कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

alha chhand

विशेष लेख-

                                                        आल्हा रचें सुजान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                      *

                          छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
                          सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान।। 
                         सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान।
                           मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान।।
*
       
संस्कृत वांग्मय से वीर काव्य परंपरा ग्रहण कर हिंदी में रचित वीर-काव्य में प्रयुक्त तथा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में गणनीय  आल्हा या वीर छंद को इतिहास में महती भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले और इस छंद ने जहाँ मातृभूमि के रक्षार्थ जूझ रहे नर-नाहरों में प्राणोत्सर्ग का भाव भरा, वही शत्रुओं के मन में मौत का भय पैदा किया। 

          बुंदेलखंड-बघेलखंड-रुहेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन काल में युद्धों के समय सेना में, शांति काल में  दरबारों में तथा दैनंदिन जीवन में गाँवों में अल्हैत होते थे जो अपने राज्य, सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश बढ़ता, जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी।

          इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। अतिरेकी अभिव्यंजनाएँ इस छंद का दोष न होकर मौलिक गुण हो जाता है।आल्हा छंद में अतिशयोक्ति अलंकार विशाल भण्डार है जिसकी बानगी पंक्ति-पंक्ति में देखि जा सकती है। आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं।

                                                     * 

छंद विधान:

                              विषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ठ।
                             गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ।। 
                               जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान।
                             आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन मिटता नेष्ठ।।

          आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। आल्हा दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर आल्हा छंद में १६-१५ पर यति होती है। 

          यह भी कह सकते हैं कि दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है। इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता है।वीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।


   संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट।
   गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट।। 


टीप - सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं।

वीर छंद या आल्हा में ही वीर छंद की परिभाषा

                             मात्रा सोलह पन्द्रह आल्हाअतिशयोक्ति आभूषण भाय|
                                 अंत सदा गुरु लघु से होवैवीर छंद ही नाम सुहाय||
                                 आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैयापहुँचे कूदि-कूदि  आकाश|
                                एक फूंक मा बैरी उड़िगेकै डारिनि  बैरिनि का नाश||

संरचना-
          चार चरण, प्रत्येक चरण में १६ + १५ मात्रा कुल ३१ मात्राएँ। विषम चरण में १६ मात्रा पर यति, सैम चरण में १५ मात्रा पर यति, चरणान्त में गुरु-लघु, विषम चरण की सोलहवी मात्रा गुरु तथा सम चरण की पंद्रहवी मात्र लघु। 
                आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
            गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य।।
                अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
                ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।। -सौरभ पाण्डेय


आल्हा खण्ड के महानायक आल्हा - ऊदल

          महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ।। ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय।।

*


टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार।।  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल।  ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल।।
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात।
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात।।
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान। ('एक' का उच्चारण 'इक')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार।।
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।।


चित्र परिचय: आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

                             
सलिल रचित आल्हा छंद के अन्य उदाहरण:

. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज।
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़।।
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज।
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज।।

२. छप्पन इंची सीना देखें, पाकी-आतंकी घबराँय।   
    मिया मुशर्रफ भूल हेकड़ी,सोते में भी लात चलाँय
    भौंक रहे हैं खुद शरीफ भी, भुला शराफत जात दिखाँय
    घोल न शर्बत में पी जाएँ, सोच-सोच चीनी डर जाँय 

३. लोकतंत्र के पीपल बैठे, नेता काटें निश-दिन डाल
   लोक हितों की अनदेखी कर,मचा रहे हैं रोज बवाल
   रुष्ट देश की जनता सोचे,जिसे चुनो वह खींचे खाल। 
   हाय राम रे! हमें बचाओ, जीना भी अब हुआ मुहाल 

४. कौन किसी का कभी हुआ है,मरघट में सब जाते छोड़
    साथ चलेंगे नहीं लगाता, कोई भी थोड़ी भी होड़
    सुख-समृद्धि में भागीदारी, कंगाली में रहते दूर। 
    रिश्ते-नाते भरमाते हैं, जो न समझता सच वह सूर 

५. जा न सड़क पर आम आदमी, अभिनेता आये ले कार। 
    रौंद सड़क पर तुझे जाएगा, गरियाए कह मूर्ख-गँवार
    न्यायालय निर्दोष कहेगा, उसे- तुझे ही देगा दोष-
    मदद न कोई कहीं मिलेगी, मरे भूख से रो परिवार

६. तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल।
    जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल।।
    कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल।
    आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल।।
                                                    
७. अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय।
    छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय।।
    नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय।
    पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय।।

८. फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय।
    बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय।।
    बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय।
    अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय।।

९. नव प्रयोग :
    भारतवारे बड़े लड़ैया
    बिनसें हारे पाक सियार 
    .
    घेर लओ बदरन नें सूरज
    मचो सब कऊँ हाहाकार
    ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
    कौनौ आ करियो उद्धार
    बही बयार बिखर गै बदरा
    धूप सुनैरी कहे पुकार
    सीमा पार छिपे बनमानुस
    कबऊ न पइयो हमसें पार
    .
    एक सिंग खों घेर भलई लें
    सौ वानर-सियार हुसियार
    गधा ओढ़ ले खाल सेर की
    देख सेर पोंके हर बार
    ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
    करो सेर नें पल मा वार
    पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
    जान बखस दो करें पुकार
   (भाषा रूप- बुंदेली)
     . 
१०. घर मा आग लगी बाग़त हैं, देस-बिदेस न देखें हाल
     कहूँ न पानी, कहूँ बाढ़ है, जनगण रोता हो बेहाल
     कौनउ लेत न जिम्मेदारी, एक-दूसरे पे दें टाल
   अफसर-नेता मौज उड़ाउत, सेठ तिजोरी भरते माल

११. हरिगंधा कुरुक्षेत्र की धरा, पुण्य कमाओ करो प्रणाम
    सुन गीता की वाणी मानो, कर्म-धर्म बिसरा परिणाम
    कलम थाम बैठे रामेश्वर, सत-शिव-सुंदर रच अभिराम
    सत-चित-आनंद दर्शन पाओ, मोह खास का तज हो आम

टिप्पणी-  पारंपरिक आल्हा छंद में  २-२ पंक्तियों में समान तुकांत होते हैं। उक्त में तुकांत संबंधी विविध प्रयोग किये गए हैं, इनसे छंद की लय, कथ्य आदि  विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। अत:, आल्हा मुक्तक, आल्हा गीत, आल्हा ग़ज़ल, आल्हा फाग, आल्हा बाल गीत जैसे प्रयोग छंद प्रासंगिकता और उपादेयता बढ़ाने के लिए स्वागतेय हैं। 
   
**********
संदेश में फोटो देखें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 
दूर वार्ता-  ​94251 83244 / 0761 2411131
दूरलेख- 
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

alha chhand

विशेष लेख-

                                                        आल्हा रचें सुजान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                      *

                          छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
                          सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान।। 
                         सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान।
                           मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान।।
*
       
संस्कृत वांग्मय से वीर काव्य परंपरा ग्रहण कर हिंदी में रचित वीर-काव्य में प्रयुक्त तथा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में गणनीय  आल्हा या वीर छंद को इतिहास में महती भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले और इस छंद ने जहाँ मातृभूमि के रक्षार्थ जूझ रहे नर-नाहरों में प्राणोत्सर्ग का भाव भरा, वही शत्रुओं के मन में मौत का भय पैदा किया। 

          बुंदेलखंड-बघेलखंड-रुहेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन काल में युद्धों के समय सेना में, शांति काल में  दरबारों में तथा दैनंदिन जीवन में गाँवों में अल्हैत होते थे जो अपने राज्य, सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश बढ़ता, जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी।

          इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। अतिरेकी अभिव्यंजनाएँ इस छंद का दोष न होकर मौलिक गुण हो जाता है।आल्हा छंद में अतिशयोक्ति अलंकार विशाल भण्डार है जिसकी बानगी पंक्ति-पंक्ति में देखि जा सकती है। आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं।

                                                     * 

छंद विधान:

                              विषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ठ।
                             गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ।। 
                               जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान।
                             आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन मिटता नेष्ठ।।

          आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। आल्हा दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर आल्हा छंद में १६-१५ पर यति होती है। 

          यह भी कह सकते हैं कि दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है। इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता है।वीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है।


   संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट।
   गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट।। 


टीप - सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं।

वीर छंद या आल्हा में ही वीर छंद की परिभाषा

                             मात्रा सोलह पन्द्रह आल्हाअतिशयोक्ति आभूषण भाय|
                                 अंत सदा गुरु लघु से होवैवीर छंद ही नाम सुहाय||
                                 आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैयापहुँचे कूदि-कूदि  आकाश|
                                एक फूंक मा बैरी उड़िगेकै डारिनि  बैरिनि का नाश||

