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शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

लेख सामाजिक समरसता

लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।
देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था।
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।
ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
३-९-२०१६ 
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संपर्क- समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, चललेख salil.sanjiv@gmail.com
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नवगीत

नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
१-९-२०१६
१३.००
गोरखपुर दन्त चिकित्सालय

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
मौत उजाले की होती
कब-किसने देखी?
सौत अँधेरी रात
हमेशा रही अदेखी।
किस्मत जुगनू सी
टिमटिम कर राह दिखाती।
शरत चाँदनी सी मंज़िल
पथ हेर लुभाती।
दौड़ा लपका हाथ बढ़ा
कर लूँ कुड़माई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
अपने सपने
पल भर में नीलाम हो गये।
नपने बने विधाता
काहे वाम हो गये?
को पूछे किससे, काहे
कब, कौन बताये?
किस्से दादी संग गये
अब कौन सुनाये?
पथवारी मैया
लगती हैं गैर-पराई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
३-९-२०१५
*

दोहा मुक्तिका

 दोहा मुक्तिका:

आशा जिसके साथ हो, तोड़ निराशा-पाश
पा सकता है एक को, फेंट मुश्किलें-ताश
*
धरती पर पग भले हों, निकट लगे आकाश
जब-जब होता सन्निकट, 'सलिल' संग कैलाश
*
जब कथनी को भूल मन, वर लेता मन 'काश'
तज यथार्थ को कल्पना, करे समय का नाश
*
ढोता है आतंक की, जब-जब मजहब लाश
पाखंडों का हो तभी, जग में पर्दाफाश
*
नफरत के सौदागरों, तज तम गहो प्रकाश
अगर न सुधरे सुनिश्चित, होगा सत्यनाश
३-९-२०१५
***

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
३-९-२०१४
*

दोहा-दोहा यमकमय

दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
संजीव
*
चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
*
नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
३-९-२०१३
*

गणेश कजरी

श्री गणेश वंदना
संजीव 'सलिल'
*
कजरी गीत:१
भोला-भोला गणपति बिसरत नहीं, गौरा के लाला रे भोला.
भोला-भोला सुमिरत टेर रहे हम, दरसन दे दो रे भोला.
भोला-भोला नन्दी सेर मूस पर चढ़कर आओ रे भोला.
भोला-भोला कहाँ गजानन बिलमे, कहाँ षडानन रे भोला.
भोला-भोला ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी संग, आके न जाओ रे भोला.
भोला-भोला भ्रस्ट असुर नेतागण, गणपति मारें रे भोला.
भोला-भोला मोदक थाल धरे, कर ग्रहण विराजो रे भोला.
*
कजरी गीत:२
हरि-हरि जय गनेस के चरना, दीन के दानी रे हरि.
हरि-हरि मंगलमूर्ति गजानन, महिमा बखानी रे हरि.
हरि-हरि विद्या-बुद्धि प्रदाता, युक्ति के ज्ञानी रे हरि.
हरि-हरि ध्यान धरूँ नित तुमरो, कथा सुहानी रे हरि.
हरि-हरि मार रही मँहगाई, कठिन निभानी रे हरि.
हरि-हरि चरण पखार तरे, यह 'सलिल' सा प्राणी रे हरि.
३-९-२०११ 
*

आँखों में तैरते अक्स / 'आई फ्लोटर्स'

स्वास्थ्य सलिला
आँखों में तैरते अक्स / 'आई फ्लोटर्स'
*
आई फ्लोटर्स आँखों के भीतर घूमते हुए छोटे धब्बे हैं, जो अचानक किसी भी समय आँखों के आगे आ जाते हैं। जिससे कुछ पलों के लिए दृश्‍यता बाधित होती है। यह आँखों के सामने त‍ब आते हैं जब आप सफेद कागज पर लिखा कुछ पढ़ रहे होते हैं या नीला आसमान देख रहे होते हैं। इसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए।

आई फ्लोटर्स क्यों बनते हैं? जब हम पैदा होते हैं तब हमारी आंखों में विट्रीस जैल के रूप में स्थिर होते हैं। युवा होने तक यह आंखों में जैल के रूप में ही स्थिर रहते हैं। पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है यह जैल घुलकर द्रव रूप में फैलने लगता है। जैल के जो तत्‍व पूरी तरह से घुल नहीं पाते वे छोटे-छोटे फ्लोटर्स का रूप ले लेते हैं। कई बारे ये पतले रेशे जैसे होते हैं, तो कभी वृत्‍ताकार और कभी मकड़ी के जाले की शेप में। यही जब तैरकर रेटिना के एरिया में आ जाते हैं तो दृश्‍यता बाधित करते हैं।

जीवनशैली में बदलाव करके आई फ्लोटर्स का इलाज किया जा सकता है। इसे कम करने के लिए टीवी देखना और कंप्यूटर पर काम कम करना चाहिए। अच्‍छी नींद आई फ्लोटर्स को दूर करने में मददगार साबित होती है। अल्कोहल का आँखों पर बुरा असर पड़ता है। इनका सेवन बंद करने की कोशिश करें। आई फ्लोटर्स दूर करने के लिए फल और हरी सब्जियों को अपनी खुराक में शामिल करें। चाय की जगह ग्रीन टी का सेवन करें। आँखों के व्यायाम करके भी आई फ्लोटर्स का इलाज किया जा सकता है। अपनी आँखों को गोलाकार मुद्रा में घड़ी के काँटों की दिशा में और फि‍र विपरीत दिशा में घुमाइए। दिन में कम से कम दस बार यही मुद्रा दोहराएँ। दोनों हथेलियों को रगडें और इनसे अपनी आँखों को ढकें। हथेलियों द्वारा पैदा की जाने वाली प्राकृतिक ऊर्जा तनाव को दूर करती है और थकी हुई आँखों को राहत मिलती है।

हाथों को पूरी लंबाई में खींच कर जितनी दूरी बने उतनी दूरी पर पेन या पेंसिल आंखों के सामने रखें। पेंसिल पर ध्यान केन्द्रित करें और धीरे-धीरे इसे आँखों की तरफ खींचें। फिर पीछे की तरफ ले जाएं। निरंतर पेंसिल पर नज़र टिकाये रखें। इस क्रिया को ५  मिनट रोजाना करें। इससे आपको आई फ्लोटर्स की समस्या से निजात मिलेगी।

