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सोमवार, 16 जनवरी 2023

कृष्ण, शिव, भवन निर्माण, वास्तु, नवगीत,


गोपाल पूर्वतापीयोपनिषद

ओम क्लीं कृष्णाय गोपीचंद्र वल्लभाय नम: स्वाहा।
*
योग हो सके सभी चाहते, चाहे कोई वियोग नहीं।
हमें सुलभ है योग न केवल, प्राप्य हुए योगेंद्र यहीं।।

बड़भागी हम रानी आईं, दर्शन देने धन्य प्रजा।
वसुधा पर फहराने आईं, सरला शारद धर्म ध्वजा।।

कृष्ण वही जो कृष न' कभी हो, कर आकृष्ट चित्त ले वह।
अनुपम अवसर सलिल करे, अभिषेक सके अब कोई न दह।।

गोपी सकल जीव हैं जग के, चंद केंद्र आकर्षक है।
वल्लभ प्राणों से भी प्रिय हैं, उससे कभी न हों वंचित।।

माया-मायापति अनन्य हैं, प्रिय दोनों को दोनों ही।
कोई किसी को न्यून न ज्यादा, दोनों को हों प्रिय हम भी।।
*
भाव-भावना सहित पूजिए, धर्म ज्ञान वैराग ऐश्वर्य।
दिशा अग्नि 'ऋत वायु ईश में, दें आहुति नाम लेकर।।

चौकी अठदल कमल पर रखें, कर आसीन पूजिए कृष्ण।
हृद सर शिखा नेत्र 'फट्' करिए, कभी न कोई रहे सतृष्ण।।
*
कहें प्रयोजन मंत्र-जाप का, ब्रह्मा से पूछें ऋषिजन।
क ल इ अनुस्वार से बने, जल भू अग्नि चंद्रमा भी।

सब मिलकर दिनकर बन पाया, पंचम पद जीवन दाता।।
कहें चन्द्रध्वज से ब्रह्मा जी, कर परार्ध जप रहता मैं।

विश्वेश्वर को नमन कीजिए, तभी धन्यता अनुभव हो।।

***
शिव दोहावली
शिव शंकर ओंकार हैं, नाद ताल सुर थाप।
शिव सुमरनी सुमेरु भी, शिव ही जापक-जाप।।
*
पूजा पूजक पूज्य शिव, श्लोक मंत्र श्रुति गीत।
अक्षर मुखड़ा अंतरा, लय रस छंद सुरीत।।
*
आत्म-अर्थ परमार्थ भी, शब्द-कोष शब्दार्थ।
शिव ही वेद-पुराण हैं, प्रगट-अर्थ निहितार्थ।।
*
तन शिव को ही पूजना, मन शिव का कर ध्यान।
भिन्न न शिव से जो रहे, हो जाता भगवान।।
*
इस असार संसार में, सार शिवा-शिव जान।
शिव में हो रसलीन तू, शिव रसनिधि रसखान।।
***
१६-१-२०१८ , जबलपुर
*
शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
***
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
दोहा दुनिया
***
लेख :
भवन निर्माण संबंधी वास्तु सूत्र
*
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार,
भवन निवेश वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख दे, यही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अंतर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से संबंध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश की दिशा, लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण- पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासंभव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मंदिर न हो। यदि शयन कक्ष में देव रखना आवश्यक हो तो उनके सम्मुख एक पर्दा लगा दें।
* वायव्य दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक संभावना होती है।अत:, अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष, निरुपयोगी पदार्थ, विक्रय सामग्री आदि वायव्य में हो। इस दिशा में तिजोरी, आभूषण, धन, पुत्र का कक्ष आदि न हो।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुंबक की तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक दिशा में हो तो उनसे निकलनेवाली चुंबकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण प्रगाढ़ निद्रा नहीं आएगी। फलतः, अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग हो सकते हैं। सोते समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक प्रभाव से बुद्धि का विकास होता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।
* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आईना ईशान दिशा में ही रखें, अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों। सीढ़ियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, मैले कपड़े वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केंद्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खंबा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगंधित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम की दीवारें अधिक मोटी हों। तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरणें तहखाने तक पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है। वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन-धान्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
***
नवगीत:
.
वह खासों में खास है
रूपया जिसके पास है
.
सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा
मेरी-तेरी खत कड़ी हो
पर उसकी होती पौ बारा
असहनीय संत्रास है
वह मालिक जग दास है
.
था तो वह सच का हत्यारा
लेकिन गया नहीं दुतकारा
न्याय वही, जो राजा करता
सौ ले दस देकर उपकारा
सीता का वनवास है
लव-कुश का उपहास है
.
अँगना गली मकां चौबारा
हर सूं उसने पैर पसारा
कोई फर्क न पड़ता उसको
हाय-हाय या जय-जयकारा
उद्धव का सन्यास है
सूर्यग्रहण खग्रास है
.
१६-१-२०१५

