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बुधवार, 11 सितंबर 2024

सितंबर ११, कुण्डलिया, मुक्तक, बुंदेली दोहा, अग्नि पुराण में छंद, बघेली हाइकु, महादेवी

सलिल सृजन सितंबर ११
*
राधा जयंती 
आ राधे आराधे तुझको सरला वसुधा कर संतोष।
छाया पा रुचि भक्ति सुनीता, सुमन मुकुल अर्पित जयघोष।।
धारा राधा को उर में, कर लीला लाला अमर हुआ।
सलिल कर रहा पद प्रक्षालन,  मिले कृपा है यही दुआ।।
११.९.२०२४
•••

कुण्डलिया 
है अनामिका नाम पर खूब कमाया नाम। 
रामानुज तनया बनीं प्राध्यापक सरनाम ।। 
प्राध्यापक सरनाम नृत्य-संगीत प्रवीणा। 
कंठ शारदा-वास, वाक् ज्यों बाजे वीणा।। 
'सलिल' करे अभिषेक, कर्मरत रहीं निष्काम। 
नाम मिल भरपूर पर, है अनामिका नाम।। 
११.९.२०२४ 
***
हिंदी साहित्य की सरस्वती महादेवी जी
*
जन्म और परिवार
महादेवी का जन्म २६ मार्च १९०७ को प्रातः ८ बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें कुल की देवी, महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं। वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, मांसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानंदन पंत, इलाचंद्र जोशी एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।
शिक्षा
महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।
वैवाहिक जीवन
सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके संबंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् १९६६ में पति की मृत्यु के बाद वे स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।
महादेवी का रचना संसार
महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं।
१. नीहार (१९३०)
२. रश्मि (१९३२)
३. नीरजा (१९३४)
४. सांध्यगीत (१९३६)
५. दीपशिखा (१९४२)
६. सप्तपर्णा (अनूदित-१९५९)
७. प्रथम आयाम (१९७४)
८. अग्निरेखा (१९९०)
कविता संग्रह
श्रीमती महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिका, परिक्रमा, सन्धिनी (१९६५), यामा (१९३६), गीतपर्व, दीपगीत, स्मारिका, नीलांबरा और आधुनिक कवि महादेवी आदि।
महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य
रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (१९४१) और स्मृति की रेखाएं (१९४३),
संस्मरण: पथ के साथी (१९५६) और मेरा परिवार (१९७२) और संस्मरण (१९८३)
चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (१९७४)
निबंध: श्रृंखला की कड़ियाँ (१९४२), विवेचनात्मक गद्य (१९४२), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), संकल्पिता (१९६९)
ललित निबंध: क्षणदा (१९५६)
कहानियाँ: गिल्लू
संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (१९६३),
अन्य निबंध में संकल्पिता तथा विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध उल्लेखनीय हैं। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ तथा ‘साहित्यकार’ मासिक की भी संपादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की।
महादेवी वर्मा का बाल साहित्य
महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं।
ठाकुरजी भोले हैं
आज खरीदेंगे हम ज्वाला
डाकटिकट
उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओँ से पुरस्कार व सम्मान मिले।
१९४३ में उन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ एवं ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद १९५२ में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। १९५६ में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी। १९७९ में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं।[20] 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया।
सन १९६९ में विक्रम विश्वविद्यालय, १९७७ में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, १९८० में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा १९८४ में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया।
इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिये १९३४ में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, १९४२ में ‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए। ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। वे भारत की ५० सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।
१९६८ में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण ‘वह चीनी भाई’ पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर नीचे।[
१६ सितंबर १९९१ को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में २ रुपए का एक युगल टिकट भी जारी किया है।
कार्यक्षेत्र
महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। १९३२ में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी १८ काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन १५ अप्रैल १९३३ को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में संपन्न हुआ। वे हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं।महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। १९३६ में नैनीताल से २५ किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बँगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मंदिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। श्रृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निंदा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके संपूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है।
उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। ११ सितंबर १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया।
साहित्य में महादेवी वर्मा का आविर्भाव उस समय हुआ जब खड़ीबोली का आकार परिष्कृत हो रहा था। उन्होंने हिन्दी कविता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर को गीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदना की हार्दिक स्वीकृति दी। इस प्रकार उन्होंने भाषा साहित्य और दर्शन तीनों क्षेत्रों में ऐसा महत्त्वपूर्ण काम किया जिसने आनेवाली एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। शचीरानी गुर्टू ने भी उनकी कविता को सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण माना है। उन्होंने अपने गीतों की रचना शैली और भाषा में अनोखी लय और सरलता भरी है, साथ ही प्रतीकों और बिंबों का ऐसा सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग किया है जो पाठक के मन में चित्र सा खींच देता है। छायावादी काव्य की समृद्धि में उनका योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। छायावादी काव्य को जहाँ प्रसाद ने प्रकृतितत्त्व दिया, निराला ने उसमें मुक्तछंद की अवतारणा की और पंत ने उसे सुकोमल कला प्रदान की वहाँ छायावाद के कलेवर में प्राण-प्रतिष्ठा करने का गौरव महादेवी जी को ही प्राप्त है। भावात्मकता एवं अनुभूति की गहनता उनके काव्य की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है। हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-हिलोरों का ऐसा सजीव और मूर्त अभिव्यंजन ही छायावादी कवियों में उन्हें ‘महादेवी’ बनाता है। वे हिन्दी बोलने वालों में अपने भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद की जाती हैं। उनके भाषण जन सामान्य के प्रति संवेदना और सच्चाई के प्रति दृढ़ता से परिपूर्ण होते थे। वे दिल्ली में १९८३ में आयोजित तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन समारोह की मुख्य अतिथि थीं। इस अवसर पर दिये गये उनके भाषण में उनके इस गुण को देखा जा सकता है।
यद्यपि महादेवी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उनके लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, भूमिकाओं और ललित निबंधों में जो गद्य लिखा है वह श्रेष्ठतम गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का संपूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना और काव्यरूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में कितना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। उनके गद्य में वैचारिक परिपक्वता इतनी है कि वह आज भी प्रासंगिक है।[ञ] समाज सुधार और नारी स्वतंत्रता से संबंधित उनके विचारों में दृढ़ता और विकास का अनुपम सामंजस्य मिलता है। सामाजिक जीवन की गहरी परतों को छूने वाली इतनी तीव्र दृष्टि, नारी जीवन के वैषम्य और शोषण को तीखेपन से आंकने वाली इतनी जागरूक प्रतिभा और निम्न वर्ग के निरीह, साधनहीन प्राणियों के अनूठे चित्र उन्होंने ही पहली बार हिंदी साहित्य को दिये।
मौलिक रचनाकार के अलावा उनका एक रूप सृजनात्मक अनुवादक का भी है जिसके दर्शन उनकी अनुवाद-कृत ‘सप्तपर्णा’ (१९६०) में होते हैं। अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे उन्होंने वेद, रामायण, थेरगाथा तथा अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस कृति में प्रस्तुत किया है। आरंभ में ६१ पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के सम्बंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष किया है जो केवल स्त्री-लेखन को ही नहीं हिंदी के समग्र चिंतनपरक और ललित लेखन को समृद्ध करता है।
क. ^ छायावाद के अन्य तीन स्तंभ हैं, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत।
ख. ^ हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी, स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी ―निराला
ग. ^ उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला, विरह को दीपशिखा का गौरव दिया और व्यष्टि मूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। ―निशा सहगल[29]
घ. ^ “इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक ये वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।” ―आचार्य रामचंद्र शुक्ल
ङ. ^ “महादेवी का ‘मैं’ संदर्भ भेद से सबका नाम है।” सच्चाई यह है कि महादेवी व्यष्टि से समष्टि की ओर जाती हैं। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा और दुखवाद में विश्व की कल्याण कामना निहित है। ―हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
च. ^ वस्तुत: महादेवी की अनुभूति और सृजन का केंद्र आँसू नहीं आग है। जो दृश्य है वह अन्तिम सत्य नहीं है, जो अदृश्य है वह मूल या प्रेरक सत्य है। महादेवी लिखती हैं: “आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के” और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात/आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात/कसक में विद्युत अंतर्धान। ये आँसू सहज सरल वेदना के आँसू नहीं हैं, इनके पीछे जाने कितनी आग, झंझावात प्रलय-मेघ का विद्युत-गर्जन, विद्रोह छिपा है। ―प्रभाकर श्रोत्रिय