रोग ज्यादा पुराना हो गया है तो इसके इलाज के लिए मुख्य रूप से दो सर्जिकल तरीके हैं। विट्रोक्टॉमी में विट्रोस ह्यूमर को हटाने के लिए शामिल ‎होता है जहां फ्लोटर्स बनते हैं। सर्जन एक खोखली सुई को सम्मिलित करता है और विट्रीस ह्यूमर निकालता है जिसे ‎नमक के पानी के घोल से बदल दिया जाता है। सर्जरी के बाद, डॉक्टर एक तेल के बुलबुले को इंजेक्ट करता है जो आंख ‎की दीवार के खिलाफ रेटिना को धकेलता है। हालांकि यह प्रक्रिया फ्लोटर्स को पूरी तरह से हटा नहीं सकती है लेकिन ‎फ्लोटर्स की संख्या कम हो जाएगी।

लेज़र उपचार द्वारा फ्लोटर्स के टूटने की सिफारिश कई ऑप्टोमोलॉजिस्ट द्वारा की गई है। लेज़र ‎को येट्रियम-एल्युमिनियम-गार्नेट लेज़र कहा जाता है और इसका उपयोग ‎विटेरोलिसिस नामक प्रक्रिया में किया जाता है, जिससे आंखों के भीतर फ्लोटर्स को वाष्पीकृत किया ‎जा सके। सर्जरी होने से पहले, आंख में सुन्नता लाने के लिए एक आई ड्रॉप प्रदान किया जाता है, और एक विशेष संपर्क ‎लेंस को आंख के ऊपर रखा जाता है। फिर लेजर बीम का उपयोग फ्लोटर्स को वाष्पीकृत करने के लिए किया जाता है।

स्वस्थ आहार को बनाए रखने और विभिन्न सर्जिकल उपचारों से गुजरने की तुलना में इन विट्रो हास्य में ‎फ्लोटर्स के विकास को रोकने के लिए शारीरिक व्यायाम करने की अनुशंसा की जाती है।

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

हरतालिका तीज, गणेश चतुर्थी

पर्व: 
हरतालिका तीज : क्यों और कैसे
*
 प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सौभाग्यवती स्त्रियों का यह पवित्र पर्व आता है। इस दिन निर्जल रहकर व्रत किया जाता है। इस दिन विवाहित महिलाएँ अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं तथा अविवाहिता कन्याएँ अच्छा वर पाने की कामना से यह व्रत रखती हैं। हरतालिका तीज में भगवान शिव और माता पार्वती की विधि-विधान से पूजा की जाती है। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को आने वाले तीज व्रत की भारतीय महिलाओं के सबसे कठिन व्रतों में गिनती होती है।  यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश समेत कई उत्तर-पूर्वीय राज्यों में श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है।

हरतालिका तीज पर भगवान शिव, माता पार्वती तथा भगवान श्री गणेश की पूजा-अर्चना की जाती है। हरतालिका व्रत निराहार और निर्जला रहकर किया जाता है। मान्यतानुसार इस व्रत के दौरान महिलाएँ सुबह से लेकर अगले दिन सुबह सूर्योदय तक जल ग्रहण तक नहीं कर सकतीं। 
संक्षिप्त विधि
१. हरतालिका तीज में श्रीगणेश, भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है।
२. सबसे पहले मिट्टी से तीनों की प्रतिमा बनाएँ और भगवान गणेश को तिलक करके दूर्वा अर्पित करें।
३. इसके बाद भगवान शिव को फूल, बेलपत्र और शमी पत्र अर्पित करें और माता पार्वती को श्रृंगार समर्पित करें।
४. तीनों देवताओं को वस्त्र अर्पित करने के बाद हरतालिका तीज व्रत कथा सुनें या पढ़ें।
५. इसके बाद श्री गणेश की आरती करें और भगवान शिव और माता पार्वती की आरती उतारने के बाद भोग लगाएँ।
हरतालिका तीज के मंत्र-
* 'उमामहेश्वरसायुज्य सिद्धये हरितालिका व्रतमहं करिष्ये'
* कात्यायिनी महामाये महायोगिनीधीश्वरी
नन्द-गोपसुतं देवि पतिं में कुरु ते नम:
* गण गौरी शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकर प्रिया।
मां कुरु कल्याणी कांत कांता सुदुर्लभाम्।।
* ॐ पार्वतीपतये नमः
***
गणेश चतुर्थी 
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मिट्टी से विघ्नेश गणेश जी की प्रतिमा बनाकर हरित दूर्वा के २१ अंकुर लेकर दो-दो को एक साथ  निम्न नामों के साथ प्रणाम कर अर्पित करें। 
ॐ गणाधिपतये नम:  
ॐ गौरीसुवनाय नम: 
ॐ अघनाशकाय नम: 
ॐ एकदंताय नम: 
ॐ शिवपुत्राय नम: 
ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नम: 
ॐ विनायकाय नम: 
ॐ रिद्धि-सिद्धिपतये नम: 
ॐ इभवक्त्राय नम: 
ॐ विघ्नेवश्वराय नम: 
ॐ गजवदनाय नम: 
सभी को प्रसाद वितरण कर स्वयं ग्रहण करें। 
कथा 
किसी समय शिव जी कैलाश पर्वत से भोगवती नमक स्थान के लिए गए। पार्वती जी ने अपने उबटन से एक मानवाकृति बनाकर द्वार पर रख उसे सजीव कर द्वार पर खड़ाकर किसी को प्रवेश न करने देने का निर्देश दिया और स्नान करने चली गईं। कुछ देर बाद  लौटे। गणेश जी ने उन्हें गृह में प्रवेश करने से रोका।  दोनों में विवाद और युद्ध हुआ। गणेश जी ने शौर्यपूर्वक युद्ध किया किंतु शिव जी ने त्रिशूल से उनका सर काट दिया।  क्रुद्ध शिव जी ने घर में प्रवेश किया। पार्वती जी ने उन्हें शांत करते हुए भोजन हेतु पूछा और तीन थालियाँ परोसी। शिव जी ने पूछा कि तीसरी थाली किसके लिए है, तब पार्वती जी ने गणेश जी के विषय में बताया। शिव जी ने पछताते हुए उन्हें पूरी बात बताई तो पार्वती जी द्वार की और दौड़ी गईं और पुत्र गणेश के शव को देखकर विलाप करने लगीं। शिव जी ने अपने गणों  दिया कि जिस नवजात की माँ उसकी ओर पीठ कर सो रही हो उसका सिर ले आएँ। गणों को एक हथिनी अपने शिशु की ओर पीठ किए दिखी, वे गजशिशु का सर काटकर ले आए। शिव जी ने उसे गणेश जी के धड़ पर लगाकर उनमें जीवन का संचार कर दिया। प्रसन्न पार्वती जी और शिव जी ने शिशु गणेश को चिरजीवी और जगज्जयी होने का वर दिया। 
***  