शनिवार, 14 जनवरी 2023

शोक गीत, जोशीमठ, दोहागीत,नवगीत, संक्रांति, सूरज

शोक गीत  
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
प्रकृति प्रेमी चेताते थे, हुआ प्रशासन था बहरा।
शासन ने भी बात न मानी, स्वार्थ-राज अंधा ठहरा।।
जंगल काट लिए धरती माँ का है चीर हरा तुमने।
कच्चे नए पहाड़ों की छाती छलनी की दानव ने।।
दुःशासन-शासन को तरस न आता किस्मत वाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
आँसू बहा रही हैं नदियाँ, चीख रहे पर्वत-टीले।
आर्तनाद करती है जनता, नयन सभी के हैं गीले।।
नेता-अफसर-सेठ काटते माल तिजोरी भरते हैं।
सरकारी धन चारा समझें, बेरहमी से चरते हैं।।
सपने टूट गए, सिर पीटें राहत के पैगाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
चेताया केदारनाथ ने, लेकिन तनिक नहीं चेते।
बना-बना सीमेंट कंठ गिरि-पर्वत के तुमने रेते।।
पॉवर प्लांट बना न्योता है खुद विनाश को तुमने ही।
बर्फ ग्लेशियर पिघल रहे, यह बतलाया इसरो ने भी।।
धँसती धरा' मशीन दानवी है अभिशाप अवाम पर। 
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
विस्फोटों से कँपी दिशाएँ, आसमान भी दहल गया।
भाषण-आश्वासन सुन भोला जनगण- जनमत बहल गया।।
बाँध-सुरंगों को रोको, भू संरक्षण तत्काल करो।
दूब-पौध से आच्छादित कर धरती को नवजीवन दो।।
पूर्ण नाश के पहले सम्हले, शासन जीवन-शाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
सकल हिमालय की घाटी पर खतरा कम मत आँको तुम।
दोष न औरों को दो, अपने अंतर्मन में झाँको तुम।।
जनगण मन ने किया भरोसा, सिसक रहा है ठगा गया।
गया पुराना भी हाथों से, आया हाथ विनाश नया।।
हाय राम! तुम चीख न सुनते, मुग्ध हुए श्री राम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
१४-१-२०२३
•••

करते न जो कहते तुम
कैसे भरोसा हो?
कहते न जो करते तुम।
जनता को दिया बिसार
अब दीख रहा तुमको
मनमानी में ही सार।
बेगानी है सरकार
*
किस्मत के भरोसे ही
आवाज दे रहे हैं
सुनते ही नहीं बहरे।
सुलझे कैसे तकरार
दूर न करते पीर
अनसुनी रही इसरार।
बेगानी है सरकार
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
लघुकथा -

संक्रांति
*
- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
**
नवगीत:
संजीव
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
६-१-२०१५
नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
*
रविवार, 4 जनवरी 2015
***
नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
२-१-२०१५
***