छ. महादेवी जी की कविता सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण है ―शचीरानी गुर्टू
ज. महादेवी के प्रगीतों का रूप विन्यास, भाषा, प्रतीक-बिंब लय के स्तर पर अद्भुत उपलब्धि कहा जा सकता है। ―कृष्णदत्त पालीवाल
झ. एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और ‘गद्य कवीतां निकषं वदंति’ उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर संपादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे संपूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। ―रामजी पांडेय[33]
ञ. महादेवी का गद्य जीवन की आँच में तपा हुआ गद्य है। निखरा हुआ, निथरा हुआ गद्य है। १९५६ में लिखा हुआ उनका गद्य आज ६५ वर्ष बाद भी प्रासंगिक है। वह पुराना नहीं पड़ा है। ―राजेन्द्र उपाध्याय
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बघेली हाइकु
*
जिनखें हाथें
किस्मत के चाभी
बड़े दलाल
*
आम के आम
नेता करै कमाल
गोई के दाम
*
सुशांत-रिया
खबरचियन के
बाप औ' माई
*
लागत हय
लिपा पुता चिकन
बाहेर घर
*
बाँचै किताब
आँसू के अनुबाद
आम जनता
११.९.२०२०
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विमर्श: पुराणों में क्या है???
*
सामान्य धारणा है कि वेद-पुराण-उपनिषद आदि धार्मिक ग्रंथ हैं किंतु वास्तविकता सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: इनमें जीवन से जुड़े हर पक्ष विज्ञान, कला, याँत्रिकी, चिकित्सा, सामाजिक, आर्थिक आदि विषयों का विधिवत वर्णन है। अग्नि पुराण में साहित्य से संबंधित कुछ जानकारी निम्नानुसार है।
आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सार का कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।
*
अध्याय ३२९- गायत्री छंद, अध्याय ३३०- जगती छंद, अध्याय ३३१- वैदिक छंद, अध्याय ३३२- विषम छंद, अध्याय ३३३अर्द्धसमवृत्त छंद, अध्याय ३३४- समवृत्त छंद। अध्याय ३३५- प्रस्तार निरूपण, अध्याय ३३६ शिक्षा निरूपण, अध्याय ३३७ काव्य, अध्याय ३३८ नाटक, अध्याय ३३९ रस, भाव, नायक, अध्याय ३४० रीति, अध्याय ३४१ नृत्य, अध्याय ३४२अभिनय-अलंकार, अध्याय ३४३ शब्दालंकार, अध्याय ३४४ अर्थालंकार, अध्याय ३४५ शब्दार्थोभयालंकार, अध्याय ३४६ काव्य गुण, ३४७ काव्य दोष, अध्याय ३४८ एकाक्षर कोष, अध्याय ३४९ व्याकरण सार, अध्याय ३३८ नाटक, संधि, अध्याय ३५१-३५३ लिंग, अध्याय ३५४ कारक, अध्याय ३५५ समास, अध्याय ३५६ प्रत्यय, अध्याय ३५७ शब्द रूप, अध्याय ३५८ विभक्ति, अध्याय ३५९ कृदंत, अध्याय ३६० स्वर्ग-पाताल, अध्याय ३६१ अव्यय।
अध्याय ३२९- गायत्री आदि छंद।
अध्याय ३३०- जगती, त्रिष्टुप, उष्णिक, ककुप उष्णिक, त्रिपाद अनुष्टुप, बृहती, उरो बृहती, न्यंगुसरणी बृहती, पुरस्ताद बृहती, पंक्ति, सतपंक्ति, आस्तार पंक्ति, संस्तार पंक्ति, अक्षर पंक्ति, पद पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती-ज्योतिष्मती, पुरस्ताज्ज्योति, उपरिष्टाज्ज्योसि, शंकुमती, ककुदमती, यवमध्य छंद।
अध्याय ३३१- वैदिक छंद: उत्कृति, अभिकृति, विकृति, प्रकृति, अधिकृति, धृति, अत्यष्टि, आश्ती, अतिशक्वरि, शक्वरि, अतिजगती। लौकिक छंद: त्रिष्टुप, बृहती, अनुष्टुप, उष्णिक, गायत्री, सुप्रतिष्ठा, प्रतिष्ठा, मध्या, अत्युक्तात्युक्त, आदि छंद। छंद के ३ प्रकार गण छंद, मात्र छंद, अक्षर छंद। छंद का चौथाई भाग पाद या चरण। गण, आर्य, गीति, उपगीति, उद्गीति, आर्यागीति। मात्रा छंद- वैतालीय, औपच्छंदसक, प्राच्य वृत्ति, उदीच्य वृत्ति, प्रवृत्तिक, चारुहासिनी, अपरांतिका, मात्रासमक, वानवसिका, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, पादाकुवक, गीतयार्या, ज्योति, सौम्या, चूलिका।
अध्याय ३३२- विषम वृत्त: समानी, प्रमाणी, वितान, वक्त्र, अनुश्तुब्वक्त्र, विपुला, पदचतुरुर्ध्व, आपीड़, प्रत्यापीड़, मंजरी, लवली, अमृतधारा, उद्गता, सौरभ, ललित, प्रचुपित, वर्धमान, विराषभ छंद।
अध्याय ३३३अर्द्धसम वृत्त: उपचित्रक, द्रुतमध्या, वेगवती, भद्रविराट, केतुमती, आख्यानिकी, विपरीताख्यानिकी, हरिणप्लुता, अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा, यवमती, शिखा छंद।
अध्याय ३३४- समवृत्त:।
[आभार: कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]
११.९.२०१८
***
मुक्तक
*
जन्म दिवस पर बहुत बधाई
पग-तल तुमने मन्ज़िल पाई
शतजीवी हो, गगन छू सको
खुशियों की नित कर पहुनाई
*
अपनी ख्वाहिश नहीं मरने देना
मन को दुनिया से न डरने देना
हौसलों को बुलंद ही रखना
जी जो चाहे उसे करने देना
११-९-२०१६
***
बुंदेली दोहांजलि
*
जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर
अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
*
खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
*
बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
*
ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय
*
संध्या बंदन कर रए, महाबीर जी मौन
खरे बुंदेला हम भए, करी साधना जौन
*
सब जग भओ असोक जब, भईं बंदना साथ
सीस प्रार्थना को नबा, खुस अनूप जगनाथ
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मुक्तक:
*
मरघट में है भीड़ पनघट है वीरान
मोल नगद का न्यून है उधार की शान
चमक-दमक की चाह हुई सादगी मौन
सब अपने में लीन किसको पूछे कौन
११-९-२०१४
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कुण्डलिया :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
*
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.
११.९.२०११

