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रविवार, 21 मार्च 2021

विमर्श

विमर्श: कुछ सवाल-
१. मिथुनरत नर क्रौंच के वध पश्चात क्रौंची के आर्तनाद को सुनकर विश्व की पहली कविता कही गयी। क्या कविता में केवल विलाप और कारुण्य हो, शेष रसों या अनुभूतियाँ के लिये कोई जगह न हो?
२. यदि विलाप से उत्पन्न कविता में आनंद का स्थान हो सकता है तो अभाव और विसंगति प्रधान नवगीत में पर्वजनित अनुभूतियाँ क्यों नहीं हो सकतीं?
३. यदि नवगीत केवल और केवल पीड़ा, दर्द, अभाव की अभिव्यक्ति हेतु है तो क्यों ने उसे शोक गीत कहा जाए?
४. क्या इसका अर्थ यह है कि नवगीत में दर्द के अलावा अन्य अनुभूतियों के लिये कोई स्थान नहीं और उन्हें केंद्र में रखकर रची गयी गीति रचनाओं के लिये कोई नया नाम खोज जाए?
५. यदि नवगीत सिर्फ और सिर्फ दलित और दरिद्र वर्ग की विधा है तो उसमें उस वर्ग में प्रचलित गीति विधाओं कबीरा, ढिमरयाई, आल्हा, बटोही, कजरी, फाग, रास आदि तथा उस वर्ग विशेष में प्रचलित शब्दावली का स्थान क्यों नहीं है?
६. क्या समीक्षा करने का एकाधिकार विचारधारा विशेष के समीक्षकों का है?
७. समीक्षा व्यक्तिगत विचारधारा और आग्रहों के अनुसार हो या रचना के गुण-धर्म पर? क्या समीक्षक अपनी व्यक्तिगत विचारधारा से विपरीत विचारधारा की श्रेष्ठ कृति को सराहे या उसकी निंदा करे?
८. रचनाकार समीक्षक और समीक्षक रचनाकार हो सकता है या नहीं?
९. साहित्य समग्र समाज के कल्याण हेतु है या केवल सर्वहारा वर्ग के अधिकारों का घोषणापत्र है?
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२१-३-२०२० 