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

कृष्ण, अनिरुद्ध प्रसाद विमल, सोनिया वर्मा

अलग-अलग नज़रिए से रू-ब-रू करवाता काव्य" कृष्ण"- सोनिया वर्मा
*
कथा,कहानियों के पात्र कभी मरते नहीं हैं। कुछ लोग अपना जीवन इस तरह से जीते हैं जो समाज के लिए आदर्श स्थापित करे या यूं कहें कि समस्याओं का समाधान दें। हमारे भारत के इतिहास में ऐसे बहुत लोग हैं जो आज न होते हुए भी अपने विचारों, आदर्शों ,कर्तव्यों और उम्दा जीवनशैली के माध्यम से आज भी जीवित हैं और चिरकाल तक जीवित रहेंगे।
कुछ ऐसे भी लोग हुए जिन्होंने समाज को शिक्षित करने ,आदर्श स्थापित करने के लिए अपने जीवन को तपस्या बना दिया। मानव व समाज की भलाई के लिए आजीवन जूझते रहे ऐसा एक नाम ज़हन में आता है श्रीकृष्ण । श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं से युक्त हैं। यह चेतना का सर्वोच्च स्तर होता है। इसीलिए प्रभु श्रीकृष्‍ण जग के नाथ जगन्नाथ और जग के गुरु जगदगुरु कहलाते हैं।
कृष्ण के जीवन की सभी घटनाओं को लोग जानते है,समझते है और आवश्यकता अनुसार सीख भी लेते हैं,परन्तु इन्हीं घटनाओं को क्या कभी किसी ने कृष्ण के नज़रिये से सोचने या समझने का प्रयास किया है ? शायद नहीं।
"कृष्ण" अनिरुद्ध प्रसाद विमल जी द्वारा रचित प्रबंध काव्य है।विमल जी स्वयं मानते है कि कृष्ण के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखना आसान नहीं है फिर भी विमल जी ने एक प्रयास की है।
प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं।"कृष्ण" पुस्तक में कृष्ण के जीवन के वृतांत क्रमबद्ध है।जिससे यह प्रबंध काव्य का एक रूप महाकाव्य बनता है। महाकाव्य किसी महापुरुष के जीवन का वर्णन होता है।
श्रीकृष्ण, हिन्दू धर्म में भगवान हैं। वे विष्णु के 8वें अवतार माने गए हैं। कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता है। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तृत रूप से लिखा गया है।भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस उपदेश के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है।
"कृष्ण" पुस्तक में घटनाएं कृष्ण के जन्म से शुरू न होकर अंत से हो रहीं हैं क्योंकि कृष्ण अपने अंत समय में अपने पूरे जीवन के घटनाओं को स्मरण कर रहें हैं इसलिए घटनाओं का क्रम निश्चित नहीं हैं ।कृष्ण के लिए किसी का श्राप टालना या अंत करना बहुत कठिन नही था,परंतु समाज को समानता और निष्पक्ष दंड देने की सीख देने के लिए असहाय, दर्द को सहते कृष्ण सोचते है कि "माता गांधारी का यह शाप है या जन्मों का मिला कोई अभिशाप है सोचता हूँ फिर कभी मैं जिस कृष्ण ने असंभव को संभव किया नियति के हर दौर को निष्फल किया उसके लिये कहाँ कठिन था बदलना ऋषि दुर्वासा का श्राप या गांधारी का । इन यादवों का नाश भी अनिवार्य था राक्षस दुराचारियों की तरह ही ये मूर्ख , लंपट और दंभी हो गये थे सुरा - सुन्दरी में डूबकर ये मदमत्त प्रकृति के प्रतिकूल आचरण करने लगे थे निज अपनी प्रजा का बोझ बनकर रह गये थे ।"पृष्ठ 8
कृष्ण सत्य और धर्म की रक्षा के लिए मनुष्य को सदैव तत्पर रहने की सीख देने और इस राह में यदि आपके अपने भी हो तो उनको भी दंड बिना भेदभाव देने के लिए निम्न घटना के कारक बनते हैं... कृष्ण कहते हैं
"कि अन्याय , अधर्म , अहंकार के अंत के लिए ही कृष्ण का जन्म हुआ था यही मेरे जीवन का उद्देश्य भी रहा है । जिन आदर्शों की स्थापना के लिए कृष्ण ने अपनी देह का बूंद - बूंद रक्त बहाया वही आदर्श जब ढहने लगे थे अपने ही वंश वृक्ष के हाथों तो धर्म की रक्षा के लिये मुझे शस्त्र उठाना ही था चूँकि ये यह भी जानते थे कि मेरे सिवा इन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता मृत्यु नहीं दे सकता ।"पृष्ठ 10
कृष्ण जैसा योद्धा कोई नहीं हुआ जो कृष्ण के वंश या यादवों का सम्पूर्ण नाश कर सके इसलिए इनके दुराचारी होने पर स्वयं कृष्ण को यह करना पड़ा।इसके लिए कृष्ण मानते है कि उनका जन्म ही पापों और पापियों के नाश के लिए हुआ है नहीं तो आसमान से उन पर इतनी कृपा बाल्यकाल से ही क्यों बरसाती है ?
मानव या असुर बनना इंसान के हाथ में है ।जैसा आप चाहोगे वैसे बनोगे।मानव और असुर के व्यवहार का अंतर बताते हुए कृष्ण कहते है कि
"सच में मनुज है वही जो मनुज के काम आये सीख दे निज कर्म से जो कहे वह कर दिखाये , सिद्धान्त और व्यवहार दोनों हो मनुज का एक जैसा यही अंतर बनाता आदमी को है असुर- सा "।पृष्ठ 49
समय किसी के बांधने से नहीं बंधता और न ही रोकने से रूकता है ।मानव हो या देव या अन्य कोई जीव।जो जन्मा है उसका अंत होना ही है।इसे मनुष्य या कोई देव नही बदल सकता ...... "जो कृष्ण अपने समय का सूर्य था नर में नारायण था । जन मन का तारणहार हुआ कर संहार सारे दुष्कर्म का सृष्टि का पालनहार हुआ वही कृष्ण आज सचमुच कितना लाचार है । हाय , कितना लाचार है यह कृष्ण"। पृष्ठ 55
सर्वशक्तिमान होते हुए भी कृष्ण आज स्वयं को लाचार महसूस कर रहे हैं । चाह कर भी कुछ कर नही पा रहें हैं।जिससे वह संसार को यही सीख दे रहें हैं कि
"संसार में रहो जरूर पर अनासक्त होकर रहो त्याग का अर्थ है निष्काम कर्म करते रहो ।" पृष्ठ 58