विमर्श गणेश चतुर्थी

विमर्श
गणेश चतुर्थी
*
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
***
संजीव
गणेश चौथ
२-९-२०१९
७९९९५५९६१८

क्षणिका कृपा

 क्षणिका: कृपा

😃
"कृपा चाहता हूँ"
न कहना कभी भी,
वरना नहीं तुम
रिहा हो सकोगे।
बहिन है 'कृपा'
इन जज साहिबा की
माँगा जो,
मुश्किल में
ज्यादा फँसोगे।
***
२.९.२०१८

विमर्श देवता

विमर्श 
देवता कौन हैं?
उत्तर-
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दर्जा सबसे अलग दे दिया
चार-चार शादी कर लें.
पा तालीम मजहबी खुद ही
अपनी बर्बादी वर लें.
अलस् सवेरे माइक गूँजे
रब की नींद हराम करें-
अपनी दुख्तर जिन्हें न देते
उनकी दुख्तर खुद ले लें.
फ़र्ज़ भूल दफ़्तर से भागें
कहें इबादत ही मजहब।
कट्टरता-आतंकवाद से
खुश हो सकता कैसे रब?
बिसरा दी
सूफी परंपरा
बदतर फतवे खाप से.
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
भारत माँ की जय से दूरी
दें न सलामी झंडे को.
दहशतगर्दों से डरते हैं
तोड़ न पाते डंडे को.
औरत को कहते जो जूती
दें तलाक जब जी चाहे-
मिटा रहे इतिहास समूचा
बजा सलामी गुंडे को.
रिश्ता नहीं अदब से बाकी
वे आदाब करें कैसे?
अपनों का ही सर कटवाते
देकर मुट्ठी भर पैसे।
शासन गोवध
नहीं रोकता
नहीं बचाता पाप से
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दो कानून बनाये हैं क्यों?
अलग उन्हें क्यों जानते?
उनकी बिटियों को बहुएँ
हम कहें नहीं क्यों मानते?
दिये जला, वे होली खेलें
हम न मनाते ईद कभी-
मिटें सभी अंतर से अंतर
ज़िद नहीं क्यों ठानते?
वे बसते पूरे भारत में
हम चलकर कश्मीर बसें।
गिले भुलाकर गले मिलें
हँसकर बाँहों में बाँध-गसें।
एक नहीं हम
नज़र मिलायें
कैसे अपने आपसे?
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
२-९-२०१५ 
(उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी द्वारा मुस्लिमों से भेदभाव की शिकायत पर)

विमर्श पशुबलि

विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबन्ध लगाते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतारा जाता है. इसके लिए पशुओं को असहनीय पीड़ा सहनी पड़ती है. न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है. न्यायालय ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है. प्रश्न यह है कि क्या केवल देव बलि के लिए अथवा मानव की उदर पूर्ति लिए भी? देवबली के नाम पर मारे जा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो माँसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?   
उक्त निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है कि हिन्दु मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आप सोचें और अपनी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुँचाएँ।
राज्य सरकारों ने गौ रक्षा के नाम पर मंत्रालय बनाकर अनेक गौशालाएँ खोल रखी हैं। गत वर्ष देख-रेख के अभाव में सैंकड़ों गायों के भूख में और बीमारी अथवा कीचड़  में फँसकर मरने के समाचार मिले थे। मानवाहार के लिए पशुबलि न हो और देखरेख के आभाव में मरकर उनका मांस सड़ता रहे, यह भी औचित्यहीन है। खाद्यान्न की कमी और मांस में प्रोटीन आदि की अधिकता को देखते हुए मांसाहार को पूरी तरह बंद करना तुरंत संभव नहीं है।अत:, संतुलित नीति आवश्यक है।

मुक्तक

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से
कहते सही उसूल है
*
२-९-२०१४

सितम्बर : कब-क्या?

सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस

२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस???

१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस

दोहा सलिला: यमक का रंग दोहा के संग-

दोहा सलिला:
एक दोहा
रश्मिरथी दिनकर नमन, रवि भास्कर मार्तण्ड
सूरज सूर्य दिनज नमन, लोहित भानु प्रचंड
*
यमक का रंग दोहा के संग-
.....नहीं द्वार का काम
संजीव 'सलिल'
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी, कहे जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी, अमिट जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रात अलार्म लगा रहे, जग जग पाए मीत
कितने बजे बजे न तय, हुई हार की जीत
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
*
चाँद देखता चाँद को, हवा-चाँदनी मौन
ठगे रह गये पूछते, किससे सुन्दर कौन?
*
आरक्षण सब चाहते, रहा न कोई छोड़
आ रक्षण कानून का, करें न नेता तोड़
*

मुक्तक, मुक्तिका: हाथ में हाथ रहे / मछलियाँ

मुक्तक
देखकर चलिए बुरा है यह जमाना
लगे ठोकर तो न औरों को बताना
दर्द बाँटेगा न कोई, हँसी होगी
बेहतर है चोट चुप सह मुस्कुराना
*
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
* *
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर, हिचकियाँ आईं..

धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
***

मुक्तिका
मछलियाँ
संजीव 'सलिल'
*
कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..

मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..

मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..

मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..

हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..
***
२.९.२०१०
***

बुधवार, 1 सितंबर 2021

पुरोवाक, मिथलेश बड़गैंया

पुरोवाक
नर्मदांचली गीत सलिला गई मथी : 'प्रेम की भागीरथी'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गीत का उद्भव
मानव ने अपने उद्भव काल से ही अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए ध्वनि को अपनाया। पशुओं-पक्षियों की बोलिओं को सुनकर उनका अनुकरणकर मनुष्य ने ध्वनि और लय को मिलाना ही नहीं सीखा अपितु इस माध्यम से अपनी अनुभूतियों को सुदूर मानव समूहों तक पहुँचाने का माध्यम भी बनाया। शेर की दहाड़, सर्प की फुफकार, नदी और झरने की कलकल, पंछियों का कलरव आदि ध्वनियों के साथ मनुष्य की विविध अनुभूतियाँ जुड़ती गईं। क्रमश: ध्वनियों को जोड़ने और पुनरावृत्ति करने (दोहराने) से प्राप्त लयात्मक आनंद ने गुनगुनाने, गाने और सुनाने के युग को जन्म दिया। ध्वनियों के साथ अर्थ संयुक्त होने पर सार्थक गीत ने जन्म लिया। शिकार युग में पशुओं की उपस्थिति की सूचना अपने साथियों और अन्य मानव समूहों तक पहुँचाकर उन्हें सतर्क करने, पशुपालन काल में भय को भगाने तथा कृषि युग में पंनछी उड़ने और अकेलापन मिटाने के लिए निरर्थक और सार्थक ध्वनियों को मानव ने अपनाया। बढ़ते सार्थक शब्द भंडार ने खेतिहरों और मजदूरों के आदिम लोकगीतों को जन्म दिया जो परिष्कृत होकर 'बम्बुलिया, सरगोड़ासनी' आदि के रूप में आज भी ग्राम्यांचलों में गाए जाते हैं। ऋतु परिवर्तन ने कजरी, राई आदि और पर्व-त्योहारों ने दीवारी, जस, भगतें आदि लोकगीतों को लोक कंठ में बसा दिया। जन्म, विवाह, मरण आदि से सोहर,जच्चा गीत, बन्ना-बन्नी, विदाई गीत आदि का प्रचलन हुआ। धार्मिक क्रियाओं ने आरती, भजन, प्रार्थना आदि का विकास किया।

हिंदी गीत

प्राकृत और अपभृंश की पीठिका पर विकसित खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) ने लोक में व्याप्त वाचिक परंपरा के साथ-साथ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत के छंदों का प्रयोग कर गीत परंपरा को आगे बढ़ाया। वीरगाथा काल में पराक्रमी नायकों के अतिरेकी शौर्य-वर्णन से भरे गाथा काव्यों, रासो आदि में गीत का रूप 'आल्हा' आदि में सीमित था। भक्ति काल में गीत को विषय और कथ्य की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण समृद्धता प्राप्त हुई। भक्त कवियों ने प्रार्थना, वंदना, भजन, स्तुति, जस, आरती, पद आदि की रचना की। ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी भावधाराओं ने, निर्गुण-और सगुण पंथों ने, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि उपासना पद्धतियों ने, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि पंथों ने अपने इष्ट और गुरुओं की प्रशंसा में गीत का बहुआयामी विकास किया। रीतिकाल में श्रृंगारपरक साहित्य को प्रधानता मिली और इस काल का गीत साहित्य भी लावण्यमयी नायिकाओं के नख-शिख वर्णन को अपना साध्य मान बैठा। लोकगीतों की धुनों और छंदों का विद्वानों ने अनुशीलन कर उनकी ध्वन्यात्मक आवृत्तियों और उच्चारों की गणना कर मात्रिक-वार्णिक छंदों में वर्गीकृत कर पिंगल (छंद शास्त्र) का विकास किया। गीत पहले या छंद? यह प्रश्न मुर्गी पहले या अंडा की तरह निरर्थक है। यह निर्विवाद है कि लयात्मक ध्वनियों की आवृत्ति पहले लोक में की गई। ध्वनियों के लघु-गुरु उच्चारों को 'मात्रा' और विशिष्ट मात्रा समूह को पिंगल में 'गण' कहा गया। 'मात्रा' और 'गण' की गणना ने छंद वर्गीकरण को जन्म दिया।

आधुनिक साहित्यिक गीत का विकास

आधुनिक काल में लोकभाषाओँ में व्याप्त गीतों के साथ-साथ शिक्षित साहित्यिक गीतकारों ने सामयिक परिस्थितियों, विडंबनाओं और विसंगतियों को भी गीत का कथ्य बनाना आरंभ किया। भाषा और शिक्षा का विकास होने पर अब रचनाकार पूर्व ध्वनियों का स्वानुकरण न कर किताबों में उन ध्वनियों के सूत्र देखकर रचने का प्रयास करता है। इस कारण 'आशुकवि' समाप्तप्राय हैं। अब गीत का रचनाकर्म 'स्वाभाविक' कम और 'गणितीय' या 'यांत्रिक' अधिक होने लगा है। इस कारण आनुभूतिक सघनता का ह्रास हो रहा है। आनुभूतिक सघनता कम होने से गीत में 'सरसता' कम और 'तार्किकता' अधिक होने लगी। 'भावना' को कम 'अनुभूति' को अधिक महत्व मिला। भावनात्मक उड़ान वायवी होने लगी तो 'दिल' की जगह 'दिमाग' ने ली और गीत के प्रति जनरुचि घटी। साहित्यिक मठाधीशी और अमरत्व की चाह ने गीत को 'आम' से काटकर 'ख़ास' से जोड़ने का कर गीत का अहित किया और तथाकथित प्रगतिवादियों ने गीत के मरने की घोषणा कर, गीतकारों को आत्मावलोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के पथ पर चलने की प्रेरणा देकर गीत को पुनर्जीवन दे दिया। लक्ष्य पाठकों / श्रोताओं को चिह्नित कर गीत को लोक गीत, बाल गीत, ग्राम्य गीत आदि विशेषण मिले तो कथ्य देखते हुए पर्व गीत, ऋतु गीत (सावन गीत, चैती गीत आदि), मौसमी गीत, सांध्य गीत आदि नाम दिए गए। उद्देश्य की भिन्नता ने गीत को आह्वान गीत, प्रयाण गीत, जागरण गीत, क्रांति गीत शीर्षकों से अलंकृत किया। रीति-रिवाजों ने गीत को सोहर गीत, बन्ना गीत, विवाह गीत, ज्योनार गीत, विदाई गीत आदि के रूप में सजाया-सँवारा। आकारिक भिन्नता को लेकर लंबा गीत, लघु गीत आदि नाम दिए गए। गीत में कथ्य और शिल्प में नवता के आग्रह ने 'गीत' को नवगीत' के विशेषण से अलंकृत कर दिया।

