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गुरुवार, 18 मार्च 2021

लघुकथा जबलपुर

जबलपुर संभाग में लघुकथा
*
जबलपुर संभाग आरंभ से लघुकथा का गढ़ रहा है। कुँवर प्रेमिल और मैंने बहुत सी सामग्री उपलब्ध करा दी है। दिवंगत लघुकथाकारों और जिनके संकलन नहीं हैं, ऐसे लघुकथाकारों की लघुकथाएँ तुरंत संरक्षित की जाना आवश्यक है। मैं "जबलपुर में लघुकथा" शीर्षक से संकलन तैयार कर रहा हूँ। सभी से अनुरोध है कि अपने परिचित लघुकथाकायरों के नाम, पते, चलभाष क्रमांक, चित्र व लघुकथाएँ मुझे वाट्सएप क्रमांक ९४२५१८३२४४ या ईमेल salil.sanjiv@gmail.com पर अविलंब भेजें। पूर्व प्रकाशित लघुकथाओं के साथ पत्रिका का नाम, वर्ष, माह तथा संपादक का संपर्क भेजें। सभी सहयोगियों का नामोल्लेख संकलन में किया जाएगा।
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" 
संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान
*

मुक्तक

मुक्तक 
नववर्षोत्सव मंगलमय हो।
माँ की कृपा अमित-अक्षय हो।।
करें साधना सद्भावों की-
नित नव रचनाएँ निर्भय हो।।
१८-३-२०१८ 

निमाड़ी दोहा

निमाड़ी दोहा:
संजीव 'सलिल' 
*
जिनी वाट मंs झाड नी, उनी वांट की छाँव. ने
ह मोह ममता लगन, को नारी छे ठाँव.. 
१८-३-२०१० 
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मुक्तिका

मुक्तिका
*
मन मंदिर जब रीता रीता रहता है।
पल पल सन्नाटे का सोता बहता है।।
*
जिसकी सुधियों में तू खोया है निश-दिन
पल भर क्या वह तेरी सुधियाँ तहता है?
*
हमसे दिए दिवाली के हँस कहते हैं
हम सा जल; क्यों द्वेष पाल तू दहता है?
*
तन के तिनके तन के झट झुक जाते हैं
मन का मनका व्यथा कथा कब कहता है?
*
किस किस को किस तरह करे कब किस मंज़िल 
पग बिन सोचे पग पग पीड़ा सहता है
*

बुधवार, 17 मार्च 2021

मुक्तिका

मुक्तिका 
*
आदमी भला मेरा गर करेंगे। १९  
सितारे बदी करने सेडरेंगे।। 
बिना मतलब मदद कर दे किसी की 
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे।। 
कलम थामे न जो कहते हकीकत 
आप ही वे बिना मारे मरेंगे।। 
नर्मदा नेह की जो नित नहाते  
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।। 
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते 
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।। 
*
१७ मार्च २०१० 

मंगलवार, 16 मार्च 2021

दोहा यमक

 गले मिलें दोहा यमक

*
चिंता तज चिंतन करें, दोहे मोहें चित्त
बिना लड़े पल में करें, हर संकट को चित्त
*
दोहा भाषा गाय को, गहा दूध सम अर्थ
दोहा हो पाया तभी, सचमुच छंद समर्थ
*
सरिता-सविता जब मिले, दिल की दूरी पाट
पानी में आगी लगी, झुलसा सारा पाट
*
राज नीति ने जब किया, राजनीति थी साफ़
राज नीति को जब तजे, जनगण करे न माफ़
*
इह हो या पर लोक हो, करके सिर्फ न फ़िक्र
लोक नेक नीयत रखे, तब ही हो बेफ़िक्र
*
धज्जी उड़ा विधान की, सभा कर रहे व्यर्थ
भंग विधान सभा करो, करो न अर्थ-अनर्थ
*
सत्ता का सौदा करें, सौदागर मिल बाँट
तौल रहे हैं गड्डियाँ, बिना तराजू बाँट
*
किसका कितना मोल है, किसका कितना भाव
मोलभाव का दौर है, नैतिकता बेभाव
*
योगी भूले योग को, करें ठाठ से राज
हर संयोग-वियोग का, योग करें किस व्याज?
*
जनप्रतिनिधि जन के नहीं, प्रतिनिधि दल के दास
राजनीति दलदल हुई, जनता मौन-उदास
*
कब तक किसके साथ है, कौन बताये कौन?
प्रश्न न ऐसे पूछिए, जिनका उत्तर मौन
*
संजीव
१६-३-२०२०
९४२५१८३२४४