शोधालेख: गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता

शोधालेख:
गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता / गीत, नवगीत तथा नई कविता
संजीव 'सलिल'
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[लेखक परिचय- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' गत ३ दशकों से हिंदी साहित्य, भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य,-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। १२ राज्यों की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा शताधिक अलंकरणों, पुरस्कारों आदि से सम्मानित किये जा चुके सलिल जी के ४ पुस्तकें (१. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २ लोकतंत्र का मक़बरा कविता संग्रह, ३. मीत मेरे कविता संग्रह, ४. भूकम्प के साथ जीना सीखें तकनीकी लोकोपयोगी) प्रकाशित हैं जबकि लघुकथा, दोहा, गीत, नवगीत, मुक्तक, मुक्तिका, लेख, आदि की १० पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्म व् साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी प्रस्तुत लेख में गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है।]
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भूमिका: ध्वनि और भाषा
अध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व सामने को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनीअनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।
कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्रगुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।
निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से स्थयित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का लेख रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी आदि सहचरों से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त ब्राम्हण-कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त हुआ। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का विज्ञानं विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। बर्फ, ठंड और नमी वाले क्षेत्रों में रोमन लिपि का विकास हुआ। चित्र अंकन करने की रूचि ने चीनी जैसी चित्रात्मक लिपि के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला., बृज, अवधि भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से नर का व्याध द्वारा वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है। हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति की मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति और पर्यावरण का योगदान ही इंगित करते हैं।
व्याकरण और पिंगल का विकास-
भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका, इसलिये भारत में कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञानं के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही पिंगल के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।
गीति काव्य में छंद-
गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है।इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गयी। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पचास छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।
अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-
लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी को शोधोपाधियां प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा से हीं प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में जीवित रहा। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर में करते हैं।
उर्दू काव्य विधाओं में छंद-
भारत के विविध भागों में विविध भाषाएँ तथा हिंदी के विविध रूप (शैलियाँ) प्रचलित हैं। उर्दू हिंदी का वह भाषिक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ मात्र गणना की पद्धति (तक़्ती) का प्रयोग किया जाता है जो अरबी लोगों द्वारा शब्द उच्चारण के समय पर आधारित हैं। पंक्ति भार गणना की भिन्न पद्धतियाँ, नुक्ते का प्रयोग, काफ़िया-रदीफ़ संबंधी नियम आदि ही हिंदी-उर्दू रचनाओं को वर्गीकृत करते हैं। हिंदी में मात्रिक छंद-लेखन को व्यवस्थित करने के लिये प्रयुक्त गण के समान, उर्दू बहर में रुक्न का प्रयोग किया जाता है। उर्दू गीतिकाव्य की विधा ग़ज़ल की ७ मुफ़र्रद (शुद्ध) तथा १२ मुरक्कब (मिश्रित) कुल १९ बहरें मूलत: २ पंच हर्फ़ी (फ़ऊलुन = यगण यमाता तथा फ़ाइलुन = रगण राजभा ) + ५ सात हर्फ़ी (मुस्तफ़इलुन = भगणनगण = भानसनसल, मफ़ाईलुन = जगणनगण = जभानसलगा, फ़ाइलातुन = भगणनगण = भानसनसल, मुतफ़ाइलुन = सगणनगण = सलगानसल तथा मफऊलात = नगणजगण = नसलजभान) कुल ७ रुक्न (बहुवचन इरकॉन) पर ही आधारित हैं जो गण का ही भिन्न रूप है। दृष्टव्य है कि हिंदी के गण त्रिअक्षरी होने के कारण उनका अधिकतम मात्र भार ६ है जबकि सप्तमात्रिक रुक्न दो गानों का योग कर बनाये गये हैं। संधिस्थल के दो लघु मिलाकर दीर्घ अक्षर लिखा जाता है। इसे गण का विकास कहा जा सकता है।
वर्णिक छंद मुनिशेखर - २० वर्ण = सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
चल आज हम करते सुलह मिल बैर भाव भुला सकें
बहरे कामिल - मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
पसे मर्ग मेरे मज़ार परजो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम से ही बुझा दिया
उक्त वर्णित मुनिशेखर वर्णिक छंद और बहरे कामिल वस्तुत: एक ही हैं।
अट्ठाईस मात्रिक यौगिक जातीय विधाता (शुद्धगा) छंद में पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु तथा पंक्त्यांत में गुरु रखने का विधान है।
कहें हिंदी, लिखें हिंदी, पढ़ें हिंदी, गुनें हिंदी
न भूले थे, न भूलें हैं, न भूलेंगे, कभी हिंदी
हमारी थी, हमारी है, हमारी हो, सदा हिंदी
कभी सोहर, कभी गारी, बहुत प्यारी, लगे हिंदी - सलिल
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हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता
दिया विश्वास ने धोखा, भरोसा घात कर बैठा
हमारा खून भी 'सागर', हमने अपना नहीं लगता -रसूल अहमद 'सागर'
अरकान मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन से बनी उर्दू बहर हज़ज मुसम्मन सालिम, विधाता छंद ही है। इसी तरह अन्य बहरें भी मूलत: छंद पर ही आधारित हैं।
रुबाई के २४ औज़ान जिन ४ मूल औज़ानों (१. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़अल, २. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़अल, ३. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़ऊल तथा ४. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़ऊल) से बने हैं उनमें ५ लय खण्डों (मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाइलुन् , फ़अल तथा फ़ऊल) के विविध समायोजन हैं जो क्रमश: सगण लघु, यगण लघु, जगण २ लघु / जगण गुरु, नगण तथा जगण ही हैं। रुक्न और औज़ान का मूल आधार गण हैं जिनसे मात्रिक छंद बने हैं तो इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बनाये गये (रुक्नों) अरकान से निर्मित बहर और औज़ान छंदहीन कैसे हो सकती हैं?
औज़ान- मफ़ऊलु मफ़ाईलुन् मफ़ऊलु फ़अल
सगण लघु जगण २ लघु सगण लघु नगण
सलगा ल जभान ल ल सलगा ल नसल
इंसान बने मनुज भगवान नहीं
भगवान बने मनुज शैवान नहीं
धरती न करे मना, पाले सबको-
दूषित न करो बनो हैवान नहीं -सलिल
गीत / नवगीत का शिल्प, कथ्य और छंद-
गीत और नवगीत शैल्पिक संरचना की दृष्टि से समगोत्रीय है। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी गीत और दोनों नवगीत रचे जाते रहे आज भी रहे जा रहे हैं और भविष्य में भी रचे जाते रहेंगे। अनेक गीति रचनाओं में गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। इन्हें किसी वर्ग विशेष में रखे जाने या न रखे जाने संबंधी समीक्षकीय विवेचना बेसिर पैर की कवायद कही जा सकती है। इससे पाचनकाए या समीक्षक विशेष के अहं की तुष्टि भले हो विधा या भाषा का भला नहीं होता।