कर्म कर फल की इच्छा मत कर हो या नेकी कर दरिया में डाल जैसी लोकोक्ति निष्काम कर्म के लिए ही कही गयी है।थोड़े फायदे की चाह में मनुष्य जन्म-जन्मांतर के बंधन में बंधता चला जाता है।पुत्र को बुढ़ापे की लाठी मान लेना , दोस्तों से सहयोग की अपेक्षा करना जैसे बंधन दुख का कारण बन जाते है ।मन चाहा प्राप्त न होने पर रोष,दुख व अवसाद का जन्म होता है।आवश्यकता से अधिक और चादर से ज्यादा पैर फैलाने का परिणाम कभी अच्छा नही होता । परन्तु मनुष्य तो मनुष्य है , इसे दिखावे की ज़िंदगी ही रास आती है चाहे परिणाम कुछ भी हो। संसार में स्त्री आदर की पात्र है स्त्री से ही सृष्टि है होती है जहाँ पूजा स्त्री की देवत्व का वास होता है स्त्रियों के सम्मान के लिए कृष्ण वस्त्र चोर तक कहलाएँ ।जिसका वास्तविक कारण निम्न हैं ....कृष्ण के जीवन की इक घटना से हमे यह सीख मिलती हैं
जरूरत से ज़्यादा कुछ भी लेगा पड़ लोभ , स्वार्थ के वशीभूत शोषण - दोहन करेगा उस दिन मनुज सच में अपने ही हाथों अपना नाश करेगा ।
सीख दी थी गोपिकाओं को साथ - साथ जगत को भी कि जल में निर्वस्त्र नहाना अपराध है । गोपियों के इस कथन के उत्तर में “ कि यहाँ तो कोई नहीं था " आपने कहा था- 'कैसे नहीं था कोई ' यमुना तो थी , यमुना का जल तो था जानती हो तुम सभी अनजान बिल्कुल हो नहीं कण - कण में ब्रह्म का वास है जड़ - चेतन सब में बसते हैं प्रभु ।पृष्ठ 65
नवयुवाओं को कदम-क़दम पर नया-नया पाठ कृष्ण सीखाते रहें हैं । जो जिस तरह से चाहे ग्रहण करें।इससे मनुष्यों की हानि नहीं होगी ।अकारण कोई आपके जीवन में दखल दे तो उसकी मंशा सही नही हैं यही सीख समाज को देने के लिए कृष्ण कहते हैं कि जिस तरह गांधारी अपने सौ पुत्रों का वध का कारण मुझे मानती थी परंतु मैं तो निमित्त मात्र हूँ और कौरवों के विनाश का बीज तब ही रोपित हुआ था जब शकुनि बेवज़ह आकर रहने लगा था।हमारी सभ्यता यह है कि "घर में अतिथि का निरुद्देश्य ठहरना सभ्य समाज में , सभ्य घरों में , सुसंस्कृत वंश में उचित नहीं समझा जाता है कभी ।"पृष्ठ96
पीड़ित, दर्द से कराहते कृष्ण को फिर अपनी सखी के साथ घटित घटना विचलित करने लगती है।उनका मानना है कि ऐसे वीरों का नाश हो जाना ही चाहिए जो मौन अनाचार देखें या सहें...
"जब विवेक ही मर गया था तो सच में जीवित ही कोई कहाँ था नारी अपमान देखकर जो रहा खड़ा अधर्म के पक्ष में ऐसी वीरता का शमन हो जाना ही उचित था।"पृष्ठ 104
राष्ट्रवाद को भूलकर जब शासक शोषक बन जाए ।राष्ट्रधर्म को भूलकर राजनीति के दल-दल में धँसता जाए तो उस राष्ट्र का उत्थान संभव नहीं। यही कृष्ण भी कहते है किः-
"मैंने सच में कुछ भी नहीं किया था जहाँ राष्ट्र सर्वोपरि होना चाहिए वहाँ ये सभी सिंहासन से चिपक गये थे राष्ट्रवाद से व्यक्तिवाद , वंशवाद जब - जब प्रमुख होगा लहू के दलदल में किसी भी राष्ट्र का रथ ऐसे ही फँसेगा।"पृष्ठ108
कृष्ण भविष्य-दृष्टा तो थे ही तभी तो एक राज्य का कैसे उत्थान होगा? राजा का व्यवहार कैसा हो? किन -किन को संरक्षण दिया जाएँ?आदि ऐसे सभी आवश्यक तथ्यों पर कृष्ण प्रकाश डाले हैं। कृषकों के लिए राज्य कोष हमेशा खुला रहना चाहिए वे अन्नदाता है इनकी उपेक्षा खात्मे की ओर ले जाएगी। ऐसा कृष्ण विचार कर रहें है ....
"प्रजा का दुख राजा का दुख होगा ताप त्रय तीनों का भागी राजा होगा , जन - जन के हित अधिकारों की रक्षा राजा अर्पित कर प्राण करेगा । है कृषकों का देश यह हमारा भारतवर्ष रात - दिन वे करते हैं उपज का काम अन्नदाता हैं कृषक खेतों में खटते अविराम कोष राज्य का खुला रहेगा उनके लिए सहर्ष"।पृष्ठ109
संसार नश्वर है।व़क्त किसी के लिए नहीं रुकता।हर एक जीव को गिनती की साँसें मिली हैं।आप जो करोंगे जैसा करोंगे वैसा ही पाओंगे।प्रकृति के नियम कोई नहीं बदल सकता।फिर घुट-घुट कर क्यों जीना। प्रेम से रहो,प्रेममय जीवन जियो।प्रेम से हर समस्या का समाधान संभव है।कृष्ण आज राधा कि इक झलक पाने के लिए अंत समय उसकी प्रतिक्षा में व्यतित कर रहे है।प्रेम में लेनदेन नहीं होता यह तो निश्छल होता है।जब लेनदेन हो तो प्रेम व्यापार बन जाता है।
"यह चिरन्तन शाश्वत सत्य सार्वभौम , सार्वजन्य कि प्रेम सबकुछ सह सकता है आँसू नहीं सह सकता है । और तुमने पोंछ लिया था अपनी आँखों से बहती अविरल अश्रुधारा को यह कहते हुए अब ये आँसू कभी नहीं बहेंगे । क्या सचमुच तुम्हारा यह ऋण मैं कभी चुका सकूँगा मानवीय मूल्यों के लिए किया गया एक नारी का यह त्याग संसार के लिए मानवता के लिए ऋण ही तो है।"पृष्ठ 130
"कृष्ण" काव्य हमें, घटनाओं को अलग-अलग पहलुओं से देखने और सोचने पर बाध्य करता हैं।इसे पढ़ते व़क्त हमने यह महसूस किया कि किसी भी परिस्थिति में हार न मानकर उसका हल खोजने का प्रयास करें सफलता अवश्य मिलेगी। कृष्ण की सभी लीलाओं को अगर जीवन से जोड़े तो हर समस्या का समाधान अवश्य मिलेगा।अगर आप कृष्ण के नज़रिए से उनके जीवन की घटनाओं को समझना चाहते हैं तो इस पुस्तक को आपको अवश्य पढ़ना चाहिए।सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा जो कृष्ण ने समाज को दी वह है प्रेम की। सच्चा प्रेम मोह - माया से परे होता हैं आप कृष्ण को पढ़ेंगें तो जान पाएँगे।पुस्तक की भाषा सरल व सहज है ।घटनाओं का क्रम पाठक को बांधें रखता है। नगन्य के बराबर प्रिंटिंग की त्रुटियाँ हैं।पुस्तक का कवर बहुत सुन्दर और नाम को सार्थक करता हुआ है।छपाई भी बहुत अच्छी है इसके लिए श्वेतवर्णा प्रकाशन को बहुत
बधाई
कृष्ण के जीवन को अलग नज़रिए से पेश करने के लिए आदरणीय अनिरुद्ध प्रसाद विमल जी को भी
बधाई
और शुभकामना।
समीक्ष्य पुस्तकः- कृष्ण
विधाः- प्रबंध काव्य
रचनाकारः- अनिरुद्ध प्रसाद विमल
प्रकाशकः-श्वेतवर्णा प्रकाशन
संस्करणः- प्रथम(2021)
मूल्यः- Rs.160
पृष्ठः- 136

