे आजीवन दुःखी रहे। ईसुरी बहुत लिखे-पढ़े नहीं थे। वे जमींदारों के यहाँ कारिंदे बनकर रहे तथा उनका अंतिम समय बुंदेलखंड के एक छोटे से गाँव बघौरा में बीता।

फाग का उत्स मूलतः शृंगार है तथा बुंदेलखंड में शृंगारी कवियों की बड़ी लंबी परंपरा रही है। पद्माकर, खुमान कवि, ठाकुर, दामोदर देव, नवलसिंह कायस्थ, प्रताप साहि, पजनेश, गदाधर भट्ट, सरदार कवि, भगवंत कवि, गंगाधर व्यास तथा खयालीराम जैसे बुंदेलखंड के शृंगारी कवियों ने प्रभूत काव्य रचा। इसी काव्य का एक अंग फाग है। ईसुरी की प्रसिद्धि उनकी फागों के कारण है। फाग परंपरागत लोक संगीत है, जो परंपरागत रूप से बुंदेलखंड में प्रचलित रहा है। बुंदेली की तरह इसकी परंपरा राजस्थानी भाषा तथा प्राचीन गुजराती में भी रही है।

फाग शब्द की उत्पत्ति फाल्गुन से हुई है। इस माह में जो गीत लोक स्वर में निबद्ध किए जाकर गाए गए, वे फाग कहलाए। फागों के साथ बुंदेलखंड का सुप्रसिद्ध राई नृत्य पर किया जाता है। बुंदेलखंड में साखी की फाग, झूला की फाग, बुझौवल फाग (प्रश्नोत्तरी फाग), छंदयाऊ फाग, डिढ़खुरयाऊ फाग जैसे अनेक फाग प्रचलित रहे हैं। लेकिन ईसुरी ने चौकड़िया फाग की नई परंपरा आरंभ की। चौकड़िया का अर्थ चार कड़ीवाली फाग है। चौकड़िया का एक अर्थ चौकड़ी भरनेवाला भी है। ईसुरी की यह चौकड़िया फाग इतनी प्रसिद्ध हुई कि तुलसी की रामायण और तानसेन के राग से इसकी तुलना हुई, कहा गया—

रामायन तुलसी कही, तानसेन ज्यों राग।
सोई या कलिकाल में, कही ईसुरी फाग॥

ईसुरी को प्रायः ग्रामीण फगुआरे व फड़ गायक के रूप में तथा एक अश्लील कवि के रूप में भी समझा गया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सामने भी ईसुरी का साहित्य नहीं आ पाया। उन्हें मान्यता बहुत बाद में मिली। उनसे बच्चनजी बड़े प्रभावित थे तथा वे उन पर काम करना चाहते थे। इस संबंध में उन्होंने बुंदेलखंड के साहित्यकार श्री कृष्णानंद गुप्त से भी आग्रह किया था, जिन्होंने ईसुरी पर कार्य किया, किंतु इस कार्य को पूर्णता उनके पुत्र श्री रमेश गुप्त ने दी। बाद में ईसुरी पर काफी कार्य हुआ। मैत्रेयी पुष्पा ने ‘कहे ईसुरी फाग’ शीर्षक से आधुनिक परिवेश को केंद्र में रखते हुए अपना उपन्यास लिखा।

ईसुरी के द्वारा कही गई फागें बुंदेलखंड के अनेक लोगों ने अपने रजिस्टर्स में लिखीं। इन फागों को ईसुरी के शिष्य धीरज पंडा गाते थे। अपने आरंभिक काल में ईसुरी भी इन फागों को गाते रहे। कहा जाता है कि ईसुरी ने लगभग एक हजार फागें कहीं। बुंदेलखंड के प्रख्यात लोकविद् डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त का मानना है कि जो बात-बात पर फाग कहता रहा हो, उसके लिए हजारों फागें लिखना कठिन काम नहीं है। ईसुरी की फागों की विषयवस्तु सीमित नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक तथा मित्र और भौजी के विनोदों से लेकर राम और कृष्ण की भक्तिपरक भावभूमि तक, राधा-कृष्ण के प्रणय से लेकर वैराग्य को बिगाड़ने वाली वसंत ऋतु तक, जल भरती कमर की लचकन से लेकर प्रेम की तीव्र पीड़ा तक और लोक की जीवंतता से लेकर जीवन की निस्सारता के दर्शन तक को इस लोककवि ने अपनी फागों में बाँधा है।