संस्कारधानी में आधुनिक गीतधारा

सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर से जुड़े गीतकारों की परंपरा में ठाकुर जगमोहन सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी, ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, केशवप्रसाद पाठक, ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, भवानीप्रसाद तिवारी, नर्मदाप्रसाद खरे, गोविंदप्रसाद तिवारी, माणिकलाल चौरसिया 'मुसाफिर', रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', डॉ. चंद्रप्रकाश वर्मा, जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', श्रीबाल पाण्डे, इंद्रबहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, सुमन कुमार नेमा 'राजीव', राजकुमार 'सुमित्र', राजेंद्र 'ऋषि', ब्रजेश माधव, मनोरमा तिवारी, श्याम श्रीवास्तव, कृष्णकुमार चौरसिया 'पथिक', धर्मदत्त शुक्ल व्यथित, आचार्य भागवत दुबे, जय प्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', गोपालकृष्ण चौरसिया मधुर', अंबर प्रियदर्शी, साधना उपाध्याय, डॉ. अनामिका तिवारी, उदयभानु तिवारी 'मधुकर', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', मनोहर चौबे आकाश, अभय तिवारी, सोहन परोहा, आशुतोष 'असर', बसंत शर्मा, मिथलेश बड़गैया, अविनाश ब्यौहार, विनीता श्रीवास्तव, रानू राठौड़ 'रूही', छाया सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं।

गीत नर्मदा निनादित

नर्मदांचल में 'गीत' को 'गीत' मानकर ही रचा गया है। 'नवगीत' आंदोलन को इस अंचल ने नहीं अपनाया। शहडोल से लेकर खंडवा-खरगोन तक गीत में नर्मदा का कलकल निनाद ही निरंतर गुंजित होता रहा है। कटनी में राम सेंगर जी के मार्गदर्शन में आनंद तिवारी, राजा अवस्थी, रामकिशोर दाहिया तथा सतना में भोलानाथ ने नवगीत को पल्लवित करने का प्रयास किया पर वह सीमित दायरे में ही रहा। जबलपुर में विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के तत्वावधान में गीत-नवगीत के विवाद को दरकिनार कर समन्वय का प्रयास अपेक्षाकृत अधिक सफल रहा। संजीव वर्मा 'सलिल', जयप्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश 'तन्मय', बसंत शर्मा, अविनाश ब्यौहार, विजय बागरी, मिथलेश बड़गैया, अखिलेश खरे, विनीता श्रीवास्तव, छाया सक्सेना, राजकुमार महोबिया, हरिसहाय पांडे  आदि ने गीत को गीतात्मकता के साथ स्वीकार करते हुए गीत में ही नवगीतीय तत्वों को अपनी शैली की तरह समाहित कर लिया। अविनाथ ब्योहार लघु गीतों की अपनी भिन्न शैली विकसित करने हेतु प्रयासरत हैं। संजीव वर्मा 'सलिल' ने नवगीतीय रचनाओं में बुंदेली शब्दावली, बुंदेली लोकगीतों (फाग, आल्हा, कजरी, राई आदि) का सम्मिश्रण करने के अनेक अभिनव प्रयोग किये जिनमें आगे कार्य करने की पर्याप्त सम्भावना है।

मिथलेश के लिए गीत साहित्य की विधा मात्र नहीं अपितु मनोभावों के प्रगटीकरण का माध्यम भी है। उन्हें गीतों के सान्निध्य में रक्त संचार बढ़ता सा लगता है जो ह्रदय गति तीव्र कर देता है-

मन के कोरे पृष्ठों पर गीतों की प्यास लिखें
शब्द-शब्द रस छंद भाव सुरभित अनुप्रास लिखें
जिन गीतों को पढ़कर दिल की धड़कन रोज बढ़ी
जिन गीतों को पढ़कर मन में मूरत एक गढ़ी
उन गीतों में गुँथे हुए पावन अनुप्रास लिखें

'प्रेम की भगीरथी'

'प्रेम की भगीरथी' अभियान जबलपुर की उपाध्यक्ष, कोकिलकंठी गीतकार, नवाचारी शिक्षिका मिथलेश बड़गैया का प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है। मिथलेश को अन्य रसों की तुलना में श्रृंगार रस अधिक प्रिय है। इस संक्रमण काल में जब विघटनकारी और विनाशकारी शक्तियाँ सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को तोड़ रही हैं, जब स्त्री विमर्श के नाम पर बदन दिखाऊ कपड़ों और एकाधिक अथवा विवाहपूर्व दैहिक संबंधों को तथाकथित प्रगतिशीलता का पर्याय समझकर गीत रचा जा रहा है, तब गीतों में पत्नी द्वारा पति को प्रेमी की तरह और पति द्वारा पत्नी को प्रेमिका की तरह चाहने की पावन भावना नव पीढ़ी को संयमित-संस्कारित करने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकती है। इन गीतों में श्रृंगार के दोनों रूप मिलन और विरह का मर्यादित, शालीन और रुचिकर शब्दांकन कर सकना कवयित्री की सामर्थ्य का परिचायक है।

राधा ने मन के दर्पण पर राधेश्याम लिखा
फिर आँखों के काजल से उस पर घनश्याम लिखा
*
ओ मेरे परदेसी प्रियतम! तुम कब आओगे?
प्रेम सुधा बरसाकर तुम कब धीर बँधाओगे?
सूख गयी मेरे अन्तस् की रसवंती सरिता
फूलोंवाली क्यारी सूखी, रोती है कविता
उमड़-घुमड़ आकर कब मेरी प्यास बुझाओगे?
*
आते ही मधुमासी मौसम, सुरभित वसुंधरा नभ दिगंत
वासंती सुषमा की छवियाँ, अद्भुत आकर्षक कलावंत
कलियों को मधुकर चूम रहे, षोडशी धरा मुस्काती है
मधुप्रीत धरा छलकाती है
*
शब्द गुणों के फूल खिले हैं, अर्थों की क्यारी-क्यारी
संधि-समासों से अभिसिंचित कथ्य भाव की फुलवारी
शब्द आज माधुर्य बिखेरें काव्य धरा के सिंचन में
गीत सुंदरी धीरे-धीरे उतरी मन के आँगन में
*