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मंगलवार, 10 सितंबर 2024

सितंबर १०, सॉनेट, बिटिया, कौन हैं हम?, गीत, नवगीत, बाल गीत

सलिल सृजन सितंबर १०
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सॉनेट
कर-कलम
कर कलम थामे समय का सच कहें,
ढहें मत, थिर रहे कोशिश की कशिश,
तपिश हर बदलाव की हँसकर सहें,
हो न जब तक पूर्ण मन में पली विश।
कर कलम को लें बना तलवार झट,
नट न पाएँ रास्ते पग मंजिलें,
काफिले पीछे चलें तू बढ़ सतत,
विगत से ले सीख, आगत से मिलें।
कर कलम कर दें कलम बाधा सभी,
अभी को टालें कभी पर आप मत,
मत-विमत सम्मत व्यवस्था हो सभी,
तभी करतल ध्वनि करें सब रख सुमत।
कर कलम करवाल हो, करताल हो।
कर कलम हड़ताल हो, पड़ताल हो।
१०.९.२०२३
•••
बाल रचना
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
१०-९-२०१७
***
दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
*
मिले नकार नकार को, स्वीकृत हो स्वीकार।
स्नेह स्नेह को दीजिए, सके प्रहार प्रहार।।
***
एक रचना
कौन हैं हम?
*
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
स्नेह सलिला नर्मदा हैं।
सत्य-रक्षक वर्मदा हैं।
कोई माने या न माने
श्वास सारी धर्मदा हैं।
जान या
मत जान लेकिन
मित्र है साहस-प्रभंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
सभ्यता के सिंधु हैं हम,
भले लघुतम बिंदु हैं हम।
गरल धारे कण्ठ में पर
शीश अमृत-बिंदु हैं हम।
अमरकंटक-
सतपुड़ा हम,
विंध्य हैं सह हर विखण्डन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
ब्रम्हपुत्रा की लहर हैं,
गंग-यमुना की भँवर हैं।
गोमती-सरयू-सरस्वति
अवध-ब्रज की रज-डगर हैं।
बेतवा, शिव-
नाथ, ताप्ती,
हमीं क्षिप्रा, शिव निरंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
तुंगभद्रा पतित पावन,
कृष्णा-कावेरी सुहावन।
सुनो साबरमती हैं हम,
सोन-कोसी-हिरन भावन।
व्यास-झेलम,
लूनी-सतलज
हमीं हैं गण्डक सुपावन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
मेघ बरसे भरी गागर,
करी खाली पहुँच सागर।
शारदा, चितवन किनारे-
नागरी लिखते सुनागर।
हमीं पेनर
चारु चंबल
घाटियाँ हम, शिखर- गिरिवन
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
१०-९-२०१६
***
गीत
कौन?
*
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
खुशियों की खेती अनसिंचित,
सिंचित खरपतवार व्यथाएँ।
*
खेत
कारखाने-कॉलोनी
बनकर, बिना मौत मरते हैं।
असुर हुए इंसान,
न दाना-पानी खा,
दौलत चरते हैं।
वन भेजी जाती सीताएँ,
मन्दिर पुजतीं शूर्पणखाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
गौरैयों की देखभाल कर
मिली बाज को जिम्मेदारी।
अय्यारी का पाठ रटाती,
पैठ मदरसों में बटमारी।
एसिड की शिकार राधाएँ
कंस जाँच आयोग बिठाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि करें न शिक़वा,
लछमी पूजती है गणेश सँग।
'ऑनर किलिंग' कर रहे दद्दू
मूँछ ऐंठकर, जमा रहे रंग।
ठगते मोह-मान-मायाएँ
घर-घर कुरुक्षेत्र-गाथाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
हर कर्तव्य तुझे करना है,
हर अधिकार मुझे वरना है।
माँग भरो, हर माँग पूर्ण कर
वरना रपट मुझे करना है।
देह मात्र होतीं वनिताएँ
घर को होटल मात्र बनाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
दोष न देखें दल के अंदर,
और न गुण दिखते दल-बाहर।
तोड़ रहे कानून बना, सांसद,
संसद मंडी-जलसा घर।
बस में हो तो साँसों पर भी
सरकारें अब टैक्स लगाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*****
९-८-२०१६
गोरखपुर दंत चिकित्सालय
जबलपुर