ईसुरी की प्रसिद्धि उनकी प्रेयसी ‘रजऊ’ के कारण है, उसी तरह जैसे घनानंद ‘सुजान’ के कारण जाने जाते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि रजऊ ईसुरी की कल्पना की देन थी, लेकिन अधिकांश लोगों का मानना है कि वे वास्तव में उनकी प्रेयसी थी। लेकिन ईसुरी की रजऊ पर कही गई फागों को पढ़-सुनकर लगता है कि रजऊ उनकी प्रेयसी रही होगी, क्योंकि रजऊ का उन्होंने जो जीवंत चित्रण किया है और जिस समर्पण भाव से किया है, उससे लगता है कि वे रजऊ के प्रति दीवानगी की सीमा तक आसक्त रहे होंगे। बुंदेलखंड के ही सुप्रसिद्ध संस्कृतिविद् डॉ. श्यामसुंदर दुबे का मानना है कि ईसुरी ठेठ के ठाठ से सजे-सँवरे अपनी निश्छल अभिव्यक्ति में अद्वितीय हो जाते हैं। उनका यह कहना सटीक है। ईसुरी ने रजऊ को लेकर जिन देशज शब्दों और प्रतीकों के माध्यम से अपने आपको अभिव्यक्त किया है, वह वास्तव में अपूर्व है। अस्थियों में घुन लगना एक बुंदेली मुहावरा है, लेकिन ईसुरी ने इसे रजऊ के प्रेमचिंतन से जोड़ दिया। एक फाग में उन्होंने कहा—

हड़रा घुन हो गए हमारे, सोच में रजऊ तुम्हारे।
दौरी देह दूबरी हो गई, करकें देख उगारे।

अर्थात् रजऊ से हुए प्रेम के बारे में सोचते-सोचते हड्डियाँ घुन हो गई हैं और स्वस्थ शरीर दुबला हो गया है। उसे उघाड़कर तुम देख सकती हो।

ईसुरी की प्रसिद्धि मुख्यतः अपनी प्रेमिका रजऊ को लेकर कही गई फागों से है। उन्होंने रजऊ की हर भंगिमा से लेकर उसके प्रत्येक अंग का रससिक्त वर्णन किया है। रजऊ के सौंदर्य का वर्णन करनेवाली एक फाग में उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि रजऊ की प्रशंसा में उन्होंने तीन सौ साठ गीतों की रचना कर दी। फाग है—

जोतें रजऊ के मों की जागें, चकचोंदी सी लागें।
कोंदन लागीं बिजुरी कैसी, स्याम घटा के आगें।
सूरज अटा छटा पै छूटे, देखत ही रथ भागें।
कहीं तीन सौं साठ ईसुरी, रजउ रजउ की फागें।

अर्थात् उसके मुखमंडल से ऐसी आभा फैल रही है, जिससे आँखें चौंधिया जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे काली घटा के बीच बिजली चमक रही हो। वह अट्टालिका पर बैठी है और उसके मुखमंडल के सौंदर्य को देखकर लगता है, जैसे सूर्य लजाकर अपने रथ को तेजी से भगा रहा है। ईसुरी ने रजऊ की प्रशंसा में तीन सौ साठ फागों की रचना कर दी है।

रजऊ के प्रति आसक्ति की पराकाष्ठा तो तब होती है जब ईसुरी ईश्वर से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि जब उन्हें अंत्येष्टि के लिए ले जाया जाए तो वे रजऊ की गली से गुजरें—

दोऊ कर परमेसुर से जोरें, कर औ कृपा की कोरैं।
ठठरी पै धर कै ले जाइयो, रजऊ कोद की खोरें।

ईसुरी अपनी अंतिम यात्रा के बारे में कहते हैं—

बिधना करी देह ना मोरी, रजऊ के घर की दैरी।
आवत जात चरन की धूरी, लगत जात हर बेरी।
लागौ आन कान के ऐंगर, बजन लगी बजनेरी।
उठत चहत अब हाट ईसुरी, बाट बहुत दिन हेरी।