संरचना-
          चार चरण, प्रत्येक चरण में १६ + १५ मात्रा कुल ३१ मात्राएँ। विषम चरण में १६ मात्रा पर यति, सैम चरण में १५ मात्रा पर यति, चरणान्त में गुरु-लघु, विषम चरण की सोलहवी मात्रा गुरु तथा सम चरण की पंद्रहवी मात्र लघु। 
                आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
            गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य।।
                अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
                ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।। -सौरभ पाण्डेय


आल्हा खण्ड के महानायक आल्हा - ऊदल

          महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ।
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ।। ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय।
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय।।

*


टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार।
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार।।  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल।  ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल।।
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात।
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात।।
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान। ('एक' का उच्चारण 'इक')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार।।
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय।
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय।।
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय।
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय।
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ।
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ।।
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।।


चित्र परिचय: आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

                             
सलिल रचित आल्हा छंद के अन्य उदाहरण:

. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज।
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़।।
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज।
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज।।

२. छप्पन इंची सीना देखें, पाकी-आतंकी घबराँय।   
    मिया मुशर्रफ भूल हेकड़ी,सोते में भी लात चलाँय
    भौंक रहे हैं खुद शरीफ भी, भुला शराफत जात दिखाँय
    घोल न शर्बत में पी जाएँ, सोच-सोच चीनी डर जाँय 

३. लोकतंत्र के पीपल बैठे, नेता काटें निश-दिन डाल
   लोक हितों की अनदेखी कर,मचा रहे हैं रोज बवाल
   रुष्ट देश की जनता सोचे,जिसे चुनो वह खींचे खाल। 
   हाय राम रे! हमें बचाओ, जीना भी अब हुआ मुहाल 

४. कौन किसी का कभी हुआ है,मरघट में सब जाते छोड़
    साथ चलेंगे नहीं लगाता, कोई भी थोड़ी भी होड़
    सुख-समृद्धि में भागीदारी, कंगाली में रहते दूर। 
    रिश्ते-नाते भरमाते हैं, जो न समझता सच वह सूर 

५. जा न सड़क पर आम आदमी, अभिनेता आये ले कार। 
    रौंद सड़क पर तुझे जाएगा, गरियाए कह मूर्ख-गँवार
    न्यायालय निर्दोष कहेगा, उसे- तुझे ही देगा दोष-
    मदद न कोई कहीं मिलेगी, मरे भूख से रो परिवार

६. तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल।
    जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल।।
    कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल।
    आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल।।
                                                    
७. अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय।
    छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय।।
    नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय।
    पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय।।

८. फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय।
    बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय।।
    बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय।
    अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय।।

९. नव प्रयोग :
    भारतवारे बड़े लड़ैया
    बिनसें हारे पाक सियार 
    .
    घेर लओ बदरन नें सूरज
    मचो सब कऊँ हाहाकार
    ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
    कौनौ आ करियो उद्धार
    बही बयार बिखर गै बदरा
    धूप सुनैरी कहे पुकार
    सीमा पार छिपे बनमानुस
    कबऊ न पइयो हमसें पार
    .
    एक सिंग खों घेर भलई लें
    सौ वानर-सियार हुसियार
    गधा ओढ़ ले खाल सेर की
    देख सेर पोंके हर बार
    ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
    करो सेर नें पल मा वार
    पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
    जान बखस दो करें पुकार
   (भाषा रूप- बुंदेली)
     . 
१०. घर मा आग लगी बाग़त हैं, देस-बिदेस न देखें हाल
     कहूँ न पानी, कहूँ बाढ़ है, जनगण रोता हो बेहाल
     कौनउ लेत न जिम्मेदारी, एक-दूसरे पे दें टाल
   अफसर-नेता मौज उड़ाउत, सेठ तिजोरी भरते माल

११. हरिगंधा कुरुक्षेत्र की धरा, पुण्य कमाओ करो प्रणाम
    सुन गीता की वाणी मानो, कर्म-धर्म बिसरा परिणाम
    कलम थाम बैठे रामेश्वर, सत-शिव-सुंदर रच अभिराम
    सत-चित-आनंद दर्शन पाओ, मोह खास का तज हो आम

टिप्पणी-  पारंपरिक आल्हा छंद में  २-२ पंक्तियों में समान तुकांत होते हैं। उक्त में तुकांत संबंधी विविध प्रयोग किये गए हैं, इनसे छंद की लय, कथ्य आदि  विआप्रीत प्रभाव नहीं पड़ता। अत:, आल्हा मुक्तक, आल्हा गीत, आल्हा ग़ज़ल, आल्हा फाग, आल्हा बाल गीत जैसे प्रयोग छंद प्रासंगिकता और उपादेयता बढ़ाने के लिए स्वागतेय हैं। 
   
**********
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 

दूर वार्ता-  ​94251 83244 / 0761 2411131
दूरलेख- 
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