*

सोमवार, 9 सितंबर 2024

सितंबर ९, शिव, निमाड़ी, मालवी हाइकु, बुंदेली दोहा, धर्म, दोहा, श्रुत्यानुप्रास, महथा

सलिल सृजन सितंबर ९
*
नवगीत:
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
९-९-२०२१
***
卐 ॐ 卐
निमाड़ी मुक्तिका
*
दुनिया रंग-बिरंगी
छे मतलब को संगी
म्हारो-थारो भूलो
बण जा सच्चो जंगी
रेवा महिमा भारी
जल पी तबियत चंगी
माटी केसर चंदन
म्हिनत अपणो अंगी
निरमल हिरदा जिनगी
करी लेव मनमंगी
***
मालवी हाइकु
*
मात सरसती!
हात जोड़ी ने थारा
करूँआरती।
*
नींद में सोयो
जागी ने घणो रोयो
फसल खोयो।
*
मालवी बोली
नरमदा का पाणी
मिसरी घोली।
*
नींद में सोयो
टूट गयो सपनो
पायो ने खोयो।
*
कदी नी चावां
बड़ा बंगला, चावां
रेवा-किनारा
*
बिना टेका के
राम भरोसे कोई
छत ने टिकी।
*
लिखणेवाळा!
बोठी न होने दीजे
कलमहुण।
९-९-२०२०
***
विमर्श
*
धर्म क्या है?
जिसे धारण किया जाए वह धर्म है।
किसे धारण किया जाए?
जो धारण करने योग्य हो।
धारण करने योग्य क्या है?
परिधान या आचरण?
अस्थि-मांस को चर्म का परिधान प्रकृति ही पहना देती है।
क्या चिरकालिक मानव सभ्यता केवल परिधान पर परिधान पहनने तक सीमित है या वह अाचार का परिधान धारण कर श्रेष्ठता का वरण करती है?
मानव देह मिलते ही तन को कृत्रिम परिधान पहना दिया जाता है। पर्व और उल्लास के हर अवसर पर नूतन परिधान पहन कर प्रसन्नता जाहिर की जाती है। जीवन साथी के चयन करते समय उत्तम परिधान धारण किया जाता है। यहाँ तक कि देहांत के पूर्व भी दैनिक परिधान अलग कर भिन्न परिधान में काष्ठ पर जलाया या मिट्टी में मिलाया जाता है।
क्या इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि परिधान ही सभ्यता, संस्कृति या धर्म है?
कदापि नहीं।
परिधान आचार का संकेतक है । परिधान सामाजिक, आर्थिक स्थिति दर्शाता है। परिधान आचार को नियंत्रित नहीं कर सकता। परिधान धारण करनेवाले से तदनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती है। आचरण परिधान से भिन्न हो तो आलोचना और निंदा की जाती है। न्यायालय में न्यायकर्ता, अधिवक्ता और वादी-प्रतिवादी को परिधान से पहचाना तो जाता है पर प्रतिष्ठा अपने आचरण से ही प्राप्त होती है।
स्पष्ट है कि सुविचार से प्रेरित आचार न कि परिधान धर्म है।
सेवा से जुड़े हर वर्ग पंडित, न्यायाधीश, चिकित्सक, पुलिस, अधिवक्ता, पुलिस आदि का परिधान निश्चित है जबकि व्यवसाय से जुड़े वर्ग के लिए निश्चित परिधान नहीं है।
परिधान का उद्देश्य दायित्वों की अनुभूति कराकर तदनुसार आचरण हेतु प्रेरित करना है। चतुर व्यवसायी भी परिधान निर्धारित करने लगे हैं ताकि उनके कर्मचारी प्रतिष्ठान के प्रति लगाव व दायित्व का प्रतीति निर्धारित कार्यावधि के बाद भी करें।
क्या शासकीय पदों पर परिधान आमजन के प्रति दायित्व का प्रतीति कराता है? कराता तो किसी कार्यालय में कोई नस्ती लंबित न होती। कोई अधिवक्ता पेशी न बढ़वाता, हड़ताल न करता, कोई मरीज चिकित्सा बिना न मरता।
आचार, आचरण या कर्तव्य ही धर्म है। यही करणीय अर्थात करने योग्य कर्म है। 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते' कहकर श्री कृष्ण इसी कर्म मनुष्य ही नहीं जीव का भी अधिकार कहते हैं। 'मा फलेषु कदाचन' कहकर वे तुरंत ही सचेत करते हैं कि फल सा परिणाम कर्मकर्ता का अधिकार नहीं है।
दैनंदिन जीवन में हमारे कितने कर्म इस कसौटी पर खरे हैं? यह कसौटी आत्मानुशासन की राह दिखाती है। तब स्व+तंत्र, स्व+आधीन का अर्थ उच्छृंखलता, उद्दंडता, बल प्रयोग नहीं रहता। तब अधिकार पर कर्तव्य को वरीयता दी जाती है।
