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सोमवार, 9 अगस्त 2010

दोहा सलिला: दिल के संग दोहा के रँग: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दिल के संग दोहा के रँग:
संजीव 'सलिल'
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दिल ने दिल में झाँककर, दिल का कर दीदार.
दिलवर से हँसकर कहा- 'मैं कुरबां सरकार'.

दिल ने दिल को दिल दिया, दिल में दिल को देख.
दिल ही दिल में दिल करे, दिल दिलवर का लेख.

दिल से दिल मिल गया तो, बढ़ी दिलों में  प्रीत.
बिल देखा दिल फट गया, लगती प्रीत कुरीत..

बेदिल से दिल कहा रहा, खुशनसीब हैं आप.
दिल का दर्द न पालते, लगे न दिल को शाप..

दिल तोड़ा दिल फेंककर, लगा लिया दिल व्यर्थ.
सार्थक दिल मिलना तभी, जेब भरे जब अर्थ..

दिल में बस, दिल में बसा, देख जरा संसार.
तब असार में सार लख, जीवन बने बहार..

दिल की दिल में रह गयी, क्यों बतलाये कौन?
दिल ने दिल में झाँककर, 'सलिल' रख लिया मौन..

दिल से दिल ने बात की, अक्सर पर बेबात.
दिल में दिल ने घर किया, ले-देकर सौगात..

दिल डोला दिल ने लिया, आगे बढ़कर थाम.
दिल डूबा दिल ने दिया, 'सलिल' प्रीत-पैगाम..

लगे न दिल में बात जो, उसका कहना व्यर्थ.
दिल में चुभती बात जो, दिल ही समझे अर्थ..

दिल लेकर दिल दे दिया, 'सलिल' किया व्यापार.
प्रीत परायी के लिये, दिल अपना बेज़ार.


दिल को चीरे चिकित्सक, कहीं न पाये प्रीत.
प्रीत करे अनुभव वही, जिसके दिल में प्रीत..


दिल धडके सुर-ताल में, श्वास बने संगीत.
बहर भंग हो तो 'सलिल', दिल का चैन अतीत..


दिल टूटे खुद ना जुड़े, जोड़े यदि शल्यज्ञ.
हो न पूर्व सा फिर कभी, दिल अभिज्ञ या भिज्ञ..


जिसका दिल सचमुच बड़ा, वही बड़ा इन्सान.
दिल छोटा तो धनपति, दीन- कहें मतिमान..


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