गीत तुम बिन

गीत 
तुम बिन
*
तुम बिन नेह, न नाता पगता
तुम बिन जीवन सूना लगता
*
ही जाती तब दूर निकटता
जब न बाँह में हृदय धड़कता
दिपे नहीं माथे का सूरज
कंगन चुभे, न अगर खनकता
तन हो तन के भले निकट पर
मन-गोले से मन ही दगता
*
फीकी होली, ईद, दिवाली
हों न निगाहें 'सलिल' सवाली
मैं-तुम हम बनकर हर पल को
बाँटें आजीवन खुशहाली
'मावस हो या पूनम लेकिन
आँख मूँद, मन रहे न जगता
*
अपना नाता नेह-खज़ाना
कभी खिजाना, कभी लुभाना
रूठो तो लगतीं लुभावनी
मानो तो हो दिल दीवाना
अब न बनाना कोई बहाना
दिल न कहे दिलवर ही ठगता
***
१६-३-२०१६

मुक्तिका

मुक्तिका :
मापनी- २१२२ २१२२ २१२
*
तू न देगा, तो न क्या देगा खुदा?
है भरोसा न्याय ही देगा खुदा।
*
एक ही है अब गुज़ारिश वक़्त से
एक-दूजे से न बिछुड़ें हम खुदा।
*
मुल्क की लुटिया लुटा दें लूटकर
चाहिए ऐसे न नेता ऐ खुदा!
*
तब तिरंगे के लिये हँस मर मिटे
हाय! भारत माँ न भाती अब खुदा।
*
नौजवां चाहें न टोंके बाप-माँ
जोश में खो होश, रोएँगे खुदा।
*
औरतों को समझ-ताकत कर अता
मर्द की रहबर बनें औरत खुदा।
*
लौ दिए की काँपती चाहे रहे
आँधियों से बुझ न जाए ऐ खुदा!
***
१६-३-२०१६
(टीप- 'हम वफ़ा करके भी तन्हा रह गए' गीत इसी मापनी पर है.)

सामयिक दोहे

दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
*
१६-३-२०१८ 

नवगीत

नवगीत: बजा बाँसुरी ---...
*
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
**************
१६-३-२०१०

अमृत महोत्सव

[16/03, 14:49] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": ॐ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
लघुकथा संकलन 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए असर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ लघुकथाकारों की स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित लघुकथाओं का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम शब्द सीमा ३०० शब्द। 
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
लघुकथा का कथ्य मौलिक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। 
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*
[16/03, 14:49] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": ॐ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
नवगीत संकलन 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ नवगीतकारों से स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित एक एक नवगीत आमंत्रित है। इन नवगीतों का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम पंक्ति सीमा २५ । 
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
नवगीत का कथ्य मौलिक, सकारात्मक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। संकलन का स्वत्वाधिकार संपादक का होगा।
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*
[16/03, 14:49] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": ॐ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
बाल कथा संकलन 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ बालकथाकारों से स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित एक एक बालकथा आमंत्रित है। इन बालकथाओं का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम शब्द सीमा ५०० । 
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
बालकथा का कथ्य मौलिक, सकारात्मक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। संकलन का स्वत्वाधिकार संपादक का होगा।
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*
[16/03, 14:49] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": ॐ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव २०२०-२०२१
संस्मरण संकलन 
*
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव रचनाधर्मिता के लिए अवसर है कि वे अपनी रचना के माध्यम से शहीदों के बलिदान, आजाद हिंद फौज के संघर्ष, सत्याग्रहियों की जिजीविषा, विभाजन की पीड़ा, नवनिर्माण की लगन, राष्ट्रीय एकता, उपलब्धियाँ, प्रेरक प्रसंग, गौरव के क्षण, उत्सवधर्मिता, आह्लाद, उल्लास आदि को शब्दित करें।
समर्थ ७५ संस्मरणकारो से स्वाधीनता की अमृत जयंती पर केंद्रित एक एक प्रेरक संस्मरण आमंत्रित है। इन संस्मरणों का संग्रह ऑनलाइन प्रकाशित किया जाना है।
अधिकतम शब्द सीमा ७०० । 
अपना संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, डाक का पता, चलभाष क्रमांक व ईमेल) व चित्र ३१ मार्च तक उक्त पते पर भेजें।
संस्मरण का कथ्य मौलिक, सकारात्मक तथा प्रभावी होने पर ही चयन किया जाएगा।
संकलन मुद्रित भी किया जा सकता है।
रचना पर स्वत्वाधिकार रचनाकार का होगा। संकलन का स्वत्वाधिकार संपादक का होगा।
सामग्री उक्त ईमेल या वाट्सएप पर भेजें।
*