अपने आचरण को स्वकेंद्रित रखकर देव और दानव चलते हैं जबकि मनुष्य अपने आचरण को सर्वकेंद्रित, सर्वकल्याणकारी बनाकर मानव संस्कृति का विकास करता है। मानव होना देव और दानव होने से बेहतर है। इसीलिए तो देव भी मानव रूप में अवतरित होते हैं। प्रकृति के नियमानुसार मानवावतार देव ही नहीं दानव भी लेते हैं किंतु उन अति आचारियों (अत्याचारियों) को अनुकरणीय नहीं माना जाता।
धर्म कर्म का पूरक ही नहीं पर्याय भी है। प्राय: हम निज कर्महीनता का दोष अन्यों या परिस्थितियों को देते हैं, यह वृत्ति उतनी ही घातक है जितनी कर्मश्रेष्ठता का श्रेय स्वयं लेना। जो इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे ही महामानव बनते हैं।
कर्म धर्म को जीवन मर्म मानना ही एकमात्र राह है जिस पर चलकर आदमी मनुष्य बन सकता है। बकौल ग़ालिब 'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना। धर्म आदमी को इंसान बनने का पथ दिखाता है पर धर्मगुरु रोकता है। वह जानता है कि आदमी इंसान बन गया तो उसकी जरूरत ही न रहेगी।
अपने धर्म पर चलकर मरना परधर्म को मानकर जीने से बेहतर है। इसलिए औरों को नहीं खुद को आत्मानुशासित करें तब दिशाएँ भी परिधान होंगी, तब दिगंबरत्व भी गणवेशों से अधिक मर्यादित होगा, तब क्षमा माँगने और करने की औपचारिकता नहीं आत्मा का आभूषण होगी।
***
***
दोहा दुनिया
*
खोटे करते काम हम, खरे खरे कर काम।
सृजनशील जीवन जिएँ, मानक रचें ललाम।।
*
सम आमोद विनोद नित, करते लेखन कर्म।
कर्मदेव आराध्य हैं, सृजन कर्म ही धर्म।।
*
श्री वास्तव में हो तभी, होता है आलोक।
अगर न आत्मालोक तो, जीवन होता शोक।।
*
ग्यान परिश्रम प्रेम के, तीन वेद पढ़ आप।
बनें त्रिवेदी कीर्ति तब, दस दिश जाती व्याप।।
*
राय न रवि देता कभी, तम हरता चुपचाप।
पूजित होता जगत में, कीर्ति न सकते नाप।।
*
वंदन हो जग श्रेष्ठ का, तब मिटते है नेष्ठ।
नहीं उम्र से कार्य से, होता है मनु ज्येष्ठ।।
*
अपने जब अपनत्व से, करें मान-सम्मान।
तब ही ऐसा मानिए, हैं सच्चे इंसान।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ का, ध्येय करें चुप कर्म।
शोर प्रचार न हो अधिक, तभी मिलेगा धर्म।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ में, जाग्रत सभी दिमाग।
ले अनुभव की बाँसुरी, गाते जीवन राग।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ की, मात्र एक है चाह।
देश-हितों हित काम कर, दिखा सकें मिल राह।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ में, शेष नहीं है मोह।
आप न करता बगावत, किंतु रोकता द्रोह।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ है, अनुभव का पर्याय।
कर्तव्यों को पाल कर, लिखें नया अध्याय।।
*
९-९-२०२९
***
अलंकार चर्चा : ५
श्रुत्यानुप्रास अलंकार
समस्थान से उच्चरित, वर्णों का उपयोग
करे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिक भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
९-९-२०१५
***
दोहा सलिला :
बुंदेली दोहा
*
का भौ काय नटेर रय, दीदे मो खौं देख?
कई-सुनी बिसरा- लगा, गले मिटा खें रेख.
*
बऊ-दद्दा खिसिया रए, कौनौ धरें न कान
मौडीं-मौड़ां बाँट रये, अब बूढ़न खें ज्ञान.
*
पुरोवाक्:
आचार्य संजीव
*
पुरुषार्थ और भाग्य एक सिक्के के दो पहलू हैं या यूँ कहें कि उनका चोली-दामन का सा साथ है. जब गोस्वामी तुलसीदास जी 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'हुइहै सोहि जो राम रचि राखा' में से किसी एक का चयन नहीं कर पाते तो आदमी भाग्य और कर्म के चक्कर में घनचक्कर बन कर रह जाए तो क्या आश्चर्य?