अर्थात् विधाता ने यदि मेरी देह को रजऊ के घर की देहरी बनाया होता तो उसके पाँवों की धूल का स्पर्श मिलता। लेकिन अब जाने का समय आ गया है, क्योंकि कानों में बिदाई के बाजे बजने लगे हैं। प्राण छूटनेवाले हैं, यह हाट उठनेवाली है। मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारी प्रतीक्षा की। यह फाग उस प्रेमी की ओर से है, जो आजीवन अपनी प्रेमिका से मिलन की एकांगी आकांक्षा सँजोए रहा, लेकिन उसकी लालसा अंत तक पूरी नहीं हुई।

रजऊ के सौंदर्य को बाँधनेवाली यह फाग अद्भुत है, जिसमें ईसुरी कहते हैं कि रजऊ तुम अद्वितीय हो। सिंघल दीप से लेकर सभी दिशाओं में खोजा, लेकिन तुम्हारे जैसी पद्मिनी दिखाई नहीं दी। तुम्हारे सौंदर्य के सामने तो संसार की सभी सुंदर स्त्रियाँ पानी भरती हैं। ईसुरी बड़ा भाग्यशाली है कि तुम उसकी प्रेयसी हो।

नईयाँ रजऊ तुमारी सानी सब दुनिया हम छानी
सिंघल दीप छान लओ घर-घर, ना पद्मिनी दिखानी
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन, खोज लई रजधानी
रूपवंत जो तिरियाँ जग में, ते भर सकतीं पानी
बड़ भागी हैं ओई ईसुरी तिनकी तुम ठकुरानी

उन्होंने रजऊ के सौंदर्य का वर्णन करते हुए एक और फाग में कहा कि उन्हें उसकी हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती और उसका विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तनी भौंह और तिरछी नजर भुलाए नहीं भूलती। वे उसकी नजर के बाण से मरने तक को तैयार हैं, लेकिन इस बहाने कम-से-कम एक बार रजऊ उनकी ओर देख तो ले। फाग इस प्रकार है—

जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैरें, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
‘ईसुर’ कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो।

ईसुरी ने ठेठ बुंदेलखंडी प्रतीकों को चुनते हुए रूप, शृंगार और प्रेम की अद्भुत फागें रची हैं। उन्होंने नायिका के नैनों की तुलना बाण, बरछी और तलवार से तो की ही है साथ ही नैनों को कसाई और शिकारी भी कहा है और एक फाग में तो ईसुरी ने उनकी तुलना पिस्तौल से करते हुए एक अद्भुत बिंब रच दिया है—

अँखियाँ पिस्तौलें सी भरकें, मारन चात समर के
गोली लाज दरद की दारू, गज कर देत नजर के,
देत लगाए सेंन के सूजन, पल की टोपी धरकें
ईसुर फैर होते फुरती में कोऊ कहाँ लौ बरकें।

आशय है, यह सुंदरी अपनी आँखों से पिस्तौल सी भरकर सावधानी से किसी को मारना चाहती है। आँखों की इन पिस्तौलों में लाज की गोली है, दर्द की बारूद भरी है, जो नजर रूपी गज से धँसी है। ईसुरी कहते हैं कि संकेत की सुई द्वारा पलकों की टोपी का निशाना साधकर ये इतनी फुरती से वार करती हैं कि इनसे कोई बच नहीं पाता अर्थात् इनके प्रेम जाल में फँस जाता है।

बुंदेलखंड में स्त्रियों के द्वारा पहने जानेवाले अलंकरणों का विवरण उन्होंने इस फाग में रजऊ के मार्फत कुछ इस तरह दिया है—

जिदना रजऊ पैरतीं गानौ, जिअना होत बिरानौ।
बेंदा, बीज, दावनी, दुरकों, पाव झलरया कानों।
सरमाला, लल्लरी, बिचौली, मोरें हरा सुहानो।
पांवपोस, पैजनियां, पोरा, ईसुर कौन बखानो।

ईसुरी ने केवल रजऊ के प्रेम तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखा बल्कि उन्होंने राधा-कृष्ण से लेकर अपने लोक सौंदर्य और देशभक्तों के शौर्य को भी अपनी फागों में जहाँ एक ओर गाया वहीं दूसरी ओर उन्होंने इस संसार की निस्सारता पर भी कबीराना ठाठ के साथ फागें कहीं। नीम के पेड़ की छाया का सुंदर वर्णन करते हुए वे कहते हैं—

सीतल एई नीम की छइयाँ, घामौं व्यापत नइयाँ।
धरती नौं जे छू-छू जावैं, है लालौई डरइयाँ।