सोमवार, 15 मार्च 2021

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***

कहे कुंडलिया सत्य

 कहे कुंडलिया सत्य

*
दो नंबर पर हो गयी, छप्पन इंची चोट
जला बहाते भीत हो, पप्पू संचित नोट
पप्पू संचित नोट, न माया किसी काम की
लालू स्यापा करें, कमाई सब हराम की
रहे तीन के ना तेरह के, रोते अफसर
बबुआ करें विलाप, गँवाकर धन दो नंबर
*
दबे-दबे घर में रहें, बाहर हों उद्दंड
हैं शरीफ बस नाम के, बेपेंदी के गुंड
बेपेंदी के गुंड, गरजते पर न बरसते
पाल रहे आतंक, मुक्ति के हेतु तरसते
सीधा चले न सांप, मरोड़ो कई मरतबे
वश में रहता नहीं, उठे फण नहीं तब दबे
*
दिखा चुनावों ने दिया, किसका कैसा रूप?
कौन पहाड़ उखाड़ता, कौन खोदता कूप?
कौन खोदता कूप?, कौन किसका अपना है?
कौन सही कर रहा, गलत किसका नपना है?
कहता कवि संजीव, हुआ जो नहीं वह लिखा
कौन जयी हो? पत्रकार को नहीं था दिखा
*
हाथी, पंजा-साइकिल, केर-बेर सा संग
घर-आँगन में करें जो, घरवाले ही जंग
घरवाले ही जंग, सम्हालें कैसे सत्ता?
मतदाता सच जान, काटते उनका पत्ता
बड़े बोल कह हाय! चाटते धूला साथी
केर-बेर सा सँग, साइकिल-पंजा, हाथी
*
पटकी खाकर भी नहीं, सम्हले नकली शेर
ज्यादा सीटें मिलीं पर, हाय! हो गए ढेर
हाय! हो गए ढेर, नहीं सरकार बन सकी
मुँह ही काला हुआ, नहीं ठंडाई छन सकी
पिटे कोर्ट जा आप, कमल ने सत्ता झपटी
सम्हले नकली शेर नहीं खाकर भी पटकी
***

मानव छंद

छंद सलिला:
चौदह मात्रीय मानव छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४, मात्रा बाँट ४-४-४-२ या ४-४-४--१-१, मूलतः २-२ चरणों में तुक साम्य किन्तु प्रसाद जी ने आँसू में तथा गुप्त जी ने साकेत में२-४ चरण में तुक साम्य रख कर इसे नया आयाम दिया। आँसू में चरणान्त में दीर्घ अक्षर रखने में विविध प्रयोग हैं. यथा- चारों चरणों में, २-४ चरण में, २-३-४ चरण, १-३-४ चरण में, १-२-४ चरण में। मुक्तक छंद में प्रयोग किये जाने पर दीर्घ अक्षर के स्थान पर दीर्घ मात्रा मात्र की साम्यता रखी जाने में हानि नहीं है. उर्दू गज़ल में तुकांत/पदांत में केवल मात्रा के साम्य को मान्य किया जाता है. मात्र बाँट में कवियों ने दो चौकल के स्थान पर एक अठकल अथवा ३ चौकल के स्थान पर २ षटकल भी रखे हैं. छंद में ३ चौकल न हों और १४ मात्राएँ हों तो उसे मानव जाती का छंद कहा जाता है जबकि ३ चौकल होने पर उपभेदों में वर्गीकृत किया जाता है.
लक्षण छंद:
चार चरण सम पद भुवना,
अंत द्विकल न शुरू रगणा
तीन चतुष्कल गुरु मात्रा,
मानव पग धर कर यात्रा
उदाहरण:
१. बलिहारी परिवर्तन की, फूहड़ नंगे नर्त्तन की
गुंडई मौज मज़ा मस्ती, शीला-चुन्नी मंचन की
२. नवता डूबे नस्ती में, जनता के कष्ट अकथ हैं
संसद बेमानी लगती, जैसे खुद को ही ठगती
३. विपदा न कोप है प्रभु का, वह लेता मात्र परीक्षा
सह ले धीरज से हँसकर, यह ही सच्ची गुरुदीक्षा
४. चुन ले तुझको क्या पाना?, किस ओर तुझे है जाना
जो बोया वह पाना है, कुछ संग न ले जाना है
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मानव, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

