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रविवार, 20 जुलाई 2025

जुलाई २०, नवगीत, दोहा मुक्तिका, नीरज, समीक्षा, माँ, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सॉनेट, मधुर

सलिल सृजन जुलाई २०
विश्व चाँद दिवस
*
पुस्तक चर्चा-
.संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवि ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
***
सॉनेट
मधुर
मधुर मधुर मुस्कान मनोहर
है गोपाल कृष्ण कण-कण में
छलिया छिपा हुआ तृण-तृण में
नटखट नटवर धरा धरोहर
पथिक न जिसने थकना जाना
तरुण अरुण सम श्याम सलौना
उस बिन जीवन लगे अलौना
दुनिया दिखी मुसाफ़िरखाना
रास-हास पर्याय कृपालु
धेनु धरा धुन धर्म रसालु
रेणु-वेणु सँग रमा दयालु
धारा राधा ने अँसुअन में
राधा को धारा चुप मन में
व्यथा छिपा खंजन नैनन में
२०-७-२०२२
•••
नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५
***
यादें न जाएँ: नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना: फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***
मुक्तक
माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
***
मुक्तिका:
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
२०-७-२०१८
***
कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )
*
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।
'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
२३-१०-२०१५
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गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
*
नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।
पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है।
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते।
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
'रीती गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है?
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश]
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
स्व. नीरज के प्रति
*
कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
*
नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
*
ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
***
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
दोहा दुनिया
*
कांत-कांति कांता मुदित, चाँद-चाँदनी देख
साथ हाथ में हाथ ले, कर सपनों का लेख
*
वातायन से देखकर, चाँद-चाँदनी सँग
दोनों मुखड़ों पर चढ़ा, प्रिय विछोह का रंग
*
गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह
गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
*
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश..
*
दोहा मुक्तिका
*
भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह
उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह
गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
*
सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह
अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
*
उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह
व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
*
२०-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
2122 2122 2122 212
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
***
नवगीत:
*
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
***
नवगीत
*
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
घोर वृष्टि
भू स्खलित
काँप उठे केदार
पशुपति का
भूकंप ने घर
ही दिया उजाड़
महाकाल
थर्रा रहे, देख
प्रलय सा दृश्य
रामेश्वर
पुल पर लगा
ढैया शनि अदृश्य
क्या करते
प्रभु? भक्त गण
रहे भाग्य को झींक
पूजन हित
आ पुजारी
गिरा रहे हैं पीक
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
अमरनाथ
पथ को रहे
आतंकी मिल घेर
बाधाएँ
कैलाश के
मग में आईं ढेर
हिमगिरि भी
विचलित हुआ
धीरज जाता टूट
मनुज नहीं
थमता तनिक
रहा प्रकृति को लूट
कर असगुन
पीढ़ी नयी
रही राह में छींक
घोटाले
हर दिन नये
उद्घाटित हों चीख
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
***
नवगीत
ज़िंदगी का
एक ही है कायदा
*
बाहुबली की जय-जयकार
जिसको चाहे दे फटकार
बरसा दे कोड़ों की मार
निर्दय करता अत्याचार
बढ़कर शेखी रहा बघार
कोई नहीं बचावनहार
तीसमार खां बन बटमार
सजा रहा अपना दरबार
कानूनों की हर पल हार
वही प्यारा
जो कराता फायदा
*
सद्गुण का सूना दरबार
रूप-रंग पर जान निसार
मोहे सिक्कों की खनकार
रूपया अभिनन्दित फिर यार
कसमें खाता रोज लबार
अदा न करता लिया उधार
लेता कभी न एक डकार
आप लाख कर दें उपकार
पल में दे उपकार बिसार
भुला देता
किया जो भी वायदा
२०-७-२०१५
***
दोहा
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश
२०-७-२०११
***

शनिवार, 19 जुलाई 2025

जुलाई १९, आर्द्रा, त्रिभंगी, अंगिका, बुन्देली, दोहा, मुक्तिका, हास्य, विसर्ग, उल्लाला गीत, चन्द्रमणि, लघुकथा

सलिल सृजन जुलाई १९
काराओके दिवस
*
मुक्तिका:
क्या कहूँ...
*
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाता.
बिन कहे भी रहा नहीं जाता..
काट गर्दन कभी सियासत की
मौन हो अब दहा नहीं जाता..
ऐ ख़ुदा! अश्क ये पत्थर कर दे,
ऐसे बेबस बहा नहीं जाता.
सब्र की चादरें जला दो सब.
ज़ुल्म को अब तहा नहीं जाता..
हाय! मुँह में जुबान रखता हूँ.
सत्य फिर भी कहा नहीं जाता..
देख नापाक हरकतें जड़ हूँ.
कैसे कह दूं ढहा नहीं जाता??
सर न हद से अधिक उठाना तुम
मुझसे हद में रहा नहीं जाता..
१९.७.२०२३
***
लघुकथा
साथ
*
दो विरागी, गुरु और एक शिष्य कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक सुन्दर तरुणी मिली, पैर में चोट के कारण वह चल नहीं पा रही थी। उसके अनुरोध पर गुरु जी ने उसे सहारा देकर, चिकित्सक के पास तक पहुँचा दिया।
शिष्य पीछे पीछे चलता रहा पर उसके मन में प्रश्न उठा कल तो गुरु जी उपदेश दे रहे थे कि कामिनी और कंचन से दूर रहना चाहिए, इनका सामीप्य वैराग्य पथ में बाधक है और आज अवसर मिलते ही गुरु जी ने खुद अपनी बात भुला दी। एक बार मना तक नहीं किया, न ही मुझसे कहा जबकि मैं अधिक शक्तिवान हूँ।
शिष्य बार-बार प्रश्न पूछ्ना चाहता था पर गुरु जी कहीं नाराज न हो जाएँ, सोचकर साहस न जुटा पाता। गुरु जी ने उसके चेहरे पर प्रसन्नता के स्थान पर उलझना के चिन्ह देखकर पूछा कि किस उलझन में पड़े हो? क्या जानना है?
