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गुरुवार, 4 अगस्त 2016

alha

विशेष लेख-

                                                        आल्हा रचें सुजान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                      *

                          छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
                          सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान।। 
                         सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान।
                           मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान।।
*
          संस्कृत वांग्मय से वीर काव्य परंपरा ग्रहण कर हिंदी में रचित वीर-काव्य में प्रयुक्त तथा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में गणनीय  आल्हा या वीर छंद को इतिहास में महती भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले और इस छंद ने जहाँ मातृभूमि के रक्षार्थ जूझ रहे नर-नाहरों में प्राणोत्सर्ग का भाव भरा, वही शत्रुओं के मन में मौत का भय पैदा किया। 

          बुंदेलखंड-बघेलखंड-रुहेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन काल में युद्धों के समय सेना में, शांति काल में  दरबारों में तथा दैनंदिन जीवन में गाँवों में अल्हैत होते थे जो अपने राज्य, सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश बढ़ता, जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी।

          इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। अतिरेकी अभिव्यंजनाएँ इस छंद का दोष न होकर मौलिक गुण हो जाता है।आल्हा छंद में अतिशयोक्ति अलंकार विशाल भण्डार है जिसकी बानगी पंक्ति-पंक्ति में देखि जा सकती है। आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं।

                                                     * 

छंद विधान:

                              विषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ठ।
                             गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ।। 
                               जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान।
                             आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन मिटता नेष्ठ।।

          आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। आल्हा दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर आल्हा छंद में १६-१५ पर यति होती है। 

          यह भी कह सकते हैं कि दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है। इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता है।वीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।

   संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट।
   गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट।। 


टीप - सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं।

वीर छंद या आल्हा में ही वीर छंद की परिभाषा

                             मात्रा सोलह पन्द्रह आल्हाअतिशयोक्ति आभूषण भाय|
                                 अंत सदा गुरु लघु से होवैवीर छंद ही नाम सुहाय||
                                 आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैयापहुँचे कूदि-कूदि  आकाश|
                                एक फूंक मा बैरी उड़िगेकै डारिनि  बैरिनि का नाश||

संरचना-
          चार चरण, प्रत्येक चरण में १६ + १५ मात्रा कुल ३१ मात्राएँ। विषम चरण में १६ मात्रा पर यति, सैम चरण में १५ मात्रा पर यति, चरणान्त में गुरु-लघु, विषम चरण की सोलहवी मात्रा गुरु तथा सम चरण की पंद्रहवी मात्र लघु। 
                आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
            गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य।।
                अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
                ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।। -सौरभ पाण्डेय


आल्हा खण्ड के महानायक आल्हा - ऊदल

          महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ।। ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय।।

*


टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार।।  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल।  ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल।।
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात।
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात।।
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान। ('एक' का उच्चारण 'इक')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार।।
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।।


चित्र परिचय: आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

                             
सलिल रचित आल्हा छंद के अन्य उदाहरण:

. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज।
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़।।
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज।
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज।।

२. छप्पन इंची सीना देखें, पाकी-आतंकी घबराँय।   
    मिया मुशर्रफ भूल हेकड़ी,सोते में भी लात चलाँय
    भौंक रहे हैं खुद शरीफ भी, भुला शराफत जात दिखाँय
    घोल न शर्बत में पी जाएँ, सोच-सोच चीनी डर जाँय 

३. लोकतंत्र के पीपल बैठे, नेता काटें निश-दिन डाल
   लोक हितों की अनदेखी कर,मचा रहे हैं रोज बवाल
   रुष्ट देश की जनता सोचे,जिसे चुनो वह खींचे खाल। 
   हाय राम रे! हमें बचाओ, जीना भी अब हुआ मुहाल 

४. कौन किसी का कभी हुआ है,मरघट में सब जाते छोड़
    साथ चलेंगे नहीं लगाता, कोई भी थोड़ी भी होड़
    सुख-समृद्धि में भागीदारी, कंगाली में रहते दूर। 
    रिश्ते-नाते भरमाते हैं, जो न समझता सच वह सूर 