गीत - नवगीत दोनों में मुखड़े (स्थाई) और अंतरे का समायोजन होता है, दोनों को पढ़ा, गुनगुनाया और गाया जा सकता है। मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा यह क्रम सामान्यत: चलता है। गीत में अंतरों की संख्या प्राय: विषम यदा-कदा सम भी होती है । अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं। बहुधा मुखड़ा दोहराने के पूर्व अंतरे के अंत में मुखड़े के समतुल्य मात्रिक / वर्णिक भार की पंक्ति, पंक्तियाँ या पंक्त्यांश रखा जाता है। अंतरा और मुखड़ा में प्रयुक्त छंद समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित गृह का सा आभास कराते हैं। प्रयोगधर्मी रचनाकार इनमें एकाधिक छंदों, मुक्तक छंदों अथवा हिंदीतर भाषाओँ के छंदों का प्रयोग करते रहे हैं।गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है। नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है। दोहा, सोरठा, रोला, उल्लाला, त्रिभंगी, आल्हा, सखी, मानव, नरेंद्र छंद (फाग), जनक छंद, लावणी, हाइकु आदि का प्रयोग गीत-नवगीत में किया जाता रहा है।
गीत - नवगीत दोनों में कथ्य के अनुसार रस, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं। गेयता या लयबद्धता दोनों में होती है। गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है। गीत में कथ्य वर्णन के लिये प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करने की सरचनात्मक प्रयास कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है।
नवगीत का विशिष्ट लक्षण नवता बताया जाता है किन्तु यह तत्व गीत में भी हो सकता है और किसी नवगीत में अल्प या नहीं भी हो सकता है। जो विचार एक नवगीतकार के लिए पूर्व ज्ञात हो वह अन्य के लिये नया हो सकता है। अत:, नवता अनुल्लंघनीय मानक नहीं हो सकता। पारम्परिक तुलनाओं, उपमाओं, बिम्बों तथा कथ्यों को नवगीत में वर्ज्य कहनेवालों को उसके लोकस्वीकार्यता को भी ध्यान में रखना होगा। सामान्य पाठक या श्रोता को सामान्यत: पुस्तकीय मानकों से अधिक रास रंजकता आकर्षित करती है। अत: कथ्य की माँग पर मिथकों एवं पारम्परिक तत्वों के प्रयोग के संबंध में लचीला दृष्टिकोण आवश्यक है।
नवगीत में पारिस्थितिक शब्द चित्रण (विशेषकर वैषम्य और विडम्बना) मय कथ्य की अनिवार्यता, काल्पनिक रूमानियत और लिजलिजेपन से परहेज, यथार्थ की धरती पर 'है' और 'होना चाहिए' के ताने-बाने से विषमता के बेल-बूटे सामने लाना, आम आदमी के दर्द-पीड़ा, चीत्कार, असंतोष के वर्णन को साध्य मानने के पक्षधर नवगीत में प्रगतिवादी कवित्त के तत्वों का पिछले दरवाज़े से प्रवेश कराने का प्रयास करते है। यदि यह कुचेष्टा सफल हुई तो नवगीत भी शीघ्र ही प्रगतिशील कविता की सी मरणासन्न स्थिति में होगा। सौभाग्य से नवगीत रचना के क्षेत्र में प्रविष्ट नयी पीढ़ी एकांगी चिंतन को अमान्य कर, मानकों से हटकर सामायिक विषयों, घटनाओं, व्यक्तित्वों, जीवनमूल्यों, टकरावों, स्खलनों के समान्तर आदर्शों, उपलब्धियों, आकांक्षाओं, को नवगीत का विषय बना रही है।
फिर मुँडेरों पर सजे / कचनार के दिन
बैंगनी से श्वेत तक / खिलती हुई मोहक अदाएँ
शाम लेकर उड़ चलीं / रंगीन ध्वज सी ये छटाएँ
फूल गिन-गिन / मुदित भिन-भिन
फिर हवाओं में / बजे कचनार के दिन
खिड़कियाँ, खपरैल, घर, छत / डाल, पत्ते आँख मीचे
आरती सी दीप्त पँखुरी / उतरती है शांत नीचे
रूप झिलमिल / चाल स्वप्निल
फिर दिशाओं ने / भजे कचनार के दिन -पूर्णिमा बर्मन
नवगीत लिखते समय इन बातों का ध्यान रखें-१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो। २. तुकान्तता पर लयात्मकता को वरीयता दें। ३. नये प्रतीक व बिम्बों का प्रयोग करें। ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकतामय अथवा यथार्थपरक हो। ५. सकारात्मक सोच हो। ६. बात कहने का ढंग नया हो और प्रभावशाली ढंग हो। ७. प्रचुर शब्द-भंडार सम्यक शब्द-चयन में सहायक होता है। ८. नवगीत छन्द के रूढ़ बंधन से मुक्त किन्तु लय परक गति-यति से सज्जित होता है। ९. प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण, कथ्य की जानकारी, मौलिक विश्लेषण और लीक से हटकर अभिव्यक्ति नवगीत लेखन हेतु रचना सामग्री है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता होती है तो नवगीत में गेयता अथवा लयात्मकता को महत्व मिलता है।
हिंदी छंद और भाषा का वैशिष्ट्य-
हिंदी भाषा का वैशिष्ट्य संस्कृत से अन्य भाषाओँ की तुलना में अधिक प्रभावी तथा ध्वनि विज्ञानं सम्मत उच्चारण प्रणाली ग्रहण करना, सरल अक्षराकृतियाँ, स्वर-व्यंजन,उपयुक्त संयुक्ताक्षर, शब्द-भेद, सटीक संधि नियम, भाषिक शक्तियाँ (अमिधा, व्यंजना, लक्षणा), शताधिक अलंकार, करोड़ों छंद, अगणित मुहावरे तथा लोकोक्तियाँ, तत्सम-तद्भव शब्द, उपसर्ग-प्रत्यय, ५० से अधिक आंचलिक भाषा-रूप, विशव में किसी भी एनी भाषा की तुलना में अधिक समझने-बोलने-लिखनेवाला जनगण आदि के साथ महासागर की तरह निरंतर कुछ नया ग्रहण करने की प्रवृत्ति है। इस कारण हिंदी ने संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्राम्ही की विरासत के साथ २० से अधिक भारतीय भाषाओँ के अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी, जापानी आदि से प्राप्त शब्दों, साहित्य की रचना विधाओं आदि को ग्रहण मात्र नहीं किया अपितु उनके मूल रूप को अपने भाषिक-देशिक संस्कार के अनुरूप परिवर्तित कर उनमें प्रचुर साहित्य रचना कर उसे अपना बना लिया। हिंदी ने मराठी के लावणी, अभंग आदि छंद, पंजाबी के माहिया छंद, अंग्रेजी के सोनेट, कप्लेट, बैलेड आदि छंद, जापानी के हाइकु, स्नैर्यु, ताँका, वांका आदि छंदों सहजता से अपना ही नहीं लिये अपितु उन्हें भारतीय संस्कृति, जनमानस, लोकप्रवृत्ति के नुरूप ढालकर उनका भारतीयकरण भी किया है। विश्व में सर्वाधिक बोली जा रही हिंदी ने भारत में राजनैतिक और आंचलिक विरोध द्वारा विकास-पथ रोकने की कोशिश के बावजूद विश्ववाणी का स्तर पाया है। हिंदी के छंद विश्व की कई भाषाओँ में अनूदित किये और रचे जा रहे हैं। सारत: यह निष्कर्ष निस्संकोच व्यक्त किया जा सकता है कि गीति रचनाओं का अस्तित्व ही छंद पर निर्भर है। छंदों के व्यापक, गहन और उच्च प्रभाव की अभिवृद्धि के लिये उन्हें सरलतम रूप में, स्पष्ट किन्तु लचीले रचना नियमों, मात्रा बाँट निर्धारण आदि सहित प्रस्तुत कृते रहा जाना चाहिए ताकि नयी पीढ़ी उन्हें ग्रहण कर सके और उनके विकास में अपना योगदान कर हिंदी को विश्ववाणी के पद पर आसीन करा सके।
संदर्भ ग्रन्थ-
१. छंद प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२. छंद क्षीरधि राम देव लाल 'विभोर'
३. छ्न्दोलक्षण, नारायणदास
४. छंद मंजरी, सौरभ पाण्डेय
५. काव्य मनीषा, डॉ. भागीरथ मिश्र
६. उर्दू कविता और छंद शास्त्र, नरेश नदीम
७. गजल छंद चेतना, महावीर प्रसाद मूकेश
८. गजल सृजन रामप्रसाद शर्मा 'महर्षि'
९. गजल ज्ञान, राम देव लाल 'विभोर'
१०. नव गजलपुर, सागर मीरज़ापुरी
११. गीतिकायनम, सागर मीरज़ापुरी
१२. सत्यं शिवं सुन्दरं, स्वामी श्यामानंद सरस्वती
१३. संवेदनाओं के क्षितिज, रसूल अहमद सागर
१४. चोंच में आकाश, पूर्णिमा बर्मन
१५. भारतीय काव्य शास्त्र, डॉ. कृष्णदेव शर्मा
१६. उर्दू साहित्य का इतिहास, डॉ. सभापति मिश्र
१७. हिंदी का सरल भाषा विज्ञान, गोपाल लाल खन्ना
१८. समकालीन नवगीत की अवधारणा और जीवन मूल्य, डॉ. उर्वशी सिंह
१९. नवगीत के नये प्रतिमान, राधेश्याम 'बंधु'
२०. आलोचना शास्त्र, मोहनवल्लभ पन्त है.।
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-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..
*
श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..
*
चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.
*
बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..
*
सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..
*
हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..
*
पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..
*
हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..
*
समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..
२१-३-२०११ 
**************