समीक्षा

कृति विवेचन-  
संजीव वर्मा ‘सलिल’ की काव्य रचना और सामाजिक विमर्श
                                    - डॉ. सुरेश कुमार वर्मा 
*

               हिंदी जगत् मे साहित्यकार के रूप में संजीव 'सलिल' की पहचान बन चुकी है। यह उनके बहुआयामी स्तरीय लेखन के कारण संभव हो सका है। उन्होंने न केवल कविता, अपितु गद्य लेखन की राह में भी लम्बा रास्ता पार किया है। इधर साहित्यशास्त्र की पेचीदी गलियों में भी वे प्रवेश कर चुके हैं, जिनमें क़दम डालना जोखिम का काम है। यह कार्य आचार्यत्व की श्रेणी का है और 'सलिल' उससे विभूषित हो चुके हैं। 

               ‘काल है संक्रान्ति का’ शीर्षक संकलन में उनकी जिन कविताओं का समावेश है, विषय की दृष्टि से उनका रेंज बहुत व्यापक है। उन्हें पढ़ने से ऐसा लगता है, जैसे एक जागरूक पहरुए के रूप में 'सलिल' ने समाज के पूरे ओर-छोर का मूल्यांकन कर डाला है। उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सब व्यक्ति की मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर लिखा है और जो कुछ कहा है, वह समाज के विघटनकारी घटकों का साक्षात अवलोकन कर कहा है। वे सब आँखिन देखी बातें हैं। इसीलिए उनकी अभिव्यंजाओं में विश्वास की गमक है। और जब कोई रचनाकार विश्वास के साथ कहता है, तो लोगों को सुनना पड़ता है। यही कारण है कि 'सलिल' की रचनाएँ पाठकों की समझ की गहराई तक पहुँचती है और पाठक उन्हें यों ही नहीं ख़ारिज कर सकता। 

               'सलिल' संवेदनशील रचनाकार हैं। वे जिस समाज में उठते-बैठते हैं, उसकी समस्त वस्तुस्थितियों से वाक़िफ़ हैं। वहीं से अपनी रचनाओं के लिए सामग्री का संचयन करते हैं। उन्हें शिद्दत से एहसास है कि यहाँ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पूरे कुँए ही में भाँग पड़ी है। जिससे जो अपेक्षा है, वह उससे ठीक विपरीत चल रहा है। आम आदमी बुनियादी जरूरतों से महरूम हो गया है - 

‘रोजी रोटी रहे खोजते / बीत गया

जीवन का घट भरते-भरते/रीत गया।’ 
                                            -कविता ‘कब आया, कब गया’ 

             
 ‘मत हिचक’ कविता में देश की सियासती हालात की ख़बर लेते हुये नक्लसवादी हिंसक आंदोलन की विकरालता को दर्शाया गया है -
‘काशी, मथुरा, अवध / विवाद मिटेंगे क्या? 
 नक्सलवादी / तज विद्रोह / हटेंगे क्या?’  

               ‘सच की अरथी’ एवं ‘वेश संत का’ रचनाओं में तथाकथित साधुओं एवं महन्तों की दिखावटी धर्मिकता पर तंज कसा गया है। 

               'सलिल' की रचनाओं के व्यापक आकलन से यह बात सामने आयी है कि उनकी खोजी और संवेदनशाील दृष्टि की पहुँच से भारतीय समाज और देश का कोई तबका नहीं बचा है और अफसोस कि दुष्यन्त कुमार के ‘इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ’ की तर्ज पर उन्हें भी कमोबेश इसी भयावह परिदृश्य का सामना करना पड़ा। इस विभाषिका को ही 'सलिल' ने कभी सरल और सलीस ढंग से, कभी बिम्ब-प्रतिबिम्ब शैली में और कभी व्यंजना की आड़ी-टेढ़ी प्रणालियों से पाठकों के सामने रखा, किन्तु चाहे जिस रूप में रखा, वह पाठकों तक यथातथ्य सम्प्रेषित हुआ। यह 'सलिल' की कविता की वैशिष्ट्य है, कि जो वे सोचते हैं, वैसा पाठकों को भी सोचने को विवश कर देते हैं। 

               अँधेरों से दोस्ती नहीं की जाती, किन्तु आज का आदमी उसी से बावस्ता है। उजालों की राह उसे रास नहीं आती। तब 'सलिल' की कठिनाई और बढ़ जाती है। वे हज़रत ख़िज्र की भाँति रास्ता दिखाने का यत्न करते तो हैं, किन्तु कोई उधर देखना नहीं चाहता- 