अर्थात् नीम की छाया बहुत शीतल है। यहाँ धूप नहीं लगती और इसकी हरी-भरी डालियाँ धरती को छू-छू लेती हैं।

ईसुरी वृक्षों के रक्षक हैं। उनकी फागों में पर्यावरण के प्रति चिंता भी है। एक फाग में वे वृक्षों पर कुल्हाड़ी चलानेवालों को कहते हैं कि उन पर क्यों कुल्हाड़ी चलाते हो, वे तो मनुष्यों के पालनकर्ता हैं। उनमें इतनी सामर्थ्य है कि वे काल को भी काट देते हैं। उन्हें भूख से रक्षा के लिए भगवान् ने उपजाया है और वे ऐसे हैं कि मृतप्राय लोगों को तरोताजा कर देते हैं—

इनपे लगे कुलरिया घालन, भैया मानस पालन!
इन्हें काटबो नईं चइयत तौ, काट देत जो कालन।
ऐसे सख भूख के लाने, लगवा दए नंद लालन।
जो कर देत नई सी ‘ईसुर’ भरी भराई खालन।

उनकी देशभक्तों के शौर्य को परिभाषित करनेवाली पंक्तियाँ हैं—

जो कोउ भरत भूम में सोवै, तन तरवारन खोवैं।
भागै नहिं पीठ ना देवैं, घाव सामने लेवैं।

ईसुरी ने राधा और कृष्ण को लेकर अद्भुत फागें कहीं। राधा के सौंदर्य की उन्होंने अछूती उपमा दी। ईसुरी ने कहा—

कै निरमल दरपन के ऊपर, सुमन धरौ अरसी कौ।
ईसुर कत मुख लखत स्यामरौ, राधा चंद्रमुखी कौ॥

अर्थात्, कृष्ण चंद्रमुखी राधा के मुख को निहारते हैं, जो ऐसा है जैसे स्वच्छ दर्पण के ऊपर अलसी का फूल रख दिया हो।

एक और फाग में उन्होंने राधा के कानों के तरकुलों की शोभा का वर्णन करते हुए कहा—

कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके।
आनंदकंद चंद के ऊपर दो तारागण झीकें।
परतन पसर परत गालन पै, तरें झूमका जीके।
जिनके घर सें जौ पैराव, और जनन नें सीके।
श्याम स्नेह ईसुरी देखत, ब्रजवासी बस्ती के॥

अर्थात् राधा के कानों के तरकुलों की शोभा देखते ही बनती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आनंददायक चंद्रमा के समान मुख पर दो सितारे चमक रहे हों। जब वे लेटती हैं तो इन तरकुलों में लगे झुमके राधा के गालों पर पसर जाते हैं और यह पहनावा उन्हीं के घर से दूसरों ने सीखा है।

उन्होंने राधा-कृष्ण पर केंद्रित इन फागों में देशज प्रतीकों का उपयोग किया। उनकी एक फाग है—

बन में बाज रही बाँसुरिया, मो लये गुवाल मथुरिया।
फैलो फिरत सबद बंसी कौ, ज्यों जादू की पुरिया॥
मैं बरजी, बरजी ना मानी, बैरन बाँस छिपुरिया।
कुमला जात वृषभान लाड़ली, जैसे कमल पँखुरियाँ।
‘ईसुर’ ऐसे तड़क जात हैं, ज्यों काँच की चुरियाँ॥

अर्थात् राधा कहती हैं—वन में श्रीकृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि को सुनकर संपूर्ण ब्रज मंडल के गोप और गोपी मुग्ध हो गए हैं। इस बाँसुरी के स्वर जादू की तरह सम्मोहित करते हुए चारों ओर फैल गए हैं। मैंने बहुत रोका लेकिन बैरी बनी उस बाँस की छिपनी ने मेरा कहना नहीं माना। ईसुरी कहते हैं कि वृषभानु की लाड़ली राधा बाँसुरी के इन स्वरों को सुनकर कमल की पँखुरियों की तरह कुम्हला जाती है अर्थात् अपनी सुध-बुध खो बैठती है तथा काँच की चूड़ी जैसी चटककर गिर पड़ती है।

एक अद्भत फाग है, जिसमें अनुप्रास की छटा तो है ही साथ ही गोपी का गोविंद भाव मानो अपनी पराकाष्ठा को छूता है—