५. जा न सड़क पर आम आदमी, अभिनेता आये ले कार। 
    रौंद सड़क पर तुझे जाएगा, गरियाए कह मूर्ख-गँवार
    न्यायालय निर्दोष कहेगा, उसे- तुझे ही देगा दोष-
    मदद न कोई कहीं मिलेगी, मरे भूख से रो परिवार

६. तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल।
    जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल।।
    कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल।
    आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल।।
                                                    
७. अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय।
    छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय।।
    नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय।
    पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय।।

८. फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय।
    बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय।।
    बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय।
    अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय।।

९. नव प्रयोग :
    भारतवारे बड़े लड़ैया
    बिनसें हारे पाक सियार 
    .
    घेर लओ बदरन नें सूरज
    मचो सब कऊँ हाहाकार
    ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
    कौनौ आ करियो उद्धार
    बही बयार बिखर गै बदरा
    धूप सुनैरी कहे पुकार
    सीमा पार छिपे बनमानुस
    कबऊ न पइयो हमसें पार
    .
    एक सिंग खों घेर भलई लें
    सौ वानर-सियार हुसियार
    गधा ओढ़ ले खाल सेर की
    देख सेर पोंके हर बार
    ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
    करो सेर नें पल मा वार
    पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
    जान बखस दो करें पुकार
   (भाषा रूप- बुंदेली)
     . 
१०. घर मा आग लगी बाग़त हैं, देस-बिदेस न देखें हाल
     कहूँ न पानी, कहूँ बाढ़ है, जनगण रोता हो बेहाल
     कौनउ लेत न जिम्मेदारी, एक-दूसरे पे दें टाल
   अफसर-नेता मौज उड़ाउत, सेठ तिजोरी भरते माल

११. हरिगंधा कुरुक्षेत्र की धरा, पुण्य कमाओ करो प्रणाम
    सुन गीता की वाणी मानो, कर्म-धर्म बिसरा परिणाम
    कलम थाम बैठे रामेश्वर, सत-शिव-सुंदर रच अभिराम
    सत-चित-आनंद दर्शन पाओ, मोह खास का तज हो आम

टिप्पणी-  पारंपरिक आल्हा छंद में  २-२ पंक्तियों में समान तुकांत होते हैं। उक्त में तुकांत संबंधी विविध प्रयोग किये गए हैं, इनसे छंद की लय, कथ्य आदि  विआप्रीत प्रभाव नहीं पड़ता। अत:, आल्हा मुक्तक, आल्हा गीत, आल्हा ग़ज़ल, आल्हा फाग, आल्हा बाल गीत जैसे प्रयोग छंद प्रासंगिकता और उपादेयता बढ़ाने के लिए स्वागतेय हैं। 
   
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संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 

दूर वार्ता-  ​94251 83244 / 0761 2411131
दूरलेख- 
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बुधवार, 3 अगस्त 2016

laghukatha

लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर।
***

लघुकथा

लघुकथा :
सोई आत्मा
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती।  एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में..... वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है। फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा। सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा। 

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

स्मृति गीत

भाई ओंकार श्रीवास्तव के प्रति
स्मरण गीत
*
वह निश्छल मुस्कान
कहाँ हम पायेंगे?
*
मन निर्मल होता तुममें ही देखा था
हानि-लाभ का किया न तुमने लेखा था
जो शुभ अच्छा दिखा उसी का वन्दन कर
संघर्षित का तिलक किया शुचि चन्दन कर
कब ओंकारित स्वर
हम फिर सुन पायेंगे?
*
श्री वास्तव में तुमने ही तो पाई है
ज्योति शक्ति की जन-मन में सुलगाई है
चित्र गुप्त प्रतिभा का देखा जिस तन में
मिले लक्ष्य ऐसी ही राह सुझाई है
शब्द-नाद जयकार
तुम्हारी गायेंगे
*
रेवा के सुत,रेवा-गोदी में सोए
नेह नर्मदा नहा, नए नाते बोए
मित्र संघ, अभियान, वर्तिका, गुंजन के
हित चिंतक! हम याद तुम्हारी में खोए
तुम सा बंधु-सुमित्र न खोजे पायेंगे 
***

samiksha


''काल है संक्रांति का'' एक काव्य-समीक्षा 
-राकेश खंडेलवाल
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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
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जिस संक्रान्ति काल की अब तक जलती हुई प्रतीक्षायें थीं
आज समय के वृहद भाल पर वह हस्ताक्षर बन कर उभरा

