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बुधवार, 9 सितंबर 2020

मुकुटबिहारी सरोज के दो नवगीत

श्रद्धेय मुकुटबिहारी सरोज के दो नवगीत
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* एक *
सचमुच बहुत देर तक सोये ।
इधर यहाँ से
उधर वहाँ तक ।
धूप चढ़ गयी
कहाँ कहाँ तक ।
लोगों ने सींची फुलवारी
तुमने अब तक बीज न बोये
दुनिया
जगा-जगा कर हारी ।
ऐसी
कैसी नींद तुम्हारी ।
लोगों की भर चुकीं उड़ानें
तुमने सब संकल्प डुबोये ।
जिनको
कल की फ़िक्र नहीं है ।
उनका
आगे ज़िक्र नहीं है ।
लोगों के इतिहास बन गये
तुमने सब सम्बोधन खोये ।
सचमुच बहुत देर तक सोये ।
.........
* दो *
मेरी कुछ आदत ख़राब है ।
कोई दूरी मुझसे नहीं सही जाती है
मुँह देखे की मुझसे नहीं कही जाती है
मैं कैसे उनसे प्रणाम के रिश्ते जोडूं
जिनकी नाव पराये घाट बही जाती है
मैं तो खूब खुलासा रहने का आदी हूँ
उनकी बात अलग
जिनके मुँह पर नक़ाब है ।
है मुझको मालूम हवाएं ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवाएं ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण ग़लत होते जाते हैं
शायद युग की नयी ऋचाएँ ठीक नहीं हैं
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वह किताब भी
क्या कोई अच्छी किताब है ।
वैसे जो सबके उसूल, मेरे उसूल हैं
लेकिन,ऐसे नहीं कि जो बिल्कुल फ़िज़ूल हैं
तय है,ऐसी हालत में कुछ घाटे होंगे
लेकिन,ऐसे सब घाटे मुझको क़ुबूल हैं
मैं,ऐसे लोगों का साथ न दे पाऊँगा
जिनके ख़ाते अलग
अलग जिनका हिसाब है ।
मेरी कुछ आदत ख़राब है ।
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किनारे के पेड़ नामक काव्य संकलन से
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