अब शिष्य ने अपनी शंका सामने रखी। गुरु जी पहले तो ठहाका लगाकर हँसे फिर बोले 'मुझे तो घायल इंसान दिखा और उसे सहारा देने के बाद भी सही स्थान पर पहुँचाकर, उसके संपर्क से मुक्त हो गया पर तू तो बिना उसे स्पर्श किये अब तक उसी के साथ है।
इसीलिये तो कामिनी कंचन के संपर्क दे दूर रहने को कहा था पर तू कहाँ दूर रह पाया? अब भी है उसी के साथ।
१९-७-२०२०
***
छंद सलिला:
उल्लाला (चन्द्रमणि)
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के 4 चरणों के पश्चात् उल्लाला के 2 दल (पद या पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के 2 रूप कहा गया है। उल्लाला 13-13 मात्राओं के 2 सम चरणों का छंद है। भानु जी ने इसका अन्य नाम 'चन्द्रमणि' बताया है। उल्लाल 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे। भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में 13 कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर (11 वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है। दोहा के 4 विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह 13-13 मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन 8+3+2 है अंत में 1 गुरु या 2 लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
1. 2 पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण
2. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
3. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
4. चरणान्त में एक गुरु मात्रा या दो लघु मात्राएँ हों।
5. सम चरणों (2, 4) के अंत में समान तुक हो।
6. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरूप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में एक सी मात्राएँ देखी गयी हैं।
उदाहरण :
1.नारायण दास वैष्णव (तुक समानता: सम पद)
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
2. घनानंद (तुक समानता: सम पद)
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
3. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार' छंद क्षीरधि (तुक समानता: सम पद)
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
प्रथम चरण 14 मात्राएँ,
4.जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' छंद प्रभाकर (तुक समानता: प्रथम पद के दोनों
चरण, दूसरे पद के दोनों चरण)
काव्य कहा बिन रुचिर मति, मति सो कहा बिनही बिरति।
बिरतिउ लाल गुपाल भल, चरणनि होय जू रति अचल।।
5. रामदेव लाल विभोर, छंद विधान (तुक समानता: चारों चरण, गुरु मात्रा)
सुमति नहीं मन में रहे, कुमति सदा घर में रहे।
ऊधो-ऊधो सुगना कहे, विडंबना ममता सहे।।
6. अज्ञात कवि (प्रभात शास्त्री कृत काव्यांग कल्पद्रुम)
झगड़े झाँसे उड़ गए, अन्धकार का युग गया।
उदित भानु अब हो गए, मार्ग सभी को दिख गया।।
7. डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर (नासिर छन्दावली)
बुरा धर्म का हाल है, सत्य हुआ पामाल है।
सुख का पड़ा अकाल है, जीवन क्या जंजाल है।।
8. संजीव 'सलिल'
दस दिश खिली बहार है, अद्भुत रूप निखार है।
हर सुर-नर बलिहार है, प्रकृति किये सिंगार है।।
9.संजीव 'सलिल'
हिंदी की महिमा अमित, छंद-कोष है अपरिमित।
हाय! देश में उपेक्षित, राजनीति से पद-दलित।।
10. संजीव 'सलिल'
मौनी बाबा बोलिए, तनिक जुबां तो खोलिए।
शीश सिपाही का कटा, गुमसुम हो मत डोलिए।।
11. संजीव 'सलिल'
'सलिल' साधना छंद की, तनिक नहीं आसान है।
सत-शिव-सुन्दर दृष्टि ही, साधक की पहचान है।।
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
१९.७.२०२०
***
लघुकथा
धर्म संकट
*
वे महाविद्यालय में प्रवेश कराकर बेटे को अपनी सखी विभागाध्यक्ष से मिलवाने ले गयीं। जब भी सहायता चाहिए हो, निस्संकोच आ जाना सखी ने कहा तो उन्होंने खुद को आश्वस्त पाया।
वह कठिनाई हल करने, पुस्तकालय से अतिरिक्त पुस्तक लेने, परीक्षा के पूर्व महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने विभागाध्यक्ष के पास जाता रहा। पहले तो उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली किन्तु क्रमश:उसकी प्रशंसा करते हुए सहायता करने लगीं। उसे कहा कि महाविद्यालय में 'आंटी' नहीं 'मैडम' कहना उपयुक्त है।
प्रयोगशाला में वे अधिक समय तक रूककर प्रयोग करातीं, अपने शोधपत्रों के साथ उसका नाम जोड़कर छपवाया। वह आभारी होता रहा।
उसे पता ही नहीं चला कब गलियारों में उनके सम्बन्धों को अंतरंग कहती कानाफूसियाँ फ़ैलने लगीं।
एक शाम जब वह प्रयोग कर रहा था, वे आकर हाथ बँटाने लगीं। हाथ स्पर्श होने पर उसने संकोच और भय से खुद में सिमट, खेद व्यक्त किया पर उन्होंने पूर्ववतकार्य जारी रखा मानो कुछ हुआ ही न हो। अचानक वे लड़खड़ाती लगीं तो उसने लपक कर सम्हाला, अपने कंधे पर से उनका सर और उनकी कमर में से अपने हाथ हटाने के पूर्व ही उसकी श्वासों में घुलने लगी परफ्यूम और देह की गंध। पलक झपकते दूरियाँ दूर हो गयीं।
कुछ दिन वे एक दूसरे से बचते रहे किन्तु धीरे-धीरे वातावरण सहज होने लगा। आज कक्षा के सब विद्यार्थी विभागाध्यक्ष को शुभकामनायें देकर चरण-स्पर्श कर रहे हैं। वह क्या करे? धर्मसंकट में पड़ा है चरण छुए तो कैसे?, न छुए तो साथी क्या कहेंगे? यही धर्म संकट उनके मन में भी है। दोनों की आँखें मिलीं, कठिन परिस्थिति से उबार लिया चलभाष ने, 'गुरु जी! प्रणाम। आप कार्यालय में विराजें, मैं तुरंत आती हूँ' कहते हुए, शेष विद्यार्थियों को रोककर वे चल पड़ीं कार्यालय की ओर। इस क्षण तो गुरु ने उबार लिया, टल गया था धर्म संकट।
१९.७.२०१६
***
हास्य सलिला:
याद
संजीव 'सलिल'
*
कालू से लालू कहें, 'दोस्त! हुआ हैरान.
घरवाली धमका रही, रोज खा रही जान.
पीना-खाना छोड़ दो, वरना दूँगी छोड़.
जाऊंगी मैं मायके, रिश्ता तुमसे तोड़'
कालू बोला: 'यार! हो, किस्मतवाले खूब.
पिया करोगे याद में, भाभी जी की डूब..
बहुत भली हैं जा रहीं, कर तुमको आजाद.
मेरी भी जाए कभी प्रभु से है फरियाद..
१९.७.२०१४
***
हास्य रचना
बतलायेगा कौन?
*
मैं जाता था ट्रेन में, लड़ा मुसाफिर एक.