सॉनेट, दोहे, गीत, तुम, मुक्तिका, समीक्षा, तुहिना, नवगीत, लघुकथा, हास्य हाइकु मन्वन्तर

सॉनेट
चमन
*
चमन में साथी! अमन हो।
माँ धरित्री को नमन कर।
छत्र निज सिर पर गगन कर।।
दिशा हर तुझको वसन हो।।
पूर्णिमा निशि शशि सँगाती।
पवन पावक सलिल सूरज।
कह रहे ले ईश को भज।।
अनगिनत तारे बराती।
हर जनम हो श्वास संगी।
जिंदगी दे यही चंगी।
आस रंग से रही रंगी।।
न मन यदि; फिर भी नमन कर।
जगति को अपना वतन कर।
सुमन खिल; सुरभित चमन कर।।
१५-४-२०२२
•••
***
प्यार के दोहे:
तन-मन हैं रथ-सारथी:
*
दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार।
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार।।
*
प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार।
हो तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार।।
*
बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार।
बिन मन के तन को नहीं, कर पाते स्वीकार।।
*
दो अपूर्ण मिल एक हों, तब हो पाते पूर्ण।
अंतर से अंतर मिटे, हों तब ही संपूर्ण।।
*
जब लेते स्वीकार तब, मिट जाता है द्वैत।
करते अंगीकार तो, स्थापित हो अद्वैत।।
*
नर से वानर जब मिले, रावण का हो अंत.
'सलिल' न दानव मारते, कभी देव या संत..
*
अक्षर की आराधना, हो जीवन का ध्येय.
सत-शिव-सुन्दर हो 'सलिल', तब मानव को ज्ञेय..
*
सत-चित-आनंद पा सके, नर हो अगर नरेन्द्र.
जीवन की जय बोलकर, होता जीव जितेंद्र..
१५-४-२०१०
*
***
गीत
तुम
*
तुम हो या साकार है
बेला खुशबू मंद
आँख बोलती; देखती
जुबां; हो गई बंद
*
अमलतास बिंदी मुई, चटक दहकती आग
भौंहें तनी कमान सी, अधर मौन गा फाग
हाथों में शतदल कमल
राग-विरागी द्वन्द
तुम हो या साकार है
मद्धिम खुशबू मंद
*
कृष्ण घटाओं बीच में, बिजुरी जैसी माँग
अलस सुबह उल्लसित तुम, मन गदगद सुन बाँग
खनक-खनक कंगन कहें
मधुर अनसुने छंद
तुम हो या साकार है
मनहर खुशबू मंद
*
पीताभित पुखराज सम, मृदुल गुलाब कपोल
जवा कुसुम से अधरद्वय, दिल जाता लख डोल
हार कहें भुज हार दो
बनकर आनंदकंद
तुम हो या साकार है
मन्मथ खुशबू मंद
१५.४.२०१९

*** 

मुक्तिका
*
कर्ता करता
भर्ता भरता।

इनसां उससे
रहता डरता।

बिन कारण जो
डरता; मरता।

पद पाकर क्यों
अकड़ा फिरता?