प्रेम की भागीरथी में ऐसी अनेक प्रांजल अभिव्यक्तियाँ पाठक के मन को स्पर्श कर प्रफुल्लित करने में समर्थ हैं। समयाभाव और अर्थाभाव के कारण मुरझाए और तनावग्रस्त चेहरों से त्रस्त इस समय के अधरों पर ऐसे गीत, ग्रीष्म की लू के बीच शीतल मलयजी बयार के झोंके की तरह रसानंद की जयकार गुँजाते हुए पाठक / श्रोता के चेहरे पर सुख की प्रतीति अंकित करने में समर्थ हैं। इन गीतों को पढ़कर शालेय छात्र अपना शब्द भंडार और शब्द प्रयोग सामर्थ्य में अभिवृद्धि कर समृद्ध हो सकते हैं। 

विरह श्रृंगार के गीतों में अन्तर्निहित करुणा और पीड़ा का शब्द चित्रण किसी भी गीतकार की कसौटी है। मिथलेश के गीत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। इनमें 'मैं तो राम विरह की मारी / मेरी मुँदरी हो गई कंगना' जैसी नाटकीयता या अतिशयोक्ति न होकर स्वाभाविकता तथा यथार्थपरकता अधिक है-

चार दिनों का साथ हमारा राहें बदल गईं
चार दिनों में दिल की सारी हसरत निकल गई
साथ निभाने में मैं-तुम, दोनों नाकाम लिखें
विरह वेदना की पाती कब तक अविराम लिखें

देश के सीमा की रक्षा कर रहे सैनिक की अपनी पत्नी के नाम पाती में प्यार और त्याग के गंगो-जमुनी रंग इस तरह मिले हैं कि वाह और आह एक साथ ही निकाले बिना रहा नहीं जाता-

सुधियों के जंगल में खोकर, कभी न अश्रु बहाना तुम
नित मेरा प्रतिरूप देखकर, अपना मन बहलाना तुम

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की कार्यशालाओं में निरंतर छंदों का अध्ययन, गीतों का सृजन व पाठनकर मिथलेश ने कथ्य की अभिव्यक्ति, शब्द के सम्यक प्रयोग और 'लय' को साधने का प्रयास किया है। सतत सीखने की प्रवृत्ति ने उनके लेखन को दिशा, गति और धार दी है। स्वास्थ्य प्रणीत बाधाओं के बाद भी वे निरंतर कुछ नया सीखने के लिए तत्पर रही हैं। वे सम-सामायिक वर्तमान को गतागत के मध्य सेतु स्थापना के लिए प्रयोग करती हैं। उनके गीतों में परंपरा के प्रति आग्रह तो है किंतु वह परिवर्तन की राह में बाधक नहीं, अपितु साधक होते हुए भी परिवर्तन को बेलगाम और दिशाहीन होने से बचाने के लिए सहायक है।

देवार्चन की सनातन परंपरा का निर्वहन विघ्नेश्वर गणेश, बुद्धिदात्री सरस्वती, भारत माता तथा मध्य प्रदेश की माटी की वंदना कर किया गया है। लोकगीत शैली में देवी गीत मन भाता है। स्पष्ट है कि गीतकार किसी एक इष्ट और वैचारिक प्रतिबद्धता की संकीर्ण विचारधारा में कैद न रहकर सर्व धर्म समभाव के औदार्य पथ का पथिक है।  

राष्ट्र के प्रति प्रेम, समर्पण और बलिदान की भावनाओं से पूरित प्रेरणा गीत, आह्वान गीत आदि इस संग्रह को बहुरंगी बनाते हैं। ऐसे गीतों में समसामयिक परिस्थजियों का चित्रण स्वाभाविक, सहज और संतुलित है।

मर्यादाएँ ध्वस्त हो रहीं, फिर धरती पर आओ राम!
मूल्यों का उत्थान करो फिर धर्मध्वजा फहराओ राम!

इस गीत में नारी के सम्मान , समाज में बढ़ती वासना वृत्ति, अहंकारी सत्ता, वृद्धों को आश्रम पहुँचाती पीढ़ी आदि पर चिंता व्यक्त करती कवयित्री शबरी की निष्काम भक्ति और मूल्यों के नवोत्थान हेतु प्रार्थना कर रचना को समाजोपयोगी बना देती है।

नवपीढ़ी का आह्वान करते हुए आघात सहने, सूर्य से अनुशासन का पाठ पढ़ने तथा दीपक की तरह जलने की सीख समाहित है-

हर पत्थर की अपनी किस्मत, हर प्रयत्न का अपना लेखा
शिल्पकार की छेनी ने तो सबको परखा, सबको देखा
मंदिर की मूरत बनने को, चोट हजारों सहना होगा।
*
कैसा भी हो गहन अँधेरा, रथ सूरज का रोक न पाता
दुश्मन हो मजबूत भले ही, दृढ़ता सम्मुख झुक जाता
कोरोना पर मानवता की होनेवाली जीत बड़ी है

इन गीतों में तत्सम (संस्कृत से ज्यों के त्यों लिए गए शब्द - स्वप्न, अमिय, नर्मदा, ध्वस्त, निष्प्राण, निष्काम, दर्प, कुंदन, उन्नत, श्रम सीकर, झंकृत, माधुर्य, दर्शन, दर्पण, निर्मल, शर्वाणी, उत्कर्ष, तव, दुर्बुद्धि, जिह्वा, चर्या, आदि), तद्भव (संस्कृत शब्दों से उत्पन्न शब्द - बिसरा, माटी, परस, सूखी, मूरत, मृत्यु, अगन, सनीचर, सपना, सावन, मूरत, आदि), देशज या ग्राम्य (खों, सेंदुर, कबहुँ, देवन, भक्तन, बिलानी आदि) ही नहीं हिन्दीतर विदेशी भाषाओँ फ़ारसी (कागज, खुशहाल, दस्तावेज, बुनियाद, मौत, रोशन आदि), अरबी (कदम, किस्मत, खंजर, तूफान, नजर, फ़ौज आदि), अंग्रेजी (मैडम, मम्मी, मोबाइल, पापा, विडिओ, टीचर, डिजिटल आदि) के शब्दों का भी प्रयोग यथास्थान किया गया है। विदेशी शब्दों का प्रयोग करते समय कहीं-कहीं हिंदी की आवश्यकतानुसार रूपांतरण भी किया गया है। यथा - अरबी - (कर्ज से कर्जा, मुआफ से माफ़, ), फ़ारसी (दरख्वास्त से दरखास्त)। हिन्दीतर भारतीय भाषा-बोलिओं के शब्दों की अनुपस्थिति खलती है। न जाने क्यों हिंदी साहित्यकार विदेशी शब्दों और काव्य-विधाओं (हाइकु, सॉनेटम आदि) को तो आत्मसात कर लेते हैं पर हिन्दीतर भारतीय भाषा-बोलिओं के शब्दों व काव्य-विधाओं से दूर रहे आते हैं? संभवत: इसका कारण शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम है।  