होली का रंग राजनीति के संग

होली का रंग राजनीति के संग 
संजीव 'सलिल'
*
होली हो ली हो रही होगी फिर-फिर यार
मोदी राहुल ममता माया जयललिता तैयार
जयललिता तैयार न जीवनसाथी-बच्चे
इसीलिये तो दाँव न चलते कोई कच्चे
कहे 'सलिल' कवि बच्चेवालों की जो टोली
बचकर रहे न गीतका दें ये भंग की गोली
*
होली अनहोली न हो, खायें अधिक न ताव.
छेड़-छाड़ सीमित करें, अधिक न पालें चाव..
अधिक न पालें चाव, भाव बेभाव बढ़े हैं.
बचें करेले सभी, नीम पर साथ चढ़े हैं..
कहे 'सलिल' कविराय, न भोली है अब भोली.
बचकर रहिये आप, मनायें जम भी होली..
*
होली जो खेले नहीं, वह कहलाये बुद्ध.
माया को भाये सदा, सत्ता खातिर युद्ध..
सत्ता खातिर युद्ध, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रमित है जनता भोली.
एक साथ मिल खर्चे बढ़वा खेलें होली..
*

हाइकु गजल

हाइकु गजल:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आया वसंत / इन्द्रधनुषी हुए / दिशा-दिगंत.. 
शोभा अनंत / हुए मोहित, सुर / मानव संत.. 
*
प्रीत के गीत / गुनगुनाती धूप / बना लो मीत. 
जलाते दिए / एक-दूजे के लिए / कामिनी-कंत.. 
*
पीताभी पर्ण / संभावित जननी / जैसे विवर्ण.. 
हो हरियाली / मिलेगी खुशहाली / होगे श्रीमंत.. 
*
चूमता कली / मधुकर गुंजा / लजाती लली.. 
सूरज हु/उषा पर निसार/लाली अनंत.. 
*
प्रीत की रीत / जानकार न जाने / नीत-अनीत. 
क्यों कन्यादान? / 'सलिल'वरदान / दें एकदंत..
*