गोदो गुदनन की गुदनारी, सबरी देय हमारी
गालन पै गोविंद गोद दो, कर में कुंजबिहारी
बँइयन भौत भरो बनमाली, गरें धरौ गिरधारी
आनंद कंद लेन अँखिया में, माँग में लिखौ मुरारी
करया गोद कहइया ‘ईसुर’ गोद मुखन मनहारी

अर्थात् अरे गुदना गोदनेवालो, हमारी सारी देह पर गुदने गोद दो। हमारे गालों पर गोविंद, करों में कुंजबिहारी, बाँहों पर बनमाली, गले में गिरधारी, अँगिया के हिस्से में आनंदकंद, माँग में मुरारी, कमर में कन्हैया और देखो ईसुरी मुख पर मनमोहन गोद दो।

ईसुरी ने अपनी फागों में वसंत, ग्रीष्म और वर्षा का भी यथार्थपरक चित्रण किया है। वसंत का वर्णन करते हुए वे कहते हैं—

अब ऋतु आई बसंत बहारन, पान फूल बन कारन।
बागन बनन बंगलन बेलन, बीथी बगर बजारन।
हारु हद्द पहारन पारु, धवल धाम जल धारन।
तपसी कुटी कंदरन माँही, गई बैराग बिगारन॥

अर्थात् ऋतुराज वसंत की बहार आ गई है। पत्ते, फूल, फल, शाखाएँ खुशी से झूम रहे हैं। बागों, जंगलों, अट्टालिकाओं, रास्तों, बाजारों, खेतों, पर्वतों, सरोवरों में इसने अपना साम्राज्य फैला लिया है और इसने तपस्वियों की कुटियों और कंदराओं में जाकर उनके वैराग्य को भंग कर दिया है।

एक और फाग में ईसुरी कहते हैं—

जे-जी जान बाग में बोलें, सबद कोकिला कोलें।
सुन के संत भए उनमादे, भसम अंग में घोलें।

अर्थात् वसंत ऋतु आ गई है। कोयल का कुहू-कुहू शब्द बगीचों में गूँजने लगा है। कूक प्राणों को कुरेद रही है। इसे सुनकर भस्म रचानेवाले संतों में भी उन्माद जाग गया है।

ईसुरी ने अपने जीवन के उत्तरकाल में विरक्ति की फागें कहीं। ईसुरी ने देह की निस्सारता पर कहा—

बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की।
कच्ची भीत उठी माटी की, छाई-फूस चारे की।
बे बंदेज, बड़ी बे-बाड़ा, जई में दस-द्वारे की।
एकऊ नई किवार-किवरियाँ, बिना कुची तारे की।
ईसुर चांय निकारौ जिदना, हमें कौन वारे की।

अर्थात् यह देह प्राण प्यारे द्वारा किराए पर दिया गया घर है। इसमें कच्ची मिट्टी की दीवारें उठी हैं। घास-फूस के चारे से जो आच्छादित है, अर्थात् यह पार्थिव शरीर ऐसा है, जिसके ऊपर केश हैं। इसमें दस दरवाजे हैं अर्थात् दस इंद्रियाँ हैं, जिनमें कोई ताला-चाबी नहीं है। इसमें कोई चहारदीवारी नहीं है। यह परिसर विस्तृत और अव्यवस्थित है। इसमें एक भी किवाड़-किवड़िया नहीं है। इसलिए जब चाहे हमें इससे निकाल दो। हमें कोई लाभ या हानि नहीं होनेवाली।

एक और अद्भुत फाग है, जिसमें माँ अपनी बेटी से कहती है कि एक दिन अच्छा लगे या बुरा, सभी को ससुराल जाना पड़ता है। जब तुम्हारे पति बिदा कराने आएँगे तो चाहे जितना प्रलोभन उन्हें दिया जाए, वे मानेंगे नहीं। बिदा के दिन पति के साथ जाना ही पड़ेगा—

इक दिन हुअे सबई कौ गौनों होने उर अनहोनो।
जानें परै सासुरे सब खाँ, बुरौ लगै चय नोनों।
आँयें लुवौआ बे ना मानें, चाय बता दो सोनों।
ईसुर विदा हुए जा जिदना पिय के संग चलौनों।

एक फाग में वे संसार के यथार्थ को दरशाते हैं और शिक्षा देते हैं—

तन को कौन भरोसो करने, आखिर इक दिन मरने।
जौ संसार ओस कौ बूँदा, पवन लगे सें ढुरने।
जौ लो जीकी जियन जोरिया, जी खाँ जैं दिन भरने।
ईसुर ई संसार आन कें, बुरे काम खाँ डरने॥