कह क्यों पर का
दुख नहिं हरता।

तारे कैसे
आप न तरता।

पीले पत्ते
जैसे झरता।
***
कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश : जड़ों से जुड़ाव अशेष
तुहिना वर्मा
*
[कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', आई.एस.बी.एन. ९७८-९३-५४८६-७६३-७, प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.X१४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी लेमिनेटेड, पृष्ठ ४७, मूल्य १५०/-, डायमंड बुक्स नई दिल्ली, संपादक संपर्क ९४२५१८३२४४।]
*
लोककथाएँ लोक अर्थात जनसामान्य के सामुदायिक, सामाजिक, सार्वजनिक जीवन के अनुभवों को कहनेवाली वे कहानियाँ हैं जो आकार में छोटी होती हुए भी, गूढ़ सत्यों को सामने लाकर पाठकों / श्रोताओं के जीवन को पूर्ण और सुंदर बनाती हैं। आम आदमी के दैनंदिन जीवन से जुड़ी ये कहानियाँ प्रकृति पुत्र मानव के निष्कपट और अनुग्रहीत मन की अनगढ़ अभिव्यक्ति की तरह होती हैं। प्राय:, वाचक या लेखक इनमें अपनी भाषा शैली और कहन का रंग घोलकर इन्हें पठनीय और आकर्षक बनाकर प्रस्तुत करता है ताकि श्रोता या पाठक इनमें रूचि लेने के साथ कथ्य को अपने परिवेश से जुड़कर इनके माध्यम से दिए गए संदेश को ग्रहण कर सके। इसलिए इनका कथ्य या इनमें छिपा मूल विचार समान होते हुए भी इनकी कहन, शैली, भाषा आदि में भिन्नता मिलती है।
भारत के प्रसिद्ध प्रकाशन डायमंड बुक्स ने भारत कथा माला के अंतर्गत लोक कथा माला प्रकाशित कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। देश में दिनों-दिन बढ़ती जा रही शहरी अपसंस्कृति और दूरदर्शन तथा चलभाष के आकर्षण से दिग्भ्रमित युवजन आपकी पारंपरिक विरासत से दूर होते जा रहे हैं। पारम्परिक रूप से कही जाती रही लोककथाओं का मूल मनुष्य के प्रकृति और परिवार से जुड़ाव, उससे उपजी समस्याओं और समस्याओं के निदान में रहा है। तेजी से बदलती जीवन स्थितियों (शिक्षा, आर्थिक बेहतर, यान्त्रिक नीरसता, नगरीकरण, परिवारों का विघटन, व्यक्ति का आत्मकेंद्रित होते जाना) में लोककथाएँ अपना आकर्षण खोकर मृतप्राय हो रही हैं। हिंदी के स्थापित और नवोदित साहित्यकारों का ध्यान लोक साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की ओर न होना भी लोक साहित्य के नाश में सहायक है। इस विषम स्थिति में प्रसिद्ध छन्दशास्त्री और समालोचक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा संपादित ''२१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ' मध्यप्रदेश'' का डायमंड बुक्स द्वारा प्रस्तुत किया जाना लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने का सार्थक प्रयास है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
यह संकलन वस्तुत: मध्यप्रदेश के वनवासी आदिवासियों में कही-सुनी जाती वन्य लोककथाओं का संकलन है। पुस्तक का शीर्षक ''२१ श्रेष्ठ आदिवासी लोककथाएँ मध्य प्रदेश'' अधिक उपयुक्त होगा। पुस्तक के आरंभ में लेखक ने लोककथा के उद्भव, प्रकार, उपयोगिता, सामयिकता आदि को लेकर सारगर्भित पुरोवाक देकर पुस्तक को समृद्ध बनाने के साथ पाठकों की जानकारी बढ़ाई है। इस एक संकलन में में १९ वनवासी जनजातियों माड़िया, बैगा, हल्बा, कमार, भतरा, कोरकू, कुरुख, परधान, घड़वा, भील, देवार, मुरिया, मावची, निषाद, बिंझवार, वेनकार, भारिया, सौंर तथा बरोदिया की एक-एक लोककथाएँ सम्मिलित हैं जबकि सहरिया जनजाति की २ लोककथाएँ होना विस्मित करता है। वन्य जनजातियाँ जिन्हें अब तक सामान्यत: पिछड़ा और अविकसित समझा जाता है, उनमें इतनी सदियों पहले से उन्नत सोच और प्रकृति-पर्यावरण के प्रति सचेत-सजग करती सोच की उपस्थिति बताती है कि उनका सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। सलिल जी का यह कार्य नागर और वन्य समाज के बीच की दूरी को कम करने का महत्वपूर्ण प्रयास है।