रविवार, 14 मार्च 2021

दोहा-सलिला रंगमयी

दोहा-सलिला रंगमयी 
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर
*

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया

*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***
१४-३-२०१७

समीक्षा पथ का चुनाव कांता राॅय

 
समीक्षा
पुस्तक - पथ का चुनाव
लेखिका - कांता राॅय
प्रकाशक -ज्ञान गीता प्रकाशन
पृष्ठ संख्या - 165
हार्डबाऊँड
मूल्य-395:00 रुपए
आई.एस.बी.एन. : 978-93-84402-98-3
बसंत ऋतु में खिले विभिन्न रंगों के पुष्प अपनी -अपनी विशिष्ट सुगंध से महकते हैं ठीक उसी प्रकार कांता जी की लघुकथा संग्रह 'पथ का चुनाव ' अपने में एक सौ चौंतीस लघुकथाओं के जरिए मानवीय संवेदनाओं को समेटने में सक्षम जान पड़ती है।
लघुकथा उस बंद कली के सदृश है जो अपने अंदर खुश्बू अर्थात मानवीय भावों व संवेदनाओं को समेटे तथा अनेक संभावनाओं जन्म देने की क्षमता रखती है और सीमित आकार मे बहुत कुछ समेटते हुए तेज चुभन दे जाती है। ये वर्णनात्मक शैली और संवादों के माध्यम से कही जाती है।इसमें पल विशेष को संकोच के संपूर्णता लानी होती है और व्यर्थ के वर्णन से बचना होता है।पूर्व से आज लघुकथा ने अनेक पड़ाव पार करते हुए अपना रूप -रंग निखार कर कामयाब हो चहुँ ओर अपना परचम लहरा रही है।
कांता रॉय मैथिली भाषा की होते हुए भी हिन्दी साहित्य के लघुकथा के क्षेत्र में अपनी रचनाओं द्वारा एक मुकाम हासिल किए हुए हैं ।
उनके माध्यम से मैंने लघुकथा की बारीकीयाँ सीखीं।
उनका पहला लघुकथा संग्रह ' घाट पर ठहराव कहाँ ' पढ़ी मुझे अच्छी लगी और अब उसका अनुवाद पंजाबी भाषा में कर रही हूँ।
'पथ का चुनाव' अधिक परिष्कृत हो कर पाठकों के समक्ष आई है। कांता रॉय को मैंने हिन्दी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल के माध्यम जान पायी।वे मेरी मार्गदर्शिका भी है और सखी भी।
आधुनिक दौर लक्ष्य के सम्मुख दृढ़ संकल्प की लालच के समक्ष हार को बड़ी सहजता से 'लक्ष्य की ओर' में मानवीय संवेदनाओं के उतार - चढ़ाव को सरलता के उकेरा गया है। 'मवेशी' में मज़दूर की व्यथा के साथ - साथ 'आवेश' भी पीछे नहीं रहता और बहुत कुछ चुपके से कह जाता है। 'गरीबी की धुंध में' आदमी न चाहते हुए भी लाचारी से कितना मजबूर हो जाता है दूसरी तरफ हिम्मत और हौसले की तस्वीर से पाठक 'उड़ान का बीज' भावी पीढ़ी के लिये बो जाता है। 'पैंतरा' के माध्यम से आदमी के बदलते व्यवहार पर करारा कटाक्ष किया है। 'ओछी संगत' अपनी महत्ता के लिए तटस्थता से खड़ी जान पड़ती है।
'भूख' के साथ - साथ मानवीय संवेदनाओं को 'घर के भगवान' में सफलता से स्पष्ट किया है। गाँव से निकले नवयुवक के सपनों के 'मोह पाश' को भंग होते देख उसके सपने अंदर तक साल जाते हैं। संवेदनाओं को अपने अंदर ही समेटने को मजबूर हो 'मौन' रहना ही उचित लगता है।
'रामअवतार' में आदमी के शातिर दिमाग की दाद देनी पड़ेगी। 'गरीबी का फोड़ा' और 'मुर्दे की शोभा' से 'बेरोजगारी' भी अपना कमाल दिखलाने में पीछे नहीं रहती।
'ठठरी पर ईमानदारी' की जीत का परचम बड़ी शान से लहरा रहा है।आधुनिक युग में बच्चे द्वारा पिता को 'गरीब की परिभाषा' समझाने पर बेचारे पिता के पास आँखें चुराने के सिवा कोई चारा नहीं बचता ।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे को चरितार्थ कर करते हुए 'किसान ' सफल सिद्ध हुई है। मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख कर बयान करती 'श्राद्ध' मानवीय मनोवृत्ति पर करारी चोट करे बिना नहीं रहती। 'मेंटर' में लेखिका ने सुगंधा की मेहनत व लगन को परे धकेलते हुए डंडे के असर को प्रमुखता देती बताया है।जोकि गलत है। 'जरसी में दरख्त' फौजी जीवन को प्रेरित करती लघुकथा पाठक मन को उद्देलित किए बिना नहीं रहतीl