अर्थात् इस शरीर का क्या भरोसा? अंत में एक दिन इसे तो मृत होना ही है। यह संसार ओस की बूँद की तरह है, जो थोड़ी सी हवा चलने पर ढुलक जाती है। जब तक जिसकी जितनी साँसें शेष हैं, उसको उतना समय इस संसार में काटना है। इसलिए इस संसार में आकर बुरे कर्मों से दूर रहो।

ईसुरी की इन फागों से गुजरने के बाद लगता है कि वे कितने मौलिक कवि थे। जीवन का कोई पक्ष उनके काव्य से अछूता नहीं रहा। वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्हें ऐसी दिव्य देन प्राप्त थी, जिसने उन्हें अक्षर के संसार में अमर कर दिया और वे इस देन को देनेवाली देवी को कभी भूले नहीं, उनसे यही प्रार्थना करते रहे कि वे उनकी खबर लेती रहें, उनकी भूली कड़ियों को मिलाती रहें। बुंदेलखंड के लोक की यह गवाही है कि इस देवी ने सदैव अपने ईसुरी की खबर ली और उनकी कड़ियों को कभी टूटने नहीं दिया, ईसुरी ने प्रार्थना की—

मोरी खबर सारदा लइये, कंठ विराजी रइये।
मैं अपढ़ा अच्छर ना जानो भूली कड़ी मिलइए॥
*
साभार : साहित्य अमृत 
संपर्क : नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, ८५  इंदिरा गांधी नगर, आर.टी.ओ. कार्यालय के पास, केसरबाग रोड, इंदौर-९, चलभाष : ०९४२५०९२८९३

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

नवगीत बाँस

नवगीत:
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें
अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
*

नवगीत

नवगीत:
करना होगा...
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
९-४-२०१७

दोहा

भोजपुरी दोहा:
खेत हुई रहा खेत क्यों, 'सलिल' सून खलिहान.
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट के पहचान.
*
हिंदी दोहा
उषा संग छिप झाँकता, भास्कर रवि दिन-नाथ.
गाल लाल हैं लाज से, झुका न कोई माथ.
*

गीत - तुम

एक गीत -
तुम 
*
हो अभिन्न तुम
निकट रहो
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर
*
९-४-२०१६ 
दोहा मुक्तिका
*
झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
*
कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
*
आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
***
संवस, ९.४.२००९
७९९९५५९६१८

भोजपुरी दोहा

भोजपुरी दोहा:
*
खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
*
खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
संवस, ७९९९५५९६१८
९.४.२००९

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
*
सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
९-४-२०१० 
संवस, ७९९९५५९६१८

द्विपदी / शे'र

द्विपदी / शे'र 
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*

कोरोना गीत

कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
मैया को स्वच्छता सुहाए 
देख गंदगी सजा सुनाए
सुबह सूर्य का लो प्रकाश सब
बैठ ईश का ध्यान लगाए
रखो स्वच्छता दस दिश मिलकर
शुद्ध वायुमंडल हो अक्षय
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
खिड़की रोशनदान जरूरी
छोड़ो ए सी की मगरूरी
खस पर्दे फिर से लटकाओ
घड़े-सुराही को मंजूरी
कोल्ड ड्रिंक तज, पन्हा पिलाओ 
हो ओजोन परत फिर अक्षय
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
व्यर्थ न घर से बाहर घूमो
मत हग करो, न लिपटा चूमो
हो शालीन रहो मर्यादित 
हो मदमस्त न पशु सम झूमो
कर प्रणाम आशीष विहँस लो
शुभाशीष दो जग हो मधुमय
कोरोना मैया की जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
रखो संक्रमण दूर सभी मिल
भाप नित्य लो फूलों सम खिल
हल्दी लहसुन अदरक खाओ
तज ठंडा कुनकुना पिओ जल
करो योग व्यायाम स्वतः नित
रहें फेफड़े सबल मिटे भय
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र