हाइकु मुक्तिका

 हाइकु मुक्तिका

संजीव
*
आया वसंत, / इन्द्रधनुषी हुए / दिशा-दिगंत..
शोभा अनंत / हुए मोहित, सुर / मानव संत..
*
प्रीत के गीत / गुनगुनाती धूप / बनालो मीत.
जलाते दिए / एक-दूजे के लिए / कामिनी-कंत..
*
पीताभी पर्ण / संभावित जननी / जैसे विवर्ण..
हो हरियाली / मिलेगी खुशहाली / होगे श्रीमंत..
*
चूमता कली / मधुकर गुंजार / लजाती लली..
सूरज हुआ / उषा पर निसार / लाली अनंत..
*
प्रीत की रीत / जानकार न जाने / नीत-अनीत.
क्यों कन्यादान? / 'सलिल' वरदान / दें एकदंत..
***
९४२५१८३२४४

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव
*
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..
पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम्..
जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..
सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..
जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?
टन-टन रुचे न मन्दिर की.
रुचती कोठे की छम-छम..
वीर भोग्या वसुंधरा
'सलिल' रखो हाथों में दम..
२१-३-२०१०
************
९४२५१८३२४४

मुक्तक

मुक्तक
*
मौन वह कहता जिसे आवाज कह पाती नहीं.
क्या क्षितिज से उषा-संध्या मौन हो गाती नहीं.
शोरगुल से शीघ्र ही मन ऊब जाता है 'सलिल'-
निशा जो स्तब्ध हो तो क्या तुम्हें भाती नहीं?
२१-३-२०१० 
*

मुक्तक कविता दिवस पर

मुक्तक कविता दिवस पर 
कवि जी! मत बोलिये 'कविता से प्यार है' 
भूले से मत कहें 'इस पे जां निसार है' 
जिद्द अब न कीजिए मुश्किल आ जाएगी 
कविता का बाप बहुत सख्त थानेदार है 
*

होली सलिला




अबकी फागुन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मोदी-ममता की लगावट, हुई खटास मुई
युद्ध बंगाल का कुरुक्षेत्र से संगीन अधिक
तीर-तलवार चला कह रहे, चुभा न सुई
रंगे हाथों न पकड़ जाएँ, कभी इस खातिर
दिल की रंगीनियों ने, दिमागी ज़मीं न छुई
*
मुक्तिका 
होली मने 
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
***   