पिटकर मैंने तुरत दी, धमकी रखा विवेक।।
मुझको मारा भाई को, नहीं लगाना हाथ।
पल में रख दे फोड़कर, हाथ पैर सर माथ ।।
भाई पिटा तो दोस्त का, उच्चारा था नाम।
दोस्त और फिर पुत्र को, मारा उसने थाम।।
रहा न कोई तो किया, उसने एक सवाल।
आप पिटे तो मौन रह, टाला क्यों न बवाल?
क्यों पिटवाया सभी को, क्या पाया श्रीमान?
मैं बोला यह राज है, किन्तु लीजिये जान।।
अब घर जाकर सभी को रखना होगा मौन.
पीटा मुझको किसी ने, बतलायेगा कौन??
+++
छंद सलिला
आर्द्रा छंद
*
द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
***
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
संजीव
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
***
दोहा गाथा ४-
शब्द ब्रह्म उच्चार
*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति
सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर, निर्मल दीजिए मति
संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-
१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।
२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।
यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।
३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.
४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.
५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।
यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा
यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।
६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।
यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.
७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।
८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।
यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.
९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।
यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .
१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।
यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.
११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।
यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्द बनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।
दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌
शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌ ‌
गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद
गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌
जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌
कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद ‌ ‌
भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।
कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।
छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।
छंद के अंग
छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।
वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।
मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।
इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.
पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।
गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।
यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।
तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।
गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४
उदित उदय गिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग । ‌ - प्रथम पद
प्रथम विषम चरण यति द्वितीय सम चरण यति
विकसे संत सरोज सब , हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ । - द्वितीय पद
तृतीय विषम चरण यति चतुर्थ सम चरण यति
९.५.२०१३
***
गीत:
चाहता हूँ ...
*
काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो
हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय
***
बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
*
मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल
रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल
यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल
आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल
मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
===
टीप: अंगिका से अधिक परिचय न होने पर भी प्रयास किया है. जानकार बंधु त्रुटि इंगित करें तो सुधार सकूँगा.

शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

जुलाई १८, लघुकथा, इतिहास, राखी, शब्द, लहर, रसभरी, बाल, सॉनेट, दोहा

सलिल सृजन जुलाई १८
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में प्रकाशित संग्रह योग्य पुस्तकें ९४२५१८३२४४ पर पर मूल्य भेजकर प्राप्त करें।
०१. हिंदी सोनेट सलिला- ३२१ शेक्सपीयरी शैली के हिंदी सॉनेट का संकलन। मूल्य ५००/- ।
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०५. दोहा दिव्य दिनेश- २२ भाषा-बोलियों के दोहे, १५ रचनाकारों के दोहा शतक । मूल्य ३००/- ।
०६. मीत मेरे कविताएँ- संजीव 'सलिल' मूल्य १५०/- ।
०७. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य- दुर्गा प्रसाद खरे-संजीव 'सलिल' मूल्य ३००/- ।
०८. २१ श्रेष्ठ आदिवासी लोक कथाएँ मध्य प्रदेश- संजीव 'सलिल' मूल्य १५०/- ।
०९. २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश- संजीव 'सलिल' मूल्य १५०/- ।
१०. ओ मेरी तुम- शृंगार गीत संग्रह- संजीव 'सलिल' मूल्य ३००/- ।
११. काल है संक्रांति का- नवगीत संग्रह- संजीव 'सलिल' मूल्य ३००/- ।
१२. सड़क पर- नवगीत संग्रह- संजीव 'सलिल' मूल्य २५०/- ।
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रसभरी
केप गुसबेरी (वानस्पतिक नाम : Physalis peruviana ; physalis = bladder) एक छोटा सा पौधा है। इसके फलों के ऊपर एक पतला सा आवरण होता है। कहीं-कहीं इसे 'मकोय' भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे 'चिरपोटी'व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पटपोटनी भी कहते हैं। इसके फलों को खाया जाता है। रसभरी औषधीय गुणो से परिपूर्ण है। केप गुसबेरी का पौधा किसानो के लिये सिरदर्द माना जाता है। जब यह खर पतवार की तरह उगता है तो फसलों के लिये मुश्किल पैदा कर देता है।
औषधीय गुण
केप गुसबेरी का फल और पंचांग (फल, फूल, पत्ती, तना, मूल) उदर रोगों (और मुख्यतः यकृत) के लिए लाभकारी है। इसकी पत्तियों का काढ़ा पीने से पाचन अच्छा होता है साथ ही भूख भी बढ़ती है। यह लीवर को उत्तेजित कर पित्त निकालता है। इसकी पत्तियों का काढ़ा शरीर के भीतर की सूजन को दूर करता है। सूजन के ऊपर इसका पेस्ट लगाने से सूजन दूर होती है। रसभरी की पत्तियों में कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा, विटामिन-ए, विटामिन-सी पाये जाते हैं। इसके अलावा कैटोरिन नामक तत्त्व भी पाया जाता है जो ऐण्टी-आक्सीडैंट का काम करता है। बाबासीर में इसकी पत्तियों का काढ़ा पीने से लाभ होता है। संधिवात में पत्तियों का लेप तथा पत्तियों के रस का काढ़ा पीने से लाभ होता है। खांसी, हिचकी, श्वांस रोग में इसके फल का चूर्ण लाभकारी है। बाजार में अर्क-रसभरी मिलता है जो पेट के लिए उपयोगी है। सफेद दाग में पत्तियों का लेप लाभकारी है। अनुभूूत है यह डायबेटीज मे कारगर है। लीवर की सूजन कम करने में अत्यंत उपयोगी।
***
समीक्षा ......