नवरात्रि और सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र हिंदी काव्यानुवाद सहित)
*
नवरात्रि पर्व में मां दुर्गा की आराधना हेतु नौ दिनों तक व्रत किया जाता है। रात्रि में गरबा व डांडिया रास कर शक्ति की उपासना की जाती है। विशेष कामनापूर्ति हेतु दुर्गा सप्तशती, चंडी तथा सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती तथा चंडी पाठ जटिल तथा प्रचण्ड शक्ति के आवाहन करने हेतु है। इसके अनुष्ठान में अत्यंत सावधानीपूर्ण आवश्यक है, अन्यथा संभावित हैं। इसलिए इसे कम किया जाता है। दुर्गा-चालीसा विधिपूर्वक दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ करने में अक्षम भक्तों हेतु प्रतिदिन दुर्गा-चालीसा अथवा सप्तश्लोकी दुर्गा के पाठ का विधान है जिसमें सामान्य शुद्धि और पूजन विधि ही पर्याप्त है। त्रिकाल संध्या अथवा दैनिक पूजा के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है जिससे दुर्गा सप्तशती,चंडी-पाठ अथवा दुर्गा-चालीसा पाठ के समान पूण्य मिलता है।
कुमारी पूजन
नवरात्रि व्रत का समापन कुमारी पूजन से किया जाता है। नवरात्रि के अंतिम दिन दस वर्ष से कम उम्र की ९ कन्याओं को माँ दुर्गा के नौ रूप (दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा, दस वर्ष की सुभद्रा) मानकर पूजन कर स्वादिष्ट मिष्ठान्न सहित भोजन के पश्चात् दान-दक्षिणा भेंट की जाती है।
सप्तश्लोकी दुर्गा
निराकार ने चित्र गुप्त को, परा प्रकृति रच व्यक्त किया।
महाशक्ति निज आत्म रूप दे, जड़-चेतन संयुक्त किया।।
नाद शारदा, वृद्धि लक्ष्मी, रक्षा-नाश उमा-नव रूप-
विधि-हरि-हर हो सके पूर्ण तब, जग-जीवन जीवन्त किया।।
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जनक-जननि की कर परिक्रमा, हुए अग्र-पूजित विघ्नेश।
आदि शक्ति हों सदय तनिक तो, बाधा-संकट रहें न लेश ।।
सात श्लोक दुर्गा-रहस्य को बतलाते, सब जन लें जान-
क्या करती हैं मातु भवानी, हों कृपालु किस तरह विशेष?
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शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥
शिव बोले: 'सब कार्यनियंता, देवी! भक्त-सुलभ हैं आप।
कलियुग में हों कार्य सिद्ध कैसे?, उपाय कुछ कहिये आप।।'
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देव्युवाच-
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥
देवी बोलीं: 'सुनो देव! कहती हूँ इष्ट सधें कलि-कैसे?
अम्बा-स्तुति बतलाती हूँ, पाकर स्नेह तुम्हारा हृद से।।'
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विनियोग-
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः
अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।
ॐ रचे दुर्गासतश्लोकी स्तोत्र मंत्र नारायण ऋषि ने
छंद अनुष्टुप महा कालिका-रमा-शारदा की स्तुति में
श्री दुर्गा की प्रीति हेतु सतश्लोकी दुर्गापाठ नियोजित।।
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ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१॥
ॐ ज्ञानियों के चित को देवी भगवती मोह लेतीं जब।
बल से कर आकृष्ट महामाया भरमा देती हैं मति तब।१।
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दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२॥
माँ दुर्गा का नाम-जाप भयभीत जनों का भय हरता है,
स्वस्थ्य चित्त वाले सज्जन, शुभ मति पाते, जीवन खिलता है।
दुःख-दरिद्रता-भय हरने की माँ जैसी क्षमता किसमें है?
सबका मंगल करती हैं माँ, चित्त आर्द्र पल-पल रहता है।२।
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सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥३॥
मंगल का भी मंगल करतीं, शिवा! सर्व हित साध भक्त का।
रहें त्रिनेत्री शिव सँग गौरी, नारायणी नमन तुमको माँ।३।
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शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥४॥
शरण गहें जो आर्त-दीन जन, उनको तारें हर संकट हर।
सब बाधा-पीड़ा हरती हैं, नारायणी नमन तुमको माँ ।४।
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सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥५॥
सब रूपों की, सब ईशों की, शक्ति समन्वित तुममें सारी।
देवी! भय न रहे अस्त्रों का, दुर्गा देवी तुम्हें नमन माँ! ।५।
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रोगानशोषानपहंसि तुष्टा
रूष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥६॥
शेष न रहते रोग तुष्ट यदि, रुष्ट अगर सब काम बिगड़ते।
रहे विपन्न न कभी आश्रित, आश्रित सबसे आश्रय पाते।६।
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सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥७॥
माँ त्रिलोकस्वामिनी! हर कर, हर भव-बाधा।
कार्य सिद्ध कर, नाश बैरियों का कर दो माँ! ।७।
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॥इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌॥
।श्री सप्तश्लोकी दुर्गा (स्तोत्र) पूर्ण हुआ।
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तंत्रोक्त रात्रिसूक्त