होली सलिला
होरी के जे हुरहुरे
संजीव 'सलिल'
*
होरी के जे हुरहुरे, लिये स्नेह-सौगात
कौनऊ सुन मुसक्या रहे, कौनऊ दिल सहलात
कौनऊ दिल सहलात, किन्हऊ खों चढ़ि गओ पारा,
जिन खों पारा चढ़े, होय उनखों मूं कारा
कि बोलो सा रा रा रा
*
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
शारद ब्रह्मा को रंगें, देखे सब जग दंग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*  
काली जी पर कोई भी, चढ़ा न पाया रंग।
हुए लाल-पीले तुनक, शिव जी पीकर भंग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*  
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
शारद गणपति को रंगें, रिद्धि-सिद्धि है दंग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*  
भांग भवानी से भरे, सूँढ गजानन मौन।
पिएँ गटागट रोक दे, कहिए कैसे कौन।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गुप्त चित्र पर डलेगा, कैसे कहिए रंग।
चित्रगुप्त की चतुरता, देखें देव अनंग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*  
सिय बिन मूरत राम की, लगे अवध में आज।
होली कैसे मनाएँ, कहिए योगिराज।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*  
गो-गो कहते मातु से, राधा से 'कम सून'
लख महेश गोविन्द को, नचे शीश धर नून
कि बोलो सा रा रा रा 
*  
मंजु विजय की चाह ले, करें शुक्ल को श्याम 
विद्या शंकर भज उमा, भांग पिएँ अविराम 
कि बोलो सा रा रा रा
कोट पैंट भौजी पहिन, चली सुनाने फाग  
चुप नरेंद्र भूषण सजा, नाचें धरकर स्वांग 
कि बोलो सा रा रा रा
*
कविता पिचकारी लए, नारायन कुलदीप
फाग बाल्टी उड़ेलें, भउजी लै रंग डीप
कि बोलो सा रा रा रा
*
घनाक्षरी
*
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से हाँ हाँ कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
*
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे फाग गा मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
रंग गोविंद को, भंग कुलदीप को, भांग लै नरेंद्र संग सलिल हुआ है बावरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी, प्यारा लगे जैसे मायरा
*
कहमुकरी 
बात कहे फिर झट नट जाए 
चाहे सब जनता पट जाए   
तू-तू मैं-मैं कर हो जेता 
क्या सखि दरुआ? 
ना सखि नेता 
*
कविता कर-कह हर मन मोहे 
कवि वरिष्ठ  संग हरदम सोहे 
शब्द वीर नित बाण चलाए 
 

फाग-नवगीत
संजीव
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
ऊँच-नीच गए भूल सबै जन
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
***
दोहा पिचकारी लिये
संजीव 'सलिल'
*
दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग..
*
नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग..
*
नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग..
*
चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग..
*
गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग..
*
गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग..
*
मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग..
*
बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग..
*
फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'..
*
मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग..
*
हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग..
*
खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'..
*
भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग..
*
रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग..
*
मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी
*
दोहा की होली
*
दीवाली में दीप हो, होली रंग-गुलाल
दोहा है बहुरूपिया, शब्दों की जयमाल
*
जड़ को हँस चेतन करे, चेतन को संजीव
जिसको दोहा रंग दे, वह न रहे निर्जीव
*
दोहा की महिमा बड़ी, कीर्ति निरुपमा जान
दोहा कांतावत लगे, होली पर रसखान
*
प्रथम चरण होली जले, दूजे पूजें लोग
रँग-गुलाल है तीसरा, चौथा गुझिया-भोग
*
दोहा होली खेलता, ले पिचकारी शिल्प
बरसाता रस-रंग हँस, साक्षी है युग-कल्प
*
दोहा गुझिया, पपडिया, रास कबीरा फाग
दोहा ढोलक-मँजीरा, यारों का अनुराग
*
दोहा रच-गा, झूम सुन, होला-होली धन्य
दोहा सम दूजा नहीं. यह है छंद अनन्य
२-३-२०१८
***