नवगीतों ने नवल ताल पर किया नई लय का अन्वेषण
एक छन्द में हुआ समाहित बरस-बरस का अन्तर्वेदन
सहज शब्द में गुँथा हुआ जो भाव गूढ़, परिलक्ष हो रहा
उपन्यास जो कह न सके हैं, वह रचना में व्यक्त हो रहा

शारद की वीणा के तारों की झंकृत होती सरगम से
सजा हुआ हर वाक्य, गीत में मुक्तामणियों जैसा सँवरा 

हर रस के भावों को विस्तृत करते हुये शतगुणितता में
शब्द और उत्तर दोनों ही चर्चित करते हर कविता में

एक शारदासुत के शब्दों का गर्जनस्वर और नियोजन
वाक्य-वाक्य में मंत्रोच्चारों सा परिवर्तन का आवाहन

जनमानस के मन में जितना बिखरा सा अस्पष्ट भाव था
बहते हुये सलिल-धारा में शतदल कमल बना, खिल निखरा

अलंकार के स्वर्णाभूषण, मधुर लक्षणा और व्यंजना
शब्दों की संतुलित प्रविष्टि कर, हाव-भाव से छंद गूँथना

सहज प्रवाहित काव्य सुधामय गीतों की अविरल रस धारा
जितनी बार पढो़, मन कहता एक बार फिर पढें दुबारा

इतिहासों पर रखी नींव पर नव-निर्माण नई सोचों का
नई कल्पना को यथार्थ का दिया कलेवर इसने गहरा.

***

सोमवार, 1 अगस्त 2016

लघुकथा

लघुकथा:
काल की गति 
'हे भगवन! इस कलिकाल में अनाचार-अत्याचार बहुत बढ़ गया है. अब तो अवतार लेकर पापों का अंत कर दो.' - भक्त ने भगवान से प्रार्थना की.
' नहीं कर सकता.' भगवान् की प्रतिमा में से आवाज आयी .
' क्यों प्रभु?'
'काल की गति.'
'मैं कुछ समझा नहीं.'
'समझो यह कि परिवार कल्याण के इस समय में केवल एक या दो बच्चों के होते राम अवतार लूँ तो लक्ष्मण, शत्रुघ्न और विभीषण कहाँ से मिलेंगे? कृष्ण अवतार लूँ तो अर्जुन, नकुल और सहदेव के अलावा कौरव ९८ कौरव भी नहीं होंगे. चित्रगुप्त का रूप रखूँ तो १२ पुत्रों में से मात्र २ ही मिलेंगे. तुम्हारा कानून एक से अधिक पत्नियाँ भी नहीं रखने देगा तो १२८०० पटरानियों को कहाँ ले जाऊंगा? बेचारी द्रौपदी के ५ पतियों की कानूनी स्थिति क्या होगी?
भक्त और भगवान् दोनों को चुप देखकर ठहाका लगा रही थी काल की गति.
*****

समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छन्दशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।

'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।

प्रथम संक्रांति- गीति

सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित कर गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं-

'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छन्द से संबंध दिखता या न दिखता
किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता'
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-

'मिटा दूरियाँ, गले लगाना
नवरचनाकारों को ठानें
कलश नहीं, आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम'

'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।

'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम 
तुमने जीवन सरस बनाया 
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे 
नेहिल नाता मन को भाया

द्वितीय संक्रांति-विधा

बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, नये छन्दों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छन्द हीं कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिख कर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक है और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तर्ज उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।


तृतीय संक्रांति- भाषा

एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप गयी गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू एवं अंग्रेजी के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।

प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज और 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं। इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है। 

चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान

कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुई सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-

'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'

पंचम संक्रांति- छन्द वैविध्य

नवगीत के अतिरिक्त कवि ने अपनी रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छन्दों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। अपनी एक रचना कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद, अन्य रचना में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समावेश आदि।

विषयवस्तु-

विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।

'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पँछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। कुछ कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोडो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गए हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।

विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदहारण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं। कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छन्द में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व् ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति कदाचित छपाई की भूल हो सकती है।

कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
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समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लोक निर्माण विभाग उत्तर प्रदेश,