मीत मेरे : केवल कविताएँ नहीं
समीक्षक: चंद्रकांता अग्निहोत्री, पंचकूला
[कृति विवरण: मीत मेरे, कविताएँ, संजीव 'सलिल', आवरण पेपर बैक जैकेट सहित बहुरंगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष:७९९९५५९६१८]
*
‘कलम के देव’ ,’लोकतंत्र का मकबरा’ ,’कुरुक्षेत्र गाथा’ ,’यदा कदा’ ‘काल है संक्रांति का’ ‘मीत मेरे’ अन्य कई कृतियों के रचियता व दिव्य –नर्मदा नामक सांस्कृतिक पत्रिका के सम्पादक आचार्य संजीव वर्मा जी का परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाना है |
काव्य कृति ‘मीत मेरे’ में कवि की छंद मुक्त रचनाएं संग्रहीत हैं |छंद मुक्त कविता की गरिमा इसी में है कि कविता में छंद बद्धता के लिए बार –बार शब्दों का उनकी सहमति के बिना प्रयोग नहीं किया जा सकता|ऐसे ही प्रस्तुत संग्रह में लगभग सभी कविताओं में प्राण हैं ,गति है ,शक्ति है और आवाह्न है |
उनकी पूरी कृति में निम्न पंक्तियाँ गुंजायमान होती हैं
मीत मेरे
नहीं लिखता
मैं ,कभी कुछ
लिखाता है
कोई मुझसे
*
बन खिलौना
हाथ उसके
उठाता हूँ कलम |
उनकी कविताओं में चिर विश्वास है |गहन चिंतन की पराकाष्ठा है जब वे अपनी बात में लिखते हैं ------
तुम
उसी के अंश हो
अवतंश हो |
सलिल जी का स्वीकार भाव प्रणम्य है |वे कहते हैं ------
रात कितनी ही बड़ी हो
आयेंगे
फिर –फिर सवेरे |
अपने देश की माटी के सम्बन्ध में कहते हैं
सुख –दुःख ,
धूप -छाँव
हंस सहती
पीड़ा मन की
कभी न कहती
...................
भारत की माटी |
सलिल जी की हर कविता प्रेरक है |फिर भी कुछ कवितायें हैं जो विशेष रूप से उद्धहरणीय हैं |..........
जैसे :- सत्यासत्य ,नींव का पत्थर ,प्रतीक्षा ,लत, दीप दशहरा व दिया आदि |
हर पल को जीने की प्रेरणा देती कविता ......जियो
जो बीता ,सो
बीता चलो
अब खुश होकर
जी भर कर जिओ |
समर्पित भाव से आपूरित ------तुम और हमदम
तुम .....विहंस खुद सहकर
जिसके बिना मैं नहीं पूरा
सदा अधूरा हूँ
मेरे साथी मेरे मितवा
वही तुम हो ,वही तुम |
हमदम ......मैं तुम रहें न दो
हो जाएँ हमदम |
आत्म स्वीकृति से ओत प्रोत कविता |
रोको मत बहने दो में .........
मन को मन से
मन की कहने दो
‘सलिल’ को
रोको मत बहने दो |.....बहुत मन भावन कविता है|वास्तव में इस कविता में सियासत के प्रति आक्रोश है व आम आदमी के लिए स्वतंत्रता की कामना |
सपनों की दुकान ......निराशा को बाहर फैंकते हैं सपने|
गीत ,मानव मन ,क्यों ,बहने दे व मृण्मय मानव आदि मनमोहक कवितायेँ हैं |सलिल जी अपनी कविताओं में व्यक्ति स्वतंत्रता की घोषणा करते प्रतीत होते हैं |
रेल कविता .......जीवन संघर्षों का प्रतिबिम्ब |
मुसाफिर .......क्षितिज का नीलाभ नभ
देता परों को नित निमन्त्रण
और चल पड़ता
अनजाने पथ पर फिर
मैं मुसाफिर
जीवन मान्यताओं ,धारणाओं व संघर्षों के बीच गतिमान है
‘ताश’,व संदूक में कवि का आक्रोश परिलक्षित होता है जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं |
व्यंग्य प्रधान रचना ....इक्कीसवीं सदी |
सभी कवितायें यथार्थ के धरातल पर आदर्शोन्मुख हैं ,व्यक्ति को उर्ध्वगमन का सन्देश देती हैं |सलिल जी आप अपनी कविताओं में अभावों को जीते ,उन्हें महसूस करते हुए शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयत्न शील हैं |
अंत में यही कहूँगी कि छंदमुक्त होते हुए भी हर कविता में लय है, गीत है व लालित्य है |निखरी हुई कलम से उपजी कविता सान्त्वना भी देती है ,झंझोड़ती, है दुलारती हैं ,उकसाती है व समझाती भी है |जीवन की सीढ़ी चढ़ने की प्रेरणा भी देती है | पंख फैला कर उड़ने के लिए प्रोत्साहित भी करती है |निर्भीक होकर सत्य को कहना सलिल जी की कविताओं की विशिष्टता भी है और गौरव भी |
सच कहूँ तो कविताएँ केवल कविताएँ नहीं बल्कि एक गौरव –गाथा है |
सॉनेट
जय-पराजय
जय-पराजय में अचल रह
आप अपनी राह चल रे
आँख में बन स्वप्न पल रे!
कोशिशों की बाँह हँस गह
पीर को मत कह पराई
आज लगती दूर यदि वह
कल लिपट जाए विहँस सह
दूर तुझसे है न भाई!
वेदना को प्यार कर ले
श्वास का शृंगार कर ले
निज गले का हार कर ले
सत्य-शिव-सुंदर सदा वर
हलाहल हँस कंठ में धर
अमिय औरों हित लुटाकर
१८-७-२०२२
•••
बाल कविता
जाह्नवी
*
बाल अरुण की सखी जाह्नवी
भू पर उतरी परी जाह्नवी
नेह नर्मदा निर्मल-चंचल
लोक कहे सुरसरी जाह्नवी
स्वप्न सलौने अनगिन देखे
बिन सोए, जग रही जाह्नवी
रूठे-मचले धरे शीश पर
नभ ही बात न सुने जाह्नवी
शारद-रमा-उमा की छवि ले
भव तारे खुद तरे जाह्नवी
है सब दुनिया खोटी लेकिन
सौ प्रतिशत है खरी जाह्नवी
मान सको तो बिटिया है यह
लाड़ करे ज्यों जननी जाह्नवी
जान बसी है इसमें सबकी
जान सभी को रही जाह्नवी
११-६-२०१९
***
स्वास्थ्यवर्धक रसभरी
केप गुसबेरी (वानस्पतिक नाम : Physalis peruviana ; physalis = bladder) एक छोटा सा पौधा है। इसके फलों के ऊपर एक पतला सा आवरण होता है। कहीं-कहीं इसे 'मकोय' भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे 'चिरपोटी'व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पटपोटनी भी कहते हैं। इसके फलों को खाया जाता है। रसभरी औषधीय गुणो से परिपूर्ण है। केप गुसबेरी का पौधा किसानो के लिये सिरदर्द माना जाता है। जब यह खर पतवार की तरह उगता है तो फसलों के लिये मुश्किल पैदा कर देता है।
औषधीय गुण
केप गुसबेरी का फल और पंचांग (फल, फूल, पत्ती, तना, मूल) उदर रोगों (और मुख्यतः यकृत) के लिए लाभकारी है। इसकी पत्तियों का काढ़ा पीने से पाचन अच्छा होता है साथ ही भूख भी बढ़ती है। यह लीवर को उत्तेजित कर पित्त निकालता है। इसकी पत्तियों का काढ़ा शरीर के भीतर की सूजन को दूर करता है। सूजन के ऊपर इसका पेस्ट लगाने से सूजन दूर होती है। रसभरी की पत्तियों में कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा, विटामिन-ए, विटामिन-सी पाये जाते हैं। इसके अलावा कैटोरिन नामक तत्त्व भी पाया जाता है जो ऐण्टी-आक्सीडैंट का काम करता है। बाबासीर में इसकी पत्तियों का काढ़ा पीने से लाभ होता है। संधिवात में पत्तियों का लेप तथा पत्तियों के रस का काढ़ा पीने से लाभ होता है। खांसी, हिचकी, श्वांस रोग में इसके फल का चूर्ण लाभकारी है। बाजार में अर्क-रसभरी मिलता है जो पेट के लिए उपयोगी है। सफेद दाग में पत्तियों का लेप लाभकारी है। अनुभूूत है यह डायबेटीज मे कारगर है। लीवर की सूजन कम करने में अत्यंत उपयोगी।
***
समीक्षा ......