आज हर आदमी स्टेज पर भाषण दे रहा है या कथा कहानी में बखान कर रहा है व नारी को देवी तुल्य प्रतिष्ठित करने में लगा है। लेकिन यदि उससे भी पूछा जाय तो उसके स्वयं के घर में नारी की दशा में कोई परिवर्तन नहीं आयाl जैसा कि 'पुतले का दर्द' में नारी को मानव इकाई मानने को चुपके से घी चावल में कुनैन की गोली परोस दी गई हो। आधुनिक विचारों को सहेजने वाली के अंधे प्यार को नकारता 'बैकग्राउंड' है। 'जोगनिया नदी' से उठने वाले धुएँ ने नायिका का दिल भारी कर और पुरानी यादें उसके दिल का दर्द बनकर का दिल भी भारी कर देती हैl 'पतिता' में नारी पुरुष की बराबरी करती नज़र आती हैl समाज में व्याप्त विभिन्न के बीच कुछ 'आदर्श ' चेहरे अपनी उपस्तिथि दर्ज कराते अच्छे लगे l
आज की नारी बड़ी सहजता से चुनौती सोच विचार के पश्चात् अपने 'पथ का चुनाव' कर रही हैl औरत ने अपने 'प्यार' को जिन्दगी से जोड़ कर बहुत सार्थक कार्य को अंजाम दिया हैl 'विष वमन' कथा सुषमा के प्रति व्यवहार हद तक अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप करारा जवाब दिया। यहाँ तक की परुष प्रताड़ित नारी की चर्चा तो सर्वव्यापी है पर ऐसी 'सुरंग' में नारी है जो पुत्र द्वारा यदा कदा गुस्सा आने पर पीट दी जाती हैl उसके द्वारा होने वाली बहू से पूछ बैठती है कि तुम लव इन रिलेशन में रह लो जिसे देख नायिका के साथ - साथ का आवाक रह जाता है l वहीं 'मैसी' एक करारा व्यंग हैl हिम्मत और हौंसले का जीता जागता सबूत लेखिका ने 'उड़ान का बीज' में दिया हैl जहाँ एक छोटी सी चींटी भी कम नहीं हैl
गरीबी में कुण्ठित सौंदर्य अनेक कल्पनाओं के गड़ को इंगित करती लघुकथा 'मक्खन जैसे हाथ' सार्थक बन पड़ी है l अपराध बोध ग्रसित 'रक्तिम मंगल सूत्र' पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है गरीबी और नारी सुरक्षापर चिंता भी व्यक्त करती हैl प्रेम की जीत की ओर इंगित करती 'तुम्हारा हक' हकदार तक पहुंचाती मार्मिक लघुकथा मन को उद्देलित किए बिना नहीं रहतीl 'टी-२०' में नारी के जीवन का ससुराल में क्रिकेट मैदान की तरह सामांजस्य बिठाती कथा सार्थक जान पड़ती है l
'रिश्ते की जकड़' प्रेम की हार को बड़ी खूबसूरती से उकेरा गया है l 'काँपते पत्ते' में नारी की मनोदशा किसी से छिपी नहीं है। अल्बर्ट के 'वायलन की धुन' नारी के मनोभावों पर मलहम लगाती सी जान पड़ती है । यहाँ तक कि अतीत के साए में भी अछूते न रह सका बूढ़े जहन में जीवन साँझ तक सहेजे जान पड़ते हैं। प्यार की इंतहा तो तब हो जाती है जब 'महकती खामोशी ' अगाध प्रेम की परिभाषा बन जाती है। इसी बीच 'अवलंब ', 'जोगी का जोग', 'फासले' अपने आप में गहरे अर्थ समेटे हुए है वहीं 'कुँवारी के कितने वर' एक विडंबना-सी जान पड़ती है।
'कलेजे पर ठुकी हुई कील' भी नासूर सा दर्द चुपके से दे जाती। नारी को अपनी संवेदनाओं को समेटते हए 'मौन' रहना ही उचित जान पड़ता है। ' प्रायश्चित ' के माध्यम के शीलो के मन में उपजे प्रेम बीज को समाज के ठेकेदरों ने पनपने पर गाँव की चौपाल पर पंचों के बीच पंचगव्य खाने को विवश कर दिया। नारी जीवन में विसंगति स्वरूप 'सिगरेट ' साबित करती है मौके की जीत को। जहाँ नायिका ने छुपकर सिगरेट पीना मुनासिब समझा। ठंडे पड़े रिश्तों की दुहाई देती लघुकथा 'ठंडी आँखें' पाठको को विशेष चिंतन देतीहै । साथ ही 'प्रेम विवाह' के पारिवारिक भोज में कुछ अकल्पनीय व आकातस्मिक बहुत घट जाता है जो पाठकों को अंदर तक हिला जाता है। जो की समाज में यदा - कदा घटता दीख पड़ता है।
'कैक्टस के फूल ' आज के दौर में सशक्त व अनूठी कृति है।इसी कड़ी में 'हड्डी' नायिका के गले में फँसने पर उसके द्वारा बड़ी चतुराई से निकालने पर पाठक भी अचंभित हो जाते हैं। 'मिलन' के अनूठेपन के साथ 'बहकते गुलाल का ठौर' पाठकों को मिल जाता है साथ गुलाल को भी। 'भरोसा तो है पर......' में नायिका ने अविश्वास को पुष्ट करती कथा ने उसका साथ खूब निभाया ।अविश्वास पर आधारित 'अधजली' भी विश्वास न कर पाई।
'कस्तूरी -मृग ' में लेखिका ने बड़े सलीके से आज कल हो रहे जल्दी -जल्दी तलाक़ व पछतावे को इंगित करती लघुकथा खूबसूरत बन पड़ी है 'शक ......एक कश्मकश ' की तरह आज भी समाज में शक से पनपने वाली समस्याएं विद्वमान हैं। मन पवित्र हो पर देह के संबध में समाज की निगाहों से आहत होती नारी हिम्मत से 'नई राह' चुनती है ।'छुटकारा ' इसी कड़ी की सुंदर कृति है। 'आस का सूरज ' जहाँ चाह वहाँ राह ' सही साबित करता है।