आदि काल से भाग्य जानने और कर्म को मानने प्रयास होते रहे हैं. वेद का नेत्र कहा गया ज्योतिष शास्त्र जन्म कुंडली, हस्त रेखा, मस्तक रेखा, मुखाकृति, शगुनशास्त्र, अंक ज्योतिष, वास्तु आदि के माध्यम से गतागत और शुभाशुभ को जानने का प्रयास करता रहा किन्तु त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ भी काल को न जान सके और महाकाल के गाल में समा गये.
ज्ञान का विधिवत अध्ययन, आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण, अवधारणाओं परिकल्पन परीक्षण तथा प्राप्त परिणामों का आगमन-निगमन, निगमन-आगमन पद्धतियों अर्थात विशिष्ट से सामान्य और सामान्य से विशिष्ट की ओर परीक्षण जाकर नियमित अध्ययन हो तब विषय विज्ञान माना जाता है. यंत्रोपकरणों, परीक्षण विधियों और परिणामों को हर दिन प्रामाणिकता के निकष पर खरा उतरना होता है अन्यथा सदियों की मान्यता पल में नष्ट हो जाती है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र और सामुद्रिकी विदेशी आक्रमणों, ग्रंथागारों को जलाये जाने और आचार्यों को चुन-चुन कर मरे जाने के बाद से 'गरीब की लुगाई' होकर रह गयी है जिसे 'गाँव की भौजाई' मानकर खुद को ज्योतिषाचार्य कहनेवाले पंडित-पुजारी-मठाधीश तथा व्यवसायी गले से नहीं रहे, उसका शीलहरण भी कर रहे है. फलतः, इस विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण की कोई सुव्यवस्था नहीं है. शासन - प्रशासन की ओर से विषय के अध्ययन की कोई योजना नहीं है, युवा जन इस विषय को आजीविका का माध्यम बनाने हेतु पढ़ना भी चाहें तो कोई मान्यता प्राप्त संस्थान या पाठ्यक्रम नहीं है. फलतः जन सामान्य नहीं विशिष्ट और विद्वान जन भी विरासत में प्राप्त आकर्षण और विश्वास के कारण तथाकथित ज्योतिषियों के पाखंड का शिकार हो रहे हैं.
अंधकार में दीप जलने का प्रयास करनेवालों में श्री कृष्णमूर्ति के समान्तर श्री विद्यासागर महथा और उनकी विदुषी पुत्री श्रीमती संगीता पुरी प्रमुख हैं. प्रस्तुत कृति दोनों के संयुक्त प्रयास से विकसित हो रही नवीन ज्योतिष-अध्ययन प्रणाली 'गत्यात्मक ज्योतिष' का औचित्य, महत्त्व, मौलिकता, भिन्नता और प्रामाणिकता पर केंद्रित है. इस कृति का वैशिष्ट्य प्रचलित जन मान्यताओं, अवधारणाओं तथा परम्पराओं की पड़ताल कर पाखंडों, अंधविश्वासों तथा कुरीतियों की वास्तविकता उद्घाटित कर ज्योतिष की आड़ में ठगी कर रहे छद्म ज्योतिषियों से जनगण को बचने के लिये सत्योद्घाटन करना है. श्री महथा ने ज्योतिष को अंतरिक्षीय गृह-पथों कटन बिन्दुओं को गृह न मानने अथवा सभी ग्रहों के कटन बिन्दुओं को समान महत्व देकर गणना करने का ठोस तर्क देकर गत्यात्मक ज्योतिष प्रामाणिकता सिद्ध की है.
यह ग्रंथ जड़-चेतन, जीव-जंतु, मानव तथा उसके भविष्य पर सौरमंडल के ग्रहों की गति के प्रभावों का अध्ययन तथा विश्लेषण कर समयपूर्व भविष्यवाणी की आधार भूमि निर्मित करता हैA श्री महथा रचित आगामी ग्रन्थ उनके तथा सुशीला जी द्वारा विश्लेषित कुंडलियों के आँकड़े व् की गयी भविष्यवाणियों के विश्लेषण से गत्यात्मक ज्योतिष दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर लोकप्रियता अर्जित करेगा अपितु शिक्षित बेरोजगार युवा पीढ़ी अध्ययन, शोध और जीविकोपार्जन का माध्यम भी बनेगा, इसमें संदेह नहीं। मैं श्री विद्यासागर जी तथा संगीता जी के इस भगीरथ प्रयास का वंदन करते हुए सफलता की कामना करता हूँ.
९-९-२०१४
***