होली सलिला
होरी के जे हुरहुरे
संजीव 'सलिल'
*
होरी के जे हुरहुरे, लिये स्नेह-सौगात
कौनऊ पढ़ मुसक्या रहे, कौनऊ दिल सहलात
कौनऊ दिल सहलात, किन्हऊ खों चढ़ि गओ पारा,
जिन खों पारा चढ़े, होय उनखों मूं कारा
*
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग
कृष्णकांत जी को मलें, चंद्रा जी कर जंग
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
हरी हुई तबियत चढ़ी, भंग भवानी शीश
गृहणी ने जी भर रँगा, लगें सुरेश कपीश
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
हिलसा खा ठंडाई पी, करें घोष जयघोष
होरी गातीं इला जी, लुटा रंग का कोष
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गयी कहानी गोंदिया, कही कहानी डूब
राजलक्ष्मी ले उड़े, राम कहानी खूब
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
जयप्रकाश जी झूमकर, रचा रहे हैं स्वाँग
गृह स्वामिन खिल खिल हँसे, भजियों में दे भाँग
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
जबलपुर भोपाल बिच, रहे कबड्डी खेल
तू तू तू तू कर रहे, तन्मय हुए सुरेश
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
मुग्ध मंजरी देखकर, भूले काम बसंत
मधु हाथों मधु पानकर, पवन बन रहे संत
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
कोक भरी पिचकारियों, से मारें हँस धार
छाया पियें मनीष जी, भीग भई भुन्सार
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
झूमें सँग अविनाश के, रचना गाकर फाग
पहन विनीता घूमतीं, फूल-धतूरा पाग
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
शोभित की महिमा अजब, मो सें बरनि न जाय
भांग भवानी हाथ ले, नेहा से बतियांय
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
बिरह-ब्यथा मिथलेस की, बिनसे सही न जाय
तजी नौकरी घर घुसे, हीरा धुनी रमांय
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
पीले-पीले हो रहे, जयप्रकाश पी आज।
श्याम घटा में चाँदनी, जैसे जाए डूब।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गूझों का आनंद लें, लुक-छिप धरकर स्वांग।
पुरुषोत्तम; मीना न दें , अडा रही हैं टाँग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
लाल गाल अखिलेश के हुए, नींद में मस्त।
सेव-पपडिया खा हुईं, मुदित विनीता पस्त।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
१३-३-२०२०
*
मधुरा गीता की विभा, सरला ले मन मोह
भांग भवानी शिवानी, अनीता पी लें टोह
पूनम रश्मि लुभा रही, सलिल-धार में झाँक
पद्मा निशि आलोक में, रही शरारत आँक
सदानंद सेठी लिए, रंग मचाते धूम
छिप सुरेंद्र गुझिया लिए, भागी पाखी घूम
अंजू अंजुरी में भरे, आई लाल गुलाल
गरिमा पिचकारी चला, दौड़ी करे धमाल
वारदात सबने छिपा, गाई जमकर फाग
ठंडाई पी कबीरा, सुनें-सुना कर स्वांग
***

मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
रंग भ्रमर खों मूं-मले, कमल करि रह्यो दंग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
सुमिरों मैं परताप खों, मानो मम परताप।
फागुन-भरमायो शिशिर, आग रह्यो है ताप।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गायें संग महेस के, किरण-नीरजा फाग।
प्रणव-दीप्ति-आतिश जुरे, फूल-धतूरा पाग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
भूटानी-छबि बनी है, नेपाली सी आज।
भंग पिलातीं इंदिरा, कुसुम-किन्शुकी ताज।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
महिमा की महिमा 'सलिल', मो सें बरनि न जाय।
तज दीन्यो संतोष- पी, भंग गजब इठलाय ।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
नभ का रंग परकास के, चेहरे-छाया खूब।
श्यामल घन घनश्याम में, जैसे जाए डूब।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
गूझों का आनंद लें, लुक-छिप पाठक भाग।
ओम व्योम से झाँककर, माँग रहे हैं भाग।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
काट लिए वनकोटि फिर, चाहें पुष्प पलाश।
ममता औ समता बिना, फगुआ हुआ हताश।।
कि बोलो सा रा रा रा.....
*
२१-३-२०१३

शारद विनय

शारद विनय
*
सरसुति सुरसति सब सुख दैनी,
हंस चढ़त लटकावति बैनी।
बीना थामे सुर गुंजाँय-
कर किरपा कुछ मातु सुनैनी।।
*
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
सिर पै कर धर आसिस, बरसाओ न मैया!
हैं संतान तिहारी सच बिसर गओ जब
भव बाधा ने घेरो सुख बिखर गओ सब
दर पर आ टेर लगाई, अपनाओ न मैया!
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
*
अपढ़-अनाड़ी ठैरे, आ दरसन देओ
इत-उत भटके, ईसें सेवा में लेओ
उबर सके संकट सें ऊ जिसे उबारो
एक आसरो तुमरो, ऐ माँ न बिसारो
ओ माँ! औसर देओ, अंबे अ: मैया! 
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
आखर सबद न सरगम, जाने सिखला दो 
नाद अनाहद तन्नक मैया! सुनवा दो 
कलकल-कलरव ब्यापी माँ बीनापानी 
भवसागर सें तारो हमखों कल्यानी 
चरन सरन स्वीकारो ठुकराओ न दैया!
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
*

शनिवार, 20 मार्च 2021

नवगीत चिरैया

नवगीत
चिरैया!
*
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
*
२१-८-२०१९

इब्नबतूता एक : कवि तीन

इब्नबतूता एक : कवि तीन
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना -गुलजार-संजीव वर्मा 'सलिल'



इब्नबतूता 
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
इब्नबतूता भूल के जूता
कोरोना से डर भागा
नहीं किसी को शकल दिखाता
घर के अंदर बंद हुआ है
राम राम करता दूरी से
ज्यों पिंजरे में कोई सुआ है
गले मत मिला, हाथ मत मिलो
कुरता सिलता बिन धागा
इब्नबतूता भूल के जूता
कोरोना से डर भागा
सगा न कोई रहा किसी का
हाय न कोई गैर है
सबको पड़े जान के लाले
नहीं किसी की खैर है
सोना चाहे; नींद न आए
आँख न खुलती पर जागा
इब्नबतूता भूल के जूता
कोरोना से डर भागा
*
संजीव
२०-३-२०२०
*
नवगीत 
क्या होएगा?
*
इब्नबतूता
पूछे: 'कूता?
क्या होएगा?'
.
काय को रोना?
मूँ ढँक सोना
खुली आँख भी
सपने बोना
आयसोलेशन
परखे पैशन
दुनिया कमरे का कोना
येन-केन जो
जोड़ धरा है
सब खोएगा
.
मेहनतकश जो
तन के पक्के
रहे इरादे
जिनके सच्चे
व्यर्थ न भटकें
घर के बाहर
जिनके मन निर्मल
ज्यों बच्चे
बाल नहीं
बाँका होएगा
.
भगता क्यों है?
डरता क्यों है?
बिन मारे ही
मरता क्यों है?
पैनिक मत कर
हाथ साफ रख
हाथ साफ कर अब मत प्यारे!
वह पाएगा
जो बोएगा
*
संजीव
२१-३-२०२०
९४२५१८३२४४