गीतों में आनुप्रासिक माधुर्य वृद्धि के लिए मिथलेश ने पारंपरिक शब्द युग्मों (चरण-शरण, रिद्धि-सिद्धि, पुरुष-प्रकृति, सांझ-सवेरे, लड्डू-पेड़ा, रस-छंद, मैं-तुम, आरोहों-अवरोहों, प्रीति-रीति, बुद्धि-बल, राम-नाम, जन-धन, मात-पिता, छल-छंदों, उमड़-घुमड़, तन-मन, यति-गति,चाँद-सितारे, चकवा-चकवी, रूखी-सुखी, श्रम-सीकर, यति-गति, माया-जाल, छल-छंदों, निश-दिन, पल-छिन, हरी-भरी, मेल-जोल आदि) का प्रयोग करने के साथ-साथ कुछ नए शब्द-युग्म (फागुन-मधुमास, हास-विहास, प्रणय-पीर, संधि-समासों, नीरस-नीरव, भाव-व्यंजना, सरल-सरस आदि) भी गढ़े हैं। इन शब्द युग्मों के अनेक प्रकार हैं। इनमें मानवीय रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज, प्रकृति के घटनाक्रम, मौसम, पशु-पक्षी, काव्य शास्त्र के तत्व, प्रभु नाम आदि का प्रयोग होता है। कभी प्रथमार्ध अर्थमय है, कभी उत्तरार्ध और कभी दोनों। शब्द युग्म आनुप्रासिकता में वृद्धि करने के साथ-साथ भावार्थ से अनकहा भी कह जाते हैं और अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी बनाते हैं।

शब्दावृत्ति (नित-नित, बलि-बलि, शब्द-शब्द, डगमग-डगमग, गली-गली, रो-रो, कण-कण, गीला-गीला, नजर-नजर, दफ्तर-दफ्तर, देख-देख, धीरे-धीरे, क्यारी-क्यारी, रुनझुन-रुनझुन, श्वास-श्वास, राम-राम, मरी-मरी, खरी-खरी, डरी-डरी, भरी-भरी आदि) का प्रयोग किसी बात पर बल देने के साथ-साथ आलंकारिकता और गेयता की वृद्धि हेतु किया जाता है। जब काव्य पंक्ति में किसी शब्द की पुनः उक्ति (दोबारा कथन) समान अर्थ में हो तो वहाँ पुनरुक्ति अलंकार होता है। जैसे 'भाई-भाई को लड़वाकर / उनका अन्न पचे', 'कदम-कदम पर अँधियारे के / अजगर डेरा डाले', 'विरह अग्नि में तिल-तिल जलती / सीता की मृदु काया है' आदि।

अनुप्रास अलंकार मिथिलेश को विशेष प्रिय है। उन्होंने अनुप्रास अलंकार के सभी प्रकारों छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास, अन्त्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास का प्रयोग सहजता के साथ किया है। एक-एक उदाहरण देखें-

छेकानुप्रास - क, म, स तथा अ की आवृत्ति
मन के मधुरिम गीत निहारें, ह्रदय-कंत का साँझ-सकारे।
आकुल कितनी अभिलाषाएँ, आज खड़ी हैं बाँह पसारे।।

वृत्यानुप्रास - न की आवृत्ति
नियति नटी नूतन श्रृंगारित

अन्त्यानुप्रास -
कुंदन बनने हेतु कनक को अंगारों पर तपना होगा
शिखर कलश बनने से पहले बुनियादों में खपना होगा

श्रुत्यानुप्रास - एक वर्ग के वर्णों की आवृत्ति
नित्य नदी की तरह जिंदगी / तूफानों से टकराती

लाटानुप्रास - शब्द / शब्द समूह की आवृत्ति
अग्नि परीक्षा देकर सीता / सीता मैया कहलाती है

गीत पंक्तियों में मुहावरों का सार्थक प्रयोग गीत के लालित्य और चारुत्व की वृद्धि करता है। मिथलेश ने मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है -

होंगे पीले हाथ / किस तरह / चिंता हुई सनीचर 
रूखी-सूखी / खाकर मुनिया / कंधों तक हो आई 
पति-पत्नी के बीच बनी जो, खाई कभी न पट पाई   
एक बार धुलते ही उतरी  / सारे रिश्तों की रंगत 
विपदाएँ ही आज मनुज के / सर पर चादर तान रही हैं 

सामाजिक विसंगतियाँ मिथलेश के गीतों के केंद्र में हैं। नवगीतीय शिल्प की सभी रचनाओं में विडंबनाओं, अन्यायो तथा कुरीतियों के प्रति उनका आक्रोश छलकता है- 

तन से तो उजले दिखते हैं 
लेकिन मन के काले। 
कदम-कदम पर अँधियारे के 
अजगर डेरा डाले।।
*
लच्छेदार भाषणों से अब 
जनता ऊब गई। 
जुमलेबाजी सच्चाई की 
इज्जत लूट गई।.  
पाँच वर्ष झूठे किस्सों की 
लंबी फसल पकी। 
मौलिक अधिकारों को मन की 
बातों की थपकी। 
रहत सामग्री की गाड़ी 
असमय छूट गई। 
*
बहती नदी 
योजनाओं की  
जाने कहाँ बिलानी?
कहाँ दबी है 
कर्जा माफी की  
दरखास्त पुरानी?
तीन पीढ़ियों 
का उधार है   
दुखीराम के सर पर 
*
पकी फसल कट जाने पर भी 
कृषक नहीं मुसकाता है 
साहूकारों की नजरों को 
देख-देख डर जाता है 
उसकी किस्मत घाम लिखे या
हाड़ कँपाता शीत लिखे 
*
चारों ओर बिछी है चौसर 
छल-स्वारथ के पाँसे 
अपनों से ही मिली यातना 
कदम-कदम पर झाँसे
लाश भरोसे की भारी है 
काँधा कौन लगाए?
*
कब तक भेदभाव की खाई 
खोदेगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?
नहीं सुरक्षित आज द्रौपदी 
गली-गली में हैं दु:शासन। 
मासूमों को मिली यातना 
हिला नहीं है दिल्ली-आसन 
कब तक कुंभकरण की नींदें 
सोएगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?