माड़िया लोककथा 'भीमदेव' में प्रलय पश्चात् सृष्टि के विकास-क्रम की कथा कही गयी है। बैगा लोककथा 'बाघा वशिष्ठ' में बैगा जनजाति किस तरह बनी यह बताया गया है। 'कौआ हाँकनी' में हल्बा जनजाति के विकास तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कमार लोककथा 'अमरबेल' में उपयोग के बाद वृक्षों पर टाँग दिए जनेऊ अमरबेल में बदल जाने की रोचक कल्पना है। बेवफा पत्नी और धोखेबाज मित्र को रंगरेली मानते हुए रंगेहाथ पकड़ने के बाद दोनों का कत्ल कर पति ने वन में दबा दिया। बरसात बाद उसी स्थान पर लाल-काले रंग के फूलवाला वृक्ष ऊगा जिसे परसा (पलाश) का फूल कहा गया। यह कहानी भतरा जनजातीय लोक कथा 'परसा का फूल' की है। कोरकू लोककथा 'झूठ की सजा' में शिववाहन नंदी को झूठा बोलने पर मैया पार्वती द्वारा शाप दिए जाने तथा लोक पर्व पोला मनाये जाने का वर्णन है। कुरुख जनजातीय लोक कथा 'कुलदेवता बाघ' में मनुष्य और वन्य पशुओं के बीच मधुर संबंध उल्लेखनीय है। 'बड़ादेव' परधान जनजाति में कही जानेवाली लोककथा है। इसमें आदिवासियों के कुल देव बड़ादेव (शिव जी) से आशीषित होने के बाद भी नायक द्वारा श्रम की महत्ता और समानता की बात की गयी है। अकाल के बाद अतिवृष्टि से तालाब और गाँव को बचाने के लिए नायक झिटकू द्वारा आत्मबलिदान देने के फलस्वरूप घड़वा वनवासी झिटकू और उसकी पत्नी मिटको को लोक देव के रूप में पूजने की लोककथा 'गप्पा गोसाइन' है। भीली लोककथा 'नया जीवन' प्रलय तथा उसके पश्चात् जीवनारंभ की कहानी है।
देवार जनजाति की लोककथा 'गोपाल राय गाथा' में राजभक्त महामल्ल गोपालराय द्वारा मुगलसम्राट द्वारा छल से बंदी बनाये गए राजा कल्याण राय को छुड़ाने की पराक्रम कथा है। कहानी के उत्तरार्ध में गोपालराय के प्रति राजा के मन में संदेह उपजाकर उसकी हत्या किए जाने और देवार लोकगायकों द्वारा गोपालराय के पराक्रम को याद को उसने वंशज मानने का आख्यान है। मुरिया जनजातीय लोककथा 'मौत' में सृष्टि में जीव के आवागमन की व्यवस्था स्थापित करने के लिए भगवन द्वारा अपने ही पुत्र मृत्यु का विधान रचने की कल्पना को जामुन के वृक्ष से जोड़ा गया है। 'राज-प्रजा' मावची लोककथा है। इसमें शर्म की महत्ता बताई गए है। 'वेणज हुए निषाद' इस जनजाति की उत्पत्ति कथा है। मामा-भांजे द्वारा अँधेरी रात में पशु के धोखे में राजा को बाण से बींध देने के कारण उनके वंशज 'बिंझवार' होने की कथा 'बाण बींध भए' है। 'धरती मिलती वीर को' वेनकार लोककथा है जिसमें पराक्रम की प्रतिष्ठा की गयी है। भरिया जनजाति में प्रचलिटी लोककथा 'बुरे काम का बुरा नतीजा' में शिव-भस्मासुर प्रसंग वर्णित है। सहरिया जनजाति के एकाकी स्वभाव और वन्य औषधियों की जानकारी संबंधी विशेषता बताई गयी है 'अपने में मस्त' में। 'शंकर का शाप' लोककथा आदिवासियों में गरीबी और अभाव को शिव जी की नाराजगी बताती है। सौंर लोककथा 'संतोष से सिद्धि' में भक्ति और धीरज को नारायण और लक्ष्मी का वरदान बताया गया है। संग्रह की अंतिम लोककथा 'पीपर पात मुकुट बना' बरोदिया जनजाति से संबंधित है। इस कथा में दूल्हे के मुकुट में पीपल का पत्ता लगाए जाने का कारन बताया गया है।
वास्तव में ये कहानियाँ केवल भारत के वनवासियों की नहीं हैं, विश्व के अन्य भागों में भी आदिवासियों के बीच प्रलय, सृष्टि निर्माण, दैवी शक्तियों से संबंध, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को कुलदेव मानने, मानव संस्कृति के विस्तार, नई जातियाँ बनने,पराक्रमी-उदार पुरुषों की प्रशंसा आदि से जुड़ी कथाएँ कही-सुनी जाती रही हैं।
संभवत: पहली बार भारत के मूल निवासी आदिवासी की लोककथाओं का संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन की विशेषता है की इसमें जनजातियों के आवास क्षेत्र आदि जानकारियाँ भी समाहित हैं। लेखक व्यवसाय से अभियंता रहा है। अपने कार्यकाल में आदिवासी क्षेत्रों में निर्माण कार्य करते समय श्रमिकों और ग्रामवासियों में कही-सुनी जाती लोक कथाओं से जुड़े रहना और उन्हें खड़ी हिंदी में इस तरह प्रस्तुत करना की उनमें प्रकृति-पर्यावरण के साथ जुड़ाव, लोक और समाज के लिए संदेश, वनावासियों की सोच और जीवन पद्धति की झलक समाहित हो, समय और साहित्य की आवश्यकता है। इन कहानियों के लेखक का यह प्रयास पाठकों और समाजसेवियों द्वारा सराहा जाएगा। प्रकाशक को और पुस्तकें सामने लाना चाहिए।
***
संपर्क : ०२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश।
***
नवगीत