९४२५१८३२४४

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
जो डरता मरता वही
*
कर्ता करता है सही, मानव जाने सत्य
कोरोना का काय को रोना कर निज कृत्य
कोरो ना मोशाय जी, गुपचुप अपना काम
जो डरता मरता वही, काम छोड़ नाकाम
भीत न किंचित् हों रहें, घर के अंदर शांत
मदद करें सरकार की, तनिक नहीं हों भ्रांत
बिना जरूरत क्रय करें, नहीं अधिक सामान
पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान
सोमवार को किया था, हम सबने उपवास
शास्त्री जी को मिली थी, उससे ताकत खास
जनता कर्फ्यू लगेगा, शत प्रतिशत इस बार
कोरोना को पराजित, कर देगा यह वार
अभियंता गण समर्पित, करते काम अशेष 
जल विद्युत् उपकरण रख, उत्तम कार्य विशेष 
नमन चिकित्सा जगत को, करें झुकाकर शीश
जान हथेली पर लिए, बचा रहे बन ईश
देश पूरा साथ मिलकर, लड़ रहा है जंग
साथ मिलकर है खड़ा, देश जय बजरंग
*
संजीव
१९-३-२०२०

गीत राकेश खंडेलवाल

गीत
राकेश खंडेलवाल
*  
केंद्र पर मैं टिक रहूँ या वृत्त का विस्तार पाऊं
जानता हूँ ये मेरी आकांक्षायें तय करेंगी
ऐतिहासिक परिधियों में सोच की सीमाये बंदी
और सपने जो विरासत आँख में आंजे हुये है
दृष्टि केवल संकुचित है देहरी की अल्पना तक
साथ है प्रतिमान जो बस एक सुर साजे हुये है
मैं इसी ​इ​क दायरे मेँ बंध रहूँ या तोड़ डालूं
​जा​नता हूँ कल्पना की स​म्प​दाये तय करें​गी

​आदिवासी रीतियों का अनुसरण करता हुआ मन
कूप के मंडूक सी समवेत दुनिया को किये है
सांस के धागे पिरोकर एक मुट्ठी धड़कनों को
रोज सूरज के सफर के साथ चलता बस जिए है
आसमानों से पर हैं और कितने वृहद अम्बर
ये मेरी ही सोच की परिमार्जनाएं तय करेंगी ​
तलघरों में छुप गया झंझाओं से भयभीत हो जो
क्या करेगा सामना जब द्वार पर आये प्रभंजन
चल नहीं पाये समय के चक्र की गति से कदम तो
एक परिणति सामने रहती सदा होता विखंडन
मै समर्पण ओढ़ लूँ, स्वीकार कर लूँ या चुनौती
ये मेरी मानी हुई संभावनाये तय करेंगी
***

बाल गीत : जल्दी आना

बाल गीत :
जल्दी आना ...
संजीव 'सलिल'
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.
*
माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
***
२०-३-२०१३

अमृत महोत्सव, शारद वंदन

शारद! अमृत रस बरसा दे।
हैं स्वतंत्र अनुभूति करा दे।।
*
मैं-तू में बँट हम करें, तू तू मैं मैं रोज।
सद्भावों की लाश पर, फूट गिद्ध का भोज।।
है पर-तंत्र स्व-तंत्र बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
अमर शहीदों को भूले हम, कर आपस में जंग।
बिस्मिल-भगत-दत्त आहत हैं, दुर्गा भाभी दंग।।
हैं आजाद प्रतीति करा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
प्रजातंत्र में प्रजा पर, हावी होकर तंत्र।
छीन रहा अधिकार नित, भुला फर्ज का मंत्र।।
दीन-हीन को सुखी बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
ज॔गल-पर्वत-सरोवर, पल पल करते नष्ट।
कहते हुआ विकास है, जन प्रतिनिधि हो भ्रष्ट।।
जन गण मन को इष्ट बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
शोक लोक का बढ़ रहा, लोकतंत्र है मूक।
सारमेय दलतंत्र के, रहे लोक पर भूँक।।
दलदल दल का मातु मिटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
'गण' पर 'गन' का निशाना, साधे सत्ता हाय।
जन भाषा है उपेक्षित, पर-भाषा मन भाय।।
मैया! हिंदी हृदय बसा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जन की रोटी छिन रही, तन से घटते वस्त्र।
मन आहत है राम का, सीता है संत्रस्त।।
अस्त नवाशा सूर्य उगा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
रोजी-रोटी छीनकर, कोठी तानें सेठ।
अफसर-नेता घूस लें, नित न भर रहा पेट।।
माँ! मँहगाई-टैक्स घटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जिए आखिरी आदमी, श्रम का पाए दाम।
ऊषा गाए प्रभाती, संध्या लगे ललाम।।
रात दिखाकर स्वप्न सुला दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

लघुकथा : एक दृष्टि

लघुकथा : एक दृष्टि
संजीव
*
लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
*
१७-३-२०२०