मीत मेरे : केवल कविताएँ नहीं
समीक्षक: चंद्रकांता अग्निहोत्री, पंचकूला
[कृति विवरण: मीत मेरे, कविताएँ, संजीव 'सलिल', आवरण पेपर बैक जैकेट सहित बहुरंगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष:७९९९५५९६१८]
*
‘कलम के देव’ ,’लोकतंत्र का मकबरा’ ,’कुरुक्षेत्र गाथा’ ,’यदा कदा’ ‘काल है संक्रांति का’ ‘मीत मेरे’ अन्य कई कृतियों के रचियता व दिव्य –नर्मदा नामक सांस्कृतिक पत्रिका के सम्पादक आचार्य संजीव वर्मा जी का परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाना है |
काव्य कृति ‘मीत मेरे’ में कवि की छंद मुक्त रचनाएं संग्रहीत हैं |छंद मुक्त कविता की गरिमा इसी में है कि कविता में छंद बद्धता के लिए बार –बार शब्दों का उनकी सहमति के बिना प्रयोग नहीं किया जा सकता|ऐसे ही प्रस्तुत संग्रह में लगभग सभी कविताओं में प्राण हैं ,गति है ,शक्ति है और आवाह्न है |
उनकी पूरी कृति में निम्न पंक्तियाँ गुंजायमान होती हैं
मीत मेरे
नहीं लिखता
मैं ,कभी कुछ
लिखाता है
कोई मुझसे
*
बन खिलौना
हाथ उसके
उठाता हूँ कलम |
उनकी कविताओं में चिर विश्वास है |गहन चिंतन की पराकाष्ठा है जब वे अपनी बात में लिखते हैं ------
तुम
उसी के अंश हो
अवतंश हो |
सलिल जी का स्वीकार भाव प्रणम्य है |वे कहते हैं ------
रात कितनी ही बड़ी हो
आयेंगे
फिर –फिर सवेरे |
अपने देश की माटी के सम्बन्ध में कहते हैं
सुख –दुःख ,
धूप -छाँव
हंस सहती
पीड़ा मन की
कभी न कहती
...................
भारत की माटी |
सलिल जी की हर कविता प्रेरक है |फिर भी कुछ कवितायें हैं जो विशेष रूप से उद्धहरणीय हैं |..........
जैसे :- सत्यासत्य ,नींव का पत्थर ,प्रतीक्षा ,लत, दीप दशहरा व दिया आदि |
हर पल को जीने की प्रेरणा देती कविता ......जियो
जो बीता ,सो
बीता चलो
अब खुश होकर
जी भर कर जिओ |
समर्पित भाव से आपूरित ------तुम और हमदम
तुम .....विहंस खुद सहकर
जिसके बिना मैं नहीं पूरा
सदा अधूरा हूँ
मेरे साथी मेरे मितवा
वही तुम हो ,वही तुम |
हमदम ......मैं तुम रहें न दो
हो जाएँ हमदम |
आत्म स्वीकृति से ओत प्रोत कविता |
रोको मत बहने दो में .........
मन को मन से
मन की कहने दो
‘सलिल’ को
रोको मत बहने दो |.....बहुत मन भावन कविता है|वास्तव में इस कविता में सियासत के प्रति आक्रोश है व आम आदमी के लिए स्वतंत्रता की कामना |
सपनों की दुकान ......निराशा को बाहर फैंकते हैं सपने|
गीत ,मानव मन ,क्यों ,बहने दे व मृण्मय मानव आदि मनमोहक कवितायेँ हैं |सलिल जी अपनी कविताओं में व्यक्ति स्वतंत्रता की घोषणा करते प्रतीत होते हैं |
रेल कविता .......जीवन संघर्षों का प्रतिबिम्ब |
मुसाफिर .......क्षितिज का नीलाभ नभ
देता परों को नित निमन्त्रण
और चल पड़ता
अनजाने पथ पर फिर
मैं मुसाफिर
जीवन मान्यताओं ,धारणाओं व संघर्षों के बीच गतिमान है
‘ताश’,व संदूक में कवि का आक्रोश परिलक्षित होता है जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं |
व्यंग्य प्रधान रचना ....इक्कीसवीं सदी |
सभी कवितायें यथार्थ के धरातल पर आदर्शोन्मुख हैं ,व्यक्ति को उर्ध्वगमन का सन्देश देती हैं |सलिल जी आप अपनी कविताओं में अभावों को जीते ,उन्हें महसूस करते हुए शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयत्न शील हैं |
अंत में यही कहूँगी कि छंदमुक्त होते हुए भी हर कविता में लय है, गीत है व लालित्य है |निखरी हुई कलम से उपजी कविता सान्त्वना भी देती है ,झंझोड़ती, है दुलारती हैं ,उकसाती है व समझाती भी है |जीवन की सीढ़ी चढ़ने की प्रेरणा भी देती है | पंख फैला कर उड़ने के लिए प्रोत्साहित भी करती है |निर्भीक होकर सत्य को कहना सलिल जी की कविताओं की विशिष्टता भी है और गौरव भी |
सच कहूँ तो कविताएँ केवल कविताएँ नहीं बल्कि एक गौरव –गाथा है |
चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री |
***
लहर (उर्मि, तरंग, वेव) पर दोहे
*
नेह नर्मदा घाट पर, पटकें शीश तरंग.
लहर-लहर लहरा रहीं, सिकता-कण के संग.