मिथलेश देख पाती हैं कि 'राजनीति जननीति नहीं है / कूटनीति है, घोटाला है।' उन्हें विदित है कि 'दीवारों में चुना गया है / बूँद-बूँद श्रम-सीकर।' वे कल से आज तक का अवलोकन कर कहती हैं - 'देवों को हमने मरने की / निष्ठुर सजा सुना दी।' 

नवगीत के तथाकथित मठाधीशी गीतधारा से नर्मदांचल के नवगीतकारों की गीतधारा में भिन्नता कथ्य को लेकर है। नर्मदांचली नवगीतकार कथ्य में सकारात्मकता को महत्व देता है, पारंपरिक नवगीतकार नहीं केवल नकारात्मकता का चित्रण करता है। वह सामाजिक विसंगतियों, पारिवारिक त्रासदियों और व्यक्तिगत कडुवाहट के पिंजरे में नवगीत को कैद रखता है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान से जुड़े सभी गीतकार साहित्य में सबका हित समाहित मानते हुए समाज और व्यक्ति में सकारात्मकता की स्थापना को आवश्यक मानते हैं। मिथलेश के गीतों-नवगीतों में राष्ट्रीयता, मानवता, सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों के प्रति सजगता बरती गई है। वे विसंगति का संकेत संगति की महत्ता बताने के लिए करती हैं। वे पूछती हैं 'विरह वेदना की पाती कब तक अविराम लिखें?' यह प्रश्न व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत है। 

द्वापर की घटनाओं को वर्तमान प्रसंगों से जोड़ते हुए वे विवशतावश अन्यायकर्ताओं की जयकार बोलनेवालों की आँखों में भी आँसू पाती हैं- 'दुर्योधन-दु:शासन की है  / जग में जय जयकार / और द्रौपदी के हिस्से में / लाज और प्रतिकार / राजसभा की झुकी हुई हैं / आँखें भरी-भरी।' मिथलेश के लिए गीत मनोरंजन का माध्यम नहीं, सृजन की साधना है - 'साधना के पंथ में, हर गीत है हमराह मेरा।' उनकी  गीत साधना का लक्ष्य 'वेदों की वाणी उच्चारें, अंतर्मन को संत करें' है, आगे वे कहती हैं- 

'अगर लेखनी थमी है तो, उसका कर्ज चुकाएँ हम 
व्यथा-कथा उद्घाटित करने, कवि का धर्म निभाएँ हम' 

क्या कवि का धर्म केवल व्यथा-कथा का उद्घाटन है? मिथलेश ऐसा नहीं मानतीं। उनके अनुसार -

'अपने हाथों / अपनी किस्मत / गढ़ना सीख / रही हूँ मैं। 
धीरे-धीरे / बिना सहारे / चलना सीख।  रही हूँ मैं।' 

क्या इसका आशय यह है कि कविकर्म का उद्देश्य केवल अपना विकास करना है?  इस प्रश्न का उत्तर है -

'जिंदगी से अब मुखर संवाद होना चाहिए 
प्रेम का पर्यावरण आबाद होना चाहिए'

बात को अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ -

सूर्य नहीं तो दीपक बनकर / जग में उजियारा भरना है' 

यह होगा कैसे? इस प्रश्न का उत्तर मिथलेश स्वयं ही अन्यत्र देती हैं-  

'मन का पंछी माँग रहा है / पिंजरे से आजादी' 

प्रतिबंधों के पक्षधरों से मिथलेश का सवाल है - 

'पंछी नदिया और हवा को / सीमाएँ कब टोका करतीं?  
दुनिया  भर की रस्में-कसमें / पथिकों को क्यों रोका करतीं?'

गीतकार के लिए प्रश्न ही उत्तर पाने माध्यम हैं -

'कब तक भेदभाव की खाई / खोदेगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?' 

तथा 'कर्तव्यों की सही राह अब / कौन इन्हें दिखलाए?'

गीत रचना का उद्देश्य 'करें पराजित अवसादों को / जीवन गीत सुनाएँ हम' है। यहीं मिथलेश की विचार सरणि तथाकथित नवगीतीय नकारात्मकता को नकार कर सकारात्मकता का वरण कर परिवर्तन हेतु आह्वान करती है -

'दौर अब भी है / अनय की आँधियों का 
साथ मिलकर /  न्याय का डंका बजाओ ....
....कुंडली अपनी / लिखो पुरुषार्थ श्रम से....
....हौसलों की थामकर / पतवार कर में 
आज हर तूफ़ान से आँखें मिलाओ' 

यह तेवर विसंगतिवादी नवगीतकारों में खोजे से भी नहीं मिलता। इस तेवर के बिना नवगीत आंदोलन ही लक्ष्यविहीन हो जाता है। गीत-आंदोलन को उद्देश्यपरकता से जोड़ते हुए मिथलेश ने राष्ट्रीय भावधारापरक गीतों को भी संग्रह में प्रतिष्ठित किया है। देश के प्रति त्याग-बलिदान और समर्पण करनेवाली विभूतियों और शहीदों  गीतों की रचना कर मिथलेश ने नई पीढ़ी के लिए प्रकाश स्तंभ खड़े किए हैं। उनका लक्ष्य बिलकुल स्पष्ट है - 

धाराएँ विपरीत समय की / फिर भी धरा संग बहना है 
अपना देश बचाना हमको / अपने ही घर में रहना है 

वे जानती हैं कि सारस्वत अनुष्ठाओं से शिक्षित-दीक्षित भावी पीढ़ी, राजनैतिक कलुष को धोकर राष्ट्रीयता को मानवता का पर्याय बनते हुए वैश्विकता का भला कर सकेगी। इसीलिए पूरे आत्मविश्वास के साथ मिथलेश का गीतकार घोषणा करता है - 'भारत के उन्नत ललाट पर विजय तिलक लगने वाला है।'

मुझे विश्वास है कि नर्मदा के कलकल निनाद की तरह लयात्मकता और निष्कलुषता से सपन्न इन गीतों-नवगीतों को पाठक न केवल पढ़ेंगे अपितु उनके कथ्य को ग्रहणकर बेहतर भारत और मानव समाज बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे। मैं मिथलेश के उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त हूँ। 
२०-८-२०२१ 
जबलपुर 
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