गीत नदी मर रही है

गीत 
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८

दोहा सलिला

दोहा सलिला :
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' स्नेह को स्नेह का, मात्र स्नेह उपहार.
स्नेह करे संसार में, सदा स्नेह-व्यापार..
*
स्नेह तजा सिक्के चुने, बने स्वयं टकसाल.
खनक न हँसती-बोलती, अब क्यों करें मलाल?.
*
जहाँ राम तहँ अवध है, जहाँ आप तहँ ग्राम.
गैर न मानें किसी को, रिश्ते पाल अनाम..
*
अपने बनते गैर हैं, अगर न पायें ठौर.
आम न टिकते पेड़ पर, पेड़ न तजती बौर..
*
वसुधा माँ की गोद है, कहो शहर या गाँव.
सभी जगह पर धूप है, सभी जगह पर छाँव..
*
निकट-दूर हों जहाँ भी, अपने हों सानंद.
यही मनाएँ दैव से, झूमें गायें छंद..
*
जीवन का संबल बने, सुधियों का पाथेय.
जैसे राधा-नेह था, कान्हा भाग्य-विधेय..
*
तन हों दूर भले प्रभो!, मन हों कभी न दूर.
याद-गीत नित गा सके, साँसों का सन्तूर..
*
निकट रहे बेचैन थे, दूर हुए बेचैन.
तरस रहे तरसा रहे, 'बोल अबोले नैन..
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', औषध यह बेदाम.
*

सरस्वती

मुक्तिका
*
मन मंदिर जब रीता रीता रहता है।
पल पल सन्नाटे का सोता बहता है।।
*
जिसकी सुधियों में तू खोया है निश-दिन
पल भर क्या वह तेरी सुधियाँ तहता है?
*
हमसे दिए दिवाली के हँस कहते हैं
हम सा जल; क्यों द्वेष पाल तू दहता है?
*
तन के तिनके तन के झट झुक जाते हैं
मन का मनका व्यथा कथा कब कहता है?
*
किस किस को किस तरह करे कब किस मंज़िल 
पग बिन सोचे पग पग पीड़ा सहता है
*

गुरुवार, 18 मार्च 2021

अमृत महोत्सव २०२१ -२०२२

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२१ -२०२२ 
सामूहिक रचना संकलन
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मियों के लिए स्वर्णिम अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से क्रांतिकारी शहीदों के आत्मोत्सर्ग, आजाद हिंद फौज के बलिदान, सत्याग्रहियों के संघर्ष, देश-विभाजन की पीड़ा, देश के नव निर्माण की लगन व परिश्रम, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय उपलब्धियाँ, देशभक्तों से जुड़े प्रेरक प्रसंग, राष्ट्रीय गौरव के क्षणों, लोक में व्याप्त उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास, जनगण के अरमानों आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५-७५ रचनाकारों की राष्ट्रीय भावधारा पर केंद्रित रचनाओं के  संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किए जाना है।
रचनाकार अपने संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, प्रकाशित पुस्तकें, डाक का पता, चलभाष क्रमांक, ईमेल) व चित्र ३० अप्रैल तक उक्त पते पर तथा विधाओं के सम्मुख दर्शाए गए सहसंपादकों को अविलंब भेजें। पहले ७५ स्तरीय रचनाएँ ही संकलित की जा सकेंगी। निराशा से बचने के लिए शीघ्रता कीजिए। रचनाओं कथ्य मौलिक, सामयिक, समाजोपयोगी तथा प्रभावी होने पर ही रचना का चयन किया जाएगा।
सबकी सहभागिता होने पर संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
संकलन पर स्वत्वाधिकार संपादक का तथा रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा।
प्रस्तावित संकलन -
विधा       -    सहसंपादक का नाम वाट्स ऐप क्रमांक 
निबंध     -    डॉ. मुकुल तिवारी ९४२४८३७५८५  
नवगीत   -   बसंत शर्मा ९४७९३५६७०२  
लोकगीत -   विजय बागरी ९६६९२५१३१९  
बालगीत  -     
बालकथा  - पुनीता भारद्वाज ९६९४९१४८६०
लघुकथा   - प्रेरणा गुप्ता ८२९९८७२८४१   
कहानी     -  सुरेंद्र सिंह पवार ९३००१०४२९६  
संस्मरण -   सदानंद कवीश्वर ९८१०४२०८२५ 
साक्षात्कार - विभा तिवारी 
    
 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
संस्मरण संकलन
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ संस्मरणकारो से स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित एक एक प्रेरक संस्मरण आमंत्रित है। इन संस्मरणों का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम शब्द सीमा ७०० ।
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
संस्मरण का कथ्य मौलिक, सकारात्मक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। संकलन का स्वत्वाधिकार संपादक का होगा।
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
नवगीत संकलन
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ नवगीतकारों से स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित एक एक नवगीत आमंत्रित है। इन नवगीतों का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम पंक्ति सीमा २५ ।
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
नवगीत का कथ्य मौलिक, सकारात्मक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। संकलन का स्वत्वाधिकार संपादक का होगा।
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
बाल कथा संकलन
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ बालकथाकारों से स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित एक एक बालकथा आमंत्रित है। इन बालकथाओं का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम शब्द सीमा ५०० ।
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
बालकथा का कथ्य मौलिक, सकारात्मक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। संकलन का स्वत्वाधिकार संपादक का होगा।
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*