*
सलिल-धार में कूदतीं, भोर उर्मियाँ झाँक.
टहल रेत में बैठकर, चित्र अनूठे आँक.
*
ओज-जोश-उत्साह भर, कूदें छप्प-छपाक.
वेव लेंग्थ को ताक पर, धरें वेव ही ताक.
*
मन में उठी उमंग या, उमड़ा भाटा-ज्वार.
हाथ थाम संजीव का, कूद पडीं मँझधार.
*
लहँगा लहराती रहीं, लहरें करें किलोल.
संयम टूटा घाट का, गया बाट-दिल डोल.
*
घहर-घहर कर बह चली, हहर-हहर जलधार.
जो बौरा डूबन डरा, कैसे उतरे पार.
*
नागिन सम फण पटकती, फेंके मुख से झाग.
बारिश में उफना लहर, बुझे न दिल की आग.
*
निर्मल थी पंकिल हुई, जल-तरंग किस व्याज.
मर्यादा-तट तोड़कर, करती काज अकाज.
*
कर्म-लहर पर बैठकर, कर भवसागर पार.
सीमा नहीं असीम की, ले विश्वास उबार.
***
१८,७,२०१८
***
'शब्द' पर दोहे
*
अक्षर मिलकर शब्द हों, शब्द-शब्द में अर्थ।
शब्द मिलें तो वाक्य हों, पढ़ समझें निहितार्थ।।
*
करें शब्द से मित्रता, तभी रच सकें काव्य।
शब्द असर कर कर सकें, असंभाव्य संभाव्य।।
*
भाषा-संस्कृति शब्द से, बनती अधिक समृद्ध।
सम्यक् शब्द-प्रयोग कर, मनुज बने मतिवृद्ध।।
*
सीमित शब्दों में भरें, आप असीमित भाव।
चोटिल करते शब्द ही, शब्द मिटाते घाव।।आद्या
*
दें शब्दों का तोहफा, दूरी कर दें दूर।
मिले शब्द-उपहार लें, बनकर मित्र हुजूर।।
*
निराकार हैं शब्द पर, व्यक्त करें आकार।
खुद ईश्वर भी शब्द में, हो जाता साकार।।
*
जो जड़ वे जानें नहीं, क्या होता है शब्द।
जीव-जंतु ध्वनि से करें, भाव व्यक्त बेशब्द।।
*
बेहतर नागर सभ्यता, शब्द-शक्ति के साथ।
सुर नर वानर असुर के, शब्द बन गए हाथ।।
*
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ें, मिट-घट सकें न शब्द।
कहें, लिखें, पढ़िए सतत, कभी न रहें निशब्द।।
*
शब्द भाव-भंडार हैं, सरस शब्द रस-धार।
शब्द नए नित सीखिए, सबसे सब साभार।।
*
शब्द विरासत; प्रथा भी, परंपरा लें जान।
रीति-नीति; व्यवहार है, करें शब्द का मान।।
*
शब्द न अपना-गैर हो, बोलें बिन संकोच।
लें-दें कर लगता नहीं, घूस न यह उत्कोच।।
*
शब्द सभ्यता-दूत हैं, शब्द संस्कृति पूत।
शब्द-शक्ति सामर्थ्य है, मानें सत्य अकूत।।
*
शब्द न देशी-विदेशी, शब्द न अपने-गैर।
व्यक्त करें अनुभूति हर, भाव-रसों के पैर।।
*
शब्द-शब्द में प्राण है, मत मानें निर्जीव।
सही प्रयोग करें सभी, शब्द बने संजीव।।
*
शब्द-सिद्धि कर सृजन के, पथ पर चलें सुजान।
शब्द-वृद्धि कर ही बने, रचनाकार महान।।
*
शब्द न नाहक बोलिए, हो जाएंगे शोर।
मत अनचाहे शब्द कह, काटें स्नेहिल डोर।।
*
समझ शऊर तमीज सच, सिखा बनाते बुद्ध।
युद्ध कराते-रोकते, करते शब्द प्रबुद्ध।।
*
शब्द जुबां को जुबां दें, दिल को दिल से जोड़।
व्यर्थ होड़ मत कीजिए, शब्द न दें दिल तोड़।।
*
बातचीत संवाद गप, गोष्ठी वार्ता शब्द।
बतरस गपशप चुगलियाँ, होती नहीं निशब्द।।
*
दोधारी तलवार सम, करें शब्द भी वार।
सिलें-तुरप; करते रफू, शब्द न रखें उधार।।
*
शब्दों से व्यापार है, शब्दों से बाजार।
भाव-रस रहित मत करें, व्यर्थ शब्द-व्यापार।।
*
शब्द आरती भजन जस, प्रेयर हम्द अजान।
लोरी गारी बंदिशें, हुक्म कभी फरमान।।
*
विनय प्रार्थना वंदना, झिड़क डाँट-फटकार।
ऑर्डर विधि आदेश हैं, शब्द दंड की मार।।
*
शब्द-साधना दूत बन, करें शब्द से प्यार।
शब्द जिव्हा-शोभा बढ़ा, हो जाए गलहार।।
18.7.2018
***
दोहा सलिला:
अंगरेजी में खाँसते...
*
अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
*
टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
*
जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
*
नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
*
जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में श्रेष्ठ वह, कहना सचमुच सैड..
*
चचा फूफा मौसिया, खो बैठे पहचान.
अंकल बनकर गैर हैं, गुमी स्नेह की खान..
*
गुरु शिक्षक थे पूज्य पर, टीचर हैं लाचार.
शिष्य फटीचर कह रहे, कैसे हो उद्धार?.
*
शिशु किशोर होते युवा, गति-मति कर संयुक्त.
किड होता एडल्ट हो, एडल्ट्री से युक्त..
*
कॉपी पर कॉपी करें, शब्द एक दो अर्थ.
यदि हिंदी का दोष तो अंगरेजी भी व्यर्थ..
*
टाई याने बाँधना, टाई कंठ लंगोट.
लायर झूठा है 'सलिल', लायर एडवोकेट..
*
टैंक अगर टंकी 'सलिल', तो कैसे युद्धास्त्र?
बालक समझ न पा रहा, अंगरेजी का शास्त्र..
*
प्लांट कारखाना हुआ, पौधा भी है प्लांट.
कैन नॉट को कह रहे, अंगरेजीदां कांट..
*
खप्पर, छप्पर, टीन, छत, छाँह रूफ कहलाय.
जिस भाषा में व्यर्थ क्यों, उस पर हम बलि जांय..