हिंदी काव्यानुवाद-
तंत्रोक्त रात्रिसूक्त
*
II यह तंत्रोक्त रात्रिसूक्त है II
I ॐ ईश्वरी! धारक-पालक-नाशक जग की, मातु! नमन I
II हरि की अनुपम तेज स्वरूपा, शक्ति भगवती नींद नमन I१I
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I ब्रम्हा बोले: 'स्वाहा-स्वधा, वषट्कार-स्वर भी हो तुम I
II तुम्हीं स्वधा-अक्षर-नित्या हो, त्रिधा अर्ध मात्रा हो तुम I२I
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I तुम ही संध्या-सावित्री हो, देवी! परा जननि हो तुम I
II तुम्हीं विश्व को धारण करतीं, विश्व-सृष्टिकर्त्री हो तुम I३I
*
I तुम ही पालनकर्ता मैया!, जब कल्पांत बनातीं ग्रास I
I सृष्टि-स्थिति-संहार रूप रच-पाल-मिटातीं जग दे त्रास I४I
*
I तुम्हीं महा विद्या-माया हो, तुम्हीं महा मेधास्मृति हो I
II कल्प-अंत में रूप मिटा सब, जगन्मयी जगती तुम हो I५I
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I महा मोह हो, महान देवी, महा ईश्वरी तुम ही हो I
II सबकी प्रकृति, तीन गुणों की रचनाकर्त्री भी तुम हो I६I
*
I काल रात्रि तुम, महा रात्रि तुम, दारुण मोह रात्रि तुम हो I
II तुम ही श्री हो, तुम ही ह्री हो, बोधस्वरूप बुद्धि तुम हो I७I
*
I तुम्हीं लाज हो, पुष्टि-तुष्टि हो, तुम ही शांति-क्षमा तुम हो I
II खड्ग-शूलधारी भयकारी, गदा-चक्रधारी तुम हो I८I
*
I तुम ही शंख, धनुष-शर धारी, परिघ-भुशुण्ड लिए तुम हो I
II सौम्य, सौम्यतर तुम्हीं सौम्यतम, परम सुंदरी तुम ही हो I९I
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I अपरा-परा, परे सब से तुम, परम ईश्वरी तुम ही हो I
II किंचित कहीं वस्तु कोई, सत-असत अखिल आत्मा तुम होI१०I
*
I सर्जक-शक्ति सभी की हो तुम, कैसे तेरा वंदन हो ?
II रच-पालें, दे मिटा सृष्टि जो, सुला उन्हें देती तुम हो I११I
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I हरि-हर,-मुझ को ग्रहण कराया, तन तुमने ही हे माता! I
II कर पाए वन्दना तुम्हारी, किसमें शक्ति बची माता!! I१२I
*
I अपने सत्कर्मों से पूजित, सर्व प्रशंसित हो माता!I
II मधु-कैटभ आसुर प्रवृत्ति को, मोहग्रस्त कर दो माता!!I१३II'
*
I जगदीश्वर हरि को जाग्रत कर, लघुता से अच्युत कर दो I
II बुद्धि सहित बल दे दो मैया!, मार सकें दुष्ट असुरों को I१४I
*
IIइति रात्रिसूक्त पूर्ण हुआII

गीत कुनबा

गीत 
कुनबा
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*
८-४-२०१७ 

गीत धत्तेरे की

एक गीत 
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*

समीक्षा सरे राह डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव

पुस्तक सलिला-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
0
‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
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नवगीत: समाचार है

नवगीत:
समाचार है...
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
*
८-४-२०११ 

दोहा

दोहा सलिला
देवी इतनी प्रार्थना, रहे हमेशा होश
काम 'सलिल' करता रहे, घटे न किंचित जोश
*
कौन किसी का सगा है, और पराया कौन?
जब भी चाहा जानना, उत्तर पाया मौन
*