कभी -कभी नारी ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो उसे कतई मंजूर नहीं होते पर जायदाद के कागज़ात पर अंगूठा लगाते ही माँ को नीली स्याही से भरी दवात पर नजर पड़ते ही 'नीली स्याही का साँप' रेंगता दिखाई पड़ता है। माता -पिता के सामने हुए बँटवारे का दंश उनको दीवार के इस पार और उस पार रह कर सहना पड़ता है।लेकिन वो भूल जाते हैं कि ' दीवार के कान' भी होते हैं। वहीं पारिवारिक प्राथमिकता के दर्शन ' परिवार ' में स्पष्ट दिखते हैं ।
न्यू इयर पार्टी में अपने-अपने ढँग को व्यक्त करती लघुकथा ' स्पेशल सेलिब्रेशन ' की भी सच्चाई बयान करती है । ' मोहना की बीबी ' सामाजिक प्रसांगिकता प्रस्तुत करती है। माँ बेटे के मिलन की लाजवाब लघुकथा ' नीरजा ' अपने आप में लघुकथा के क्षेत्र में सुनहरे हस्ताक्षर हैं ।
हमारे परिवेश में ' बदलती तस्वीर ' ने बड़ी खूबसूरती से बाप -बेटे के परिस्थिति के बदलते ही आपस में बदलते व्यवहार को बड़ी नजाकत से दर्शाया है। ' गरीब होने का सुख ' बड़ी चतुराई से बांचा गया है कि पाठक भ्रमित हुए बिना नहीं रहता।
सिक्के के दूसरे पहलू मे ' टपरे पर छप्पर ' को घोड़े लीद पर कुकरमुत्ते के समान बताया। आज हमारी बेटी जागरुक होकर सोचती है कि ' अस्तित्व की स्थापना के लिये हमेंशा प्रयासरत रहना चाहिये। 'अनपेक्षित' में नायिका की सोच कि माँ ने काश उसके सुनहरे भविष्य के लिए पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दिया होता बनिस्बत विवाह की चिंता में किए गये उपाय के। वहीं एक अपवाद स्वरूप पिता बेटी को पढ़ाने के बजाय शेयर में लगाने हेतु 'जोड़ का तोड़' को समझता है।
'स्पर्श ' पुरुषों की मानसिकता को दोहराती सी दीख पड़ती है यहाँ तक की इंटरव्यू देने गई लड़की भी पुरुष के मनभावों को पड़ने में कहाँ गलती नहीं करती ।
कहीं -कहीं लड़की सब लोकलाज भूलकर स्वयं ही लड़के के दरवाज़े 'न डोली न कहार' के बिना ही आ धमकती है। वहीं 'निरमलिया' में नायिका सरल शब्दों में मोहना से अपनी शादी की बात अपनी शर्तों पर रख कर साबित करती है कि आज की नारी अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग है, तो कहीं 'माँ विहिना' बेटी अपने पिता के साये में सामजिक तानों के बीच माँ के प्यार को तरसती है। 'गरीब परमात्मा' में हमारे बच्चे अभी भी हमारे संस्कारों से जुड़ें नजर आते हैं। वहीं आपसी भाईचारे का संदेश देते हैं 'मोहम्मद -नारायण' जी वहीं 'ठठरी पर ईमानदारी' की जीत का परचम बड़े जोर शोर से लहराया गया है।
'कुम्हारी ' भी हमारे संसकारों पर चोट करने में पीछे नहीं रहती। कहीं -कहीं अपवाद स्वरूप अविभाकों द्वारा
बच्चे की पढ़ाई की महत्ता को नगन्य गिनना और काम को प्राथमिकता देना 'लायक' लघुकथा पाठक का मन भर आता है।
संयुक्त परिवार के महत्व को 'यथार्थ बोध' में बाखूबी दर्शाया गया है। वहीं दूसरी तरफ 'अपडेट' के माध्यम से परिवार के सिकुड़ते रिश्ते अब अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं। उन्हें एक वक्त़ भी अपने परिवार के साथ बैठकर कर खाना खाना मंजूर नहीं। इसी के चलते भी कुछ ऐसे किरदार भी हैं 'जीजी, मैं और डायरी ' भाई -बहन के अमिट प्यार की छाप पाठकों के दिल पर पड़ती है।
हमारा अनुमान हमेशा सही हो ये जरूरी नहीं 'पूछताछ' करने पर साबित हो जाता है। 'बदनाम रिश्ते ' इसी बात का सबूत है। गली के बीच 'खुन्नस की लात' का असर जानने को हमेशा आतुर रहेंगे ।
अचंभित करने वाली लघुकथा ' बड़ा व्यापारी ' में बेटी ने व्यापारी के बेटे से शादी करके बड़े व्यापारी को अपनी अक्ल से दाद दे दी।वहीं 'किसान' ने पर उपदेश कुशल बहुतेरे को बाखूबी चरितार्थ किया है।
जाति-पात के भेदभाव को मिटाती 'निर्माल्य ' वर्णनात्मक शैली में सफलता प्राप्त करती है।
सरकारी वादों की पोल खोलती 'कागज़ का गाँव ' सच का बयान करती है। ' विष वमन ' नाटकीय ढंग सेब पाठकों को प्रभावित करती है।
समाचार एजेंसियों का सच 'तलाश एक खास खबर की' में जान कर पाठकवर्ग दाँतों तले अंगुली दबा लेता है। 'कैरियर की कीमत' में पाठकों को दृढ़ निश्चय पलता नज़र आया है। राजनीति के कारनामों को 'भिखमंगा कहीं का' उजागर करने में लघुकथा सफल हुई है। 'साँसों का कैदी' बेरोजगारी की समस्या का ज्वलन्त उदाहरण है। एक तरफ विदेश पढ़ने गए हैं बच्चों का वहीं बसने का समाचार इंतज़ार करती माँ को 'थरथराती बाती' सांत्वना दे पाती कि पाठकवर्ग महसूस कर द्रवित हुए बिना नहीं रह पाता। वहीं घर का मुखिया अपने 'घर की बात' छुपाने का फरमान बड़ी खूबसूरती से दे देता है ।