*
लिख कुछ पढ़ते और कुछ, समझ और ही अर्थ.
अंगरेजी उपयोग से, करते अर्थ-अनर्थ..
*
हीन न हिन्दी को कहें, भाषा श्रेष्ठ विशिष्ट.
अंगरेजी को श्रेष्ठ कह, बनिए नहीं अशिष्ट..
***
दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना, माय के=माता-पिता का घर, माँ के
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
***
विमर्श:
इतिहास और भविष्य
*
अकबर महान है या महाराणा प्रताप???
ये कैसा प्रश्न, कैसा मुद्दा आज पूरे देश में उठाया जा रहा है? ऐसी दुविधा उत्पन्न करनेवाले महानुभावों से मेरा अनुरोध है कि आप इतिहास बदलने पर जितना ज़ोर दे रहे हैं उतना प्रयास व उतना समय एक नया इतिहास गढ़ने में दीजिये।
एक विदुषी ने अपने पन्ने पर अकबर पर लगाए जा रहे आक्षेपों पर आपत्ति करते हुए प्रताप से तुलना पर आपत्ति की है। इस सिलसिले में अपना मत प्रस्तुत कर रहा हूँ आप सबकी राय जानने के लिए।
***
इतिहास को पढ़ें और समझें तब कुछ कहें। अकबर कहीं से सुख सुविधा के लिए आया नहीं था। उसके बाप-दादे विदेश से भारत में आए थे। अकबर भारत में ही पैदा हुआ और पाला-पोसा गया था। वह पूरी तरह भारतीय था, भारत की संतान था।
कंस की तरह अकबर ने केवल सत्ता और भोग-विलास के लिए अपने ही देशवासियों पर जुल्म किए, इसलिए वह नींद का पात्र है। रानी दुर्गावती और चाँद बीबी अकबर की माँ की उम्र की थीं किन्तु दोनों के रूप-लावण्य के चर्चे सुनकर उन्हें अपने हरम में लाने के लिए अकबर ने आक्रमण कर उनके समृद्ध सुसंचालित राज्य नष्ट कर दिए। बुंदेलखंड की विदुषी सुंदरी राय प्रवीण को अपने पास भेजने के लिए ओरछा के राजा को विवश किया। यह दीगर बात है कि राय प्रवीण अपनी बुद्धिमता से बच कार वापिस लौट गईं। महाराणा प्रताप भी अकबर से बहुत बड़े थे। भारतीय होते हुए भी अकबर ने खुद को कभी भारतीय नहीं समझा, खुद को मुगलिया और तैमूरी कहता रहा । अकबर इस देश की मिट्टी का गुनाहगार है। रावण ने लंका के खिलाफ कभी कुछ नहीं किया। अकबर ने भारत के हित में कुछ नहीं किया। अफ़सोस कि खुद को बुद्धिजीवी समझनेवाले बिना इतिहास को समझे दूसरों को कटघरे में खड़ा करते हैं।
गोंडवाने के मूल निवासी दुर्गावती के बलिदान के लगभग २७० साल बाद भी उन्हें पूजते और अकबर को लानत भेजते हैं। यही स्थिति राजस्थान में है।
क्या आपको यह ज्ञात है कि अकबर के नवरत्नों में सम्मिलित बीरबल और तानसेन भारतीय राजाओं के गद्दार थे। उन्हें अपने राज्यों के भेद बताने और अपने ही राज्यों पर मुग़ल आक्रमण में मदद का पुरस्कार दिया गया था। भारतीय होने के नाते भारत की परंपरा और मूल्यों को समझकर इतिहास का मूल्यांकन करें तो बेहतर होगा।
***
लघुकथा
सफेदपोश तबका
देश के विकास और निर्माण की कथा जैसी होती है वैसी दिखती नहीं, और जैसी दिखती है वैसी होती नहीं.... क्या कहा?, नहीं समझे?... कोई बात नहीं समझाता हूँ.
किसी देश का विकास उत्पादन से होता है. उत्पादन सिर्फ दो वर्ग करते हैं किसान और मजदूर. उत्पादनकर्ता की समझ बढ़ाने के लिए शिक्षक, तकनीक हेतु अभियंता तथा स्वास्थ्य हेतु चिकित्सक, शांति व्यवस्था हेतु पुलिस तथा विवाद सुलझाने हेतु न्यायालय ये पाँच वर्ग आवश्यक हैं. शेष सभी वर्ग अनुत्पादक तथा अर्थ व्यवस्था पर भार होते हैं. -वक्ता ने कहा.
फिर तो नेता, अफसर, व्यापारी और बाबू अर्थव्यवस्था पर भार हुए? क्यों न इन्हें हटा दिया जाए?-किसी ने पूछा.
भार ही तो हुए. ये कितने भी अधिक हों हमेशा खुद को कम बताएँगे और अपने अधिकार, वेतन और सुविधाएं बढ़ाते जायेंगे. यह शोषक वर्ग प्रशासन के नाम पर पुलिस के सहारे सब पर लद जाता है. उत्पादक और उत्पादन-सहायक वर्ग का शोषण करता है. सारे काले कारनामे करने के बाद भी कहलाता है 'सफेदपोश तबका'.
***
पहल
*
''आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! हम सब अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प इस रक्षाबंधन पर लें।''
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते नेताओं, अफ्सरों और धन्नासेठों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
१८-७-२०१७
***

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

जुलाई १७, सॉनेट, अम्मी, गाय, तुम, जनमत, दोहा, महाभागवत छंद, चौकडिया, ईसुरी

सलिल सृजन जुलाई १७
विश्व इमोजी दिवस
इमोजी का अर्थ है "चित्र-अक्षर", जो जापानी शब्द "ए" (चित्र) और "मोजी" (अक्षर) से मिलकर बना है। इमोजी छोटे चित्र या प्रतीक होते हैं जिनका उपयोग भावनाओं, विचारों और वस्तुओं को व्यक्त करने के लिए किया जाता है, खासकर ऑनलाइन संचार में। इमोजी का उपयोग विभिन्न प्रकार के ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर किया जाता है, जैसे कि सोशल मीडिया, मैसेजिंग ऐप्स, और ईमेल. वे टेक्स्ट संदेशों को अधिक जीवंत और आकर्षक बनाने, भावनाओं को व्यक्त करने, और विचारों को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने में मदद करते हैं।
सॉनेट
स्व. हरिकृष्ण त्रिपाठी के प्रति
रखी रीढ़ की हड्डी सीधी
मस्तक ऊँचा, दृष्टि लक्ष्य पर
आशंका को दिया न अवसर
बिगड़ी बात बनाई-साधी।
बात न रुची अधूरी आधी
कलमकार हित रहा खुल
नवता-क्षमता धन्य नमन कर।
शिक्षा का नव तीर्थ बनाया
सींचा उपवन संस्मरण का
हृदय बसाया मीमांसा को।
नव पीढ़ी से आदर पाया
दे आशीष सुपंथ वर्ण का
दीप जलाया आकांक्षा का।
२७.७.२०२५
०0०
सॉनेट
जनमत
*
कुछ ने इसको आज चुना
औरों ने ठुकराया है
ठेंगा भी दिखलाया
कुछ ने उसको आज चुना
हर दाना है यहाँ घुना
किसको बीज बना बोएँ
किस्मत को हम क्यों रोएँ
सपना फिर से नया बुना
नेता सभी रचाए स्वांग
सत्ता-कूप घुली है भांग
इसकी उसकी खींचें टांग
खुद को नहीं सुधार रहे
जनमत हाय! बिसार रहे
नेता ही बीमार रहे
१७-७-२०२१
***
दोहा सलिला
*
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
***
एक रचना:
ओ तुम!