शिव भजन, शांति देवी वर्मा

सलिल सृजन सितंबर 

*

शिव भजन
स्मृतिशेष मातुश्री शांति देवी वर्मा
*
१ शिवजी की आई बारात
*
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
देखन चलिए, मुदित मन रहिए,
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
भूत प्रेत बैताल जोगिनी, खप्पर लिए हैं हाथ।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कानों में बिच्छू के कुंडल सोहें, कंठ सर्प की माल।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
अंग बभूत, कमर बाघंबर, नैना हैं लाल विशाल।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कर त्रिशूल-डमरू मन मोहे, नंदी करते नाच।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कर सिंगार भोला बन दूलह, चंदा सजाए माथ।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
'शांति' सफल जीवन कर दर्शन, करिए जय-जयकार।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
२ गिरिजा कर सोलह सिंगार
*
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
माँग में सेंदुर; भाल पे बिंदी, नैनन कजरा सजाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बेनी गूँथी मुतियन के संग; चंपा-चमेली महकाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बांह बाजूबंद हाथ में कंगन, नौलखा कंठ सुहाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
कानन झुमका; नाक नथनिया, बेसर हीरा भाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
कटि करधनिया; पाँव पैजनिया, घुँघुरु रतन जड़ाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बिछिया में मणि; मुंदरी नीलम, चलीं ठुमुक बल खाँय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
लहँगा लाल; चुनरिया नीली गोटा-जरी लगाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
ओढ़ चदरिया सात रंग की, शोभा बरनि न जाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
गजगामिन हौले पग धरतीं, मन ही मन मुस्कांय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
नत नयनों; बंकिम सैनों से, अनकहनी कँह जांय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
३ मोहक छटा पारवती-शिव की
*
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
ऊँचो तेरहो-मेढ़ो कैलाश परवत, बीच मां बहे गंग धार।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
शीश पे उमा के मुकुट सुहावे, भोले के जूट-रुद्राक्ष।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
माथे पे गौरी के सिंदूर बिंदिया, शंकर के भस्मी राख।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
सती के कानों में हीरक कुंडल, त्रिपुरारी के बिच्छू कान।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
कंठ शिवा के नौलख हरवा, नीलकंठ के नाग।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
हाथ अपर्णा के मुक्तक कंगन, डमरू साथ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
कुँवरि बदन केसर-कस्तूरी, महादेव तन राख।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
पहने भवानी नौ रंग चूनर, भोले बाघ की खाल।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
दुर्गा रचतीं सकल सृष्टि को, महानाशक महाकाल।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
भुवन मोहनी महामाया हैं, औघड़दानी हैं नाथ ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
'शांति' सार्थक जन्म दरस पा, सदय शिवा-शिव साथ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
४ भोले घर बाजे बधाई
*
मंगल बेला आई,
भोले घर बाजे बधाई.....
*
गौरा मैया ने लालन जनमे, गणपति नाम धराई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
द्वारे बंदनवार बँधे हैं, कदली खंब लगाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
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हरे-हरे गोबर इन्द्राणी आँगन लीपें, मुतियन चौक पुराई।
भोले घर बाजे बधाई.....
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स्वर्ण कलश ब्रह्माणी लिए हैं, चौमुख दिया जलाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
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लछमी जी पलना पौढ़ाएँ, झूलें गणेश सुखदाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
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नृत्य करें नटराज झूमकर, नारद वीणा बजाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
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देव-देवियाँ सोहर गावें, खुशियां त्रिभुवन छाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
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भले बाबा जोगी बैरागी, उमा लालन कहाँ से लाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
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सखियाँ सब मिल करें ठिठोली, उमा झेंप खिसियाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
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झूम हिमालय हवन कर रहे, मैना देव मनाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
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'शांति' गजानन दर्शन कर ले, सबरे पाप नसाई ।
भोले घर बाजे बधाई.....
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५ धूमधाम भोले के गाँव
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धूमधाम भोले के गाँव,
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कौन दिशा में?, कैसे जावें?, किते बसो भोले का गाँव ?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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उत्तर दिशा में कैलाश परवत, बर्फ बीच भोले का गाँव।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कौन के लालन किते भए हैं?, का है पिता को नाम?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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गौरा के सखी लालन भए हैं, शंकर पिता को नाम।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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किते डालो लालन को पलना, बँधी काए की डोर ।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कल्प वृक्ष पे झूला डालो है, अमरबेल की है डोर ।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कौन झुला कौन लोरी सुना रए?, कौन बलैंंया लेत?
चलो पाँव-पाँव सखी!
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शंकर झुला उमा लोरी सुनाएँ, नंदी बलैंया लेत।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कौन नाच रए झूम-झूम के, कहो पहिर मुंड माल?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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भूत पिशाच जोगिनी नाचें, पहिरे गले मुंड माल।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कौन चाह रए दर्शन पाएँ, कौन बाँच रए भाग?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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ब्रह्मा-शारद; विष्णु लक्ष्मी, बाँच नें पाएँ भाग।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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कौन कर्म-फल लिखे भाग में, किनकी कृपा अपार?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
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लिखे कर्म फल चित्रगुप्त प्रभु, रिद्धि-सिद्धि मिले अपार।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
धूमधाम भोले के गाँव,
चलो पाँव-पाँव सखी!.....

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