राजनौतिक क्षेत्र में अंततः 'प्रजातंत्र' अपना असली चेहरा दिखा ही देता है। राजतंत्र पर कटाक्ष करती 'अपना काम बनता' तथा 'सिटी अॅाफ जाॅय ' में गरीब रिक्शेवाले को रिक्शा चलाने पर प्रतिबंध की सूचना से विचलित होनेवाली मनस्थिति तथा अंतर्द्वंद को भलीभाँति दर्शाया गया है। 'वैल मेंटेंड' के अर्थ को सार्थक कर पेड़ पौधों से विहीन धरती सिर्फ चमकदार हाथों में लिये आॅक्सीजन को तरसती जान पड़ती है
'अंधेरों के वजूद ' ने एक बार फिर अंधे कानून की जय कर दी।कीचड़ में सना गुनाहों का देवता अपना प्रकाश फैलाता रहा।
आज हम देखें तो शिक्षा के क्षेत्र में साफगोई नहीं रही। 'डोनेशन' आज भी अमीरों की बैसाखी बनी हुई है।
लेखिका की लघुकथाओं के कथानक अपने शीर्षक को सार्थक करते हैं।क्या राजनीति़क क्षेत्र, पारिवारिक समस्या, समाज में नारी की स्थिती के भिन्न रूप आशा- निराशा से गुजरती हुई का वर्णन किया है। लघुकथा की प्रमुख कसौटी पल विशेष की पकड़ मजबूत है और लघु कलियाँ अपनी -अपनी विशेष सुगंध ,आकार-प्रकार,विविधता बिना काल दोष के महकती चहकती पाठकवर्ग को लुभा लेती हैं।
सारे कथानक हमारे रोजमर्रा के जीवन से प्रभावित हैं चाहे लक्ष्य का टूटता संकल्प हो या पथ के चुनाव का सवाल हो। भोपाल अपनी जानी मानी मकरंद व खुशबू समेटे कमल के समान लेखिका के जहन अभी भी मौजूद है हर कथानक अपने -रंगों व अपनी विशेष खुशबू हर पृष्ठ पर बिखेर रहा है। जिससे पाठकवर्ग अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। लघुकथाओं के सीमित पात्रों ने अपनी गरिमा को बनाए रखा। अपने मनोभावों को अनुकूल भाषा से प्रेक्षित किया। लेखिका ने अपनी लघुकथाओं में धरती, आकाश, पहाड़, देवदार के पेड़ों और चाँद सितारे तथा उनके मनोभावों 'मिलन' में बड़े ही सरल भाव से परिभाषित कर लघुकथाओं मे चार चाँद लगा दिए ।
प्रस्तुत लघुकथाओं की भाषा पात्रानुकूल है। इंग्लिश शब्दों का जैसे स्ट्रीट लाइट, काॅलम , न्यू इयर सैलिब्रेशन आदि। हिन्दी के सरल शब्दों का प्रयोग , युग्मक शब्द भी जैसे जीव -जंतु , पाई- पाई, छोटे - छोटे , संग-संग , लेन - देन आदि का प्रयोग बड़ी कुशलतापूर्वक किया है।कुछ लघुकथाएँ बड़ी पर सीमित वर्णनात्मक शैली में भी दीख पड़ती हैं। कुछ संवादात्मक शैली में अपना पूर्ण प्रभाव पाठकों पर डालती है ।
'कुम्हारी' कम संवाद और अधिक वर्णन वाली लघुकथा है। 'दीवार के कान' सबसे छोटी पर सबसे अधिक चुभने वाली संभावनाएँ जगाने वाली है। 'तलाश एक खास खबर की ' संवाद शैली में पाठकों पर अपना प्रभाव डालने में समर्थ है।
कुल मिलाकर 'पथ का चुनाव' अपनी लघुकथाओं की बसंत ऋतु में फूलों की चतुरंगी सुना पाठकों पर सुगंध फैलाने में कामयाब हो अपने पथ का चुनाव करने में आशातीत सफलता प्राप्त करती है । यह पुस्तक पढ़ने व सहेजने की पात्रता रखती है।ये अपनी आंतरिक व बाहरी साज-सज्जा से पाठकों का मन मोह लेती है।
भुपिंदर कौर
36प्रकाश नगर,बिजली कालोनी भोपाल (म.प्र)

मुक्तिका

दोहा
ईश्वर का वरदान है, एक मधुर मुस्कान.
वचन दृष्टि स्पर्श भी, फूँक सके नव प्राण..
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मुक्तिका
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हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
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दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
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जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
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मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
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दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
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