*
ओ तुम! मेरे गीत-गीत में बहती रस की धारा हो.
लगता हर पल जैसे तुमको पहली बार निहारा हो.
दोहा बनकर मोहा तुमने, हाथ थमाया हाथों में-
कुछ न अधर बोले पर लगता तुमने अभी पुकारा हो.
*
ओ तुम! ही छंदों की लय हो, विलय तुम्हीं में भाव हुए.
दूर अगर तुम तो सुख सारे, मुझको असह अभाव हुए.
अपने सपने में केवल तुम ही तुम हो अभिसारों में-
मन-मंदिर में तुम्हीं विराजित, चौपड़ की पौ बारा हो.
*
ओ तुम! मात्रा-वर्ण के परे, कथ्य-कथानक भाषा हो.
अलंकार का अलंकार तुम, जीवन की परिभाषा हो.
नयनों में सागर, माथे पर सूरज, दृढ़संकल्पमयी-
तुम्हीं पूर्णिमा का चंदा हो, और तुम्हीं ध्रुव तारा हो.
*
तुम्हीं लावणी, कजरी, राई, रास, तुम्हीं चौपाई हो.
सावन की हरियाली हो तुम, फागों की अरुणाई हो.
कथा-वार्ता, व्रत, मेला तुम, भजन, आरती की घंटी -
नेह-नर्मदा नित्य निनादित, तुम्हीं सलिल की धारा हो.
१७.७.२०१८
***
कार्यशाला:
बीनू भटनागर
राहुल मोदी भिड़ रहे, बीच केजरीवाल,
सत्ता के झगड़े यहाँ,दिल्ली बनी मिसाल।
संजीव
दिल्ली बनी मिसाल, अफसरी हठधर्मी की
हाय! सियासत भी मिसाल है बेशर्मी की
लोकतंत्र की कब्र, सभी ने मिलकर खोदी
जनता जग दफना दे, कजरी राहुल मोदी
***
कार्यशाला:
रोज मैं इस भँवर से दो- चार होती हूँ
क्यों नहीं मैं इस नदी से पार होती हूँ ।
*
संजीव
लाख रोके राह मेरी, है मुझे प्यारी
इसलिए हँस इसी पर सवार होती हूँ ।
*
***
कार्य शाला:
--अनीता शर्मा
शायरी खुदखुशी का धंधा है।
अपनी ही लाश, अपना ही कंधा है ।
आईना बेचता फिरता है शायर उस शहर मे
जो पूरा शहर ही अंधा है।।
*
-संजीव
शायरी धंधा नहीं, इबादत है
सूली चढ़ना यहाँ रवायत है
ज़हर हर पल मिला करता है पियो
सरफरोशी है, ये बगावत है
१७-७-२०१८
***
एक रचना
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
१७-७-२०१७
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मुक्तिका
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मापनी: १२२ १२२ १२२ १२२
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हमारा-तुम्हारा हसीं है फ़साना
न आना-जाना, बनाना बहाना
न लेना, न देना, चबाना चबेना
ख़ुशी बाँट, पाना, गले से लगाना
मिटाना अँधेरा, उगाना सवेरा
पसीना बहाना, ग़ज़ल गुनगुनाना
न सोना, न खोना, न छिपना, न रोना
नये ख्वाब बोना, नये गीत गाना
तुम्हीं को लुभाना, तुम्हीं में समाना
तुम्हीं आरती हो, तुम्हीं हो तराना
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दोहा सलिला:
आँखों-आँखों में हुआ, जाने क्या संवाद?
झुकीं-उठीं पलकें सँकुच, मिलीं भूल फरियाद
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आँखें करतीं साधना, रहीं वैद को टेर
जुल्मी कजरा आँज दे, कर न देर-अंधेर
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आँखों की आभा अमित, पल में तम दे चीर
जिससे मिलतीं, वह हुआ, दिल को हार फ़क़ीर
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आँखों में कविता कुसुम, महकें ज्यों जलजात
जूही-चमेली, मोगरा-चम्पा, जग विख्यात
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विरह अमावस, पूर्णिमा मिलन, कह रही आँख
प्रीत पखेरू घर बना, बसा समेटे पाँख
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आँख आरती हो गयी, पलक प्रार्थना-लीन
संध्या वंदन साधना, पूजन करे प्रवीण
१७-७-२०१५
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अभिनव प्रयोग:
नवगीत
जब लौं आग न बरिहै
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जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
.
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२, महाभागवत छंद)
बुधवार १४ जनवरी २०१५
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दोहे - नाम अनाम
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पूर्वाग्रह पाले बहुत, जब रखते हम नाम
सबको यद्यपि ज्ञात है, आये-गये अनाम
कैकेयी वीरांगना, विदुषी रखा न नाम
मंदोदरी पतिव्रता, नाम न आया काम
रास रचाती रही जो, राधा रखते नाम
रास रचाये सुता तो, घर भर होता वाम
काली की पूजा करें, डरें- न रखते नाम
अंगूरी रख नाम दें, कहें न थामो जाम
अपनी अपनी सोच है, छिपी सोच में लोच
निज दुर्गुण देखें नहीं, पर गुण लखें न पोच
१७-७-२०१४
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मुक्तिका:
अम्मी
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माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
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बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
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भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
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कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
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अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
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तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
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तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२
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सुभाष राय
मित्र हुए हम सलिल के , हमको इसका नाज
हिन्दी के निज देश के पूरे होंगे काज
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