‘मनुज न किंचित् चेतते / श्वान थके हैं भौंक’। 

               इतना ही नहीं, आदमी अपने हिसाब से सच-झूठ की व्याख्या करता है और अपनी रची दुनिया में जीना चाहता है - ‘मन ही मन मनमाफ़िक / गढ़ लेते हैं सच की मूरत’। ऐसे आत्मभ्रमित लोगों की जमात है सब तरफ। 

               'सलिल' की सूक्ष्मग्राहिका दृष्टि ने ३६० डिग्री की परिधि से भारतीय समाज के स्याह फलक को परखा है, जहाँ नेता हों या अभिनेता, जहाँ अफसर हो या बाबू, पूंजीपति हों या चिकित्सक, व्यापारी हों या दिहाड़ी -- सबके सब असत्य, बेईमानी, प्रमाद और आडंबर की पाठशाला से निकले विद्यार्थी हैं, जिन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ को सहलाने की विद्या आती है। इन्हें न मानव-मूल्यों की परवाह है और न अभिजात जीवन की चाह। ‘दरक न पाएँ दीवारें’, ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’, ‘ग्रंथि श्रेष्ठता की’, ‘दिशा न दर्शन’ आदि रचनाएँ इस बात की प्रमाण हैं। 

               यह ज़रूर है कि सभ्यता और संस्कृति के प्रतिमानों पर आज के व्यक्ति और समाज की दशा भारी अवमूल्यन का बोध कराती है, किन्तु 'सलिल' पूरी तरह निराश नहीं हैं। वे आस्था और सम्भावना के कवि हैं। वे लम्बी, अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी देखने के अभ्यासी हैं। वे जानते हैं कि मुचकुन्द की तरफ शताब्दियों से सोये हुये लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है। 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है। 

               ‘काल है संक्रान्ति का’ कविता संग्रह ‘जाग उठो, जाग उठो’ के निनाद से प्रमाद में सुप्त लोगों के कर्णकुहरों को मथ देने का सामर्थ्य रखती है। अँधेरा इतना है कि उसे मिटाने के लिए  एक सूर्य काफी नहीं है और न सूर्य पर लिखी एक कविता। इसीलिए संजीव 'सलिल' ने अनेक कविताएँ लिखकर बार-बार सूर्य का आह्नान किया है। ‘उठो सूरज’, ‘जगो! सूर्य आता है’, ‘आओ भी सूरज’, ‘उग रहे या ढल रहे’, ‘छुएँ सूरज’ जैसी कविताओं के द्वारा जागरण के मंत्रों से उन्होंने सामाजिक जीवन को निनादित कर दिया है। 

               सामाजिक सरोकारों को लेकर 'सलिल' सदैव सतर्क रहते हैं। वे व्यवस्था की त्रुटियों, कमियों और कमज़ोरियों को दिखाने में क़तई गुरेज नहीं करतेे। उनकी भूमिका विपक्ष की भूमिका हुआ करती है। अपनी कविता के दायरे में वे ऐसे तिलिस्म की रचना करते हैं, जिससे व्यवस्था के आर-पार जो कुछ हो रहा है, साफ-साफ दिखाई दे। वे कहीं रंग-बदलती राजनीति का तज़किरा उठाते हैं - 

‘सत्ता पाते / ही रंग बदले / यकीं न करना किंचित् पगले / काम पड़े पीठ कर देता / रंग बदलता है पल-पल में ’।

               राजनीति का रंग बदलना कोई नयी बात नहीं, किंतु कुछ ज़्यादा ही बदलना 'सलिल' को नागवार गुजरता है। यदि साधुओं में कोई असाधु कृत्य करता दिखाई देगा, तो 'सलिल' की कविता उसका पीछा करते दिखाई देगी ‘वेश संत का / मन शैतान’।  

               ‘राम बचाये’ कविता व्यापक संदर्भों में अनेक परिदृश्यों को सामने रखती है। नगर से गाँव तक, सड़क से कूचे तक, समाज के विविध वर्णों, वर्गों और जातियों और जमातों की विसंगतियों को उजागर करती करती उनकी कविता ‘राम बचाये’ पाठकों के हृदय को पूरी तरह मथने में समर्थ है। यह उनके सामर्थ्य की पहचान कराती कविता ही है, जो बहुत बेलाग तरीक़े से, क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये, इसका भेद मिटाकर अपनी अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना की बाढ़ में सबको बहाकर ले जाती है। 
................................
समीक्षक संपर्क- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, ८१० विजय नगर, जबलपुर, चलभाष  ९४२५३२५०७२।

hasya

हास्य सलिला:
लाल गुलाब 
संजीव
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊँगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊँ बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
****