ओढ़ कुहासे की चादर

ओढ़ कुहासे की चादर
धरती लगाती दादी।
ऊंघ रहा सतपुड़ा,
लपेटे मटमैली खादी...

सूर्य अंगारों की सिगड़ी है,
ठण्ड भगा ले भैया।
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...

कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...

नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके।
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...

भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला।
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फंसा- फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...

बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है।
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...

हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा।
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा।
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
१६-१-२००९

***

दोहा सलिला 
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य. 
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य.. 
*
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश. 
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश.. 
*
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म. 
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
७-१-२००९ 

***

लघु कथा
ज़हर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमीने पूछा।
--'क्यों अभी कटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ?, आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है तो किसी आदमी को काटता, तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त कह ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमती जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
******द्विपदी 
ऐ 'सलिल' तू दिल को अब मजबूत कर ले।
आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए॥
***
नवगीत :
रार ठानते
*
कल जो कहा
न आज मानते
याद दिलाओ
रार ठानते
*
दायें बैठे तो कुछ कहते
बायें पैठे तो झुठलाते
सत्ता बिन कहते जनहित यह
सत्ता पा कुछ और बताते
तर्कों का शीर्षासन करते
बिना बात ही
भृकुटि तानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
मत पाने के पहले थे कुछ
मत पाने के बाद हुए कुछ
पहले कभी न तनते देखा
नहीं चाहते अब मिलना झुक
इस की टोपी उस पर धरकर
रेती में से
तेल छानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
जनसेवक मालिक बन बैठे
बाँह चढ़ाये, मूँछें ऐंठे
जितनी रोक बढ़ी सीमा पर
उतने ही ज्यादा घुसपैठे
बम भोले को भुला पटल बम
भोले बन त्रुटि
नहीं मानते
कल जो कहा
न आज मानते
*

हास्य हाइकु
मन्वन्तर
*
कैसा है भारत
जिसमें रोज होता
महाभारत?

पाक नापाक
न घुसे कश्मीर में
के दो लाक।

कौन सा कोट
न पहने आदमी?
है पेटीकोट।
१६-५-२००९
***